योगिनीतन्त्र पटल ६
योगिनीतन्त्र पटल ६ में दिव्य भाव
और वीर भाव नामक दो योगों का वर्णन है।
योगिनीतन्त्र पटल ६
Yogini tantra patal 6
योगिनीतन्त्रम् षष्ठः पटलः
योगिनी तन्त्र षष्ठ पटल
योगिनी तंत्र छटवां पटल
योगिनीतन्त्रम्
श्रीदेव्युवाच ।
भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्वागमविशारद ।
गुरुत्वं सर्वमन्त्राणां
करुणामृतसागर ॥ १ ॥
श्रीदेवीजी ने कहा- हे सर्वधर्मज्ञ
सर्वागम विशारद भगवन् ! हे करुणा-सागर ! आप सब मंत्रों के गुरु हैं ॥ १ ॥
सर्वधर्मकृतां पूज्य
योगिह+पद्मभास्कर ।
दिव्यभावो वीरभावो महत्त्वेन
प्रदर्शित ।
गोप्यं तत्र विशेषेण वद मे
चन्द्रशेखर ॥ २॥
आपने सर्व साधन किये हैं,
योगियोंके हृदयरूप कमलके आप सूर्यके समान प्रफुल्ल करनेवाले हैं,
आपने ही दिव्यभाव और वीर भाव दिखाया है। हे चन्द्रशेखर! अब उसका विशेषरूपसे गोप्य वर्णन कीजिये ॥ २ ॥
ईश्वर उवाच ।
दिव्यवीर विभेदेन योगोद्वौतु
समीरितौ ।
योगो ह्यभवत्कल दिव्यवीरो महेश्वरि
॥ ३॥
ईश्वर बोले कि - दिव्य और वीर भेद से
योग दो प्रकार का है, हे महेश्वरि !
योगही दिव्य वीर और कौल कहाता है ॥ ३ ॥
तद्योगं हि विना देवि यस्तत्कर्म
समाचरेत् ।
न स योगी भवेद्देवि मुमुक्षुः
कुलकामिनि ॥ ४ ॥
तावच्च ते प्रवक्ष्यामि श्रुत्वा
कर्णेऽवतंसय ।
आत्मानं परमं ब्रह्म चिन्तयेदथ वा न
चेत् ॥ ५ ॥
आत्मदेहं स्वष्टरूपं सदैव
परिचिन्तयेत् ।
ब्रह्माण्डञ्च तथा सर्व स्वरूपेण
विभावयेत् ॥ ६ ॥
हे देवि ! उस योग के विना जो उस
कर्मका आचरण करता है वह मुमुक्षु योगी नहीं होता है। हे कुलकामिनि ! मैं वह सब
तुमसे कहता हूं सो सुनकर उसको कर्णभूषण करो । आत्माकी परब्रह्मरूप में चिन्ता करे
अथवा आत्मदेह ही इष्टरूप है, इस प्रकार
निरन्तर चिन्ता करे और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इष्टरूप है; ऐसी
भावना करनी चाहिये॥४-६॥
दिव्ययोगमिमं देवि सावधानेन गोपय ।
वीरयोगं शृणुष्वेमं
सर्वदेवनमस्कृतम् ॥ ७ ॥
बिन्दुत्रयं कलाक्रान्तं प्रथमं
परिचिन्तयेत् ।
तत्तस्माद्भावये जातं स्त्रीरूपं
षोडशाब्दिकम् ॥ ८ ॥
हे देवि ! वही दिव्य योग है,
तुम इसे सावधानी से गुप्त रखना है परमेश्वरि । सर्वदेवनमस्कृत यह
वीरयोग सुनो। प्रथम कलायुक्त तीन बिन्दुकी चिन्ता करे फिर उससे षोडशवर्षीय
स्त्रीरूप की भावना करे ॥ ७ - ८ ॥
बालार्क कोटिसुज्योतिः
प्रकाशितदिगन्तरम् ।
मूर्द्धादिस्तनपर्यन्तमूर्ध्वबिन्दोः
समुद्भवम् ॥ ९ ॥
इस स्त्री के करोड बाल सूर्य के
समान ज्योतिर्मण्डल से दिग् मण्डल प्रकाशित हुआ है, मूर्द्धादि स्तनपर्यन्त ऊर्ध्वविन्दु से यह ज्योतिः प्रकाशित होती है ॥ ९
॥
बिन्दुर्यावन्मध्यदेहं
कण्ठादिकीटशीर्षकैः ।
स्तनद्वयेन भासन्तं
त्रिवलीपरिमण्डितम् ॥ १० ॥
उसका मध्य देह ही मध्य बिन्दु है,
वह कण्ठ से कमर के ऊर्ध्व भाग पर्यन्त है यह दोनों स्तन के भाग में
दीप्तिमान् और त्रिवलीसे शोभित है ॥ १० ॥
योन्यादिकं च पादान्तं
कामन्तत्परिचिन्तयेत् ॥ ११ ॥
अनन्तर योनि आदि पादान्त पर्यन्तकी
एकाग्र चित्तसे चिन्ता करे ॥ ११॥
नानालङ्कारभूषाढचं
विष्णुब्रह्मशवन्दितम् ।
एवं कामकलारूपं आत्मदेहं
विचिन्तयेत् ॥ १२ ॥
यह स्त्री अनेक प्रकारके आभूषण धारण
किये हुये और ब्रह्मा विष्णु महेश्वर से वंदित है, आत्मदेहकी इसप्रकार कामकलारूपमें चिंता करे ॥ १२॥
सदैव परमेशानि वीरयोगमिमं शृणु ।
संक्षेपात्कथयिष्यामि
तयोराचारमुत्तमम् ॥ १३ ॥
हे परमेशानि ! यही बीरयोग है । अब
संक्षेपसे इन दोनोंका उत्तम आचार कहता हूं सुनो ॥ १३ ॥
मद्यं मांसं तथा मत्स्यं मुद्रा
मैथुनमेव च ।
इदमाचरणं देवि पशोनों दिव्यवीरयोः ॥
१४ ॥
मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन,
यह आचार पशुभावका है, दिव्य और बीर भावका नहीं
है ॥ १४ ॥
स देवाचारवान्भूयाद्दिव्यो वीरो
महेश्वरि ।
यदि देवान्महेशानि मद्यादि न च
लभ्यते ॥ १५ ॥
हे महेश्वरि ! दिव्ययोगी और वीरयोगी
देवाचारवान् होगा । हे महेशानि! यदि किसी दिन देवयोगसे मद्य न मिले ॥। १५ ।।
यस्मिन्नहनि देवेशि तथात्मानं तु
भावये ।
तथापि न हि तत्याज्यमिदमाचमनं शिवे
॥ १६ ॥
हे देवेशि ! जो आत्माकी तदादिरूप
(भाव) में भावना करे, तथापि आचमनका त्याग
न करे ॥ १६ ॥
महामद्यं विना कौलः क्षणादूर्ध्वं न
तिष्ठति ।
तस्मान्मद्यादिकं देवि सेवितव्यं
दिने दिने ॥ १७ ॥
महामद्य बिना कौल क्षण भर भी
अवस्थित नहीं होता । हे देवि इस कारण प्रतिदिन मद्यादि की सेवा करे॥१७॥
अनुष्ठान विधि वक्ष्ये शृणु त्वं
पर्वतात्मजे ।
गुरुणा दीक्षितो भूत्वा कौलं न्यासं
समाचरेत् ॥ १८ ॥
हे पार्वती । अब अनुष्ठानकी विधि
वर्णन करता हूं सुनो। गुरु द्वारा दीक्षित होकर कौलको नाश करना चाहिये ॥ १८ ॥
तद्विधिवोत्तरे तन्त्रे
एतत्स्यात्तु कुलार्णवे ।
मयोक्तं तत्क्रमेणैव अभिषेकद्वयं
चरेत् ॥ १९ ॥
नाम लब्ध्वा गुरोश्चापि
वृणुयाद्योगमुत्तमम् ।
दिव्यम्वा वीरयोगम्वा
यथाकर्मानुसारतः ॥२०॥
वह विधि उत्तर तन्त्रमें और यह विधि
कुलार्णवमें मैंने कही है, उसके अनुसार दो बार
अभिषेक कर गुरुका नाम ले दिव्य हो वा वीर हो कर्मा नुसार उत्तम योग वरण करे ।। १९-
२० ।।
तत्क्षणात्प्रियतामेत्य मुक्तो भवति
कालतः ।
यस्तु दिव्यो भवेत्सत्यं स
विष्णुनात्र संशयः ॥ २१ ॥
तत्काल यह योग प्रिय होकर कालानुसार
मुक्तिप्रदान करता है जो दिव्य योगी है, वह
विष्णु है, इसमें सन्देह नहीं॥२१॥
यो रुद्रो भविता शेषे वीर एव न
संशयः ।
यत्र देशे नरस्तिष्ठेद्दिव्यो वा
वीरपुङ्गवः ॥ २२ ॥
जो वीर योगी है,
वह रुद्र है, इसमें सन्देह नहीं हे देवेशि !
जिस देशमें दिव्ययोगी वा वीर योगी वास करता है ।। २२ ।
तत्तत्कुलम्वा देवेशि देशोवा
क्षितिराट् स्वयम् ।
सिद्धिक्षेत्रं समुद्दिष्टं
समन्तादशयोजनम् ॥ २३ ॥
वही देश और वही कुल (गुरुका वास
स्थान ) सब पृथ्वी में उत्तम और पुण्यजनक होता है। जहां दिव्य वा वीर वास करता है,
वहांके चारों ओरका दश योजन स्थान सिद्ध क्षेत्र होता है ॥ २३ ॥
तत्रैव सर्वतीर्थानि तत्र गङ्गा
सरिद्वरा ।
योगिनां दुर्लभं चतत् डाकिनीभिः
सरीसृपैः ॥ २४ ॥
उसी स्थान में सर्वतीर्थ और उसी
स्थान में सरित् श्रेष्ठ गंगा अवस्थान करती है । यह स्थान योगिनियों को भी दुर्लम
और डाकिनी सरीसृप ( कीट पतंगादिक ) ॥ २४॥
ब्रह्मराक्षसवेतालः
कूष्माण्डैर्वैरवैः शिवे ।
गुह्यकैर्दानवैर्वापि
मायिभिर्यक्षकिन्नरः ।। २५ ।।
ब्रह्म राक्षस,
वेताल, कूष्मांड, भैरव
गुखक, दानव, मायी, यक्ष, किन्नर ॥ २५ ॥
रोगैर्दुष्टमृगैश्चैव दुर्भिक्षेनैव
पीडितम् ॥
अवश्यं मङ्गलं तत्र
तत्पुरीपरिवर्द्धनम् ॥ २६ ॥
सुभिक्षं क्षेममारोग्यमेवं
सद्धर्मकोवकः ।
स्फुरन्ति सर्वशास्त्राणि सर्व
स्यादपि नित्यशः ॥२७॥
रोग दुष्टजन्तु,
दुर्भिक्ष, सर्पकुल इन सबको ही दुर्गम है,
वहां अवश्य ही मंगल विराजमान रहता है। जिस पुरमें दिव्य वीर योगी
वास करता है, उस पुरीमें श्रीवृद्धि और समृद्धिकी वृद्धि
होती है, वहां सुभिक्ष, क्षेम आरोग्य
और धर्मका कोष स्थित होता है, वहांके निवासियोंको
सर्वशास्त्र स्फूर्तिको प्राप्त होते हैं ॥ २६-२७ ॥
ब्रह्मविष्णुशिवादीनां सुप्रियः
साधकोत्तमः ।
तरवोऽपि सुजीवन्ति पशुः पक्षी
सुजीवति ॥ २८ ॥
हे प्रिये ! वह साधकोसम ब्रह्मा
विष्णु शिवादिका प्रिय होता है, हे देवि ।
वहां तरुगणकी मृत्यु नहीं होती। पशु और पक्षी जीवित रहते हैं ॥ २८ ॥
कुलधर्मे मनो यस्य स्वधर्मश्च
व्यवस्थितः ।
यत्र कुत्र मृतो देवि दिव्यो वा
वीरपुङ्गवः ।
तत्रैव परमं ज्ञानं कर्णमूले
ददाम्यहम् ।
कुलधर्मस्त्वयं देवि
संसेव्यश्वनिरन्तरम् ॥ २९ ॥
जिसका कुलधर्म में मन है,
जिसकी स्वधर्म व्यवस्था संगत है, उस दिव्य वा
वीर पुरुषके जिस किसी स्थानमें मरने पर भी उसके कर्णमूलमें मैं परम ज्ञान देता हूं
। हे देवि ! इस कुलधर्मकी निरन्तर सेवा करनी चाहिये॥२९॥
कुलधर्मपरा देवि सर्वे च
त्रिदिवौकसः ।
मुनयो मानवा नागाः
सिद्धगन्धर्वकिन्नराः ॥ ३० ॥
हे शिवे ! कुलधर्मनिरत देवगण,
मुनिगण, मानवगण, नागगण,
सिद्ध- गण, गन्धर्वगण, किन्नरगण
॥ ३० ॥
ऋषी वसवो दैत्या येऽपि स्युः
कुलपुङ्गवाः ।
कुलधर्मप्रसादेन ते सर्वे कुलनायकाः
॥ ३१ ॥
ऋषिगण,
वसुगण, दैत्यगण जो कोई कुल श्रेष्ठ हैं,
यह धर्म कर्मके प्रसादसे कुलनायक होते हैं ॥ ३१ ॥
इन्द्राद्याः खेचरारूढा
भवेयुश्चिरजीविनः ।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते ते तथा फलभागिनः
॥ ३२ ॥
इन्द्रादि देवता और खेचर गण इसमें
चिरजीवी हुए हैं, मुझको जो जिस
प्रकारसे भजता है, वह उसी प्रकारसे फलभागी होता है ॥ ३२ ॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यो
ब्रह्मचारी गृही तथा ।
वानप्रस्थो यतिश्चैव भवेयुस्ते
कुलानुगाः ॥ ३३॥
ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य, ब्रह्मचारी.
वानप्रस्थ, यती इत्यादि सब कुलानुगामी होंगे ॥ ३३ ॥
तेषां विधि शृणुष्वाद्य मत्तस्त्वं
कुलनायिके ।
गुडाकरसनैव सुरा तु ब्राह्मणस्य च ॥
३४ ॥
हे कुलनायिके ! उसकी विधि सुनो ?
गुड और अदरखका रस मिला- नेसे ब्राह्मणकी सुरा ॥ ३४ ॥
नारिकेलोदकं कांस्ये क्षत्रियस्य
वरानने ।
वैश्यस्य माक्षिकं प्रोक्तं
कांस्यस्थं वरवर्णिनि ।। ३५ ।।
कांसी के पात्र में नारियलका जल
क्षत्रियकी और वैश्यकी कांस्यस्थ माक्षिक (मधु ) सुरा कही गई है ।। ३५ ।।
मांसं मत्स्यन्तु सर्वेषां
लवणार्द्रकमीरितम् ।
भृष्टधान्यादिकं यद्वच्चर्वणीयं
प्रचक्षते ॥ ३६ ॥
सामुद्रा कथिता देवि सर्वेषां
नगनन्दिनि ।
ब्राह्मणी ब्राह्मणस्यैव क्षत्रिया
क्षत्रियस्य च ॥ ३७ ॥
मत्स्य,
मांस और लवणार्द्रक सभीके पक्षमें समान है, भृष्टधान्यादि
अर्थात् जो भुने हुए चर्वणीय द्रव्य हैं, वही मुद्रा कहाते
हैं । ब्राह्मणी ब्राह्मण के क्षत्रिया क्षत्रिय के ॥३६- ३७ ॥
वैश्या वैश्यस्य देवेश मैथुने
यद्विधिः स्मृतः ।
वैश्या वा
ब्राह्मणक्षत्रौस्त्रिवर्णानां महेश्वरि ।
क्षत्रिया ब्राह्मणस्यापि कथिता
वरवर्णिनि ॥ ३८ ॥
शूद्रा वा ब्राह्मणादीनां
त्रिवर्णानामभावतः ॥ ३९ ॥
वैश्या वैश्यके मैथुन विषयमें
प्रशस्त है। इसके अभाव में वैश्या ब्राह्मण और क्षत्रियके,
क्षत्रिया ब्राह्मणके और शूद्रा ब्राह्मणादि तीनों वर्णोंके
मैथुन-योग्य होती हैं ॥ ३८- ३९ ॥
ब्रह्मक्षत्रविशाञ्चैव आश्रमिणामिदं
स्मृतम् ।
त्रिवर्णविहितानाञ्च यतीनां शृणु
सम्प्रति ॥ ४० ॥
वर्णाश्रमी,
विप्र, क्षत्र और वैश्यगणोंकी यह विधि कही गई,
अब त्रिवर्णविहित यती गणोंकी विधि सुनो ॥ ४० ॥
सहस्रारोपरिविन्दौ कुण्डल्या मेलनं
शिवे ।
मैथुनं शयनं दिव्यं यतीनां
परिकीर्तितम् ॥ ४१ ॥
हे शिवे ! सहस्रदल पद्मोपरि
बिन्दुमें जो कुल कुण्डलिनीका मिलन है। वही यतीगणका परम मैथुन कहा गया है ॥ ४१ ॥
अवधूताश्रमी यो हि तस्य वक्ष्ये
विधिं शृणु ।
पैष्टिकादीनि सर्वाणि मद्यानि तस्य
शाम्भवि ॥४२॥
हे शाम्भवि ! अवधूताश्रमी की विधि
सुनो । वैष्टिकादि सब प्रकार की मद्य उसको सेवनीय है ॥ ४२ ॥
मत्स्यं मांसं तस्य देवि
जलभूचरखेचरम् ।
पूर्वोक्ता च भवेन्मुद्रा सेविता
सादरान्विता ॥ ४३ ॥
जलचर, भृचर और खेचर उसका मत्स्य और मांस है। पूर्वोक्त मुद्राही उसके पक्षमें
सेवनीय है ॥ ४३ ॥
मातृयोनिं परित्यज्य मैथुनं
सर्वयोनिषु ।
क्षतयोनिस्ताडितव्या अक्षतां नैव
ताडयेत् ॥ ४४ ॥
वह मातृयोनि त्यागकर सर्व योनिमें
ही मैथुन करै, क्षतयोनि ताडन करै अक्षतयोनिका
ताडित करना उचित नहीं है ॥ ४४ ॥
अक्षताताडनादेवि सिद्धिहानिः
प्रजायते ।
द्वादशाब्दाधिका योनिर्यावत षष्टिः
प्रजायते ।
तावत्तु मैथुनं तस्या यावन्तु
स्यात्स्वयम्भवा ॥ ४५ ॥
हे देवि ! अक्षत योनिके ताडन करनेसे
सिद्धिकी हानि होती है द्वादश- वर्ष से लेकर साठ वर्ष तक प्रसंग योग है योनि पुष्ट
होनेपर जब स्वयम्भवा अर्थात् स्वयं प्रवृत्त हो, उसी समय में मैथुन श्रेष्ठ है ॥ ४५ ॥
अवधूतसमाचाराः शूद्रे सर्वे
प्रकीर्तिताः ।
विशेष मैथुने तस्य कथयामि शृणुष्व
मे ॥ ४६ ॥
अवधूताचार समस्त ही शूद्रके पक्षमें
कहा गया है, मैथुनमें उनकी विशेषता कहता हूं
सुनो ॥ ४६ ॥
ब्राह्मण क्षत्रियां वैश्यां
त्यक्त्वा तु सर्वजातिषु ।
मैथुनं
प्रचरेद्धीमान्देवताभावचेष्टितम् ॥ ४७ ॥
बुद्धिमान् मनुष्य ब्राह्मणी,
क्षत्रिया और वैश्या त्यागकर सर्व ही दिव्याचारविहित मैथुन करे ॥ ४७
॥
गृहमेधी भवेच्छूद्रो नान्याश्रमी
भवेत्कदा ।
शूद्रवदन्य जातीनामाचारोऽयं
प्रकीर्तितः ॥ ४८ ॥
शूद्रही इसमें गृहाश्रमी होगा.
अन्यान्य मनुष्य आश्रमी नहीं होंगे, इसमें
अन्यजातिका भी शूद्रवत् आचार कहा गया है ॥ ४८ ॥
गुरुवद्वै त्रिवर्णे तु तथा मातामहे
कुले ।
मैथुनं समुद्दिष्टमवधूताश्रमेऽपि च
॥ ४९ ॥
अवधूताश्रम में भी गुरुके समान दो
और तीन वर्ण में तथा मातामहके कुल में मैथुन कहा गया है ॥ ४९ ॥
काली तारा छिन्नमस्ता सुन्दरी भैरवी
तथा ।
मातङ्गी च तथा विद्या विद्या
धूमावती तथा ॥५०॥
काली, तारा, छिन्नमस्ता, सुन्दरी,
भैरवी, मातंगी, विद्या,
विद्या, धूमावती ॥ ५० ॥
एतासां साधकाचारश्वावधूतसमः स्मृतः
।
सर्वाश्रमे सर्ववर्णे सर्वयोगे तथा
शिवे ॥ ५१ ॥
हे शिवे ! सर्वाश्रम सर्ववर्ण
सर्वयोग में इनके साधनका आचार अवधूत के समान कथन किया गया है ॥ ५१ ॥
सर्वस्थानेषु सर्वत्र न विशेष
क्वचिद्भवेत् ।
आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च देहे
व्यवस्थितम् ॥ ५२ ॥
सर्वस्थानमें सर्वत्र ही समान है,
इसका विशेष कहीं भी नहीं है, आनन्द ब्रह्मका
स्वरूप वह देहमें व्यवस्थित है ॥ ५२ ॥
एवं विप्रो देवतायै स्वगात्ररुधिरं
ददेत् ।
शक्तिनाशविकारोऽस्ति
स्वदेहरुधिरार्पणे ॥ ५३ ॥
इस प्रकार ब्राह्मण देवताको अपने
गात्रका रुधिर दान करे अपने देहका रुधिर अर्पण करनेसे शक्तिनाश और विकारादि होता
है ॥ ५३ ॥
तस्याभिव्यञ्जनं द्रव्यं दीयते
कुलयोगिभिः ।
द्रव्यादिसकलं देवि
व्यञ्जकस्यापरार्द्धकम् ॥ ५४ ॥
अत एव कुलयोगीगण इस रुधिरका
अभिव्यञ्जक द्रव्य ( प्रगट करने वाली वस्तु) भी प्रदान कर सकते हैं, हे देवि !
द्रव्यादि सब व्यञ्जक द्रव्य है, उनका
अपरार्द्ध स्वरूप कहा जाता है ॥ ५४ ॥
केवलेनाद्य योगेन साध्यः काल्याद्यपासकः
।
भैरवाय द्वितीयेन शिवत्वं च
तृतीयकम् ॥ ५५ ॥
केवल आद्ययोगद्वारा ही
कालीआदिमहाविद्याका उपासक होता है। दूसरे योगमें भरवकी तीसरे योगमें शिवकी ॥ ५५ ॥
चतुर्थे
सर्वसिद्धीशश्चित्रमेतन्नगात्मजे ।
परेण परतां याति मम तुल्यो न संशयः
॥ ५६ ॥
और चौथे योगमें सर्वसिद्धीश होता है
। हे पर्वतनन्दनि ! यह आश्चर्य का विषय है-एकसे दूसरेके द्वारा श्रेष्ठताको
प्राप्त होकर मेरी समान होता है, इसमें सन्देह
नहीं ॥ ५६ ॥
सेविते कुलतत्त्वे तु
कुलतत्त्वसुदर्शिनः ।
जायंते भैरवास्ते न
वेशास्तत्समदर्शिनः ॥ ५७ ॥
कुलतत्त्वदर्शी गण कुलतत्त्वकी सेवा
करनेसे भैरव और तत्समवेश (उन्ही के समान वेश)
और उन्ही के समान समदर्शी होते हैं ॥ ५७ ॥
तमः परिवृतं वेश्य यथा दीपेन
दृश्यते ।
तथा मायावृतं चित्तं ज्ञानदीपेन
दृश्यते ॥ ५८ ॥
अन्धकारसे ढका हुआ घर जिस प्रकार
दीपकके द्वारा दिखाई देता है। इसी प्रकार मायावृत चित्त ज्ञानदीपकसे दिखाई देता है
॥ ५८ ॥
निरस्तभेदं वस्तु
स्यान्मेध्यामेध्यादिवस्तुषु ।
जीवन्मुक्तो देहभावो देहान्ते
क्षेममाप्नुयात् ॥ ५९ ॥
ज्ञानदीप प्रज्वलित होनेपर वस्तुका
प्रभेद निरस्त होता है, मेध्य और अमेध्य
अर्थात् पवित्र और अपवित्र समस्त वस्तुकी भेदबुद्धि तिरोहित होती है । इस प्रकार
जीवन्मुक्त देहभावको प्राप्त होकर देहके अन्त में परम मंगलरूप मुक्तिलाभ करता है ॥
५९ ॥
पीत्वा कुलरसं वीरो
ब्रह्मध्यानमुपाश्रयेत् ।
ब्रह्मध्यानं महेशानि
ब्रह्मनिर्वाणकारणम् ॥ ६० ॥
वीर योगी कुलरस पानकरके ब्रह्मध्यान
आश्रय करै, हे महेशानि ! ब्रह्मध्यान भी
ब्रह्मनिर्वाणप्राप्तिका कारण है ॥ ६० ॥
तच्छृणुष्व महेशानि सारात्सारं
परात्परम् ॥
स्वकीय जीव
देहादिब्रह्माण्डाऽनन्तमेव च ॥ ६१ ॥
एवं हि सकलं देवि देहमहार्णवादि यत्
।
न चिन्तनीयं तत्सर्वं नास्तीति
परिभावयेत् ॥ ६२ ॥
वह सार से भी सार परे से भी पर का विषय
सुनो। स्वकीय जीवात्मा और देहादि समस्त ब्रह्माण्ड महार्णवादि जो कुछ है,
वह कुछ नहीं । इस प्रकार भावना करके उसकी चिन्ता न करै ॥ ६१- ६२ ॥
मात्सीयकं महातेजश्चैतन्यव्यापकं
यथा ।
अहमेव जालरू पश्चाधारो देहवर्जितः ॥
६३ ॥
मात्सीय कतेजः महातेजः वह
चैतन्यव्यापक है, मैं जलरूप देहहीन आधार
हूं ॥ ६३ ॥
आत्मानमपि देवेशि तद्भेदेन
विचिन्तयेत् ।
ब्रह्मध्यानमिदं
प्रोक्तमेतत्स्थिरतराय च ॥ ६४ ॥
हे देवेशि ?
आत्मा की भी उसके भेद में चिन्ता करे यह मैंने स्थिरतर ब्रह्मध्यान
कहा ॥ ६४ ॥
सेवन्ते योगिनो द्रव्यं नान्यथा तु
कदाचन ।
क्षणं ब्रह्माहमस्मीति यः
कुर्यादात्मचिन्तनम् ॥ ६५ ॥
इस ब्रह्म के अतिरिक्त योगीगण अन्य
किसी वस्तुकी चिन्ता न करे "ब्रह्माहमस्मि'
मैं ही ब्रह्म हूं, इस प्रकार जो व्यक्ति
क्षणकाल आत्मचिन्ता करता है ॥ ६५ ॥
तत्र दद्यात्फलं देवि तस्यान्ते नैव
गम्यते ।
मया वा ब्रह्मणा वापि विष्णुनापि
कथञ्चन ॥ ६६ ॥
हे देवी ! उसी को फल देती हैं,
ऐसा न होने पर मैं ब्रह्मा अथवा विष्णु कोई उसको नहीं जान सकता ॥ ६६
॥
अत एव महेशानि नित्यकर्म न लोपयेत्
।
द्रव्याभावे महेशानि जलेनापि
समाचरत् ॥ ६७ ॥
अतएव हे महेश्वरि! नित्यकर्म को लोप
न करे हे महेशानि ! द्रव्याभाव में जल द्वारा भी नित्यकर्म करना उचित है ॥६७॥
अथवा मनसा नित्यं कुलयोगं समाचरेत्
।
वक्ष्येsयुतविधिं भद्र शृणुष्व कमलानने ॥ ६८ ॥
अथवा मन में प्रतिदिन कुलयोग का
आचरण करे । हे कमलानने ! मैं अतविधि कहता हूं, सुनो
॥ ६८ ॥
कुण्डल्या मिलनादिन्दोः स्रवते
यत्परामृतम् ।
पिबेद्योगि महेशानि सत्य सत्यं
वरानने ॥ ६९ ॥
हे वरानने ! हे भद्रे !
कुलकुण्डलिनी के मिलने में बिन्दु से जो उत्कृष्ट अमृत टपकता है,
वह योगीजन पान करते हैं, यह मैंने तुमसे सत्य ही
सत्य कहा है ॥ ६९ ॥
कुलयोगं महादेवी महापानमिदं स्मृतम्
।
पापपुण्यं पशु हत्वा ज्ञानखङ्गेन
शाम्भवि ॥ ७० ॥
परमात्मनि नयेच्चित्तं पलानीति
निगद्यते ॥
मनसा स्वेन्द्रियं सर्व संयतात्मनि
योजयेत् ॥ ७१ ॥
मत्स्याशी स भवेद्योगी
मुक्तबन्धस्तव प्रिये ।
अशेषब्राह्मणभाण्डं परं ब्रह्मणि
संनयेत् ॥ ७२ ॥
हे महादेवि ! इस महापान को ही कुलयोग
जानना चाहिये। हे शाम्भवि ! ज्ञानरूपी खड्ग द्वारा पापपुण्यरूपी पशु हनन करके
चित्तरूप मांस परमात्मा में नियोजित करे । अपने इन्द्रियग्राम को रोककर आत्मा में
योजित करने से वह मत्स्याशी योगी तुम्हारे बंधन से मुक्त होता है । हे प्रिये !
अशेष ब्रह्माण्ड-भाण्ड परमात्मा में नियोजित करे ॥७०- ७२॥
परशक्त्यात्मसंयोगो न वीर्ये मैथुनं
स्मृतम् ।
एवन्ते कथितं देवि सारात्सारं
परात्परम् ।
गोपनीय गोपीनीयं मम सर्वस्वसाधनम् ॥
७३ ॥
परशक्ति के सहित आत्मा का संयोग ही
मैथुन है। हे देवि ! यह मैंने सार से भी सार पर से भी पर अपना सर्वस्व साधन कहा।
इसको गुप्त रखना चाहिये ॥ ७३ ॥
इति श्रीयोगिनीतन्त्रे सर्वतन्त्रोत्तमोत्तमे
देवीश्वरसम्वादे चतुर्विंशतिसाहस्रे भाषाटीकायां षष्ठः पटलः ॥ ६ ॥
आगे जारी........ योगिनीतन्त्र पटल 7

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