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माहेश्वरतन्त्र पटल ३०

माहेश्वरतन्त्र पटल ३०               

माहेश्वरतन्त्र के पटल ३० में मन्त्रराज के साधन एवं न्यास आदि का विवेचन और भगवान् कृष्ण ध्यान का वर्णन है। 

माहेश्वरतन्त्र पटल ३०

माहेश्वरतन्त्र पटल ३०                  

Maheshvar tantra Patal 30

माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ३०                   

नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्

माहेश्वरतन्त्र तीसवाँ पटल  

माहेश्वरतन्त्र त्रिंश पटल

अथ त्रिंशं पटलम्

पार्वत्युवाच-

भगवन्देवदेवेश श्रोतुमिच्छाम्यहं पुन: ।

मन्त्रस्य साधनं साक्षात् यत्कृत्वा साङ्गता भवेत् ॥ १ ॥

पार्वती ने कहा- हे भगवन् ! देव, देवों के ईश ! मै पुनः मन्त्र के उस साक्षात् साधन को सुनना चाहती हूँ जिसे करके साङ्गता [सिद्धि] प्राप्त होवे ॥ १ ॥

शिव उवाच-

शृण त्वं देवदेवेशि मन्त्रराजस्य साधनम् ।

ऋषिरस्य स्मृतो देवि परात्मा पुरुषोत्तमः ।। २ ।।

भगवान् शङ्कर ने कहा- हे देवदेवेश ! तुम मन्त्रराज के साधन को सुनो। विद्वानों के द्वारा इस [ मन्त्रराज] के ऋषि, हे देवि ! परमात्मा 'पुरुषोत्तम' कहे गए हैं ॥ २ ॥

छन्दोनुष्टप्समाख्यातं श्रीकृष्णो देवतास्य च ।

अहं बीजं नमः शक्तिविनियोगः प्रसादने ॥ ३ ॥

इसका छन्द अनुष्टुप् बताया गया है और इसके देवता भगवान् श्रीकृष्ण है । मैं बीज है 'नमः' शक्ति है । इस प्रकार ( 'ॐ नमः शिवाय' मन्त्र राज से ) प्रसन्न-करने के लिए विनियोग करे ।। ३ ।।

ऋषिः शिरसि विन्यस्य छन्दस्तु मुखमण्डले ।

देवता हृदये न्यस्य बीजं पादयुगे न्यसेत् ॥ ४ ॥

ऋषि का न्यास सिर में, छन्द का मुखमण्डल में और देवता का हृदय में न्यास करके बीज का दोनों पैरों में न्यास करे ॥ ४ ॥

कटिदेशे न्यसेच्छति नियोगः करसम्पुटे ।

एवं ऋष्यादिकं न्यस्य वर्णन्यासं ततश्चरेत् ॥ ५ ॥

अथ बीजं न्यसेन् मूर्धिन्यसेन्माया ललाटके ।

व्योमबीजं न्यसेत्कर्णयुगलेऽथ समीरणम् ।। ६ ।।

न्यसेत्त्वचि ततो नेत्रे बह्निबीजं न्यसेत्प्रिये ।

जिह्वायां वारुणं बीजं पृथ्वीबीजं च नासयोः ॥ ७ ॥

शक्ति का न्यास कटि प्रदेश में और कर सम्पुट (हथेली) में नियोग करे । इस प्रकार ऋषि आदि का न्यास करके फिर वर्णों का न्यास करे। अब बीज का न्यास मूर्धा में करे । माया का ललाट में न्यास करे । आकाश बीज का कर्णं युगल में न्यास करे और वायुबीज का त्वगिन्द्रिय में न्यास करे । फिर हे प्रिये ! बीज का न्यास दोनों नेत्रों में करे । जल बीज का जिह्वा में और पृथ्वी बीज का दोनों नासिकाओं में न्यास करे ।। ५-७॥

श्रीकारं कण्ठदेशे तु कृकारं हृदये न्यसेत् ।

ष्णं पं न्यसेत्कुचद्वन्द्वे वामादि परमेश्वरि ॥ ८ ॥

कण्ठ में 'श्री' का और हृदय में 'कृ' का न्यास करे । 'ष्ण' और '' का वक्षस्थल में, हे परमेश्वरि ! वाम आदि क्रम से न्यास करे ॥ ८ ॥

रकारं चैव माकार कुक्षियुग्मे च वामतः ।

नकारं च दकारं च न्यसेत्कटयोस्तथैव हि ॥ ९ ॥

रकार और 'मा' का वाम क्रम से कुक्षियुग्म में और इसी प्रकार नकार और दकार का कमर के दोनों भागों में न्यास करे ।। ९ ।।

तेकारं विन्यसेल्लिगे प्रिया वर्णावुरुद्वये ।

स्मिमार्णद्वयं देवि जानुयुग्मे तथा न्यसेत् ॥ १० ॥

'' और ए का लिङ्ग में विन्यास करे और 'प्रिया' वर्णों' का दोनों उरुओं में न्यास करे और इसी प्रकार हे देवि ! 'स्मिमा' इन दोनों वर्णों का जानुयुग्म में न्यास करे ॥ १० ॥

मंगी वर्णौ च देवेशि जङ्घायुग्मे प्रविन्यसेत् ।

कुवित्यक्षरयोर्द्वन्द्व पाष्णिद्वन्द्वे नियोजयेत् ।। ११ ।।

हे देवेशि ! 'मं' और 'गो' इन दोनों वर्णों का दोनों जङ्घाओं में विन्यास करे । 'कुरु' इन दो अक्षरों को पाणि अर्थात् पिण्डलियों में नियोजन करे ।। ११ ।।

दकारं च शकारं च प्रपदद्वन्दके न्यसेत् ।

प्रकारं चैव बोकारं न्यसेत्पादतलद्वये ।। १२ ।।

दकार और शकार दोनों का पैरों में विन्यास करें। 'प्र' और 'ब अक्षरों का पादतल में न्यास करे ।। १२ ।।

धं न्यसेदङ्गुलीष्वेव अङ्गुल्यन्तेषु यं न्यसेत् ।

तलादिजानुपर्यन्तं'प्रबो' वर्णद्वय पुनः ।। १३ ।।

जान्वादिनाभिपर्यन्तं 'धय' वर्णद्वयं न्यसेत् ।

मोकारं विन्यसेन्नाभी हकारमुदरे न्यसेत् ॥ १४ ॥

'' का अङगुलियों में न्यास करे । '' का विन्यास अङगुलियों के अन्तिम भाग में करे । पुनः [ पाद ] तल से जानु पर्यन्त प्र और बो इन दो वर्णों का विन्यास करे । फिर जानु आदि से नाभिपर्यन्त 'धय' इन दो वर्णों का न्यास करे। ओकार का विन्यास नाभि में और हकार का उदर में न्यास करे ।। १३-१४ ।।

मपावर्णौ स्कन्धयुगे कुरु कक्षा युगेन्यसेत् ।

कुरुवर्णद्वयं दोष्णोर्गल्लयोश्च प्रविन्यसेत् ।। १५ ।।

'' ओर पा' वर्णों का दोनों कन्धों में और 'कुरु' का न्यास दोनों कुक्षियों में करे । 'कुरु' इन दो वर्णों को दोष्ण और गले में व्यस्त करे । १५ ।।

नमः शिखायां विन्यस्य समग्रं व्यापकं न्यसेत् ।

एवं न्यासाच्छरीरेऽसो जायते मन्त्ररूपधृक् ।। १६ ।।

'नमः' शब्द का शिखा में न्यास कर समग्र रूप से व्यापक न्यास करे। इस-प्रकार का न्यास करने से सम्पूर्ण शरीर मन्त्र का रूप धारण कर लेता है ।। १६ ।।

अलोकिकं वपुः कृत्वा गच्छेद् ध्यानेन नत्पदम् ।

तत्प्रकारं प्रवक्ष्यामि सुगुप्तमपि सुन्दरि ॥ १७ ॥

इस प्रकार अपना अलौकिक शरीर करके ध्यान के द्वारा उन ब्रह्म के पद में जाना चाहिए। हे सुन्दरि ! यद्यपि यह गुप्त है फिर भी मैं उसके प्रकार को कहता हूँ ।। १७ ॥

वर्णरूपं वपुर्ध्यायेत् पञ्चभूतमयान् हि तान् ।

तत्तत्कारणभूतेषु तत्तत्कार्य विलोपयेत् ॥ १८ ॥

वर्ण रूप शरीर का ध्यान करना चाहिए । जो वर्णं पञ्चभूतात्मक हैं उन-उन पश्चमहाभूतों के कारणों में उनके कार्य का लोप कर देना चाहिए ।। १८ ।।

पादादिजानुपर्यन्तं पृथ्वीतत्वं विचिन्तयेत् ।

पृथ्वीतत्त्वमयान् वर्णान् प्रवक्ष्यामि समासतः ।। १९ ।।

पैर से जानु पर्यन्त पृथ्वी तत्व का चिन्तन करना चाहिए अब मैं संक्षेप से पृथ्वीतत्वमय वर्णों को कहूँगा - ॥१९॥

पञ्चमश्चैव षष्ठश्च त्रयोदश एव च ।

स्वराणां त्रितयं चैतत् आकाशादग्रिमाक्षरम् ॥ २० ॥

स्पर्शेषु चाष्टमश्चैव तथा चैव त्रयोदश ।

दवलाश्चेति व वर्णाः पार्थिवाः परिकीर्तिताः ॥ २१ ॥

पाचवी, छठवीं और तेरहवां तथा इन तीनों के स्वर आकाशादि पञ्चभूतों के अग्रिम अक्षर हैं। स्पर्शो में आठवां और तेरहवां तथा द, व एवं ल वर्णं पार्थिव वर्ण कहे गए हैं । २०-२१ ॥

ॠॠ औघ झं ढ ध भ वर्णास्ते वारुणाः स्मृताः ।

जान्वादिकटिपर्यन्तं जलतत्वगतान् स्मरेत् ।। २२ ।।

ऋ ऋ औ घ ढ ध तथा भ-ये वारुण वर्ण कहे गए हैं। जानु आदि से कटि पर्यन्त जल तत्त्व गत इन वर्णों का ध्यान करना चाहिए ।। २२ ॥

इ ई ए ख छठ फरक्षास्ते वह्निरूपिणः ।

कटयादिकण्ठपर्यन्तं तेजस्तत्वगतान् स्मरेत् ।। २३ ।।

इ ई ए ख छ ठ थ फर और क्ष - ये वर्ण वह्नि रूप कहे गए हैं। साधक कटि आदि से कण्ठ पर्यन्त तेजस्तवगत वर्णों का स्मरण करे ।। २३ ।।

अ ऐ कचटतपसषाः मारुताः कथिताः प्रिये ।

कण्ठादिभ्र प्रदेशान्तं वायुतत्वमान्स्मरेत् ।। २४ ।।

अ ऐ क च ट त प स और ष ये वर्णं, हे प्रिये ! मारुत वर्ण कहे गए हैं । साधक कण्ठ आदि से भ्रू प्रदेश पर्यन्त वायुतत्त्वमय इन वर्णों का ध्यान करे ।। २४ ।।

लृ लॄ अङञणन मशबहानाभसाः स्मृताः ।

भ्रूमध्यादिब्रह्मरन्ध्रस्थिताकाशमयान् स्मरेत् ।। २५ ।।

लृ लॄ अं ङ ञ ण न म श ब और ह-ये वर्ण नभ से सम्बन्धित हैं । अत: साधक को भ्रू मध्य से लेकर ब्रह्मरन्ध्र पर्यंन्त स्थित आकाशमय वर्णों का स्मरण करना चाहिए ।। २५ ।।

तत्तद्वर्णविलोपन्तु कारयेत्कारणाक्षरे ।

हित्वा स्थौल्यं भूतमयं सूक्ष्मं शब्दमयं ततः ।। २६ ।।

साधक को चाहिए कि वह इस प्रकार उन उन वर्णों का विलोपन उन-उन अक्षर के कारणों में करे । वस्तुतः स्थूल पञ्चमहाभूत का सूक्ष्मरूप शब्द मय ही है ।। २६ ।।

शब्दब्रह्मशरीरोऽसौ सर्वकारणकारणम् ।

सहस्रदलपद्मस्य कणिकायां व्यवस्थितम् ॥ २७ ॥

यह शब्द ब्रह्ममय शरीर सभी कारणों का कारण है। यह शब्द ब्रह्म सहस्र दल वाले पद्म की कर्णिका में व्यवस्थित रहता है ।। २७ ।।

अकार केवलं ध्यायेदुदरे निष्कलं प्रिये ।

अकार चोदराकाशे दहरास्ते महेश्वरि ॥ २८ ॥

पूर्वानुभूता रासलीला व्रजलीलाश्च सस्मरेत् ।

अहं प्रिया भगवतः कामस्य कामरूपिणी । २९ ।।

कृष्णस्येति दृढाभ्यासवशगेनैव चेतसा ।

संस्मरेत्परमेशानि नान्यत् किञ्चन चिन्तयेत् ।। ३० ।।

हे प्रिये ! अतः साधक को चाहिए कि वह निष्कल रूप से अकार का ध्यान उदर में करे । हे महेश्वरि । अकार रूप उदराकाश में दहर है । वहाँ पर पूर्वानुभूत रासलीला तथा ब्रजलीला का स्मरण करना चाहिए। साधक का यह सोचना चाहिए कि 'मैं भगवान् कृष्ण के काम की कामरूपिणी प्रिया हूँ ।' ऐसा करते हुए दृढ अभ्यास के द्वारा साधक को अपना चित्त अपने वश में कर स्मरण करना चाहिए । श्रेष्ठ ईशान ! इसके अलावा किसी और का चिन्तन न करे ।। २८-३० ।।

अथ तेनैव मार्गेण शाब्दं चापि वपुस्त्यजेत् ।

शब्दातीतं परं धाम रसानन्दमहार्णवम् ।। ३१ ॥

इस प्रकार उसी मार्ग से शब्द शरीर का त्याग कर देना चाहिए क्योंकि वह शब्दातीत परम धाम रस का आनन्द महा समुद्र है ।। ३१ ।।

नानाकेलिकलापूर्ण नानापक्षिनिनादितम् ।

भ्रमद्भ्रमरझङ्कारमुख रीकृत दिङ्मुखम् ।।३२ ।।

वह रस रूप आनन्द समुद्र नाना प्रकार की केलियों एवं कलाओं से पूर्ण हैं । इसका किनारा नाना प्रकार के पक्षियों से शब्दायमान है । यहाँ पर चारो ओर झङ्कार करते हुए भ्रमर दिशाओं को मुखर कर रहे हैं । ३२ ।।

स्वप्रकाश समभ्येत्य स्वरूपं चिन्तयेत्तदा ।

उस समय वहाँ पहुँच कर साधक को प्रकाश ध्यान स्वरुप भगवान् का चिन्तन करना चाहिए।

भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान

नवयौवनसम्पन्नमनोहररतिप्रियम् ॥ ३३ ॥

क्वणन्तूपुरसंशोभिपादाम्भोजविराजितम् ।

लाक्षारसाक्तचरण क्वणत्किङ्किणिमेखलम् ।। ३४ ।।

ध्यान -- वे कृष्ण भगवान् नवयौवन से सम्पन्न तथा मनोहर एवं रति के प्रिय हैं। उनके चरणकमल बजते हुए नूपुरों से सुशोभित हैं। उनके चरणों में लाक्षारस (महावर ) लगी हुई है। उनकी मेखला की घुंघरु बजती रहती है ।। ३३-३४ ॥

नवीनयौवनोत्तुङ्गकुचभारमहालसम् ।

कराङ्गुलीयनिवहोल्लसदङ्गुलिपल्लवम् ।। ३५ ।।

नवीन यौवन के कारण जिनका वक्षस्थल उभरा हुआ है । जिनके हाथ की अंगुलियों में अंगुलिपल्लव शोभा पा रहा है ।। ३५ ।।

नानालङ्कारसुभगं कौसम्भाम्बरशोभितम् ।

मुक्ताहारोल्लसद्वक्षःस्फुरमाणमणिप्रभम् ।। ३६ ।।

नाना प्रकार के अलङ्करणों से सुन्दर कान्ति वाले तथा पीताम्बर से सुशोभित, मुक्ता के हार से शोभित वक्षःस्थल वाले और मणियों की प्रभा से स्फुरित कान्ति वाले भगवान् कृष्ण का ध्यान करना चाहिए ।। ३६ ।।

कामकोदण्ड कुटिलभृकुटी विशिखेक्षणम् ।

मुक्तादामलसद्भालं काश्मीर तिलकोज्वलम् ॥ ३७ ॥

दिव्यचन्दनलिप्ताङ्गं दिव्यपुष्पस्रगाकुलम् ।

भालप्रदेश विलसत्सुरत्न तिलकोज्ज्वलम् ॥ ३८ ॥

काम के धनुष के समान टेढ़ी भौंहों वाले, विशिख के समान दृष्टि वाले, मुक्ता की कान्ति से शोभित एवं काश्मीर के उज्ज्वल तिलक से युक्त ललाट वाले, दिव्य चन्दन का शरीर में लेप किए हुए दिव्य पुष्पों की माला से आच्छादित तथा भाल प्रदेश में सुरत्न के उज्ज्वल तिलक से विराजमान भगवान् कृष्ण का ध्यान करना चाहिए ।। ३७-३८ ।।

ध्यात्वैवं स्ववपुर्दिव्य सखीयूथगतं स्मरेत् ।

यूथमध्यगतं कृष्णं ध्यात्वानन्येन चेतसा ।। ३९ ।।

प्रार्थयेत्तं पतिं तत्र सस्मिताननसुन्दरम् ।

प्राणनाथ त्वदीयाहं त्राहि दुखिष्वनेकधा ॥ ४० ॥

त्वामहं विस्मृता नाथ परमानन्दपेशल ।

अनुभूता स्वप्नलीला नानादुःखौघसङ्कुला ॥ ४१॥

कालो महान् व्यतीतोऽयं त्वां विना पुरुषोत्तम ।

स्वप्ने मया बहुभ्रान्तं देह गेहातिसक्तया ॥ ४२ ॥

इस प्रकार ध्यान करते हुए अपने दिव्य शरीर को सखियों के समूह में स्मरण करे । साधक को चाहिए कि वह अनन्य चित्त से यूथ के मध्य विराजमान कृष्ण का ध्यान करके उन सुन्दर मुस्कुराहट से युक्त पालक (पति) कृष्ण से प्रार्थना करे कि- हे प्राणनाथ! मैं आपका हूँ। अतः अनेक प्रकार से आप मेरी रक्षा करें। हे परमानन्द पेशल ! हे नाथ! आपको मैंने विस्मृत कर दिया। स्वप्नवत् लीला का मैंने अनुभव किया है। यह ऐहिक लीला नाना दुःखों से व्याप्त है । हे पुरुषोत्तम ! आपके बिना बहुत काल व्यतीत हो गया। इस स्वप्नवत् संसार में मैं देह और गृह में अत्यन्त आसक्त होकर बहुत प्रकार से भ्रमित होता रहा ।। ३९-४२ ।।

क्वचिन्मनुष्यरूपेण देवरूपेण वा क्वचित् ।

गन्धर्वोरगरूपेण पशुरूपेण वा क्वचित् ॥ ४३ ॥

चेष्टापितो मया ह्यात्मा स्वप्ने मायाविनिर्मिते ।

इदानीं कृतकृत्यास्मि नष्टस्वप्नमयाकृतिः ॥ ४४ ॥

इस संसार में कभी मनुष्य रूप में और कभी देवरूप में घूमता रहा । कभी मैं (= जीव) गन्धर्व या पक्षि रूप से अथवा कभी पशु रूप से नाना योनियों में भटकता रहा । माया निर्मित स्वप्न में मेरी आत्मा अत्यन्त सचेष्ट थी । किन्तु अब स्वप्नवत् संसार के नष्ट हो जाने पर ( 'सत्यं' ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' के ज्ञान से ) मैं कृतकृत्य हो गया हूँ ।। ४४-४५ ॥

विलोकय कृपादृष्टया दृष्टां देव विना त्वया ।

इति सम्प्रार्थ्यं भर्त्तारं प्रणमेत्पादपङ्कजम् ।। ४५ ।।

हे स्वामी ! आप मेरी ओर कृपा दृष्टि से देखें। हे देव! बिना आपकी कृपा के मैं दुखसागर में निमग्न हैं । ( इससे आप मुझे उबारिए) । इस प्रकार से प्रार्थना करके भर्त्ता प्रभु के चरणकमल को प्रणाम करे ।। ४६ ।।

प्रोत्थापिता पुनस्तेनालिङ्गिता च मुहुर्मुहु: ।

दत्ताधरसुधाचापि सखीयूथस्य पश्यतः ।। ४६ ।

उनके द्वारा पुनः उठा लिए जाने पर और बारम्बार आलिङ्गित किए जाने पर तथा सखी समूह के समक्ष ही अधरामृत के दिए जाने पर जो आनन्द होता है उसका अनुभव साधक करे ।। ४६ ।। ६

परस्परं वीक्ष्यमाणा सखिभिः कृतकौतुकम् ।

नित्यानन्दविहारेषु भूमिकासु दशस्वपि ॥ ४७ ॥

सखियों के द्वारा परस्पर एक दूसरे को कौतूहल से देखने पर नित्य आनन्द-विहार की दस भूमिकाओं में अपने को साधक अनुभव करे ।। ४७ ।

पुष्परागमयभ्राजत्पर्वतापत्यकासु च ।

नीलमाणिक्यश लोहशिखरेषु विशेषतः ॥ ४८ ॥

साधक पुष्प एवं परागमय पर्वत एवं उपत्यकाओं में विराजमान तथा विशेष रूप से नीले माणिक्य के पर्वत तथा उनकी विशाल चोटीयों के मध्य भगवान को देखे ॥ ४८ ॥

यमुनासप्ततीर्थेषु नानावृक्षोदयेषु च ।

मणिमण्डपविभ्राजत्कुट्टिमै र्मण्डितेषु च ।। ४९ ।।

नानाविहारसङ्केते मनीयमाना प्रियेण हि ।

तत्र तत्र महालीलारसानन्दपरिप्लुता ॥ ५० ॥

यमुना के सातों तीर्थों पर तथा नाना वृक्षों के मध्य, मणि से बने भ्राजमान मण्डप में जिसकी फर्श मणि निर्मित थी, प्रिय के द्वारा नाना विहार स्थलों पर ले जाते हुए उन भगवान् कृष्ण की रसानन्द से परिप्लुत महा लीला का ध्यान करे ।। ४९-५० ।

षोडशस्थम्भविभ्राजन्मणिकुट्टिममागता ।

सखी समाजमध्यस्थं कृष्णं दृष्ट्वा पुरः स्थिता ॥ ५१ ॥

सोलह स्तम्भों में चमकते हुए मणि निर्मित फर्श पर सखी समाज के मध्य साधक कृष्ण को देखकर ऐसा अनुभव करे कि ये स्वयं समक्ष विराजमान हैं ॥ ५१ ॥

लालिता प्राणनाथेन वचनामृतवर्षिणा ।

एवं धारणया देवि मनो यावत्स्थिरं भवेत् ।। ५२ ।।

तावदेनाभ्यसेल्लीलासेवमात्माव विशुध्यति ।

इस प्रकार प्राणनाथ कृष्ण द्वारा लालित होकर तथा उनके वचनामृत की वर्षा करते हुए मुखारविन्द में जब तक धारणा द्वारा, हे देवि ! साधक का मन स्थिर न हो जाय, तब तक लीला का अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार करते-करते साधक की आत्मा शुद्ध हो जाती है ।। ५२-५३ ॥

एतते कथितं देवि मन्त्रध्यानादिकं मया ॥ ५३ ॥

समासेन महेशानि कि भूयः श्रोतुमिच्छसि ।

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शपथस्तव सुव्रते ॥ ५४ ॥

हे देवि ! इस प्रकार से मन्त्र एवं ध्यान को मैंने आप से संक्षेप में कहा है । हे महेशानि ! अब आप और क्या सुनना चाहती है ? आपकी शपथ है कि है शोभन व्रत करने वाली ! उसे मैं आपसे अवश्य कहूँगा ( अर्थात् कुछ भी रहस्य नहीं रखूँगा) ।। ५३-५४ ॥

॥ इति श्रीनारदपञ्चरात्र श्री माहेश्वरतन्त्र शिवपार्वती-संवादे त्रिश पटलम् ॥ ३० ॥

॥ इस प्रकार श्री नारदपञ्चरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड (ज्ञानखण्ड) में मां जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के तीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई॥३०॥

आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 31

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