शारदातिलक पटल ५
शारदातिलक पटल ५ अग्निजननप्रकरण है
। इस पटल में कुण्ड के संस्कार की विधि, अग्नि
का संस्कार, विभिन्न प्रकार के अध्वाओं का कथन है। अन्त में
होम के अनेक भेद एवं उनके फल का निरूपण है।
शारदातिलक पटल ५
Sharada tilak patal 5
शारदातिलकम् पञ्चमः पटल:
शारदातिलकतन्त्रम् (प्रथमो भागः )
शारदा तिलक तन्त्र पांचवां पटल
शारदातिलकम्
पञ्चम पटल
अथ पञ्चमः पटल:
अथ अग्निजननम्
ततोऽग्निजननं वक्ष्ये
सर्वतन्त्रानुसारतः ।
आचार्यकुण्डे विधिवत् संस्कृते
शास्त्रवर्त्मना ॥ १ ॥
ग्रन्थकार अधिवासन के दिन अस्त्र देवता
के पूजन के अनन्तर आचार्यकुण्ड के आवश्यक करणीय संस्कार तथा उसमें अग्निस्थापन की
विधि कहते हैं। शास्त्र की रीति के अनुसार आचार्य कुण्ड में जिसका विधिपूर्वक
संस्कार किया गया है उसमें अग्नि उत्पन्न करने की तिथि कहता हूँ ॥ १ ॥
कुण्डसंस्कारविधिः
अष्टादश स्युः संस्काराः कुण्डानां
तन्त्रचोदिताः ।
वीक्षणं मूलमन्त्रेण शरेण प्रोक्षणं
मतम् ॥ २ ॥
तन्त्रशास्त्रों में कुण्डों के
अट्ठारह प्रकार के संस्कार कहे गये हैं मूलमन्त्र पढ़कर कुण्ड का अवेक्षण करना
प्रथम संस्कार कहा गया है, अस्त्र मन्त्र
(अस्त्राय फट्) पढ कर हाथ के अग्रभाग को उतान कर प्रोक्षण करना दूसरा संस्कार है
।। २ ।।
तेनैव ताडनं
दर्भैर्वर्मणाऽभ्युक्षणं स्मृतम् ।
अस्त्रेण खननोद्धारौ हन्मन्त्रेण
प्रपूरणम् ॥ ३ ॥
पुनः अस्त्र मन्त्र से दर्भ द्वारा
कुण्ड का ताडन करना तीसरा संस्कार है वर्ममन्त्र (कवचाय हुँ) से मुट्ठी बाँध कर
उसका सेचन करना चौथा संस्कार है, अस्त्र मन्त्र
से कुण्ड की मिट्टी का खनना तथा उसे बाहर निकालना पुनः अन्य मृत्तिका लाकर ( नमः
मन्त्र) से उस खात को पूर्ण करना क्रमशः पाँचवाँ छठाँ एवं सातवाँ संस्कार है ॥ ३ ॥
समीकरणमस्त्रेण सेचनं वर्मणा मतम् ।
कुट्टनं हेतिमन्त्रेण वर्ममन्त्रेण
मार्जनम् ॥ ४ ॥
अस्त्र मन्त्र पढ़कर मिट्टी को समतल
बनाना,
कवच मन्त्र पढ़कर सेचन करना, अस्त्र मन्त्र से
उसे कूटना, वर्म मन्त्र से मार्जन करना ये आठ नव दश तथा
ग्यारह संस्कार हुये ॥ ४ ॥
विलेपनं कलारूपकल्पनं तदनन्तरम् ।
त्रिसूत्रीकरणं
पश्चाद्धृदयेनाऽर्चनं मतम् ॥ ५ ॥
कुण्ड को लीपना,
उसमें चन्द्र सूर्य और अग्नि की कला की कल्पना करना, तीन सूत्र लपेटना, पुनः नमः पढ़कर अर्चन करना ये
क्रमश: बारह, तेरह और चौदहवें संस्कार हुये ॥ ५ ॥
अस्त्रेण वज्रीकरणं हृन्मन्त्रेण
कुशैः शुभैः ।
चतुष्पथं तनुत्रेण तनुयादक्षपाटनम्
॥ ६ ॥
यागे कुण्डानि संस्कुर्यात्
संस्कारैरेभिरीरितैः ।
अथवा तानि
संस्कुर्याच्चतुर्भिर्वीक्षणादिभिः ॥ ७ ॥
अस्त्र मन्त्र के कुण्ड को दृढ़
बनाना,
'नमः' मन्त्र पढ़कर अच्छे कुशों से कुण्ड में
चतुष्पथ निर्माण करना, वर्म मन्त्र पढ़कर उसका
इन्द्रियोच्चाटन करना तथा हुँकार से राक्षसों का अपसरण करना ये क्रमश: पन्द्रह,
सोलह, सत्रह तथा अट्ठारह संस्कार कुण्ड के
किये जाते हैं ।
अब अशक्तों के लिये कुण्ड का
संस्कार कहते हैं-
ऊपर कहे गये इन अट्ठारह प्रकार के
संस्कारों से कुण्ड का संस्कार करना । अशक्त होने पर केवल तत्तन्मन्त्रों से
वीक्षण,
प्रोक्षण, ताडन तथा अभ्युक्षण-ये चार ही
संस्कार करना चाहिए ।। ६-७ ।।
तिस्रस्तिस्रो लिखेल्लेखा हृदा
प्रागुदगग्रगाः ।
प्रागग्राणां स्मृता देवा
मुकुन्देशपुरन्दराः ॥ ८ ॥
पुनः उस कुण्ड में दक्षिण दिशा से
आरम्भ कर पूर्वाभिमुख तीन रेखा, तथा पश्चिम
दिशा के क्रम से उत्तराभिमुख तीन रेखा का निर्माण करना चाहिए। जिन तीन रेखाओं के
अग्रभाग पूर्वाभिमुख हैं उनके मुकुन्द, ईश्वर तथा पुरन्दर
देवता हैं, ऐसा समझना चाहिए ॥ ८ ॥
रेखाणामुदगग्राणां
ब्रह्मवैवस्वतेन्दवः ।
अथवा षट्कोणावृतं त्रिकोणं तत्र
संलिखेत् ॥ ९ ॥
जिन रेखाओं के अग्र भाग उत्तराभिमुख
हैं उनके ब्रह्मा, वैवस्वत तथा
चन्द्रमा देवता हैं । अथवा षट्कोण के भीतर एक त्रिकोण का निर्माण करना चाहिए ॥ ९ ॥
सर्वाण्यभ्युक्ष्य तारेण
योगपीठमथार्चयेत् ।
वागीश्वरीमृतुस्नातां
नीलेन्दीवरसन्निभाम् ॥ १० ॥
अग्निसंग्रहः ।
अग्निसंस्कारः
वागीश्वरेण संयुक्तामुपचारैः
प्रपूजयेत् ।
सूर्यकान्तादिसम्भूतं यद्वा
श्रोत्रियगेहजम् ॥ ११ ॥
आनीय चाग्निं पात्रेण क्रव्यादांशं
परित्यजेत् ।
संस्कुर्यात् तं यथान्यायं देशिको
वीक्षणादिभिः ॥ १२ ॥
पुनः 'प्रणव' मन्त्र से अभ्युक्षण कर वागीश्वरी के योगपीठ
की अर्चना करे । अर्चना का मन्त्र इस प्रकार है— 'ह्रीं
वागीश्वरी वागीश्वरयोयोंगपीठाय नमः' पुनः उस पीठ पर वागीश्वर
से संयुक्त नील कमल के समान स्वरूप वाली ऋतुस्नाता भगवती वागीश्वरी का पूजन
षोडशोपचार से करना चाहिए। 'ह्रीं' इस
मन्त्र से वागीश्वरी का तथा साध्यमन्त्र से वागीश्वर के पूजन का विधान कहा गया है
। इतनी क्रिया कर लेने के पश्चात् सूर्यकान्तमणि से उत्पन्न अग्नि अथवा
श्रोत्रियगृह् की अग्नि अथवा अरणि संभूत अग्नि पात्र में रख कर उसमें क्रव्याद अंश
को त्याग देवे । पुनः आचार्य को वीक्षण प्रोक्षण ताडन तथा अभ्युक्षण के द्वारा उस
अग्नि का संस्कार करना चाहिए। क्रव्यादांश के परित्याग की विधि अन्यत्र इस प्रकार बताई
गई है— ऊपर कही गई विधि के अनुसार पात्र में स्थित अग्नि का कुछ
अंश 'र' मन्त्र पढ़कर नैर्ऋत्य में
त्याग देवे। यह क्रव्याद अंश के परित्याग की विधि है ।। १०-१२ ॥
औदर्यबैन्दवाग्निभ्यां भौमस्यैक्यं
स्मरन् वसोः ।
योजयेद् वह्निबीजेन चैतन्यं पावके
तदा ॥ १३ ॥
तदनन्तर उस भौम अग्नि की औदर्य अथवा
परमात्मा रूप अग्नि से एकत्व की संभावना करते हुये ‘रँ' इस अग्नि मन्त्र को पढ़ कर उसमें चैतन्य की
स्थापना करनी चाहिए ॥ १३ ॥
तारेण मन्त्रितं मन्त्री
धेनुमुद्रामृतीकृतम् ।
अस्त्रेण रक्षितं
पश्चात्तनुत्रेणाऽवगुण्ठितम् ॥ १४ ॥
अर्चितं त्रिः परिभ्राम्य
कुण्डस्योपरि देशिकः ।
प्रदक्षिणं तदा
तारमन्त्रोच्चारणपूर्वकम् ॥ १५ ॥
मन्त्राः
आत्मनोऽभिमुखं वहिनं जानुस्पृष्टमहीतलः
।
शिवबीजधिया देव्या योनावेव
विनिक्षिपेत् ॥ १६ ॥
'प्रणव' मन्त्र
से उसे अभिमन्त्रित करना चाहिए, धेनुमुद्रा से अमृतीकरण,
अस्त्र मन्त्र से संरक्षण, कवच मन्त्र से
अवगुण्ठन तथा पुनः अर्चन कर कुण्ड के ऊपर उस अग्नि को तीन बार दाहिनी ओर घुमाना चाहिए
। पुनः प्रणव मन्त्र का उच्चारण कर स्वयं आचार्य पृथ्वी पर जानु रख कर अपने सामने
कुण्ड में देवी की योनि में शिव बीज का ध्यान करते हुये, अग्नि
स्थापित करे ।। १४-१६ ॥
पश्चाद्देवस्य देव्याश्च
दद्यादाचमनादिकम् ।
ज्वालयेन्मनुनाऽनेन तमग्निमथ देशिकः
॥ १७ ॥
अग्निस्थापन के अनन्तर आचार्य स्वयं
वागीश्वर तथा वागीश्वरी को आचमन करावे और आगे कहे जाने वाले मन्त्र से अग्नि को
प्रज्वलित करे ॥१७॥
चित्पिङ्गलं हनदहपचयुग्मान्युदीर्य
च ।
सर्वज्ञाज्ञापय स्वाहा मन्त्रोऽयं
प्रागुदीरितः ॥ १८ ॥
'चित्पिंगल हन हन दह दह पच पच,
सर्वज्ञाज्ञापय स्वाहा' यह मन्त्र अग्नि
प्रज्वलित करने का है, जिसे पहले भी कहा जा चुका है ॥ १८ ॥
अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं
हुताशनम् ।
सुवर्णवर्णममलं समिद्धं
विश्वतोमुखम् ॥ १९ ॥
अग्निजिह्वान्यासः
उपतिष्ठेत विधिवन्मनुनाऽनेन पावकम्
।
विन्यसेदात्मनो देहे मन्त्रैर्जिह्वा
हविर्भुजः ॥ २० ॥
अग्नि प्रज्वलित कर लेने के अनन्तर
आचार्य 'अग्नि प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं, हुताशनम् । सुवर्ण
वर्णममलं समिद्धं विश्वतोमुखम् ॥' इस मन्त्र से विधिपूर्वक
अग्नि की स्तुति करें तथा अग्नि की सप्तजिह्वा के वर्ण मन्त्रों से अपने शरीर का न्यास
करें ।। १९-२० ॥
लिङ्गपायुशिरोवक्त्रघ्राणनेत्रेषुसर्वतः
।
वह्निरार्घीशसंयुक्ताः सादियान्ताः
सबिन्दवः ॥ २१ ॥
गुणभेदेन जिह्वाभेदः
वर्णा मन्त्राः समुद्दिष्टा जिवानां
सप्तदेशिकैः ।
जिह्वास्तास्त्रिविधाः प्रोक्ता
गुणभेदेन कर्मसु ॥ २२ ॥
लिङ्ग,
पाद, शिर, मुख, घ्राण, नेत्र और सर्वांग इन सात स्थानों में वह्नि
(रेफ) इर (य) इन दो वर्णों का अर्धीश (ऊ) से युक्त कर इनके आदि में स से आरम्भ कर
य पर्यन्त वर्णों को बिन्दु से युक्त कर क्रमशः न्यास करे ।
प्रयोग - यथा - 'स्त्र्यं हिरण्यायै नमः लिङ्गे' इत्यादि। 'सं' से लेकर 'य' पर्यन्त सात वर्णों को आचार्यों ने अग्नि की सात जिह्वाओं का क्रमशः
वर्णमन्त्र कहा है। यज्ञ कर्मों में गुण के भेद से अग्नि की सात जिह्वाओं का तीन
भेद कहा गया है ।। २१-२२ ॥
हिरण्या गगना रक्ता कृष्णाऽन्या
सुप्रभा मता ।
बहुरूपाऽतिरक्ता च सात्त्विक्यो यागकर्मसु
॥ २३ ॥
हिरण्या,
गगना, रक्ता, कृष्णा,
सुप्रभा, बहुरूपा और अतिरिक्ता ये सात अग्नि
की सात्त्विकी जिह्वा हैं। इनका प्रयोग यज्ञ कर्म में किया जाता है ॥ २३ ॥
पद्मरागा सुवर्णान्या तृतीया
भद्रलोहिता ।
लोहिताऽनन्तरं श्वेता धूमिनी च
करालिका ॥ २४ ॥
राजस्यो रसना वहनेर्विहिताः
काम्यकर्मसु ।
विश्वमूर्त्तिस्फुलिङ्गिन्यौ
धूम्रवर्णा मनोजवा ॥२५ ॥
लोहितान्या करालाख्या काली तामस्य
ईरिताः ।
एताः सप्त नियुज्यन्ते क्रूरकर्मसु
मन्त्रिभिः ॥ २६ ॥
पद्मरागा,
सुवर्णा, भद्रलोहिता, लोहिता,
श्वेता, धूमिनी और करालिका- ये सात अग्नि की
राजसी जिह्वायें हैं। इनका प्रयोग काम्य कर्म में किया जाता है। विश्वमूर्ति,
स्फुलिङ्गिनी, धूम्रवर्णा, मनोजवा लोहिता, कराला और काली- ये अग्नि की तामसी
जिह्वायें हैं। मन्त्रवेत्ता लोग इनका प्रयोग क्रूर अभिचारादि कर्मों के लिये करते
हैं । २४-२६ ॥
तासामधिदेवताः
स्वस्वनामसमाभाः स्युर्जिह्वाः
कल्याणरेतसः ।
अमर्त्य - पितृ-
गन्धर्व-यक्ष-नाग-पिशाचकाः।
राक्षसाः सप्तजिह्वानामीरिता
अधिदेवताः ॥ २७ ॥
अग्नि की ये जिह्वायें जैसा नाम है,
उसी प्रकार का फल देती हैं देवता, पितर,
गन्धर्व, यक्ष, नाग,
पिशाच और राक्षस-ये सात इन जिहवाओं के अधिदेवता हैं ।। २७ ।।
वहनेरङ्गमनून् न्यस्येत्तनावुक्तेन
वर्त्मना ।
तदनन्तर ऊपर कही गई विधि के अनुसार
अग्नि के अङ्गमन्त्रों का स्व शरीर में न्यास करे। प्रयोग विधि यथा 'सहस्रार्चिषे हृदयाय नमः' इत्यादि ॥ २८ ॥
षडङ्गमन्त्राः
सहस्रार्चिः स्वस्तिपूर्ण
उत्तिष्ठपुरुषः पुनः ॥ २८ ॥
धूमव्यापी सप्तजिहवो धनुर्द्धर इति
क्रमात् ।
षडङ्गमनवः प्रोक्ता जातिभिः सह
संयुताः ॥ २९ ॥
सहस्रार्चि,
स्वस्तिपूर्ण, उत्तिष्ठपुरुष, धूमव्यापी, सप्तजिहव, धनुर्धर
- ये क्रमशः अग्नि के षडङ्गमन्त्र कहे गये हैं । ये मन्त्र नाम के अनुसार
अपने-अपने गुणों से युक्त हैं ॥ २९ ॥
अष्टमूर्तयः
मूर्त्तीरष्टौ तनौ न्यस्येद् देशिको
जातवेदसः ।
मूर्द्धासपार्श्वकट्यन्धु कटिपावसके
पुनः ॥ ३० ॥
प्रदक्षिणवशान् न्यस्येदुच्यन्ते ता
यथाक्रमात् ।
आचार्य अग्नि की आठ मूर्तियों से
क्रमश: अपने शरीर के १. मूर्धा, २. बायें
कन्धे, ३. वाम पार्श्व, ४. वाम कटि,
५. लिङ्ग, ६. पुनः दाहिनी कटि, ७. दाहिने पार्श्व तथा ८. दाहिने कन्धे में प्रदक्षिण क्रम से न्यास करे ।
अब अग्नि की उन आठ मूर्तियों के नाम क्रमशः कहते हैं ।। ३०-३१ ॥
जातवेदाः सप्तजिह्वो
हव्यवाहनसंज्ञकः ॥ ३१ ॥
अश्वोदरजसंज्ञोऽन्यः
पुनर्वैश्वानराहवयः ।
कौमारतेजाः स्याद्विश्वमुखो देवमुखः
स्मृताः ॥ ३२ ॥
ताराग्नयेपदाद्याः स्युर्नत्यन्ता वह्निमूर्त्तयः
।
१.जातवेद,
२. सप्तजिहव, ३. हव्यवाहन, ४. अश्वोदरज, ५. वैश्वानर, ६.
कौमार तेजा:, ७. विश्वमुख एवं ८. देवमुख–अग्नि के इन पदों के आदि में ॐ अग्नये शब्द तथा अन्त में नमः पद लगाकर
न्यास करे ।
प्रयोग विधि- यथा - 'ॐ अग्नये जातवेदसे नमः मूर्ध्नि' । इस मन्त्र से
मूर्धा में न्यास करे । इसी प्रकार दूसरे नाम से वाम स्कन्ध में प्रयोग करे ॥
३१-३३ ॥
आसनं कल्पयित्वाऽग्नेर्मूर्त्तिं
तस्य विचिन्तयेत् ॥ ३३ ॥
अग्निध्यानम्
इष्टं शक्तिं स्वस्तिकाभीतिमुच्चै-
दीर्घदर्भिर्धारयन्तं जवाभम् ।
हेमाकल्पं पद्मसंस्थं त्रिनेत्रं
ध्यायेद्वह्निं बद्धमौलिं जटाभिः ॥
३४ ॥
परिषिञ्श्चेत्ततस्तोयैर्विशुद्धैर्मेखलोपरि
।
दर्भैरगर्भैर्मध्यस्थमेखलायां परिस्तरेत्
॥ ३५ ॥
तदनन्तर रं अग्न्यासनाय नमः इस
मन्त्र से अग्नि को आसन देकर उन अग्नि की मूत्तियों का इस प्रकार ध्यान करे—
जिनके नीचे के दाहिने विशाल हाथ में वर, ऊपर
के दाहिने हाथ में शक्ति और ऊपर के बायें हाथ में स्वस्तिक तथा नीचे के बायें हाथ
में अभय मुद्रा है, बाहु विशाल तथा ऊँचे हैं। शरीर का वर्ण
जपाकुसुम के सदृश है, जिनका शरीर स्वर्ण के आभूषण से जगमगा
रहा है कमलासन पर जो विराजमान हैं, जिनके तीन नेत्र हैं और
शिर पर जटायें है। इस प्रकार अग्नि का ध्यान कर कुण्ड की मेखला को विशुद्ध जल से
अभिषिञ्चित करे और श्रेष्ठ आचार्य मध्य में रहने वाली मेखला का दर्भ से परिस्तरण
करें । ३३-३५ ॥
निक्षिपेद्दिक्षु परिधीन्
प्राचीवर्जं गुरूत्तमः ।
प्रादक्षिण्येन सम्पूज्यास्तेषु
ब्रह्मादिमूर्त्तयः ॥ ३६ ॥
उत्तम गुरु पूर्व दिशा को छोड़कर
शेष सभी दिशाओं में परिधि का निक्षेप करे । उसके बाद प्रदक्षिण क्रम से पुनः उन
परिधियों पर ब्रह्मादि मूर्त्तियों का पूजन करना चाहिए ।। ३६ ।।
विमर्श - पालाश,
वैकंकत, काश्मर्य तथा बिल्व के वृक्षों की एक
हाथ लम्बी तथा आर्द्र समिधा को परिधि कहते हैं॥३६॥
ध्यातं वह्निं यजेन्मध्ये
गन्धाद्यैर्मनुनाऽमुना ।
तदनन्तर पूर्वोक्त रीति से (द्र.
३४-३५) श्लोक में ध्यान की गई अग्नि का नीचे लिखे मन्त्रों से गन्धादि द्वारा पूजन
करे ॥ ३७ ॥
अग्निमन्त्रः
वैश्वानरजातवेदपदे पश्चादिहावह ॥ ३७
॥
लोहिताक्षपदस्यान्ते सर्वकर्माणि
साधय ।
वहिनजायावधिः प्रोक्तो मन्त्रः
पावकवल्लभः ॥ ३८ ॥
'वैश्वानर जातवेद इहावह ।
लोहिताक्ष सर्वकर्माणि साधय स्वाहा' यह अग्नि पूजन का मन्त्र
है अग्नि देव को यह मन्त्र अत्यन्त प्रिय है ।। ३८ ।।
मध्ये षट्स्वपि कोणेषु जिह्वा
ज्वालारुचो यजेत् ।
केशरेषूक्तमार्गेण पूजयेदङ्गदेवताः
॥ ३९ ॥
तदनन्तर षट्कोण के मध्य में अग्नि
की छः जिह्वाओं का क्रमशः ईशानादि क्रम से पूजन करे । केशरों में पूर्वोक्त रीति
से अङ्गदेवता का पूजन करे ॥ ३९ ॥
मूर्तिपूजा
दलेषु पूजयेन्मूर्त्तीः
शक्तिस्वस्तिकधारिणीः ।
लोकपालांस्ततो दिक्षु
पूजयेदुक्तलक्षणान् ॥ ४० ॥
अष्टदलों में शक्ति तथा स्वस्तिक धारण
करने वाली अग्नि की अष्टमूर्तियों का यजन करे । पत्र के अग्रभाग में असितादि
भैरवों से युक्त अष्ट मातृकाओं की तदनन्तर पूर्व में कहे गये लोकपालों का पूजन करे
॥ ४० ॥
स्रुक्स्रुवसंस्कारः
पश्चादादाय पाणिभ्यां स्रुक्स्रुवौ
तावधोमुखौ ।
त्रिः सम्प्रतापयेद्वहनौ दर्भानादाय
देशिकः ॥ ४१ ॥
तदग्रमध्यमूलानि
शोधयेत्तैर्यथाक्रमात् ।
गृहीत्वा वामहस्तेन प्रोक्षयेद्
दक्षिणेन तौ ॥ ४२ ॥
पुनः अपने दोनों हाथों में स्रुक
तथा स्रुवा ले कर उन्हें अधोमुख कर अग्नि से प्रतप्त करे । फिर कुशा ले कर उसके
अग्रभाग से उन दोनों का अग्रभाग, मध्यभाग से
मध्यभाग, मूल भाग से मूल भाग यथाक्रम संशुद्ध करे । तदनन्तर
उन्हें अपने बायें हाथ में रख कर दाहिने हाथ से प्रोक्षणी के जल से आसिञ्चन करें
।। ४१-४२ ॥
पुनः प्रताप्य तौ मन्त्री
दर्भानग्नौ विनिक्षिपेत् ।
आत्मनो दक्षिणे भागे स्थापयेत्तौ
कुशास्तरे ॥ ४३ ॥
पुनः मन्त्रवेत्ता विद्वान् आचार्य
उन दोनों को अग्नि पर प्रतप्त कर मार्जन करने वाले कुशों को अग्नि में प्रक्षिप्त
कर देवे और कुशा का आसन दे कर अपने दक्षिणभाग में उन्हें स्थापित करे ॥ ४३ ॥
आज्यसंस्कारः
आज्यस्थालीमथादाय
प्रोक्षयेदस्त्रवारिणा ।
तस्यामाज्यं विनिक्षिप्यं संस्कृतं
वीक्षणादिभिः ॥ ४४ ॥
तदनन्तर आज्यस्थाली को अस्त्र
मन्त्र का जप करते हुये जल से प्रक्षालित करे और उसमें घी रख कर वीक्षणादि से
सुसंस्कृत करे ॥ ४४ ॥
निरुह्य वायव्येऽङ्गारान् हृदा तेषु
निवेशयेत् ।
इदं तापनमुद्दिष्टं
देशिकैस्तन्त्रवेदिभिः ॥ ४५ ॥
पुनः कुण्ड से अग्नि निकाल कर
वायव्यकोण में उसे रखकर 'नमः' मन्त्र पढ़ते हुये उस घृत युक्त आज्यस्थाली को उस पर रख देवे । इसे
तन्त्रवेत्ता आचार्यों ने सम्मपन्नाज्य का तापन संस्कार कहा है ।। ४५ ।।
सन्दीप्य दर्भयुगलमाज्ये
क्षिप्त्वाऽनले क्षिपेत् ।
गुरुर्हृदयमन्त्रेण
पवित्रीकरणन्त्विदम् ॥ ४६ ॥
आचार्य दो कुशा अग्नि में प्रतप्त
कर उसे घी में डुबोकर 'नमः' मन्त्र पढ़ते हुये अग्नि में प्रक्षिप्त कर देवें इसे आज्य का पवित्रीकरण
कहते हैं ॥ ४६ ॥
दीप्तेन दर्भयुग्मेन नीराज्याज्यं स
वर्मणा ।
अग्नौ विसर्जयेद्
दर्भमभिद्योतनमीरितम् ॥ ४७ ॥
जलते हुये कुशा से कवच मन्त्र
द्वारा आज्य की आरती कर उसे अग्नि में विसर्जित कर देने का नाम अभिद्योतन संस्कार
है ॥ ४७ ॥
घृते प्रज्वलितान् दर्भान्
प्रदर्श्याऽस्त्राणुना गुरुः ।
जातवेदसि तान् न्यस्येदुद्योतनमिदं
मतम् ॥ ४८ ॥
आचार्य जलते हुये कुशा को अणु
मन्त्र से घृत में दिखा कर पुनः उसे अग्नि में डाल देवे तो उसे उद्योतन कहते हैं ॥
४८ ॥
होमविधिः
गृहीत्वा घृतमङ्गारान्
प्रत्यूह्याऽग्नौ जलं स्पृशेत् ।
अङ्गगुष्ठोपकनिष्ठाभ्यां दर्भी
प्रादेशसम्मितौ ॥ ४९ ॥
घृत्वोत्पुनीयादस्त्रेण घृतमुत्पवनन्त्विदम्
।
तद्वद्धृदयमन्त्रेण कुशाभ्यामात्मसम्मुखम्
॥ ५० ॥
घृते संप्लवनं कुर्यात् संस्काराः
षडुदीरिताः ।
प्रादेशमात्रं सग्रन्थि दर्भयुग्मं
घृतान्तरे ॥ ५१ ॥
निक्षिप्य भागौ द्वौ कृत्वा पक्षौ
शुक्लेतरौ स्मरेत् ।
वामे नाडीमिडां भागे दक्षिणे
पिङ्गलां पुनः ॥ ५२ ॥
सुषुम्णां मध्यतो ध्यात्वा
कुर्याद्धोमं यथाविधि ।
आज्यस्थाली को नीचे उतार कर उस
अग्नि को कुण्ड की अग्नि से संयुक्त कर जल का स्पर्श करे । पुनः प्रादेश मात्र
कुशा अङ्गुष्ठ तथा अनामिका अङ्गुली में धारण कर अस्त्र मन्त्र पढ़ते हुये घृत को
पवित्र करे । इसे घृत का उत्प्लवन संस्कार कहते हैं। पुनः 'नमः' मन्त्र पढ़ते हुये दो कुशाओं से घृत को अपने
संमुख ऊपर उछाले इस क्रिया का नाम उत्प्लवन है। यहाँ तक हमने आज्य के छः संस्कारों
का वर्णन किया । प्रादेश प्रमाण के ग्रन्थियुक्त दो दर्भ, घृत
के मध्य में डुबोकर उसे दो भाग कर बायीं तथा दाहिनी ओर फेंक देवे, तदनन्तर बाई ओर शुक्ल पक्ष का तथा दाहिनी ओर कृष्णपक्ष का ध्यान करे ।
पुनः बाई ओर इडा नाडीं का तथा दाहिनी ओर पिङ्गला का और मध्य में सुषुम्णा नाड़ी का
ध्यान कर स्रुवा से अपनी दाहिनी ओर से, घृत लेकर नमः मन्त्र
पढ़ते हुये होम प्रारम्भ करे ।। ४९-५३ ॥
स्रुवेण दक्षिणाद्भागादादायाऽऽज्यं
हृदा गुरुः ॥ ५३ ॥
जुहुयादग्नये
स्वाहेत्यग्नेर्दक्षिणलोचने ।
वामतस्तद्वदादाय वामे वह्निविलोचने
॥ ५४ ॥
सर्वप्रथम 'अग्नये स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि के दाहिने नेत्र
में हवन करें । इसी प्रकार 'अग्नये स्वाहा' मन्त्र पढ़कर बाई ओर से घृत ले कर अग्नि के वाम नेत्र में हवन करे ॥ ५४ ॥
जुहुयादथ सोमाय स्वाहेति हृदयाणुना
।
मध्यादाज्यं समादाय
वहनेर्भालविलोचने ॥ ५५ ॥
जुहुयादग्नीषोमाभ्यां स्वाहेति
हृदयाणुना ।
हृन्मन्त्रेण स्रुवेणाज्यं
भागादादाय दक्षिणात् ॥ ५६ ॥
पुनः 'नमः' इस मन्त्र को पढ़कर मध्यभाग से ख़ुवा से घृत
लेकर 'सोमाय स्वाहा' मन्त्र पढ़ते हुये
अग्नि के भालस्थ नेत्र में आहुति प्रदान करे । पुनः दक्षिणभाग से 'नमः' इस मन्त्र से स्रुवा से घृत लेकर 'अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा' हृदयाय नमः मन्त्र से होम
करे ।। ५५-५६ ॥
जुहुयादग्नये स्विष्टिकृते स्वाहेति
तन्मुखे ।
इति सम्पातयेद् भागे
स्वाज्यस्याऽन्वाहुतिक्रमात् ॥ ५७ ॥
'अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा'
इस मन्त्र से अग्नि के मुख में आहुति प्रदान करे। इस प्रकार से गुरु
प्रत्येक आहुतियों को अग्नि के नेत्र, हृदय तथा मुख में गिरावे
॥ ५७ ॥
इत्यग्निनेत्रवक्त्राणां
कुर्यादुद्घाटनं गुरुः ।
सताराभिर्व्याहृतिभिराज्येन
जुहुयात् पुनः ॥ ५८ ॥
अग्नेर्गर्भाधानादिसंस्कारः
जुहुयादग्निमन्त्रेण त्रिवारं
देशिकोत्तमः ।
गर्भाधानादिका वहनेः क्रिया
निर्वर्त्तयेत् क्रमात् ॥ ५९ ॥
गुरु उपर्युक्त प्रकार से अग्नि के
नेत्र तथा मुख का उद्घाटन करे । फिर प्रणवयुक्त व्याहृतियों के द्वारा घृत का होम
कर पश्चात् 'अग्नये स्वाहा' इस मन्त्र से तीन आहुति प्रदान करे । इतना कर लेने के पश्चात् क्रमशः
अग्नि की गर्भधानादि क्रिया संपादन करे ॥ ५८-५९ ॥
अष्टाभिराज्याहुतिभिः प्रणवेन पृथक्
पृथक् ।
गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तोन्नयनं
पुनः ॥ ६० ॥
अनन्तरं जातकर्म स्यान्नामकरणं तथा
।
उपनिष्क्रमणं पश्चादन्नप्राशनमीरितम्
॥ ६१ ॥
चौलोपनयने भूयो महानाम्यं महाव्रतम्
।
अथोपनिषदं पश्चाद् गोदानोद्वाहकौ
मृतिः ॥ ६२ ॥
प्रणव मन्त्र के द्वारा प्रत्येक
संस्कारों में घृत से पृथक् पृथक् आठ आठ आहुति प्रदान करे । गर्भाधान,
पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म,
नामकरण, उपनिष्क्रमण, अन्नप्राशन,
चूडाकर्म, उपनयन, समावर्तन,
स्नान के पश्चाद् गोदान, उद्वाह और मृति ये
संस्कारों के नाम हैं । ६०-६२ ॥
शुभेषु स्युर्विवाहान्ताः
क्रियास्ताः क्रूरकर्मसु ।
मरणान्ताः समुद्दिष्टा
वहनेरागमवेदिभिः ॥ ६३ ॥
शुभ कार्यों में अग्नि का विवाहान्त
संस्कार करे । किन्तु क्रूर अभिचारादि कार्यों में मरणान्त संस्कार की विधि कही गई
है। ऐसा आगम शास्त्र के विद्वानों का मत है ॥ ६३ ॥
तस्य पितृपूजा
ततश्च पितरौ तस्य सम्पूज्यात्मनि
योजयेत् ।
समिधः पञ्च
जुहुयान्मूलाग्रघृतसंप्लुताः ॥ ६४॥
इतना संस्कार कर लेने के पश्चात्
आचार्य अग्नि के माता पिता की पूजा कर उस अग्नि को आत्मा में स्थापित करें और पाँच
समिधायें जो मूल से लेकर अग्रभाग तक घी में डुबोई गई हों उनका हवन करें ।। ६४ ।
मन्त्रैर्जिवाङ्गमूर्त्तीनां
क्रमाद्वहनेर्यथाविधि ।
प्रत्येकं जुहुयादेकामाहुतिं म (त)
न्त्रवित्तमः ॥ ६५ ॥
इसी प्रकार यथाविधि अग्नि की जिह्वा,
उनके अङ्ग और मूर्तियों के प्रत्येक मन्त्र से मन्त्रज्ञ आचार्य एक
आहुति प्रदान करें ।। ६५ ।।
अवदाय स्रुवेणाज्यं चतुः स्रुचि
पिधाय ताम् ।
स्रुवेण तिष्ठन्नेवाऽग्नौ देशिको
यतमानसः ॥ ६६ ॥
जुहुयाद्वनिमन्त्रण वौषडन्तेन
सम्पदे ।
विघ्नेश्वरस्य मन्त्रेण
जुहुयादाहुतीर्दश ॥ ६७ ॥
पुनः आचार्य दत्तचित्त हो स्रुवा से
चार बार घृत ले कर स्रुचा में स्थापित कर उस स्रुचा को स्रुवा से ढक कर खड़े हो 'वौषड्' अन्त वाले अग्नि के मन्त्रों से हवन करें ।
इसके बाद महागणेश मन्त्र से पूर्व-पूर्व से मिलाते हुए दश आहुति प्रदान करनी चाहिए
।। ६६-६७ ।।
सामान्यं सर्वतन्त्राणामेतदग्निम
(मु) खं मतम् ।
ततः पीठं समभ्यर्च्च देवताया हुताशने
॥ ६८ ॥
सभी तन्त्रों के मत में इतना
अग्निकार्य मुख्य रूप से होना चाहिए। पुनः उस अग्नि में प्रकृत देवता के पीठ का
पूजन करना चाहिए ॥ ६८ ॥
अर्चयेद्बहिनरूपां तां
देवतामिष्टदायिनीम् ।
तन्मुखे जुहुयान्मन्त्री
पञ्चविंशतिसंख्यया ॥ ६९ ॥
तदनन्तर इष्ट फल प्रदान करने वाले
उस प्रकृत देवता का अग्निरूप से पूजन कर मन्त्रज्ञ आचार्य पच्चीस आहुति उनके मुख
में प्रदान करे ॥ ६९ ॥
आज्येन मूलमन्त्रेण
वक्त्रैकीकरणन्त्विदम् ।
वहिनदेवतयोरैक्यमात्मना सह भावयन् ॥
७० ॥
इस प्रकार मूलमन्त्र से आज्य के
द्वारा अग्नि का एकीकरण किया जाता है। तदनन्तर उस अग्नि और प्रकृत इष्टदेवता का
एकीकरण अपनी आत्मा के साथ करे ॥ ७० ॥
नाडीसन्धानम्
मूलमन्त्रेण
जुहुयादाज्येनैकादशाहुतीः ।
नाडीसन्धानमुद्दिष्टमेतदागमवेदिभिः
॥ ७१ ॥
जुहुयादङ्गमुख्यानामावृतीनामनुक्रमात्
।
एकैकामाहुतिं सम्यक् सर्पिषा
देशिकोत्तमः ॥ ७२ ॥
तदनन्तर मूलमन्त्र से ग्यारह घृत की
आहुति अग्नि में प्रदान करे। आगम शास्त्र के विद्वानों ने इसे 'नाडीसन्धान' की संज्ञा कही है ॥ ७१ ॥
इसी प्रकार आचार्य अनुक्रम से अग्नि
के अङ्ग देवताओं और परिवार देवताओं के मूल मन्त्र से घी की १-१ आहुति प्रदान करें
। (द्र.५.२९) ॥ ७२ ॥
दीक्षाविधौ
द्वितीयदिनकृत्यम्
ततोऽन्येष्वपि कुण्डेषु संस्कृतेषु
यथाविधि ।
आचार्यों विहरेदग्निं पूर्वादिषु
समाहितः ॥ ७३ ॥
तदनन्तर अन्य कुण्डों में जिनका
संस्कार पूर्वोक्त रूप से भली प्रकार कर लिया गया हो पूर्वादि कुण्ड के ईशान
पर्यन्त दिशाओं के क्रम से आचार्य समाहित चित्त हो अग्नि स्थापन करें ॥ ७३ ॥
विमर्श—ऋत्विज अपने अपने कुण्ड में १८ संस्कार विधि के अनुसार करे और आचार्य
सर्वत्र अविच्छेद रूप से अग्नि विहरण करें ।। ७३ ।।
ऋत्विजो
गन्धपुष्पाद्यैरङ्गाद्यावरणान्विताम् ।
तन्त्रोक्तदेवतामिष्ट्वा
पञ्चविंशतिसंख्यया ।
मूलेनाज्येन जुहुयुः साज्येन चरुणा
तथा ॥ ७४ ॥
ऋत्विज गन्ध पुष्पादि उपचारों से
अङ्गादि आवरणों से युक्त तन्त्रोक्त देवता का पूजन कर मूल मन्त्र पढ़ते हुये केवल
आज्य की अथवा आज्य संयुक्त चरु से २५ आहुति द्वारा अग्नि में हवन करें ।। ७४ ।।
प्रातरुत्थाय जुहुयुः
पुनराज्यान्वितैस्तिलैः ।
द्रव्यैर्वा कल्पविहितैः सहस्रं
साष्टकं पृथक् ॥ ७५ ॥
पुनः दूसरे दिन प्रातः काल उठकर
आज्ययुक्त तिल की २५ आहुति अग्नि में देवें अथवा हवनीय पदार्थों में शास्त्र विहित
पृथक् पृथक् द्रव्यों से १०८ आहुति प्रदान करें ।। ७५ ।।
षडध्वशोधनम्
ततः सुधौतदन्तास्यं स्नातं शिष्यं
समाहितम् ।
पाययित्वा पञ्चगव्यं
कुण्डस्याऽन्तिकमानयेत् ॥ ७६ ॥
विलोक्य दिव्यदृष्ट्या तं
तच्चैतन्यं हृदम्बुजात् ।
गुरुरात्मनि संयोज्य
कुर्यादध्वविशोधनम् ॥ ७७ ॥
तदनन्तर अच्छी प्रकार से दाँत आदि को
शुद्धकर स्नान किये हुये आस्तिक धर्मात्मा शिष्य को स्वयं आचार्य पञ्चगव्य पिलाकर
कुण्ड के समीप ले आवें । पुनः उसे दिव्य दृष्टि से देख कर उसके चैतन्य शक्ति को
हृदयकमल से खींचकर अपनी आत्मा में उसे संयुक्त कर अध्वशोधन की क्रिया करें ।।
७६-७७ ।।
उक्त कलाध्वा तत्त्वाध्वा
भुवनाध्वेति च त्रयम् ।
वर्णाध्वा च पदाध्वा च
मन्त्राध्वेत्यपरं त्रयम् ॥ ७८ ॥
कलाध्वा तत्त्वाध्वा,
और भुवनाध्वा ये तीन अर्थरूप अध्वा हैं। वर्णाध्वा, पदाध्वा, और मन्त्राध्वा ये शब्द रूप अध्वा कहे गये
हैं ।। ७८ ।।
कलाध्वकथनम्
निवृत्याद्याः कलाः पञ्च कलाध्वेति
प्रकीर्त्तितः ।
तत्त्वाध्वकथनम्
तत्त्वाध्वा बहुधा भिन्नः
शिवाद्यागमभेदतः ॥ ७९ ॥
षट्त्रिंशच्छिवतत्त्वानि
द्वात्रिंशद्वैष्णवानि तु ।
ॐ चतुर्विंशतितत्त्वानि मैत्राणि
प्रकृतेः पुनः ॥ ८० ॥
शिवतत्त्वानि
उक्तानि दश तत्त्वानि सप्त च
त्रिपदात्मनः ।
निवृत्ति आदि पाँच कलायें कलाध्वा
कही जाती हैं । (१. निवृत्ति, २. प्रतिष्ठा,
३. विद्या, ४. शान्ति और ५ शान्त्यतीता - ये
पाँच कलाध्वा हैं) । तत्त्वाध्वा, शिवादि आगम भेद से बहुधा
विभिन्न प्रकारों से कहे गये हैं । शैवागम के अनुसार ३६ तत्त्व हैं, वैष्णव आगमों में ३२ तत्त्व कहे गये हैं । सांख्यमत में २४ तत्त्व कहे गये
हैं, प्रकृति के मत में दश तत्त्व कहे गये हैं और त्रिपुरा
के मत में सात तत्त्व कहे गये हैं । ७९-८१ ॥
तत्त्वानि शैवान्युच्यन्ते शिवः
शक्तिः सदाशिवः ॥ ८१ ॥
ईश्वरो विद्यया सार्द्धं पञ्च
शुद्धान्यमूनि हि ।
माया कालश्च नियतिः कला विद्या पुनः
स्मृता ॥ ८२ ॥
रागः पुरुष एतानि शुद्धाशुद्धानि
सप्त च ।
अब शिवतत्त्व का प्रतिपादन करता हूँ
। १. शिव,
२. शक्ति, ३. सदाशिव, ४.
विद्या और ५. ईश्वर—ये पाँच शुद्ध तत्त्व कहे गये हैं। १.
माया, २. काल, ३. नियति, ४. कला, ५. विद्या, ६. राग और
७. पुरुष—ये सात शुद्धाशुद्ध तत्त्व कहे गये हैं ॥ ८१-८३ ॥
प्रकृतिर्बुद्ध्यहङ्कारो मनो
ज्ञानेन्द्रियाण्यथ ॥ ८३ ॥
कर्मेन्द्रियाणि तन्मात्राः
पञ्चभूतानि देशिकाः ।
एतान्याहुरशुद्धानि
चतुर्विंशतिरागमे ॥ ८४ ॥
शैवानामिति तत्त्वानां विभागोऽत्र
प्रदर्शितः ।
१. प्रकृति,
२. बुद्धि, ३. अहङ्कार, ४.
मन, ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५
कर्मेन्द्रियाँ, ५ तन्मात्रायें और पञ्चमहाभूत-ये २४ तत्त्व
आगमशास्त्र में अशुद्धतत्त्व कहे गये हैं । इस प्रकार हमने यहाँ शिवतत्त्व के ३६
भेदों का वर्णन किया ।। ८३-८५ ॥
वैष्णवतत्त्वानि
॥ जीवप्राणधियश्चित्तं
ज्ञानकर्मेन्द्रियाण्यथ ॥ ८५ ॥
तन्मात्राः पञ्चभूतानि हृत्पद्यं
तेजसां त्रयम् ।
वासुदेवादयश्चेति तत्त्वान्येतानि
शार्ङ्गिणः ॥ ८६ ॥
मैत्रतत्त्वानि
पञ्चभूतानि तन्मात्रा इन्द्रियाणि
मनस्तथा ।
गर्वो बुद्धिः प्रधानञ्च मैत्राणीति
विदुर्बुधाः ॥ ८७ ॥
प्रकृतितत्त्वानि
निवृत्याद्याः कलाः पञ्च ततो
बिन्दुः कला पुनः ।
नादः शक्तिः सदापूर्वः शिवश्च
प्रकृतेर्विदुः ॥ ८८ ॥
त्रिपदतत्त्वानि
आत्मविद्या शिवः पश्चाच्छिवो विद्या
स्वयं पुनः ।
सर्वतत्त्वञ्च तत्त्वानि प्रोक्तानि
त्रिपदात्मनः ॥ ८९ ॥
जीव, प्राण, बुद्धि, चित्त, पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्चकर्मेन्द्रियाँ, पञ्चतन्मात्रायें, पञ्चमहाभूत, हृत्पद्म, सूर्य, चन्द्र
अग्न्यात्मक तीन तेज, वासुदेवादि चतुर्व्यूह - ये ३२ तत्त्व
वैष्णवतत्त्व कहे गये हैं । पञ्चभूत, पञ्चतन्मात्रा, दश इन्द्रियाँ, मन, अहङ्कार,
बुद्धि और प्रधान (प्रकृति) — ये २४ तत्त्व
सांख्यमत के तत्त्व कहे गये हैं। निवृत्ति आदि पाँच कलायें, बिन्दुकला,
नाद, शक्ति और सदाशिव ये प्रकृति तत्त्व कहे
गये हैं । १. आत्मा, २. विद्या, ३ शिव,
४ शिव, ५. विद्या, ६.
आत्मा और ७. सर्वतत्त्व - ये सात त्रिपुरा के तत्त्व कहे गये हैं। यहाँ तक आगम
शास्त्र के विद्वानों ने तत्त्वाध्वा का विवेचन किया है ।। ८५-९० ।।
तत्त्वाध्वा कथितो ह्येष
तत्तदागमवेदिभिः ।
भुवनाध्वकथनम्
ईरितो भुवनाध्वेति भुवनानि मनीषिभिः
॥ ९० ॥
वर्णाध्वकथनम्
वर्णाध्वेति
वदन्त्यर्णानादिक्षान्तान् मनीषिणः ।
पदाध्वकथनम् ।
मन्त्राध्वकथनम्
वर्णसङ्घः पदाध्वा
स्यान्मन्त्राध्वा मन्त्रराशयः ॥ ९१ ॥
मनीषियों ने भवनों को 'भुवनाध्वा' कहा है। अकार से लेकर क्षकारान्त वर्णों
को विद्वानों ने 'वर्णाध्वा' कहा है।
इस प्रकार वर्णों का समूह पदाध्वा कहा जाता है और मन्त्र समूह को मन्त्राध्वा कहा
जाता है ॥ ९०-९१ ॥
क्रमादेतानध्वनः षट् शोधयेद्
गुरुसत्तमः ।
पादान्धुनाभिहृद्भालमूर्द्धस्वपि
शिशोः स्मरेत् ॥ ९२ ॥
तदनन्तर कुण्ड के समीप बैठे हुये
शिष्य के ऊपर कहे गये षडध्वजों का गुरु स्वयं संशोधन करें और उन्हीं षडध्वों का
क्रमशः पाद, गुह्य, नाभि,
हृदय, भाल और शिर: प्रदेश में स्मरण कर शोधन
करे ।। ९२ ।।
प्रयोग विधि
- यथा—
पाद में कलाध्वा का स्मरण कर 'गुह्यनाभिहृद्वक्त्र-
शिरःसु पञ्चकला विन्यसामि इस प्रकार से कलाध्वा का शोधन करे । पुनः गुह्यस्थान में
तत्त्वाध्वा का स्मरण कर 'नाभिहृदयभालशिरःसु तत्त्वान्
विन्यसामि । इस प्रकार तत्त्वाध्वा का शोधन करे। इसी प्रकार भुवनाध्वा का नाभि में,
हृदय में वर्णाध्वा का, भाल में पदाध्वा का और
शिर में मन्त्राध्वा का स्मरण पूर्वक न्यास कर षडध्वों का संशोधन करना चाहिए।।९२।।
ततः कूर्चेन विधिवत्तं स्पृशेत्
जुहुयाद् गुरुः ।
आचार्यकुण्डे संशुद्धैस्तिलैराज्यपरिप्लुतैः
॥ ९३ ॥
शोधयाम्यमुमध्वानं स्वाहेति
पृथगध्वना ।
ताराद्यमाहुतीरष्टौ क्रमात्तान्
विलयं नयेत् ॥ ९४ ॥
शिवे शिवात्तान् संलीनान् जनयेत्
सृष्टिमार्गतः ॥ ९५ ॥
तदनन्तर आचार्य कुश समूह से शिष्य
का स्पर्श करते हुये आठ आहुति प्रदान करे । आचार्य कुण्ड में शुद्ध किये गये तिलों
को घृत से परिपूर्ण कर 'अध्वानं शोधयामि
स्वाहा' इस मन्त्र से अध्वा के लिये पृथक् आहुति प्रदान करे
। पुनः प्रणव के द्वारा आठ आहुति देकर संहार क्रम से उस अग्नि को शिव में विलीन कर
देवे । तदनन्तर उस विलीन अग्नि को सृष्टि मार्ग से उत्पन्न करे ।। ९४-९५ ।।
शिष्ये आत्मचैतन्ययोजनम्
विलोकयन् दिव्यदृष्ट्या तं शिशुं
देशिकोत्तमः ।
आत्मस्थितं तच्चैतन्यं पुनः शिष्ये
नियोजयेत् ॥ ९६ ॥
शिष्य में गुरु द्वारा आत्मचैतन्य
का नियोजन - आचार्य दिव्य दृष्टि से शिष्य की ओर देखते हुये आत्मगत चैतन्य शिष्य
में पुनः स्थापित करें । ९६ ॥
स्रुचा पूर्णाहुतिं दत्त्वा
मूलमन्त्रेण मन्त्रवित् ।
उद्वास्य देवतां कुम्भे साङ्गां
सावरणां गुरुः ॥ ९७ ॥
पुनर्व्याहृतिभिर्हुत्वा
जिह्वादीनां विभावसोः ।
एकैकामाहुतिं हुत्वा
परिषिच्याऽद्धिरात्मनि ॥ ९८ ॥
पावकं योजयित्वा स्वे परिधीन्
सपरिस्तरान् ।
नैमित्तिके दहेन्मन्त्री नित्ये तु
न दहेदिमान् ॥ ९९ ॥
मन्त्रज्ञ साधक मूल मन्त्र पढ़ कर
स्रुचा से पूर्णाहुति प्रदान करे । पुनः अग्नि में स्थापित अङ्ग आवरण सहित,
समस्त देवताओं का विसर्जन कर उन्हें कुम्भ में स्थापित करे। व्यस्त
एवं समस्त व्याहृतियों से हवन कर अग्नि की जिहवाओं एवं अधिदेवता, अङ्ग मूर्ति, लोकपाल, तथा उनके
आयुधों को भी नाम के आगे चतुर्थ्यन्त विभक्तिपूर्वक अन्त में स्वाहा लगा कर एक एक
आहुति प्रदान करे । फिर प्रोक्षणी के जल से अग्नि को अभिषिक्त कर उस अग्नि को अपनी
आत्मा में एकीकरण कर, परिधियों (पूर्वोक्त ३६ श्लोक) को
परिस्तरण सहित अग्नि में जला देवे। यह क्रिया मन्त्रज्ञ साधक नैमित्तिक कर्म में
ही करे । नित्यकर्म में इन परिधियों का दहन न करे ।। ९७-९९ ॥
नेत्रे शिष्यस्य
बघ्नीयान्नेत्रमन्त्रेण वाससा ।
करे गृहीत्वा तं शिष्यं कुण्डतो
मण्डलं नयेत् ॥ १०० ॥
पुनः नवीन वस्त्र से नेत्र मन्त्र
(नेत्रभ्यां वौषट् ) पढ़ते हुये आचार्य शिष्य के नेत्रों को बाँध देवें और शिष्य
का हाथ पकड़ कर उसे कुण्ड के समीप ले आवें ॥ १०० ॥
तस्याञ्जलिं पुनः पुष्पैः पूरयित्वा
यथाविधि ।
कलशे देवताप्रीत्यै
क्षेपयेन्मूलमुच्चरन् ॥ १०१ ॥
पुनः शिष्य की अञ्जुलि को फूलों से
विधिपूर्वक परिपूर्ण कर मूल मन्त्र पढ़ते हुये पश्चिम द्वार पर उसे ले आकर कलश पर
उन फूलों को चढ़वा देवें, जिससे देवता
प्रसन्न हों ॥ १०१ ॥
व्यपोह्य तं नेत्रबन्धमासीनं दर्भसंस्तरे
।
आत्मयागक्रमाद् भूयः
संहृत्योत्पाद्य देशिकः ॥ १०२ ॥
इसके बाद उसका नेत्र खोल देवें और
सुख से कुश के आसन पर बैठाकर आगे कही जाने वाली विधि के अनुसार भूत संहार तथा भूत
सृष्टि क्रम से उससे आत्मयाग करावें ॥ १०२ ॥
तत्तन्मन्त्रोदितान् न्यासान्
कुर्याद् देहे शिशोस्तदा ।
पञ्चोपचारैः कुम्भस्थां
पूजयित्वेष्टदेवताम् ॥ १०३॥
आचार्य सर्वप्रथम उस शिष्य से कुम्भ
स्थित तत्तद् देवताओं का पञ्चोपचार पूजन करा कर उसके शरीर में तत्तद्देवताओं का
न्यास करे ।। १०३ ॥
तस्याः तन्त्रोक्तमार्गेण विदध्यात्
सकलीकृतिम् ।
मण्डलेऽलंकृते शिष्यमन्यस्मिन्नुपवेशयेत्
॥ १०४ ॥
तदनन्तर तन्त्रशास्त्र में कही गई
विधि के अनुसार उसका सकलीकरण (कला से युक्त) करें। इसके बाद उस शिष्य को अन्य
अलंकृत मण्डल (मण्डल से बाहर ईशान कोण) में उसे बैठावे ।। १०४ ॥
शिष्यकृत्यम् नदत्सु पञ्चवाद्येषु
सार्द्धं विप्राशिषा गुरुः ।
विधिवत् कुम्भमुद्धृत्य
तन्मुखस्थान् सुरद्रुमान् ॥ १०५ ॥
शिशोः शिरसि विन्यस्य मातृकां मनसा
जपन् ।
मूलेन साधितैस्तोयैरभिषिञ्चेत्
तमात्मवित् ॥ १०६ ॥
ब्राह्मणों के आशीर्वाद तथा
पञ्चवाद्य बाजों के साथ आचार्य विधिपूर्वक कुम्भ को उठाकर,
उसमें स्थापित कल्पवृक्षों को मन में विलोम रूप से मातृकाओं का जप
करते हुये, शिष्य के शिर पर रखें। फिर मूल मन्त्र से कलश के
जल द्वारा उसका अभिषेक करें ।। १०५-१०६ ॥
पूजितां पुनरादाय
वर्द्धनीमस्त्ररूपिणीम् ।
तस्यां सुसाधितैस्तोयैः
सिचेद्रक्षार्थमञ्जसा ॥ १०७ ॥
तदनन्तर पूर्व में अस्त्र मन्त्र से
पूजी गई वर्धनी (सनाल पात्र) को लेकर उसमें रखे गये जल से तत्त्वों के द्वारा उसका
अभिषेक करें ।। १०७ ॥
अवशिष्टेन तोयेन शिष्यमाचामयेद्
गुरुः ।
ततस्तं
सकलीकुर्याद्देवतात्मानमात्मवित् ॥ १०८ ॥
(अभिषेकावशिष्ट) शेष जल से शिष्य को
आचमन करा देवें। इस प्रकार जब वह देवता स्वरूप हो जाय तब आचार्य उसका सकलीकरण (कला
से युक्त) करें ॥ १०८ ॥
उत्थाय शिष्यो विमले वाससी परिधाय च
।
आचम्य वाग्यतो भूत्वा निषीदेत्
सन्निधौ गुरोः ॥ १०९ ॥
तदनन्तर शिष्य वहाँ से उठकर स्वच्छ
और नवीन उत्तरीय तथा स्वच्छ वस्त्र धारण करें। तत्पश्चात् आचमन करके मौन होकर पुनः
गुरु के सन्निधान में बैठे ॥ १०९ ॥
देवतामात्मनः शिष्ये संक्रान्तां
देशिकोत्तमः ।
पूजयेद् गन्धपुष्पाद्यैरैक्यं
सम्भावयस्तयोः ॥ ११० ॥
आचार्य शिष्य की आत्मा में देवता का
संक्रमण जान कर देवता से अभिन्न शिष्य की गन्ध पुष्पादि से पूजा करें ॥ ११० ॥
दद्याद्विद्यां ततस्तस्मै
विनीतायाऽम्बुपूर्वकम् ।
गुरोर्लब्धां पुनर्विद्यामष्टकृत्वो
जपेत् सुधीः ॥ १११ ॥
पुनः विनीत शिष्य के हाथ में जल
देकर उसे मन्त्र दान करे । विद्वान् शिष्य भी गुरु द्वारा मन्त्र ग्रहण कर आठ बार
उस मन्त्र का जप करे ॥ १११ ॥
विमर्श
- विद्या दान के बाद स्वशक्ति की हानि न हो इसलिए गुरु को एक हजार आठ मन्त्र जाप
करना चाहिए।।१११॥
गुरुविद्यादेवतानामैक्यं सम्भावयन्
धिया ।
प्रणमेद्दण्डवद्भूमौ गुरुं तं
देवतात्मकम् ॥ ११२ ॥
पुनः गुरु,
मन्त्र तथा देवता में एकत्व की भावना करते हुये शिष्य देवतात्मक
अपने गुरु को साष्टांग प्रणाम करे ॥ ११२ ॥
तस्य पादाम्बुजद्वन्द्वं
निजमूर्द्धनि योजयेत् ।
शरीरमर्थं प्राणञ्च सर्वं तस्मै
निवेदयेत् ॥ ११३ ॥
गुरु के दोनों चरण कमलों को अपने
शिर पर लगावें और अपना शरीर अपना समस्त धन तथा अपना प्राण गुरु को समर्पित करे ॥
११३ ॥
ततः प्रभृति कुर्वीत गुरोः
प्रियमनन्यधीः ।
ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां दत्त्वा
समग्रां प्रीतमानसः ॥ ११४ ॥
उसी दिन से वह अनन्य बुद्धि हो गुरु
का समस्त प्रिय कार्य करे तथा प्रसन्न मन से समस्त ऋत्विजों को दक्षिणा देवे ।।
११४ ॥
ब्राह्मणांस्तर्पयेत् पश्चाद्
भक्ष्यभोज्यैः सदक्षिणैः ।
एषा क्रियावती दीक्षा प्रोक्ता
सर्वसमृद्धिदा ॥ ११५ ॥
पुनः भक्ष्य एवं भोज्य पदार्थों का
ब्राह्मणों को भोजन करावे और उन्हें दक्षिणा द्वारा संतुष्ट करे। यहाँ तक हमने
क्रियावती दीक्षा का वर्णन किया इस दीक्षा से संपूर्ण समृद्धि प्राप्त होती है ॥
११५ ॥
वर्णात्मिकादीक्षा
अथ वर्णात्मिकां वक्ष्ये
दीक्षामागमवेदिताम् ।
पुंप्रकृत्यात्मका वर्णाः शरीरमपि
तादृशम् ॥ ११६ ॥
यतस्तस्मात्तनौ न्यस्येद् वर्णान्
शिष्यस्य देशिकः ।
तत्तत्स्थानयुतान् वर्णान्
प्रतिलोमेन संहरेत् ॥ ११७ ॥
स्वाज्ञया देवताभावाद् विधिना
देशिकोत्तमः ।
तदा विलीनतत्त्वोऽयं शिष्यो
दिव्यतनुर्भवेत् ॥ ११८ ॥
परमात्मनि संयोज्य तच्चैतन्यं
गुरूत्तमः ।
अब आगम शास्त्र में प्रतिपादित
वर्णात्मिका दीक्षा का वर्णन करता हूँ- सभी वर्ण पुरुष रूप हैं तथा शरीर भी पुरुष
रूप है। इसलिये आचार्य पुरुष रूप वर्णों को शिष्य के पुरुष शरीर में न्यास करें।
पुनः शिष्यगत चैतन्य को परमात्मा में संयुक्त कर, स्वयं देवस्वरूप हो अपनी आज्ञा से प्रतिलोम क्रम से आगे आगे के स्थान
युक्त वर्णों को पूर्व पूर्व स्थान युक्त वर्णों में उपसंहृत करें । इस प्रकार
शिष्य के शरीर में वर्णों के विलीन कर देने से उसका शरीर देवमय हो जाता है।।११६-११९॥
तस्मादुत्पाद्य तान् वर्णान्
न्यस्येच्छिष्यतनौ पुनः ॥ ११९ ॥
सृष्टिक्रमेण विधिवच्चैतन्यञ्च
नियोजयेत् ।
जायते देवताभावः परानन्दमयः शिशोः ॥
१२० ॥
एषा वर्णमयी दीक्षा प्रोक्ता
सम्वित्प्रदायिनी ।
पुनः उत्तम गुरु उन्हीं वर्णों को
शिष्य के शरीर से उद्भूत कर शरीर में सृष्टिक्रम के अनुसार न्यास करें और शिष्यगत्
चैतन्य को परमात्मा में संयुक्त करें । ऐसा करने से शिष्य में देवताभाव आता है और
वह शुद्ध आनन्द स्वरूप हो जाता है। इस प्रकार हमने वर्ण दीक्षा का विधान कहा जो
समस्त ज्ञानों की जननी है ॥ ११९-१२० ॥
कलावती दीक्षा
ततः कलावती दीक्षा यथावदभिधीयते ॥
१२१ ॥
निवृत्त्याद्याः कलाः पञ्च भूतानां
शक्तयो यतः ।
तस्माद् भूतमये देहे ध्यात्वा ता
वेधयेच्छिशोः ॥ १२२ ॥
अब कलावती दीक्षा का विधान कहता
हूँ-
यतः निवृत्ति आदि पाँच कलायें समस्त
भूतों की शक्तियाँ हैं अतः आचार्य उन कलाओं का ध्यान कर शिष्य के पञ्चभूतमय शरीर
का भेदन कर उन्हें शरीर में प्रवष्टि करावें । १२१-१२२ ॥
निवृत्तिर्जानुपर्यन्तं तलादारभ्य
संस्थिता ।
जानुनोर्नाभिपर्यन्तं प्रतिष्ठा
व्याप्य तिष्ठति ॥ १२३ ॥
शरीर में पैर के तलवे के आरम्भ से
जानुपर्यन्त भाग में निवृत्तिकला स्थित है और जानु से नाभि पर्यन्त भाग में
प्रतिष्ठाकला व्याप्त होकर स्थित है ॥ १२३ ॥
नाभेः कण्ठावधि व्याप्ता विद्या
शान्तिस्ततः परम् ।
कण्ठाल्ललाटपर्यन्तं व्याप्ता
तस्माच्छिखावधि ॥ १२४ ॥
शान्त्यतीता कला ज्ञेया
कलाव्याप्तिरितीरिता ।
संहारक्रमयोगेन स्थानात्
स्थानान्तरे गुरुः ॥ १२५ ॥
संयोज्य वेधयेद् विद्वानाज्ञया ताः
शिवा (रो) ऽवधि ।
इयं प्रोक्ता कला दीक्षा
दिव्यभावप्रदायिनी ॥ १२६ ॥
नाभि से आरम्भ कर कण्ठावधि पर्यन्त
भाग में विद्या कला, उसके बाद कण्ठ से
ललाट पर्यन्त भाग में शान्तिकला तथा ललाट से शिखा पर्यन्त भाग में शान्त्यतीता कला
व्याप्त है—ऐसा समझना चाहिए। गुरु इन पाँच कलाओं का वेधन
संहार क्रम के अनुसार करे। आज्ञाचक्र से शिवचक्र पर्यन्त एक चक्र को दूसरे चक्र
में संयुक्त करें। इसे कला दीक्षा कहते हैं। इस दीक्षा से दिव्यभाव की प्राप्ति
होती है ।। १२४-१२६ ॥
वेधमयीदीक्षा
ततो वेधमयीं वक्ष्ये दीक्षां
संसारमोचनीम् ।
ध्यायेच्छिष्यतनोर्मध्ये मूलाधारे
चतुर्दले ॥ १२७ ॥
त्रिकोणमध्ये विमले
तेजस्त्रयविजृम्भिते ।
वलयत्रयसंयुक्तां तडित्कोटिसमप्रभाम्
॥ १२८ ॥
षट्चक्र भेदवर्णनम्
शिवशक्तिमयीं देवीं
चेतनामात्रविग्रहाम् ।
अब संसार से मुक्त करने वाली वेधमयी
दीक्षा का वर्णन करता हूँ- आचार्य सर्वप्रथम शिष्य के शरीर के मूलाधार स्थित
त्रिकोण के मध्य में जहाँ विमल चतुर्दल कमल है जो सोम,
सूर्य तथा अग्निमय तीनों तेजों से खिला हुआ है वहाँ कुण्डलिनी का
ध्यान करें। वह कुण्डलिनी तीन वलय से युक्त है, उसका प्रकाश
करोड़ों विद्युत्प्रभा के समान है। उसका शरीर चैतन्य से युक्त है वह सूक्ष्म से भी
सूक्ष्म है, इस प्रकार शिव शक्तिमयी कुण्डलिनी देवी का ध्यान
करना चाहिए ।। १२७-१२९ ॥
सूक्ष्मां सूक्ष्मतरां शक्तिं
भित्वा षट्चक्रमञ्जसा ॥ १२९ ॥
गच्छन्तीं मध्यमार्गेण दिव्यां
परशिवावधि ।
वह अनायास षट्चक्रों (मूलाधार
स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत,
विशुद्ध एवं आज्ञा) का भेदन कर सुषुम्नारूप मध्य मार्ग के द्वारा
परशिव पर्यन्त जाती है, ऐसी दिव्य कुण्डलिनी देवी का ध्यान
करें ।। १२९-१३० ।।
वादिसान्तदलस्थार्णान् संहरेत्
कमलासने ॥ १३० ॥
तं षट्पत्रमये पद्मे
बादिलान्ताक्षरान्विते ।
स्वाधिष्ठाने समायोज्य वेधयेदाज्ञया
गुरुः ॥ १३१ ॥
तान् वर्णान् संहरेद् विष्णौ तं
पुनर्नाभिपङ्कजे ।
दशपत्रे डादिफान्त-वर्णाढ्ये
योजयेद् गुरुः ॥ १३२ ॥
तदनन्तर उस मूलाधार स्थित व र ल श ष
स इन अक्षरों वाले षड्दल कमल को ब्रह्म में उपसंहार कर,
ब भ म य र ल रूप षट् पत्रमय कमल रूप स्वाधिष्ठान चक्र में उसे युक्त
कर विष्णु में उपसंहृत करे। पुनः उन वर्णों को भी वहाँ से उठाकर नाभि चक्र स्थित ड
ढ ण त थ द ध न प फ रूप दशपत्र कमल वाले मणिपूर चक्र में संयुक्त करे ।। १३०-१३२ ॥
तान् वर्णान् संहरेद् रुद्रे तं
पुनर्हृदयाम्बुजे ।
कादिठान्तार्कवर्णाढ्ये
योजयित्वेश्वरे गुरुः ॥ १३३ ॥
पुनः उन वर्णों का रुद्र में
उपसंहार कर हृदय स्थित क ख ग घ ड च छ ज झ ञ ट ठ रूप द्वादशपत्रात्मक कमल वाले
आज्ञा चक्र में स्थापित कर ईश्वर में गुरु उपसंहृत करे ॥ १३३ ॥
तान् वर्णान् सहरेदस्मिंस्तं भूयः
कण्ठपङ्कजे ।
स्वराढ्यषोडशदले योजयित्वा स्वरान्
पुनः ॥ १३४ ॥
सदाशिवे तान् संहृत्य तं पुनर्भूसरोरुहे
।
पुनः उन वर्णों को वहाँ से ऊपर
उठाकर कण्ठ स्थित षोडश स्वरात्मक रूप षोडश पत्र कमल वाले विशुद्ध चक्र में स्थापित
कर सदाशिव में उनका उपसंहार करे ।। १३४-१३५ ॥
द्विपत्रे हक्षलसिते योजयित्वा ततो
गुरुः ॥ १३५ ॥
तदर्णी संहरेद् बिन्दौ कलायां तं
नियोजयेत् ।
तां नादेऽनन्तर नादं नादान्ते
योजयेद् गुरुः ॥ १३६ ॥
तमुन्मन्यां समायोज्य
विष्णुवक्त्रान्तरे च ताम् ।
तां पुनर्गुरुवक्त्रे तु योजयेद्
देशिकोत्तमः ॥ १३७ ॥
पुनः उन वर्णों को भी वहाँ से ऊपर
उठाकर भ्रूमध्य स्थित ह क्ष वर्ण वाले द्विपत्रात्मक कमल वाले आज्ञाचक्र में
स्थापित कर बिन्दु में उसे कला से संयुक्त करे । पुनः उसे नाद में एवं नाद को पुनः
नाद में तथा उन्हें भी नादान्त में संयुक्त करे । पुनः उसे उन्मनी में संयुक्त कर
विष्णु के मुख में, पुनः उसे भी गुरु
के मुख में आचार्य संयुक्त करें ।। १३५-१३७ ॥
अनया शिष्यस्य
दिव्यबोधावाप्तिः
सहैवमात्मना शक्तिं वेधयेत्
परमेश्वरे ।
गुर्वाज्ञया छिन्नपाशस्तदा शिष्यः
पतेद्भुवि ॥ १३८ ॥
इस प्रकार शिष्य की जीवात्मा को
कुण्डलिनी शक्ति द्वारा भेदन कर उसे परमात्मा में स्थापित करे। ऐसा करने से शिष्य
पाश से मुक्त हो पृथ्वी पर गिर कर गुरु को प्रणाम करे ॥ १३८ ॥
विमर्श
- पाशत्रय निम्न हैं- १. सहज प्राप्त भोग, २.
आगन्तुक भोग और ३. संसर्ग जन्य भोग। ये तीनों पाश बन्धन करने वाले हैं जैसा कि कहा
है-
पाशस्तु सत्सु चासत्सु कर्मस्वास्था
समीरित ।
त्रिविधः स तु विज्ञेयः पाशो
बन्धैकसाधनः ॥
प्रथमः सहजः पाशस्तथा चागन्तुकः परः
।
प्रासंगि(संसर्गि) कस्तृतीयः
स्यादिति पाशत्रयं स्मृतम् ॥
इस प्रकार दीक्षा का प्रयोजन
पाशत्रय से मुक्ति है । इनका विधि-विधान अन्य ग्रन्थों से लेकर विस्तृत विवेचन
पदार्थादर्श में भी किया गया है। इसे इसी ग्रन्थ की भूमिका में देखना चाहिए ।। १३८
।।
सञ्जातदिव्यबोधोऽसौ सर्वं विन्दति
तत्क्षणात् ।
साक्षात् शिवो भवत्येष नात्र कार्या
विचारणा ॥ १३९ ॥
वेध के होने से शिष्य में सर्वज्ञता
आ जाती है और वह सब कुछ जानने लगता है, वह
शिव स्वरूप हो जाता है, इसमें संदेह नहीं ।। १३९ ॥
एषा वेधमयी दीक्षा
सर्वसम्वित्प्रदायिनी ।
क्रमाच्चतुर्विधा दीक्षा
तन्त्रेऽस्मिन् सम्यगीरिता ॥ १४० ॥
यहाँ तक हमने वेधमयी दीक्षा का
वर्णन किया। यह वेधमयी दीक्षा संपूर्ण ज्ञान को देने वाली है। इस प्रकार यहाँ तक
इस तन्त्र में क्रमशः चार प्रकार की दीक्षा का वर्णन सम्यक् रूप से किया गया है ॥
१४० ॥
होमद्रव्यमानम्
अथाऽत्र होमद्रव्याणां प्रमाणमभिधीयते
।
कर्षमात्रं घृतं होमे शुक्तिमात्रं
पयः स्मृतम् ॥ १४१ ॥
अब हम दीक्षा में किये जाने वाले
होम द्रव्यों का प्रमाण वर्णन करते हैं- होम में कर्षमात्र घृत तथा शक्तिप्रमाण
(दो कर्ष) दूध होना चाहिए ॥ १४१ ॥
उक्तानि पञ्च गव्यानि तत्समानि
मनीषिभिः ।
तत्समं मधु-
दुग्धान्नमक्षमात्रमुदाहृतम् ॥ १४२ ॥
मनीषियों ने पञ्चगव्य का भी उतना ही
प्रमाण (दो कर्ष) कहा है, मधु, दुग्ध एवं चावल की भी मात्रा कर्ष प्रमाण में होनी चाहिए ॥ १४२ ॥
दधि प्रसृतिमात्रं स्याल्लाजाः
स्युर्मुष्टिसम्मिताः ।
पृथुकास्तत्प्रमाणाः स्युः
शक्त्वोऽपि तथोदिताः ॥ १४३ ॥
दही प्रसृति (दो पल) मात्र लावा
मुष्टि (एक पल) मात्र, चिउड़ी तथा सत्तू भी
उतने ही प्रमाण में होने चाहिए ॥ १४३ ॥
गुडं पलार्द्धमानं स्याच्छर्कराऽपि
तथा मता ।
ग्रासार्द्ध चरुमानं स्यादिक्षुः
पर्वावधिर्मतः ॥ १४४ ॥
दो कर्ष गुड़ की मात्रा,
शर्करा भी उतने ही प्रमाण में, आधा ग्रास
(अस्सी रत्ती) चरु, एक पर्व मात्र उख होम द्रव्य में कहे गये
हैं ॥ १४४ ॥
एकैकं पत्रपुष्पाणि तथाऽपूपानि
कल्पयेत् ।
कदलीफलनारङ्गफलान्येकैकशो विदुः ॥
१४५ ॥
एक पुष्प,
एक पत्र तथा एक अपूप (पूआ), एक कदलीफल (केला),
तथा नारंगी भी एक एक की ही संख्या में कही गई हैं ।। १४५ ।।
मातुलुङ्ग चतुःखण्डं पनसं दशधा
कृतम् ।
अष्टधा नारिकेलानि खण्डितानि
विदुबुधाः ॥ १४६ ॥
मातुलिङ्ग (बिजौरा-नीबू) के चार
टुकड़े,
पनस (कटहल) के दश टुकड़े एवं नारिकेल के आठ टुकड़े बुद्धिमानों ने
हवन द्रव्य के लिये प्रशस्त कहे हैं ॥ १४६ ॥
त्रिधा कृतं फलं बिल्वं कपित्थं
खण्डितं त्रिधा ।
उर्वारुकफलं होमे चोदितं खण्डितं
त्रिधा ॥ १४७ ॥
एक बिल्व के तीन टुकड़े,
कपित्थ को फोड़कर उसे भी तीन टुकड़े के रूप में और कर्कटी भी फोड़
कर उसे तीन भाग में विभक्त कर होम में ग्रहण करना चाहिए ।। १४७ ॥
फलान्यन्यानि खण्डानि समिधः
स्युर्दशाङ्गुलाः ।
दूर्वात्रयं समुद्दिष्टं गुडूची
चतुरङ्गुला ॥ १४८ ॥
इसी प्रकार अन्यान्य फलों के तीन
टुकड़े तथा दश अङ्गुल की समिधा एवं तीन अङ्गुल की दूर्वा तथा गुडूची चार अङ्गुल की
होम में ग्राह्य मानी गई हैं ॥ १४८ ॥
ब्रीहयो मुष्टिमात्राः
स्युर्मुद्गमाषा यवा अपि ।
तण्डुलाः स्युस्तदर्द्धांशाः
कोद्रवा मुष्टिसम्मिताः ॥ १४९ ॥
एक मुट्ठी व्रीहि (धान्य) एक एक
मुट्ठी मूँग, माष (उड़द) और यव तथा उसका आधा
चावल, एवं एक मुट्टी कोदों का चावल होम में प्रमाण रूप से
ग्रहण करना चाहिए ॥ १४९ ॥
गोधूमरक्ता विहिता मुष्टिमानतः ।
तिलाचलुकमात्राः स्युः
सर्षपास्तत्प्रमाणकाः ॥ १५० ॥
गेहूँ तथा रक्त कमल की मात्रा एक
मुट्ठी होनी चाहिए । तिल और सर्षप की मात्रा एक एक पसर होनी चाहिए।।१५०।।
शुक्तिप्रमाणं लवणं
मरीचान्येकविंशतिः ।
पुरं वदरमानं स्याद्रामठं तत्समं
स्मृतम् ॥ १५१ ॥
लवण की मात्रा शुक्ति (दो कर्ष)
मात्र तथा २१ मरीच, गुगुल, (अस्सी रत्ती) मात्र, तथा रामठ (हींग) भी उतनी ही
मात्रा में ग्राह्य है ।। १५१ ॥
चन्दनागुरुकर्पूर-कस्तूरी
कुङ्कुमानि च ।
तिन्तिडीबीजमानानि समुद्दिष्टानि
देशिकैः ॥ १५२ ॥
चन्दन,
अगुरु, कपूर, कस्तूरी,
कुंकुम तथा इमली का बीज भी उतनी ही मात्रा में आचार्यों ने कहा है ॥
१५२ ॥
होमभेदे अग्नेर्ध्यानभेदः
वैश्वानरं स्थितं ध्यायेत्
समिद्धोमेषु देशिकः ।
शयानमाज्यहोमेषु निषण्णं शेषवस्तुषु
॥ १५३ ॥
जब समिधा का होम करना हो तो आचार्य
अग्नि को खड़े रूप में ध्यान करें। घी का होम करना हो तो सोये रूप में तथा शेष
वस्तुओं के होम में उन्हे बैठे हुये रूप में ध्यान करें और विद्वान् साधक को अग्नि
के मुख में आहुति डालना चाहिए ।। १५३ ॥
अग्नेरास्यादि
आस्यान्तर्जुहुयादग्नेर्विपश्चित् सर्वकर्मसु
।
सधूमोऽग्निः शिरो ज्ञेयं
निर्धूमश्चक्षुरेव हि ॥ १५४ ॥
धूमयुक्त अग्नि की शिर संज्ञा है,
धूम रहित अग्नि की चक्षु संज्ञा है, जलती
कालिमा युक्त अग्नि की कर्ण संज्ञा है और केवल काठ ही दिखाई पड़े तो उसे नासा (=
नासिका) कहते हैं ॥ १५४ ॥
ज्वलत्कृष्णो भवेत् कर्णः
काष्ठमग्नेर्नसस्तथा ।
प्रज्वलोऽग्निस्तथा जिह्वा
एतदेवाऽग्निलक्षणम् ॥ १५५ ॥
अच्छी प्रकार से जलने वाली अग्नि,
जिह्वा कही जाती है, यहीं अग्नि के लक्षण हैं।
विद्वान् को चाहिए कि सभी कार्यों में अग्नि की जिह्वा (जब प्रकृष्ट रूप से अग्नि
जल रही हो) में होम करें ।। १५५ ॥
अङ्गभेदे होमफलभेदः
कर्णहोमे भवेद्
व्याधिर्नेत्रेऽन्धत्वमुदीरितम् ।
नासिकायां मनः पीडा मस्तके
धनसंक्षयः ॥ १५६ ॥
क्योंकि कर्णस्थान में होम करने से
व्याधि,
नेत्र स्थान में होम करने से अन्धता, नासिका
स्थान में मानसिक पीड़ा तथा मस्तक में होम करने से धन का संक्षय होता है अतः
प्रज्वलित अग्नि में होम करे ॥ १५६ ॥
विमर्श-यदि
शत्रुनाश के लिए होम हो तो इन अंगों में होम करने से उसके वे भंग हो जाते हैं ।।
१५६ ॥
वर्णभेदेन होमफलभेदः
स्वर्णसिन्दूरबालार्क कुङ्कुम
क्षौद्रसन्निभः ।
सुवर्णरतसो वर्णः शोभनः परिकीर्तितः
॥ १५७ ॥
सुवर्ण,
सिन्दूर, उदित सूर्य के समान लाल, कुंकुम तथा क्षौद्र- ये हूयमान अग्नि के वर्ण कहे गये हैं। इनमें अग्नि का
सुवर्ण वर्ण प्रशस्त है क्योंकि अग्नि सुवर्णरता कहे गए हैं ॥ १५७ ॥
ध्वनिभेदेन होमफलभेदः
भेरीवारिदहस्तीन्द्रध्वनिर्वह्नेः
शुभावहः ।
गन्धभेदेन होमफलभेदः
नागचम्पकपुन्नागपाटलायूथिकानिभः॥
१५८ ॥
पद्मेन्दीवरकहलारसर्पिर्गुग्गुलुसन्निभः।
पावकस्य शुभो गन्ध इत्युक्तं
तन्त्रवेदिभिः ॥ १५९ ॥
भेरी, बादल और हाथी के समान शब्द करने वाली अग्नि प्रशस्त कही गई है। नाग,
चम्पक, पुन्नाग, पाटला
(गुलाब) यूथिका, कमल, इन्दीवर, कहलार, घी, और गुग्गुल के समान
यदि अग्नि की गन्ध हो तो वह शुभकारक है ऐसा तन्त्रज्ञों का कहना है ॥। १५८-१५९ ।।
प्रदक्षिणास्त्यक्तकम्पाश्छत्राभाः
शिखिनः शिखाः ।
शुभदा यजमानस्य राज्यस्यापि विशेषतः
॥ १६० ॥
धूमवर्णभेदेन होमफलभेदः
कुन्देन्दुधवलो धूमो वहनेः प्रोक्तः
शुभावहः ।
कृष्णः कृष्णगतेर्वर्णो यजमानं
विनाशयेत् ॥ १६१ ॥
कम्पन रहित छत्राकार अग्नि की
ज्वाला दाहिनी ओर जाती हो तो यजमान के लिये शुभप्रद हैं,
राज्य के लिये तो विशेष रूप से शुभकारक है । अग्नि का कुन्द तथा
इन्दु (लाल) के समान स्वच्छ वर्ण का धूम शुभप्रद हैं, यदि
अग्नि की ज्वाला काली दिखाई पड़े तो उससे यजमान का विनाश होता है ।। १६०- १६१ ॥
श्वेतो राष्ट्रं निहन्त्याशु
वायसस्वरसन्निभः ।
खरस्वरसमो वहनेः ध्वनिः सर्वविनाशकृत्
॥ १६२ ॥
श्वेत अग्नि का काक के समान कर्कश
स्वर राष्ट्र का विनाश करता है और गदहे के समान अग्नि का शब्द सब कुछ विनष्ट कर
देता है ॥ १६२ ॥
पूतिगन्धो हुतभुजो होतुर्दुःखप्रदो
भवेत् ।
छिन्नवर्त्ता शिखा कुर्यान्मृत्युं
धनपरिक्षयम् ॥ १६३ ॥
अग्नि का दुर्गन्ध युक्त गन्ध होता
को दुःख देता है। अग्नि की शिखा (ज्वाला) जब छिन्न भिन्न दिखाई पड़े तो यजमान की
मृत्यु तथा धन को नष्ट करने वाली होती है ॥ १६३ ॥
शुकपक्षनिभो धूमः पारावतसमप्रभः ।
हानिं तुरगजातीनां गवाञ्च
कुरुतेऽचिरात् ॥ १६४ ॥
होमकाल में सुग्गे के पंख के समान
अग्नि के धुएँ का वर्ण घोड़े की जाति का विनाश करता है और कश्तर के समान प्रभावाली
अग्नि गायों का अल्प काल में विनाश करती है ॥ १६४ ॥
एवंविधेषु दोषेषु प्रायश्चित्ताय
देशिकः ।
मूलेनाज्येन जुहुयात्
पञ्चविंशतिमाहुतीः ॥ १६५ ॥
उपर्युक्त प्रकार के दोष युक्त
अग्नि के दिखाई पड़ने पर आचार्य मूलमन्त्र पढ़कर पच्चीस आहुति और प्रदान कर
प्रायश्चित करें ॥ १६५ ॥
॥ इति
श्रीलक्ष्मणदेशिकेन्द्रविरचिते शारदातिलके पञ्चमः पटलः समाप्तः ॥ ५ ॥
॥ इस प्रकार शारदातिलक के पश्चम पटल
की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ५ ॥
आगे जारी........ शारदातिलक पटल 6

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