शारदातिलक
शारदातिलक प्रधान रूप से मन्त्रयोग
साधना विषयक ग्रन्थ है । नामरूपात्मक विषय जीव को बन्धन युक्त करते हैं और इस
नामरूपात्मक प्रकृति वैभव से जीव अविद्याग्रस्त हुए रहते हैं। अतः अपनी अपनी
सूक्ष्म प्रकृति और प्रवृत्ति की गति के अनुसार नाममय शब्दब्रह्म तथा भावमय रूप के
अवलम्बन से जो योग साधना की जाती है उसे मन्त्रयोग कहते हैं। शारदातिलक
श्रीलक्ष्मणदेशिकेन्द्र के द्वारा रचित है।
शारदातिलकम्
शारदातिलक २५ पटलों में विभक्त है।
क्योंकि २५ ही सांख्य तत्त्व होते हैं। शारदातिलक के २५वें पटल के ८७वें श्लोक में
राघवभट्ट कहते हैं कि शारदातिलक का प्रथम पटल (सांख्य की) प्रकृति है क्योंकि यह
सृष्टि के विषय में प्रतिपादन करता है। आगे के तेईस पटल अर्थात् २ से २४ तक
प्रकृति एवं विकृति दोनों ही हैं और अन्तिम २५वाँ पटल जो योग से सम्बन्धित है
सांख्य के पुरुष को सूचित करता है जो कि प्रकृति एवं विकृति से परे है । शारदातिलक
के २५ पटलों में विभिन्न देवियों के बीजमन्त्र, देवी-देवता,
उनकी शक्तियाँ, दीक्षा, अठारह
संस्कार, मातृकाएँ, तान्त्रिक मन्त्रों
से पूजा, जगद्धात्री, त्वरिता, दुर्गा, त्रिपुरा, गणेश,
नृसिंह एवं पुरुषोत्तम आदि के मन्त्र और उनके जप, पूजन, ध्यान आदि के प्रकार वर्णित हैं ।
शारदातिलकतन्त्रम्
शारदातिलक का अर्थ है स्थूलकर्म का
फल जो प्रदान करे उसे 'शारदा' कहते हैं, उसका तिलक अर्थात् भूषण स्वरूप शारदातिलक
है । अथवा शरः / स्वतन्त्रम्, तस्य भावः शारम् /
स्वातन्त्र्यम् तद् ददातीति शारदा तस्याः तिलकम् । प्राणी का जीवभाव निरस्त कर उसे
अनन्त ऐश्वर्य प्रदान करने वाली शारदा का यह तिलक है। तिलक कहने का एक अभिप्राय यह
भी है कि शरीर में सर्वप्रथम तिलक दिखाई पड़ता है उसी प्रकार यह भी तन्त्र के सभी
ग्रन्थों में मुख्य एवं अपने ढङ्ग का अनूठा ग्रन्थ है। शारदातिलक सब ग्रन्थों का
सार है एवं चारों पुरुषार्थों की सिद्धि का हेतु है । स्वयं ग्रन्थकार कहते हैं-
सारं वक्ष्यामि तन्त्राणां
शारदातिलकं शुभम् ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां प्राप्तेः
परमकारणम् ॥
इस ग्रन्थ में शब्दार्थ सृष्टि आदि
विषय हैं,
धर्मार्थादि पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति फल है
प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाव सम्बन्ध है । पुरुषार्थ चतुष्टय को चाहने वाला अधिकारी है
।
शारदातिलक तन्त्र
शारदातिलक का प्रथम श्लोक परमात्मा
की स्तुति में प्रतिपादित है जिन्हें महः नाम से कहा गया है । महः वस्तुतः परमात्म
तत्त्व है जो कि पुरुष एवं प्रकृति दोनों को सूचित करता है। तेईसवें और पचीसवें
पटल में इस परमतत्त्व के बारे में अधिक विवेचन किया गया है।
शारदातिलकम्
शारदातिलक पटल 1
शारदातिलक पटल 2
शारदातिलक पटल 3
शारदातिलक पटल 4
शारदातिलक पटल 5
शारदातिलक पटल 6
शारदातिलक पटल 7
शारदातिलक पटल 8
शारदातिलक पटल 9
शारदातिलक पटल 10
शारदातिलक पटल 11
शारदातिलक पटल 12
शारदातिलक पटल 13
शारदातिलक पटल 14
शारदातिलक पटल 15
शारदातिलक पटल 16
शारदातिलक पटल 17
शारदातिलक पटल 18
शारदातिलक पटल 19
शारदातिलक पटल 20
शारदातिलक पटल 21
शारदातिलक पटल 22
शारदातिलक पटल 23
शारदातिलक पटल 24
शारदातिलक पटल 25

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