शारदातिलक पटल १
शारदातिलक पटल १ ब्रह्मस्वरूप
प्रकरण है। इस प्रकरण में गुरु की स्तुति शक्ति की स्तुति एवं शब्दब्रह्मोत्पत्ति
का निरूपण है। पश्यन्ती शब्द सृष्टि का कथन करते हुए षट्कोषों की उत्पत्ति एवं
कुण्डली शक्ति का विभुत्व वर्णित है । अन्त में मातृका वर्णों का सोमसूर्याग्नि
रूपत्व बताया गया है।
शारदातिलक पटल १
Sharada tilak patal 1
शारदातिलकम् प्रथमः पटल:
शारदातिलकतन्त्रम् (प्रथमो भागः )
शारदा तिलक तन्त्र पहला पटल
शारदातिलकम्
अथ प्रथमः पटल:
अथ मङ्गलाचरणम्
महः स्तुतिः
नित्यानन्दवपुर्निरन्तरगलत्पञ्चाशदणैः
क्रमाद्
व्याप्तं येन चराचरात्मकमिदं
शब्दार्थरूपं जगत् ।
शब्दब्रह्म यचिरे
सुकृतिनश्चैतन्यमन्तर्गतं
तवोऽव्यादनिशं शशाङ्कसदनं वाचामधीशं
महः ॥ १ ॥
जिनका शरीर नित्य आनन्द स्वरूप है,
निरन्तर प्रवाहित हो रहे पचास वर्णों से जिसके द्वारा शब्दार्थ रूप
चराचरात्मक यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, तत्त्वज्ञ लोग जिसे
शब्दब्रह्ममय कहते हैं, जो सुषुम्ना के अन्तर्गत चैतन्य रूप
से स्थित रहकर सहस्रार पद्म स्थित चन्द्रमण्डल तक गमन करते हैं, जो सभी वर्णों के उत्पादक तथा सम्पूर्ण मन्त्रों के जनक होने के कारण वाणी
के अधीश्वर हैं- ऐसे तेज: स्वरूप वाग्देवता आप सभी शिष्यों की रक्षा करें ॥ १ ॥
विमर्श - आरम्भ में ग्रन्थकार
क्रियमाण ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिये तथा शिष्य प्रशिष्यों की शिक्षा के
लिये शिष्टाचारानुमितकर्तव्यताक मङ्गल करते हैं । यतः इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम
सरस्वती के मन्त्रों का प्रतिपादन किया गया है, अतः
ग्रन्थारम्भ में सरस्वती का स्मरण करना उचित है। इसलिए ग्रन्थकार सर्वप्रथम
वाग्देवता रूप तेज का स्मरण करते है। श्लोक का अन्य अर्थ इस प्रकार भी है—
(१)शिवशक्त्यात्मक जिस तेज का
आनन्दमय शरीर है, चन्द्रकला को मस्तक
में धारण करने से जो शशाङ्कसदन हैं और जो (अनिशम् अश्च अश्च औ तेन सहिता निशा
अर्थात् हकार उस पर शशाङ्कसदन अर्थात् अनुस्वार देने से) हौঁ इस मन्त्र के देवता हैं और
वाणी रूप सृष्टि का उपबृंहण करने के कारण क्रमशः व्यक्त हो रहे अपने पचास वर्णों
से सारे शब्दार्थ रूप चराचर जगत् में व्याप्त हैं, पुण्यात्मा लोग जिसके अन्तर्गत चैतन्य को शब्दब्रह्म कहते हैं इस प्रकार
का कोई अभूतपूर्व तेज आप सब शिष्यों की रक्षा करे ।
अथवा शब्दसृष्टि एवं अर्थसृष्टि
दोनों ही प्रकार की सृष्टि कुण्डलिनी से होती है इसलिए ग्रन्थकार कुण्डलिनी रूप
महातेज का स्मरण करते हैं ।
(२) जिस कुण्डलिनी रूप तेज का नित्य
आनन्दस्वरूप शरीर है, जो परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी रूप वाणी को उत्पन्न करने
से वाणी का अधीश्वर है, जो सुषुम्नान्तर्गत चैतन्य रूप में
चन्द्रमण्डल तक गमन करता है और पचास बार में पचास बर्णों को उत्पन्न कर उसी से इस
शरीर में व्याप्त है, वह कुण्डलिनी रूप तेज आप सभी शिष्यों
की रक्षा करें ॥ १ ॥
शक्तिस्तुतिः
अन्तःस्मितोल्लसितमिन्दुकलावतंस-
मिन्दीवरोदरसहोदर नेत्रशोभि ।
हेतुस्त्रिलोकविभवस्य नवेन्दुमौले-
रन्तःपुरं दिशतु मङ्गलमादराद् वः ॥
२ ॥
अब ग्रन्थकार सदाशिव एवं शक्ति की
स्तुति करते हैं-
क्योंकि शिव शक्ति से संयुक्त होने
पर ही सृष्टि करने में समर्थ होते हैं । यद्यपि शिव शक्ति की एकात्मकता है तथापि
सृष्टि में शक्ति की आवश्यकता होती है । उनके बिना सृष्टि संभव नहीं है। अतः शिव
ही लीला से शक्ति का रूप धारण करते हैं।
अपने अन्तःस्मित मात्र से इस समस्त
विश्व की रचना कर देने वाले, इन्दुकला को
मुकुटाभरण में धारण करने वाले, कमल के समान विशाल नेत्रों से
सुशोभित तथा त्रैलोक्य रूप अनन्त ऐश्वर्य के हेतुभूत भगवान् सदाशिव का अन्तःपुर
आदरपूर्वक आप सभी शिष्यों को मङ्गल प्रदान करे ॥ २ ॥
विमर्श - प्रस्तुत श्लोक में श्लेष
से भुवनेश्वरी मन्त्र का भी निर्देश है— यथा
त्रिलोक विभव 'हकार', अन्तःस्मित अग्नि
'रकार', इन्दीवरसहोदर लक्ष्मी 'दीर्घ ईकार', चन्द्रकलावतंस 'अनुस्वार'
– इस प्रकार सब मिलाकर 'ह्रीं' यह भुवनेश्वरी मन्त्र भी निर्दिष्ट है ॥ २ ॥
गुरुस्तुति:
संसार सिन्धोस्तरणैकहेतून
दधे गुरून् मूर्ध्नि शिवस्वरूपान् ।
रजांसि येषां पदपङ्कजानां
तीर्थाभिषेकश्रियमावहन्ति ॥ ३ ॥
अब 'यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ इस आगम वचन के अनुसार गुरुभक्ति
भी विद्या प्राप्ति में अन्तरङ्ग साधन है । इसलिए परदेवता के स्मरण के अनन्तर गुरु
को ग्रन्थकार नमस्कार करते हैं-
संसार रूपी समुद्र के तारण में
एकमात्र कारण शिवस्वरूप को मैं अपने शिर पर धारण करता हूँ,
जिनके चरण कमलों की धूलि तीर्थाभिषेक का फल प्रदान करती है ॥ ३ ॥
विमर्श - श्लोक में 'गुरुन्' इस बहुवचन का प्रयोग है जो आदरार्थ है। अथवा
'गुरु, परमगुरु, परापरगुरु
और परमेष्ठि गुरु की अपेक्षा से बहुवचन का प्रयोग है—'येषां
रजांसि' इस पद से यह व्यक्त किया गया है कि
पादोपसंग्रहण-पूर्वक गुरु को नमस्कार करना चाहिए ।
ग्रन्थ-प्रयोजनम्
सारं वक्ष्यामि तन्त्राणां
शारदातिलकं शुभम् ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां प्राप्तेः
प्रथमकारणम् ॥ ४ ॥
अब इस ग्रन्थ में शिष्य को प्रवृत्त
करने के लिये ग्रन्थ का माहात्म्य तथा ग्रन्थ के विषय,
प्रयोजन, सम्बन्ध एवं अधिकारी रूप चार
अनुबन्धों का दिग्दर्शन कराते हैं, क्योंकि इन चार के होने
पर ही श्रोता की प्रवृत्ति ग्रन्थ में होती है ।
(वैष्णव,
शैव, शाक्त, गाणपत्य एवं
सौर) सभी तन्त्रों का सार होने से सर्वथा कल्याणकारक, धर्म,
अर्थ, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति में प्रथम
कारण भूत इस शारदा तिलक नामक ग्रन्थ को कहता हूँ ॥ ४ ॥
विमर्श - शारदातिलक का अर्थ है
स्थूलकर्म का फल जो प्रदान करे उसे 'शारदा'
कहते हैं, उसका तिलक अर्थात् भूषण स्वरूप शारदातिलक
। अथवा शरः / स्वतन्त्रम्, तस्य भावः शारम् / स्वातन्त्र्यम्
तद् ददातीति शारदा, तस्याः तिलकम् । प्राणी का जीवभाव निरस्त
कर उसे अनन्त ऐश्वर्य प्रदान करने वाली शारदा का तिलक है। तिलक कहने का एक
अभिप्राय यह भी है कि शरीर में सर्वप्रथम तिलक दिखाई पड़ता है उसी प्रकार यह भी
तन्त्र के सभी ग्रन्थों में मुख्य एवं अपने ढङ्ग का अनूठा ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ
में शब्दार्थ सृष्टि आदि विषय हैं, धर्मार्थादि पुरुषार्थ
चतुष्टय की प्राप्ति फल है प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव सम्बन्ध है । पुरुषार्थ
चतुष्टय को चाहने वाला अधिकारी है ॥ ४ ॥
ग्रन्थ प्रतिपाद्यविषयाः
शब्दार्थसृष्टिर्मुनिभिश्छन्दोभिर्दैवतैः
सह ।
विधिश्च यन्त्रमन्त्राणां
तन्त्रेऽस्मिन्नभिधीयते ॥ ५ ॥
अब इस ग्रन्थ का विषय कहते हैं—इस शारदातिलक नामक तन्त्र ग्रन्थ में ऋषि, छन्द और
देवता के सहित शब्दार्थ की सृष्टि तथा यन्त्र एवं मन्त्रों की विधि न्यास, जप पूजा होम, तर्पण, अभिषेक,
संपात पातादि का निरूपण करता हूँ ।
विमर्श - किसी भी मन्त्र में मुनि,
छन्द, देवता तथा विनियोग की आवश्यकता होती है,
इसके जाने बिना मन्त्र की सिद्धि नहीं होती । मुनि वे हैं जिन्हें
तपोयोगबल से मन्त्रों का साक्षात्कार हुआ है, अथवा उस मन्त्र
के जप द्वारा उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई हैं, वे ही उस
मन्त्र के ऋषि कहे जाते हैं।
जिस प्रकार शरीर को वस्त्र से
आच्छादित किया जाता है उसी प्रकार मृत्यु से भयभीत ऋषियों ने जिससे अपने को ढक
लिया वही छन्द है, देवताओं को आच्छादित
करने के कारण ही उसकी छन्द संज्ञा कही गई है। यह छन्द गायत्री आदि नामों से
प्रसिद्ध हैं। जिस जिस देवता को उद्देश्य कर जो जो मन्त्र कहे जाते हैं वे ही उस
मन्त्र के देवता कहे जाते हैं, अतः उन मन्त्रों का भी उस
देवता के समान आकार होता है, इसलिये मन्त्र और देवता में कोई
भेद नहीं अतः मन्त्र देवता स्वरूप ही होते हैं ।
विनियोग का अर्थ है,
कर्तव्य । मन्त्रों के उत्पत्ति कर्म के लिये ही हुई है, जिस मन्त्र से जो कार्य कर्त्तव्य हो, उस मन्त्र का
वह विनियोग होता है, जैसे जपे विनियोगः । न्यासे विनियोगः ।
पाठे विनियोगः । अथवा धर्म, अर्थ, काम
और मोक्ष रूप कार्यों में शास्त्रीय रीति से सिद्ध मन्त्रों की योजना करने का नाम
विनियोग है । मन्त्र की फल प्राप्ति के लिये उसके ऋषि छन्द, देवता
तथ विनियोग की आवश्यकता है। इसके बिना मन्त्र फलवान् नहीं होता ॥ ५ ॥
शिवस्य निर्गुणसगुणभेदेन
द्वैविध्यम्
निर्गुणः सगुणश्चेति शिवो ज्ञेयः
सनातनः ।
निर्गुणः प्रकृतेरन्यः सगुणः सकलः
स्मृतः ॥ ६॥
अब शिव के निर्गुण एवं सगुण भेद को
कहते हैं- सनातन शिव निर्गुण और सगुण दो प्रकार के कहे गये हैं,
प्रकृति सम्बन्ध से शून्य शिव निर्गुण हैं और प्रकृति के साथ रहने
से सगुण हैं ॥ ६ ॥
विमर्श - वेदान्त मत में प्रकृति को
अविद्या कहते हैं तथा उसी को शैव लोग शक्ति कहते हैं । सांख्य के मत में सत्त्व,
रज और तम की साम्यावस्था को प्रधान या प्रकृति कहते हैं ।
शक्त्याविर्भावः, नादोत्पत्तिः, ततो बिन्दूद्भवः
सच्चिदानन्दविभवात् सकलात्
परमेश्वरात् ।
आसीच्छक्तिस्ततो नादो नादाद्
बिन्दुसमुद्भवः ॥ ७ ॥
अब सृष्टि का क्रम कहते हैं—
सत् चित् एवं आनन्द रूप ऐश्वर्य से पूर्ण उस सगुण परमेश्वर के
प्रकृति से युक्त हो जाने पर शक्ति उत्पन्न हुई, शक्ति से
नाद और नाद से बिन्दु की उत्पत्ति हुई ॥ ७ ॥
विमर्श - परमेश्वर की प्रथम कला
(शक्ति या प्रकृति) जो प्रलय काल में अत्यन्त सूक्ष्म अनादि और चैतन्य युक्त थी
वही परमेश्वर के संयोग होने पर पुनः सत्त्व, रज
और तमोगुण से युक्त हो कर सृष्टि के योग्य, प्रपञ्च कार्य
में साधन सक्षम हो कर स्थूल रूप से उत्पन्न हुई। इसीलिये शैवागम में प्रधानतया,
शक्ति, नाद और बिन्दु पाँच तत्त्व निष्कल,
सकल माने गये हैं।
नादोत्थविन्दोस्त्रिभेदः
परशक्तिमयः साक्षात् त्रिधाऽसौ
भिद्यते पुनः ।
बिन्दुर्नादो बीजमिति तस्य भेदाः
समीरिताः ॥ ८ ॥
बिन्दुः शिवात्मको बीजं
शक्तिर्नादस्तयोर्मिथः ।
समवायः समाख्यातः सर्वागमविशारदैः ॥
९ ॥
वह परशक्तिमय बिन्दु पुनः तीन रूपों
में प्रविभक्त हुआ । १. बिन्दु, २. नाद और ३.
बीज-ये उसके तीन भेद हैं। इसमें कहे गये बिन्दु और नाद प्रथम कहे गये (१, ७) नाद और बिन्दु से भिन्न हैं ।
बिन्दु शिवात्मक है,
बीज शक्त्यात्मक है, शिव शक्ति के सम्बन्ध से
नाद की उत्पत्ति हुई है ऐसा तत्त्वागम विशारदों ने कहा है। शिव जब शक्ति में क्षोभ
उत्पन्न करता है तो उससे उत्पन्न हुआ नाद सृष्टि का हेतु हो जाता है ।
विमर्श - यहाँ बिन्दु के कथन के बाद
नाद कहना चाहिए था किन्तु शक्ति का कथन किये बिना नाद नहीं कहा जा सकता था,
इसलिये यहाँ क्रम विरुद्ध कहा गया है ।। ८-९ ।।
रौद्री बिन्दोस्ततो नादाज्ज्येष्ठा
बीजादजायत ।
वामा ताभ्यः समुत्पन्ना
रुद्रब्रह्मरमाधिपाः ॥ १० ॥
बिन्दु से रौद्री नाद से ज्येष्ठा
और बीज से वामा की उत्पत्ति हुई । पुनः उनसे क्रमशः रुद्र,
ब्रह्मा और विष्णु उत्पन्न हुये ॥ १० ॥
शब्दब्रह्मोत्पत्तिः
संज्ञानेच्छाक्रियात्मानो
वहिनवर्कस्वरूपिणः ।
भिद्यमानात् पराद्
बिन्दोरव्यक्तात्मा रवोऽभवत् ॥ ११ ॥
वे रुद्र ब्रह्मा और विष्णु,
क्रमशः इच्छा, क्रिया और ज्ञानात्मा हैं तथा
अग्नि, चन्द्र और सूर्य स्वरूप हैं (प्रथम इच्छा, तदनन्तर कार्य, तदनन्तर ज्ञान यही क्रम है और ये
शक्ति से उत्पन्न हुये हैं) इच्छा शक्ति गौरी, क्रिया शक्ति
ब्राह्मी और ज्ञान शक्ति वैष्णवी शक्ति है पर बिन्दु के ( शक्त्यवस्था रूप) प्रथम
बिन्दु ( द्र०र १. ७) से वर्ण विशेष रहित अखण्ड नाद उत्पन्न हुआ ॥ ११ ॥
शब्दब्रह्मेति तं प्राहुः
सर्वागमविशारदाः ।
शब्दब्रह्मेति शब्दार्थं
शब्दमित्यपरे जगुः ॥ १२ ॥
तस्य चैतन्यात्मकता
न हि तेषां तयोः
सिद्धिर्जडत्वादुभयोरपि ।
चैतन्यं सर्वभूतानां शब्दब्रह्मेति
मे मतिः ॥ १३ ॥
संपूर्ण आगम शास्त्र के विद्वान्
उसे शब्दब्रह्म कहते हैं कोई शब्दार्थ को शब्दब्रह्म कहते हैं,
कोई केवल अखण्ड स्फोटात्मक शब्द को शब्दब्रह्म कहते हैं। किन्तु ये
दोनों ही जड़ होने से सृष्टि के योग्य नहीं, अतः वे
शब्दब्रह्म नहीं हो सकते। ग्रन्थकार कहते हैं कि हमारा मत तो यह है कि बिन्दु से
उत्पन्न हुआ संपूर्ण प्राणियों के भीतर चैतन्य रूप से विद्यमान अखण्डनाद ही
शब्दब्रह्म है (द्र. १. ११-१२ ) यहाँ तक शब्दसृष्टि कही गई । अब नीचे के श्लोक में
उसका समापन करते हैं ।। १२-१३ ॥
तस्य कुण्डलीरूपेण
प्राणिदेहे स्थितिः
तत् प्राप्य कुण्डलीरूपं प्राणिनां
देहमध्यगम् ।
वर्णात्मनाऽविर्भवति
गद्यपद्यादिभेदतः ॥ १४ ॥
प्राणियों के शरीर के मध्य में
कुण्डली रूप को प्राप्त हुआ वही चैतन्य कण्ठादि स्थानों को प्राप्त कर गद्य
पद्यादि भेद से वर्णात्मक स्वरूप से आविभूति होता है। इसलिये ये सारी शब्द सृष्टि
कुण्डलिनी से ही होती है ॥ १४ ॥
पश्यन्तीशब्दसृष्टिकथनारम्भः
अथ बिन्द्वात्मनः शम्भोः कालबन्धोः
कलात्मनः ।
अजायत जगत्साक्षी सर्वव्यापी
सदाशिवः ॥ १५ ॥
अब परा,
पश्यन्ती आदि वाणियों के उत्पत्तिस्थानभूत शरीर की सृष्टि का उपक्रम
बताते हैं, क्योंकि शरीर के बिना परा, पश्यन्ती
आदि वाणियों का उत्पन्न होना संभव नहीं है। इसलिये अर्थ सृष्टि का आरम्भ करते हैं-
माया (प्रकृति) से संवलित
बिन्द्वात्मक शरीर वाले उस परम शिव से अनादि अनन्त काल की सहायता से सृष्टि,
स्थिति, ध्वंस, निग्रह
और अनुग्रह में समर्थ जगन्निर्माणबीजरूप जगत्साक्षी सदाशिव उत्पन्न हुये ।
विमर्श-लव से लेकर प्रलयान्त समय की
काल संज्ञा है। सूक्ष्म सूई से कमल पत्र समूह में एक पत्र के भेदन में जितना समय
लगता है वह लव कहा जाता है ।। १५ ।।
सदाशिवेशरुद्रविष्णुब्रह्मोत्पत्तिः
सदाशिवाद् भवेदीशस्ततो
रुद्रसमुद्भवः ।
ततो विष्णुस्ततो ब्रह्मा तेषामेवं
समुद्भवः ॥ १६ ॥
सदाशिव से ईश्वर उत्पन्न हुये,
ईश्वर से रुद्र उत्पन्न हुये रुद्र से विष्णु और विष्णु से
ब्रह्मदेव की उत्पत्ति हुई ।
विमर्श - इस प्रकार त्रिदेवों की
उत्पत्ति का क्रम कहा गया। शब्द सृष्टि के प्रकरण में इनके उत्पत्ति का क्रम पूर्व
(१. ८-११) में कह दिया गया है। इस प्रकार यहाँ अर्थ सृष्टि में इनकी उत्पत्ति कही
गई है ।। १६ ।।
तत्त्वसृष्टिकथनारम्भः
मूलभूतात् ततोऽव्यक्ताद् विकृतात्
परवस्तुनः ।
महत्तत्त्वोत्पत्तिः
आसीत् किल महत्तत्त्वं गुणान्तः
करणात्मकम् ॥ १७ ॥
जगत् के कारण भूत उस अव्यक्त मूल
प्रकृति (परवस्तु) में (सत्त्वादि) गुणों के वैषम्य के कारण पञ्चतन्मात्रायें एवं
अन्तःकरण चतुष्टय का कारणभूत इस प्रकार उभयात्मक महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ॥ १७ ॥
अहङ्कारोत्पत्तिः । तस्य
त्रैविध्यम्
अभूत्तस्मादहङ्कारस्त्रिविधिः
सृष्टिभेदतः ।
वैकारिकादहङ्काराद्देवा वैकारिका दश
॥ १८ ॥
ततो
देवेन्द्रियभूतानामुत्पत्तिः
दिग्वातार्कप्रचेतोऽश्विवहनीन्द्रोपेन्द्रमित्रकाः
।
पञ्चतन्मात्रोत्पत्तिः
तैजसादिन्द्रियाण्यासंस्तन्मात्राक्रमयोगतः
॥ १९ ॥
उस महत्तत्त्व से सृष्टिभेद के कारण
वैकारिक,
तैजस एवं भूतादि रूप तीन अहंकारों की उत्पत्ति हुई । वैकारिक अहंकार
से दश वैकारिक देव, १. दिक्, २. वात,
३. अर्क, ४. प्रचेता, ५.
अश्विनी, ६. अग्नि, ७ इन्द्र, ८ उपेन्द्र, ९. मित्र (द्वादश आदित्यों में तृतीय)
और १०. ब्रह्मा उत्पन्न हुये। वैकारिक अहंकार से उत्पन्न होने के कारण ये देव भी
वैकारिक कहे जाते हैं जो इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता हैं । ग्यारहवाँ चन्द्रमा
भी हैं जो मन के अधिष्ठातृ देवता हैं । तैजस अहंकार से पाँच कर्मेन्द्रियाँ,
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, एकादश मन तथा
तन्मात्राओं (रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द) की उत्पत्ति हुई ।॥ १८-१९ ॥
पञ्चभूतोत्पत्तिः
भूतादिकादहङ्कारात् पञ्चभूतानि जज्ञिरे
।
शब्दात् पूर्वं वियत् स्पर्शाद्
वायू रूपाद्धुताशनः ॥ २० ॥
भूतवर्णनिरूपणम्
रसादम्भः क्षमा गन्धादिति तेषां
समुद्भवः ।
स्वच्छं वियन्मरुत् कृष्णो
रक्तोऽग्निर्विशदं पयः ॥ २१ ॥
पीता भूमिः पञ्चभूतान्येकैकाधारतो
विदुः ।
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धा भूतगुणाः
स्मृताः ॥ २२ ॥
भूतादि अहंकारों से (तन्मात्राओं के
योग द्वारा) पृथ्वी आदि पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति हुई । सर्वप्रथम शब्द तन्मात्रा
से आकाश,
स्पर्श तन्मात्रा से वायु, रूप तन्मात्रा से
हुताशन (तेज), रस तन्मात्रा से जल और गन्ध तन्मात्रा से
पृथ्वी उत्पन्न हुई । इसप्रकार पञ्चमहाभूत उत्पन्न हुये । उसमें आकाश का वर्ण
स्वच्छ है, वायु का काला, अग्नि (तेज)
का लाल तथा जल का विशद (स्वच्छ) और पृथ्वी का वर्ण पीत है। ये सभी अपने अपने
कारणों के गुण भी धारण करते हैं। यथा-आकाश में शब्द, वायु
में स्पर्श और शब्द, तेज में रूप, स्पर्श
एवं शब्द, जल में रस, रूप, स्पर्श और शब्द तथा पृथ्वी में गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द-ये गुण हैं ।। २०-२२ ॥
भूतमण्डलस्वरूपम्
वृत्तं दिवस्तत् षड्बिन्दुलाञ्छितं
मातरिश्वनः ।
त्रिकोणं स्वस्तिकोपेतं
वनेरर्धेन्दुसंयुतम् ॥ २३ ॥
अम्भोजमम्भसो भूमेश्चतुरस्त्रं
सवज्रकम् ।
तत्तद्भूतसमाभानि मण्डलानि
विदुर्बुधाः ॥ २४ ॥
अब इन पञ्चभूतों का मण्डल कहते हैं—-आकाश का मण्डल वृत्ताकार (गोला ) है, उस वृत्त परिधि
की रेखा में छः बिन्दु अंकित कर देने से वह वायु का मण्डल हो जाता है । त्रिकोण की
संपात रेखाओं को बढ़ाकर उसे स्वस्तिकाकार बना देने पर उससे युक्त त्रिकोण अग्नि का
मण्डल होता है कमल को चन्द्राकार दो भागों में विभक्त कर देने पर निष्पन्न
अर्धचन्द्राकार दो कमल जल का मण्डल हो जाता है। तथा चौकोर और अष्ट वज्र विभूषित
मण्डल पृथ्वी का मण्डल कहा जाता है। पञ्चभूतों में जिस नाम के जो जो मण्डल बनाए
जायँ उन्हें उन उनके वर्णों से पूर्ण भी करना चाहिए।।२३-२४॥
विमर्श - दो परस्पर संबद्ध रेखाओं
को आमने सामने तीन जगह मोड़ देवे तो उसे वज्र कहते हैं। इस प्रकार चतुरस्र में एक
ओर की रेखा में दो वज्र हुये चारों रेखाओं में कुल ८ वज्र हुये। भूमि में जिसका
मण्डल बनावे, उसे उसके वर्ण से पूर्ण करना
चाहिए ॥ २३-२४ ॥
पञ्चभूतकला:
वर्णैः स्वैरञ्चितान्याहुः
स्वस्वनामावृतान्यपि ।
धरादिपञ्चभूतानां निवृत्त्याद्याः
कलाः स्मृताः ॥ २५ ॥
अब पृथ्व्यादि पञ्च महाभूतों की कला
कहते हैं—
पृथ्व्यादि पञ्चभूतों की निवृत्ति आदि कलायें कही गई हैं ॥२५॥
विमर्श- यहाँ प्रथम आकाश की कला
कहनी चाहिए थी— किन्तु संहार क्रम से कलाओं का
वर्णन करते हैं ।।२५।।
निवृत्तिः सप्रतिष्ठा स्याद् विद्या
शान्तिरनन्तरम् ।
शान्त्यति विज्ञेया नाददेहसमुद्भवाः
॥ २६ ॥
पृथ्वी की कला का नाम निवृत्ति,
जल की कला का नाम प्रतिष्ठा, तेज की कला का
नाम विद्या, वायु की कला का नाम शान्ति तथा आकाश की कला का नाम
शान्त्यतीता है जो वायु से समुद्भूत है ॥ २६ ॥
जगतः पञ्चभूतात्मकत्वम्
पञ्चभूतात्मकं सर्वं चराचरमिदं जगत्
।
चराचरस्वरूपम्
अचरा बहुधा भिन्ना
गिरिवृक्षादिभेदतः ॥ २७ ॥
यह सारा चराचरात्मक जगत्
पञ्चभूतात्मक है। जिसमें अचरों के गिरि वृक्षादि भेद से अनेक प्रकार होते हैं।
विमर्श - यहाँ चराचर में पञ्चभूत
हैं यह कह कर त्रिवृत्करण पक्ष और पञ्चीकरण पक्ष दोनों ही सूचित करते हैं । जैसे
देवताओं का तैजस शरीर हैं किन्तु उसमें आधा तैजस है चतुर्थांश पृथ्वी का और
चतुर्थांश जल का यह त्रिवृत्करण पक्ष हुआ । पञ्चीकरण पक्ष में तेज के छः भाग और
पृथ्वी जल, वायु, आकाश
के दशम दशम भाग समझना चाहिए ॥ २७ ॥
चराणां त्रिभेदः
चरास्तु त्रिविधाः प्रोक्ताः
स्वेदाण्डजजरायुजाः ।
स्वेदजाः क्रिमिकीटाद्या अण्डजाः
पन्नगादयः ॥ २८ ॥
स्त्रीपुंनपुंसकोत्पत्ती हेतुः
जरायुजा मनुष्याद्यास्तेषु नृणां
निगद्यते ।
उद्भवः पुंस्त्रियोर्योगात्
शुक्रशोणितसंयुतात् ॥ २९ ॥
स्वेदज,
अण्डज और जरायुज भेद से चर के तीन भाग हैं। जिसमें कृमि कीट आदि
स्वेदज हैं । पक्षि, कच्छप सर्पादि अण्डज हैं और मनुष्य आदि
जरायुज हैं । उन तीनों में मनुष्यों की उत्पत्ति का प्रकार कहते हैं। पुरुष और
स्त्री के संयोग से जब शुक्र शोणित योनि में एकत्रित हो जाते हैं तो मनुष्य की
उत्पत्ति होती है ।। २८-२९ ॥
बिन्दुरेको विशेद् गर्भमुभयात्मा
क्रमादसौ ।
रजोऽधिके भवेन्नारी भवेद्रेतोऽधिकः
पुमान् ।
उभयोः समतायान्तु नपुंसकमिति
स्थितिः ॥ ३० ॥
शुक्र शोणित उभयात्मक अथवा
अग्नीषोमात्मक एक बिन्दु गर्भ में प्रविष्ट होता है, यदि उस बिन्दु में रज की अधिकता होती है तो स्त्री और रेत की अधिकता होने
पर पुरुष पैदा होता है, किन्तु जब दोनों समान समान होते हैं,
तो नपुंसक की उत्पत्ति होती है ॥ ३० ॥
बिन्दौ जीवसञ्चार
पूर्वकर्मानुरूपेण मोहपाशेन
यन्त्रितः ।
कश्चिदात्मा तदा तस्मिन् जीवभावं
प्रपद्यते ॥ ३१ ॥
अब उस बिन्दु में जीव सञ्चार की
प्रक्रिया का वर्णन करते हैं-
पूर्वजन्म के किये गये सञ्चित
कर्मों में जब फलदानोन्मुख कोई प्रबल पुण्यपापात्मक कर्म जिसका फल सुख दुःख अथवा
उभयात्मक है और जो मनुष्य शरीर के द्वारा भोगा जा सकता है,
उस कर्म) के अनुरूप (अविद्या रूप) मोहपाश से बँधने के कारण जीव शरीर
में प्रविष्ट होता है, (मनुष्य जैसे घर में प्रवेश करता है,
उसी प्रकार कर्म पाश में बँधा हुआ जीव भोगायतन शरीर में प्रवेश करता
है) इस प्रकार आत्मा जीवभाव को प्राप्त करता है॥३१॥
गर्भाशये जीवसञ्चार:
अथ मात्राहृतैरन्नपानाद्यैः पोषितः
क्रमात् ।
गर्भस्थजन्तोर्वृद्धिक्रमः
दिनात् पक्षात् ततो मासाद् वर्द्धते
तत्त्वदेहवान् ॥ ३२ ॥
वहाँ वह माता के द्वारा खाये गये
अन्न से पोषित होकर क्रमश: दिन पक्ष और एक महीने में (चतुर्विंशति) तत्त्वात्मक
शरीर धारण कर वृद्धि को प्राप्त करता है ॥ ३२ ॥
दोषदुष्यनिरूपणम्
दोषैर्दृष्यैः सुखं प्राप्तो
व्यक्तिं याति निजेन्द्रियैः ।
वातपित्तकफा दोषा दूष्याः स्युः
सप्त धातवः ।
त्वगसृङ्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि
तान् विदुः ॥ ३३ ॥
वह सुखपूर्वक क्रमेण वात,
पित्त, कफ तथा सप्त धातुओं को प्राप्त कर
धीरे-धीरे अपने इन्द्रियों के द्वारा अभिव्यक्त होता है। वात, पित्त एवं कफ की 'दोष' संज्ञा
है और सप्त धातुओं की 'दूष्य' संज्ञा
है । वे सप्त धातु १. त्वक्, २. असृङ्, ३. मांस, ४. मेद, ५. अस्थि,
६. मज्जा और ७ शुक्र नामों से कहे गये हैं ॥ ३३ ॥
इन्द्रियव्यापारनिरूपणम्
ज्ञानेन्द्रियाणि श्रोत्रं त्वग्
दृग् जिह्वा नासिका विदुः ।
ज्ञानेन्द्रियार्थाः शब्दाद्याः
स्मृताः कर्मेन्द्रियाण्यपि ॥ ३४ ॥
१. कान,
२. त्वक्, ३. नेत्र, ४.
जिहवा और ५. नासिका - ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ कही गई हैं। इन ज्ञानेन्द्रियों के
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ये विषय हैं । अब कर्मेन्द्रियों को कहता हूँ ॥ ३४ ॥
वाक्पाणिपादपाय्वन्धुसंज्ञान्याहुर्मनीषिणः
।
वचनादानगतयो विसर्गानन्दसंयुताः ॥
३५ ॥
वाणी (मुख) हाथ,
पैर, गुदा और लिङ्ग नाम से विद्वानों ने
इन्हें अभिहित किया है। इनका क्रम से बोलना, ग्रहण करना,
चलना, मलत्याग करना और आनन्द करना यह काम कहा
गया है ॥ ३५ ॥
अन्तःकरणस्य
चातुर्विध्यम्
कर्मेन्द्रियार्थाः संप्रोक्ता
अन्तःकरणमात्मनः ।
मनोबुद्धिरहङ्कारश्चित्तञ्च
परिकीर्तितम् ॥ ३६ ॥
इस प्रकार हमने कर्मेन्द्रियों एवं
उनसे किये जाने वाले कार्यों को कहा है। मन, बुद्धि,
अहङ्कार तथा चित्त के भेद से अन्तःकरण के चार भेद कहे गये हैं ॥ ३६
॥
सांख्योक्त तत्त्वकथनम्
दशेन्द्रियाणि भूतानि मनसा सह षोडश ।
विकाराः स्युः प्रकृतयः पञ्च
भूतान्यहङ्कृतिः ॥ ३७ ॥
अव्यक्तं महदित्यष्टौ तन्मात्राश्च
महानपि ।
साहङ्कारा विकृतयः सप्त तत्त्वविदो
विदुः ॥ ३८ ॥
दश इन्द्रियाँ,
पञ्च महाभूत और मन-ये १६ विकार हैं। पञ्चभूत, अहङ्कार
महत्तत्व और अव्यक्त—ये आठ प्रकृतियाँ हैं । पञ्चतन्मात्रा,
महत्तत्त्व और अहङ्कार — ये सात विकृतियाँ हैं—ऐसा तत्त्ववेत्ता लोग कहते हैं ।। ३७-३८ ॥
देहस्य
अग्नीषोमात्मकत्वम्
अग्नीषोमात्मको देहो
बिन्दुर्यदुभयात्मकः ।
दक्षिणांशः स्मृतः सूर्यो वामभागो
निशाकरः ॥ ३९ ॥
यह शरीर अग्नीषोमात्मक है,
क्योंकि जिस बिन्दु से यह शरीर बना है, उसमें
शुक्र शोणित का संयोग है। शुक्र अग्नि स्वरूप है और शोणित सोमात्मक है । इस प्रकार
शरीर अग्नीषोमात्मक हुआ । अब शरीर में अग्नीषोमा का स्थान निर्देश करते हैं,
इस शरीर का दाहिना भाग सूर्य या अग्नि है और बायाँ भाग चन्द्रमा है
॥ ३९ ॥
नाडीनिरूपणम् ।
इडादिस्थितिस्वरूपम्
नाडीर्दश विदुस्तासु मुख्यास्तिस्रः
प्रकीर्त्तिताः ।
इडा वामे तनोर्मध्ये सुषुम्णा
पिङ्गला परे ॥ ४० ॥
ऐसे तो शरीर में अनन्त नाडियाँ हैं,
किन्तु उसमें दश मुख्य नाडियाँ हैं, उन दशों
में भी तीन नाड़ियाँ मुख्यतम हैं- १. शरीर के मध्य में इडा वाम अण्डकोश से धनुष के
समान वक्र होकर बाईं नासिका तक जाती है। २. शरीर के मध्य में सुषुम्ना पीठ की ओर
से दण्डाकार रीढ़ की हड्डी से होती हुई ब्रह्मरन्ध्र तक जाती है। ३. पिङ्गला
दाहिने अण्डकोश से धनुषाकार वक्र होकर दाहिनी नासिका पर्यन्त जाती है ॥ ४० ॥
मध्या तास्वपि नाडी
स्यादग्नीषोमस्वरूपिणी ॥ ४१ ॥
सुषुम्ना नाड़ी इडा और पिङ्गला के
मध्य में रहती है, यह तीनों नाड़ियों
में सबसे मुख्य है, जो अग्निषोमात्मिका है। ऊपर हम कह आये
हैं कि यह पीठ की ओर से ब्रह्मरन्ध्र तक जाती है ॥ ४१ ॥
गान्धारी हस्तिजिह्वा च
सुपूषालम्बुषा मता ।
यशस्विनी शङ्खिनी च कुहूः स्युः
सप्तनाडयः ॥ ४२ ॥
ऊपर दश नाडियाँ मुख्य हैं,
यह कह आये हैं जिसमें तीन का विवरण दिया गया शेष सात नाडियों के नाम
का निर्देश करते हैं- १. गान्धारी, २. हस्तिजिह्वा, ३. सुपूषा, ४. अलम्बुषा, ५
यशस्विनी, ६. शङ्खिनी और ७. कुहू ये सात नाडियाँ है ॥ ४२ ॥
नाड्योऽनन्ताः
नाड्योऽनन्ताः समुत्पन्नाः
सुषुम्णापञ्चपर्वसु ।
मूलाधारोद्गतप्राणस्ताभिर्व्याप्नोति
तत्तनुम् ॥ ४३ ॥
सुषुम्ना नाडी में स्वाधिष्ठान,
मणिपूर अनाहत, विशुद्ध और आज्ञाचक्र – ये पाँच
पर्व हैं, इन पर्वों से अनन्त नाडियाँ उत्पन्न हुई हैं।
मूलाधार से उद्गत प्राण इन नाडियों से सारे शरीर में व्याप्त रहता है ॥ ४३ ॥
दशवायवः । दशाग्नयः
वायवोऽत्र दश प्रोक्ता वहनयश्च दश
स्मृताः ।
प्राणाद्या मरुतः पञ्च नागः कूर्मो
धनञ्जयः ॥ ४४ ॥
कृकलः स्याद् देवदत्त इति
नामभिरीरिताः ।
अग्नयो दोषदृष्येषु संलीना दश
देहिनः ॥ ४५ ॥
इस शरीर में दश वायु हैं और दश
अग्नियाँ भी हैं। प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान ये पाँच प्राण हैं। इनको नाग,
कूर्म, धनञ्जय, कृकल और देवदत्त
नाम से भी कहा गया है। दश अग्नियाँ प्राणियों के शरीर में रहने वाले वात, कफ एवं पित्त में तथा सप्त धातुओं में छिपी हुई रहती हैं ॥ ४४-४५ ॥
षडूर्मयः
बुभुक्षा च पिपासा च प्राणस्य मनसः
स्मृतौ ।
शोकमोहौ शरीरस्य जरामृत्यू षडूर्मयः
॥ ४६ ॥
भूख और प्यास ये प्राण की ऊर्मियाँ
हैं,
शोक और मोह मन की ऊर्मियाँ हैं और जरा एवं मृत्यु शरीर की ऊर्मियाँ
हैं । इस प्रकार कुल ६ ऊर्मियाँ होती हैं (व्याकुलता उत्पन्न करने वाली अवस्था
विशेष को ऊर्मि कहते हैं) ॥ ४६ ॥
षट्कोशोत्पत्तिः
स्नाय्वस्थिमज्जा शुक्रात्
त्वङ्मांसास्त्राणि शोणितात् ।
षाट्कौशिकमिदं प्रोक्तं सर्वदेहेषु
देहिनाम् ॥ ४७ ॥
पिता के शुक्र से स्नायु,
अस्थि और मज्जा का निर्माण होता है, माता के
शोणित से त्वक्, मांस और शोणित का निर्माण होता है। इस
प्रकार प्राणी के समस्त देह में छः कोशों की स्थिति है ॥ ४७ ॥
जन्तोर्गर्भाशयस्थितिवर्णनम्
इत्थम्भूतस्तदा गर्भे
पूर्वजन्मशुभाशुभम् ।
शुक्रशोणितकार्याणि
स्मरंस्तिष्ठति दुःखात्मा
च्छन्नदेहो जरायुणा ॥ ४८ ॥
जीव इस प्रकार गर्भ में शरीर धारण
कर अपने पूर्व जन्मों के शुभाशुभ कर्म का स्मरण करता हुआ निवास करता है। उसका शरीर
जरायु से आच्छन्न रहता है, जिससे वह बहुत
दुःखी रहता है ॥ ४८ ॥
बालोत्पत्तिः
कालक्रमेण स शिशुर्मातरं
क्लेशयन्नपि ।
सम्पिण्डितशरीरोऽथ जायतेऽयमवाङ्मुखः
॥ ४९ ॥
क्षणं तिष्ठति निश्चेष्टो भीत्या
रोदितुमिच्छति ॥ ५० ॥
कालक्रम से (नवें या दसवें महीने)
वह शिशु माता को क्लेश पहुँचाते हुए संकुचित गात्र होकर अधोमुख होकर पृथ्वी पर
जन्म लेता है । वह कुछ क्षण के लिए भूमि पर निश्चेष्ट रहकर भय से रोने की इच्छा
करता है अर्थात् रोने लगता है ॥ ४९-५० ॥
कुण्डलीतो
मन्त्रमयजगदुत्पत्तिः
ततश्चैतन्यरूपा सा सर्वगा
विश्वरूपिणी ।
शिवसन्निधिमासाद्य
नित्यानन्दगुणोदया ॥ ५१ ॥
कुण्डलीशक्तेर्विभुत्वम्
दिक्कालाद्यनवच्छिन्ना सर्वदेहानुगा
शुभा ।
कुण्डलीशक्तेः
स्फूर्त्तिः
परापरविभागेन परशक्तिरियं स्मृता ॥
५२ ॥
अस्या वर्णमयत्वं
भूतलिपित्वञ्च
योगिनां हृदयाम्भोजे नृत्यन्ती
नित्यमञ्जसा ।
आधारे सर्वभूतानां स्फुरन्ती
विद्युदाकृतिः ॥ ५३ ॥
कुण्डलीशक्तेः
स्थितिप्रकार:
शङ्खावर्त्तक्रमाद् देवी
सर्वमावृत्य तिष्ठति ।
कुण्डलीभूतसर्पाणामङ्गश्रियमुपेयुषी
॥ ५४ ॥
कुण्डलीशक्तेर्देहादिव्याप्तिः
सर्वदेवमयी देवी सर्वमन्त्रमयी शिवा
।
सर्वतत्त्वमयी साक्षात् सूक्ष्मात्
सूक्ष्मतरा विभुः ॥ ५५ ॥
अस्याः सोमसूर्याग्निरूपत्वम्
त्रिधामजननी देवी
शब्दब्रह्मस्वरूपिणी ।
द्विचत्वारिंशद्वर्णात्मा
पञ्चाशद्वर्णरूपिणी ॥ ५६ ॥
गुणिता सर्वगात्रेषु कुण्डली
परदेवता ।
विश्वात्मना प्रबुवा सा सूते
मन्त्रमयं जगत् ॥ ५७ ॥
इस प्रकार शरीर की उत्पत्ति पर्यन्त
अर्थसृष्टि का क्रम कहकर सामान्य रूप से उक्त शब्दसृष्टि का विवेचन करने के लिए 'भय से रोने की इच्छा करता है' यह कह कर अव्यक्त
वर्णात्मक रोदन होने से वर्णोंत्पत्ति का प्रकार कहते हुए सभी मन्त्रों में
सामान्यतः कुण्डलिनी की उत्पत्ति बतलाते हैं-
इसके बाद चैतन्यरूपा वह (कुण्डलिनी)
सर्वत्र व्याप्त होने वाली, विश्व स्वरूपिणी,
शिव के सन्निधान को प्राप्त कर, नित्य आनन्द
एवं सत्त्वादि गुणों को प्राप्त करने वाली दिशा और काल से परे, संपूर्ण शरीर में व्याप्त, परम रमणीय एवं परापर
विभाग से परशक्ति कही जाने वाली, योगियों के हृत्कमल में
तत्त्वतः नित्य नृत्य करने वाली, सम्पूर्ण जन्तुओं के
मूलाधार में विद्युत् के समान स्फुरित होने वाली, शङ्खावर्त्त
के समान सभी वस्तुओं को आवृत करने वाली, कुण्डलीभूत सर्प के
समान आकारवाली, सर्वदेवमयी देवी सर्वमन्त्रमयी शिवा, सर्वतत्त्वमयी, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर, विभु, सोम, सूर्य एवं अग्नि-इन
तीनों प्रकार के तेजों की जननी (अथवा पाताल, भू एवं स्वर्ग
रूप तीन स्थानों में व्याप्त) देवी, शब्दब्रह्मस्वरूपिणी,
बयालिस वर्णात्मक भूतलिपिमन्त्रमयी, पञ्चाशद्
वर्णमातृका- रूपा, सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहने वाली तथा
परदेवतास्वरूपा कुण्डलिनी सब प्रकार से प्रबुद्ध होकर मन्त्रमय इस जगत् को उत्पन्न
करती है ॥ ५१-५७ ॥
कुण्डलीतो
विविधमन्त्रोत्पत्तिः
एकधा गुणिता शक्तिः
सर्वविश्वप्रवर्त्तिनी ।
वेदादिबीजं श्रीबीजं शक्तिबीजं
मनोभवम् ॥ ५८ ॥
प्रासादं तुम्बुरुं पिण्डं
चिन्तारलं गणेश्वरम् ।
मार्त्तण्डभैरवं दौर्गं
नारसिंहवराहजम् ॥ ५९ ॥
वासुदेवं हयग्रीवं बीजं
श्रीपुरुषोत्तमम् ।
अन्यान्यपि च बीजानि तदोत्पादयति
ध्रुवम् ॥ ६० ॥
शब्दार्थरूप से सारे संसार की
उत्पादिका शक्ति जब एक गुणित संख्या में रहती है तो वह वेद का आदि बीज (प्रणव),
श्री बीज (श्रीँ), शक्तिबीज (ह्रीँ), मनोभव बीज (क्ली) प्रासाद, तुम्बुरु, पिण्ड, चिन्तामणि विनायक का मन्त्र, मार्त्तण्ड, भैरव, दुर्गा,
नरसिंह, वराह, वासुदेव,
हयग्रीव और श्री पुरुषोत्तम बीज एवं इसी प्रकार अन्य एकाक्षर मन्त्रों
(जैसे चन्द्रबीज विम्बबीज) को निश्चित रूप से उत्पन्न करती हैं ।। ५८-६० ॥
यदा भवति सा संवित्
द्विगुणीकृतविग्रहा ।
हंसवर्णौ परात्मानौ शब्दार्थौ
वासरक्षपे ॥ ६१ ॥
सृजत्येषा परा देवी तदा
प्रकृतिपुरुषौ ।
यद्यदन्यज्जगत्यस्यां युग्मं
तत्तदजायत ॥ ६२ ॥
जब वह ज्ञान स्वरूपा कुण्डलिनी
द्विगुणित विग्रहा (दुगुने शरीर वाली) होती है तो परमात्मा के वाचक 'ह' 'सः' इन दो वर्णों को,
शब्द अर्थ को दिन रात को तथा प्रकृति पुरुष को उत्पन्न करती है। इस
प्रकार इस जगत् में जितने भी युग्म युग्म (जोड़े जोड़े) पदार्थ हैं वे सभी देवी से
उत्पन्न हुये हैं ।। ६१-६२ ॥
त्रिगुणीकृतसर्वाङ्गी चिद्रूपा
शिवगेहिनी ।
प्रसूते त्रैपुरं मन्त्रं मन्त्रं
त्रैपुटं चण्डनायकम् ॥ ६३ ॥
सौरं मृत्युञ्जयं शक्तिसम्भवं
विनतासुतम् ।
वागीशीत्र्यक्षरं मन्त्रं नीलकण्ठं
विषापहम् ॥ ६४ ॥
यन्त्र त्रिगुणितं देव्या लोकत्रयं
गुणत्रयम् ।
धामत्रयं सा वेदानां त्रयं
वर्णत्रयं शुभम् ॥ ६५ ॥
त्रिपुष्करं स्वरान् देवी
ब्रह्मादीनां त्र्यं त्रयम् ।
वहनेः कालत्रयं शक्तित्रयं
वृत्तित्रयं महत् ।
नाडीत्रयं त्रिवर्गं सा यद्यदन्यत्
त्रिधा मतम् ॥ ६६ ॥
जब वह ज्ञानस्वरूपा शिवगेहिनी
त्रिगुणित (तीन गुना शरीर वाली) होती हैं, तब
त्रिपुरा मन्त्र, शक्तिविनायक मन्त्र, पाशादि
त्र्यक्षर मन्त्र, त्रैपुट चण्डेश्वर, सौर,
मृत्युञ्जय, शक्ति से उत्पन्न दो मन्त्र,
विनता सुत (गारुड़) मन्त्र (यथा 'क्षिप ॐ),
वागीश्वरी का त्र्यक्षर मन्त्र, नीलकण्ठ का
विषापह त्र्यक्षर मन्त्र, देवी का त्रिगुणित यन्त्र, तीन लोक, तीन गुण, तीन धाम,
वेदत्रयी, वर्णत्रय (ॐ कार अकार मकार उकार
वर्ण) ज्येष्ठ मध्यमकनीयस्त्वेन तीर्थत्रय, उदात्त, अनुदात्त, एवं स्वरित तीन स्वर ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र इस प्रकार त्रिदेव और गायत्री,
सरस्वती, सावित्री तीन देवियाँ, अग्नित्रय (दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य, आहवनीय), कालत्रय (भूत, भविष्यद्
वर्तमान अथवा प्रातः, मध्याहन, सायाहन)
शक्तित्रय (रौद्री ज्येष्ठा, वामात्मक) वृत्तित्रय (यजन,
अध्यापन, प्रतिग्रह अथवा कृषि, वाणिज्य, पाशुपालन), महान्
नाडीत्रय (ईडा, पिङ्गला और सुषुम्ना), त्रिवर्ग
(धर्म, अर्थ, काम), इसके अतिरिक्त और और जो त्रित्व संख्या विशिष्ट पदार्थ (जैसे दोषत्रय आदि)
हैं उन्हें उत्पन्न करती हैं ।। ६३-६६ ॥
चतुः प्रकारगुणिता शाम्भवी
शर्मदायिणी ।
तदानी पद्मिनीबन्धोः करोति
चतुरक्षरम् ॥ ६७ ॥
चतुरर्णं महादेव्या
देवीतत्त्वचतुष्टयम् ।
चतुरः सागरानन्तःकरणानां चतुष्टयम्
॥ ६८ ॥
सूक्ष्मादींश्चतुरो भावान्
विष्णोर्मूर्त्तिचतुष्टयम् ।
चतुष्टयं गणेशानामात्मादीनां
चतुष्टयम् ॥ ६९ ॥
ओजापूकादिकं पीठं धर्मादीनां
चतुष्टयम् ।
दमकादीन् गजान् देवी
यद्यदन्यच्चतुष्टयम् ॥ ७० ॥
सबकी कल्याणकारिणी वह शाम्भवी
(कुण्डलिनी) जब चौगुनी होती है, तब वह पद्मिनीबन्धु
(सूर्य) के प्रणव, माया, हं, सः - इस प्रकार चार अक्षरों में व्यक्त होती है । इसी प्रकार वह
महालक्ष्मी के चतुरक्षर मन्त्र, देवी के तत्त्व चतुष्टय
(आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व, शिवतत्त्व
और सर्वतत्त्व), चतुःसमुद्र, चार
अन्तःकरण (परा, पश्यन्ती, मध्यमा,
वैखरी रूप) वाक् चतुष्टय, (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय रूप )
भावचतुष्टय, विष्णुमूर्त्तिचतुष्टय, गणेशचतुष्टय,
आत्मचतुष्टय, (उड्डीयान, जालन्धर, पूर्णगिरि, कामरूप
रूप) पीठचतुष्टय, धर्मादिचतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष), दमादिचतुष्टय (शम, दम, तितिक्षा
उपरति), गजचतुष्टय, इसी प्रकार अन्य
अन्य चतुष्टय (जैसे सिद्धादि, मण्डल, दीक्षा,
हेरम्बमन्त्र, देवी, दूती
बीजादि) को उत्पन्न करती है ।। ६७-७० ।।
पञ्चधा गुणिता पत्नी शम्भोः
सर्वार्थदायिनी ।
त्रिपुरापञ्चकूटं सा तस्याः
पञ्चाक्षरद्वयम् ॥ ७१ ॥
पञ्चरत्नं महादेव्याः
सर्वकामफलप्रदम् ।
पञ्चाक्षरं महेशस्य पञ्चवर्णं
गरुत्मतः ॥ ७२ ॥
सम्मोहनान् पञ्च कामान् बाणान् पञ्च
सुरद्रुमान् ।
पञ्च प्राणादिकान् वायून् पञ्च
वर्णान् महेशितुः ॥ ७३ ॥
मूर्त्तीः पञ्च कलाः पञ्च पञ्च
ब्रह्मऋचः क्रमात् ।
सृजत्येषा
पराशक्तिर्वेदवेदार्थरूपिणी ॥ ७४ ॥
जब वह सम्पूर्ण अर्थों को देने वाली
शम्भु पत्नी, जो वेद-वेदार्थ रूपिणी, परा, शक्ति है, वह देवी
पञ्चगुणित होती है, तब त्रिपुरा के पञ्चवर्ण समूहों (ह् स्
क् लू र इन पाँच वर्णों को एकत्र करने) से वह त्रिपुरा पञ्चकूट हो जाती है।
त्रिपुरा के दो प्रकार को पञ्चाक्षर मन्त्रों सर्वकाम फलप्रद महादेवीं के पञ्चरत्न
(ग्लुं स्लं म्लुं प्लुं न्तुं) महेश्वर के पञ्चाक्षर ( नमः शिवाय) मन्त्र को,
गरुड़ के पञ्चाक्षर मन्त्र, संमोहनादि
पञ्चकामों को तथा संमोहनादि पञ्च वाणों को, (मन्दार परिजात
सन्तान कल्पद्रुम हरिचन्दन रूप) पञ्च देव वृक्षों को प्राणादि पञ्च वायु, पञ्चवर्ण, महेश्वर की पञ्चमूर्ति (ईशान, सद्योजात, वामदेव, अघोर एवं
तत्पुरुष), उनकी पाँच कला निवृत्तियों को तथा ब्रह्म ऋचाओं
को क्रमशः उत्पन्न करती हैं ।। ७१-७४ ॥
षोढा सा गुणिता देवी धत्ते मन्त्रं
षडक्षरम् ।
षट्कूटं त्रिपुरामन्त्रं गाणपत्यं
षडक्षरम् ॥ ७५ ॥
षडक्षरं हिमरुचेर्नारसिंहं षडक्षरम्
।
ऋतून् वसन्तमुख्यान् षडामोदादीन्
गणाधिपान्॥ ७६ ॥
कोशानूर्मीन् रसान् शक्ती:
शाकिन्याद्याः षडध्वनः ।
यन्त्रं षड्गुणितं शक्तेः
षडाधारानजीजनत् ।
षड्विधं यज्जगत्यस्मिन् सर्वं तत्
परमेश्वरी ॥ ७७ ॥
जब वह देवी छः गुना रूप (छः भागों
में प्रविभक्त होकर) रूप धारण करती है, तो
षडक्षर मन्त्र, (त्रिपुरार्णव में कहा गया) षट्कूट मन्त्र
षडक्षर गाणपत्य मन्त्र, हिमरुचि (चन्द्रमा) का षडक्षर मन्त्र,
नारसिंह का षडक्षर मन्त्र, बसन्तादि षड् ऋतु
आमोदादि षड् विनायक, षड्कोश ( द्र० १. ४७) षडूर्मि (१. ४६ ),
षड् रस, षड् शक्तियाँ, षडध्वजा,
शाकिनी आदि षड्गुणित यन्त्र षडाधार आदि जितनी भी षड् जगत् में
षड्विध वस्तुयें हैं उन सभी को वह परमेश्वरी उत्पन्न करती हैं ।। ७५ ७७ ॥
सप्तधा गुणिता नित्या
शङ्करार्धशरीरिणी ।
सप्तार्णं त्रिपुरामन्त्रं
सप्तवर्णं विनायकम् ॥ ७८ ॥
सप्तकं व्याहृतीनां सा सप्तवर्णं
सुदर्शनम् ।
लोकान् गिरीन् स्वरान् धातून्
मुनीन् द्वीपान् ग्रहानपि ॥ ७९ ॥
समिधः सप्त संख्याता सप्त जिहवा
हविर्भुजः ।
अन्यत् सप्तविधं यद्यत् तदस्याः
समजायत ॥ ८० ॥
जब वह शंकरार्धशरीरिणी (सात भागों
में प्रविभक्त होकर) देवी सात गुना मन्त्रात्मक रूप धारण करती हैं,
तो सप्ताक्षर त्रिपुरा मन्त्र, सप्तवर्ण
विनायक मन्त्र, भूर्भुव: स्वरादि सप्त व्याहृतियाँ, राप्त वर्ण सुदर्शन मन्त्र, सप्त लोक, सप्त मर्यादा पर्वत, सप्त स्वर, सप्त धातुं, सप्तर्षि, सप्त
द्वीप, सप्त ग्रह (इस ग्रन्थ में राहु केतु को ग्रह की कोटि
में नहीं माना गया है), सप्त समिधायें, अग्नि की सात जिह्वायें, आदि जो भी इस जगत के सात
सात पदार्थ हैं वे सभी इन देवी से उत्पन्न हुये ।। ७८-८० ।।
अष्टधा गुणिता शक्तिः
शैवमष्टाक्षरद्वयम् ।
विष्णोः श्रीकरनामानं
मन्त्रमष्टाक्षरं परम् ॥ ८१ ॥
अष्टाक्षरं हरेः शक्तेरष्टाक्षरयुगं
परम् ।
भानोरष्टाक्षरं दौर्गमष्टा
परमात्मनः ॥ ८२ ॥
अष्टार्णं नीलकण्ठस्य वासुदेवात्मकं
मनुम् ।
यन्त्रं कामार्गलं दिव्यं
देवीयन्त्रं घटार्गलम् ॥ ८३ ॥
गन्धाष्टकं शुभं देवीदेवानां
हृदयङ्गमम् ।
ब्रह्माद्या भैरवान् सर्पान्
मूर्त्तीराशा वसूनपि ॥ ८४ ॥
अष्टपीठं महादेव्या
अष्टाष्टकसमन्वितम् ।
अष्टौ सा
प्रकृतीर्विघ्नवक्रतुण्डादिकान् क्रमात् ॥ ८५ ॥
अणिमादिगुणान् नागान्
वहनेर्मूर्त्तीर्यमादिकान् ।
अष्टात्मकं जगत्यस्मिन् सर्वं
वितनुते यदा ॥ ८६ ॥
जब वह देवी अठगुनी (आठ भागों में
प्रविभक्त) होती है, तब वह शिव के दो
प्रकार के अष्टाक्षर मन्त्र, विष्णु के श्रीकर नामक
अष्टाक्षर मन्त्र, हरि के अष्टाक्षर मन्त्र, शक्ति के दो प्रकार के अष्टाक्षर मन्त्र, सूर्य के
अष्टाक्षर मन्त्र, दुर्गा के अष्टाक्षर मन्त्र, परमात्मा के अष्टाक्षर मन्त्र, नीलकण्ठ के अष्टाक्षर
मन्त्र, वासुदेवात्मक अष्टाक्षर मन्त्र, दिव्य कामार्गल मन्त्र, देवी का घटार्गल मन्त्र,
तीन प्रकार के गन्धाष्टक, देवी और देवताओं के
हृदयङ्गम मन्त्रों, ब्रह्मादि आठ देवताओं को, आठ भैरवों को, अष्ट सर्पों को, अष्टमूर्तियों को, अष्टदिशाओं को, अष्ट वसुओं को, आठ-आठ संख्या समन्वित महादेवी के आठ
पीठों की, आठ प्रकृतियों को, अष्टविघ्नं
अष्ट वक्रतुण्डादि, अष्ट अणिमादि, अष्ट
नाग, अग्नि की अष्टमूर्तियों को और अष्ट यमादि जितने भी इस
जगत् के अष्टात्मक पदार्थ हैं, वह सब इस देवी से उत्पन्न
हुये हैं ॥ ८१-८६ ॥
गुणिता नवधा नित्या सूते मन्त्रं
नवात्मकम् ।
नवकं शक्तितत्त्वानां तत्त्वरूपा
महेश्वरी ॥ ८७ ॥
नवकं पीठशक्तीनां शृङ्गारादीन्
रसान् नव ।
माणिक्यादीनि रत्नानि नववर्गयुतानि
सा ॥ ८८ ॥
नवकं प्राणदूतीनां मण्डलं नवकं
शुभम् ।
यद्यन्नवात्मकं लोके सर्वमस्या
उदञ्चति ॥ ८९ ॥
नवात्मक सृष्टि - जब वह देवी अपने
को नव भागों में विभक्त करती है तब वह जगत् के जितने नवात्मक मन्त्र,
नव शक्ति तत्त्व, नव पीठ शक्तियाँ, शृङ्गारादि नव रस, नव प्रकार के माणिक्य आदि रत्न,
नव वर्ग आदि उत्पन्न करती है, इसी प्रकार नव
प्राणदूती, नव मण्डल आदि जो भी (लोक में ९ कुण्ड, ९ ग्रह और ९ कोष्ठक के कूर्मादि चक सभी) नव संख्यक वस्तुयें हैं उन्हें यह
देवी उत्पन्न करती है ।। ८७-८९ ॥
दशधा विकृता शम्भोर्भामिनी भवदुःखहा
।
दशाक्षरं गणपतेस्त्वरिताया
दशाक्षरम् ॥ ९० ॥
दशाक्षरं सरस्वत्या यक्षिण्याः सा
दशाक्षरम् ।
वासुदेवात्मकं
मन्त्रमश्वारूढादशाक्षरम् ॥ ९१ ॥
त्रिपुरादशकूटं सा त्रिपुराया
दशाक्षरम् ।
नाम्ना पद्मावतीमन्त्रं रमामन्त्रं
दशाक्षरम् ॥ ९२ ॥
दशकं शक्तितत्त्वानां तत्त्वरूपा
महेश्वरी ।
नाडीनां दशकं विष्णोरवतारान् दश
क्रमात् ।
दशकं लोकपालानां यद्यदन्यत्
सृजत्यसौ ॥ ९३ ॥
जब संसार के दुःखों को नष्ट करने
वाली यह शम्भु पत्नी अपने को दश भागों में प्रविभक्त करती है तब गणपति के दशाक्षर
मन्त्र,
त्वरिता देवी के दशाक्षर मन्त्र, सरस्वती देवी
के दशाक्षर मन्त्र, यक्षिणी के दशाक्षर मन्त्र, वासुदेव का दशाक्षर मन्त्र, अश्वारुढ़ा का
दशाक्षरमन्त्र, त्रिपुरादशकूट, त्रिपुरा
दशाक्षर, पद्मावती मन्त्र, दश अक्षर
वाले रमा मन्त्र, दश शक्ति तत्त्व को प्रगट करती हैं । इसी
प्रकार वह तत्त्वरूपा महेश्वरी दश नाडियाँ, विष्णु के क्रमशः
दश अवतार, दश लोकपाल और ऐसे ही जो दश दश पदार्थ हैं उन्हें
प्रगट करती हैं ।। ९०-९३ ॥
एकादशक्रमात् संविद् गुणिता सा
जगन्मयी ।
रुद्रैकादशनीमाद्यशक्तेरेकादशाक्षरम्
।
एकादशाक्षरं वाण्या रुद्रानेकादश
क्रमात् ॥ ९४ ॥
पुनः वह जगन्मयी,
ज्ञान शक्तिस्वरूपा, जगन्माता जब अपने को
एकादश भागों में विभक्त करती हैं तब रुद्रैकादशनी, आद्याशक्ति
(सरस्वती) के एका- दशाक्षर मन्त्र, वाणी के एकादशाक्षर और
एकादश रुद्रों को क्रमशः उत्पन्न करती हैं ।। ९४ ।
विमर्श - अन्य तन्त्र में
नित्यक्लिन्ना आद्या शक्ति हैं। उनका ११ अक्षर का मन्त्र है- 'ह्रीँ नित्यक्लिन्ने मदद्रवे स्वाहा' ।।
समुद्गिरति सर्वात्मा गुणिता
द्वादशक्रमात् ।
नित्यामन्त्रं महेशान्या
वासुदेवात्मकं मनुम् ॥ ९५ ॥
राशीन् भानून् हरेर्मूर्तीर्यन्त्रं
सा द्वादशात्मकम् ।
अन्यदेतादृशं सर्वं यत् तदस्यामजायत
॥ ९६ ॥
वही सर्वात्मा भगवती अपने
द्वादशात्मक रूप से क्रमशः महेशानी के नित्या मन्त्र,
वासुदेवात्मक मन्त्र, द्वादश राशियाँ, द्वादश सूर्य, द्वादश विष्णु की मूर्ति और द्वादशात्मक
मन्त्र, इसी प्रकार अन्य जितने जितने भी द्वादश पदार्थ हैं
उन सभी को उत्पन्न करती हैं ।। ९५-९६ ॥
चतुर्विंशतितत्त्वा सा यदा भवति
शोभना ।
गायत्री सवितुः शम्भोः गायत्री
मदनात्मिकाम् ॥ ९७ ॥
गायत्री विष्णुगायत्री गायत्री
त्रिपदात्मनः ।
गायत्री दक्षिणामूर्त्तेर्गायत्री
शम्भुयोषितः ॥ ९८ ॥
चतुर्विंशतितत्त्वानि तस्यामासन्
परात्मनि ॥ ९९ ॥
जब वह मङ्गलकारिणी चतुर्विंशति
तत्त्व स्वरूपा होती हैं, तब वह सविता देवता
की चतुर्विंशत्यक्षरा गायत्री, शिव की मदनात्मिका गायत्री,
विष्णु की विष्णुगायत्री (पुरुषोत्तम गायत्री), त्रिपुरा देवी की त्रिपुरागायत्री गुरुरूप दक्षिणामूर्ति की
दक्षिणामूर्त्तिगायत्री, शम्भु योषिता अम्बा की गायत्री और
अन्य चतुर्विंशति तत्त्वों को उत्पन्न करती हैं ॥ ९७ ९९ ॥
द्वात्रिंशद्भेदगुणिता
सर्वमन्त्रमयी विभुः ।
सूते मृत्युञ्जयं मन्त्रं नारसिंहं
महामनुम् ॥ १०० ॥
लवणाख्यं मनुं मन्त्रं वरुणस्य
महात्मनः ।
हयग्रीवं मनुं दौर्गं वाराहं
वहिननायकम् ॥ १०१ ॥
गणेशितुर्महामन्त्रं
मन्त्रमन्नाधिपस्य सा ।
मन्त्रं
श्रीदक्षिणामूर्तेर्मालामन्त्रं मनोभुवः ॥ १०२ ॥
त्रिष्टुभं वनवासिन्या अघोराख्यं
महामनुम् ।
भद्रकालीमनुं लक्ष्म्या मालामन्त्रं
यमात्मकम् ॥ १०३ ॥
मन्त्रं सा देवकीसूनोर्मन्त्रं
श्रीपुरुषोत्तमम् ।
श्रीगोपालमनुं भूमेर्मनुं तारामनुं
क्रमात् ॥ १०४ ॥
महामन्त्रं महालक्ष्म्या मन्त्रं
भूतेश्वरस्य सा ।
क्षेत्रपालात्मकं मन्त्रं मन्त्रमापन्निवारणम्
।
सूते मातङ्गिनीं विद्यां
सिद्धविद्यां शुभोदयाम् ॥ १०५ ॥
जब संपूर्ण मन्त्रमयी वह बत्तीस
भेदों में अपना स्वरूप धारण करती हैं, तो
मृत्युञ्जय मन्त्र, नारसिंह महामन्त्र, महात्मा महावरुण के लवण नामक महामन्त्र हयग्रीव मन्त्र, दुर्गा मन्त्र, वाराह मन्त्र, अग्नि
के उपस्थान मन्त्र, महागणपति पन्त्र, अन्नाधिप
का मन्त्र, दक्षिणामूर्ति मन्त्र, मालामन्त्र,
मनोभुव का मन्त्र, वनवासिनी का त्रिष्टुप्
मन्त्र, अघोर नामक महामन्त्र, भद्रकाली
मन्त्र, लक्ष्मी के दो दो (यमात्मक = ४ ) माला मन्त्र,
श्रीकृष्ण का मन्त्र, श्रीपुरुषोत्तम का
मन्त्र, श्रीगोपालमन्त्र, भूमि मन्त्र,
तारा मन्त्र, महालक्ष्मी का महामन्त्र,
भूतेश्वर का मन्त्र, क्षेत्रपालात्मक मन्त्र,
त्रिपुरा का आपन्निवारण मन्त्र, मातङ्गिनी
विद्या, कल्याणकारिणी सिद्धविद्या आदि इसी प्रकार के
मन्त्रों को उत्पन्न करती हैं ॥ १००-१०५ ॥
कुण्डलीतः शैवतत्त्वोत्पत्तिः
अनेन क्रमयोगेन गुणिता शिववल्लभा ।
षट्त्रिंशतञ्च तत्त्वानां शैवानां
रचयत्यसौ ॥ १०६॥
मन्त्रोत्पत्तौ क्रमः
अन्यान् मन्त्रांश्च यन्त्राणि
शुभदानि प्रसूयते ।
द्विचत्वारिंशता मूले गुणिता
विश्वनायिका ॥ १०७ ॥
इसी क्रम से वह शिव वल्लभा ३६
स्वरूप में प्रगट हो कर शिव सम्बन्धी ३६ तत्त्वों को उत्पन्न करती हैं एवं शुभदायक
३६ मन्त्रों को तथा मन्त्रों का निर्माण करती हैं ॥ १०६-१०७ ॥
कुण्डलीतः
शक्त्याद्युत्पत्तिः
सा प्रसूते कुण्डलिनी शब्दब्रह्ममयी
विभुः ।
शक्तिं ततो
ध्वनिस्तस्मान्नादस्तस्मान्निरोधिका ॥ १०८ ॥
वही विश्वनायिका शब्द ब्रह्ममयी
सर्वव्यापिका कुण्डलिनी शक्ति जब मूल से ४२ गुना रूप धारण करती हैं तो प्रथम शक्ति,
शक्ति से ध्वनि, ध्वनि से नाद, नाद से निरोधिका को उत्पन्न करती हैं ॥ १०८ ॥
परादिवागुत्पत्तिः
ततोऽर्धेन्दुस्ततो
बिन्दुस्तस्मादासीत् परा ततः ।
पश्यन्ती मध्यमा वाचि वैखरी
शब्दजन्मभूः ।
इच्छाज्ञानक्रियात्माऽसौ तेजोरूपा
गुणात्मिका ॥ १०९ ॥
निरोधिका से अर्द्धेन्दु,
पुनः दो अद्धेन्दु से बिन्दु, बिन्दु से परा,
उससे पश्यन्ती, तदनन्तर मध्यमा, फिर वैखरी उत्पन्न होती हैं, यही वाणियों की
उत्पत्ति के स्थान हैं ।। १०९ ॥
क्रमेणानेन सृजति कुण्डली
वर्णमालिकाम् ।
अकारादिसकारान्तां
द्विचत्वारिंशदात्मिकाम् ॥ ११० ॥
इच्छारूपा ज्ञानरूपा,
क्रियारूपा और तेजोरूपा त्रिगुणा, वही
कुण्डलिनी इसी क्रम से अकारादि सकारान्त ४२ बयालीस अक्षरों की सृष्टि करती हैं ॥
११० ॥
पञ्चाशद्वारगुणिता
पञ्चाशद्वर्णमालिकाम् ।
सूते तद्वर्णतोऽभिन्ना कला
रुद्रादिकान् क्रमात् ॥ १११ ॥
जब वह पचास रूप में स्थित होती हैं,
तब पच्चास वर्णों की तथा उन वर्णों से अभिन्न रूद्र कलाओं की क्रमशः
सृष्टि करती हैं ॥ १११ ॥
निरोधिकार्द्धेन्दुबिन्दूनामर्काग्नीन्दुरूपत्वम्
निरोधिका भवेद्बहिनरर्द्धेन्दुः
स्यान्निशाकरः ।
अर्कः स्यादुभयोर्योगे बिन्द्वात्मा
तेजसां निधिः ॥ ११२ ॥
वर्णानां
सोमसूर्याग्निरूपत्वम्
जाता वर्णा यतो बिन्दोः
शिवशक्तिमयादतः ।
अग्नीषोमात्मकास्ते स्युः
शिवशक्तिमयाद्रवेः ।
येन सम्भवमापन्नाः
सोमसूर्याग्निरूपिणः ॥ ११३ ॥
निरोधका अग्नि स्वरूपा है,
इसलिये शिवात्मक है। बिन्दु चन्द्र स्वरूप है, इसलिये शक्त्यात्मक है । शिव शक्ति के योग में वही बिन्द्वात्मा, तेजो निधान सूर्य स्वरूप हो जाता है । यतः शिव शक्तिमय बिन्दु से वर्णों
की उत्पत्ति होती है, अतः वे सभी अग्नीषोमात्मक हैं और शिव
शक्ति का योग पूर्व में सूर्य स्वरूप कहा गया है इसलिये सभी वर्ण सोम, सूर्य और अग्निस्वरूप हैं ।। ११२-११३॥
॥ इति श्रीलक्ष्मणदेशिकेन्द्रविरचिते
शारदातिलके प्रथमः पटलः समाप्तः ॥ १ ॥
।। इस प्रकार शारदातिलक के प्रथम
पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ १ ॥
आगे जारी........ शारदातिलक पटल 2

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