माहेश्वरतन्त्र पटल २८
माहेश्वरतन्त्र के पटल २८ में सद्गुरु
विवेचन,
उद्बोधन और उसकी प्रक्रिया का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल २८
Maheshvar tantra Patal 28
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल २८
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र अट्ठाईसवाँ पटल
माहेश्वरतन्त्र अष्टाविंश पटल
अथ अष्टाविंशं पटलम
पार्वत्युवाच -
पुनब्रूहि महादेव यथा स्याद्भजनोदयः
।
कं वा गुरुमुपासीत कथं ज्ञानोदयो
भवेत् ॥ १ ॥
पार्वती ने कहा- हे महादेव ! जिस
प्रकार भक्त में भजन का उदय होवे, उसे पुनः कहें,
और किस गुरु की उपासना करनी चाहिए और किस प्रकार ज्ञान का उदय होवे ?
उसे मुझसे कहें ।। १ ।।
शिव उवाच
साधु पृष्टं त्वया भद्रे
प्रवक्ष्यामि यथातथम् ।
गोपनीयं प्रयत्नेन दर्शयेन्नैव
कस्यचित् ॥ २ ॥
शिव ने कहा- हे कल्याणि ! तुमने
बहुत अच्छा प्रश्न किया है। जैसा ही मैं कहूंगा। इसका प्रयत्नपूर्वक गोपन करना
चाहिए। [यदि कुछ ज्ञान भी हो तो कभी भी] उसका दिग्दर्शन जिस किसी से नहीं करना
चाहिए ॥ २ ॥
मायाग्रस्तमिद विश्वं
नानादुःखभयातुरम् ।
अनित्य भवसन्तापपरितप्त समन्ततः ।।
३ ।
कालदण्डभुजङ्गेन ग्रस्तमानमहर्निशम्
।
दृष्ट्वा विरक्तः सततं स्वात्मनः
शिवहेतवे ॥ ४ ॥
सद्गुरोः शरणं यायात् शुद्धभावेन
भामिनि ।
गुरवो बहवः सन्ति दीपवच्च गृहे गृहे
॥ ५ ॥
दुर्लभा गुरवो देवि ! सूर्यवत्सर्व
दीपकाः ।
गुरवो बहवः सन्ति शिष्य
वित्तापहारकाः ।। ६ ।।
विरला गुरवो देवि ! शिष्यहृत्तापहारकाः
।
यह सम्पूर्ण विश्व [भगवान् की
सृष्ट] माया से ग्रस्त है। नाना प्रकार के दुःखों एवं भय से प्राणिमात्र आतुर है ।
इस अनित्य संसार के संतापों से चारो ओर लोग संतप्त हैं। काल रूपी सर्प द्वारा
दिन-रात यह संसार ग्रसित है । यही देखकर साधक को इस माया से विरक्त होकर अपने हित
की कामना से सदैव, हे भामिनि ! उसे
शुद्ध भाव से सद्गुरु की शरण में जाना चाहिए। यद्यपि, जसे
घर-घर में दीप हैं, उसी प्रकार बहुत से गुरु संसार में हैं,
किन्तु हे देवि ! सभी दीपकों को प्रकाश देने वाले सूर्य के समान
गुरु दुर्लभ हैं । फिर शिष्यों के धन के लोलुप गुरुओं की तो कमी नहीं है । किन्तु
शिष्य के चित्त के संताप का हरण करने वाले गुरु तो है- देवि ! विरले ही होते हैं
।॥ ३-७ ॥
शुद्धान्वयः शूद्धचेत्ताः शद्धवेशः
शुभाकृतिः ॥ ७ ॥
सद्गुरु के लक्षण
सद्गुरू शुद्ध जाति का ही वक्ता
होता है । उसका चित्त [ मोह, लोभ आदि दोषों
से रहित] शुद्ध होता है, उसका वेश [ चटक-मटक वाला न होकर ]
सादा होता है उसकी आकृति देखने में शुभ होती है ॥ ७ ॥
शुभवादी शुभाचारः शुद्धभावः शुचिः
स्वयम् ।
वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो लोकसङ्गविवर्जितः
॥ ८ ॥
वह शुभ वचनों का ही वक्ता होता है [
अपशब्दों का प्रयोग वह कभी भी नहीं करता है ] । वह शुभ आचारवान् शुद्ध भावों वाला
और स्वयं भी [क्रोध, मोह,. लोभ आदि से रहित] शुद्ध होता है । वह वेद के एवं शास्त्रों के अर्थ के
तत्त्व का ज्ञाता तथा लौकिक सङ्गतियों से रहित होता है ॥ ८ ॥
अलोलुपः सुशीलश्च दयादाक्षिण्यसंयुतः
।
त्यागी विरागी गुणवान् गुणज्ञः
शिष्यवत्सलः ।। ९ ।।
सद्गुरु लोलुपता से रहित,
सुशील, दया एवं दाक्षिण्य* [उदार] आदि गुणों से युक्त
होता है । वह त्यागी, विरामी तथा गुणवान् और [ अन्य लोगों
के] गुणों का ज्ञाता तथा शिष्यों से स्नेह करने वाला होता है ॥ ९ ॥
*
उदार व्यक्ति कुछ भी दान करने में हिचकिचाता नहीं है ।
येन केनापि सन्तुष्टः शरण्यः
क्रोधवर्जितः ।
स्वसिद्धान्तार्थतत्त्वज्ञो मितवान्
लोकवल्लभः ।। १० ।।
सद्गुरु जिस किसी से भी सन्तुष्ट हो
जाने वाला, शरण देने वाला तथा क्रोष से
रहित, अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्त के अर्थ के मर्म का
ज्ञाता, मितभाषी और सम्पूर्ण लोक का प्रिय होता है ॥ १० ॥
पवित्रः संशयच्छेत्ता कृष्णप्रमपरिप्लुतः
।
एवं विधं गुरुं ज्ञात्वा
कृपापीयूषवर्षिणम् ॥ ११ ॥
फलपुष्पादिहस्तश्च गच्छेदभिमुखं
गुरोः ।
गुरोर्मन्दिरमासाद्य नत्वा
तद्देहलीं प्रिये ॥ १२ ॥
आज्ञया सद्गुरो वि दक्षपाद पुरःसरम्
।
प्रविश्य तद्गृहं
साज्ञाद्दण्डवत्प्रणमेच्च तम् ॥ १३ ॥
वह पवित्रात्मा,
सन्देहों का निवारण करने वाला, तथा कृष्ण के
प्रेम में मग्न रहने वाला होता है। इस प्रकार के कृपा रूपी अमृत की वर्षा करने
वाले गुरु की जानकर उस गुरु के समीप [ रिक्तहस्त न जाकर ] फल एवं पुष्प आदि [
माङ्गलिक द्रव्यों] से परिपूर्ण होकर जाए । हे प्रिये ! गुरु के घर पर पहुँचकर
प्रथमतः उसके घर की देहली पर नमन करके सद्गुरु की आज्ञा से, हे
देवि ! पहले दाहिना पैर आगे रखते हुए उस गृह में प्रवेश कर उनको साक्षात् दण्डवत्
प्रणाम करे ।। ११-१३ ।।
भो नायकरुणासिन्धो संसारार्णवतारक ।
प्रान्तं संसारगहने नानातापसमाकुले
। १४ ॥
अत्यन्तदीन हृदयं सर्वसाधनवर्जितम्
।
अज्ञानपङ्कनिर्मग्नं मामुद्धर
दयानिधे ।। १५ ।।
हे स्वामी ! करुणा के सिन्धु ! हे
संसार रूपी समुद्र से पार उतारने वाले ! इस संसार रूपी गहन वन में हम [विषयों में]
भटके हुए हैं। यह संसार नाना प्रकार के दुःख रूप संताप से व्याकुल है । अतः,
हे दया के निधान ! मुझ अत्यन्त दीन हृदय तथा सभी साधनों से रहित एवं
अज्ञान रूपी कीचड़ में डूबे हुए मेरा इससे उद्धार करिए। इस प्रकार गुरु से
प्रार्थना करना चाहिए ।। १४-१५ ॥
अहं त्वां शरणं प्राप्तः
शरण्यस्त्वं दयानिधिः ।
अविलम्बेन संसारविच्छेदं कुरु मे
प्रभो ।। १६ ।
मैं अब आपकी शरण में आ गया हूँ और
अब आप दया के निधान मेरे शरण दाता हैं। हे प्रभो ! आप अविलम्ब मेरे सांसारिक
दुःखों का विच्छेद करिए ॥ १६ ॥
एवं सम्प्रार्थितः सोऽथ गुरुनायः
कृपानिधिः ।
पूर्वं परीक्षितं विप्र वर्षेणैकेन
सुन्दरि ।। १७ ।।
इस प्रकार से प्रार्थना करने वाले
ब्राह्मण साधक की, हे सुन्दरि ! पहले
एक वर्ष तक वे कृपा के निधान गुरु परीक्षा करें ॥। १७ ।।
वर्षाभ्यां क्षत्रियं देवि वैश्यं
संवत्सरस्त्रिभिः ।
चतुर्भिवंत्सरः शूद्र
बोधयेद्विरहातुरम् ॥ १८ ॥
यदि प्रार्थना करने वाला साधक
क्षत्रिय हो तो दो वर्ष तक और हे देवि ! यदि वैश्य हो तो तीन वर्ष तक और यदि शुद्र
हो तो चार वर्षो तक उस विरह से आतुर साधक को उद्घोषित करे ।। १८ ।।
यदिचेद्वासनाजीवस्तदा बोध्यश्च सर्वथा
।
स्वप्निकश्चेत्तदा त्याज्यः
अधिकारविपर्ययात् ॥ १९ ॥
यदि साधक अधिक वासना युक्त हो तो
ज्ञान द्वारा उसका सर्वथा उद्बोधन करना चाहिए। यदि वह स्वप्निक [दिन में स्वप्न
देखने वाला जीव हावे तो अधिकारी न होने से उसका त्याग कर देना चाहिए ।। १९ ।।
परीक्षा लक्षणदेवि पुरा प्रोक्ता
मयानघे ।
अपरीक्षितजीवाय बितरेद्यदि बोधनम् ॥
२० ॥
न गुरुं तं विजानीयात् वासनापि न सा
भवेत् ।
शिष्येभ्यो धनमादाय सुखीस्यामिति
यस्य धीः ॥ २१ ॥
हे अनघे (निष्पाप) देवि ! मेरे
द्वारा पहले परीक्षा के लक्षणों का विवेचन कर दिया गया है। बिना परीक्षा किए हुए
साधक को यदि गुरु उद्बोधित करने लगे तो उसे कभी भी गुरु नहीं समझना चाहिए। उस गुरु
की मनोकामना भी ठीक नहीं होती है । केवल शिष्यों से धन लेकर 'मैं सुखी हो जाऊँ' ऐसी ही उसकी बुद्धि होती है ।। २०-२१
॥
न गुरुं तं विजानीयात् केवलं धूर्त
एव सः ।
घनाहाराजने युक्ता दाम्भिका
वेषधारिणः ॥ २२ ॥
ऐसे [ धन लोभी ] को कभी भी गुरु
नहीं बनना चाहिए वह तो केवल धूर्त ही होता है । ऐसे व्यक्ति धन के अपहरण करने में
आसक्त और [ मात्र गुरु का ] वेष धारण करने वाले दम्भी पुरुष होते हैं ।। २२ ।।
भ्रामयन्ति जनान् सर्वान्
ज्ञानिवत्प्रियदर्शनाः ।
शिष्येणापि गुरुर्देवि परीक्ष्यः
सर्वथैव हि ॥ २३ ॥
ज्ञानी के समान प्रिय दिखलाई देने
वाले वे सभी लोगों को भ्रमित करते रहते हैं । हे देवि ! शिष्य के द्वारा भी सम्यक्
रूप से गुरु की परीक्षा करनी चाहिए ।। २३ ।।
यद्यज्ञानवशात् शिष्यो गुरु
लक्षणवर्जितम् ।
जानीयात्तत्क्षणं त्यक्त्वा
गुरुमन्यं समाश्रयेत् ॥ २४ ॥
यदि अज्ञान के कारण शिष्य गुरु को
अपेक्षित लक्षणों से रहित जान ले तो तत्काल ही उसका त्याग करके अन्य गुरु की शरण
में जाना चाहिए ॥ २४ ॥
गन्धलुब्धो यथा भृङ्गः
पुष्पात्पुष्पान्तरं व्रजेत् ।
ज्ञानलब्धस्तथा शिष्यो
गुरोर्गुर्वन्तरं व्रजेत् ॥ २५ ॥
सुगन्ध का लोभी भ्रमर जैसे एक पुष्प
से दूसरे पुष्प पर जाता रहता है उसी प्रकार ज्ञान के लोभी शिष्य को एक गुरु को
छोड़कर दूसरे गुरु के पास निःसंकोच चले जाना चाहिए ।। २५ ।।
त्यजेन्मित्रममर्मज्ञं नारीं च
व्यभिचारिणीम् ।
अहन्तादुष्ट सम्बन्धं ज्ञानहीनं
गुरुं त्यजेत् ॥ २६ ॥
मर्म को न समझने वाले मित्र को तथा
व्यभिचारिणी नारी को छोड़ देना चाहिए । अहंकारी दुष्ट से सम्बन्ध रखने वाले
ज्ञानहीन गुरु का तत्क्षण त्याग कर देना चाहिए ॥ २६ ॥
नदत्सु पञ्चवाद्येषु ब्राह्मणेषु
पठत्सु च ।
गायन्तीषु तथा स्त्रीषु शिष्यं
सम्बोधयेद् गुरुः ।। २७ ।।
दीक्षा की विधि- पाँच
प्रकार के वाद्य के बजते रहने पर, ब्राह्मणों के
[वेद] पाठ करते रहने पर तथा स्त्रियों के गायन में संलग्न रहने पर गुरु को चाहिए
कि शिष्य को सम्बोधित करे [ इससे शिष्य के मन की एकाग्रता की परीक्षा होती है ] ॥
२७ ॥
आदौ शिष्यस्य देहं तु शोधयेन्निपुणो
गुरुः ।
असंस्कृतशरीरस्तु न योग्य:
स्यात्कथंचन ।। २८ ।।
इस प्रकार निपुण गुरु पहले शिष्य के
शरीर का शोधन करे। क्योंकि अशुद्ध एवं असंस्कृत (संस्कार रहित ) शरीर कभी भी
तत्त्वज्ञान के योग्य नहीं होता ।। २८ ।।
कृतस्नानं समाहूय मुखाग्रे
स्थापयेच्च तम् ।
शुभास श्वेतवस्त्रवसानं मलवजितम् ॥
२९ ॥
स्नान किए हुए भक्त साधक को बुलाकर
उसको सम्मुख स्थापित करे। शुभ आसन और निर्मल श्वेत वस्त्र उसे पहने रहना चाहिए ।।
२९ ॥
बोधयेत्तद्वृदाम्भोजे प्रदीपकलिकाकृतिः
।
आत्मचैतन्यमीशानि तच्च स्वात्मनि
योजयेत् ॥ ३० ॥
उसके हृत्कमल में खिली हुई कलिका की
आकृति वाले आत्म चैतन्य को उद्बोधित करना चाहिए और हे ईशानि ! उसे अपने (हृत्कमल
से ) संयुक्त भी करे ॥ ३० ॥
ततोऽस्यपदयुगले भुवनानि चतुर्दश ।
लिङ्गप्रदेशेऽस्य भूतानि चिन्तयेत्परमेश्वरि
।। ३१ ।।
इसके बाद इसके दोनों चरणों में
चोदहों भुवनों का और लिंग प्रदेश में सभी भूतों का, हे परमेश्वरि ! उसे चिन्तन करना चाहिये ।। ३१ ।।
अवशिष्टानि तत्त्वानि
चिन्तयेद्धृदयाम्बुजे ।
कण्ठदेशे नादविन्दु
गुणश्च परिचिन्तयेत् ।। ३२ ।
अवशिष्ट तत्त्वों का चिन्तन उसके
हृत्कमल में उसे करना चाहिए और कण्ठ प्रदेश में [ ॐ के] नाद एवं बिन्दु तथा गुणों
का चिन्तन करना चाहिए ।। ३२ ।।
ब्रह्मरन्ध्रे पर ब्रह्म पुरुषं
प्रकृतीश्वरम् ।
एवं संचिन्त्य देवेशि
जुहुयात्तान्यनुक्रमात् ।। ३३ ।।
प्रकृति के ईश्वर पुरुष का और
परब्रह्म का चिन्तन उसे ब्रह्मरन्ध्र में करना चाहिए। इस प्रकार से,
हे देवेशि ! उन-उन तत्वों का चिन्तन करके क्रमानुसार यजन करे ॥ ३३ ॥
जुहुयाल्लिङ्गदेशेस्य भुवनानि चतुर्दश
।
लिङ्गदेशस्थभूतानि हृदितत्वेषु होमयेत्
।। ३४ ।।
चतुर्दश भुवनों का इसके लिङ्ग देश
में यजन करे । किन्तु लिङ्गदेशस्थ भूत का हवन हृदय के तत्वों में करना चाहिए ॥ ३४
॥
हृदयस्थानि तत्वानि बिन्दुनादे च
ह्यर्पयेत् ।
ब्रह्मरन्धे चिते देवि परब्रह्मणि
निष्कले ।। ३५ ।।
हृदयस्थ तत्वों को बिन्दु और नाद
(ॐ) में अर्पण करे। हे देवि ! निष्फल परब्रह्म को ब्रह्मरन्ध्र तथा चित्त में
अर्पित करे ।। ३५ ।।
नादबिन्दु गुणान् हत्वा
प्रपञ्चविलयं स्मरेत् ।
निष्प्रपञ्चं तदा शिष्य
बोधयेत्परमेश्वरि ॥ ३६ ॥
इस प्रकार नाद,
बिन्दु एवं गुणों का हवन करके सभी प्रपक्ष का अब [ इसी शरीर में ]
विलय हो गया है यह भावना करे। तब, हे परमेश्वरि ! उस
निष्प्रपन्च शिष्य को [शुद्ध करके] उद्बोधित करे ।। ३६ ।
न वर्णेषु तदा कश्चित्
ब्राह्मणक्षत्रियादिषु
न देवोऽसि न गन्धर्वो नासुरः
पन्नगोऽपि वा ॥ ३७ ॥
न त्वं देहो न त्वद्दहो नेन्द्रियाणि
तथा मनः ।
न च प्राणो न बुद्धिस्त्व नाहङ्कारो
भवान्मतः ॥ ३८ ॥
क्षरः सर्वप्रपञ्चोऽयमक्षरे
प्रतिबिम्बतः ।
अक्षरस्य दिदृक्षाभूद्
ब्रह्मलीलावलोकने ।। ३९ ।।
तप्रियायाऽभवत्कामोऽक्षरलीलानिरीक्षणे
तत इच्छा समुद्भूता
ब्रह्मण्यज्ञानमसृजत् ॥ ४० ॥
उद्बोधन प्रक्रिया - वह
[निष्प्रपञ्च शिष्य ] ब्राह्मण या क्षत्रिय आदि वर्णों में से कोई भी नहीं है । [
उसकी आत्मा तो परमात्मा से एकीकृत है। अतः गुरु उससे कहे कि] न तो तुम देव हो,
न गन्धर्व, न असुर अथवा सर्प भी तुम नहीं हो ।
न तुम शरीर हो और न तो तुमसे शरीर है और इन्द्रियां या मन भी तुमसे [ उद्भुत ]
नहीं हैं। न तो तुम प्राण हो, न तुम बुद्धि हो और न अहङ्कार
ही हो । यह सम्पूर्ण[ मन आदि ] प्रपञ्च क्षर [विनाशी] है जो अक्षर अविनाशी रूप में
प्रतिबिम्बित होता है [अर्थात् सत्य रूप से प्रतिभासित होता है किन्तु है वह असत्य
। वह जो अक्षर (अविनाशी आत्मा) है उसकी यह इच्छा होती है कि मैं ब्रह्म की (रूप
असत्य संसार) का अवलोकन करु। उस अक्षर (ब्रह्म) की लीला के निरीक्षण में उस
(आत्मा) का प्रिय काम उत्पन्न होता है । उस (काम) से इच्छा उत्पन्न होती है जो
ब्रह्म (रूप शरीर) में अज्ञान का सृजन करती है ।। ३७-४० ॥
मोहाण्ड प्रविशन् साक्षी ददर्श
स्वप्नगं जगत् ।
तत्र बृन्दावने रासलीलायां रमिता
प्रिया ॥ ४१ ॥
अन्तहिते प्रिये कृष्णे
दुःखादुःखतरं गता ।
कालमायान्धकारोऽस्मिन् भ्रान्तासि
बहुधा मुधा ।। ४२ ।।
श्रीकृष्णस्य प्रिया चासि पूर्णस्य
परमात्मनः ।
उद्बुध्य स्वप्नतश्चित्ते
प्रियाभावं निजं श्रय ॥ ४३ ॥
तिरोभूय च शनकै माया देहमनीप्सितम्
।
क्षर चैवाक्षरं हित्वा स्वपति
पुनरेष्यसि ॥ ४४ ॥
वह (ब्रह्म रूप आत्मा) मोह के (
शरीर रूप ) अण्ड में प्रविष्ट होकर साक्षीरूप से इस स्वप्निल संसार को देखती रहती
है। वहाँ वृन्दावन में रास-लीला में रमी हुई प्रिया प्रिय कृष्ण के छिप जाने (
अन्तर्हित हो जाने) से वह (आत्मा) दु:ख से भी दुःखत संसार में पड़ जाती है । वह इस
काल रूप माया के अन्धकार (रूप जगत् ) में बारम्बार असत्य रूप से भ्रमित होती रहती
है । ( अतः गुरु कहते हैं कि ) तुम पूर्ण आत्मा पूर्ण परमात्मा श्री कृष्ण की
प्रिया हो । अतः तुम स्वप्न से जग कर उठो और अपने प्रिया भाव को पुनः प्राप्त करो।
इस ( असत्य संसार) को धीरे-धीरे भूलकर तुम बेकार में इस माया रूप देह में पड़े हो
। अतः अक्षर (ब्रह्म रूप आत्मा) क्षर (शरीर) को छोड़कर पुनः अपने स्वामी परमात्मा को
प्राप्त करेगा ।। ४१-४४ ।।
ब्रह्मानन्दरसज्ञानां
ब्रह्मज्ञानवतां सताम् ।
पद्धति ब्रह्मसृष्टीनां वक्ष्यामि
शृणु सुन्दरि ॥४५॥
[अब साधक के लिए पुरुषोत्तम पद्धति
को कहते हैं । शिष्य अब मन में निम्न प्रकार से सद्गुरु में ही ब्रह्म की भावना
करे]
ब्रह्मानन्द रस के ज्ञाताओं के लिए
और सज्जन ब्रह्मज्ञानियों के लिए ब्रह्म से सृष्ट पद्धति को कहता हूँ,
हे सुन्दरि ! सुनो ॥। ४५ ।।
गोत्रमुक्तं चिदानन्दं ब्रह्मानन्दो
हि सद्गुरुः ।
शिखा ज्ञानमयो प्रोक्ता सूत्रमक्षररूपकम्
॥ ४६ ॥
चिदानन्द की पहचान हमने बताई है।
वस्तुतः सद्गुरु ही ब्रह्मानन्द स्वरूप है । उनकी शिखा (ऊंचाई) ज्ञानमय कही गई है
। उनका सूत्र अक्षर रूप [परब्रह्म ] है ।। ४६ ।।
किशोरी परमेष्टा च सेवनं
पौरुषोत्तमम् ।
पातिव्रत्यमनन्यत्वं साधनं समुदाहृतम्
॥ ४७ ॥
किशोरी [ राधाजी ]. परम ईष्ट का
सेवन और पुरुषोत्तमत्व भाव पातिव्रत्य[ ब्रह्मचर्यं ] और अनन्यत्व दूसरे में
आसक्ति न होना ही [ज्ञानमार्ग का] साधन कहा गया है ॥ ४७ ॥
वृन्दावनं नित्यमुक्तं विलास
सुखसञ्ज्ञकम ।
जाप्यं च युगलं नाम तारतम्यो (मो)
मनुः स्मृतः ।। ४८ ।।
विलास सुख नामक वृन्दावन नित्य कहा
गया है। [ राधा-कृष्ण का ] युगल नाम तारतम्य पूर्वक जप करना ही मन्त्र कहा गया है
॥ ४८ ॥
ब्रह्मविद्या परा देवी देवो ब्रह्म
सनातनम् ।
शाला गोलाक इत्युक्तो
द्वारमूर्ध्वमुदाहृतम् ॥ ४९ ॥
हे देवि ! ब्रह्मविद्या ही परा
[विद्या] है और ब्रह्म ही सनातन [ शाश्वत ] है । गोलोक ही इस [परब्रह्म का] गृह
[शाला] कहा गया है । [ ब्रह्म के घर] का द्वार ऊर्ध्व बतलाया गया है ।। ४९ ।।
स्वसंवेदः समादिष्टः फलं
नित्यविहारकम् ।
दिव्यब्रह्मपुरं धाम परात्परमुदाहृतम्
॥ ५० ॥
आत्मसाक्षात्कार और नित्य [ लीला ]
में बिहार ही इस ब्रह्मविद्या का फल कहा है। दिव्य एवं परात्पर ब्रह्मपुर को ही इस
[विद्या] का धाम कहा गया है ॥ ५० ॥
सद्गुरोश्चरण क्षेत्रं सर्वशद्धिकरं
परम् ।
यमुनासञ्ज्ञकं तीर्थं मनन
प्रेमलक्षणम् ॥ ५१ ॥
सद्गुरु का चरण ही इस ज्ञान का
क्षेत्र है जो सभी [ इन्द्रियों ] को शुद्ध करने वाला एवं श्रेष्ठ है । इस ज्ञान
का तीर्थ [घाट] यमुना नामक है। प्रेम रूप भावना ही मनन है ॥ ५१ ॥
श्रीमद्भागवतं प्रोक्तं श्रवणं
सारमद्भुतम् ।
ऋषिः प्रोक्तो महाविष्णुर्ज्ञानं
जाग्रत्स्वरूपकम् ।। ५२ ।।
यह ज्ञान श्रीमद्भागवत
प्रोक्त है। इसके सार का श्रवण अद्भुत है। यही ऋषिप्रोक्त महाविष्णु का ज्ञान
जाग्रत् स्वरूप है जिसे शिष्य को ग्रहण करना चाहिए ।। ५२ ।।
आनन्दाख्यं कुलं प्राप्तं नित्ये
धाम्नि प्रकीर्तितम् ।
सम्प्रदायश्चिदानन्दो निजानन्देः
प्रकाशितः ।। ५३ ।।
वह शिष्य आनन्दाख्य शरीर को प्राप्त
करता है और यह नित्य धाम में रहता है । अपने ही [ आत्मसाक्षात्कार से ] आनन्द के
द्वारा यह चिदानन्द सम्प्रदाय को प्रकाशित करता है ।। ५३ ।।
एवं पद्धतिराख्याता पुरुषोत्तमसञ्ज्ञिका
।
वर्तितव्यं ततो भद्र
साधनेरात्मलब्धये ॥ ५४ ॥
इस प्रकार यह [ज्ञान प्राप्त करने
की] पुरुषोत्तम नामक पद्धति विद्वानों द्वारा कही गई है। इसलिए हे कल्याणि !
आत्मसाक्षात्कार [ जहाँ से आत्मा आई है। उस परम धाम का ज्ञान] इन साधनों से साधक
को जान लेना चाहिए । ५४ ॥
प्रबोध्यैवं गुरुस्तस्मिन् चेतन्यं
परमेश्वरि ।
दृष्यावलोकेन स्थापयेत्पुनरेव तत् ॥
५५ ॥
हे परमेश्वरि ! इस प्रकार से गुरु
उस शिष्य में [आत्मा के] के चैतन्य को जगाता है। इस दिव्य दृष्टि के अवलोकन द्वारा
वह पुनः उस [आत्मा] का [ अपने सत्यरूप में जागृत कर ] स्थापित करे ।। ५५ ।।
ब्रह्मरन्ध्रपथा तस्मिन् चावतीर्णं
इति स्मरन् ।
कण्ठदेशे नादबिन्दु स्थापयेच्च ततः
परम् ।। ५६ ।।
यह स्मरण करे कि वह ब्रह्मज्ञान
उसके ब्रह्मरन्ध्र [ शिर में शिखा स्थान पर एक रन्ध्र ] से उसमें अवतीर्ण हो गया
है। तब उसके बाद कण्ठ प्रदेश में नाद एवं बिन्दु [=ॐ] को साधक [हृत्कमल में]
स्थापित करे ।। ५६ ।।
तत्वानि हृदयाम्भोजे लिङगे भूतानि
पञ्च च ।
ततः पादप्रदेशे तु
स्थापयेद्भवनावलिम् ।। ५७ ।।
[ अपने ] हृत्कमल में सभी तत्वों को और पचभूतों
को लिङ्ग में स्थापित करे । उसके बाद [अपने] पाद प्रदेश में [ चौदहों] भुवनों की
शृङ्खला को स्थापित करे ।। ५७ ।।
एवं विराजं संस्कृत्य ततो मन्त्रं
समादिशेत् ।
मन्त्रोपदेशतः पूर्वं गुरुं
सम्पूजयेत्प्रिये ॥ ५८ ॥
इस प्रकार शरीर [ के आध्यात्मिक
सौन्दर्य ] को संस्कृत [ सजा ] कर तब मन्त्र का उपदेश करे । हे प्रिये !
मन्त्रोपदेश से पहले गुरु की पूजा करनी चाहिए ॥ ५८ ॥
सर्वस्वदक्षिणां दत्वा कृतकृत्यो
भवेद्र सः ।
तदर्द्ध वा तदधं वा
तदर्द्धार्द्धमथापि वा । ५९ ।।
वह साधक इस गुरु पूजा में अपना
सर्वस्व देकर कृतकृत्य होवे । या अपने धन का आधा अथवा उस [आधे ] का भी आधा,
किंवा उस आधे का भी आधा गुरु को समर्पित करे ।। ५९ ।
सन्तोषयेद् गुरुं भक्त्या
धनधान्याम्बरादिभिः ।
अन्येभ्योऽपि यथाशक्ति
भूषावस्त्रादिक ददेत् ॥ ६० ।।
भक्ति पूर्वक गुरु को धन,
धान्य एवं वस्त्र आदि से सन्तुष्ट करे । यथाशक्ति अन्य द्रव्य आभूषण
एवं वस्त्र आदि भी उसे समर्पित करे ।। ६० ।।
साष्टा च ततो देवि ! दण्डवत्पतितो
भुवि ।
प्रणमेद् गुरुमात्मीयं
गुरुरुत्थापयेच्च तम् ॥ ६१ ॥
हे देवि ! इसके बाद पृथ्वी पर गिरकर
अपने गुरु को साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम करे और गुरु उसे उठावे ॥ ६१ ॥
उपवेश्य पुनः पावें लीलाभेदान्
समादिशेत् ।
लीलाभेदा गुरुमुखाद्द्बोद्धव्या एव
सुन्दरि ।। ६२ ।।
पुनः अपने पास बैठाकर कृष्ण के
लीला-भेदों का उसे उपदेश करे। हे सुन्दरि ! भगवान् कृष्ण की [रक्षा लीला,
प्रेमलीला आदि ] लीला भेदों को गुरुमुख से ही जानना चाहिए ॥ ६२ ॥
ततो रहो रहश्चैव संस्थितो भावयेच्च
तान् ।
प्रियाभावो यदा बुद्धेः कृतकृत्यो
भवेत्तदा ।। ६३ ।।
इसके बाद एकान्त में शान्त होकर
संस्थित चित्त से उन लीलाओं की मन में भावना [== चिन्तन ] करे। जब [प्रेमलीला का
चिन्तन करते-करते ] बुद्धि में प्रिया का भाव जाग्रत हो जाय,
तब अपने को कृत-कृत्य समझे॥६३॥
इति तेऽभिहितं देवि
गोप्याद्गोप्यतरं च यत् ।
समासेन महादेवि ! भूयः किं
श्रोतुमिच्छसि ॥ ६४ ॥
हे देवि ! इस गुप्त से भी गुप्त
ज्ञान को संक्षेप में मैंने तुमसे कहा है । हे महादेवि ! तुम फिर क्या सुनना चाहती
हो ?
॥ ६४ ॥
॥ इति श्रीनारदपञ्चरात्र
श्रीमाहेश्वरतन्त्र शिवपार्वती-संवादे अष्टाविंशतितमं पटलम् ॥ २८ ॥
इस प्रकार श्रीनारदपाचरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञानखण्ड ) में माँ
जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के अट्ठाईसवें पटल की डॉ० सुधाकर
मालवीयकृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या
पूर्ण हुई ॥ २८ ॥
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 29

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