योगिनीतन्त्र पटल ४
योगिनीतन्त्र पटल ४ में षट्कर्म
साधन का वर्णन है ।
योगिनीतन्त्र पटल ४
Yogini tantra patal 4
योगिनीतन्त्रम् चतुर्थ: पटलः
योगिनी तन्त्र चतुर्थ पटल
योगिनी तंत्र चौथा पटल
योगिनीतन्त्रम्
श्रीदेव्युवाच ।
देवदेव जगद्वन्द्य सुरासुरनमस्कृत ।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि
वीरषट्कर्मसाधनम् ॥ १ ॥
धन्यं पुण्यवतां राज्ञां
राज्यादिकवयोजुषाम् ।
स्त्रियास्तु सिद्धसंस्थानां
सर्वभोगविलासिनाम् ॥ २ ॥
श्रीदेवजी ने कहा - हे
सुरासुरनमस्कृत ! जगद्वन्द्य देवदेव ! अब मैं पुण्यवानों का,
राज्यादिवयोभोगी ( अत्यन्त सौभाग्यवान् वृद्ध) गणों का, स्त्रियों का, सिद्धसंस्थगणों का तथा सब भोगविलासियों में धन्य और ग्रहणीय
षट्कर्म साधन सुनने की इच्छा करती हूं ॥ १ ॥ २ ॥
श्री ईश्वर उवाच ।
शान्तिवश्यस्तम्भनानि
विद्वेषोच्चाटने तथा ।
मारणं परमेशानि षट्कर्मेदं
प्रकीर्तितम् ॥ ३ ॥
श्री ईश्वर ( महादेवजी ) बोले- हे
परमेशानि ! शान्ति, वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण उच्चाटन और मारण यही ६ कर्म षट् कर्म कहे गये हैं ॥ ३ ॥
तारिणी कालिकां छिन्नामधिकृत्य
जगन्मये ।
कथयामि तव स्नेहाहुतंसिद्धिकरं परम्
॥ ४ ॥
हे जगन्मये ! तारिणी,
कालिका और छिन्नमस्ता इनको अधिकार करके तुम्हारे प्रति स्नेहवशतः
मैं तुमसे शीघ्र सिद्धकर करनेवाला परम विषय कहता हूं ॥ ४॥
रतिर्वाणी रमा ज्येष्ठा मातङ्गी
कुलकामिनी ।
दुर्गाचैव भद्रकाली कर्मादौ
कर्मसिद्धये ॥ ५ ॥
रति, वाणी, रमा, ज्येष्ठा, मातंगी, कुलकामिनी, दुर्गा और
भद्रकाली यह कर्मादि में कर्मसिद्धि का निमित्त होती हैं ॥ ५ ॥
षोडशैरुपचारैश्च यजेद्वीरः
स्वशक्तितः ।
शून्यागारे महारण्ये देवतायतनेऽपि
वा ॥ ६ ॥
वीर मनुष्य अपनी शक्ति के अनुसार
षोडशोपचार से उनकी पूजा करै । शून्यागार, महारण्य
वा देवमन्दिर में ॥ ६ ॥
पञ्चकर्माणि कुर्वीत मारणन्तु
शवोपरि ।
तदभावे पितृवने वासांसि कथयामि ते ॥
७ ॥
मुख्यं दिगम्बरं ज्ञेयं द्वीपिचर्म
द्वीतीयकम् ।
तदभावे रक्तक्षौमं नान्यद्वस्त्रं
प्रकल्पयेत् ॥ ८ ॥
प्रथमोक्त पांच कर्म करै,
किन्तु मारणकर्म शवोपरि (मृतक देह पर) करना चाहिये । उसका अभाव
होनेपर श्मशानभूमि में मारण करै । वस्त्र का विषय कहता हूँ, सुनो।
मुख्य तो दिग्वस्त्र (नग्न) है, दूसरा द्वीपिचर्म अर्थात्
वाघ की खाल है, इनके अभाव में लालवर्ण का रेशमी वस्त्र ग्रहण
करै, अन्य वस्त्र निषिद्ध है ॥ ७- ८ ॥
स्वर्णमादौ द्वितीये च राजतं
स्तम्भने शिला ।
विद्वेषोच्चाटने ताम्र कपाल मारणे
शुभम् ॥ ९ ॥
शान्ति में सुवर्ण,
वशीकरण में रजत (चांदी) स्तंभन में शिला, विद्वेषण
और उच्चाटन ताम्र, तथा मारण में नर कपाल शुभ है ॥९॥
विप्रोन्योऽपि नरः प्रोक्तो युवा वै
कृष्णवर्णकः ।
अदुर्भिक्षव्याधिमृतो माला तस्य
शुभावड़ा ॥ १० ॥
ब्राह्मण वा अन्यजातीय कृष्णवर्ण
युवा अथवा दुर्भिक्ष की पीडारहित वा निरोग मृतमनुष्य की अस्थिमाला ही शुभदायिनी है
॥ १०॥
अभावे स्फाटिकी जप्या
इन्द्राक्षैवीजपेत्प्रिये ।
मृद व कोमले वापि विष्टरे वा
सुरेश्वरि ॥ ११ ॥
इसके अभाव में,
स्फटिक की माला वा इन्द्राक्षमाला से जप करै । हे प्रिये सुरेश्वरि
! मिट्टी वा कोमल कुशासन में ॥ ११ ॥
मुण्डे वाsयोनि के देवत्वचि व्यात्रस्य वा प्रिये ।
एकहस्ते द्विहस्ते वा चतुर्हस्ते
समन्ततः ॥ १२ ॥
स्थिरासनश्चरेत्सम्यक् स्वाभयं तत्र
चिन्तयेत् ।
भये जाते महेशानि भैरवोक्तमनुं
जपेत् ॥ १३ ॥
मुण्ड वा योनि व व्याघ्र त्वचा में
एक हाथ वा दो हाथ, अथवा चारों ओर चार
हाथ स्थान में सम्यक् प्रकार स्थिरासन करे । वह अपनी अभयचिन्ता करै अर्थात् निर्भय
रहे। हे महेश्वरि ! भय उत्पन्न होने पर भैरवोक्त मंत्र का जप करे ॥ १२- १३ ॥
विषयुग्मं वज्रजाले हनयुग्ममतः परम्
।
सर्वभूतानुतः कूर्च्चमन्त्रान्तो
भैरवो मनुः ॥ १४ ॥
वज्रजाल में विषयुग्मः,
फिर हनयुग्म और कूर्च मन्त्र के अन्त में भैरवमन्त्र सर्वभयों को
दूर करता है ॥ १४ ॥
ततो भूतबलिं दद्यात्साधको
धर्मसम्मितम् ।
अश्वत्थे महेशानि धर्मकीलकमाचरेत् ॥
१५ ॥
अनन्तर साधक मनुष्य धर्मसंमित
भूतबलि प्रदान करें । हे महेशान ! अश्वत्थ द्वारा वह धर्म का कीलक स्थापन करें॥१५॥
सूर्यवारा दियोगेन पञ्चकर्माणि
चाचरेत् ।
शनौ च मारणं देवि निश्चितं
वरिवन्दिते ॥ १६ ॥
सूर्यवादियोग में पंचकर्म का आचरण
करे हे वीरवन्दिते देवि ! शनिवार में मारण करना चाहिये ॥ १६ ॥
रात्रियोगे च कर्त्तव्यं सर्वं कर्म
शुचिस्मिते ।
प्राग्विद्वान्प्रजपेत्सम्यक्स्वमन्त्रमयुतं
शवे ।
प्रयोगस्य फलावाप्तौ स्वस्वरक्षाकरं
महत् ॥ १७ ॥
रात्रियोग में सभी कर्मो का साधन
करना चाहिये। विद्वान् मनुष्य पहिले निजमंत्र अयुत ( दशसहस्र ) वार शवोपरि जपे ।
हे शुचिस्मिते प्रयोग की फलप्राप्ति के लिये निज निज रक्षाविधान कर्त्तव्य है ॥ १७
॥
ततः साध्यादने मंत्री
याममात्रनिशोत्तरम् ।
गणादिपञ्चभिर्देवैर्यजेत्कुल
विनाशिनीम् ॥ १८ ॥
इसके पीछे मन्त्रवान् पुरुष
रात्रिकाल में प्रहरमात्र बीतने पर गणादि पांच देवताओं के सहित कुलविनाशिनी देवी की
पूजा करे ॥ १८ ॥
दिग्वासा गलिताशेषचिकुरः कुलकीलकः ।
शक्तियुक्तो जपेद्विद्यां सदा त्वा
मनसा स्मरेत् ॥ १९ ॥
नग्न होकर समस्त केश,
कुलकीलिक और शक्तियुक्त होकर सदा मंत्र स्मरण करें और मन से तेरा
स्मरण करै ॥ १९ ॥
लक्षसंख्यं महेशानि
शक्तिपूजापुरःसरम् ।
प्रत्यहं
भोजयेद्विप्रान्कौलिकाद्यान्दिनान्तरे ॥ २०॥
हे महेश्वरि ! लक्षवार शक्तिपूजा
करने के पीछे नित्य ब्राह्मण को और दिनान्तर में कुलकौलिकगणों को भोजन करावे ॥ २०
॥
मांसं मद्यं तथा मत्स्यं हुत्वा
बह्नौ शतं शतम् ।
दक्षिणां गुरवे दद्यागुरुरूपेण
शाम्भवि ॥ २१ ॥
शाम्भव ! मांस मद्य और मत्स्य द्वारा
अग्नि में शतशतवार होम करके गुरु को गुरुतर रूप से दक्षिणा देवे ॥ २१ ॥
एवमुक्तविधानेन दिग्भ्यो वा
वीरपुङ्गवः ।
यदि कुर्यान्महशानि देवानपि तथा
नयेत् ॥ २२ ॥
हे महेशानि ! इस प्रकार कहे हुए
विधान से जो वीरश्रेष्ठ यह सब कार्य करे, तो
दिशाओं से देवताओं के भी उस स्थान में बुलाने को समर्थ हो सकते हैं ॥ २२ ॥
नापेक्षा जायते कान्ते चावश्यं
फलभाग्भवेत् ।
महाप्रयोगे देवेशि कृष्णच्छागं बलिं
हरेत् ॥ २३ ॥
कान्ते ! इसमें अपेक्षा वा संशय
नहीं है,
अवश्य ही इसके फल का भागी होगा, हे देवेशि !
महाप्रयोग में काले बकरे की बलि प्रदान करे ॥ २३ ॥
पूजान्ते सततं देवि
तन्मांसैर्वह्निमर्चयेत् ।
विधिः सर्वत्र कथितो
दिव्यवीरपशुक्रमात् ॥ २४ ॥
हे देवि ! पूजा के पीछे उसके मांस से
अग्नि की अर्चना करे । दिव्यबीर पशुक्रम में सर्वत्र यह विधि कथन की गई है ॥२४॥
क्रमेण फलमाप्नोति व्यत्यये पातकी
भवेत् ॥ २५ ॥
इत्येवं कथितं तुभ्यं सम्यक्
षट्कर्मगोचरम् ।
गोपनीयं खले दुष्टे पशुपामरसन्निधौ
॥ २६ ॥
क्रमानुसार कार्य करने से फल
प्राप्त और भेद करने से पाप का भागी होता है, यह
मैंने तुमसे षट्कर्म का विषय कहा । खल, दुष्ट और पशुतुल्य
पामर मनुष्य से इसको छिपावे ॥ २५-२६ ॥
श्रीदेव्युवाच ।
सुराद्याः किंविधा देव शक्तिर्वा
कीदृशी शुभा ।
कर्मसु यथायोग्यं वद मे करुणानिधे ॥
२७ ॥
श्रीपार्वतीजी ने कहा- हे करुणानिधे
! किस प्रकार सुरगण और किस प्रकार शक्ति कल्याणकारी होती है,
षट्कर्म विषय का यथायोग्य यह सब वर्णन कीजिये ॥ २७ ॥
ईश्वर उवाच ।
माध्वी शान्तिकरी प्रोक्ता वश्ये च
स्फाटिकी शुभा ।
स्तम्भने डाकिनी ज्ञेया विद्वेषे
पैष्टिकी मता ॥ २८ ॥
ईश्वर बोले- शान्ति विषय में माध्वी,
वशीकरण में स्फाटिकी, स्तंभन में डाकिनी,
विद्वेषण में पैष्टिकी ॥ २८ ॥
उच्चाटने तथा गौडी मारणे भैरवी मता
।
एतासां लक्षणं देवि कथितं कुलमोहने
॥ २९ ॥
उच्चाटन में गौडि और मारण में भैरवी
शुभकारी होती है। हे देवि ! यह सब शक्तियों के लक्षण कुलमोहनतंत्र कहे हैं ॥ २९ ॥
पद्मिनी शान्तिदा प्रोक्ता वश्ये सा
शंखिनी मता ।
स्तम्भनोच्चाटने देवि प्रशस्ता
नागवल्लभा ॥ ३० ॥
पद्मिनी शान्तिदायिनी,
वशीकरण में शंखिनी स्तंभन और उच्चाटन में नागवल्लभा श्रेष्ठ है ॥ ३०
॥
मारणे च तथा शस्ता डाकिनी शत्रु
मृत्युदा ।
गौराङ्गी दीर्घकेशी या सदा
चामृतभाषिणी ॥ ३१ ॥
और मारण में डाकिनी शत्रु को मृत्यु
देनेवाली होती है, गौराङ्गी, दीर्घकेशी, सदा अमृतभाषीणी ॥ ३१ ॥
रक्तनेत्रा सुशीला च पद्मिनी साधने
शुभा ।
मन्त्रसिद्धिकरी ह्येषा शंखिनी सापि
भामिनि ॥ ३२ ॥
रक्तनेत्रा पद्मिनी साधनविषय में
शुभदायिनी होती है, हे भामिनी ! शंखिनी
और मन्त्रसिद्धिकरी ॥ ३२ ॥
दीर्घाङ्गी सा शंखिनी
स्याज्जगद्रअनकारिणी ।
समांगी शुद्रदेही च न खर्वा
नातिदीर्घका ॥ ३३ ॥
केशी मध्यपुष्टा मृदुभाषा च नागिनी
।
कृष्णाङ्गी च कृशाङ्गी च दन्तुरा
मदतापिता ॥ ३४॥
शंखिनी,
दीर्घाङ्गी और सबजनों का मनरंजन करनेवाली है, नागिनी
समान अंगवाली शूद्रतुल्य देहधारिणी न बहुत खर्व (टिंगनी ) न बहुत लम्बी, दीर्घकेशी, मध्यपुष्टा और मीठा बोलनेवाली होती है,
कृष्णांगी और कृशाङ्गी, दन्तुरा, मदतापिता ॥ ३३- ३४ ॥
ह्रस्वकेशी दीर्घघोणा सदा निरवादिनी
।
सदा कुद्धा दीर्घदेहा महारावपरायणा
॥ ३५ ॥
निर्लज्जा हास्यहीना च
निद्रालुर्बहुभक्षिका ।
इयं सा डाकिनी प्रोक्ता मृत्युयोगे
प्रशस्यते ॥ ३६ ॥
ह्रस्वकेशी ( छोटे केशवाली )
दीर्घघोणा ( बडे नाशिकावाली ) सदा निष्टुर बोलनेवाली,
सदा क्रोधित, दीर्घदेहवाली, महाशब्दवाली, निर्लज्ज हास्यहीन, सदा सोनेवाली और बहुत भोजन करनेवाली को ही डाकिनी कहा गया है, यह डाकिनी ही मृत्युयोग में श्रेष्ठ है ॥ ३५-३६ ॥
एतास्तु शक्तयो देवि
सर्वजातिसमुद्भवाः ।
सापत्याश्च सुरत्यश्च
जातपुत्रादिकाः शुभाः ।
ग्राह्याः कुलरमैः पूज्या
भक्तिभावेन कामिनीः ॥ ३७॥
हे देवि ! सर्वजाति में उत्पन्न यही
सब शक्ति है, सन्तानवाली सूरति युक्त और
जातपुत्रादि (जिसके पुत्र हैं ) कोहि शुभकारिणी होती है। यही सब शक्ति ग्रहण करने
योग्य हैं, इन सब कामियों कि कुल रसद्वारा भक्तिभाव से पूजा
करै ॥ ३७ ॥
श्रीदेव्युवाच ।
केन केन च मन्त्रेण मन्त्री
षट्कर्मभाग्भवेत् ।
तन्मन्त्रं कथय स्वामिन् यद्यहं तव वल्लभा
॥ ३८ ॥
श्रीपार्वतीजी बोली- हे महेश ! हे
स्वामिन् ! यदि मैं तुम्हारी प्यारी हूँ, तो
मंत्रवान् मनुष्य किस किस मंत्र द्वारा षट्कर्म का भागी होता है, वह मंत्र मुझसे वर्णन करो ॥ ३८ ॥
ईश्वर उवाच ।
एकाक्षरं कालिकायास्तारायास्तु त्रिबीजकम्
।
वज्रवैरोचनीयो हि मनुरेकादशाक्षरः ॥
३९ ॥
ईश्वर बोले-कालिका का बीज एकाक्षर,
तारा का बीज अक्षर, वज्रवैरोचनी का बीज
एकादशाक्षर ॥ ३९ ॥
सर्वतेजोऽपहारी च मनुराख्यात एव च ।
बहुनात्र किमुक्तेन शृणु
मत्प्राणवल्लभे ॥ ४० ॥
यह सर्वतेजोविनशीण मंत्र कहा है,
हे प्राणवल्लभे ! बहुत कहने का प्रयोजन नहीं है ॥ ४० ॥
केवलं शक्तियुक्तश्च जपेदेवीं
समाहितः ।
अवश्य फलमाप्नोति नान्यथा
वीरवन्दिते ॥ ४१ ॥
केवल शक्तियुक्त होकर सावधानचित्त से
देवी का जप करे, हे वीरवन्दित ! तो अवश्य ही फल प्राप्त
होगा इसमें सन्देह नहीं ॥ ४१ ॥
खलो यदि फलं प्राप्तः सबलो यदि
निष्फलः ।
भवेदेत महेशानि तदा सर्वे वृथा
भवेत् ॥ ४२ ॥
यदि खलव्यक्ति फल को प्राप्त हो और
सबल यदि निष्फल हो, तो यह सब वृथा हो सकता
है ॥ ४२ ॥
अहं धाता तथा पाता रक्षितोद्योगवान्
शिवे ।
तथापि न हि सिद्धिः
स्याच्चित्रमेतन्नगात्मजे ॥ ४३ ॥
हे शिवे ! मैं धाता और पाता (रक्षक)
तथा उद्योगी हूं, इस पर भी यदि
सिद्धि न हो तो यह आश्चर्य की बात कहनी चाहिये ॥ ४३ ॥
एवन्तु मारणं देवि विशेषात्कथयामि
ते ।
सान्तं वह्निसमायुक्तं
वामनेत्रविभूषितम् ॥ ४४ ॥
हे देवि ! मैं तुमसे अन्तयुक्त और वह्निसंयुक्त
वामनेत्र विभूषित मारण का विषय विशेष करके कहता हूं, सुनो ॥ ४४ ॥
ह्रीं हुं हुं अमुकं मारय स्वाहा ।
कूर्चयुग्मं ततो देवि अमुकं मारय
मारय ॥ ४५ ॥
अमुक मारय मारय स्वाहा । हे देवि!
तदनन्तर कूचयुक्त अमुकं मारय मारय ॥ ४५ ॥
चतुर्दशाक्षरी मंत्रः स्वाहान्तः
शत्रुनाशकः ।
खदिराङ्गारमादाय कुजाष्टम्यां
विशेषतः ॥ ४६ ॥
चतुर्दशाक्षर स्वाहान्त मन्त्र को
शत्रुनाशक जानना चाहिये। खैर के अंगारे लाकर विशेषकर मंगलवार की अष्टमी में ॥ ४६ ॥
लेखयेत्पुत्तलीं शत्रुस्वरूपां
लोहपात्रके ।
निशायां मस्तके नेत्रे ललाटे हृदये
करे ॥ ४७ ॥
लोहपात्र पर शत्रुस्वरूप पुतली
लिखकर रात्रि के समय मस्तक नेत्र,ललाट, हृदय हाथ ॥ ४७ ॥
नाभौ गुह्ये कटौ पृष्ठे क्रमोक्तेन
पदद्वये ।
मन्त्रवर्णान्समालिख्य प्रतिष्ठां
तत्र कारयेत् ॥४८॥
नाभि, गुह्य, कमर, पीठ और दोनों
पैरों में क्रमशः मन्त्रवर्ण लिखकर उसकी प्रतिष्ठा करे ॥ ४८ ॥
संहारमुद्रां बद्ध्वा तु
ध्यायेदेवीं जयप्रदाम् ।
दीर्घाकारां कृष्णवर्णी
सदोर्ध्वस्तन मस्तकाम् ॥ ४९ ॥
नृमुण्डयुगलं हस्ते चर्वयन्ती
दिगम्बराम् ।
शत्रुनाशकरी देवी
ध्यायेच्छत्रुक्षयायच ॥ ५० ॥
तदनन्तर संहारमुद्रा बन्धनकर
जयप्रदा देवी का ध्यान करे, दीर्घाकार, कृष्णवर्ण, ऊंचे ऊंचे स्तनोंवाली और जिनका मस्तक
विस्तृत है। दिगम्बरा, हाथ में दो नृमुण्ड चर्वण करती हैं
शत्रु के क्षय के निमित्त शत्रुनाशकरी देवी का इस प्रकार ध्यान करे ॥ ४९- ५० ॥
एवं ध्यात्वेष्टकाचूर्णैर्वामहस्तेन
शाङ्करि ।
ॐ शत्रुनाशक त्र्यै नमः इति दत्त्वा
महेश्वरि ॥ ५१ ॥
हरिद्राचूर्णसहिता धारां दद्यादनेन
तु ।
अमुकस्य शोणितं पित्र पिवेति च
तत्परम् ।
मांसं खादय खादय ह्रीं नमश्चेति
मन्त्रतः ॥५२॥ ।
मध्याह्ने मध्यरात्रौ तु पूजयित्वा शताष्टकम्
।
जपेदेकादशाहे त रोगः स्नान्नात्र
संशयः ॥ ५३ ॥
दण्डाधिकेकविंशा मृत्युरेव
रिपोर्ध्रुवम ।
अथवान्यप्रकारेण शत्रुक्षयमहं वदे ॥
५४ ॥
हे शंकरि ! इस प्रकार ध्यान करके
गेरू के चूर्ण द्वारा वाम हाथ से “शत्रुनाशकर्त्र्यै
नमः” इस मन्त्र से हरिद्रा चूर्ण के सहित धारा प्रदान करे ।
इसके पीछे "अमुकस्य शोणितं पिब पिव मांसं खादय ह्रीं नमः " इस मन्त्र से
मध्याह्न वा मध्यरात्रि में एक सौ आठ वार पूजा करके जप करे, इस
प्रकार करने से ग्यारहवें दिन में निःसन्देह शत्रु को रोग होगा इक्कीसवें दिन के
एक दण्ड में रिपु (वैरी) की मृत्यु होगी, इसमें सन्देह नहीं
अथवा मैं अन्य प्रकार से शत्रु मारण कहता हूं, सुनो ॥ ५१- ५४
॥
पुंगोशकृत्समादाय मेलयेदुष्णवारिणा ।
विपरीतक्रमणैव जपपूजादिकञ्चरेत् ॥
५५ ॥
वृष का गोबर लाकर उष्ण जल द्वारा
उसकी पूजा करे । इसमें विपरीत क्रम से जप पूजादि का अनुष्ठान करना चाहिये ॥ ५५ ॥
महादेवाय नम इति पुंगोशकृतमाहरेत् ।
शिवाय नम इति मन्त्रेण
पिण्डीकरणमाचरेत् ॥५६॥
पशुपतये नम इति
प्राणान्संस्थापयेत्ततः ।
लोहपात्रे महेशानि
खादिराङ्गारयोगतः ।
शत्रुप्रतिकृतिं कृत्वा तत्र
संस्थापयेच्छिवम् ॥५७॥
"महादेवाय नमः" इस मन्त्र
से वृष का गोबर लाकर " शिवाय नमः " इस मंत्र से गठन संपादन पूर्वक
"पशुपतये नमः" इस मन्त्र से प्राण स्थापन करे । हे महेश्वरि ! लोहे के
पात्र में खैर के अंगारों से शत्रु की आकृति लिखकर वहां स्थापन करे ॥ ५६- ५७ ॥
ततोध्यायेन्महारुद्रं ध्यानं शृणु
समाहिता ।
शत्रोर्वक्षः स्थितं रुद्रं
ज्वलदग्निसमप्रभम् ॥ ५८ ॥
इसके उपरान्त महारुद्र का ध्यान
करना चाहिये। यह ध्यान सावधान चित्त से सुनो शत्रु के वक्षस्थल स्थित प्रज्वलित
अग्निप्रभ ॥ ५८ ॥
वामहस्ते केशधरं दक्षिणात्प्राणकर्षणम्
।
नरचर्माम्बरं देवं
महाव्यालादिवेष्टितम् ॥ ५९ ॥
पिनाकधृगिहागच्छ इत्याद्यावाह्य
यत्नतः ।
शूलपाणे नम इति स्नापयेत्साधकोत्तमः
॥ ६०॥
वामहस्त में शत्रु के केशधारी और
दक्षिण हाथ से शत्रु के प्राण को खैंचनेवाले, नरचर्माम्बर
महासर्पादिवेष्टित ( रुद्रदेव का ध्यान करे ) "पिनाकधृगागच्छ" इत्यादि
मन्त्र से यत्नपूर्वक आवाहन करके 'शूलपाणये नमः' साधकोत्तम इस मंत्र से स्नान करावे ॥ ५९- ६० ॥
महेश्वरं नम इति पाद्याद्यै'
संप्रपूजयेत् ।
ईशानादिन्तथा मूर्त्ति व्युत्क्रमेण
प्रपूजयेत् ॥ ६१ ॥
अग्निकोणादिपर्यन्तं सूर्यरीत्या
महेश्वरि ।
ॐ शिवाय नमो मूलमष्टाविंशतिधाजपेत्
॥ ६२ ॥
'महेश्वराय नमः' इस मन्त्र से पाद्यादि द्वारा पूजा करे, फिर
अग्निकोणादि पर्यन्त सूर्य रीति द्वारा ईशानादिमूर्ति व्युत्क्रम द्वारा पूजा करनी
चाहिये। “ॐ शिवाय नमः” ओम् मूल मंत्र
अट्ठाईसवार जप करे ॥ ६१- ६२ ॥
हुँ क्षमस्वेति वामेन करेण तु
विसर्जयेत् ।
केशवाजित विष्णो हे हरे सत्य
जनार्दन ॥
हंस नारायणाय स्वाहा मन्त्रमेवं
सकृजपेत् ॥ ६३ ॥
'हुं क्षमस्व ' इस मन्त्र के द्वारा बायें हाथ से विसर्जन करे, अजित,
केशव, विष्णो, हरे,
सत्य, जनार्दन, "हंस
नारायणाय स्वाहा " यह मंत्र एकवार जपना चाहिये ॥ ६३ ॥
हुं नमो भगवते वासुदेवाय स्वाहा इति
यः ।
ॐ शिवाय नमोमन्त्रमपिनित्यं
सकृजपेत् ॥ ६४ ॥
'हुं नमो भगवते वासुदेवाय स्वाहा'
यह मंत्र और 'ओम् नमः शिवाय' इस मंत्र का एक बार जप करे ॥ ६४ ॥
एवमेकादशाहेन शत्रून्मादनमञ्जसा ।
अवश्यं जायते देवि सत्यं सत्यं
त्रिलोचने ॥ ६५ ॥
हे देवि ! इस प्रकार करने से
ग्यारहवें दिन शत्रु एकवार ही उन्मादित हो जायगा । हे त्रिलोचने ! यह अवश्य ही
होगा इसमें सन्देह नहीं ॥६५॥
कथयामि महादेवि वैरिस्तम्भनमुत्तमम्
।
कुम्भकारस्य सदनादानयेत्पिठरं शुभम्
।
एकं द्विकं त्रिकं चैव यत्कृतं
साधकोत्तमः ॥ ६६ ॥
आनीय व उखामध्याद्भस्म
पर्युषितन्तथा ।
निःक्षिप्य पिठरे शुष्कं
नालिकापत्रविस्तरम् ॥
भस्मोपरि च संस्थाप्य पिठरंतं
सुरेश्वरि ॥
ऐशान्यां विवरं कृत्वा शनैर्वारे
महेश्वारी ॥ ६७ ॥
अब शत्रु के स्तंभन करने की उत्तम
विधि कहता हूं सुनो । कुम्हार के घर से यह उत्तम पिटर एक दो अथवा तीन लावै ।
कुम्हार के आँवे में से भस्म लाकर उनको भर देवें और उसके ऊपर दूसरे सिकोरे ढक देवे।
साधना करनेवालों में श्रेष्ठ पुरुष शनैश्चर के दिन वाटिका के ईशान कोन में एक गढा
खोदे ॥ ६६- ६७ ॥
पुनर्मध्याह्नकाले च निर्जने सति
भामिनि ।
चतुर्दिक्षु वाटिकाया गर्त्तस्य
निकटात्प्रिये ॥ ६८ ॥
हे भामिनि ! फिर मध्याह्नकाल में
निर्जन होने पर वाटिका के चारों ओर गर्त के निकट हो॥ ६८ ।।
तत्तावतीमहं भूमिं चौरभ्यो रक्षयामि
च ।
प्रफूलमनसा देवि चरेद्भूमेः परिग्रहम्
॥ ६९॥
तिस भूमि को मैं चोरों से रक्षा
करता हूं हे देवि ! इस प्रकार प्रफुल्ल मन से भूमि परिग्रह ॥ ६९ ॥
तावतीश्च ततो भूमिं वामावर्त्तेन
भामिनि ।
परिक्रम्य पुनस्तत्र गर्तस्य निकटं
व्रजेत् ॥ ७० ॥
हे भामिनि ! उस भूमि के बाँई ओर
परिक्रमा करके फिर गढे के निकट जाय ॥ ७० ॥
तत्रैव निर्जने गर्ने शलाकां
लोहानीर्मिताम् ।
रोपयित्वा तदुपरि पिठरं सशरावकम् ।
संस्याप्य मृद्भिः संपूर्य तद्गर्त
गृहमाव्रजेत् ॥ ७१ ॥
गुप्त रीति से उस गढे में लोहे की
बनी शलाका गाडकर उसके ऊपर शरावे सहित पिठर अर्थात् बन्द किया हुआ पात्र स्थानपूर्वक
मिट्टी से उस गढे को पूर्ण करके घर को चला जाय ॥ ७१ ॥
गतिस्तम्भो भवेद्देवि चौरादीनां तथा
खलु ।
अयं योगवरो देवि दुर्लभो वसुधातले ॥
७२ ॥
"हे देवि ! इस प्रकार करने से
चोरादि की गति रुक जायगी । हे देवि ! यह उत्तम योग पृथ्वीतलमें दुर्लभ है॥७२॥
पिशाचभूतवेतालकूष्मांण्डब्रह्मरक्षसा
।
दानवानां तथान्येषां गतिस्तत्र न
जायते ॥ ७३ ॥
यह योग करने से पिशाच,
भूत, वेताल, कूष्मांड, ब्रह्मराक्षस,
दानव और अन्यान्य भूतगणों को वहां गति नहीं होती ॥ ७३ ॥
धनपुत्रसमृद्धिस्तु
वर्द्धतेहर्निशन्तथा ।
दिने दिने धर्मवृद्धिर्जायते नात्र
संशयः ॥ ७४ ॥
दिन रात धन पुत्र और समृद्धि की
वृद्धि तथा दिन दिन धर्म में बुद्धि बढती रहती है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ७४ ॥
इति श्रीयोगिनीतन्त्रे
सर्वतन्त्रोत्तमे देवीश्वरसम्वादे चतुर्विंशतिसाहस्ये भाषाटीकायां चतुर्थः पटलः ॥
४ ॥
आगे जारी........ योगिनीतन्त्र पटल 5

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