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योगिनीतन्त्र पटल ३

योगिनीतन्त्र पटल ३

योगिनीतन्त्र पटल ३ में युद्ध अथवा ज्वरादि रोगनिवृत्तिविषयक देवि का प्रश्न ईश्वर द्वारा मारण कवच का वर्णन, जगद्वश्यकर प्रयोग का प्रश्न और उत्तर, त्रैलोक्यमोहन कवच का वर्णन अनेक प्रकार के लाभार्थ देवी का प्रश्न और भगवान्का अमोघ उत्तर वर्णित है ।

योगिनीतन्त्र पटल ३

योगिनीतन्त्र पटल ३ 

Yogini tantra patal 3

योगिनीतन्त्रम् तृतीय: पटलः

योगिनी तन्त्र तृतीय पटल

योगिनी तंत्र तीसरा पटल 

योगिनीतन्त्रम्

श्लोक १ से ७ तक युद्ध ग्रहज्वरादि निवारण मारण कवच वर्णित है । इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-

ज्वरादि निवारण कवच

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योगिनीतन्त्र पटल ३

श्रीदेव्युवाच ।

श्रुतं हि कवचं दिव्यं त्वन्मुखाम्भोजनिर्गतम् ।

इदानीं श्रोतुमिच्छामि जगद्वश्यकरं परम् ॥ ८ ॥

श्रीपार्वतीजी बोलीं- हे देव ! आपके मुखकमल से निकला हुआ दिव्य कवच मैंने सुना, अब अति उत्तम जगद्वश्यकर मन्त्र कर्मादि के सुनने की इच्छा करती हूं ॥ ८ ॥

ईश्वर उवाच ।

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि जगन्मोहकरं महत् ।

नारदेन पुरा पृष्टं मयि कैलासमूर्द्धनि ।

कथितं कवचं तस्मै सर्वमोहकरं मया ॥ ९॥

ईश्वर बोले- हे देवि ! महत् जगत्मोहकर कवच कहता हूं, सुनो पहिले कैलासशिखर में नारदजी ने मुझसे यह विषय पूछा था, उनसे मैंने सर्वमोहकर कवच कहा था ॥ ९ ॥

तेनैव कवचेनैव नारदो ब्रह्मसम्भवः ।

मोहयामास लोकांखीन्भित्वा हि कलहप्रियः ॥ १० ॥

उन कलहप्रिय ब्रह्मपुत्र देवर्षि नारदजी ने उस कवच से ही त्रैलोक्य-मण्डल भेद करके मोहित किया था ॥ १० ॥

तदसम्भवमालोक्य विष्णुराह विधेः सुतम् ।

कथं वा मोहितं सर्वे वद में कारणं मुने ॥११॥

उनका यह असम्भव कार्य देखकर विष्णुजी ने उन ब्रह्मनन्दन से कहा हे मुने ! तुमने किस प्रकार से इस सम्पूर्ण जगत्‌ को मोहित किया इसका कारण कहो ॥ ११ ॥

तत्सर्वमभवद्विष्णौ विष्णुराह समुद्रजाम् ।

कैलासशिखरासीनं महादेवं जगद्गुरुम् ।

पप्रच्छ नारदौ धीमान्सर्वलोकहिते रतः ॥ १२ ॥

विष्णुजी ने उन मुनि के निकट से वह सब प्राप्तकर क्षीरोदनंदिनी [ लक्ष्मी ] से कहा था और सब लोकों के हित में निरत बुद्धिमान् नारदजी ने कैलासशिखर पर बैठे हुए जगद्गुरु महादेवजी से पूछा ॥ १२ ॥

नारद उवाच ।

कालिका या महाविद्या वर्ण्यतां महती प्रभो ।

किमेतस्याः फलं देव किमेतन्मोहनं भवेत् ।

केनोपायेन समरे त्राणं मे वद शंकर ॥ १३ ॥

नारदजी बोले - हे प्रभो शंकर ! महती कालिका महाविद्या वर्णन कीजिये । हे देव ! इसका फल क्या है ? यह मोहन कैसा है ? किस उपाय से समर में रक्षा होती है ! यह सब कहिये ॥ १३ ॥

ईश्वर उवाच ।

त्रिकाले गोपितं देवि कलिकाले प्रकाशितम् ।

काली दिगम्बरी देवी जगन्मोहनकारिणी ।

तच्छृणुष्व मुनिश्रेष्ठ त्रैलोक्ये मोहनं त्विदम् ॥ १४ ॥

ईश्वर बोले-हे देवी! यह सत्य, त्रेता और द्वापर इन तीनों युग में गुप्त था कलिकाल में प्रकाशित हुआ है। दिगम्बरी काली देवी जगमोहनकारिणी है। हे मुनिश्रेष्ठ ! यह वही त्रैलोक्यमोहन सुनो ॥ १४ ॥

योगिनीतन्त्र पटल ३

श्लोक १५ से २४ तक त्रैलोक्यमोहन कालिका कवच वर्णित है । इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-

त्रैलोक्यमोहन कवच

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योगिनीतन्त्र पटल ३

विष्णुरुवाच ।

इत्येवं कवचं नित्यं महालक्ष्मि प्रगृह्यताम् ।

अवश्यं वशमायाति त्रैलोक्यं ते चराचरम् ॥ २५ ॥

विष्णुजी ने कहा- हे महालक्ष्मी ! इस नित्य कवच को तुम ग्रहण करो चराचर त्रैलोक्य अवश्य तुम्हारे वशीभूत होगा ॥ २५ ॥

शिवेन कथितं पूर्वं नारदाय फलेप्सवे ।

तत्पाठान्नारदेनापि मोहितश्च चराचरम् ॥ २६ ॥

पहिले महादेवजी ने इसको फलकामी नारद से कहा था, नारद ने इस कवच का पाठ करके चराचर को मोहित किया था ।। २६ ।।

श्रीदेव्युवाच ।

पुरा मुने जगद्वन्द्य प्रमथेश वरप्रद ।

नराणामुपकारार्थं ब्रूहि योगं सुविस्तरम् ॥ २७ ॥

येनाशु लभते राज्यं येनाशु लभते सुतम् ।

येनाशु लभते ज्ञानं येनाशु लभते धनम् ।

येनाशु लभते कीर्तनाशु लभते ऽखिलम् ॥२८॥

श्रीपार्वतीजी बोली- हे पुरातनमुने ! हे जगद्वन्द्य ! हे वरप्रद ! हे प्रमथेश ! मनुष्यों के उपकारार्थ जिसके द्वारा तत्काल राज्यलाभ, पुत्रलाभ, ज्ञानलाभ, धनलाभ, कीर्तिलाभ और जिसके द्वारा समस्त ही लाभ हो वही योग विस्तारसहित वर्णन कीजिये ॥ २७- २८ ॥

ईश्वर उवाच ।

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि यन्मांत्वं परिपृच्छसि ।

उक्त फेत्कारिणीतन्त्रे नीलतन्त्रे च विस्तरात् ॥ २९ ॥

महादेवजी बोले- हे देवी! तुमने मुझसे जो पूछा, वह कहता हूं, सुनो। फेत्कारिणतंत्र और नीलतंत्र में यह विषय विस्तारसहित कहा है ॥ २९ ॥

इदानीं विस्तराद्देवि कथयामि शुचिस्मिते ।

उदेति पश्चिमे भानु चन्द्रः पतति भूतले ।

यदि शुष्यति पाथोधर्न मिथ्या च कदा च न ॥ ३०॥

हे शुचिस्मिते ! अब मैं तुम्हारे प्रति वह विस्तारसहित वर्णन करता हूँ सुनो । यद्यपि पश्चिम दिशा में सूर्य उदय हो, चन्द्रमा यद्यपि पृथ्वी में गिर पडे, समुद्र यद्यपि सूख जाय किन्तु तो भी यह सब वचन कभी मिथ्या नहीं होंगे ॥ ३० ॥

योगराजो महेशानि त्वन्वर्थोऽयं सदैव हि ॥ ३१ ॥

विष्णुचक्रं यथा व्यर्थं त्रिशूलञ्च यथा मम ।

कुलिशं देवराजस्य तथा योगो मयोदितः ॥ ३२ ॥

हे देवि ! यह योगराज सदा ही अव्यर्थ है, विष्णु का चक्र मेरा त्रिशूल और देवराज इन्द्र का वज्र जिस प्रकार अव्यर्थ है, ऐसे ही इस मेरे कहे योग को भी अव्यर्थ जानना चाहिये ॥ ३१- ३२ ॥

यथैव निश्चितं देवि ब्रह्मणः कमलासनम् ।

तथैव निश्चितो देवि योगोऽयं नात्र संशयः ॥ ३३ ॥

हे देवि ! ब्रह्माजी का कमलासन जिस प्रकार निश्चित है. इसी प्रकार इस योगको निश्चित जानना इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३३ ॥

कल्पवृक्षो यथा देवि ह्याकांक्षापरिपूरकः ।

अयं योगवरो देवि तथैव परिकीर्तितः ॥ ३४ ॥

हे देवि ! कल्पवृक्ष जिस प्रकार आकांक्षा को पूर्ण करनेवाला है, इस उत्तम योगको भी उसी प्रकार वासनापूरक जाने ॥ ३४ ॥

राज्यार्थञ्च कुलार्थञ्च सुतार्थ स्वर्णपत्रके ।

आयामप्रस्तृते देवि षोडशाङ्गुल सम्मिते ॥३५॥

हे देवी ! राज्यार्थ, कुलार्थ और सुतनिमित्त लम्बाई चौडाई में सोलह अंगुल परिमाणवाले स्वर्णपत्र के ऊपर ॥ ३५ ॥

यज्ञार्थञ्च धनार्थञ्च कीर्त्यर्थे राजते शुभे ॥ ३६ ॥

यज्ञार्थ धनार्थ और कीर्तिके निमित्त चांदी पत्रपर ॥ ३६ ॥

तथा मानमितो देवि तद्वत्ताम्रे विनाशने ।

स्वर्णे वा परमेशानि अन्यार्थ भूर्जपत्रके ॥ ३७ ॥

सन्मान वा साम्यता के निमित्त ताम्रपत्र और अन्यकार्य की सिद्धि के लिये स्वर्णपत्र वा भोजपत्र पर ॥ ३७ ॥

लिखेन्मन्त्रं वरारोहे तारिण्याः सर्वसिद्धिदम् ।

राज्यार्थी च धनार्थी च पुत्रार्थी कीर्तिकामिकः ॥ ३८ ॥

सर्वसिद्धिप्रद तारिणी का मंत्र लिखे । हे वरारोहे ! राज्यार्थी, धनार्थी और पुत्रार्थी कीर्ति की कामना करनेवाला ॥३८ ॥

वित्तार्थी विलिखेदेवि लेखन्या सुमनोहरम् ॥ ३९ ॥

स्वर्णयुष्ट्याष्टाङ्गुल्या कनिष्ठायाः प्रमाणतः ।

ज्ञानार्थं कुशमूलेन त्वन्यार्थी दूर्वया लिखेत् ॥ ४० ॥

और ऐश्वर्य की इच्छा करनेवाला मनुष्य कनिष्टा प्रमाण अष्टांगुल स्वर्णलेखनी द्वारा यह मंत्र मनोहर रीति से लिखे । ज्ञान की इच्छा करनेवाला कुशमूल और अन्य कामना चाहनेवाला दुर्वा द्वारा लिखे ॥ ३९- ४० ॥

आचम्य पुरतो देवि नत्वा च गुरुपादुकाम् ।

उत्तराशामुखो भूत्वा पूजयित्वा च तारिणीम् ॥४१॥

हे देवि ! प्रथम आचमन करके गुरु की पादुका को नमस्कारपूर्वक उत्तर की ओर को मुख करके तारिणीदेवी की पूजा करै ॥ ४१ ॥

कुङ्कुमं रोचना जटामांसी चन्दनमेव च ।

लाक्षा कस्तूरिकाश्मीरं सिन्दूरं च वरानने ॥ ४२ ॥

फिर हे वरानने ! कुंकुम (रोली) गोरोचना, वालछड, चन्दन, काश्मीर (केशर) कस्तूरी, लाख और सिन्दूर ॥४२॥

सर्वमेकीकृतेनादौ पट्कोणं चक्रमालिखेत् ।

तन्मध्ये विलिखेत्तारां सार्द्धवेदाक्षरीं पराम् ॥ ४३ ॥

सार्द्धपञ्चाक्षरी वापि तन्मयो वेदिमध्यगम् ।

साध्यं तत्र लिखेत्साध्यं शृणुत्वं शम्भुवल्लभे ॥ ४४ ॥

यह सब वस्तु एकत्र करके प्रथम षट्कोण चक्र लिखे, तिसमें अत्यन्त उत्कृष्ट सार्द्धवेदाक्षरी ( साढे चार अक्षरवाली) अथवा सार्द्धपश्वाक्षरी (साढे पांच अक्षरवाला) तारादेवी का मंत्र लिखे, तदनन्तर हे शंभुवल ! इस चक्र के मध्यवेदी में साध्य विषय अर्थात् वांछित विषय लिखे साध्य विषय सुनो ॥ ४३- ४४ ॥

अमुकस्यामुकं वाक्यं वशीकुरु च कुर्विति ॥ ४५ ॥

अमुकस्यामुकं वाक्यं वशीकुरु कुरु । अमुकस्यामुकं ज्ञानं सिद्धिं कुरुकुरु ॥ ४५ ॥

अमुकीनां शुभं पुत्रमुत्पाद्योत्पादयेति च ।

अमुकस्यामुकं द्रव्यं देहि देहीति कामिनि ॥ ४६ ॥

एवमेव क्रमेणैव साध्यं संल्लिख्य यत्नतः ।

बीनान्दीर्घवर्णा काणे षट्समालिखेत् ॥ ४७ ॥

इस प्रकार क्रमशः यत्नपूर्वक साध्य लिखे। इस षट्कोण में क्लीं हीन छै दीर्घ वर्ण लिखे ॥ ४६-४७ ॥

वृत्तमष्टदलं पद्मं सुदृष्टं सुमनोहरम् ।

अष्टपत्रं लिखेत्तत्र किअल्कयुगलं युगं ॥ ४८ ॥

अष्टपत्रे चाष्टवर्णान्वक्ष्यमाणाँलिखेत्ततः।

वाग्भवं भुवनेशानीं कामं हुं प्रणवं तथा ॥ ४९ ॥

मायामन्त्रं ततः स्वाहापूर्वादि क्रमतो लिखेत् ।

चतुरस्त्रं चतुर्द्वारमेवं यन्त्रं समालिखेत् ॥५०॥

इसके पीछे अष्टदल गोलाकार युगल में युगल किञ्जल्कयुक्त मनोहर पद्म और अष्टपत्र में अष्टवर्ण लिखे । पूर्वादिक्रम से वाग्भव, भुवनेशानी काम, हुं प्रणव (ओम ) एवं मायामंत्र और स्वाहा लिखना चाहिये चतुष्कोण चतुर्द्वारयुक्त इस प्रकार यंत्र लिखे ॥ ४८- ५० ॥

ज्ञानातौ सिद्धिकार्येषु अन्यत्र त्वभृतोदये ।

गुरौ शुक्रे तथा सोमे मङ्गले वा बुधेऽह्नि च ।

ताराया सानुकूलायां जपेन्मत्रं समाहितः ॥ ५१ ॥

ज्ञानप्राप्ति और अन्य सिद्धि के विषय में एवं अन्य शुभकार्य में, गुरु, शुक्र, सोम, मङ्गल वा बुधवार में अनुकूल तारा में सावधानचित्त से मन्त्र को जपे ॥ ५१ ॥

पीतवस्त्रेण संवेष्टय जंतुना परिवेष्टयेत् ।

वस्त्रेण रक्तेन बध्नीयात्साधकोत्तमः ॥ ५२ ॥

हे पार्वती ! पीतवस्त्र और लाक्षा से यह मंत्राधार पात्र वेष्टन करे । साधकोत्तम उसको लालवर्ण के रेशमी वस्त्र से बांध देवे ॥ ५२ ॥

स्वर्णपीठेषु संस्थाप्य संख्यानन्त्वाचरेत्कृती ।

भूमिस्पृष्टं न चेत्कुर्यान्न निर्माल्येन संस्कृतम् ।

विदीर्ण लङ्गितं वापिनैव कुर्यात्कदाचन ॥ ५३ ॥

आय प्रस्तुते देवि षोडशाङ्गुलमानतः।

पटं कुर्य्यात्प्रयत्नेन सर्वदृष्टिमनोहरम् ॥ ५४ ॥

अनन्तर कृती मनुष्य स्वर्णपीठ में उसको स्थापन करके संख्यान अर्थात् योग वा जप संख्या आरंभ करै, उसको कभी पृथ्वी का स्पर्श बा शिवनिर्माल्य का स्पर्श न करावे तथा विदीर्ण न करे, उसको उलंघ्नकर जाना भी उचित नहीं है । हे देवि ! लम्बाई और विस्तार में सोलह अंगुलपरिमाण सर्वजनमनोहर घट यत्नपूर्वक स्थापन करे ॥ ५३- ५४ ॥

राज्यार्थी काञ्चनेनैव पुत्रार्थी रजतेन च ।

ताम्रेण चैव युद्धार्थी मृदान्यत्र घटञ्चरेत् ॥ ५५ ॥

राज्य की कामना करनेवाला सुवर्ण द्वारा, पुत्र की इच्छा करनेवाला रजत (चांदी) द्वारा, युद्ध की अभिलाषा करनेवाला ताम्र द्वारा और अन्य कामना करनेवाला मृत्तिका (मिट्टी ) द्वारा घट प्रस्तुत करावे ॥ ५५ ॥

तत्र मुक्त प्रवालानि मणि रजतकाञ्चने ।

धान्यं छत्वा मुखं तस्य पल्लवैः प्रतिपादयेत् ॥ ५६ ॥

इस घट में मणि, मोती, मूँगा, चांदी और सुवर्ण तथा धान्य डाल मुख में पञ्चपल्लव प्रदान करे ॥ ५६ ॥

क्षौमयुग्मेन रक्तेन प्रच्छाद्य प्रयतः सुधीः ।

अष्टाङ्कुल स्वर्णपत्रे चतुरस्त्रं समन्ततः ॥ ५७ ॥

तदुपरान्त रक्तवर्ण के दो रेशमी वस्त्रों से यह घट यत्नपूर्वक ढक दे । फिर अष्टांगुल स्वर्ण को चारों ओर से चौकोना कर ॥ ५७ ॥

तत्र मन्त्रं लिखित्वैवं घटे संस्थाप्य यत्नतः ।

चतुःषष्ट्य पचारेण यजेत्तारां परां शिवाम् ॥ ५८ ॥

उस पर मंत्र लिखकर इस घट में यत्नसहित स्थापन पूर्वक चौंसठ उपचारों से शिवारूपिणी तारादेवी की आराधना करे ॥ ५८ ॥

होमस्थाने कृते चतुर्विंशत्य डुलकल्पिते ।

अब्जकं पुष्पकं देवि षोडशच्छदमंडितम् ॥ ५९ ॥

किल्कैर्मण्डितं देवि बलिमादाय पूर्ववत् ।

निवेदयेन्महाभक्त्या बलिमन्त्रेण मन्त्रवित् ॥ ६० ॥

पञ्चामृतैः पञ्चगव्यैः स्त्रापयित्वा च पूजयेत् ।

अष्टोत्तरसहस्रन्त हुत्वा साधकसत्तमः ।

तत्पुटोपरि देवेशि क्षिपेत्पुष्पाक्षतं तथा ॥ ६१ ॥

अनन्तर चौवीस अंगुल परिणाम होमस्थान निश्चित करके षोडशपत्रशोभित किञ्जल्कमण्डित अब्जक पुष्प और बलि द्वारा पूर्ववत् महाभक्ति युक्त होकर मंत्रज्ञ व्यक्ति बलिमंत्र द्वारा पूर्ववत् निवेदन करे पञ्चगन्य और पंचामृत से स्नान कराकर पूजा करनी चाहिये। साधकश्रेष्ठ अष्टोत्तरसहस्रवार होमाहुति देकर हे देवेशि ! उस पुट के ऊपर पुष्पाक्षत निक्षेप करै ॥ ५९- ६१ ॥

भूमिं ग्राममितां दद्याद्राज्यमिच्छति कामुकः ।

दक्षिणां युद्धकामी च काञ्चनाश्वो महेश्वरि ॥ ६२ ॥

हे महेश्वर ! फिर राज्याभिलाषी ग्रामपरिमिता भूमि युद्धार्थी दक्षिणा और कंचन के बने दो अश्व ॥ ६२ ॥

शालग्राम शिलामेकां स्वर्णरेखाद्यलंकृताम् ।

ज्ञानसिद्धयै प्रदद्यात्तु धनार्थी गाञ्च काञ्चनम् ॥ ६३॥

ज्ञानार्थी स्वर्णरेखादि द्वारा अलंकृत एक शालग्रामशिला और धन की इच्छा करनेवाला गौ एवं सुवर्ण की दक्षिणा देवे ॥ ६३ ॥

भोजयेद्वाह्मणान्धीरः कुमारीः कल्पपल्लवे ।

ततस्तु साधयेद्यन्त्रं पुरुषो दक्षिणे भुजे ॥ ६४ ॥

हे कल्पवृक्ष के पत्तों की समान कोमलभुजावाली ! इसके पीछे धीर पुरुष ब्राह्मण भोजन और कुमारी भोजन करावे । फिर यह यंत्र पुरुष दक्षिण भुजा में धारण करै ॥ ६४ ॥

नारीवामभुजे चैव शिशुर्वै कण्ठभागके ॥ ६५ ॥

स्त्रियें वामभुजा में और बालक कण्ठ में धारण करै ॥ ६५ ॥

इत्येवं कथितं गरभ्यं न देयं प्राणसङ्कटे ॥ ६६ ॥

हे पार्वती ! यह मैंने तुमसे राज्यलाभादि मनोहर योग कहा । यह प्राणसंकट उपस्थित होने पर भी किसी अनधिकारी को नहीं देना चाहिये ॥ ६६ ॥

सर्वतोत्तमे श्रीयोगिनीतन्त्रे देवीश्वरसम्वादे भाषाटीकायां चतुर्विंशतिसाहस्रे तृतीयः पटलः ॥ ३ ॥

आगे जारी........ योगिनीतन्त्र पटल 4

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