पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

योगिनीतन्त्र पटल २

योगिनीतन्त्र पटल २

योगिनीतन्त्र पटल २ में महाविद्या और चामुंडा काली रहस्य विषयक देवी का प्रश्न भगवान् का तद्विषयक यथोचित उत्तर, जप के गोप्य विषयसंबंधी देवी का प्रश्न भगवान् द्वारा मालाओं का वर्णन फिर विशेषजिज्ञासा का प्रश्न और भगवान का उत्तर तथा मास आदि का वर्णन है ।

योगिनीतन्त्र पटल २

योगिनीतन्त्र पटल २

Yogini tantra patal 2

योगिनीतन्त्रम् द्वितीय: पटलः

योगिनी तन्त्र द्वितीय पटल

योगिनी तंत्र दूसरा पटल 

योगिनीतन्त्रम्

श्रीदेव्युवाच ।

परमानन्दसन्दोह चराचरजद्गुरो ।

श्रुतं ते गुरुमाहात्म्यं गुह्याद्रुह्यतरं हि यत् ॥ १ ॥

श्रीदेवी बोलीं- हे परमानन्दसन्दोह ! हे चराचर जगुरो महादेव ! आपसे मैंने गुह्य से भी गुह्यतम गुरु का माहात्म्य सुना ॥ १ ॥

अहञ्च श्रोतुमिच्छामि कालीं सकलतारिणीम् ।

कथिता सा महाविद्या सिद्धिविद्या च यामले ॥ २ ॥

हे देव ! अब मैं अखिलतारणी कालिकाविद्या का विषय सुनने की अभिलाषा करती हूं, उस महाविद्या और सिद्धविद्या का विषय यामलतन्त्र में कहा गया है ॥ २ ॥

महामहाब्रह्मविद्यां चामुण्डातन्त्रगोचराम् ।

आज्ञापय महाकालीरहस्यं कृपया शिव ॥ ३ ॥

तन्त्रशास्त्र में महामहा ब्रह्मविद्या और चामुण्डा का विषय वर्णित हुआ है, हे महादेव ! मेरे प्रति करुणा प्रकाश करके यह कालीरहस्य वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥

ईश्वर उवाच ।

महामहाब्रह्मविद्या परेयं कालिका मता ।

यामासाद्य च निर्वाणमुक्तिमेति नराधमः ॥ ४ ॥

ईश्वर बोले- यह महामहा ब्रह्मविद्या ही कालिकाविद्या है, नराधम मनुष्य भी इस विद्या को प्राप्त होकर निर्वाण मुक्तिलाभ करने में समर्थ होता है ॥ ४ ॥

रहस्यं कथ्यते देवि सर्वलोकास्तथैवच ।

अस्या उपासकाश्चैव ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ ५ ॥

कालिकायाः प्रसादेन सर्वे मुक्त्त्यादिभागिनः ।

रहस्यस्य सहस्रावृत्त्या जप्त्वा वापि कोटिशः ॥ ६॥

हे देवि ! ब्रह्मा, विष्णु और शिवादि सब इन महामहा विद्या के उपासक हैं । हे देवि ! अब रहस्य कहता हूं, समस्त लोक ही उपासक हो सकते हैं कालिका प्रसाद से सभी मुक्ति आदि के भागी हो सकते उस कालिकाविद्या का मंत्र सहस्रबार वा करोडवार जप करे ॥ ५ ॥ ६ ॥

भाग्यवाञ्जायते यस्मात्कालीसाधनतत्परः ।

काली च जगतां माता सर्वशास्त्रेषु निश्चिता ॥ ७ ॥

काली के साधन में तत्पर मनुष्य उस पुण्यफल से भाग्यवान् होता है काली जगत की माता है यह सब शास्त्रों में निश्चित हुआ है ॥ ७ ॥

कालीमन्त्र जपेद्यो हि कालीपुत्रो न संशयः ॥ ८ ॥

जो मनुष्य कालिका का मन्त्र जपता है, वह काली का पुत्र हैं इसमें सन्देह नहीं ॥ ८ ॥

त्यजसि त्वं परञ्चैतत्पुमांसं परमं तथा ।

स्वरूपं त्वं क्वचित्काले त्यजसि त्वं जगन्माये ।

कालीविद्यां समासाद्य न त्यक्तुं शक्नुयात्कचित् ॥ ९ ॥

हे जगन्मयि ! कालीमन्त्र परायण इस परमपुरुष को तुम भी कदाचित् त्याग कर सकती हो और कदाचित् स्वरूपत्व भी त्याग कर सकता है, किन्तु कालीविद्या इस पुरुष को प्राप्त होकर कभी त्याग नहीं कर सकती॥ ९ ॥

गच्छेच्छूद्रस्य शूद्रत्वं ब्राह्मणानां च विप्रता ।

मन्त्रग्रहणमात्रे तु सर्वे शिवसमाः किल ॥ १० ॥

यद्यपि शूद्र की शूद्रता और ब्राह्मण की विप्रता चली जाय, किन्तु कालिका का मन्त्र ग्रहण करते ही मनुष्य शिव के तुल्य हो जाता है ॥ १०॥

वाराणस्यां समासाद्य गङ्गां चैव तथैव ते ।

कालीमंहादेव सर्वे शिवसमाः किल ॥ ११ ॥

यह शूद्र और ब्राह्मण यदि वाराणसी नगरी वा गंगा के तटपर काली मंत्र ग्रहण करें तो वे सब तत्काल शिव के समान होते हैं ॥। ११ ॥

अपि चेत्त्वत्समा नारी मत्समः पुरुषोऽस्ति चेत् ।

तस्यैव जननी धन्या पिता तस्य सुरोत्तमः ॥ १२ ॥

हे देवि ! यदि तुम्हारी समान नारी और मेरे समान पुरुष हो तो मनुष्य के माता पिता धन्यवाद के योग्य हो सकते हैं (परन्तु यह सब काली के मंत्र में रत रहने से ही होना सम्भव है ) अतएव उसकी माता पृथ्वी में धन्य और उसका पिता सुरोत्तम होता है ॥ १२ ॥

तस्यैव पितरः स्वर्गं यान्ति यस्मात्सुदुर्लभम् ।

अशंसन्तीह पितरो नराणां पुण्यकर्मणाम् ॥ १३ ॥

जो मनुष्य भाग्य के वश होकर काली का आश्रय लेता है, उसके पितर दुर्लभ स्वर्ग को प्राप्त करते हैं ॥ १३ ॥

येन भाग्यवशादेवि काली सा त्वं समाश्रिता ।

यदास्माकं कुले पुत्रः कालमिन्त्रमुपाश्रयेत् ।

तदा मुक्ति पुरीं प्राप्य विरेमिम सदैव हि ॥ १४ ॥

पुण्यकारी मनुष्य के पितर कामना करते रहते हैं कि, हमारे कुल में पुत्र कब कालीमन्त्र का आश्रय करेगा जिससे हम मुक्ति को प्राप्त होकर नित्य आनन्द करेंगे ॥ १४ ॥

काली तारा तथा छिन्ना गुरुवै भूपतिस्तथा ।

एकरूपेण बोद्धव्या भेदेन नरकं व्रजेत् ॥ १५ ॥

काली तारा और छिन्नमस्तादि अन्यान्य महाविद्या गुरु और भूपति इन सबको ही एकरूप जाने; भेदज्ञान करने से नरक में जाना पडता है ॥ १५ ॥

ताराशिष्यस्त्यजेत् काली कालीशिष्यस्तु तारिणीम् ।

छिन्नामहिषमर्दिन्योः कदाचित्पूजनं स्मृतम् ॥ १६॥

किन्तु तारा का शिष्य काली की पूजा न करके तारा की ही और काली का शिष्य तारा की पूजा न करके काली की ही पूजा करै, कभी ( विशेष आवश्यकता होने पर ) छिन्ना और महिषमर्दनी की पूजा भी कर सकता है।।१६ ।

यदि वा पूजयेदेवि नान्यदेवान्प्रपूजयेत् ।

कालीत्वेन च संभाव्य त्वन्यां वा पूजयेच्छिवे ॥ १७ ॥

हे देवी! यदि पूजा ही करे तो अन्य की पूजा न करके तारा की कालीरूप में और काली की तारारूप में भावना करके अन्यत्र पूजा करनी चाहिये ॥ १७ ॥

या काली परमा विद्या सैव तारा न संशयः ।

एतयोर्भेदभावेन नानामन्त्रा भवन्ति हि ।

उक्तं तत्कालिकाकल्पे ताराकल्पे च ते मया ॥ १८ ॥

जो परमा विद्या काली हैं, वही परमाविद्या तारा हैं, इसमें सन्देह नहीं इन दोनों के भेदभाव से नाना प्रकार के मंत्र हुए हैं हे देवि ! मैंने तुमसे कालिकाकल्प और तारकल्प में वह सभी कहे हैं ॥ १८ ॥

श्रीदेव्युवाच ।

नानाविधानं देवेश कथयस्व प्रियम्वद ।

विशेषतो महादेव रहस्यं जपकर्मणः ॥ १९ ॥

श्रीपार्वतीजी ने कहा- हे देवेश ! हे प्रियम्बद ! आप मुझसे अनेक प्रकार के विधान कहिये । हे महादेव ! विशेष करके मैं जपकर्म का रहस्य सुनना चाहती हूं ॥ १९ ॥

ईश्वर उवाच ।

वर्णमाला शुभा प्रोक्ता सर्वमन्त्रप्रदीपनी ।

तस्याः प्रतिनिधिर्देवि महाशंखमयी शुभा ॥ २० ॥

ईश्वर (महादेव) बोले- हे देवि ! सब मंत्रों की उद्दीपनकारिणी वर्णमाला ही कल्याण के दायिनी कहकर शास्त्र में उक्त हुई है, हे महादेवि ! उस वर्णमाला को प्रतिनिधि महाशंखमयी माला मंगलदायिनी है ॥ २० ॥

महाशङ्खा करे यस्य तस्य सिद्धिरदूरतः ।

तदभावे वीरवन्द्ये स्फाटिकी सर्वसिद्धिदा ॥ २१ ॥

जिसके हाथ में महाशंख की माला है, उसकी सिद्धि निकट ही विद्यमान रहती है, हे बीरवन्द्ये ! उसके अभाव में स्फटिक की माला को ही सब सिद्धियों की देनेवाली जाने ॥ २१ ॥

मणिसंख्यां महादेवि मालायाः कथयामि ते ।

पञ्चविंशतिभिर्मोक्षं पुष्टिदा सप्तविंशतिः ॥ २२ ॥

हे महादेवि ! माला की मणिसंख्या कहता हूं, सुनो । पंचविंशादि (२५) संख्या में मोक्षलाभ, सप्तविंशति (२७) संख्या में पुष्टि -लाभ ॥ २२ ॥

त्रिंशद्भिर्धनासिद्धिः स्यात्पञ्चाशन्मन्त्रसिद्धये ।

अष्टोत्तरशतैः सर्व्वा सिद्धिरेव महेश्वरि ॥ २३ ॥

तीस संख्या में धनसिद्धि, पचास संख्या में मन्त्रसिद्धि और हे महेश्वरि ! अष्टोत्तरशत (१०८) संख्या में सभी कामना सिद्ध होती हैं ॥ २३ ॥

श्रीदेव्युवाच ।

एतत्साधारणं प्रोक्तं विशेषं कामिनां वद ॥ २४ ॥

देवी पार्वतीजी बोलीं- हे देव ! यह तो साधारण ही कहा, कामीजनों के पक्ष में विशेष करके कहो ॥ २४ ॥

श्रीशिव उवाच ।

दन्तमाला जपे कार्या गळे धार्या नृभिः शुभा ।

दश यदि कर्त्तव्या मन्त्रसंख्या तथा प्रिये ॥ २५ ॥

श्रीमहादेवजी बोले- हे प्रिये ! जप विषय में दन्तमाला ही कर्तव्य है, उसको गले में धारण करने से वह शुभताधिनी होती है, यदि दशन द्वारा मन्त्रसंख्या कर्त्तव्य हो ।। २५ ।।

सर्वसिद्धिप्रदा माला राजदन्तेन मेरुणा ।

अन्यत्रापि च देवेशि मेरुत्वेनैवमादिशेत् ॥ २६ ॥

तो राजदन्त को मेरु करने से उस माला के द्वारा सब कामना सिद्ध होती है । हे देवि ! अन्य मालाओं में भी मेरु के स्थल में यह राजदन्त श्रेष्ठ है ।। २६ ।

सङ्कल्पवाक्ये या संख्या संख्या तु जपहोमयोः ।

तां शृणुष्व महेशानि क्रमेण कथयामि ते ॥ २७ ॥

हे महेश्वर ! संकल्प वाक्य एवं जप और होम में जो संख्या है, वह क्रम से कहता हूँ सुनो ॥ २७ ॥

तं सहस्रमयुतं लक्षं कोटिस्तथव च ।

सर्वत्र परिसंख्यविशेषं महेश्वरि ॥ २८ ॥

हे महेशानि ! शत, सहस्र, अयुत, (दशसहस्र ) लक्ष, और कोटि सर्वत्र यही संख्या निरूपित है कहीं भी विशेष नहीं है ॥ २८ ॥

विशेषे तु महेशानि विशेष त्वाचरेत्कचित् ।

शतादिप्रतिसंख्यायामष्टौ तत्राधिकं जपेत् ॥ २९ ॥

हे देवि ! जपविषय में कहीं विशेष यही है कि, शतादि संख्या अष्ट संख्या अधिक अर्थात् सौ स्थान में एक सौ आठ जप करना चाहिये ॥ २९ ॥

आद्यन्त पर्वद्वितयं हित्वा चाष्टरूपर्वभिः ।

जपान्ते च तथा मालां शिवे वै धारयेत्ततः ॥ ३० ॥

आदि और अन्त यह दोनों पर्व त्यागकर अष्ट पर्व से जप करना चाहिये जप के अन्त में शिव की माला धारण करै॥३०॥

रक्तपुष्पावीजेन घटवाद्यपुरःसरम् ।

देव्यै समर्पयेन्द्रमा जपकर्मणः ॥ ३१ ॥

हे देवि ! बुद्धिमान पुरुष रक्तपुष्प का अर्घ्य बीज और घट द्वारा बाजा बजाकर जपकार्य का फल देवी को समर्पण करे ।। ३१ ।।

साङ्गोपाङ्गेन देवेशि रहस्यं जपकर्मणः ।

उक्तं सरस्वतीतन्त्रे तस्माज्जानीहि कामिनि ॥ ३२ ॥

हे देवी ! जपकर्म का साङ्गोपाङ्ग रहस्य सरस्वतीतंत्र में कहा है उससे जानना ॥ ३२ ॥

करमाला महेशानि शिवशक्तिक्रमेण च ।

शृणुष्व परमेशानि सर्वमन्त्रप्रसिद्धये ॥ ३३ ॥

हे महेशानि ! हे परमेश्वरि ! सर्व मंत्रसिद्धि के निमित्त शिवशक्ति के क्रम से करमाला का विषय सुनो ॥ ३३ ॥

अनामामध्यमारभ्य कनिष्ठादिक्रमेण च ।

तत्पार्श्वमूलपर्यन्तं प्रजपेद्दशपर्वभिः ॥ ३४ ॥

अनामिका मध्यपर्व से आरंभ करके कनिष्ठादि अंगुलियों के क्रम से तर्जनी के मूलपर्यंत दश पर्व द्वारा जप करे ॥ ३४ ॥

मध्यमा मूलतोवापि मेरुत्वेन समाचरेत् ।

अष्टोत्तरं जपेद्देवि आद्यन्तद्वितयं त्यजेत् ।

शिवमाला समाख्याता शक्तिमालां शृणुष्व मे ॥ ३५ ॥

मध्यमा के मूलपर्व को मेरुरूप में विचारे । हे देवि ! अष्टोत्तर जपकाल में आद्य और अन्त में यह दो त्याग दे यह शिवमाला कही अव शक्तिमाला सुनो ॥ ३५ ॥

अनामामध्यमारभ्य कनिष्ठादिक्रमेण च ।

तर्जनीमूलपर्यन्तं प्रजपेदशपर्वसु ॥ ३६ ॥

अनामिका मध्य पर्व से आरंभ करके कनिष्ठादिक्रम तर्जनी के मूल पर्यंत दशपर्व द्वारा जप करे ॥ ३६ ॥

मध्यमाद्वितयं पर्व तर्जन्याः परमेश्वरि ।

मेरुं जानीहि देवेशि तद्वयं न स्पृशेत्कचित् ॥ ३७ ॥

हे परमेश्वर ! मध्यमा दोनों पर्व को तर्जनी का मेरु जानना चाहिये इस कारण उन दोनों को स्पर्श न करे ॥ ३७ ॥

अष्टोत्तरजपे पर्व आद्यंतं द्वितयं त्यजेत् ।

नित्यं जप करे कुर्यान्न तु काम्यं कदाचन ।

काम्यं चापि करे कुर्यान्मालाभावे च मत्प्रिये ॥३८॥

अष्टोत्तर जपकाल में आग और अन्त पर्व को त्याग दें, नित्य जप- को ही करमाला द्वारा करना उचित है, किन्तु काम्यजप करना उचित नहीं है । हे प्रिये ! माला के अभाव में काम्य जप कर लेने में भी हानि नहीं है ॥ ३८ ॥

नित्यकर्मान्वितो जापो नित्यजापः स ईरितः ।

स्नानं च तर्पणं होमो बलिस्तृप्तिश्च नित्यतः ॥ ३९ ॥

नित्यकर्म में जो जप करना चाहिये, वही नित्यजप कहाता है स्नान, तर्पण, होम, बलि और तृप्ति यह सब नित्यकर्म में गिने गये हैं ॥ ३९ ॥

अनुलोम विलोमाभ्यां सर्वमालासु संजपेत् ।

केवलंचानुलोमेन प्रजपेत्करमालया ॥ ४० ॥

सब मालाओं में अनुलोम और विलोम द्वारा जप करना चाहिये करमाला से केवल अनुलोम के ही क्रमानुसार जप करे ॥ ४० ॥

पुंमन्त्रं प्रजपदेोव शिवसम्भवमालया !

शक्तिमंत्र जपदेोवि शक्तिसम्भवमालया ॥ ४१ ॥

हे देवि ! शिवमाला द्वारा पुंमंत्रजप और शक्तिमाला द्वारा शक्तिमंत्र जपना चाहिये ॥ ४१ ॥

चंद्रमंत्र जपेद्देवि तथैवं वेदमातरम् ।

सावित्रीं प्रजपद्दवि करेण शिवमालया ॥ ४२ ॥

चन्द्रमन्त्रं जपेद्देवि कराद्वा शक्तिमालया ।

सावित्रीजपने शस्ता सर्वदा करमालिका ॥

स्फाटिकी मौक्तिकी कौशी शस्ता स्याच्छंख सम्भवा ॥४३॥

हे देवि ! चन्द्रमंत्र और वेदमाता सावित्री का मंत्र कर द्वारा जपे और शिवमाला से सावित्री के मंत्र का जप और कर द्वारा तथा शक्ति माला से चन्द्र का जपे । सावित्री के मंत्र जपने में करमाला अथवा स्फटिकनिर्मित मोतियों की कौशी अर्थात् कुशनिर्मित और शंखनिर्मित माला भी श्रेष्ठ है ॥४२ - ४३ ॥

वैष्णवे तुलसीमाला गजदन्तैर्गणेश्वरे ।

त्रिपुराजपने शस्ता रुद्राक्षै रक्तचन्दनैः ॥ ४४ ॥

वैष्णव मंत्र के जपने में तुलसी की माला और गणेशजी का मंत्र जप-में गजदन्तरचित माला श्रेष्ठ है रुद्राक्ष और रक्तचन्दननिर्मित माला त्रिपुरा देवी के जप में उत्तम है ॥ ४४ ॥

श्मशानोद्भवधत्तूर बीजैर्धूमावतीजपे ।

करपर्वसमुद्भूतनाड्या संग्रथिता सती ॥ ४५ ॥

और धूमावती का मंत्र जपने में श्मशानोत्पन्न धतूरे की माला श्रेष्ठ होती है है महेश्वरि ! करपर्व निर्मित माला नाडी द्वारा गूंथी जाकर ॥४५ ॥

शस्ता च बगलामुख्याः सत्यं सत्यं महेश्वरि ।

असङ्कल्प्यत्व सत्यं स्यान्यूनाधिकमथापि वा ।

न सम्यक्फलभाग्भूयात्तस्मान्नियममाचरेत् ॥ ४६ ॥

बगलामुखी मंत्र जपने में श्रेष्ठ होती है, हे देवि ! यह मैंने तुमसे सत्य ही कहा है । बिना संकल्प किये जो जप किया जाता है अथवा नियम से कम वा अधिक जो जप किया जाता है, तो उससे सम्यक् प्रकार फल का भागी नहीं होता, इस कारण नियम बाँधकर जप करे ॥ ४६ ॥

ताम्रपात्रं सर्वञ्च सतिलं जलपूरितम् ॥ ४७ ॥

सकुशं सकलं देवि गृहीत्वाचम्य कल्पतः ।

अभ्यर्च्य च शिरः पद्म श्रीगुरुं करुणामयम् ॥४८॥

यक्षाशावदनो वापि देवेन्द्राशामुखोऽपि वा ।

मासं पक्ष तिथिश्चैव देषपर्वादिकं तथा ॥ ४९ ॥

आद्यन्तकालमुच्चार्य गोत्रं नाम च कामिनाम् ।

कर्माण्यद्य करिष्येऽहमैशान्यामुत्सृजेत्वयः ॥ ५०॥

सतिल, सदूर्वादल, जलपूरित, सकुश और फलसहित ताम्रपात्र ग्रहणपूर्वक विधि के अनुसार आचमन और शिरःपद्म में करुणामय गुरु की अर्चना करके कौबेरी अर्थात् उत्तरदिशा में वा देवेन्द्राशा अर्थात् पूर्व दिशा में मुख करके मास, पक्ष, तिथि और देवपर्वादि एवं आद्यन्त काल और यजमान का गोत्र तथा नाम उच्चारणपूर्वक "मैं क्रिया जप करूंगा यह कहकर ईशान कोण में जल छोड़ दे ॥४७- ५० ॥

चान्द्रः सौरस्तु सर्वत्र चान्द्रः स्यातिथिचोदने ।

चान्द्रोऽपि मुख्यः सर्वत्र गौणस्तु क्रूरकर्मणि ॥५१॥

चान्द्र और सौरकाल सर्वत्र ही प्रशस्त है, किन्तु तिथिनिर्णय में चान्द्र काल प्रशस्त है चान्द्रकाल भी सर्वत्र मुख्य है, किन्तु क्रूरकर्म में गौण है ॥ ५१ ॥

ऋणदाने तथा दाने प्रोष्ठपद्यादिषु प्रिये ।

मासो नाक्षत्रिकः प्रोक्तः सावनो वर्षपर्वणि ॥ ५२ ॥

ऋणदान और दान में तथा प्रौष्ठपद्यादि में नाक्षत्रिक अर्थात् नक्षत्र से होनेवाला मास उक्त होता है सावनमास वर्षपर्व में उक्त होता है ॥५२॥

एवं युगे युगे प्रोक्तः कलौ सारस्तु सर्वतः ।

सौरे मासि शुभा दीक्षा न चान्द्रे न च तारके ॥५३॥

न सावनो महेशानि यस्मात्सा विफला भवेत् ।

क्रियावती वेदमयी चान्द्रमासेऽपि शस्यते ॥ ५४ ॥

इस प्रकार युगयुग में उक्त होता है, कलियुग में सर्वत्र ही सौरमास उक्त होता है, सौरमास में दीक्षा कल्याणदायिनी होती है, चान्द्र वा नाक्षत्रिक अथवा सावन मास में दीक्षा का विधान नहीं है। क्योंकि इन सब मासों में दीक्षा ग्रहण से कुछ फल नहीं होता, वेदमयी क्रिया चान्द्रमास में भी श्रेष्ठ है ॥५३-  ५४॥

शुक्लपक्षे शुभं सर्वमशुभं च सितेतरे ।

प्रातःकालं समारभ्य यावन्मध्यदिनं रवेः ।

तावत्कर्माणि कुर्वीत यः सम्यक्फलमीहते ॥ ५५ ॥

शुक्लपक्ष सर्वत्र ही शुभ है और कृष्णपक्ष को सर्वत्र अशुभ जाने । जो सम्यक् प्रकार फल की कामना करे, वह प्रातःकाल से आरंभ करके मध्याह- पर्यन्त सब कार्य करे ॥ ५५ ॥

क्रूरकर्माणि कुर्वीत शेषेऽपि परमेश्वरि ।

गते तु प्रथमे यामे तृतीयप्रहररावधि ॥ ५६ ॥

हे परमेश्वरि ! क्रूरकर्म शेष में भी करने से कोई हानि नहीं है, प्रथम -प्रहर गत होने पर तृतीययामपर्यन्त ॥ ५६ ॥

कालो नक्तं जपस्योक्तः पूजाकालमिनः शृणु ॥

अर्द्धयामे गते नक्तमर्द्धयामे स्थिते सदा ।

पूजाकालो भवेद्यामश्चतुर्वर्गप्रदः सदा ॥ ५७ ॥

लिष्टे द्वे घटिके ये तु रात्रेर्मध्यम यामयोः ।

सा महारात्रिरुद्दिष्टा तत्कृतंकर्म चाक्षयम् ॥ ५८ ॥

तं हुतं यद्यत्कृतं वा मोक्षसाधनम् ।

तत्सर्वमक्षयं याति तथानन्त्याय कल्पते ।। ५९ ।।

जप का प्रशस्त काल कहा, अब पूजा का समय सुनो। रात्रि का अर्द्ध-याम वीतने पर अर्द्धयाम स्थिति पर्यन्त पूजा का काल है, इस काल में पूजा करने से चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ) प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं । रात्रि के मध्ययाम की जो दो घड़ी शेष रहती हैं, उन्हीं को महारात्रि कहते हैं, महारात्रि में जो कर्म किया जाता है, वही मोक्षदायक होता है । वही सब फल अक्षय होता है और अनन्त पुण्यफलप्रदान कर सकत है ॥ ५७-५९ ॥

न नक्तो वैष्णवे सौरे महासौरे च पैतृके ।

मध्याहं च विना देवि शशाङ्कग्रहणाद्विना ।

दीक्षा कार्या प्रयत्नेन शुक्लपक्षविभेदतः ॥ ६० ॥

वैष्णवकर्म, सौरकर्म, महासौर और पैतृक कर्म रात्रिकाल में करना उचित नहीं है, हे देवि ! मध्याह्न के अतिरिक्त, चन्द्रग्रहण के अतिरिक्त शुक्ल और कृष्णपक्ष के भेद में यत्नसहित दीक्षा कार्य करे ॥ ६० ॥

मुक्तिकामः कृष्णपक्षे भुक्तिकामः सिते तथा ।

भूतिकामेन कर्त्तव्यः कृष्णस्थात्पञ्चमीदिनात् ॥ ६२॥

मुक्ति की कामना करनेवाला मनुष्य कृष्णपक्ष में और भोग की अभिलाषा करनेवाला मनुष्य शुक्लपक्ष में तथा ऐश्वर्य की इच्छा करनेवाला मनुष्य कृष्णपक्ष की पंचमी के दिन से आरंभ करके कार्य करे ॥ ६१ ॥

शुभकाले शुभं कुर्यादशुभं चापि दुखितः ।

उपरागे महातीर्थे कालदोषो न विद्यते ॥ ६२ ॥

शुभकाल में कार्य करने से समस्त ही शुभ होता है आतुर मनुष्य अशुभ काल में भी कर्म करे ग्रहणकाल और महातीर्थ में कालदोष नहीं माना जाता ॥ ६२ ॥

वाराणस्यां विशेषेण सर्वदा सर्वमाचरेत् ।

सदा कृतयुगं तत्र सर्वदा चोत्तरायणम् ॥ ६३ ॥

विशेष करके वाराणसी में सदा ही सब कर्मों का अनुष्ठान करे। वहां सदा ही सत्ययुग और सदा ही उत्तरायण है ॥ ६३ ॥

अविशेषो दिवा रात्रौ सन्ध्यायां च महानिशि ।

प्रत्यक्षं दृश्यते वह्नौ मूर्त्या वर्ते पुनः शिवं ।

काश्याश्च नोदेति कदा सिद्धियोगो वरानने ॥ ६४ ॥

विशेषतः दिन रात्रि और संध्या तथा महानिशा इन सबको वहां अवि-शेष अर्थात् समानरीति से पुण्यदायक जाने। हे शिवे ! वहां वह्नि में मूर्त्यावर्त्त प्रत्यक्ष दिखाई देता है, हे वरानने ! काशी में कब सिद्धियोग उदय नहीं होता । अर्थात् काशी में सदैव सिद्धियोग रहता है ॥ ६४ ॥

द्वित्रिभ्यां क्रोशतः काशी पञ्चक्रोशीभवान्तरे ।

आयामे विस्तरे देवि नित्येयं नित्यदा शुभा ॥ ६५ ॥

दो तीन कोशव्यापी काशी का अवस्थान और भावान्तर में पंचकोशी याने । हे देवि ! दीर्घ और विस्तार में यह काशी नित्या और नित्यकाल शुभदायिनी है ॥ ६५ ॥

इयं निर्वाणनगरी परंज्योतिर्मयी शिवे ।

ब्रह्मांडं स्थापयेत्तत्र सकूटं वस्तु मानवम् ॥ ६६॥

हे शिवे । यह काशी निर्वाणनगरी और परमज्योतिर्मयी है इसमें कूट- वस्तु और मनुष्य के सहित ब्रह्माण्ड स्थापित है ॥ ६६ ॥

यत्र भ्रमणतो देवि ना निर्वाणमवाप्नुयात् ।

सर्वस्वेनापि कर्त्तव्यं वाराणस्यां द्विजार्पणम् ॥ ६७ ॥

इसमें भ्रमण करने से मनुष्य निर्वाणमुक्ति पाता है, वाराणसी में सर्वस्व दान करके भी ब्राह्मण को संतुष्ट करना चाहिये ॥ ६७ ॥

वाराणस्यां द्विजे दाने बायोगे रतिस्तथा ।

निष्कामकर्मबन्धश्च सर्व निर्वाणकारणम् ॥ ६८ ॥

वाराणसी में ब्राह्मण को दान, ब्रह्मयोग में प्रीति, और निष्कामकर्म, यह सब निर्वाण मुक्ति के कारण हैं ॥ ६८ ॥

गंगादिमुक्तिक्षेत्रादौ ज्ञानादेयगतस्तथा ।

मृतं तं नयेत्काशी मुक्तिं मदुपदेशतः ॥ ६९ ॥

न वासोऽन्यत्र मे यस्मान्न मुक्तिः काशिकां विना ।

तत्र यद्यत्कृतं कर्म तदनन्त फलप्रदम् ॥ ७० ॥

गंगादि मोक्षप्रद क्षेत्रादि में ज्ञानादियोग से मुक्ति होती है, किन्तु मेरे उपदेश से काशी मरे मनुष्य को भी पवित्र करके मुक्तिप्रदान करती है काशी में मेरा वास है, काशी के अतिरिक्त कोई भी मुक्ति देने में समर्थ नहीं है, उसमें जो जो कर्म किये जाते हैं, उनसे अनन्तफल प्राप्त हो सकता है ॥ ६९- ७० ॥

अक्षयं हि भवेत्सर्व दृढां सिद्धिमवाप्नुयात् ।

तत्र सांयोगिकं पुण्यं तत्र चैव विमुच्यते ॥ ७१ ॥

तत्राहं तत्वरूपेण पुष्णामि त्वन्यथा नहि ।

स्वल्पत्वे तिथिकाल हय क्रियाकालगतिर्भवेत् ॥

काले खलु समारभ्य त्वकालेपि समापयेत् ॥ ७२ ॥

काशी में किये सभी कर्म अक्षय होते हैं काशी में ही दृढा सिद्धि प्राप्त होती है, हे शिवे ! उसी स्थान में संयोगिक पुण्य, उसी स्थान में मुक्ति और उसी स्थान में मैं तद्ब्रह्मस्वरूप में पुष्ट होता हूं, इसमें अन्यथा नहीं है, यदि तिथिकाल स्वल्प हो और इस कारण क्रियाकाल बीत जाय तो काल में आरंभ करके अकाल में समापन करने से उसमें दोष का स्पर्श नहीं होता ॥ ७१- ७२ ॥

सन्ध्यायां पतितायान्तु गायत्रीं दशधा जपेत् ।

ततः कालोचितां सन्ध्यां कृत्वा कर्म समापयेत् ॥ ७३ ॥

संध्या के पतित होने पर दशवार गायत्री जपे फिर कालोचिता संध्या करके कर्म समापन करना चाहिये ॥७३ ॥

इत्येवं कथितं तुभ्यं यत्पृष्टं गिरिसम्भवे ।

इतः परतरं किञ्चित्तद्ब्रूयास्तव मानसे ॥ ७४ ॥

हे पर्वतनन्दिनी ! तुमने जो पूछा था, मैंने वह सब कहा; इससे अधिक जो तुम्हारे मन में विद्यमान हो, सो प्रकाश करके कहो ॥ ७४ ॥

इति सर्वतोत्तमोत्तमे श्रीयोगिनीतन्त्रे देवीस्वरसम्वादे भाषाटीकायां चतुर्विंशतिसाहरू द्वितीयः पटलः ॥ २ ॥

आगे जारी........ योगिनीतन्त्र पटल 3

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