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योगिनीतन्त्र पटल १

योगिनीतन्त्र पटल १

योगिनीतन्त्र पटल १ में उपोद्घात - योगिनी तंत्र विषयक देवी का प्रश्न भगवान् का उत्तर गुरुमहिमा गुरुविषयक देवी का प्रश्न गुरु का वर्णन है ।

योगिनीतन्त्र पटल १

योगिनीतन्त्र पटल १

Yogini tantra patal 1

योगिनीतन्त्रम् प्रथमः पटलः

योगिनी तन्त्र प्रथम पटल

॥ श्रीः ॥

योगिनीतन्त्रम् भाषाटीका समेतम् 

मङ्गलाचरणम् ।

श्रीमन्नीलघनद्युतिः शुभकरी चन्द्रार्धचूणामणि-

भक्तार्तिप्रशमैकवृत्तिरनिशं विज्ञानसम्पत्करी ।

शम्भोर्वक्षसि संस्थिता सुरधुनीकालिन्दिनीसङ्गमा-

ल्लोके कौतुकमादधान्यतितरां पायान्मृडानी हि नः ॥ १ ॥

द्योगनीतन्त्रमिदं कन्हैयालालेन मिश्रान्वयसम्भवेन ।

अनूदितं स्वार्यवचोभिरय्यैस्तदस्तु प्रत्यै प्रथमाम्बिकायाः ॥ २ ॥

योगिनी तंत्र पहला पटल 

ॐ कैलासशिखरारूढं शङ्करं परमेश्वरम् ।

पप्रच्छ गिरिजा कान्तं पार्वती वृषभध्वजम् ॥ १ ॥

मनोहर कैलास - शिखर में वृषभध्वज परमेश्वर शंकर विराजमान हैं; उसी समय भगवती पार्वती ने अपने पति महादेवजी से पूछा ॥ १ ॥

श्रीदेव्युवाच ।

भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्वज्ञानमय प्रभो ।

सूचितं योगिनीतन्त्रं तन्मे वद जगद्गुरो ॥ २ ॥

माहात्म्यं कीर्त्तितं तस्य पुरा श्रीशैलमन्दरे ।

वाराणस्यां कामरूपे नेपाले मन्दराचले ॥ ३ ॥

श्री पार्वती बोलीं- हे भगवन् ! हे सर्वधर्मज्ञ ! हे सर्वज्ञानमय ! हे प्रभो ! आपने पहिले श्रीशैल, मन्दर, वाराणसी, (काशी) कामरूप, नेपाल और मन्दर पर्वत में जिसका माहात्म्य कीर्त्तन करके सूचना मात्र की थी, वह "योगिनीतंत्र" मुझसे कहिये । हे जगहरो ! उसके सुनने की मेरी इच्छा बलवती हुई है ॥ २- ३ ॥

ईश्वर उवाच ।

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि योगिनीतन्त्रमुत्तमम् ।

पावनं परमं धन्यं मोक्षैकफलदायकम् ॥ ४ ॥

ईश्वर बोले- हे देवि ! मोक्षफलदायक परमधन्य परमपवित्र और परमोत्तम योगिनीतंत्र को मैं तुमसे कहाता हूँ, सुनो॥४॥

गोपितव्यं प्रयत्नेन मम त्वं प्राणवल्लभे ।

यथान्यो लभते नैव तथा कुरु प्रियंवदे ॥ ५ ॥

हे प्रियंवदे ! हे प्राणवल्लभे ! परमयत्नपूर्वक मुझे और तुम्हें इस तंत्र को गुप्त रखना चाहिये तथा ऐसा यत्न करना चाहिये कि, जिससे इसको कोई दूसरा (अनधिकारी ) प्राप्त न कर सकै ॥ ५ ॥

एतत्तन्त्रं वरारोहे सुरासुरसुदुर्लभम् ।

कांक्षन्ति देवताः सर्व्वाः श्रोतुं तन्त्रमनुत्तमम् ॥ ६॥

यक्षाद्याः परमेशानि न तेभ्यः कथितं मया ।

कथयामि तव स्नेहाद्वद्धोऽहं परमं त्वया ॥ ७ ॥

हे वरारोहे ! सुरासुर दुर्लभ इस सर्वोत्तम तंत्र के सुनने की सभी देवता और यक्षादिक इच्छा करते हैं, परन्तु हे परमेशानि ! मैंने इसको उनसे कहा, मैं तुम्हारे परम स्नेहपाश में बँधा हूँ, इस कारण तुमसे भी नहीं कहता हूँ ॥ ६- ७ ॥

विद्युत्कान्तिसमानाभदन्त पंक्तिबलाकिनीम् ।

नमामि तां विश्वमातां कालमेघसमद्युतिम् ॥

मुण्डमालावली रम्यां मुक्तकेशीं दिगम्बराम् ॥ ८॥

जो विश्वमाता और कालमेघ की समान कान्तियुक्त हैं, उन काली देवी को नमस्कार करता हूँ, बकपंक्ति के तुल्य बिजली की कान्ति की समान दन्तपंक्ति जिनके मुखमण्डल में शोभायमान हैं। जो मुण्डमाला से शोभायमान हैं जो दिगम्बरा (नग्न) खुले केशवाली हैं ॥ ८ ॥

ललज्जिह्वां घोररावामारक्तान्तत्रिलोचनाम् ।

कोटिकोटि कलानाथविलसन्मुखमण्डलाम् ॥ ९ ॥

और चलायमान जिनकी जीभ लहलहाती है जिनके तीनों नेत्र रक्तवर्ण हैं और जिनका घोर (विकराल ) शब्द है, जिनके मुखमण्डल से अनन्त चन्द्रमा निकलते हैं ॥ ९ ॥

अमाकलासमुहासोज्ज्वलत्कोटीरमण्डलाम् ।

शवयाभूषकर्णी नानामणिविभूषिताम् ॥ १० ॥

जिनके शिर में उज्वल किरीट मण्डल अमावस की कला के समान उल्लसित होकर शोभा विस्तार करता है, दोनों कानों में दो शव विभूषित हो रहे हैं, जिनके सब अंग अनेक प्रकार की मणियों से विभूषित हैं ॥ १० ॥

सूर्यकान्तेन्दुकान्तौ प्रोल्लसत्कर्णभूषणाम् ।

मृत हस्तस्तु कृतकाच हसन्मुखीम् ॥ ११॥

सूर्यकान्त और चन्द्रकान्त माणिसमूह से जिनका सुन्दर कर्णभूषण अलंकृत है, जिनकी कमर मृतकों के सहस्रों हाथों की बनी कोंधनी से वेष्टित है, जिनके मुखमण्डल में अट्टहास्य शोभा पाता है ॥ ११ ॥

सृक्कद्रयगलद्रक्तधाराविस्फारिताननाम् ।

खड्गमुण्डवराभीतिसंशोभितचतुर्भुजाम् ॥ १२ ॥

जिनके दोनों होठों से शोणित की धारा निकलने के कारण मुखमण्डल शोभित हो रहा है, जिनकी चारों भुजा खड्ग, मुण्ड, वर और अभय-दान से शोभायमान है ॥ १२ ॥

दन्तुरां परमां नित्यां रक्तमण्डितविग्रहाम् ।

शिवप्रेतसमारूढां महाकालोपरि स्थिताम् ॥ १३ ॥

जिनका देह शोणित की छटा से मण्डित है, दंतपंक्ति उच्च और विकट हैं, उन परमा और नित्या सनातनी देवी को नमस्कार करता हूँ जो शिवप्रेत पर चढीं और महाकाल के ऊपर स्थित हैं ॥ १३ ॥

वामपादशवाद दक्षिणे लोकलाञ्छिताम् ॥

कोटिसूर्यप्रतीकाशां समस्तभुवनोज्ज्वलाम् ॥ १४ ॥

जिनका वाम चरण शव के हृदय पर स्थित है और जिनके दहिने पैर से समस्त लोक अलंकृत है ( उन शिवरूपिणी देवी को नमस्कार है ) जिनका करोड सूर्य तुल्य प्रकाश है और जो समस्त भुवन को समुज्ज्वल कर रही हैं ॥ १४ ॥

विद्युत्पुञ्जसमानाभज्वलज्जटाविराजिताम् ।

रजतादिनिभां देवीं स्फटिकाचलविग्रहाम् ॥ १५ ॥

विद्युत्पुंज की समान उज्ज्वल, जटाजाल से विराजित, रजतगिरि की समान शोभायमान और स्फटिकाचल के तुल्य शुक्लवर्ण शरीर को धारण करती हुई ॥ १५ ॥

दिगम्बरां महाघोरां चन्द्रार्कपरिमण्डिताम् ।

नानालङ्कारभूषाठ्यां भास्वत्स्वर्णतनूरुहाम् ॥ १६ ॥

जो दिगम्बर महाघोरदर्शन, चन्द्रसूर्य से भूषित, अनेक प्रकार के आभूषणों से शोभित भास्वर (शुद्ध) सुवर्णसदृश रोमराजि से विराजित ॥ १६ ॥

योगनिद्राधरां सु स्मेराननसरोरुहाम् ।

विपरीतरतासक्तां महाकालेन सन्ततम् ॥ १७ ॥

अशेषब्रह्माण्डभाण्डप्रकाशितमहाबलाम् ।

शिवाभिर्घोररावाभिर्वेष्टितां प्रलयोदिताम् ॥ १८ ॥

जिन योगनिद्रानिरत महादेव का हँसता हुआ मुखकमल समस्त ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, महाकाल शंकर के विपरीत रत में जो आसक्त हैं, जो घोर शब्दवालीं गीदाड़ियों से घिरीं हैं, जो प्रलयकाल के समान भयानक मूर्त्ति धारण करनेवालीं हैं ॥ १७- १८ ॥

कोटिकोटिशरच्चन्द्रन्यतोन्नखमण्डलाम् ।

सुधापूर्ण शिरोहस्तयोगिनीभिर्विराजिताम् ॥ १९ ॥

आरक्तमुख भीमाभिर्मदमत्ताभिरन्विताम् ।

घोररूपैर्महानादैश्वण्डताश्च भैरवैः ॥ २० ॥

गृहीतशव कङ्कालजयशब्दपरायणैः ।

नृत्यद्भिर्वादनपरैरनिशञ्च दिगम्बरैः ॥ २१ ॥

श्मशानालय मध्यस्थां ब्रह्माद्युपनिषेविताम् ॥ २२ ॥

जो अपने नखमण्डल की प्रभा से अनन्त शरद ऋतु के चन्द्रमा की शोभा का तिरस्कार करती हैं, जिनके मस्तकमण्डल और हाथों में सुधा विराजमान है जो रक्तमुखवालीं मदमत्त योगिनीगणों में विराजित हैं। एवं महानाद घोररूप, प्रचण्ड प्रताप, दिगम्बरवेष सदा नृत्यवाद्य में निरत शवकाल ग्राही ( मृतक का खांखड लिये ) और जयशब्द- परायण भैरवगणों से वेष्टित स्मशानालय के मध्य स्थित और ब्रह्मादि देवताओं से सेवित हैं (उन महाकाली देवी को मैं नमस्कार करता हूं ) ॥ १९- २२ ॥

अधुना शृणु देवेशि तन्त्रराजं सुदुर्लभम् ।

कथयामि तव स्नेहान्न प्रकाश्यं कथञ्चन ।

अतीव स्नेहसंबद्धभक्त्या दासोऽस्मि ते प्रिये ॥२३॥

हे देवेश्वरी ! अब दुर्लभ तन्त्रराज "योगिनीतंत्रसुनो ! हे प्रिये ! तुम्हारी अतिशय भक्ति और स्नेह के कारण मैं तुम्हारा दास हूँ, अतएव तुम्हारे प्रति प्रीति के यह तंत्र तुमसे वर्णन करता हूं किन्तु कभी इसको प्रकाश न करना ॥ २३ ॥

गुरुमूलमिदं शास्त्रं गुरु मूलमिदं जगत् ।

गुरुरेव परं ब्रह्म गुरुरेव शिवः स्वयम् ।

गुरुर्यस्य वशीभूतो देवास्तं प्रणमन्ति च ॥ २४ ॥

हे देवि ! यह शास्त्र और जगत गुरुमूलक है गुरु ही परब्रह्म और गुरु ही साक्षात् शिवस्वरूप हैं, गुरु जिसके वशीभूत होते हैं, देवता उसको प्रणाम करते हैं ॥ २४ ॥

कुष्ठव्याधिगलत्पादप्रक्षालनजलं यदि ।

पिवेदमृतभावेन यः स देवीपुरं व्रजेत् ॥ २५ ॥

महाव्याधियुक्त होने पर भी यदि उन गुरु का चरणामृत पिये, तो वह मनुष्य देवपुरी में जाता है ॥ २५ ॥

सुरां यद्यप्यसंस्कारां गुर्वनुज्ञाबलात्पिबेत् ।

प्रायश्चित्तं न तत्रास्ति वेदेऽपि स्थित एष हि ॥ २६ ॥

गुरु की आज्ञाविधि के वशवर्ती होकर असंस्कृत सुरापान करने पर भी उसमें प्रायश्चित्त नहीं है और उसमें वेदविधि की अमर्यादा भी नहीं होगी ॥ २६ ॥

अपि तन्त्रविरुद्धं वा गुरुणा कथ्यते यदि ।

स्वमतं सदृशं वेदैर्महारुद्रवचो यथा ॥

स गुर्वाज्ञया कार्य तत्त्वस्यागमनं विना ॥ २७ ॥

गुरु अपना मत जो प्रकाश करें, तंत्रविरुद्ध होने पर भी उसको वेदतुल्य और महारुद्रदेव के वचन के समान जाने, तत्त्वागम के बिना भी गुरु की आज्ञा सब कार्यों में ही लेनी चाहिये ॥ २७ ॥

अद्वैतं देवतैश्व न द्वैतं गुरुणा सह ।

नाद्वैतं प्लवते कार्य न समोऽस्तीह भूतले ॥ २८ ॥

देवताओं का ऐश्वर्य अद्वैत है, गुरु के संग उसका अद्वैतभाव (अनुपमेयत्व ) नहीं है अद्वैत गुरु को और गुरु के कार्य को अतिक्रम नहीं कर सकता इस भूतल में गुरु के समान कोई नहीं है ॥ २८ ॥

गुरुर्गतिर्गुरुर्देवो गुरुर्देवी तथा प्रिये ।

स्वर्गलोके मर्त्यलोके नागलोके च वर्तते ॥ २९ ॥

हे प्रिये ! स्वर्गलोक, मर्त्यलोक और नागलोक में गुरु ही गति, गुरु ही "देव और गुरु ही देवी हैं ॥ २९ ॥

अल्पज्ञोऽनल्पविज्ञो वा गुरुरेव सदा गतिः ।

गुरुवद्गुरुपुत्रेषु गुरुवत्तत्सुतादिषु ॥ ३० ॥

गुरु अल्पज्ञानसम्पन्न हों वा बहुज्ञानसम्पन्न हों, परन्तु गुरु ही सदगति हैं, हे प्रिये ! समस्त गुरुपुत्र और गुरुपुत्र के पुत्र से भी गुरु के समान व्यवहार करे ॥ ३० ॥

गुरुपत्नी महेशानि गुरुरेव न संशयः ।

गुरोरुच्छिष्टवदेवि तत्सुतोच्छिष्टमेव च ।

भोजनीयं न संदेहोऽस्त्यन्यथा चेदधोगतिः ॥३१॥

गुरुपत्नी भी गुरु है, इसमें कुछ सन्देह नहीं. हे महेशानि ! गुरु की उच्छिष्ट के समान गुरुपुत्र की उच्छिष्ट भी भोजन करनी चाहिये, इसमें संशय न करे, इसमें विकार उत्पन्न होने पर अधोगति होती है ॥ ३१ ॥

गुरूच्छिष्टं महादेवि ब्रह्मादीनां सुदुर्लभम् ।

गुरूच्छिष्टं तथा प्रोक्तं महापूतं परात्परम् ॥ ३२ ॥

हे महादेवी! गुरु का उच्छिष्ट ब्रह्मादिकों को भी दुर्लभ है, गुरु का उच्छिष्ट महापवित्र और परात्पर (अति दुर्लभ ) वस्तु है ॥ ३२ ॥

गुरुणा गुरुपत्न्या वा गुरुपुत्रेण वा प्रिये ।

भुक्त्वानं मुष्टिमात्रं वा योवसेद्वर्षविंशतिम् ।

चिरंजीवी जरारोगविमुक्तोऽथ शिवो भवेत् ॥३३॥

हे प्रिये ! गुरु गुरुपत्नी वा गुरुपुत्र का दिया मुष्टिमात्र भुक्तावशिष्ट अर्थात् भोजन बचा हुआ अन्न भी जो मनुष्य वीस वर्ष भोजन करता है, वह जरा और रोग से छूटकर चिरजीवी होता है और अन्तकाल में शिव हो जाता है ॥ ३३ ॥

मुर्व्वन्ति यदि वसेत्पञ्चाशद्वर्षमुत्तमे ।

भैरवाचारसम्पन्नस्तत्पादपरिचारकः ॥ ३४ ॥

इह भुक्त्वा वरान्भोगानन्ते देविगणे भवेत् ।

रूपायौवनसम्पन्नै रुद्रकन्यागणैः सह ।

असौ वीरो विहरति यावञ्चन्द्रार्कतारकम् ।। ३५ ।।

हे सत्तमे ! जो मनुष्य भैरवाचार सम्पन्न और गुरु के चरणकमलों का सेवक होकर गुरु के निकट पचास वर्ष वास करता है, वह इस लोक में उत्तम भोग भोगकर अन्त को देवताओं में गिना जाता है वह वीर जबतक चन्द्र सूर्य और तारे विद्यमान रहते हैं, तबतक रूपयौवन-रुद्रकन्याओं के संग विहार करता है ॥ ३४- ३५ ॥

प्रातरुत्थाय यो मत्यों गुरवे प्रणतिश्चरेत् ।

तत्सुतं तनयां वापि प्रणमेद्विधिपूर्वकम् ॥

स सिध्यति वरारोहे नात्र कार्या विचारणा ॥ ३६ ॥

हे वरारोहे ! जो मनुष्य प्रातः काल में उठकर गुरु को गुरु के पुत्र को वा गुरु की कन्या को विधिपूर्वक प्रणाम करता है वह अवश्य सिद्ध होता है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ३६ ॥

यत्राशायां गुरोः स्थानं नित्यं प्रातश्च तन्मुखः ।

गुरुं तद्दयितां पुत्रान्पुत्रीरुद्दिश्य मानवः ।

प्रणमेद्भक्तिसंयुक्तः स सिद्धो नात्र संशयः ॥३७॥

जिस ओर गुरु का स्थान है, प्रतिदिन प्रातकाल में उसी ओर को मुख करके गुरु को गुरु की पत्नी को वा उनके पुत्र को अथवा उनकी कन्या को उद्देश्य करके जो मनुष्य भक्तियुक्त चित्त से प्रणाम करता है, वह इस लोक में सिद्ध होता है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ३७ ॥

गुरोः स्थानं हि कैलासं तत्र चिन्तामणेर्गृहम् ।

वृक्षालिः कल्पवृक्षालि: लता कल्पलता स्मृता ।

जलखानं स्वर्गगङ्गा सर्वे पुण्यमयं शिवे ॥ ३८ ॥

गुरुगेहे स्थिता दास्यो भैरव्यः परिकीर्त्तिताः।

भृत्यान्भैरवरूपांश्च भावयेन्मतिमान्सदा ॥ ३९ ॥

प्र क्षिणं कृतं येन गुरोः स्थानं महेश्वरि ।

प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तद्वीपा वसुन्धरा ॥ ४० ॥

गुरु का स्थान ही कैलास है, गुरु का गृह ही चिन्तामणि का गृह है। गुरु की वृक्षावली ही कल्पवृक्षाली है अर्थात् वहां के वृक्ष कल्पवृक्ष हैं और गुरुजी के घर की लता कल्पलता हैं, गुरुजी के घर का जल स्वर्गीय गंगा है, हे शिवे ! गुरु का समस्त ही पुण्यमय है, हे महेश्वरि ! मतिमान् मनुष्य विचारते हैं कि. गुरु के घर में स्थित दासी भैरवीतुल्य और सेवक भैरवरूप हैं । जो गुरु के स्थान की प्रदक्षिणा करता है वह मनुष्य सप्तद्वीपा पृथ्वी को प्रदक्षिणा करके उसके फल को पाता है॥४०॥

श्रीदेव्युवाच ।

गुरुः को वा महेशान वद मे करुणामय ।

तत्त्वादधिक एवायं यस्त्वया परिकीर्त्तितः ॥ ४१ ॥

श्री देवीजी ने कहा- हे महेशान! हे करुणामय ! गुरु कौन हैं ? उसका स्वरूप मुझसे कहो, आपने तत्त्वज्ञान से भी गुरु को अधिक कहा है। अतएव इसका विशेष विवरण सुनने की मेरी इच्छा है ॥ ४१ ॥

ईश्वर उवाच ।

आदिनाथो महादेवि महाकालो हि यः स्मृतः ।

गुरुः स एवं देवेशि सर्वमन्त्रेऽधुना परः ॥ ४२ ॥

शैवे शाक्ते वैष्णवे च गाणपत्ये तथैन्दवे ।

महाशैवे च सौरे च स गुरुर्नात्र संशय ।

मन्त्रवक्ता स एव स्थानापरः परमेश्वरि ॥ ४३ ॥

ईश्वर बोले- हे देवेशि ! हे महादेवि ! जो आदिनाथ महाकाल हैं, वही इस समय परप गुरु हैं, शैव शाक्त, वैष्णव, गाणपत्य, ऐन्दव, महाशैव सौरादि मंत्र में वही मंत्रवक्ता है, अपर गुरु कोई नहीं हैं, इसमें सन्देह नहीं ॥४२-४३॥

मन्त्रप्रदानकाले हि मानुषो नगनन्दिनि ।

अधिष्ठानं भवेत्तस्य महाकालस्य शाङ्करि ॥

देवि ह्यमानुषी चेयं गुरुता नात्र संशयः ॥ ४४ ॥

हे परमेश्वरी! हे पर्वतनन्दिनी ! मन्त्र देने के समय वही मानुषरूप से मंत्र देते हैं, हे शांकर ! उस समय उन महाकाल का ही अधिष्ठान होता है, इस कारण हे देवि ! गुरु के कर्म को अमानुष जाने । इसमें सन्देह नहीं ॥४४॥

मन्त्रदाता शिरःपद्मे यज्ज्ञानं कुरुते गुरुः ।

तज्ज्ञानं कुरुते देवि शिष्योयं शीर्षपङ्कजे ॥ ४५ ॥

शिवस्वरूप मन्त्रदाता गुरु शिरोरुपपद्म में जिस प्रकार ज्ञान करते हैं हे देवि ! शिष्य भी निज शीर्षकमल में उसी प्रकार ज्ञान करते हैं ॥ ४५ ॥

अतएव महेशानि एक एव गुरुः स्मृतः ।

अधिष्ठानं भवेत्तस्य मानुषस्य महेश्वरि ।

माहात्म्यं कीर्तितं तस्य सर्वशास्त्रेषु शाङ्करि ॥४६॥

अतएव हे महेशानि ! गुरु को ही एकमात्र प्रधान जानना चाहिये । हे महेश्वरि ! मंत्र देने के समय उन अमानुष देव का अधिष्ठान होता है, हे शाङ्कार ! उन गुरु का माहात्म्य सब शास्त्रों में कहा गया है ॥ ४६ ॥

विशेषमनुवक्ष्यामि माहात्म्यं गुरुगोचरम् ।

पशुदाने तु मर्यादा दशपौरुषी ॥ ४७ ॥

मैंने तुम्हारे प्रति गुरु का माहात्म्य विशेषरूप से वर्णन किया है, पशुमंत्र देने में गुरु की दशपौरुषी मर्यादा है ॥ ४७ ॥

वीरमन्त्रप्रदाने तु पञ्चविंशतिपौरुषी ।

महाविद्यासु सर्वासु पञ्चाशत्पौरुषी मता ॥ ४८ ॥

वीरमन्त्र देने में पचीस पौरुषी और सर्व महाविद्या मंत्र देने में पचास पौरुषी मर्यादा है ॥ ४८ ॥

योगदाने तु मर्यादा शतपौरुषी ।

ब्रह्मयोग महादेवि भेरुण्डायां प्रकीर्तितः ॥ ४९ ॥

ब्रह्मयोग देने में शतपौरुषी मर्यादा जाननी चाहिये। हे महादेवि ! भेरुण्डातन्त्र में ब्रह्मयोग कहा गया है ॥ ४९ ॥

गुरुपादोदकं पुण्यं सर्वतीर्थावगाहनात् ।

सर्वतीर्थावगाहे तु यत्फलं प्राप्नुयान्नरः ॥ ५० ॥

तत्फलं प्राप्नुयान्मर्त्यो पादोदककणानुरोः ।

स्नातः सर्वतीर्थेषु योऽभिषेकं ततश्चरेत् ॥५१॥

सब तीर्थों में स्नान करने से जो पुण्य होता है, गुरु का चरणामृत पीने से भी वही पुण्य होता है, सर्व तीर्थों में स्नान करके मनुष्य जो फल पाता है गुरु पादोदक का कणमात्र पीने से भी वही फल प्राप्त होता है, जो मनुष्य गुरु के पादोदक (चरणामृत ) में स्नान करता है, उसको एक काल में ही सर्व तीर्थों में स्नान करने का फल मिल जाता है ॥५०-५१॥

पीतं पूतञ्च कुरुते सर्वपापेभ्य एव हि ।

विशेषतो महामाये तत्क्षणाच्छिवतां व्रजेत् ॥५२॥

पान करने पर संपूर्ण पापों से छूटकर पवित्र होता है । हे महामाये ! विशेषकर इस पादोदक पीने के फल से वह तत्काल शिव का स्वरूप लाभ करता है ॥ ५२ ॥

गुरोः पादरजो मूर्ध्नि धारयेद्यस्तु मानवः ।

सर्वपापविनिर्मुक्तः स शिवो नात्र संशयः ॥ ५३ ॥

जो मनुष्य अपने मस्तक में गुरु के चरणकमलों की धूरि धारण करता है वह सब पापों से छूटकर शिव के तुल्य होता है इसमें सन्देह नहीं ॥ ५३ ॥

तेनैव रजसा देवि तिलकं यस्तु कारयेत् ।

चतुर्भुजो न सन्देहः स वैकुण्ठपतिर्भवेत् ॥ ५४ ॥

हे देवि ! उस पदरज से जो तिलक करता है वह चतुर्भुज होकर वैकुण्ठपति होता है इसमें सन्देह नहीं ॥ ५४ ॥

तो भक्षितं येन एकस्मिन्दिवसेऽपि च ।

कोटियज्ञोद्भवं पुण्यं लभते नात्र संशयः ॥ ५५ ॥

जो मनुष्य एक दिन भी गुरु की पदरज भोजन करता है वह करोड महायज्ञ करने के पुण्य को पाता है इसमें सन्देह नहीं ॥ ५५ ॥

इति ते कथितं देवि रहस्यं गुरुगोचरम् ।

गोपनीयं प्रयत्नेन स्वकीयं कुलपौरुषम् ॥ ५६ ॥

हे देवि ! यह मैंने तुमसे गुरु का रहस्य कहा स्वकीय कुलपौरुष स्वरूप इस गुरुतत्व को परम यत्नसहित गुप्त रक्खे ॥५६॥

इति सर्वतोत्तमोत्तमे श्रीयोगिनीतन्त्रे देवीश्वरसम्वादे भाषाटीकायां चतुर्विंशतिसाहस्त्रे प्रथमः पटलः ॥ १॥

आगे जारी........ योगिनीतन्त्र पटल 2

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