माहेश्वरतन्त्र पटल २७
माहेश्वरतन्त्र के पटल २७ में आचार
एवं अनाचार कथन, भगवान कृष्ण का ध्यान, महोत्सव काल कथन का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल २७
Maheshvar tantra Patal 27
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल २७
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र सत्ताईसवाँ पटल
माहेश्वरतन्त्र सप्तविंश पटल
अथ सप्तविंशं पटलम्
शिव उवाच –
नित्यानन्दविहाराणां प्रियाणां
परमेशितुः ।
स्वभत्तु भंजनं देवि कर्त्तव्य
सर्वथैव हि ॥ १ ॥
शिव ने कहा- नित्य भगवान् की लीला
के आनन्द में विहार करने वाले परमेश्वर के प्रिय भक्त को,
हे देवि ! सभी प्रकार से अपने स्वामी श्रीकृष्ण का भजन करना ही चाहिए
।। १ ।।
भजनाङ्गं सदाचारः कर्त्तव्यः कर्मशुद्धये
।
न सिद्धाः सिद्धिमवाप्स्यन्ति
सदाचारविवर्जिताः ॥ २ ।।
कर्म की शुद्धि के लिए सदाचार का
पालन भजन के अङ्ग रूप में करना चाहिए । क्योंकि कोई भी साधक विना सदाचार के सिद्धि
नहीं प्राप्त करते ॥ २ ॥
आचारहीनं न पुनन्ति वेदा आचारहीनं न
तपः पुनाति ।
आचारहीनं न पुनन्ति
तीर्थान्याचारहीनस्य न चैव सिद्धिः ॥ ३ ॥
वेद आचारहीन साधक को पवित्र नहीं
करते हैं । तप आधारहीन साधक को पवित्र नहीं करता है। तीर्थ आचारहीन पुरुष को
पवित्र नहीं करते हैं। फिर तो आचारहीन व्यक्ति को सिद्धि भी नहीं मिलती है ॥ ३ ॥
आचारः प्रथमो धर्म आचारो
हन्त्यलक्षणम् ।
आचाराल्लभते शुद्धि तस्मात्तं सततं
चरेत् ॥ ४ ॥
'आचार' ही
प्रथम धर्म है जो साधक की बुराइयों को नष्ट कर देता है। फिर आचार से शुद्धि
प्राप्त होती है। इसलिए निरन्तर आचारवान् होना चाहिए। ४ ।।
अनाचारेण मालिन्यं बुद्धिः
समधिगच्छति ।
लीलावधारणं नास्ति मलिने
बुद्धिदर्पणे ।। ५ ।।
आनाचार से 'बुद्धि' मालिन्य को प्राप्त करती है। फिर मलिनबुद्धि
रूपी दर्पण में कभी भगवान् की लीला की अवधारणा नहीं होती ॥ ५ ॥
आवारः कथितः सद्भिः सर्वधर्मेषु
सर्वदा ।
आचाररहितो धर्मो ह्यधर्मत्वेन
कल्प्यते ॥ ६ ॥
इसलिए सभी धर्मों में सर्वदा
सज्जनों द्वारा आचार [ के व्रत का पालन करने के लिए ] कहा गया है। वस्तुतः
आचारविहीन धर्मं तो अधर्म के ही समान माना जाता है । ६ ॥
आचाररक्षणं तस्मात्कर्त्तव्य सर्वथा
प्रिये ।
आचारो द्विविधः प्रोक्तो
बाह्याभ्यन्तर एव च ॥ ७ ॥
अतः प्रिये ! सभी प्रकार से आचार की
रक्षा ही करनी चाहिए। आचार दो प्रकार का कहा गया है १. बाह्य और २. आभ्यन्तर ।। ७
।।
भावसंशुद्धिमेवैकामाचारं ह्यान्तरं
विदुः ।
तत्सिद्धये देहसाध्यो बाघः
शौचादिरुच्यते ॥ ८ ॥
भाव की शुद्धि ही मात्र एक आचार
आभ्यन्तर कहा गया है। उसी भाव की शुद्धि के लिए शरीर से किये जाने वाले शौच आदि [ प्रयत्नों
] को बाह्य शुद्धि कहते हैं ॥ ८ ॥
साध्यो भावः साधनं तु देहशुध्यादिकं
प्रिये ।
तमाचारं प्रवक्ष्यामि येन संशुध्यते
मनः ।। ९ ।।
हे प्रिये ! शरीर की शुद्धि आदि से
ही भाव को शुद्धि का साधन हो पाता है ।
अतः जिससे 'मन' की शुद्धि होती है मैं उस आचार को तुमसे अब
कहूँगा ।। ९ ।।
नाभाषेन्नावलोकेत शृणुयान्न कथञ्चन
।
न स्पृशेन्नोपजिघ्रेत
नाश्नीयाद्विमतं च यत् ॥ १० ॥
[ कृष्ण के गुण के अतिरिक्त ] न कुछ
भाषण करें, न कुछ देखे कुछ भी न सुने । [
कृष्ण के लीलाविग्रह प्रतिमा को छोड़कर किसी भी अन्य वस्तु का स्पर्श न करे,
न सूधे और [ सात्विक अन्न का ही भक्षण करे ] जो गर्हित हो उसे नहीं खाना
चाहिए ।। १० ।
यदेश्वर गुणान्वक्तुमीहते वाक् विजृम्भिता
।
तर्दनां विध्यते पाप्मा विद्धा
विमतभाषिणी ।। ११ ।।
जो वाणी ईश्वर के गुण के बखान के
लिए ही कल्पित है उस वाणी को विमत [ = लौकिक वाग् जाल] भाषणरूप पाप विद्ध कर देता
है ।। ११ ।।
यदेश्वरं
मूर्तिमन्तमालोकयितुमिच्छति ।
चक्षुस्तदा पापविद्धं विमत पश्यति
प्रिये ।। १२ ।।
जो साधक मूर्तिमान् ईश्वर को नहीं
देखना चाहता है उसके चक्षु तभी, हे प्रिये पाप
बुद्धि से आच्छन्न हो जाते हैं ॥ १२ ॥
देश्वरगुणान् श्रोतुमीहते
श्रोत्रमिन्द्रियम् ।
तदेव पाप्मना विद्धं जानीयाद्विमते
च तत् ।। १३ ।।
जो श्रोत्र इन्द्रिय ईश्वर के गुणों
को सुनने की कामना नहीं करती है उसे तभी समझ लेना चाहिए कि वह पाप से आविद्ध मन है
॥ १३ ॥
यदा निवेदितान्नेन नियमं रसनेहते ।
तदैव पाप्मना विद्वा विमतं
प्रतिपद्यते ॥ १४ ॥
जब ईश्वर को निवेदित अन्न के द्वारा
रसना इन्द्रिय का नियमन किया जाता है तभी पाप से विमत प्रतिपादित होता है ॥ १४ ॥
पापरूप विजानीयाद्विमताचरणं च तत् ।
विमताचरणं पापमिन्द्रियमुपगच्छति ।।
१५ ।।
विमत (ईश्वर से अतिरिक्त अन्य) का
आचरण जो भी है उसे पाप रूप ही -समझना चाहिए । वस्तुत: विमत (अन्य का चिन्तन या मनन
) पाप बुद्धि को ही जन्म देता है ।। १५ ।।
निरावरणमेवैतद्ध्यानाभ्यासः प्रपद्यते
।
नियम्य चेन्द्रियाण्यादौ अभ्यासेन दृढीयसा
।। १६ ।।
बिना [ पापबुद्धि रूप ] 'आवरण के ही ध्यान [या तप] का अभ्यास होता है। अतः सबसे पहले [लौकिक चिन्तन
से] इन्द्रियों को रोक कर उसे [ अपने मन को ] अभ्यास के द्वारा दृढ करना चाहिए ।
१६ ॥
यदा सर्वेन्द्रियाणां च नियमं
कर्तुमक्षमः ।
रसनेन्द्रियमेवैकं जयं सर्वजिगीषया
॥ १७ ॥
जब साधक यह समझे कि सभी इन्द्रियों
का नियमन नहीं हो सकता तो सभी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने की इच्छा से उसे मात्र रसना इन्द्रिय पर विजय
प्राप्त करनी चाहिए ॥ १७ ॥
जिते रसे जितः कामः जिते कामे
जितेन्द्रियः ।
जितजिह्वोपस्थरतेर साध्यं किं तु
विद्यते । १८ ॥
रसना के एकमात्र नियमन से वह 'काम' को जीत लेता है । फिर जब 'काम' को जीत लिया तो जितेन्द्रिय हो जाता है,
क्योंकि जिह्वा और उपस्थ में रत व्यक्ति के लिए सभी कुछ असाध्य हो
जाता है ॥ १८ ॥
सिसृक्षोर्ब्रह्मणः पूर्वं
स्तनाद्धर्मो विनिर्गतः ।
वृषरूपश्च तुर्वेदचतुःपादः शुभाकृति
।। १९ ।।
सृष्टि की इच्छा वाले ब्रह्मा से पहले
उनके स्तन से धर्म की ही उत्पत्ति हुई । यह धर्मं वृषभ रूप शुभ आकृति वाला है
जिसके चार पैर चार वेद हैं ।। १९ ।
ज्ञानं वैराग्यमत्युग्र यस्य
शृङ्गद्वयं प्रिये ।
सत्यं तपः कर्णयुग दमो दानं तु
चक्षुषी ॥ २० ॥
हे प्रिये ! इस धर्म रूपी वृषभ के
दो उग्र सींग ज्ञान और वैराग्य ही हैं। सत्य और तप दोनों कान हैं और दम (इन्द्रिय
नियमन ) और दान इसके दो नेत्र हैं ॥ २० ॥
लांगूलमस्य चैश्वयं रोमावलिः
पुण्यसन्ततिः ।
तेन स्पृष्टाः प्रजाः सर्वाः
शुद्धसत्वा बभूविरे ॥ २१ ॥
इसकी पूछ ऐश्वर्यं ( समृद्धि ) है
और पुण्य राशि इस धर्म रूप वृषभ की रोमावलि है । इस धर्मं रूप वृषभ का स्पर्श करके
ही सभी प्रजा शुद्ध मन वाली हुई ॥ २१ ॥
ज्ञानवैराग्य सम्पन्ना मोक्षमार्गपरायणाः
।
तं दृष्ट्वा भगवान् ब्रह्मा
पश्चात्पापमथासृजत् ।। २२ ।।
ज्ञान एवं वैराग्य से सम्पन्न
मोक्षमार्ग में परायण उन प्रजा जनों को देखकर फिर भगवान् ब्रह्मा ने 'पाप' का सृजन किया ।। २२ ।।
स पाप्मा महिषाकारस्तमोभूतः शरीरिषु
।
अज्ञानं चाप्यनैश्वर्यमवैराग्यमधर्मकम्
।। २३ ।।
चत्वारस्तस्य वै पादा छलद्रोही शृङ्गद्वयम
।
क्रोधमोहौ कर्णयुगं कामलोभी हि
चक्षुषी ॥ २४ ॥
वह पाप तमोभूत शरीरों में महिष
(भैंस) के आकार में उत्पन्न हुआ। उस पापरूप महिष के अज्ञान,
अनैश्वर्य, अवैराग्य और अधर्म रूप चार पैर हैं
। छल और द्रोह उसके दो सींग हैं। क्रोध और मोह उसके दो कान हैं, काम और लोभ उसके दो नेत्र हैं ।। २३-२४ ।।
मात्सर्यमुग्रलांगूलं ब्रह्महत्या शिरोऽस्य
च ।
सुरापानं च हृदय कटिः स्यादुपपातकम्
।। २५ ।।
उसकी उग्र पूঁछ मात्सर्य ( ईर्ष्या-द्वेष)
हैं और इस पाप रूप महिष का सिर ब्रह्महत्या है। इसके हृदय सुरा पान है और अन्य
अनेक उपपातक उसके कटि प्रदेश हैं ।। २५ ।।
तेन स्पृष्टाः प्रजाः सर्वा
नष्टसत्त्वा मलीमसा ।
ज्ञानवैराग्यरहिताः काम्यकर्मकृतश्रमाः
॥ २६ ॥
उस [ पाप रूप तमोगुणी महिष] का
स्पर्श करके सभी प्रजा तब मलिन मन वाली [तमोगुणी] हो गई यह प्रजा ज्ञान एवं
वैराग्य से रहित और काम्य कर्मों में ही श्रम करने वाली हुई । २६ ॥
आसुरेष्वेव भावेषु व्यसज्जन्त
विमोहिताः ।
तस्मात तु परिज्ञाय देहेन्द्रियचरं
प्रिये । २७ ।।
स्वाचारमाचरेत्प्राज्ञो यथा
स्यादुज्ज्वलात्मधीः ।
उज्ज्वलत्व तदा बद्धेः समं पश्यति
वै यया ॥ २८ ॥
वे सभी आसुरी प्रवृत्तियों में
आसक्त होकर मोहग्रस्त हो गए। अतः, हे प्रिये ! उनको
देह और इन्द्रियों में ही आसक्त जानकर प्रज्ञावान् साधक को अपने [ धर्म के अनुरूप
] आचार का आचरण करना चाहिए, जैसे कि ज्ञान से उज्ज्वल आत्मा वाले
बुद्धिमान व्यक्ति करते हैं। बुद्धि का निर्मल होना तभी जानना चाहिए जब सभी
[स्थावरजङ्गम] को वह समभाव से देखता है ।। २७-२८ ।।
सुखेषु विद्यमानेषु दुःखशोकभयादिकम्
।
पश्यन् विरमते तेषु शुद्धत्वं च तदा
धियः ॥ २९ ॥
बुद्धि की शुद्धता तभी दृष्टिगोचर
होती है जब सुख और दुःख के आने पर दुःख, शोक
एवं भय आदि से रहित संसार को [ उसमें आसक्त न होते हुए ] देखे ।। २९।।
न व्यथेन्दिया चित्त हर्षते न च
सस्तुवैः ।
उदासीनोरिमित्रेषु साम्य
बुद्धिस्तदोज्वला ॥ ३० ॥
निन्दा से चित्त दुःखी न हो और
स्तुति से मन हर्षित भी न हो, शत्रुओं में उदासीन
भाव रखे । अन्ततः [सुख-दुःख में] बुद्धि की साम्यावस्था जब हो तभी बुद्धि को
निर्मल समझना चाहिए ॥ ३० ॥
अलोलुपत्वमास्तिक्यं मुमुक्षुत्वं
गंभीरता ।
प्रसादा स्वात्मना सौख्यं
लोकसङ्गनिवर्त्तनम् ॥ ३१ ॥
एकान्तसेवाभिरुचिर् दम्भमानविवज्जनम
।
एतानि यत्र जायन्ते तस्य बुद्धिः
समुज्ज्वला ॥। ३२ ।।
[ एक सफल साधक के गुण हैं उसका
विषयों के प्रति ] लोलुप न होना, आस्तिक बुद्धि,
मोक्ष की इच्छा, गम्भीरता, प्रसन्नता, अपने में ही सुख का अनुभव करना और लौकिक
सङ्गति का परित्याग, दम्भ एव मान से रहित होकर एकान्त में [
भगवान् की ] सेवा में अभिरुचि होना - यदि ये सभी तत्त्व साधक में आ जायें तो समझना
चाहिए कि उसकी बुद्धि उज्ज्वल हो गई है ।। ३१-३२ ॥
आचारसेवनस्येह बुद्धिशुद्धिः परं
फलम् ।
शुद्धायां ततो बुद्धौ
लीलाध्यानेऽर्हतां व्रजेत् ।। ३३ ।।
आचार के सेवन का सबसे श्रेष्ठ फल है
बुद्धि का शुद्ध हो जाना। उसके बाद बुद्धि के शुद्ध हो जाने पर भगवान् के लीला
[विग्रह] का ध्यान करने के लिए बुद्धि योग्य हो जाती है ॥ ३३ ॥
शास्त्रदुष्ट भावदुष्टं लोकदुष्टमथापि
वा ।
वर्जये मतिमान् देवि
सत्वशुद्धिविधित्सया ॥ ३४ ॥
[विषयों के प्रति आसक्त करने वाले ]
दुष्ट अर्थात् दुर्बुद्धि देने वाले शास्त्रों का, दुर्बुद्धि वाले भावों का और दुर्बुद्धिदायक लोक [ व्यवहार ] का बुद्धिमान
साधक को सात्त्विक बुद्धि की इच्छा से, हे देवि ! सर्वथा
त्याग करना चाहिए ॥ ३४ ॥
गुहघशौचं पादशौचं हस्तशौच महेश्वरि
।
मुखशौच चतुर्थं च कुर्यात्सर्वत्र सर्वदा
॥ ३५ ॥
हे महेश्वरि ! गुह्याङ्ग की शुद्धि,
पैर की शुद्धि, हाथों की शुद्धि और चौथी मुख-
शुद्धि सदैव एवं सर्वत्र करना चाहिए ।। ३५ ।।
उच्छिष्टो न स्पृशेत् क्वापि
सेवाद्रव्याणि शाम्भवि ।
प्रणम्य प्रविशेत्स्थानं
निर्गच्छेच्च प्रणम्य च ॥ ३६ ॥
कहीं भी,
हे शम्भु की पत्नि ! उन सेवा द्रव्यों को जूठे हाथ से नहीं छूना
चाहिए। भगवान् के सेवा स्थान में प्रणाम करके प्रवेश करे तथा प्रणाम करके ही लोटना
चाहिए ।। ३६ ।।
निष्ठीवनं प्रलापं च
अधोवायुविसर्जनम् ।
औदासीन्यं भयं क्रोधं न
कुर्यात्तत्र संस्थितः ॥ ३७ ॥
[पूजा स्थान में] थूकना,
बातचीत करना और अधोवायु का त्याग करना, [पूजा
में] उदासीनता तथा भय एवं क्रोध भी वहाँ रहकर न करे ॥ ३७ ॥
यथावर्णं यथाज्ञानं
यथाज्येष्ठकनिष्ठकम् ।
तथैवोपविशेत्तत्र रागद्वेषविवजितः
।। ३८ ।।
वहीं [ पूजा स्थान में] वर्ण के
अनुसार [पहले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तब शूद्र ] ज्ञान के अनुसार [पहले ज्ञानी लोग और बाद में अज्ञानीजन]
और छोटे-बड़े के भेदानुसार उसी प्रकार से राग एवं द्वेष से रहित हो बैठना भी चाहिए
।। ३८ ।।
न निन्देन्मनसा वाचा कुमारीं
ब्राह्मणं गुरुम् ।
दया भूतेषु कर्त्तव्या न
हिस्यात्कमपि प्रिये ।। ३९ ।।
मन एवं वाणी से कुमारी ब्राह्मण तथा
गुरु की कभी भी निन्दा नहीं करनी चाहिए । हे प्रिये ! प्राणिमात्र पर दया करनी
चाहिए। उनकी हिंसा तो कभी भी न करे ।। ३९ ॥
सर्वं सहेत परुषं
देहानित्यत्वभावनात् ।
देह गेहकलत्राप्तमित्रद्रविणसम्पदः ॥
४० ॥
स्वप्न विद्युन्निभाः
पश्येन्नात्मानं तत्र सज्जयेत् ।
असदासक्तिवशता संसारो न निवर्त्तते
।। ४१ ।।
देह के अनित्यता को जानकर सभी कठोर
वाक्यों को सह लेना चाहिए। शरीर, गृह, स्त्री, विश्वासपात्र - मित्र, धन एवं सम्पत्ति को स्वप्न तथा बिजली की कौंध के समान क्षणिक समझना चाहिए।
उनमें अपनी बुद्धि को कभी आसक्त नहीं करना चाहिए। क्योंकि असत्य में आसक्ति के
कारण साधक संसार ( के मोह जाल ) से छूट नहीं पाता ।। ४०-४१ ।।
दानं दमो दया चेति न त्याज्यं
सर्वथा त्रयम् ।
असत्यं न वदेद्वाक्यं वाचोऽपि मरणं
हि तत् ॥ ४२ ॥
दान, दम (= जितेन्द्रियत्व ) और दया- इन तीन का सर्वथा त्याग नहीं करना चाहिए।
कभी भी असत्य वाणी न बोले, क्योंकि उसमें वाणी मृत हो जाती
है ।। ४२ ।।
मृता वाक् नहि योग्या स्याद्
गुणालापे परेशितुः ।
न परस्त्रीमुखे क्वापि दृष्टि
भोगेच्छया छिपेत् ॥ ४३ ॥
मृत-वाणी परम पिता परमेश्वर की आराधना
के लिए तथा उनके गुणों के कीर्तन में योग्य नहीं होती है। कभी भी भोग की इच्छा से
परस्त्री में दृष्टिपात भी न करे ॥ ४३ ॥
स्वस्मिन्
स्त्रीभावनानश्येत्तस्मात्पातकमेव तत् ।
निर्विकाराणीन्द्रियाणि जातमात्र
शिशोर्यथा ।। ४४ ।।
फिर, अपने मन के स्त्री-भाव को [ अर्थात् 'यह स्त्री है'
या यह पुरुष है' - इस प्रकार के भेद को ] नष्ट
ही कर देना चाहिए क्योंकि उससे वही पातक होता है। उसे तो निर्विकार रूप से
इन्द्रियों को पैदा हुए शिशु के समान [भेदरहित] हो देखना चाहिए ॥ ४४ ॥
ललनावृन्दमध्यस्थस्यापि चेतो द्विधा
नहि ।
सखीभावः स्थिरस्तस्य विशुद्धश्व
प्रियंवदे ॥ ४५ ॥
हे प्रियवादिनि! उस [शुद्ध] साधक का
चित्त स्त्रियों के बीच में रहकर भी द्विधा [स्त्री-पुरुष] बुद्धि नहीं प्राप्त
होता है और वह उनके बीच सखीभाव से स्थिर चित्त होकर विशुद्ध रहता है ॥ ४५ ॥
विशुद्धस्त्रीस्वभावा ये दृश्यन्ते
पुरुषा अपि ।
निश्चयादवगन्तव्या प्रिया भगवतो हि
ते ।। ४६ ।।
जो विशुद्ध स्त्री स्वभाव वाले
पुरुष होते हैं तो निश्चय रूप से यह जान लेना चाहिए कि वे भगवान् के प्रिय हो होते
हैं ॥ ४६ ॥
स्त्री दुष्टान् समयभ्रष्टान्
भावनाविमुखान् शठान् ।
नास्तिकान् दुर्नयान्दुष्टान्
परस्त्रीगमनोत्सुकान् ॥ ४७ ॥
विरोधिनः क्रूरचित्तान्
श्रद्धाप्रेमविवर्जितान् ।
असदालापकान् देवि न
पंक्त्यामुपवेशयेत् ॥ ४८ ॥
न पिबेत्तत्र पानीयमेकपात्रेण
कर्हिचित् ।
पादुकावसनं शय्याशयनासनसंस्थितिम्
।। ४९ ।।
न कुर्यादेव तैः साकं दोषावेशोन्यथा
भवेत् ।
उस साधक को,
स्त्रियों में पाप रखने वाले, भ्रष्ट
प्रतिज्ञा वाले, [भेद रहित] भावना से विमुख, शठों, नास्तिकों, दुर्बुद्धि
रखने वाले दुष्टों, परस्त्री संगम के लिए उत्सुक, दूसरों से विरोध रखने वाले, क्रुद्ध चित्त तथा
श्रद्धा एवं प्रेम से रहित और असत्य बोलने वाले लोगों के बीच, हे देवि कभी भी नहीं बैठना चाहिए। [ यदि किसी प्रकार रहना भी पड़े तो ]
वहाँ एक ही पात्र में पानी तो नहीं ही पीना चाहिए। उनका पहना हुआ जूता, उनके बस्त्र या शम्या तथा बिछोने का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि
ऐसा करने से उनके साथ वह भी उनके दोष का भागीदार बन जाता है ।। ४७-५० ।।
अदृष्टपुरुषर्देवि देशान्तरनिवासिभिः
॥ ५० ॥
इन्द्रियार्थं रतैर्दम्भ च्छलेनापि
समागतेः।
न स्थितिः सह कर्त्तव्या
परानन्दोत्सवे प्रिये ॥ ५१ ॥
अस्नातोऽधौतपादो वा हयनाचारो
भयाकुलः ।
हे देवि ! अनजाने पुरुषों के साथ,
अन्य देश के निवासी व्यक्तियों के साथ मात्र इन्द्रिय की तृप्ति में
रत लोगों के साथ, दम्भ और छल से आए व्यक्तियों के साथ तथा
उनके आनन्दोत्सव में भी, हे प्रिये नहीं रहना चाहिए ।। ५१-५२
अ।।
अधीतवसनो वापि नोत्सवं
प्रविशेत्क्वचित् ।। ५२ ।।
स्नानविहीन,
पादप्रक्षालन से रहित, अनाचारी अथवा भय से
व्याकुल, वस्त्र न धोने वाले के भी साथ कभी भी उत्सव में
प्रवेश न करे ।। ५२ ।
उत्सवे गुणगानादि कुर्यात्कृष्णकथाः
शुभाः ।
न लौकिकीं कथा कुर्याद्विवदेन्न
परस्परम् ।। ५३ ।।
यदि उत्सव में जाए भी तो भगवान् के
गुण-गान आदि को करे, अथवा कृष्ण को
कल्याणकारी कथाओं को ही कहे। लौकिक कथा वार्ता तो कदापि न करे और परस्पर विवाद भी
न करे ।। ५३ ।।
न मर्माणि वदेद्देवि न
चोपद्रवमाचरेत् ।
परस्परं तु देवेशि स्वात्म्यंक्यं
भावयेद्धिया ॥ ५४ ॥
कभी [कथा वार्ता के अतिरिक्त ] अन्य
लौकिक मर्म की गोपनीय बातें भी न करे । हे देवि ! [ कभी भी किसी प्रकार के क्रोध
में आकर ] उपद्रव भी नहीं करना चाहिए । हे देवेशि ! ज्ञान से परस्पर एक दूसरे को
अपना ही स्वजन समझना चाहिए ॥ ५४ ॥
रवेशस्तदाभूयान्निविकारा यदा
स्थितिः ।
तस्मात्तत्प्रवणं चेतः प्रकुर्वीत
महोत्सवे ॥ ५५ ॥
जब निर्विकार की स्थिति हो तब रस का
आवेश होता है । इसलिए [ कृष्ण ] महोत्सव में उस परब्रह्म परमात्मा में ध्यान लगाकर
चित्त को कृष्ण में लीन करना चाहिए ।। ५५ ।।
विपलम्
ध्यायन्ति केचन निमीलितपक्ष्मभारा
गर्जन्ति हेतिपरिलब्धगुरुप्रमाणाः ।
नृत्यन्ति तद्रसविलीन मनोरथार्था
भक्त्या द्रवन्त इव दुक्कमलैगलद्भिः
।। ५६ ॥
[ कृष्ण का ध्यान इस प्रकार है - ] कुछ
भक्त जन [कृष्ण का आनन्द में विभोर होकर ] अर्धनिमीलित नेत्रों से
ध्यान करते हैं कुछ में गर्जन करते
हैं,
कुछ उन्हीं कृष्ण के आनन्द रस में विलीन मनोरथ वाले होकर नृत्य करते
हैं - इस प्रकार [ भक्ति रस के उद्रेक से ] नेत्र कमलों से गिरे हुए मानों रस का
पान करते हैं ॥ ५६ ॥
तद्धयानदृष्टपदहृष्ट धियः प्रसन्नाः
स्वानन्दसागरसमुच्छलदच्छभावाः ।
रोमाञ्चक चुकविचित्रतनुप्रदेशा
जानन्ति नेदमखिलं च विभिन्नलिङ्गाः
॥ ५७ ॥
उन कृष्ण के ध्यान से हर्षित हृदय
वाले भक्त प्रसन्न होकर मानो स्वानन्द के निर्मल भाव- सागर में हिलोरे लेते हैं ।
भक्ति रस के कारण रोमान्चित होकर विचित्र शरीर वाले वे [आत्मविभोर होने से ] इस
विभिन्न शरीरधारी अखिल जगत् को नहीं जानते हैं अर्थात् भूल जाते हैं ।। ५७ ।।
यज्जातमुत्सवे किञ्चित् वृत्तान्तं
साध्वसाधु वा ।
हृदयाद्विस्मृतमिव बहिर्नैवप्रकाशयेत्
।। ५८ ।।
उस कृष्ण - महोत्सव में जो कुछ भी
अच्छा या खराब वृत्तान्त अनुभूत हो उसे हृदय में ही विस्मृत के समान रखकर कदापि
बाहर न प्रकाशित करे ॥ ५८ ॥
यथावर्णविभेदेन स्वीकुर्याच्च निवेदितम्
।
पृथगासनपात्राणि कारयेत् सुरवन्दिते
।। ५९ ।।
वर्ण विभेद के अनुसार निवेदित
प्रसाद को स्वीकार करना चाहिए । हे सुरवन्दिते ! उनके आसनों एवं पात्रों को अलग
रखना चाहिए ॥ ५९॥
परस्परं प्रणमेदेवं
कुर्यान्महोत्सवोत्सवम् ।
स्वपुत्रस्त्रीजन्मदिने गुरोर्जन्मविपर्यये
॥ ६० ॥
परस्पर एक दूसरे को प्रणाम करना
चाहिए इस प्रकार अपने पुत्र या स्त्री के जन्म दिन पर या अपने से बड़ों के जन्म
दिन पर कृष्ण का महोत्सव रूप उत्सव मनाना चाहिए ॥ ६० ॥
मङ्गले सम्पदाधिक्ये लाभे भक्तसमागमे
।
व्यतीपाते तथाष्टम्यामेकादश्यां च
संक्रमे ॥ ६१ ॥
फिर कब उत्सव करें - इसका विधान
करते हैं— मङ्गल में, धनाढ्यता में अथवा घन के लोभ में,
भक्तों के आगमन पर व्यतीपात [महान् संकट ] तथा अष्टमी और एकादशी के
संक्रमण काल में महोत्सव करना चाहिए ॥ ६१ ॥
पुष्यार्के चैव हस्तार्के ग्रहणे
चन्द्रसूर्ययोः ।
कृष्णजन्माह्नि देवेशि राधाजन्मदिने
तथा ।। ६२ ।।
पुष्य नक्षत्र में जब सूर्य हो या
हस्त नक्षत्र में सूर्य के होने पर और चन्द्र एवं सूर्य के ग्रहण के अवसर पर
महोत्सव करे । हे देवेशि ! कृष्ण जन्म और राधा के जन्म दिन पर महोत्सव करना चाहिए
॥ ६२ ॥
अवतारदिनेष्वेवं विष्णोरमिततेजसः ।
चेत्रे शुक्लस्य पञ्चम्यां
भगवान्मीनरूपधृक् ।। ६३ ।।
ज्येष्ठे शुक्ले द्वादश्यां ततः
कूर्मस्वरूपधृक् ।
कृष्णनवम्यां तु हरिर्वाराहरूपधृक्
॥ ६४ ॥
वैशाखे शुक्लपक्षे तु चतुर्दश्यां
दिनक्षये ।
प्रादुर्बभूव
नृहरिर्भरक्षार्थमुद्यतः ॥ ६५ ॥
अत्यन्त तेज युक्त विष्णु के
विभिन्न अवतार के दिनों में भी महोत्सव करना चाहिए। उन अवतारों में मत्स्यावतार का
दिन चैत्र शुक्ल पञ्चमी है। उसके बाद कूर्मावतार का दिन ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी है।
चैत्र कृष्ण नवमी को विष्णु ने भगवान् बाराह का अवतार धारण किया था । वैशाख शुक्ल
पक्ष की चतुर्दशी के दिन भक्त [ प्रह्लाद की रक्षा के लिए उद्यत हो [स्तम्भ में
से] भगवान् नृसिंह प्रगट हुए थे ।। ६३-६५ ॥
वैशाखे शुक्लपक्षे तु तृतीयायां गिरीन्द्रजे
।
जमदग्निसुतो रामो रेणुकायामजीजनत्
।। ६६ ॥
हे हिमालय की पुत्रि ! वैशाख मास के
शुक्लपक्ष की तृतीया को जन्मदग्निसुत पशुराम को माता रेणुका ने जन्म दिया ।। ६६ ॥
मासि भाद्रपदे देवि शुक्ले चंकादशी
तिथिः ।
अदित्यां कश्यपाज्जातो वामनः
सुरकार्यकृत् ।। ६७ ॥
हे देवि ! भाद्रपद मास में
शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि को भगवान् वामन को देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए
कश्यप से अदिति ने जन्म दिया था ॥ ६७ ॥
चैत्रे शुक्लनवम्यां तु रामो
दशरथात्मजः ।
रावणस्य वधार्थाय कौशल्यायां परः
पुमान् ॥ ६८ ॥
दशरथ के पुत्र भगवान् राम ने चैत्र
मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को कौशल्या में प्रगट होकर रावण के वध के लिए
श्रेष्ठ पुमान रूप अवतार ग्रहण किया ।। ६८ ।।
श्रावणे बहुले पक्षे अष्टम्यां च
महानिशि ।
कृष्ण: प्रादुरभूद् देवि
सुरकार्यचिकीर्षया । ६९॥
भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी
तिथि को मध्य रात्रि में देव कार्य की इच्छा से, हे देवि ! भगवान् कृष्ण प्रादुभूत हुए ।। ६९ ।।
नभसे तु द्वितीयायां
बलभद्रोऽभवद्धरिः ।
पौषशुक्ले तु सप्तभ्यां बौद्धः
प्रादुर्भविष्यति ॥ ७० ॥
श्रावण मास [शुक्ल] द्वितीया को
बलभद्र के रूप में हरि हुए। पौष शुक्ल सप्तमी को बौद्धावतार होगा ॥ ७० ॥
माघशुक्ल तृतीयायां कल्की
प्रादुर्भविष्यति ।
एतेष्वन्येषु पुण्येषु दिवसेषु विशेषतः
।। ७१ ॥
प्रकुर्यादुत्सवं देवि वित्तशाठ्यविवर्जितः
।
नोत्सवो भक्ष्यभोज्याद्येनं
पुष्परचनादिभिः ।। ७२ ।।
रसावेशो भवेद्यत्र तमाहुः परमोत्सवम्
।
निर्विकारं भवेच्चित्तं
भगवज्ज्ञानगोचरम् ॥ ७३ ॥
माघ शुक्ल तृतीया को कल्की अवतार
होगा। इस प्रकार इन अवसरों पर और अन्य भी पुण्य दिनों में विशेष रूप से हे देवि !
वित्त की शठता से रहित होकर (निःसंकोच खर्च कर) उत्सव मनाना चाहिए । भक्ष्य और
भोज्य वस्तुओं से या माला फूल की सजावट से उत्सव नहीं होता है अपितु जहाँ आनन्द रस
का आवेश हो (भक्ति हो) उसी को श्रेष्ठ उत्सव कहा जाता है । भगवान् के ज्ञान के
अनुभव से भक्त का चित्त निर्विकार हो जाता है ।। ७१-७३ ।।
प्रेमैकरसिकं शुद्ध तत्रावेशो
भवेद्ध्रुवम् ।
उत्सवे देवदेवेशि त्रिविधेव जनसङ्गमः
॥ ७४ ॥
प्रियाणां वासनाश्चको देवसर्गों
द्वितीयकः ।
तृतीयो गौतमः शप्ता ये च बंडालिनः
स्मृताः ॥ ७५॥
जिस उत्सव में शुद्ध रूप से मात्र
प्रेम रस के रसिक जन होते हैं वहाँ निश्चित रूप से रस का आवेश (आधिक्य) होता है ।
हे देव-देवेशि ! इस प्रकार के उत्सव में तीन प्रकार का जनसङ्गम होता है- पहला
प्रिय लोगों की वासना वाला, दूसरा देवसर्ग,
तीसरे गौतम ऋषि से अभिशप्त वनावटी हैं जिन्हें बैडालिन् कहा जाता है
।। ७४-७५ ।।
वासनासु रसावेशः शुद्धो नैवात्र
संशयः ।
देवेषु देवतावेशो
भगवत्प्रेमवत्स्वपि ॥ ७६ ॥
[प्रेम] वासना वाले जन समुदाय में निश्चित ही
शुद्ध रस का आवेश होता है । भगवत् प्रेम से युक्त देवों के जन समुदाय में देवता का
आवेश होता है ।। ७६ ।।
प्रेमहीना दुराचाराः
परस्त्रीधनलम्पटा ।
पिशुनाः वञ्चकाः क्रूराः कुटिलाः
पापचारिणः ॥ ७७ ॥
आचाररहिता दृष्टा निर्लज्जाः
कलहोत्सुकाः ।
आसुरं भावमापन्ना
वेदशास्त्रार्थनिन्दकाः ॥ ७८ ॥
ते वै वेडालिनो देवि
ह्यधिकारविवर्जिताः ।
असुरावेशिणस्ते तु
मयोक्तमवधार्यताम् ।। ७९ ।।
कुछ लोग जो प्रेम से रहित,
दुराचारी, परस्त्री के लिए लोलुप, चुगलखोर, वक (घोखेवाज), क्रूर,
टेढीबुद्धि के पाप में रत, आचार से रहित,
दुष्ट, लज्जा- रहित, कलह
के लिए उत्सुक एवं आसुरी प्रवृत्ति वाले वेदशास्त्र के निन्दक होते हैं वे वेडालिन
कहे जाते हैं । हे देवि ! उत्सव के लिए वे अनधिकारी हैं। वे तो असुर प्रवृति से
आवेशित होते हैं। यह मेरा कहना तुम मानों ।। ७७-७९ ।।
जानीयात्तत्तदावेश ततच्चेष्टानुरूपतः
।
इत्येतान् त्रिविधान् ज्ञात्वा
महोत्सवगतान् शिवे ॥ ८० ॥
व्यवहार्यं यथायोग्यं सङ्करो न
भवेद्यथा ।
यथायोग्यं यथाकालं यथाद्रव्यं
यथोचितम् ।। ८१ ।।
तथा कुर्यान्महेशानि हघन्यथा पतितो
भवेत् ।
इति तेऽभिहितं देवि किं भूयः
श्रोतुमिच्छसि ।। ८२ ।।
तदहं ते प्रवक्ष्यामि सुगुह्यमपि
विस्तरात् ॥ ८३ ॥
इस प्रकार उन-उन के अच्छे बुरे
भावावेश को जानकर उनकी चेष्टा के अनुरूप व्यवहार करे । हे शिवे ! महोत्सव में आए
हुए इन तीन प्रकार के जन समुदाय को जानकर जैसा हो वैसा व्यवहार करे। इससे सभी
अच्छे-बुरे का संकट नहीं होता है । यथायोग्य व्यक्ति के देशकाल के अनुसार,
उचित द्रव्य के अनुसार ही व्यवहार करे। हे महेशानि! इससे वह पतित
नहीं होता है । हे देवि ! यह तो मैंने तुम्हें बतलाया है अब और क्या सुनना चाहती
हो? यदि वह गोपनीय भी हुआ तो मैं तुमसे उसे विस्तारपूर्वक ही
कहूँगा ।। ८०-८३ ।।
॥ इति श्री माहेश्वरतन्त्रे
उत्तरखण्डे शिवोमासंवादे सप्तविंशं पटलम् ॥ २७ ॥
॥ इस प्रकार श्री नारदपञ्चरात्र
आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञानखण्ड ) में माँ
जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के सत्ताईसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय
कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई
॥ २७ ॥
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 28

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