माहेश्वरतन्त्र पटल २६
माहेश्वरतन्त्र के पटल २६ में साधनों का निर्णय, माहेश्वर तन्त्र और उसके प्रयोजन की कथा, अनधिकारी विवेचन का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल २६
Maheshvar tantra Patal 26
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल २६
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र छब्बीसवाँ पटल
माहेश्वरतन्त्र षडविंश पटल
अथ षडविंशं पटलम
पार्वत्युवाच -
महेश श्रोतुमिच्छामि साधनानां
विनिर्णयम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण सर्वं हि सफलं
भवेत् ॥ १ ॥
पार्वती ने कहा-हे महेश ! मैं
साधनों का विशेष निर्णय आपसे सुनना चाहती हूँ जिसके श्रवण- मात्र से ही सभी कार्य
सफल हो जाते हैं ॥ १ ॥
श्रीशिव उवाच –
श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि साधनस्य
विनिर्णयम् ।
गुह्याद्गुह्यतरं साक्षान्न वाच्यं
यस्य कस्य कस्यचित् ॥ २ ॥
शिवजी ने कहा- हे देवि ! सुनो,
मैं साधनों का विशेष निर्णय एवं विधान, जो
रहस्य से भी रहस्यतर है और जिसे साक्षात् रूप से जिस किसी से कहना भी नहीं चाहिए,
तुमसे कहूँगा ॥ २ ॥
तन्त्रार्थोऽयं रहस्यार्थो यस्तु
वेदेषु गोपितः ।
ईश्वरात्त मया लब्धः प्राप्तस्तेन
सदाशिवात् ॥ ३ ॥
यह तन्त्र सम्बन्धी विधान है जिसका
रहस्य अत्यन्त संगोपित और वेदों में छिपा हुआ है। मुझे भी यह ज्ञान ईश्वर से
प्राप्त हुआ था। जिसे ईश्वर ने सदाशिव से प्राप्त किया था ॥ ३ ॥
मञ्चे फलकमापन्नो लक्षयोजनविस्तृते
।
सदाशिवोऽशृणोदेतत्कूटस्थोपरिसंस्थया
॥ ४ ॥
एक लाख योजन विस्तृत फलक पर बैठे
हुए मंच पर कूटस्थ एवं संस्थित चित्त होकर सदाशिव ने इसे सुनाया था ॥ ४ ॥
इच्छाशक्त्या तु देविशि वर्ण्यमानं
मया रहः ।
तच्च ते गदितं साध्वि शृण्वतः
परमप्युत ॥ ५ ॥
हे देवेशि ! मेरी इच्छा शक्ति से यह
एकान्त में कहने योग्य है । फिर भी हे साध्वि ! उसे मैं तुमसे कहता हूँ,
सुनो ॥ ५ ॥
एकदा मे वितर्कोऽभूद्विजने स्मरतः
प्रिये ।
अहमेवेश्वरो लोके मदन्यो वापि कश्चन
।। ६ ।
एक बार एकान्त स्थान में चिन्तन
करते हुए,
हे प्रीये ! मुझे मन में वितर्क हुआ कि मैं ही संसार का स्वामी हूँ
या मुझसे अन्य भी कोई है ॥ ६ ॥
इति तर्कयता देवि समाधिहि मया धृतः
।
तस्मिन् युगसहस्राणि व्यतीयुः पञ्च
सुन्दरि । ७ ॥
हे देवि ! ऐसा सोचते हुए समाधिस्थ
हो गया और हे सुन्दरि ! उस समाधिस्थ अवस्था में पाँच हजार युग बीत गए ॥७॥
समाधिस्थेन देवेशि
श्रुतमीश्वरभाषितम् ।
तच्छ्रुत्वा हृदयं देवि
निर्विकल्पमभून्मम ॥ ८ ॥
हे देवेशि ! उस समाधि में मैंने
ईश्वर के वचन सुने और उसे सुनकर हे देवि मेरा हृदय निर्विकल्प हो गया ॥ ८ ।
तदाप्रभृति देवेशि लीलामेनां रहः
स्थितः ।
ध्यायामि ध्यानयोगेन निर्विकल्पेन चेतसा
।। ९ ।।
तभी से,
हे देवेशि ! एकान्त में रहकर मैं इनकी लीला का ध्यान निर्विकल्प चित्त
से किया करता हूँ ॥ ९ ॥
समाधावीश्वरेणोक्तमिदं तन्त्र यतो
मम ।
तस्मान्माहेश्वर तन्त्रमित्येवं
ख्यातिमागतम् ॥ १० ॥
समाधिस्थ अवस्था में ईश्वर ने मुझे
इस ( माहेश्वर) तन्त्र को कहा था। अतः यह 'माहेश्वर
तन्त्र' ( अर्थात् माहेश्वर प्रोक्त तन्त्र ) के नाम से जगत्
में प्रसिद्ध हुआ ।। १० ।।
चतुःषष्टीनि तन्त्राणि मयैबोक्तानि
पार्वति ।
मोहोच्चाटवशीकारमारणार्थान तानि तु
।। ११ ।।
हे पार्वति ! मेरे द्वारा चौसठ
तन्त्र कहे गए हैं, जिनमें मारण,
मोहन एवं उच्चाटन तथा वशीकरण की प्रक्रिया वर्णित है ।। ११ ।।
सद्यः प्रत्यय हेतून
नानामन्त्रमयानि च।
मोहनानि तु लोकस्य
इन्द्रजालकलादिभिः ।। १२ ।।
ये ६४ तन्त्र सद्यः विश्वास के
योग्य तथा नाना मन्त्रों से युक्त हैं । इस प्रकार इन्द्रजाल आदि कलाओं से लोक को
मोहित कर लेने वाली यह विद्या है ॥ १२ ॥
तानि विस्तरतो देवि! तदाग्रे
कथितानि च ।
न तेषु विद्यते किञ्चित्परमार्थं
सुरेश्वरि ।। १३ ।।
हे देवि ! उसी को मैं तुमसे विस्तार
से पहले कह चुका हूँ। किन्तु, हे सुरेश्वरि उसमें
कोई परमार्थ नहीं है ।। १३ ।।
मायिक वर्णितं सर्वं 'मायाजीवोपयोगिकम् ।
इदं माहेश्वरं तन्त्र समाधौ यच्छ्रतं
मया । १४ ॥
प्रबोधसाधनीभूतं प्रियाणामिति मे
मतम् ।
अन्यर्थेश्वर विज्ञानान्नान्य
देतत्प्रयोजनम् ।। १५ ।।
माया में पड़े हुए जीवों के लिए उन
तन्त्रों में मात्र मायावी विद्या का ही वर्णन है । यह माहेश्वर तन्त्र,
जिसे मैने समाधि में सुना था, मेरा यही मत है
कि यह ब्रह्मज्ञान के प्रिय जिज्ञासुओं के ( तत्व ज्ञान ) के प्रबोध का साघनीभूत
है। इस माहेश्वर तन्त्र का ईश्वर के तत्त्वज्ञान के अतिरिक्त कोई प्रयोजन नहीं है
।। १४-१५ ।।
वैष्णवान्यपि तन्त्राणि
पञ्चरात्राभिधानि तु ।
विष्णु प्रोक्तानि
देवेशि पञ्चविंशति संख्यया ॥ १६ ॥
'पञ्चरात्र' नाम से विख्यात अन्य भी विष्णु प्रोक्त वैष्णव तन्त्र हैं, जो हे देवेशि ! संख्या में कुल पच्चीस हैं ॥ १६ ॥
हयशीर्षं तन्त्रमाद्यं तन्त्रं संमोहनं
तथा ।
वैभवं पौष्करं तन्त्र प्रह्लादं
गाग्येगालवम् ।। १७ ।।
नारदीय च श्रीप्रश्न शाण्डिल्य
चेश्वरं तथा ।
सत्योक्तं शौनकं तन्त्र वाशिष्ठं
ज्ञानसागरम् ॥ १८ ॥
स्वायम्भुवं कापिलं च तार्क्ष्य
नारायणीयकम् ।
आत्रेयं नारसिंहाख्य आनन्द च
तथारुणम् ॥ १९ ॥
वैहायसं तथा ज्ञानं विश्वोक्तं चेति
सुन्दरि ।
अत्यन्तस्खलितानाञ्च जनानां वेदमार्गतः
। २० ॥
उनमें प्रथम शीर्षतन्त्र है,
दूसरा संमोहन तन्त्र' है ३. वैभव, ४. पौष्कर-तन्त्र, ५. प्रह्लाद, ६. गार्ग्य, ७. गालव, ८.
नारदीय, ९. श्रीप्रश्न, १०. शाण्डिल्य, ११. ऐश्वरतन्त्र १२. सत्योक्त, १३. शौनक, १४. वसिष्ठतन्त्र, १५. ज्ञानसागर, १६. स्वायम्भुव, १७. कापिल, १८.
तार्क्ष्य, १९. नारायणीय, २०. आत्रेय,
२१. नारसिंह, २२. आनन्द, २३. आरुण, २४. वैहायस, २५.
विश्वोक्त ज्ञान (तन्त्र ) है । इस प्रकार हे सुन्दरि ! ये पच्चीस वैष्णव-तन्त्र
वेदमार्ग से अत्यन्त स्खलित मनुष्यों के लिए कहे गए हैं, क्योंकि
- ॥ १६-२० ॥
पञ्चरात्रादयो मार्गाः
कालेनेवोपकारकाः ।
बौद्धतन्त्राणि देवेशि वर्त्तन्ते
सुबहून्यपि ।। २१ ।।
'पाञ्चश्चरात्र' आदि के मार्ग समय पर ही उपकारक होते हैं । फिर हे देवेशि ! चहुत से
बौद्धतन्त्र भी हैं ॥ २१ ॥
तानि प्रोक्तानि सर्वाणि बौद्धरूपेण
विष्णुना ।
न तत्र धर्मलेशोऽस्ति मोहनानि
दुरात्मनाम् ॥ २२ ॥
वे सभी बुद्ध रूप में विष्णु
प्रोक्त ही हैं । किन्तु उसमें भी धर्म (आचार) का लेश मात्र भी नहीं है । वह तो
मात्र दुरात्माओं के संमोहन के लिए ही है ॥ २२ ॥
अन्ते तु नरकायैव भविष्यन्ति न
संशयः ।
पार्वत्युवाच --
किमर्थं देवदेवेन विष्णुना सत्वमूर्तिना
।। २३ ।।
दयावतापि लोकस्य प्रतारणमहो कृतम् ।
निर्दोषे पुरुषे देव नानृतं
स्यात्कदाचन ॥ २४ ॥
फिर इन मार्गों पर चलने वाले साधकों
को अन्त में नरक ही प्राप्त होता है । इसमें कोई सन्देह नहीं है।
पार्वती ने कहा- सत्त्वमूर्ति,
देवों के देव भगवान् विष्णु ने दयावान् होकर भी क्यों यह लोक के प्रतारण
का कार्य किया ? फिर हे देव ! निर्दोष पुरुष में कभी भी
असत्य नहीं देखा जाता है ।। २३-२४ ॥
केन प्रयुक्तस्तु हरिर्मोहशास्त्रमरीरचत्
।
एतन्मे ब्रूहि सर्वज्ञ सन्देहविनिवृत्तये
।। २५ ।।
मेरे सन्देह की निवृत्ति के लिए,
हे सर्वज्ञ ! बस इतना बताइए कि हरि के द्वारा रचित इस मोहशास्त्र
(तन्त्र) का किसने प्रयोग किया है ? ।। २५ ।।
शिव उवाच --
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कारण मोहकल्पने
।
एकदा विधिविष्णू च
स्वाभिमानावृतान्तरौ ॥ २६ ॥
भगवान् शंकर ने कहा- हे देवि !
सुनो। इस मोह कल्पना का कारण मैं कहता हूँ । एक बार भगवान् विष्णु और ब्रह्मा
स्वाभिमान में अपने को बड़ा कहते हुए झगड़ पड़ ॥ २६ ॥
नित्यं विवदमानो तावन्योऽन्यं
प्रतिचक्रतुः ।
अहं ब्रह्मेति न भवानित्येवं
पूर्णमानिनो ॥। २७ ॥
नित्य एक दूसरे से यह कहते हुए
पूर्ण रूप से मानी हो विवाद करने लग गए कि 'मैं
ब्रह्म हैं, आप नहीं ॥ २७ ॥
क्रुद्धचित्तावुभो देवि शेपतुस्तौ
परस्परम् ।
ब्रह्मोवाच--
यस्मात्त्वं मामवज्ञाय स्वात्मानं
बहु मन्यसे ॥ २८ ॥
अपूज्यस्त्वं तु लोकेषु भविष्यसि न संशयः
।
इत्येव दारुणं शापं निशम्य मधुसूदनः
।। २९ ।।
क्रुद्धः शापं प्रतिददौ त्वमप्येवं
भविष्यसि ।
अन्योऽन्यं शापमाश्राव्य भवितव्येन मोहितौ
।। ३० ।
हे देवि ! वे दोनों परस्पर एक दूसरे
पर क्रोधाभिभूत होकर शाप देने लगे ।
ब्रह्मा ने कहा- क्योंकि आप हमारी
अवज्ञा करके अपने को बहुत मानते हैं, इसलिए
आप लोकों में निसन्देह रूप से पूजनीय नहीं होंगे। इस प्रकार के दारुण शाप को सुनकर
मधुसूदन ने भी क्रुद्ध होकर शाप दिया कि आप भी लोकों में पूज्य न होंगे। होनी के
कारण एक दूसरे को शाप देकर दोनों ही मोह ग्रस्त हो गए । २८ -३० ।।
मामेव शरणं यातौ परिम्लानमुखावुभौ ।
व्यवस्था तु कृता देवि मया शापस्य
वं तयोः ।। ३१ ।
तब दोनों ही म्लान मुख होकर मेरे
शरण में आए। तब हे देवि ! उन दोनों के शाप की मैंने व्यवस्था दी । ३१ ।।
ब्रह्मणो यन्मया प्रोक्त तत्तं
वक्ष्यामि संशृणु ।
ब्रह्मन्नो वैष्णवं वाक्यमन्यथा
भवति क्वचित् ॥ ३२ ॥
तस्मादपूज्यो लोकेषु भविष्यति भवान्
किल ।
पञ्चायतन पूजायां न शापस्ते भविष्यति
।। ३३ ।
ब्रह्मा से जो मैंने कहा,
उसे मैं कहता हूँ, सुनो। हे ब्रह्मन् ! विष्णु
का वाक्य कभी भी अन्यथा नहीं होता। इसलिए आप लोकों में पञ्चायतन की पूजा में
निश्चित ही अपूज्य होंगे ।। ३२-३३ ।।
केवलं भवतः पूजाबाधकं शाप एव हि ।
त्वमेकं वपुराधत्स्व शापस्य विषयं
हरे ।। ३४ ।।
मात्र आप विष्णु की पूजा में यह शाप
बाधक है। इसलिए आप हे हरि, शाप के लिए एक अलग
रूप का विग्रह धारण करिए ॥ ३४ ॥
तत्रैवास्तु च ते शापः सत्त्वमूर्तौ
न सर्वथा ।
एवमुक्ते मया चोभो ययतुः स्वस्य
केतनम् ।। ३५ ।।
उसी एक में आपका शाप होगा। सभी
सत्त्वमूर्ति में शाप नहीं होगा। इस प्रकार मेरे कहने पर दोनों अपने-अपने निवास पर
चले गए ।। ३५ ।।
एतस्मिन्नन्तरे देवि देवासुरमहारण: ।
वभूव तत्र समरे जिता देवः सुरेतराः
॥ ३६ ॥
हे देवि ! इसी अन्तराल में देवों और
असुरों में महान् संग्राम हुआ । उस संग्राम में देवों ने अन्य असुरों को जीत लिया
॥ ३६ ॥
जयोपाय
प्रकुर्वाणास्तपस्तेपुर्महत्तरम्
तपोविनाय तान् देवो वौद्धरूप स्वयं
गतः ।। ३७ ।।
जय के उपाय को खोजते हुए उन्होंने
महान् तप किया। उनके तप में विघ्न डालने के लिए विष्णु ने तब स्वयं बौद्ध विग्रह
धारण किया ।। ३७ ।।
बौद्धतन्त्राणि निर्माय दैत्येभ्यः
समदर्शयत् ।
देहादन्यो न चात्मास्ति न
मुक्तिर्मरणात् परा ॥ ३८ ॥
उसी बौद्ध रूप में बौद्ध तन्त्रों
का निर्माण करके उन्होंने दैत्यों को दिखाया। (उन्होंने वेदविपरीत उपदेश दैत्यों
को देते हुए कहा कि ) शरीर से अन्य और कहीं भी आत्मा नहीं रहता । अतः मरण के बाद
मुक्ति का प्रश्न ही क्या हैं? ।। ३८ ॥
न देवाः पितरः सन्ति मुधा वेदेन
दर्शिताः ।
स्ववृत्तये तु निगमः कल्पितो
ब्राह्मणैरिह ।। ३९ ।।
न तो [स्वर्ग लाक में] देवता हैं,
न [पितृलोक में] पितर ही है। यह सब तो वेद की झूठी कल्पना है। वेद
तो यहाँ ब्राह्मण लोगों के द्वारा अपनी वृत्ति (आजीविका) चलाने के लिए कल्पना
प्रसूत हैं ।। ३९ ।।
सर्वथा न प्रमाणत्वे धार्यः
स्यादसुरेश्वराः ।
एवं तन्त्रेषु नैरात्म्यवादमुख्येषु
मोहिताः ।। ४० ।।
अतः बिना प्रमाण के इस [वेद] को
असुरों को नहीं धारण करना चाहिए। इस प्रकार के नैरात्म्यवाद [ आत्मा की सत्ता न
मानने वाले] प्रधान तन्त्रों में दैत्यों की बुद्धि को विष्णु ने मोह में डाल दिया
॥ ४० ॥
असुराः समसज्जन्त बौद्धमायाहृताशयाः
।
तदा प्रभृति तद्रूप अपूज्यत्वं
हरेर्ययौ ॥। ४१ ।।
इस प्रकार भगवान् बुद्ध की माया से
आहृत बुद्धि वाले असुर मोहग्रस्त हो गए। तभी से हरि का वह बुद्ध रूप [वेद मार्ग के
साधक के लिए ] अपूज्य हो गया । ४१ ।।
बौद्धोपदेशस्य ग्रहो जातश्च परमेश्वरि
।
तस्मात्तदुक्ततन्त्राणि नास्तिवादपराणि
च ।। ४२ ।।
हे परमेश्वरि ! इसीलिए बुद्ध के
उपदेश [वैदिकों के लिए] अग्राह्य हैं । इसीलिए उक्त बौद्ध तन्त्र नास्तिक
हैं।।४२।।
न ग्राह्माणि बुधंदेवि
धर्माधर्मविचारणे ।
इदं माहेश्वरं तन्त्र
सर्वतन्त्रोत्तमोत्तमम् ।। ४३ ।।
हे देवि ! धर्म या अधर्म का विचार
करने वाले विद्वान् को चाहिए कि वह ( ग्राह्य का ही ग्रहण करे) अग्राह्य तन्त्रों
का ग्रहण न करे यह माहेश्वर तन्त्र सभी "तन्त्रों में [तत्त्वज्ञान को बतलाने
वाला] उत्तम तन्त्र ग्रन्थ है ।। ४३ ।।
सामरस्येच्छया शक्त्या
यथाभूतार्थमीरितम् ।
अक्षरस्यासनीभूतस्तन्निशम्य सदाशिवः
॥ ४४ ॥
शक्ति की सामरस्य की इच्छा से जैसा
था वैसा ही मैंने कहा है। सदाशिव के 'अक्षर'
[ब्रह्म] होने के उस रहस्य को अब सुनो ॥ ४४ ॥
प्रोक्तवानीश्वरायंतत्
यथाश्रुतमनिन्दिते ।
समाधावीश्वरः प्राह मह्यं देवि
यथाश्रतम् ।। ४५ ।
हे अनिन्दित ! जैसा मैंने सुना था
वैसा ही इसे ईश्वर के लिए कहा गया है । हे देवि ! मैंने जैसा सुना है कि 'मैं ही शङ्कर समाधी की अवस्था में 'ईश्वर' कहा जाता हूँ' ।। ४५ ।।
मयापि च तव स्नेहादुच्यते नान्यथा
प्रिये ।
त्वया तु गोपनीयं हि न वाच्यं यस्य
कस्यचित् ॥ ४६ ॥
हे प्रिये ! मेरे द्वारा भी यह
रहस्य तुमसे तुम्हारे स्नेह के कारण ही कहा जा रहा है। नहीं तो यह किसी को कहने
योग्य नहीं है । तुम्हें भी इसका गोपन करना चाहिए और जिस किसी से नहीं कहना चाहिए
।। ४६ ।।
एतत्तन्त्रार्थविज्ञाने न सर्वे ह्यधिकारिणः
।
पार्वत्युवाच-
अधिकारविहीनोऽपि यदि चात्र प्रवर्तते
।। ४७ ।।
इस तन्त्र के तत्त्व को जानने के
लिए सभी अधिकारी भी नहीं है ।
पार्वती ने कहा- अच्छा ! यदि
अधिकारविहीन भी इसमें प्रवर्तित हो जाय तो क्या हानि है ?
।। ४७ ।।
निःशङ्को निर्भयो भूत्वा
प्रेमासक्तिसमन्वितः ।
नित्यानन्दं च पुरुष विभाव्य स्वपति
हृदि ।। ४८ ।।
तदीयविरहज्वालाग्लपितां
तनुमुत्सृजेत् ।
कां गतिं याति देवेश तन्मे साधु
निरूपय ।। ४९ ।।
निःशङ्क,
निर्भय होकर प्रेमासक्ति से युक्त होकर अपने हृदय में अपने पति नित्य
आनन्द रूप पुरुष का ध्यान करके उसी की विरहज्वाला में निगीण शरीर का उत्सर्जन कर
दे तो हे देवेश ! उसकी क्या गति होगा ? उसे आप ठीक-ठीक बताइए
।। ४८-४९ ।।
शिव उवाच -
ब्रह्माभासमयः कश्चिद्यदि जीवः
परिभ्रमन् ।
अनेकजन्मसंसिद्ध पुण्यराशिभिरुज्जितेः
।। ५० ।।
साधुसङ्गेन देवेशि यदिदं
ज्ञानमाप्नुयात् ।
जितेन्द्रियो निर्विषय:
प्रेमासक्तिसमन्वितः ।। ५१ ।।
त्यजन् देहमवाप्नोति कुमार्यः
प्रापुरेव यत् ।
न जले जलवत्तस्य लयो भवति चाक्षरे
।। ५२ ।।
शिव ने कहा- यदि कोई जीव अपने में
ब्रह्म का आभास करता हुआ-सा परिभ्रमण करते हुए अनेक जन्म से प्राप्त किए हुए
पुण्यराशि के प्रताप से तथा साधुजनों की संगति से यदि इस ज्ञान को,
हे देवेशि ! प्राप्त कर लेता है तो वह जितेन्द्रिय विषयों में
निर्लिप्त, भगवद् प्रेम को असक्ति से युक्त देह का त्याग
करते हुए दिव्य देह प्राप्त करता है जैसे कि कुमारियों ने प्राप्त किया। उसका जल
में जल के समान लय नहीं होता । किन्तु 'अक्षर' में ही उसका विलय हो जाता है ।। ५२ ।।
यदय विरही जातो नित्यलीलाविहारिणि ।
न पश्यति तथा चापि
नित्यलीलाविहारिणम् ।। ५३ ।।
यदि यह साधक विरही होता है तो
नित्यलीला में विहार करने वाले [ भगवान् कृष्ण ] में उसका लय होता है। फिर भी वह
नित्यलीलाविहारी को देख नहीं पाता है ।। ५३ ।।
अक्षराभासमात्रत्वात् स्वस्यैव परमेश्वरि
।
तस्माद् वृन्दावने देवि कुटस्थहृदयङ्गमे
।। ५४ ॥
लीलामनुभवन् तिष्ठेत् पुनरागविवर्जितः
।
इति ते निर्णयः प्रोक्तोऽनधिकारिणि
सुन्दरि ।। ५५ ।।
हे परमेश्वर ! अक्षर ब्रह्म के आभास
मात्र से ही उस वृन्दावन रूप अपने हृदय में ही वह हे देवि ! कूटस्थ ब्रह्म को
हृदयङ्गम करके रहता है और फिर सांसारिक राग से रहित होकर उन्हीं वृन्दावन बिहारी
श्रीकृष्ण की लीलाओं का अनुभव करते हुए आनन्दमग्न रहता है। यही [ ब्रह्म के आभास
और उसमें विलीन हो जाने का] निर्णय, हे
सुन्दरि ! मैंने तुमसे कहा है ।। ५४-५५ ।।
अतः परं च भजने निर्णयं वच्मि सं
शृणु ॥ ५६ ॥
इसके बाद मैं भगवान् श्रीकृष्ण के
भजन में किसका अधिकार है ? उसे मैं कहता हूँ ।
[सावधान होकर ] सुनो ।। ५६ ।।
॥ इति श्रीमाहेश्वरतन्त्रे
उत्तरखण्डे शिवोमासंवादे विशपटलम् ॥ २६ ॥
॥ इस प्रकार श्री नारदपञ्चरात्र
आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञानखण्ड ) में माँ
जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के छब्बीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय
कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई
।। २६ ।।
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 27

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