माहेश्वरतन्त्र पटल २५
माहेश्वरतन्त्र के पटल २५ में सत्
एवं असत् रुति विवेचन, लीला का काल विवेचन
का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल २५
Maheshvar tantra Patal 25
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल २५
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र पच्चीसवाँ पटल
माहेश्वरतन्त्र पञ्चविंश पटल
अथ पञ्चविंशं पटलम्
शिव उवाच-
पुरा ह्यविद्यमानत्त्वान्नित्यतायाः
कथं स्थितिः ।
इति यद्देवि ते प्रोक्त तत्र मे
निर्णयं शृणु ॥ १ ॥
शिवजी ने कहा- पहले जो प्रियाएं
विद्यमान नहीं थीं ! तो उनकी स्थिति नित्य कैसे हो गई ?
यह प्रश्न जो आपने, हे देवि! मुझसे पूछा है
उस प्रश्न का समाधान सुनिए ॥ १ ॥
अविद्यमानं यत्किञ्चिन्नव
प्रादुर्भविष्यति ।
सर्वथा विद्यमानं हि वस्तु
प्रादुर्भवेत्प्रिये ॥ २ ॥
जो अविद्यमान है,
वह कभी भी प्रादुर्भूत नहीं होगा। हे प्रिये ! सर्वथा विद्यमान
वस्तु ही प्रादुर्भूत होती है ।। २ ।।
तस्मात्स दशतो देवि प्रपञ्च
उपवर्ण्यते ।
घटो नास्तीत्युच्यमाने घटसत्ता तु
लभ्यते ॥ ३ ॥
इसलिए,
हे देवि ! सत् अंश से प्रपञ्च उद्भूत माना जाता है। जब यह कहा जाता
है कि 'घट नहीं है' तो निश्चित ही यह
ज्ञान होता है कि कभी घट की सत्ता प्राप्त थी ।। ३ ।।
असच्छू त्या तथा देवि प्रपञ्चः
सन्निरूप्यते ।
अपरोक्षपरोक्षत्व सदसच्छ तिनोदितम ॥
४ ॥
अतः हे देवि ! असत् श्रुति से सत्
प्रपञ्च का निरूपण होता है। इस प्रकार अपरोक्ष और परोक्षत्व रूप से 'सत् एवं असत्' श्रुति कही गई है ॥ ४ ॥
तथा प्रपञ्चलीलेय रसलीलापि तादृशी ।
सर्वास्तानित्यरूपा हि विज्ञेया
वेदवादिभिः ।। ५ ।।
जिस प्रकार यह जगत् प्रपञ्च की लीला
है वैसे ही भगवान् की लीला भी है । वेद के ज्ञाता विद्वानों द्वारा वे सभी लीलाएँ
नित्य रूपा ही बताई गई हैं ।। ५ ।।
यथा मृदि घटस्येव प्रागभाव:
प्रकल्प्यते ।
मृत्सकाशात्समुत्पत्तिः पश्चात्तस्योपचर्यते
॥६॥
जिस प्रकार मिट्टी में घट का
प्रागभाव पहले से रहता है तभी मिट्टी से उस घट की उत्पत्ति का बाद में उपचार समझा
जाता है ॥ ६ ॥
न पुनस्तस्य देवेशि
हयभावोऽत्यन्तसंज्ञितः ।
आम्रबीजस्थितो ह्याग्रस्तस्माद्
व्यक्तो यथा भवेत् ॥ ७ ॥
हे देवेशि ! अत: उस घट का पुनः
अत्यन्ताभाव नहीं कहा गया है। जैसे आम के बीज में स्थित आम प्रकट हो जाता है [
वैसे ही यह प्रपञ्च भी उसी ब्रह्म में पहले था और बाद में प्रकट हुआ और पुनः उसी
में विलीन भी हो जाता है ] ॥ ७ ॥
अभूतमेव देवेशि यदि व्यक्ति प्रयाति
हि ।
आम्रबीजात् छछुदस्य कथं
व्यक्तिर्भवेन्नहि ॥ ८ ॥
हे देवेशि ! यदि विना पहले से रहे
ही व्यक्त हो जाता है तो फिर आम के बीज से क्यों नहीं प्रकट हो जाता है ! ॥ ८ ॥
व्यावहारिकी वास्तवी तथा च
प्रातिभासिका ।
सत्ता तु त्रिविधा ज्ञेया देवि
शास्त्रार्थकोविदः ।। ९ ।।
हे देवि ! शास्त्रार्थ के कोविदों
द्वारा वस्तु की तीन प्रकार की सत्ता बतायी गई - १. व्यावहारिकी सत्ता,
२. वास्तविकी सत्ता, ३. प्रातिभासिकी सत्ता ॥
९॥
शुक्तौ रजतमित्येषा सत्ता
स्थात्प्रातिभासिकी ।
गजाश्वादिमहासम्पत् स्वाप्निकी वापि
तद्विधा ॥ १० ॥
सीप में चांदी होने का भान होना - 'प्रातिभासिकी सत्ता कही गई है । किवा गज एवं अश्व आदि महान सम्पत्ति का
स्वप्न में होना-स्वाप्निकी प्रतिभासिकी सत्ता हैं। इस प्रकार से यह दो प्रकार की
है ।। १० ।।
व्यवहारार्थमित्येषा जागति
व्यावहारिकी ।
ब्रह्मसत्ता तु देवेशि वास्तवी
परिकीर्तिता ।। ११ ।।
जगत् की सत्ता व्यवहार में देखी
जाती है। अतः यह 'व्यावहारिकी सत्ता' है । हे देवेशि ! वास्तविकी सत्ता ब्रह्म की सत्ता है । अतः विद्वानों
द्वारा ब्रह्म सत्ता को वास्तविकी सत्ता ही कहा गया है ।। ११ ।।
ब्रह्मसत्तवशाद् देवि लीला
सत्यत्वमुच्यते ।
सत्यस्याभावमीशानि शक्तः कर्तुं न
कश्चन ॥ १२ ॥
हे देवि ! ब्रह्मसत्ता के कारण ही
यह लीला सत्य लीला कही जाती है । हे ईशान ! किन्तु इस जागतिक लीला में सत्य का
अभाव होने से व्यक्ति कुछ भी करने में असमर्थ है ॥ १२ ॥
तस्माद् देवि यथाकाल
लीलाविर्भावमुच्यते ।
द्वादशद्वादशत मे स्वामिन्या वत्सरे
प्रिये ॥ १३ ॥
आविर्भवति लीलेयं पौनःपुन्येन
सर्वदा |
एतावति गते काले हघक्षरे परमात्मनि
। १४ ।।
रहस्य रमणालोके जायते सा सुमङ्गला ।
ततः प्रियासु जायेत लीलाविस्तरणं नतः
।। १५ ।।
हे देवि ! इसलिए यथासमय भगवान् की
लीला का आविर्भाव कहा जाता है । हे प्रिये ! सदैव बारह-बारह वर्ष पर यह लीला
बारम्बार होती है। इतना काल बीत जाने पर परमात्मा अक्षर में वह सुमङ्गला रहस्यरमणा
नामक लोक में उत्पन्न होती है । तब लीला के विस्तार के लिए प्रियाओं के मध्य वह
ब्रह्म आते हैं ।। १४-१५ ।।
अक्षरात्मनि सा लीला ततश्चास्थिरतां
व्रजेत् ।
स्मृतिमात्रा हि सा देवि न तु
साक्षात्कदाचन । १६ ।।
वह लीला अक्षरात्मा में तब अस्थिरता
को प्राप्त करती है । हे देवि ! वह लीला-स्मृति मात्र होती है। वह साक्षात् लीला
नहीं होती है ॥ १६ ॥
गते द्वादशमे वर्षे स्वामिन्याः
परमेश्वरि ।
पुनस्तथावलोकाय कामांशेनात्मयोगतः॥
१७ ॥
इच्छा प्रवर्त्तते देवि कूटस्थस्य
परात्मनः ।
ततश्च त्रिविधा लीला काले प्रादुर्भवेत्प्रिये
॥ १८ ॥
स्वामिनी के बारह वर्ष बीत जाने पर,
हे परमेश्वरि ! पुनः उस लीला को देखने की इच्छा से आत्मयोग रूप
कामांश से कूटस्थ ब्रह्म में इच्छा जागृत होती है। हे देवि ! उससे तीन प्रकार की
लीला समय पर प्रादुर्भूत हो जाती है ।। १७-१८ ।।
श्वेतद्वीपस्य तु च्छाया मथुरायां
प्रतिष्ठिता ।
बैकुण्ठप्रतिबिम्बस्तु द्वारिकायां
तथा प्रिये ।। १९ ।।
हे प्रिये ! श्वेत द्वीप की छाया से
मथुरा नगरी प्रतिष्ठित हुई और द्वारिका नगरी में बैकुण्ठ का प्रतिबिम्ब पड़ा है ।।
१९ ।।
व्रजस्तु साक्षाद्देवेशि गोलोक
प्रतिबिम्बजः ।
गोलोकातीतलीला च रसानन्दमयी शिवे ।।
२० ।।
हे देवेशि ! व्रज तो साक्षात् रूप
से गोलोकधाम का प्रतिबिम्ब ही है। हे शिवे ! वह लीला गोलोक लीला से भी अधिक रस
वाली और आनन्दमयी है ॥ २० ॥
आविर्भवति देवेशि समये समये हि सा ।
समय तं प्रवक्ष्यामि शृणुष्वैकाग्रमानसा
।। २१ ।।
हे देवेशि ! वह लीला समय समय पर
आविर्भूत हो जाती है। अब मैं उस समय (स्वामिनी के बारह वर्ष) का विवेचन करूँगा ।
आप एकाग्रमन से सुने ।। २१ ।।
परमाणुद्वयमणुः त्रसरेणुः त्रिभिश्च
तैः ।
त्रयरेणत्रयेणैव कालः स्यात्
त्रुटितसंज्ञितः ॥ २२ ॥
दो परमाणु का एक अणु और तीन अणुओं
का एक त्रसरेणु होता है । तीन त्रसरेणु से काल की गणना आरम्भ होती है ।। २२ ॥
तच्छतेन भवेद्वेधः त्रिभिर्वेधैर्लव:
स्मृतः ।
निमिषस्त्रिलवेदेवि क्षणो
ज्ञेयस्त्रिभिश्च तैः ।। २३ ।।
उस त्रसरेणु का सौ से वेध ( - जितने
देर में सौ त्रसरेणुओं का मेल) होता है और तीन वेध से एक 'लव' होता है। तीन लवों का एक 'निमिष'
होता है । हे देवि ! तीन निमषों का एक क्षण होता है ।। २३ ।।
क्षणैश्च पञ्चभिः काष्ठा
पञ्चभिर्दशभिस्तथा ।
काष्ठाभिर्लघु विज्ञय लघुभिर्दशपञ्चभिः
।। २४ ।
घटिकैका तु विज्ञेया मुहूर्तो
घटिकाद्वयम् ।
प्रहरः सप्तघटिकाश्चतुभिस्तै रहः
स्मृतः ।। २५ ।।
पाँच क्षणों का एक 'काष्ठा' होता है । पन्द्रह काष्ठों का एक 'लघु' होता है । पन्द्रह लघुओं की एक 'घटिका' कही गयी है। दो घटी का एक 'मुहूर्त' जानना -चाहिए। सात घटी का एक 'प्रहर' और चार प्रहर का एक 'दिन'
होता है ।। २४-२५ ।।
पुनश्चतुभिः प्रहरैरुच्यते तदहर्निशम्
॥ २६ ॥
दशभिः पञ्चभिः पक्षः पुनश्च
दशपञ्चभिः।
आद्यः शुक्लस्तथा कृष्णः पितॄणां
तदहर्निशम् ॥ २७ ॥
पुनः आठ प्रहर का 'दिन और रात' होता है । पन्द्रह दिन दिन-रात का एक 'पक्ष' होता है। पन्द्रह और पन्द्रह अर्थात् तीस पक्ष
का आद्य 'शुक्ल पक्ष' होता है तथा
दूसरा 'कृष्ण पक्ष' होता है। कृष्णपक्ष
की दिन और रात पितरों की होती हैं ।। २६-२७ ॥
मासः पक्षद्वयेनोक्तः तावेव द्वी
ऋतुः स्मृतः ।
ऋतुयेणाप्ययनं दक्षिणं परिकीर्तितम्
॥ २८ ॥
दो पक्षों का एक 'मास' होता है। दो मासों की एक 'ऋतु' कही गई है। तीन ऋतुओं ( ६ मास ) का एक 'अयन' होता है। दूसरा अयन 'दक्षिण
अयन' कहा गया है ।। २८ ।
त्रयेर्णवोत्तरं प्राहुर्देवानां तदहर्निशम्
।
संवत्सरस्तु हययनद्वयं देवि
निगद्यते ।
तच्छतं मानवानां च परमायुनिरूपितम्
।। २९ ।।
पहले तीन ऋतुओं (६ मास) का एक देवों
का 'उत्तर अयन' होता है। हे देवि ! दो अयन का एक 'संवत्सर' कहा जाता है। इन सौ संवत्सर की एक मानव की
परमायु कही गई है ।। २९ ।।
दिव्यैर्द्वादशसाहस्रैर्वर्षाणां
सुरवन्दिते ।
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिश्चेति चतुर्युगाः
॥ ३० ॥
हे सुरवन्दिते ! १२ हजार दिव्य
वर्षो का कृत (सत्य), त्रेता, द्वापर और कलि नामक चार युग होता है ॥ ३० ॥
चतुर्युगसहस्रेण ब्रह्मणो
दिनमुच्यते ।
तावत्येव भवेद्रात्रिस्त्रिलोकी
यत्र लीयते ।। ३१ ।।
ब्रह्मणो दिवसे जाता मनवस्तु
चतुर्दश ।
प्रतिमन्वन्तरे देवि
युगानामेकसप्ततिः ।। ३२ ।।
एक हजार चतुर्युगी का ब्रह्मा का एक
युग कहा गया है। एक हजार ब्रह्मा के दिन की ३२ त्रिलोकी जब बीत जाती है तब ब्रह्मा
का एक दिन होता है। ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते हैं । इस प्रकार एक-एक
मन्वन्तर में ७१ युग होता है ।। ३१-३२ ।।
प्रतिमन्वन्तरे देवि विष्णोरवतरणं
भुवि ।
इन्द्राद्या देवताश्चैव तथा
सप्तर्षयश्च ये ।। ३३ ॥
मन्वन्तरविभेदेन भिन्ना एव भवन्ति
हि ।
स्वायम्भुव स्वारोचिषोत्तमतामसरवताः
।। ३४ ।
चाक्षुषश्चेति मनवो व्यतिक्रान्ताः
षडम्बिके ।
वैवस्वतो मनुर्नाम सप्तमोऽद्य
प्रवर्तते ।। ३५ ।।
हे देवि ! एक-एक मन्वन्तर में
पृथ्वी पर विष्णु का अवतार होता है। प्रत्येक मन्वन्तर के इन्द्र आदि देवता तथा जो
सप्तर्षिगण होते हैं वे भी भिन्न-भिन्न ही होते हैं । हे अम्बिके ! स्वायभुव,
स्वारोचिष, उत्तम, तामस,
रक्त और चाक्षुष – ये छ: और वैवस्वत मनु
सातवें है जो इस समय में हैं ।। ३३-३५ ।।
चतुर्युगी व्यतिक्रान्ता
तस्याष्टाविंशति प्रिये ।
अष्टाविंशतिके देवि कलो लीलेयमागता
॥ ३६ ॥
परार्द्ध: प्रथमोऽतीतो द्वितीयस्तु
प्रवर्तते ।
तत्रापि प्रथमाब्दस्य नवमो मास
उच्यते ।। ३७ ।।
हे प्रिये ! २८ चतुर्युगी बीत चुकी
है जिसमें अटठाईसवें चतुर्युग के कलियुग में यह लीला हुई है वही इस समय चल रहा है।
प्रथम परार्द्ध बीत चुका है और द्वितीय परार्द्ध इस समय कलि का है । उसमें भी
प्रथम वर्ष का यह नवम मास कहा गया है ।। ३६-३७ ।।
दिन तु षोडश चैव यामस्तस्य द्वितीयकः
।
मुहूर्त्तं तृतीयं देवि
वर्त्ततेऽद्य प्रियंवदे ॥ ३८ ॥
नवें महीने का सोलहवाँ दिन और उस
दिन का द्वितीय याम हे प्रिय बोलने वाली देवि ! उस याम का आज तृतीय मुहूर्त है ॥
३८ ॥
एवं विधेरहोरात्रैर्ब्रह्मणो हि
दिनं स्मृतम् ।
पक्षमा सविभेदेन यावत्संवत्सरः
प्रिये ।। ३९ ।।
एवं संवत्सरशत तदा स्याद् ब्रह्मणो
लयः ।
विष्णोनेत्रनिमेषेण
यात्यायुर्ब्रह्मणोऽखिलम् ॥ ४० ॥
इस प्रकार से दिन और रात्रि की गणना
से ब्रह्मा का एक दिन कहा गया है। हे प्रिये ! पक्ष और मास के भेद से इस प्रकार से
एक संवत्सर बीतें और इस प्रकार ब्रह्मा के जब सौ वर्ष होते हैं तब एक ब्रह्मा का
लय हो जाता है। भगवान् विष्णु के एक निमेष ( पलक झपकने ) तक उपयुक्त ब्रह्मा की
सम्पूर्ण आयु बीत जाती है ।। ३९-४० ।।
तावन्निमेषमारभ्य लवक्षण विभेदतः
यावद्वर्षशत विष्णोर्मदीयः
स्यान्निमेषकः ॥ ४१ ॥
विष्णु भगवात् का जब तक सौ निमेष
होता है तो मेरा ( भगवान् शङ्कर का ) एक निमेष होता है ॥ ४१ ॥
मन्निमेषक्रमेणापि यावद्वर्षशतं
भवेत् ।
निमेषमात्रमीशस्य तन्निषक्रमेणैव च
॥ ४२ ॥
शतवर्ष भवेद्यावत्तावच्छ्विनिमेषक: ।
तन्निमेषक्रमेण यावद्वर्षसहस्रकम्
।। ४३ ।।
अपाङ्गस्फुरणं तावत्स्वामिन्याः
कृष्णविभ्रमे ।
तन्निमेषक्रमेणैव वर्ष द्वादशकं
भवेत् ॥ ४४ ॥
इसी क्रम से जब मेरे निमेष के सौ
वर्ष होते हैं ता एक निमेष ईश का होता हैं और उसी क्रम से जब ईश के निमेष के सौ
वर्ष होते हैं तो शिव का एक निमेष होता है । उसी क्रम से जब एक हजार निमेष बीत
जाते हैं तब तक हे कृष्ण विभ्रमे उनकी स्वामिनियों का अपाङ्ग ( नेत्र के कोने) का
स्फुरण होता है । उस निमेष के क्रम से बारह वर्ष का परिमाण होता है ।। ४२-४४ ॥
लीलावलोकनार्थाय भूयः कामो भवेत्तदा
।
वर्षद्वादशकेऽतीते स्वामिन्या:
सुरपूजिते ।। ४५ ।।
पौनःपुन्येन लीलायाः नित्याविर्भाव
उच्यते ।
अक्षरस्यैव हृदये यः
कामांशोऽप्यधिष्ठितः ॥ ४६ ॥
तत्संयोगादिदृक्षास्य स्वस्वकाले
भवेद्धि सा ।
एवं नित्येव सा लीला रसरूपा
प्रियवदे ॥ ४७ ॥
जब लीला के अवलोकन की पुनः कामना
होती है तब, हे सुरपूजिते ! उन स्वामिनी के
बारह वर्ष बीत जाने पर पुनः पुनः लीला का अविर्भाव होता रहता है। इसीलिए यह कृष्ण
का लीला नित्य लीला कही जाती है। अक्षर ब्रह्म के हृदय में जो कामना का अंश रहता
है उसके संयोग से इस लीला को देखने की इच्छा समय समय से होती है । हे प्रियंवदे !
इस प्रकार (ब्रह्म की) रस रूपा लीला नित्य होती रहती है ।। ४५-४७ ॥
संयोगविप्रलम्भाख्यदलाभ्यां
यानुवर्णिता ।
रसो यदाविप्रलम्भदलं समधितिष्ठति ॥
४८ ॥
तदेवाविभवत्येषा लीला सुरपूजिते ।
यदा तु संयोगदल समधिव्याप्य तिष्ठति
।। ४९ ।।
निजधानि तदा लीला साक्षात्कृष्णकृता
भवेत् ।
यदा संयोगविश्लेषसन्धि याति रसः
प्रिये ।। ५० ।।
तदा प्रबोधसमयो निकटः कृष्णचेतसाम्
।
संयोग तथा विप्रलम्भ नामक दो दलों
में जो रस-लीला पहले वर्णित हुई है उनमें से जब विप्रलम्भ नामक दल में रस अधिष्ठित
रहता है;
हे सुरपूजिते ! तभी यह रस-लीला आविर्भूत होती है और जब संयोग नामक
दल में रस व्यापक रूप से अधिष्ठित रहता है तब निजधाम में साक्षात् कृष्ण की लीला
होती है । हे प्रिये ! जब संयोग और विप्रलम्भ के सन्धि काल में रस रहता है तब कृष्ण
चित्त के प्रबोध का समय निकट होता है ।। ४८-५१ ।।
गुरोः सत्सम्प्रदायेन शास्त्रार्थस्यानुरूपतः
।। ५१ ।।
वत्तितव्यं ततो भद्र साधनेरात्मलब्धये
।
इस प्रकार गुरु के सत्सम्प्रदाय से
शास्त्रों के आशय के अनुरूप साधक को चाहिए कि वह आत्म साक्षात्कार के लिए,
हे भद्रे ! उसी प्रकार साधना करे ।। ५१-५२ ।।
इत्येवं ते मया ख्यातं यत्पृष्टोऽहं
सुलोचने ।। ५२ ।।
समासेन महेशानि किं भूयः
श्रोतुमिच्छसि ? ।। ५३ ।।
हे सुलोचने ! इस प्रकार जो आपने
पूछा,
वह हमने आपसे संक्षेप में कहा है । हे महेशानि ! अब आप क्या सुनना
चाहती है ? ५२-५३ ।।
॥ इति श्रीनारदपञ्चरात्र श्रीमाहेश्वरतन्त्र
शिवपार्वती- संवादे पञ्चविंशं पटलम् ।। २५ ।।
इस प्रकार श्रीनारदपाश्चरात्र आगमगत
'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड( ज्ञानखण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के
पच्चीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ।। २५ ।।
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 26

Post a Comment