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माहेश्वरतन्त्र पटल २४

माहेश्वरतन्त्र पटल २४             

माहेश्वरतन्त्र के पटल २४ में निर्गुण ब्रह्म की नित्यलीला का वर्णन, रस श्रुति, अद्वैत ब्रह्म की अनपायिनी लीला का वर्णन है। 

माहेश्वरतन्त्र पटल २४

माहेश्वरतन्त्र पटल २४                 

Maheshvar tantra Patal 24

माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल २४                  

नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्

माहेश्वरतन्त्र चौबीसवाँ पटल

माहेश्वरतन्त्र चतुर्विश पटल

अथ चतुर्विशं पटलम्

पार्वत्युवाच-

देव देव महेशान धर्जंटे नीललोहित ।

भूयोऽहं श्रोतुमिच्छामि नित्यलीला विनिर्णयम् ॥ १ ॥

पार्वती ने कहा- हे देवों के देव, महेशान, घूर्जटे, हे नीललोहित पुनः में भगवान् की नित्यलीला का विशेषतः निर्णय सुनना चाहती हूँ ॥ १ ॥

निर्गुणे स्यात्कथं लीला लीला चेन्निर्गुणः कथम् ।

सगुणे वा कथं लीला नित्या गुणमयी यतः ॥ २ ॥

यदि भगवान् निर्गुण हैं तो फिर लीला कैसी? और यदि लीला हैं तो फिर वह ब्रह्म निर्गुण कैसे हैं ? यदि सगुण (शरीरधारी) ब्रह्म हैं तो नित्य गुणमयी लीला कैसे ? ॥ २ ॥

यत्तु कालत्रयाबाध्यं तच्च नित्यं प्रचक्षते ।

कदाचिद्वा पुरा जाता लीलेयं वा भविष्यति ।। ३ ।

काल त्रय से जो अबाधित है, वही 'नित्य कहा जाता है क्योंकि कभी लीला हुई थी अथवा कभी यह लीला होगी ॥ ३ ॥

अथवा नंव जातेयं भविष्यति न वा पुनः ।

इदानीं लीला चेज्जाता जन्यकार्यं विनश्यति ॥ ४ ॥

अथवा यह न कभी हुई थी और न पुनः कभी होगी। यदि इस समय लीला हुईं तो निश्चय ही जो लीला हो गई, वह पुन: कैसे होगी ? ॥ ४ ॥

कथं नित्येति तां वक्तुं शक्यते विदुषा प्रभो ।

यद्यक्षरस्य हृदये लीला नित्यत्वमागता ॥ ५ ॥

इस प्रकार, हे प्रभो ! उसे विद्वान् कैसे 'नित्य' कह सकते हैं ? जो लीला अक्षर रूप परब्रह्म के हृदय में नित्यत्व को प्राप्त है ।। ५ ॥

पुरा ह्यविद्यामानत्वान्नित्यतायाः कथं स्थितिः ।

इति मे संशयं देव छेत्तुमर्हसि साम्प्रतम् ।। ६ ।

जब वह लीला पहले विद्यमान नहीं थी तो उसकी नित्यता की स्थिति कैसे ? हे देव ! अब इस संशय को आप दूर करें ॥ ६ ॥

त्वदन्यं नैव पश्यामि सन्देहविनिवर्त्तनम् ।

न तवाविदितं किञ्चित्सर्वज्ञोऽसि यतः स्वयम् ॥ ७ ॥

इस सन्देह की विशेष प्रकार से निवृत्ति करने वाला में किसी और को नहीं देख रही हूँ । बस्तुत आप से कोई वस्तु छिपी नहीं है । क्योंकि आप स्वयं ही सर्वज्ञ हैं ॥ ७ ॥

शिव उवाच-

शृणु पार्वति वक्ष्यामि तव स्नेहादशेषतः ।

यस्य श्रवणमात्रेण भवेद्विज्ञानमुत्तमम् ॥ ८ ॥

भगवान् शङ्कर ने कहा- हे पार्वति ! तुम्हारे अत्यन्त स्नेह के कारण मैं कहता हूँ, सुनो। जिसके श्रवण मात्र से ही उत्तम विज्ञान प्राप्त हो जाता है ॥ ८ ॥

निर्गुणेप्यक्षरातीते लीलायाः किं विरुध्यते ।

सगुणस्य तु या लीला सगुणा सा निगद्यते ।। ९ ।।

निर्गुणे या भवेल्लीला सा लीला निर्गुणा भवेत् ।

निर्णयं तत्र वक्ष्यामि लीलाया ब्रह्मणस्तथा ॥ १० ॥

अक्षरातीत निर्गुण ब्रह्म में भी लीला का क्या विरोध है ? वस्तुतः सगुण की जो लीला होती है उसे सगुण लीला कहते हैं और जो निर्गुण की लीला होती है वह लीला 'निर्गुण लीला' कही जाती है । ब्रह्म की लीला में क्या निर्णय हैं ? उसे मैं कहता हूँ, सुनो ॥ ९-१० ।।

रसरूपं भवेद् ब्रह्म वेदविद्यासु गीयते ।

संयोगविप्रलम्भात्मा रसः स्याद् द्विदलात्मकः ।। ११ ।।

वैदिक वाङ् मय में ब्रह्म का रस के रूप में गान किया गया गया है ( 'रक्षो वै सा' - बृह० ) और वह रस संयोग और विप्रलम्भ रूप से दो प्रकार का होता है ११ ।।

संयुक्तयोस्तु संयोगो विप्रलम्भो वियुक्तयो ।

नानाभावात्मिका तत्र लीला भवति शाश्वती ।। १२॥

जब दो वस्तुएँ संयुक्त होती हैं तो संयोग होता है और जब वे वियुक्त होती हैं तो विप्रलम्भ होता है। इस प्रकार उन (दोनों) में नाना भावों वाली शाश्वत लीलाएं हुआ करती हैं ॥ १२ ॥

ब्रह्मणो निर्गुणत्वाच्च नित्यत्वाच्चेति सुन्दरि ! ।

नित्या च निर्गुणा चैव लीलेय न विरुध्यते ।। १३ ।।

हे सुन्दरि ! ब्रह्म के निर्गुण होने से और उसके नित्य होने के कारण नित्य लीला और निर्गुण लीला है । अतः इसमें कोई विरोध नहीं है ॥ १३ ॥

केचिदाहुर्निर्गुणस्य नैव लीलोपयुज्यते ।

लीलाविशिष्ट सगुणं मायासम्बन्धभावतः ।। १४ ।।

कुछ विद्वज्जन कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्म की लीला नहीं ही होती है और माया से सम्बन्धित होने से वह लीला विशिष्ट सगुण होती है ।। १४ ।।

निर्गुणं तु परं सूक्ष्ममवाङ्मनसगोचरम् ।

वर्णयन्ति विभागेन माया मोहितचेतसः ।। १५ ।।

निर्गुण ब्रह्म तो अत्यन्त सूक्ष्म और मानस पटल पर गोचर होने (दिखाई देने) वाला नहीं है। फिर भी माया से मोहित चित्त वाले उसे विभाग करके वर्णित करते हैं ।। १५ ।।

श्रुतेविरोधमाशङ्कय विनियोगः पृथक् कृतः ।

रसश्रुतिविरोध तु न ते पश्यन्ति मोहिताः ॥ १६ ॥

श्रुति में विरोध न हो इस आशङ्का से विनियोग अलग-अलग किया गया है । किन्तु वे माया से मोहित जन रसश्रुति ( 'रसे वे स:') का विरोध नहीं जान पाते हैं ॥ १६ ॥

निषेधयन्ति चाकारं श्रुतयः प्राकृतं प्रिये ।

आनन्दमात्रमाकारं रसश्रुतिरुपासते ।। १७ ।।

हे प्रिये ! श्रुतियाँ ब्रह्म के प्राकृत आकार प्रकार का तो निषेध ही करती हैं। वस्तुतः रस श्रुति में आनन्द मात्र ही उसका आकार बताया गया है ।। १७ ।।

अन्यथाद्विदलः सोऽयं श्रुतिसिद्ध: प्रियवदे |

निराकारस्य देवेशि नोपयुक्तः कदाचन ।। १८ ।।

हे प्रियवादिनि । अन्यथा वही यह ब्रह्म दो प्रकार से श्रुतिसिद्ध हैं । हे देवेशि ! वह निराकार कभी भी उपयुक्त नहीं है ॥ १८ ॥

प्रलापाः शतशः सन्ति श्रुतियुक्तिमजानताम् ।

न तेषु रमते चित्त रसज्ञस्य विवेकिनः ॥ १९ ॥

श्रुति युक्तियों को न जानने वालों के सैकड़ों तरह के प्रलाप हैं। किन्तु विवेकी रसज्ञ पुरुष का मन उन प्रलापों में नहीं रमता है ॥ १९ ॥

रसस्तादग्विधो देवि लीलाभिर्योनुभूयते ।

तस्माल्लीलारसमयी रसो लीलामयः स्मृतः ॥ २० ॥

हे देवि ! रस उसी प्रकार का होता है जो उस (सगुण ब्रह्म) की लीलाओं से ही अनुभूत होता है । इसीलिये लीला रसमयी कही गई है और रस लीलामय कहा गया है ।। २० ।।

तादात्म्यादेकरूपत्वाल्लीला ब्रह्ममयी भवेत् ।

लीलोपयोगिनो भावा विभावा व्यभिचारिणः ।। २१ ।।

आलम्बनानुभावाश्च तेऽपि तादृग्विधाः प्रिये ! ।

चन्द्रालङ्कारभूषादिमालालेपसमीरणाः।। २२ ।।

दीर्घिकोपवनारामऋतुवृक्षलतादयः।

वस्त्रपानाशनं भृङ्गशुक कोकिलकूजितम् ।। २३ ।।

रसोत्पादनसामग्री रसरूपा हि सा स्मृता ।

लीलोपयोगिनस्तस्मात् पदार्था रसरूपिणः ॥ २४ ॥

वस्तुतः [ ब्रह्म से तादात्म्य होने से और दोनों की एकरूपता के कारण लीला ब्रह्ममयी होती है । लीला में उपयोग में आने वाले भाव, विभाव और व्यभिचारि भाव होते हैं । हे प्रिये ! वे भाव भी उसी प्रकार के आलम्बन अनुभाव से युक्त होते हैं । चन्द्र, अलङ्कार और वेषभूषादि, माला एवं सुगन्धित द्रव्यों का लेप, दीर्घिका, उपवन, आराम, ऋतुओं के वृक्ष एवं लता आदि वस्त्र एवं विविध प्रकार की पेय तथा खाद्य वस्तुएँ, भौंरे, तोते, तथा कोयल का कूजना आदि रसात्पादक सामग्री हैं जो रसरूप ही कही गई है। ये सभी लीला की उपयोगी वस्तु है अतः ये सभी पदार्थ रस रूप ही हैं।।२१-२४।।

द्रवीभूतः घनीभूतो रसस्य द्विविधा स्थितिः ।

द्रवीभूतः प्रियाधारो घनीभूतो क्षिगोचरः ।। २५ ।।

रस की दो प्रकार की स्थिति होती है १. द्रवीभूत रस और २. घनीभूत रस । द्रवीभूत रस प्रिया पर आधारित है और घनीभूत रस ही दृष्टिगोचर होता है ।। २५ ।।

तस्मात्प्रियामीष्टभावान् स्वतः प्रकटयत्यसौ ।

द्रवीभूतः प्रियाधारः प्रियाभावात्मको रसः ।। २६ ।।

इसलिए प्रिया अभीष्ट भावों से युक्त होती है और इसको स्वयं ही प्राप्त हो जाती है अर्थात् वह रस को प्राप्त कर लेती है । द्रवीभूत रस प्रिया पर आधारित है अतः रस रूप प्रिया भावात्मक है । २६ ॥

प्राधान्यं तत्र चेच्छन्ति घनीभूतादपि प्रिये ! ।

रसो नैव प्रसिध्येत प्रियालम्बनवर्जितः ।। २७ ।।

हे प्रिये ! घनीभूत रस से भी अधिक उसमें इसका प्राधान्य होता है और इसी की वे इच्छा भी करती हैं। प्रिया रूप आलम्बन से रहित होकर रस कभी भी अस्तित्व को नहीं प्राप्त करता है ।। २७ ।।

प्रियादर्शे रसः पश्येत् स्वात्मानं प्रतिबिम्बवत् ।

आदर्शापसरे यद्वन्मुखस्यानुपलम्भनम् ।। २८ ।।

अङ्गहीनो रसस्तद्वत्स्वानुभूति न विन्दति ।

आनन्दो हि रसस्तस्मात्प्रियाप्रियदलद्वयम् ।। २९ ।।

अपने प्रतिबिम्ब की भांति रस को प्रिया रूप शीशे में देखना चाहिए। शीशे को हटा देने पर मुख नही दिखाई पड़ता । उसी प्रकार [ प्रियाविहीन ] रस अङ्गहीन है और बिना उसके रस की स्वानुभूति नहीं प्राप्ति होती है। इसीलिए जैसे आनन्द ही रस है । वह रस प्रिय और अप्रिय रूप से दो तरह का है ।। २८-२९ ।।

आनन्दरूपा सामग्री सर्वभावात्मको रसः ।

न माया गुणसंसर्गः कदाचित्कुत्रचित्प्रिये ॥ ३० ॥

सर्वभावात्मक रस की सभी सामग्री आनन्दरूप है । हे प्रिये ! उससे कभी भी माया रूप गुण का संसर्ग कहीं भी नहीं होता ॥ ३० ॥

रसरूपं निर्गुणं च नित्यलीलाविहारि यत् ।

अद्वैतं ब्रह्म परम पुरुषोत्तमसंज्ञकम् ।। ३१ ।।

रस और निर्गुण ब्रह्म क्योंकि नित्य लीला में विहार करता है इसलिए अद्वैत ब्रह्म ही परम पुरुषोत्तम संज्ञक है ।। ३१ ।।

अतीतानागता चासौं वर्तमानापि सुन्दरि ।

नित्या एवेति विज्ञेया लीलेयमनपायिनी ॥ ३२ ॥

हे सुन्दरि ! भूत, भविष्य और वर्तमान भी उस ब्रह्म की अनपायिनो [ सदैव एक सी रहने वाली ] लीला नित्य ही है-ऐसा जानना चाहिए ।। ३२ ॥

इत्येतत्कथितं देवि प्रश्नमन्यं निशामय ।

यस्य श्रवणमात्रेण सन्देहो विनिवर्त्तते ॥ ३३ ॥

हे देवि ! इस प्रकार यह सब मैंने तुमसे कहा अब तुम अन्य प्रश्न करो जिसके श्रवष्यमात्र से ही सन्देह की निवृत्ति हो जाती है ।। ३३ ।।

॥ इति श्रीनारदपञ्चरात्र श्रीमाहेश्वरतन्त्र शिवपार्वती संवादे चतुविंशं पटलम् ।। २४ ।।

॥ इस प्रकार श्री नारदपश्वरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञानखण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के चौबीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ।। २४ ।।

आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 25

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