माहेश्वरतन्त्र पटल २३
माहेश्वरतन्त्र के पटल २३ में भगवद्
भार्या का स्वरूप का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल २३
Maheshvar tantra Patal 23
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल २३
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र तेइसवाँ पटल
माहेश्वरतन्त्र त्रयोविंश पटल
अथ त्रयोविंशं पटलम्
पार्वत्युवाच -
भूयोऽहं श्रोतुमिच्छामि तन्मे
ब्रूहि सदाशिव ।
भूतले भगवद्भार्या नानायोनिषु
संस्थिताः ॥ १ ॥
पार्वती ने कहा- हे सदाशिव पुनः मैं
आपसे पूछना चाहती हूँ, उसे आप हमसे कहें।
इस भूतल पर भगवान् की भार्या नाना योनियों में उत्पन्न है ॥ १ ॥
तत्र तत्र विचित्राणि कर्माण्यपि
कृतानि च ।
क्वचित्तीर्थं क्वचिद्दानं
क्वचिद्धोमं क्वचिज्जपः ॥ २ ॥
क्वचिन्मखादिचरणं स्वाध्यायाचरणानि
च ।
पितृदेवार्चनं क्वापि ब्राह्मणा योः
सताम् । ३ ।।
उन-उन योनियों में वे विचित्र
कर्मों को भी कर रही हैं। वे कहीं तीर्थ में, कहीं
दान में, कहीं होम में तथा कहीं जप में रत हैं। वे कहीं
यज्ञादि का आचरण या कहीं स्वाध्याय का आचरण करती हैं। वे कभी पितृदेव की अर्चना
करने में, कभी ब्राह्मण तथा अतिथि के पूजन में संलग्न रहती
हैं ॥ २-३ ॥
क्वचिन्निन्दादिकरणं
देवब्राह्मणातिथिपूजनम् ।
क्वचिद्दत्तविलोपश्च
तथेन्द्रियविलोभनम् ॥ ४ ॥
असत्यभाषण चैव पैशुन्यं भूतहिंसनम्
।
स्वर्णस्त्येयादिकं चैव सुरामांसनिषेवणम्
॥ ५ ॥
कभी किसी की निन्दा करती हैं और कभी
देव अथवा ब्राह्मण एवं सज्जनों की पूजा करती हैं। कभी भिक्षा आदि भी न देकर
इन्द्रिय की तृप्ति में लुभायमान रहती हैं । कहीं वे असत्य का भाषण तथा निष्ठुर
व्यवहार और जीव हिंसा में लगी हैं। कहीं स्वर्ण के लाभ में तथा सुरा एवं मांस का
सेवन करती हैं ॥ ४-५ ॥
द्रोहमात्सर्य हिसा दिपाकभेदादिकं
तथा ।
स्वस्ववर्णाश्रमाचा रोल्लङ्घनं कामवर्त्तनम्
।। ६ ।
कहीं वे किसी से द्रोह,
मात्सर्यं हिंसा आदि तथा पक्षपात पूर्ण व्यवहार में लगी हैं । कहीं
अपने-अपने वर्णाश्रम के आचार के उल्लङघन तथा कामनाओं की तृप्ति में प्रवृत्त रहती
हैं ॥ ६ ॥
स्वगुणाख्यानमीशान पङ्क्तिभेदो वृथा
क्रिया ।
परेषां मर्मकथनं
म्लेच्छान्नात्क्वाऽपिजीवनम् ॥ ७ ॥
हे ईशान ! वे कहीं अपने गुणों के
कथन तथा पंक्तिभेद आदिक वृथा क्रियाओं में- संलग्न
हैं। कहीं दूसरे की रहस्यात्मक बात को कहने में और कहीं नीच जाति के म्लेच्छों के
अन्न से जीवन यापन करती हैं ॥ ७ ॥
निषिद्धाचरणं देव विहिताचारलङ्घनम्
।
गोभूगजाश्वकन्यादेस्तथा विक्रयण प्रभो
।। ८ ।।
हे देव ! वे शास्त्रों से निषिद्ध
आचरणों को करने में तथा शास्त्रविहित कर्म के उल्लंघन में भी प्रवृत्त रहती हैं।
हे प्रभु ! वे गो, भू, गज, अश्व तथा कन्या आदि के विक्रय में संलग्न हैं ॥
८ ॥
वेदविक्रयणं चैव भूतसन्त्रासन तथा ।
आलस्यात्कर्मणस्त्यागस्तथैवाहङ्कृतेरपि
॥ ९ ॥
कलियुग के जन वेद विक्रय में तथा
जीवों को सन्त्रस्त करने में संलग्न हैं । वे जन आलस्य के कारण अपने कर्म का त्याग
करते हैं तथा वे अहङ्कार में पड़े रहते हैं ॥ ९ ॥
कर्मण्येतानि देवेश सदसन्ति
महान्त्यपि ।
प्रारब्धसञ्चितान्येव क्रियमाणानि
यानि च ।। १० ।।
तेषामन्तं न पश्यामि कल्पकोटिशतैरपि
।
स्वरूपज्ञानमात्रेण सञ्चितक्रियमाणयोः
।। ११ ।।
हे देवेश ! पूर्वोक्त कर्म में सत्
हों या असत् या महान् भी हों तो वे प्रारब्ध कर्म या जो क्रियमाण कर्म सञ्चित होते
हैं-उन संचित कर्मों का अन्त सौ करोड़ कल्पों तक भी मैं नहीं देख रही हूँ । अतः
आत्मस्वरूप के ज्ञान मात्र से -संचित और क्रियमाण कर्मों का नाश कैसे हो जाता हैं ?
१०-११ ।।
श्रुतिसिद्धो भवेन्नाशः प्रारब्धस्य
तु न क्वचित् ।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कर्मणां
भोगतः क्षयः ।। १२ ।।
इत्येवं शास्त्रसिद्धान्तः सर्वथैव
त्वयोदित। ।
प्रारब्धविद्यमानत्वात् स्वरूप
भरणेऽपि च ।। १३ ।।
कथं वकुण्ठगमनं गोचरो'
ग्रस्तकर्मणः ।
अभुक्तान्येव कर्माणि विहाय यदि
यान्ति ताः ॥ १४ ॥
प्रारब्ध कर्म का कभी बिना भोग किए,
नाश असम्भव है - यह बात श्रुति से सिद्ध है। कर्म का क्षय बिना भोगे
नहीं होता, क्योंकि भोग से ही कर्म का क्षय होता है - यह शास्त्र
सम्मत सिद्धान्त है जो आप द्वारा कहा गया है। जब उन भगवान् की प्रियाओं के
प्रारब्ध कर्म विद्यमान थे तो मात्र स्वरूप के स्मरण मात्र से वे कैसे बैकुण्ठ चली
गई, जब कि उनका कर्म से ग्रस्त होना दृष्टिगोचर हो रहा है ?
उन विद्यमान कर्मों के बिना भोगे कर्मों को छोड़कर यदि वे बैकुण्ठ
को जाती हैं तो कैसे ? ॥ १२-१४ ॥
न बिना कर्तृ सम्बन्धं क्षणं
तिष्ठन्ति तान्यपि ।
इत्येनं संशयं देव छेत्तुमर्हसि
मामकम् ।। १५ ।।
फिर बिना कर्म किए जीव एक क्षण भी
नहीं रह सकता - यह कैसे ? हे देव ! मेरे कर्म
से सम्बन्धित संशय हैं जिन्हें आप काट देने में समर्थ हैं। अतः आप मेरे संशय को
दूर करें ।। १५ ।।
शिव उवाच –
साधु पृष्टं त्वया भद्रे रहस्यं
परमाद्भुतम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण
कर्मबन्धाद्विमुच्यते ॥ १६॥
शिव ने कहा--हे भद्रे ! आपने परम
आश्चर्यजनक तथा रहस्य की सुन्दर बात पूछी है जिसके श्रवण मात्र से जीव कर्म के
बन्धन से मुक्त हो जाता है ॥ १६ ॥
सञ्चितं क्रियमाणं च तस्य नश्यति
सर्वथा ।
विरहाग्न्याहुतीभूतशरीरा या हि
केवलम् ।। १७ ।।
सञ्चित या क्रियमाण कर्मों का
सर्वथा नाश, भगवान् के विरह की अग्नि में जो
आहुति रूप से अपने शरीर को डाल दिया जाता है, उससे ही हो
जाता है ॥ १७ ॥
निक्षिप्य भूते भृतोत्थं तेजसं वपुरास्थिताः
।
प्रारब्धसंहिता एव ब्रह्मलोकं
व्रजन्ति ताः ।। १८ ।।
जब जीव भगवान् के विरह की अग्नि में
अपने शरीर को डालता है तभी उस अग्नि से उसका तैजस शरीर प्रकट हो जाता है और वे
अपने प्रारब्ध कर्मो के सहित बैकुण्ठ को पहुँच जाती हैं ।। १८ ।।
ब्रह्मलोकाद्यदा चोर्ध्वं गच्छन्ति
भगवत्प्रियाः ।
बैकुण्ठनिकटे प्राप्ते बलीयान् पवनो
ह्यवन् ॥ १९ ॥
तेनाविष्टास्ततः सख्यः कम्पयन्ति
वपुर्लताः ।
वपुः कम्पेन देवेशि प्रारब्धानां च
पङ्क्तयः ॥ २० ॥
वृक्षेभ्य इव पुष्पाणि क्षरन्ति
क्रमशोऽपि च ।
कर्मसम्बन्ध रहिता यान्ति
वैकुण्ठमुज्ज्वलाः ॥ २१ ॥
वे भगवान् की प्रियाएँ जब ब्रह्मलोक
से ऊपर को जाती हैं तब वैकुण्ठ के निकट आने पर एक बलवान् पवन आती हैं। उस पवन से
आविष्ट होकर उनके तेजस शरीर की लता को वह सखा रूप से कँपाती हैं। हे देवेशि ! उस
शरीर कम्पन से प्रारब्ध कर्मों की शृङ्खला उसी प्रकार समाप्त हो जाती है जैसे
क्रमशः वृक्ष से हवा चलने पर पुष्प नीचे गिर जाते हैं और इस प्रकार वे भगवान् की
प्रियाएं ( अर्थात् जीव ) कर्म के सम्बन्ध से रहित होकर तथा उज्ज्वल होकर वैकुण्ठ
को चली जाती हैं ।। १९-२१ ॥
सदसन्त्यपि कर्माणि क्षरितानि
शरीरतः ।
यानाश्रयन्ति सततं वक्ष्ये तान्
त्वं शृणु प्रिये ॥ २२ ॥
शरीर से सत् या असत् सभी कर्म छूट
जाते हैं । हे प्रिये ! जिनसे वे आश्रित होते हैं, अब मैं उनको कहूँगा उसे आप सुनें ॥ २२ ॥
यै: सेवाप्रणादीनि स्तोत्राणि
रचितान्यपि ।
उपकारः कृतो यैर्वा
धनधान्याम्बरार्पणः ॥ २३ ॥
जिनके द्वारा भगवान् की सेवा,
उनकी भक्ति आदि कर्म तथा उनके लिए रचित स्तोत्र हाते हैं, वे उपकृत होते हैं, जो अपना धन-धान्य एवं
वस्त्राभूषण उन भगवान् को अर्पित कर देते हैं, वे कृतकृत्य
हो जाते हैं ॥ २३ ॥
तद्गुणश्रवणे हृष्टास्तन्निन्दायां
च दुःखिताः ।
सहभोज्याः सहवासाः सहयानाः सहासनाः
।। २४ ।।
भगवान् के गुणों के श्रवण से जो
आनन्दित होते हैं और उनकी निन्दा से दुःखित होते हैं वे ही साधक धन्य हैं। जो
भगवान् के साथ भोजन, उनके साथ में वास,
उन्हीं के साथ में जाना और उन्हीं के सन्निद्वय में बैठते हैं,
वे साधक सिद्धि को प्राप्त करते हैं ।। २४ ।।
तानाश्रयन्ते देवेशि सत्कर्माणि न
संशयः ।
यस्तु दुःखं कृतं तासां
निन्दापारुष्यपैशुनः ॥ २५ ॥
तदर्थहरणं चैव तद्दोषस्यैव कीर्तनम्
।
वृथापवादकथनं तोडन तर्जनं तथा ।। २६
।।
असत्कर्माणि सर्वाणि हयाश्रयन्ते
खलान् हि तान् ।
कर्मणां देहसम्बन्धो नात्मनस्तु
कदाचन ॥ २७ ॥
हे देवेशि ! निःसन्देह सत्कर्म उन
साधकों का आश्रयण करके रहते हैं, जिनके द्वारा
निन्दा, कठोर वचन एवं पैशुन्य का दुःखद व्यवहार नहीं किया
जाता है। उन्हीं के लिए हरण और उन्हीं के दोषों का कीर्तन तथा वृथा ही अपवाद (झूठी
बात) का कथन, ताड़ना देना, झिड़कना आदि
सभी असत् कर्म उन दुष्ट जनों का ही आश्रय बना कर रहते हैं । अत: कर्म का सम्बन्ध
देह से होता है। आत्मा से कभी भी नहीं ।। २५-२७ ॥
स्तुतिनिन्दापि देवेशि देहगा
नात्मगोचरा ।
तस्माद्देहस्य संस्तुत्या निन्दया
वापि पार्वति ॥ २८ ॥
प्राप्यते पुण्यपापानि तदीयानि न
सशयः ।
पुण्यपापे निहत्यैवं वैकुण्ठे
विहरन्ति ताः ॥ २९ ॥
हे देवेशि ! स्तुति एवं निन्दा भी
देह से सम्बन्धित हैं। उनसे आत्मा का कोई भी सम्बन्ध नहीं हैं। निःसन्देह रूप से,
इसलिए, हे पार्वति ! व्यक्ति देह की स्तुति या
निन्दा से ही पाप या पुण्य आदि प्राप्त करते हैं। अतः वे सखियाँ पुण्य या पाप का
नाश करके ही वैकुण्ठ में विहार करती हैं ।। २८-२९ ।।
वैष्णव धाम यास्यन्ति सात्विक्यो
भगवत्प्रियाः ।
द्विपरार्द्धावसाने तु यास्यन्ति युगपद्धि
ताः ।। ३० ।।
वे भगवान् की सात्त्विक प्रियाएँ
वैष्णव-धाम को प्राप्त करती हैं और ब्रह्मा के दूसरे परार्द्ध के अवसान पर एक साथ
(बैकुण्ठ को) जाती हैं ।। ३० ।।
राजस्यश्चापि वैरच्यं तामस्यो
मन्निकेतनम् ।
न प्रकारविभेदोऽस्ति कर्महानौ
गिरीन्द्रजे ।। ३१ ।।
हे गिरिराज हिमालय की पुत्रि ! जो
राजसी सखियाँ हैं वे ब्रह्मा को तथा जो तामसी प्रेमिकाएँ है वे मेरे निकेतन (शङ्कर
के धाम) को जाती हैं। कर्म हानि होने पर भी उनमें किसी प्रकार का प्रकार विभेद
नहीं है ।। ३१ ।।
गुणानुरूपाञ्च गति सर्वे यान्ति न
संशयः ।
प्रकारं शृणु तत्रापि वैकुण्ठगमनं
प्रति ॥ ३२ ॥
उन सभी भगवत्प्रियाओं की गति,
निसन्देह रूप से उनके गुणों के ही अनुरूप होती है । वे सभी
भगवद्धामों को गुण के अनुसार प्राप्त करती हैं। उनके भी बैकुण्ठ जाने का प्रकार
(क्रम) है, जिसे हे देवि ! आप सुनें ।। ३२ ।।
वासनालिङ्गमेतासां देहान्ते पृथिवीं
विशेत् ।
कियत्कालं ततः स्थित्वा
पार्थिवेन्द्रियसंयुता ।। ३३ ।।
वासना से युक्त इनका शरीर मृत्यु के
बाद पृथ्वी पर पुनः जन्म लेता है । कुछ काल तक पार्थिव इन्द्रिय से संयुक्त होकर
वह वहीं रहता है ।। ३३ ।।
पार्थिवं विषयं देवि सेव्यमाना जलं
विशेत् ।
कियत्कालं ततः स्थित्वा लब्ध्वा
तत्रेन्द्रियं रसम् ।। ३४ ।।
हे देवि ! पार्थिव विषयों का सेवन
कर वह लिङ्ग शरीर फिर जल में प्रविष्ट हो जाता है । वहाँ पर वह कुछ समय तक
(इन्द्रियों का रस प्राप्त) करता है ।। ३४ ।
अतिदिव्यं सेव्यमाना तेजस्तत्त्वं
समाविशेत् ।
कियत्कालं ततः स्थित्वा
तेजसेन्द्रियसंयुता ॥ ३५ ॥
अति दिव्य विषयों का सेवन करते हुए
वह तत्व तेज में समाविष्ट हो जाता है । वहाँ पर कुछ समय तक रहकर वह तेजस
इन्द्रियों से संयुक्त होकर रहता है ।। ३५।।
विषयं रूपमासाद्य वायुतत्त्वं ततः विशेत्
।
कियत्कालं ततः स्थित्वा
त्वगिन्द्रियसमन्विता ।। ३६ ।।
वह लिङ्ग शरीर 'रूप' विषय का प्राप्तकर वायु तत्व में प्रविष्ट हो
जाता है। वहीं पर त्वगिन्द्रिय से सयुक्त होकर वह रहता है ।। ३६ ।।
दिव्यस्पर्शं च विषयं सेव्यमाना
खमाविशेत् ।
कियत्काल ततः स्थित्वा लब्ध्वा च
श्रोत्रमिन्द्रियम् ।। ३७ ।।
वह लिङ्ग शरीर दिव्यस्पर्श विषय का
सेवन करते हुए आकाश तत्त्व में प्रविष्ट हो जाता है । वहाँ पर वह कुछ काल तक
श्रोत्र इन्द्रिय को प्राप्त कर स्थित रहता है ।। ३७ ।।
विषयं शब्दमासाद्य ततो
भूतादिमाविशेत् ।
भूतादितामसं हित्वा राजस याति
सुन्दरि ।। ३८ ।।
वह श्रोत्र अपने विषय 'शब्द' को प्राप्त कर मृतादिकों में प्रविष्ट हो जाता
है । हे सुन्दरि ! तामस भूतादि को छोड़कर वह राजस को प्राप्त करता है ।। ३८ ।।
ततः सत्वमयं प्राप्य वैकुण्ठे रमते
चिरम् ।
अनेन क्रमयोगेन गमिष्यन्ति हरेः
प्रियाः ।। ३९ ।।
उसके बाद वह लिङ्ग शरीर [शब्द
ब्रह्म] सत्त्व मय रूप प्राप्त कर वैकुण्ठ में चिरकाल तक रमण करता है। इसी क्रम से
हरि की प्रियाए भगवद्धाम वैकुण्ठ को जाती हैं ।। ३९ ।।
एतत्तुभ्यं समाख्यातं वैकुण्ठगमनादिकम्
।
नाख्येयं यस्य कस्यापि तव
स्नेहात्प्रकाशितम् ॥ ४० ॥
हे देवि ! यह वैकुण्ठ गमन का क्रम
आदि मैंने आपसे कहा । इसे जिस किसी से कभी भी नहीं कहना चाहिए। यह तो मैंने आपके
स्नेह वश होकर कहा है ॥ ४० ॥
त्वयापि गोपनीयं हि सत्यं सत्यं न
संशयः ।
अपात्रायापि पुत्राय दत्त्वा
पापमवाप्नुयात् ॥ ४१ ॥
एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः
श्रोतुमिच्छसि ॥। ४२ ।।
अतः, हे देवि ! आपको भी निःसन्देह रूप से इस ब्रह्म विद्या का गोपन करना चाहिए।
यह सत्य सत्य जानिए। अपात्र के [पात्र] पुत्र को भी यदि इसे दिया जाय तो पाप ही
प्राप्त होता है। यह सब कुछ हमने आपसे कहा अब आप पुनः क्या सुनना चाहती हैं ।।
४१-४२ ।।
इति श्री माहेश्वरतन्त्रे
उत्तरखण्डे शिवोमासंवादे त्रयोविंशं पलम् ॥ २३ ॥
इस प्रकार श्रीनारदपाश्चरात्र आगमगत
'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड( ज्ञानखण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के तेइसवें
पटल को डॉ० सुधाकर मालवीयकृत 'सरला' हिन्दी
व्याख्या पूर्ण हुई॥२३॥
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 24

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