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माहेश्वरतन्त्र पटल २२

माहेश्वरतन्त्र पटल २२           

माहेश्वरतन्त्र के पटल २२ में तत्त्वज्ञान की महिमा, अक्षर के स्वप्नभूत प्रपञ्च में सखियों में वासना निरूपण, शब्द ब्रह्म, अहङ्कारादि की सृष्टि, कृष्ण प्रियाओं में वासना निरूपण और सिद्धि-साधन का वर्णन है।

माहेश्वरतन्त्र पटल २२

माहेश्वरतन्त्र पटल २२               

Maheshvar tantra Patal 22

माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल २२                

नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्

माहेश्वरतन्त्र बाइसवाँ पटल 

माहेश्वरतन्त्र द्वाविंश पटल

अथ द्वाविंशं पटलम

पार्वत्युवाच -

यदुक्तं देवदेवेश त्वया पशुपते प्रभो ।

प्रविश्य कर्णरन्ध्रेण चिदानन्दायते हृदि ॥ १।

भगवती पार्वती ने कहा- हे देव देवेश, हे पशुपति, हे प्रभु ! जो आपने ( तत्त्व ज्ञान की ) बात कही, वह कर्ण के छिद्रों से प्रविष्ट होकर हृदय में चित्त को अत्यन्त आनन्दित कर रही है ॥ १ ॥

तीर्थानां परमं तीर्थं ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् ।

योगानां परमो योगो धर्माणां धर्मं उत्तमः ॥ २ ॥

यह ज्ञान तीर्थों में भी परम तीर्थं, प्रत्यक्ष आदि ज्ञानों में भी उत्तम ज्ञान है । योगों में उत्कृष्ट योग और धर्मों में उत्तम धर्म है ।। २ ॥

श्रोतव्यानां च परमं श्रोतव्यमिदमेव हि ।

ज्ञातव्यानां च परमं ज्ञातव्यमिदमुच्यते ॥ ३ ॥

क्योंकि सुनने में यह सुनने योग्य मर्म है और ज्ञातव्य में यह परम ज्ञातव्य (ज्ञान) कहा जाता है ॥ ३ ॥

श्रुतं मया विशेषेण सोपपत्तिकमित्यपि ।

न तथाप्यन्तरात्मा मे तृप्तिमायाति शाश्वतीम् ॥ ४ ॥

यह भी मैंने उपपत्तिपूर्वक विशेष रूप से सुन लिया, तथापि मेरी अन्तरात्मा शाश्वत तृप्ति को नहीं प्राप्त कर रही है।।४।।

अतस्त्वां परिपृच्छामि विशेषं तत्र धूर्जटे ।

तं च ब्रूहि महादेव प्रसादपरमो भव ।। ५ ।।

अत: हे घूर्जंटि ! आप से उस ज्ञान में विशेष ज्ञान को पूछती हूँ । हे महादेव ! आप प्रसन्न हों और उस (विशिष्ट ज्ञान) को मुझसे कहें ॥ ५ ॥

स्वप्नभूतप्रपञ्चेस्मिन्नक्षरस्य परात्मनः ।

प्रियाः सख्यो भगवतो वासनावशतो गतः ।। ६ ।।

परमात्मा अक्षर के स्वप्नभूत इस प्रपञ्च में भगवान् को प्रिय सखियाँ भी वासना के वश (क्यों) हो गई ॥ ६ ॥

कियांस्तत्र गतः कालस्ता सामागमनादनु ।

कियत्कालं च ताः सर्वा इह स्थास्यन्ति मोहिताः ॥ ७ ॥

उनके आगमन के अनन्तर कितना काल व्यतीत हुआ ? और वे ही मोह में प्राप्त होकर कितने काल तक रहेंगी॥७॥

कथ ता बोधमाप्स्यन्ति कस्तासां प्रतिबोधकृत् ।

युगपद्वा गमिष्यन्ति पृथक वा परमेश्वर ॥ ८ ॥

वे कैसे प्रबुद्धावस्था को प्राप्त होगी ? और कौन उन्हें प्रबुद्ध कराने वाला होगा ? हे परमेश्वर ! वे साथ-साथ ही जायेगो, अथवा अलग-अलग ॥ ८ ॥

एतत्सर्वं महादेव कथयस्व प्रसादतः ।

संशयो मे महानद्य तमपानुद शङ्कर ।। ९ ।।

यह सब कुछ, हे महादेव ! आप प्रसन्न होकर मुझसे कहें। हे शङ्कर ! इसमें जो मुझे महान् सन्देह है" उसका आप निराकरण करें ।। ९ ।।

शिव उवाच-

शृण पार्वति वक्ष्यामि तव प्रश्नानशेषतः ।

त्वं मे प्राणाधिकेवासि तस्माद्वक्ष्ये यथातथम् ॥ १० ॥

भगवान् शङ्कर ने कहा- हे पार्वति ! सुनो। तुम्हारे सभी प्रश्नों का समाधान में कहूँगा । तुम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हो । अतः मैं तुमसे जैसा है वैसा ही कहूँगा ॥ १० ॥

विरञ्चेर्ब्राह्मण: पूर्व अष्टवक्त्रोऽभवद्विधिः ।

शब्दब्रह्मेति य प्राहुर्वेदवेदान्तपारगाः ।। ११ ।।

सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के पहले ( चार न होकर ) आठ मुख थे। जिसे वेद और वेदान्त के पारगामी विद्वानों ने 'शब्द ब्रह्म' के रूप से कहा है ॥ ११ ॥

द्विपरार्द्धावसानेस्य ब्राह्मः कल्पो महानभूतः ।

प्रलयोऽयं महेशानि प्रकृत्यवधिरुच्यते ॥ १२ ॥

दो परार्धो के बीत जाने पर इन ब्रह्मा का एक महान् 'ब्राह्म कल्प' हुआ । हे महेशानि ! यह प्रलय है जो प्रकृति की अवधि कहा गया है ।। १२ ।।

एका शिष्टा च प्रकृतिः पुरुषाधिष्ठिता हि सा ।

कियत्कालं ततो देवि शून्यमासीदिति श्रुतिः ।। १३ ।।

वस्तुतः एक प्रकृति है जो पुरुष में अधिष्ठित होकर रहती है। श्रुति के अनुसार उसके बाद, हे देवि ! कुछ काल तक शून्य ही था ।। १३ ।।

आविर्भूता ततो निन्द्रा अक्षरे परमात्मनि ।

महत्तत्वमतस्तस्माद् बहङ्कृतिरजायत ।। १४॥

उस परमात्मा अक्षर में तब निद्रा आविर्भूत हुई। पहले महत्-तत्त्व उत्पन्न हुआ। तब उसके बाद अहङ्कार आया । १४ ॥

स एव चत्रिधा जातो गुणभेदेन सुन्दरि ।

सात्विकच्च मनो जज्ञे देवताश्च दशैव ताः ॥ १५ ॥

हे सुन्दरि ! गुण के भेद से वही तीन ( गुण सत्व, रज और तम ) होकर उत्पन्न हुए । सात्त्विक गुण से मन और दस देवता उत्पन्न हुए । १५ ॥

राजसादिन्द्रियाण्यासन् भूतानि तमसोऽभवन् ।

तेभ्योऽण्डम भवेद्देवि तत्र नारायणः स्थितः ।। १६ ।।

राजस गुण से इन्द्रियों का जन्म हुआ और तमोगुण से ( पञ्च ) महाभूतों की उत्पत्ति हुई। उन पञ्च महाभूतों से एक अण्ड की उत्पत्ति हुई। हे देवि ! वहीं भगवान् नारायण स्थित रहते हैं ॥ १६ ॥

तस्य नाभेरभूत्पद्म यत्र ब्रह्माभवत्स्वयम् ।

द्विपरार्द्धमित चास्य परमायु निगद्यते ॥ १७ ॥

उनके नाभि से कमल उत्पन्न हुआ। जहाँ स्वयमेव ब्रह्मा का अविर्भाव हुआ । इन ब्रह्मा की आयु दो परार्धों [ अर्थात् एक युग का चार भाग करने पर दो भागों ] तक कही गयी है ॥ १७ ॥

अस्मिन् ब्रह्माण्डगोले हि जम्बूद्वीपे महेश्वरि ।

वर्षे भारतसंज्ञे हि प्रियाणां वासनाः स्थिताः ॥ १८ ॥

हे महेश्वरि ! इस ब्रह्माण्ड रूप गोलक के जम्बू द्वीप में भारतवर्ष नामक देश में (कृष्ण की) प्रियाओं की वासना स्थित हुई ।। १८ ।।

परार्द्ध प्रथमो जातो द्वितीयेस्मिन् महेश्वरि ।

निर्बंन्धारस्वामिनीनां च लीलामाविश्वकार ह ।। १९ ।

हे महेश्वरि! द्वितीय ( परार्द्ध ) में प्रथम परार्द्ध का जब आरम्भ हुआ तब बन्धन विहीन होने से उन स्वामिनियों की लीला आविष्कृत हुई ॥ १९ ॥

श्रीकृष्णः परमानन्दो नन्दगेहेभवत्तदा ।

गोपकन्यामिषेणैव ह्याविर्भूतास्ततः प्रियाः ॥ २० ॥

तब भगवान् परमानन्द श्रीकृष्ण नन्द के घर पर उत्पन्न हुए और उनकी प्रियाए तब वहीं व्रज में गोप कन्याओं के रूप में उत्पन्न हुई ।। २० ।।

तत्कामपूर्त्तये साक्षात् श्रीकृष्णः पुरुषोत्तमः ।

रासलीलां प्रकुर्वाणो रमयामास ताः प्रियाः ।। २१ ।।

भगवान् कृष्ण पुरुषोत्तम ने उनकी कामनाओं की पूर्ति के लिए साक्षात् रूप से रास लीला करते हुए उन प्रियाओं से रमण किया ।। २१ ।।

योगमायासमावेशान्मायाकार्य विलुंपतः ।

ब्रह्मणोऽपि लये जाते यथापूर्वमभूदिदम् ।। २२ ।।

पुनर्जातं ततः सर्व ब्रह्मादिस्थावरान्तकम् ।

मनोरथस्य चापूर्त्या वासनाः कार्यं मध्यगाः ॥ २३ ॥

योगमाया के समावेश के कारण माया का कार्य मोहग्रस्त था । ब्रह्म के भी विलीन हो जाने पर, जैसा यह ब्रह्म पहले था वैसा उस रास लीला में हुआ । उसके बाद पुनः ब्रह्म आदि स्थावर एवं जङ्गमात्मक जगत् की उत्पत्ति हुई । तब मनोरथ की पूर्ति के लिए कार्य के बीच में रहने वाली वासना की उत्पत्ति हुई ।। २२-२३ ।।

विचरन्ति यथा कालं यथादेशं यथारुचि ।

द्विपरार्द्ध त्वतिक्रान्ते नष्टे स्थावरजङ्गमे ॥ २४ ॥

विरंब्चो मुक्तिमापन्ने प्रबुद्धे चक्षरे प्रिये ।

प्रबुद्धा वासनास्ता हि भविष्यन्ति स्वबिम्बगा ।। २५ ।।

काल के अनुसार, देश के अनुसार और अपनी रुचि के अनुसार वह बासना विचरण करती रहती है, और द्वितीय परार्द्ध के बीत जाने पर स्थावर एवं जङ्गमात्मक जगत् के नष्ट हो जाने पर तथा ब्रह्मा के मुक्ति पा जाने पर, हे प्रिये ! वही प्रबुद्ध वासना अपने बिम्ब रूप से प्रबुद्ध अक्षर (ब्रह्म) में आ जाती है ।। २४-२५ ॥

आविर्भावाच्च लीलाया द्वापरान्ते कलौ युगे ।

असहिष्णुः स्वप्रियाणां दुःखलीलानुदर्शनम् ।। २६ ।।

द्वापर युग के अन्त में एवं कलि युग के प्रारम्भ होने पर लीला का आविर्भाव होता है । अपनी प्रियाओं के असहिष्णु होने पर तथा दुःख-लीला के दर्शन की इच्छा के कारण ऐसा भगवान् करते हैं ॥ २६ ॥

तासामेकां च परमां सुभगां सुन्दरीं प्रियाम् ।

प्रबोधयिष्यतितरां कथयित्वा विनिर्णयम् ।। २७ ।।

उन प्रियाओं में एक सुन्दर अङ्गों वाली उत्कृष्ट सुन्दरी प्रिया अपने ( लीला दर्शन के ) निर्णय को कहकर उन अक्षर ब्रह्म परमात्मा को प्रबुद्ध करेगी ॥ २७ ॥

ततस्तत्सम्प्रदायेन सर्वास्ता भगवत्प्रियाः ।

स्वभर्तृ विरहाक्रान्ताः त्यक्त्वा देहान् प्रपञ्चगान् ॥ २८ ॥

भगवल्लोकवैकुण्ठे स्थितिमाप्स्यन्ति यूथशः ।

पद्मया रममाणास्ताः कालभोगे यथाविधि ।। २९ ।

इसके बाद वे सभी उस सम्प्रदाय वाली प्रियाए भगवान् की प्रिय होने से अपने भर्ता श्रीकृष्ण के विरह से आक्रान्त होकर अपने पाञ्चभौतिक शरीर को त्याग कर भगवान् के लोक बैकुण्ठ में एक-एक यूथ के रूप में स्थिति को प्राप्त करेंगी । पद्मा के साथ रमण करती हुई वे यथाविधि काल का उपभोग करेगी ।। २८-२९ ॥

दिव्यदेहानपि त्यक्त्वा भविष्यन्ति स्वबिम्बगा ।

अक्षरोऽप्यनुभूयैतत्स्वप्नवत् परमेश्वरि ॥ ३० ॥

परमानन्दसम्मग्नो भविष्यति कृतार्थधीः ।

सर्वा लीला नित्यरूपा भविष्यन्ति तदा प्रिये ॥ ३१ ॥

वहाँ बैकुण्ठ में भी अपने दिव्य शरीर को भी वे त्याग कर अपने बिम्ब रूप से प्रतिष्ठित होंगी। हे परमेश्वरि ! अक्षर (ब्रह्म) भी यह सब स्वप्न के समान अनुभव करके परम आनन्द में विभोर होकर अपने को कृतार्थं बुद्धि वाला समझेंगे । हे प्रिये ! तभी नित्य रूपा सभी लीला होंगी ।। ३०-३१ ॥

भगवल्लोकमात्मानं दिव्यभावेऽपि सुन्दरि ।

अविद्यालेश सम्बन्धादक्षरस्य परात्मनः ।। ३२ ॥

निद्रांशस्यापि शेषत्वात् कियत्कालमवस्थितिः ।

युगपद्देवि सर्वास्ता गमिष्यन्ति निजं गृहम् ।। ३३ ।।

हे सुन्दरि ! दिव्य भाव होने पर भी भगवान् के अपने लोक में परमात्मा अक्षर में अविद्या के लेश मात्र सम्बन्ध से तथा निद्रा के कुछ शेष रहने पर कुछ काल तक ही उनकी अवस्थिति रहती है। हे देवि ! वे सभी वासना रूपा बिम्ब को प्राप्त प्रियाएं अपने गृह को चली जाएंगी ।। ३२-३३ ॥

न कथञ्चन देवेशि गतिस्तासां पृथक् भवेत् ।

स्वप्नस्य विषये साम्यादेकात्म्याच्च तथा प्रिये ॥ ३४ ॥

हे देवेशि ! किसी भी प्रकार से उनकी गति उन अक्षर ब्रह्म से अलग नहीं होती है । हे प्रिये ! क्योंकि यह लीला अक्षर ब्रह्म की निद्रा में स्वप्न का विषय होने से और बिम्ब रूप प्रिया का उनमें एकात्म होने से पृथक् नहीं है अतः ॥ ३४ ॥

वैरस्याच्च विचित्रत्वे भर्तृस्नेहाविशेषतः ।

न पृथक् गमनं तासां तस्माद्वैकुण्ठसंस्थितिः ।। ३५ ।।

भर्ता श्री कृष्ण के अतिशय प्रेम के कारण और विचित्र लीला के वैरस्य के कारण उन प्रियाओं का पृथक गमन नहीं होता। इसीलिए उनकी स्थीति वैकुण्ठ में होती है ।। ३५ ।

क्रमयोगेन देवेशि सर्वा यास्यन्त्यसंशयम् ।

तस्माद्देवि विशेषेण स्वपतिः पुरुषोत्तमः ।। ३६ ।।

हे देवेशि ! निःसन्देह वे सभी प्रियाएं क्रमपूर्वक वहाँ बैकुण्ठ में जाएँगी । हे देवि ! क्योंकि पुरुषोत्तम ही विशेष रूप से उनके पति हैं ।। ३६ ।।

भजनीयो हि सततं वेदशास्त्रानुरोधतः ।

देहेन्द्रियस्वभावानामन्तं कर्माणि पार्वति ।। ३७ ।।

अतः हे पार्वति ! वेदशास्त्र के अनुरोध के अनुसार साधक को देह एवं इन्द्रियों के स्वाभाविक कर्मों को करते हुए भी भगवान् कृष्ण का भजन करना चाहिए ॥३७॥ -

आत्मनोन्तं परब्रह्मध्यानश्रवणकीर्तनम् ।

स्वभावाज्जायते कर्म सदसच्चेति सर्वथा ।। ३८ ।।

अपनी अन्तरात्मा में उन भगवान् का ध्यान, उनकी कथा का श्रवण तथा उनका कीर्तन करते हुए ही रहना चाहिए । इन्द्रियों के सत् या ( मलमूत्र त्याग आदि ) असत् कर्म तो स्वभाव से सर्वथा होते ही रहते हैं ॥ ३८ ॥

सत्त्यागादसदासङ्गन्नानायोनिभ्रमो भवेत् ।

आधिव्याधिदरिद्रोत्थपीडाविस्मारिततात्मनः॥ ३९ ॥

जीव सत्कर्मों के त्याग से तथा असत् कर्मों के सर्वथा सङ्ग से नाना योनियों में भ्रमण करता रहता है। वह जीव परमात्मा से अलग होकर आधि, व्याधि और दारिद्रय से उत्पन्न पीड़ा से अपने स्वरूप को भूल जाता है ॥ ३९ ॥

उद्रिक्ततमसो देवि न शुभ स्यात्कदाचन ।

तस्मात्कर्तव्यमेवेह देहपर्यवसायि यत् ॥ ४० ॥

हे देवि ! बिना अन्धकार के हटे कभी भी शुभ कर्म नहीं हो सकता है । इसलिए जो देह में पर्यवसान करने वाले कर्म हैं, उन्हें छोड़कर भगवान् का ध्यान ( कथा ), श्रवण एवं कीर्तन आदि ही परमार्थ रूप से इस लोक में कर्तव्य हैं ॥ ४० ॥

देहान्ते कर्मसम्बन्धो न भविष्यति कर्हिचित् ।

प्रत्यवायनिवृत्यर्थं म निष्टाचरणस्य च ॥ ४१ ॥

नित्यं नैमित्तिकं कार्यं काम्यं कर्म परित्यजेत् ।

एवं यो वर्त्तते देवि निष्प्रत्यूहं स सिध्यति ।। ४२ ।।

देह के पश्चभूत में विलीन हो जाने पर उन कर्मों का उस शरीर से कोई भी सम्बन्ध नहीं होगा । अतः प्रत्यवाय (बाधा) की निवृत्ति के लिए तथा उससे अनिष्ट का आचरण होने से देह के साथ सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। साधक को नित्य तथा नैमित्तिक कर्म तो करना चाहिए किन्तु काम्य कर्म का सर्वथा परित्याग करना चाहिए। हे देवि ! इस प्रकार से जो साधक साधना करता है उसे निःसन्देह सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।। ४१-४२ ।।

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामलोलुपः ।

स सिद्धिमिह नाप्नोति परत्र न पराङ्गतिम् ॥ ४३ ॥

जो व्यक्ति काम लोलुप होकर शास्त्रों के अनुसार कर्म का परित्याग कर जीवन यापन करता है, वह यहाँ सिद्धि तो नहीं ही प्राप्त करता है और उसकी ऊर्ध्व गति भी बाधित हो जाती है ।। ४३ ।।

एतत्ते सर्वमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वया प्रिये ।

समासेन महेशानि कि भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४४ ॥

हे प्रिये ! इस प्रकार जो आपने पूँछा, वह सभी हमने आपको सक्षेप में बतलाया है । हे महेशानि ! अब आपक्या सुनना चाहती हैं ? ।। ४४ ।।

॥ इति श्री माहेश्वरतन्त्रे उत्तरखण्डे शिवोमासंवादे द्वाविंशं पटलम् ॥ २२ ॥

इस प्रकार श्रीनारदपाश्चरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञानखण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के बाइसवें पटल को डॉ० सुधाकर मालवीयकृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ।। २२ ।

आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 23

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