माहेश्वरतन्त्र पटल २१
माहेश्वरतन्त्र के पटल २१ में अक्षर
रूप ब्रह्म की इच्छाशक्ति से सृष्टि का निरूपण, ब्रह्मविद्या के लिए त्याज्य
अधिकारी का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल २१
Maheshvar tantra Patal 21
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल २१
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र इक्कीसवाँ पटल
माहेश्वरतन्त्र एकविंश पटल
अथ एकविंशं पटलम्
शिव उवाच -
अतोऽन्यत् शृणु देवेशि ! रहस्यं
किञ्चिदुत्तमम् ।
गोपनीयं प्रयत्नेन यस्मै कस्मै न
दर्शयेत् ॥ १ ॥
शिव ने कहा- हे देवेशि ! अब कुछ और
भी उत्तम रहस्य की बात सुनो। इसका प्रयत्नपूर्वक गोपन करना चाहिए। इस विद्या को
जिस किसी को नहीं बताना चाहिए ॥१॥
परीक्षिताय वक्तव्यं
ताडनंस्तर्जनादिभिः ।
ऋते पात्रमिदं ज्ञानं न तिष्ठति
कदाचन ॥ २ ॥
ताड़ना और तिरस्कार आदि बहुत प्रकार
से परीक्षा करके ही इसे किसी को बताना चाहिए। यह ज्ञान कभी भी सुपात्र को छोड़कर [
कुपात्र में ] नहीं रहता ॥ २ ॥
अविभूताक्षरे शक्तिरिच्छा नाम
सुमङ्गला ।
अङ्गान्यावृत्य
सत्प्रेमविरहोत्कण्ठयदर्शने ॥ ३ ॥
'अक्षर' में
सुमङ्गला नाम की इच्छा शक्ति उत्पन्न होने पर सात्त्विक प्रेम के कारण अङ्गों को
आवृत्त करके विरह और दर्शन के लिए उत्कण्ठा जागृत हो जाती है ॥ ३ ॥
रतिमुत्पादयामास ततः सा
पुरुषोत्तमम् ।
प्रार्थयामासुरौत्सुक्यात्स्वामिन्या
सह सङ्गता ॥ ४ ॥
तब वह रति को उत्पन्न करती है।
स्वामिनी के साथ सङ्गत होने की उत्सुकता के कारण वह इच्छाशक्ति पुरुषोत्तम से
प्रार्थना करती है ॥ ४ ॥
निवारिता बहुविधेर्वाक्यरिच्छा
विमोहिताः ।
म मेनिरे प्रियाः सर्वा
प्रार्थयामासुरन्वहम् ॥ ५ ॥
वह इच्छा शक्ति बहुविध वाक्यों से
निवारित होने पर भी विशेष प्रकार से मोहित हो जाती है। उन सभी प्रियाओं ने मान
नहीं किया और नित्य प्रति अर्चना प्रार्थना ही की ॥ ५ ॥
प्रार्थना स्वीकृतास्तासामतीतेनाक्षराद्यदा
।
तदा सा पुनरासाद्य निद्रा
चित्यन्वधात्प्रिये ॥ ६ ॥
अतीत अक्षय के द्वारा जब उनकी
प्रार्थना स्वीकृत हो जाती है तब, हे प्रिये ।
वह पुनः निद्रा में आकर 'चित्' में आ
जाते हैं ॥ ६ ॥
चिदात्मा पुरुषः साक्षान्मोहमय्येव
निद्रया ।
घूर्णितोशेत सन्मंचे पञ्चब्रह्ममये
शुभे ॥ ७ ॥
चिदात्मा पुरुष साक्षात् मोहमयी
निद्रा के कारण पञ्च ब्रह्ममय और शुभ एवं सत् शग्या पर निद्रालु हो सो गए । ७ ।।
देव निद्रा घूर्णो
विस्मृतात्माऽभवत् प्रिये ।
हृदयाब्जकणिकामध्ये विहरेतापरा हि
सा ॥ ८ ॥
निद्रा से वे निद्रित हुए तब,
हे प्रिये ! वे अपनी आत्मा को विस्मृत कर बैठे। क्योंकि अन्य वह
हृदय कमल को कर्णिका के मध्य बिहार करे ॥ ८ ॥
व्यचिनोत्पञ्चधा देवि ! स्वरूपमपि
चात्मना ।
उद्गारिणी पालिका च तथा संहारिकापि
च ॥ ९ ॥
विशाला व्यापिका चेति शक्तयः पञ्च
कीर्तिता ।। १० ।।
हे देवि ! उन्होंने पाँच प्रकार से
अपने स्वरूप को भी विभक्त कर दिया - जो १. उदगारिणी [ पैदा करने वाली ],
२. पालिका [ पालन करने वाली ], ३. संहारिका,
४ . विशाला और ५. व्यापिका -- नामक पाँच शक्तियाँ हैं ।। ९-१० ॥
रजः प्रधानहारिणी पालिनी साविको मता
।
तमः प्रधाना संहर्त्री शुद्धसत्वा
विशालिका ॥ ११॥
पालिनी और हारिणी ( उद्गारिणी)
शक्ति रजःप्रधान और सात्त्विक गुणयुक्ता है। संहर्त्री और विशाला शक्ति तमः प्रधान
और शुद्ध सत्त्वगुण वाली है ॥ ११ ॥
निर्गुणाध्यापिका शक्तिरिच्छा
पञ्चविधोदिता ।
एता एवोदिता देवि ! जाग्रति
प्राकृतास्तथा ।। १२ ।।
व्यापिका शक्ति विना गुण वाली पांच
प्रकार की इच्छा शक्ति को जन्म देती है । हे देवि ! इसी से जाग्रत तथा प्राकृता
शक्ति उत्पन्न होती है ॥ १२ ॥
इच्छामय्यस्तु शयने तस्मान्मञ्चो
निरामयः ।
उद्गारिणीपालिकयोः
स्कन्धयोस्तत्पदद्वयम् ।। १३ ।।
शयन में वह ब्रह्म इच्छामय होते हैं
किन्तु उनका मञ्च निरामय [नी रोग ] होता है। उद्गारिणी और पालिका दोनों ही उनके
दोनों कन्धे और पैर के समान है ।। १३ ।।
विशालाहारिणीकण्ठदेशे पाणिद्वयं
स्थितम् ।
व्यापिका मच्चफलकीभूताधारतया स्थिता
॥ १४ ॥
विशाला और हारिणी ( उद्गारिणी)
शक्ति कण्ठ प्रदेश और दोनों हाथ में स्थित रहती है । किन्तु व्यापिका शक्ति मञ्च
की चौकी पर आधार रूप से स्थित होती है ॥ १४ ॥
पञ्चसु प्रतिबिम्बोऽभूदक्षरस्य
चिदात्मनः ।
बिम्बितं यत्तु चैतन्यं
तस्मिन्नुद्गारिणी हि सा ।। १५ ।।
अक्षर रूप चिदात्मा का उन पांचों पर
प्रतिबिम्ब पड़ता है। जो यह चैतन्य रूप प्रतिबिम्ब है उस रूप में वह 'उद्गारिणी शक्ति' होती है ।। १५ ।।
दर्शयामास वेदास्याद्युपाधिमतिविस्तृतम्
।
बिम्बितं यत्तु चैतन्यं तस्मिन् या
पालिनी शिवे ।। १६ ।।
अदर्शयच्चतुर्भुजाद्युपाधिमतिविस्तृतम्
।
विम्बितं यत्त चैतन्य तस्मिन्
संहारिणी तु या ।। १७ ।।
अदर्शयन्त्रनेत्राद्युपाधिमतीव
सुन्दरि ! ।
बिम्बितं यत्तु चैतन्यं तस्मिन् या
तु विशालिका ।। १८ ।।
उन्होंने उससे अतिविस्तृत आयुपाधि
मुख रूप वेदों को दिखलाया । हे शिवे ! 'पालिनी
शक्ति' में इनका तो प्रतिबिम्ब पड़ता है वह अतिविस्तृत
आयुपाधि चतुर्भुज रूप को प्रकट करता है। संहारिणी [ 'विशाला'
] शक्ति में जो उनका चैतन्य- रूप प्रतिबिम्ब पड़ता है उससे, हे सुन्दरि ! त्रिनेत्र आदि उपाधियों को प्रकट किया ॥१६-१८॥
अष्टबाह्वाद्युपाधिं च दर्शयामास
केवलम् ।
विम्बितं यत्त चैतन्यं तस्मिन् या
व्यापिका मता ।। १९ ।।
व्यापिका शक्ति में जो चैतन्यरूप
प्रतिबिम्ब पड़ता है उससे मात्र अष्टबाहु आदि उपाधियों को प्रकट किया ॥१९॥
दशबाहुं च पञ्चास्याद्युपाधिमसृजत्प्रिये
।
ब्रह्मा विष्णुश्च सद्रश्च ईश्वरश्च
सदाशिवः ।। २० ।।
हे प्रिये ! उसने इस प्रकार ब्रह्मा,
विष्णु, रुद्र, ईश्वर और
सदाशिव नामक पांच मुख एवं दस हाथ की उपाधि का सृजन किया ॥ २० ॥
पञ्चपादत्वमापन्ना नित्यमुद्वहते परम्
।
सृष्टि स्थितिं च संहारं
तिरोधानमनुग्रहम् ॥ २१ ॥
इस प्रकार नित्यप्रति सृष्टि,
स्थिति, संहार, विरोधान
और अनुग्रह रूप से पांच प्रकार से वह संपादित है ।। २१ ।।
नित्यमेव प्रकुर्वन्ति भूताधिष्ठातृरूपिणः
।
सृष्ट्यादित्रयसिद्धयर्थं त्रयाणां
बुभूजेंशतः ।। २२ ।।
भूतों के अधिष्ठातृ रूप वाले ये
नित्य ही सृष्टि [ प्रलय और पालन] आदि तीन की सिद्धि के लिए अंशतः तीन का ही भोग
करते हैं ॥ २२ ॥
तिरोधानानुग्रहौ तु मञ्चपादस्थयोर्विदुः
।
पञ्चशक्तिप्रभेदेन परेच्छैव सुमङ्गला
।। २३ ।
ब्रह्मविष्ण्वादिरूपाणि धत्ते नानास्वरूपिणी
।
अक्षरस्य तु रूपे द्वे पुरुषाक्षरभेदतः
।। २४ ।।
तिरोधान और अनुग्रह को मञ्चपादस्थ ही
जानना चाहिए। उस श्रेष्ठ ब्रह्म की मङ्गला इच्छा के पांच भेद प्रभेद से ब्रह्मा,
विष्णु और रूद्र रूप में नाना स्वरूपिणी सृष्टि संपादित होती है ।
वस्तुतः पुरुष और अक्षर भेद से अक्षर ब्रह्म [शब्द ब्रह्म] के ही दो रूप हैं ।।
२३-२४ ।।
नारायणस्तु पुरुषाज्जज्ञे
स्वप्नेक्षिता स्वयम् ।
नादबिन्दु शिवः शक्तिर्जातो
नारायणात्प्रिये ।। २५ ।।
नादबिन्दुमयत्वेन त्रिधा नारायणः
स्थितः ।
सङ्कर्षण वासुदेवः प्रद्युम्नः
अनिरुद्धकः ।। २६ ॥
चतुर्धा विष्णुरेवोक्तो ह्यंशभेदा
ह्यनेकशः ।
एकादश विभेदात्मा रुद्रोऽहमहमीश्वरि
।। २७ ।।
मदात्मभेदाः शतशः कोटिशः सन्ति
सुन्दरि ।
सदाशिवेश्वरावेतो आत्मभेदाविवज्जितौ
॥ २८ 4
पुरुष से स्वयं ही स्वप्न रूप में 'नारायण' उत्पन्न हुए और हे प्रिये ! उन नारायण से
नाद और बिन्दु एवं शिव तथा शक्ति प्रकट हुए। इस प्रकार नाद एवं विन्दु रूप से
नारायण ही तीन प्रकार स्थित रहते हैं। संकर्षण, वासुदेव,
प्रद्युम्न, एवं अनिरुद्ध – ये चार अंशभेद से विष्णु के ही अनेकशः रूप कहे गए हैं। हे ईश्वरि, मैं रुद्र प्रधान रूप से एकादश रूप वाला हूँ । यद्यपि हे सुन्दरि ! सदाशिव
और ईश्वर मेरे इन दो रूपों को छोड़कर सैकड़ों और करोड़ों हमारे भेद हैं ।। २५-२८
।।
वेदप्रणव भेदेन द्विधा नारायणोदभूत्
।
नाद एव महेशानि बहु
स्यामित्यवेक्षणात् ।। २९ ।।
वेद और प्रणव भेद से नारायण दो
प्रकार में समद्भूत हुए। हे महेशानि ! एक मैं बहुत होऊ इस इच्छा से 'नाद' प्रकट हुआ ॥ २९ ॥
न भेदो विद्यते बिन्दो अखण्डात्मनि
सुन्दरि ।
महत्तत्वमिदं भद्रे मनो नारायणस्य तत्
॥ ३० ॥
हे सुन्दरि ! अखण्डात्मक 'बिन्दु' के भेद नहीं हैं। उन नारायण का यह मन ही 'महत् तत्त्व' है ॥ ३० ॥
मनसस्तु बहु स्यामित्यमन्यत यदा हि
सः ।
अहङ्कारस्ततो जज्ञ े प्रसृतो
बिन्दुतां ययौ ॥ ३१ ॥
जब उन नारायण ने यह सोंचा कि मैं
बहुत होऊ तो उनसे अहङ्कार पैदा हुआ जो फैलकर 'बिन्दु'
बन गया ।। ३१ ।।
बिन्दु: शून्यात्मको
ज्ञेयस्तस्माद्विश्वं निरर्थकम् ।
व्याप्तोऽहङ्कार एवायं ब्रह्माभासे
दृश्यते ॥ ३२ ॥
बिन्दु को शून्यात्मक जानना चाहिए।
इसलिए विश्व निरर्थक [असत्य ] है । वस्तुतः यह व्याप्त अहङ्कार ही ब्रह्म के आभास
के रूप में दृष्टिगोचर होता है ।। ३२ ।।
ब्रह्माभासो निर्विकारो
निष्प्रपञ्चो निरञ्जनः ।
न करोति न लिप्येत प्रदीप इव भासकः
।। ३३ ।।
यह ब्रह्माभास,
निर्विकार, निष्प्रपञ्च और निरञ्जन [निर्मल ]
है । वस्तुत: न यह कर्ता है और न तो यह लिप्त होता है । जैसे दूसरे पदार्थों को
प्रकाशित करने वाला दीपक स्वयं उसमें न लिप्त रहता है और न तो उसका कर्ता है ।। ३३
।।
अहङ्कारस्य कर्तृत्वं भोक्तृत्वमपि
सुन्दरि ।
धर्माधर्मो पुण्यपापे
बन्धमोक्षादिकं तथा ।। ३४ ।।
इसी प्रकार हे सुन्दरि ! अहङ्कार का
कर्तृत्व और भोक्तृत्व भी, धर्म-अधर्म,
पुण्य-पाप एवं बन्धन तथा मोक्ष आदि वैसे ही आभासित है ।। ३४ ।।
अहङ्कारेण भिद्येत नानाभेदव्यवस्थया
।
अहङ्कारेण तादात्म्यादाभासेऽपीक्षते
स्फुटम् ॥ ३५ ॥
नाना प्रकार के भेद की व्यवस्था से
वह अहङ्कार द्वारा ही भेदित होता है। वस्तुतः अहङ्कार के तादात्म्य से वह स्पष्ट
रूप से आभास की अवस्था में भी देखता रहता है ।। ३५ ॥
अहङ्कारमयो ग्रन्थिर्यावन्नैव
विभिद्यते ।
अविद्यमानः संसारः तथाप्येनं न
मुञ्चति ।। ३६ ।।
इस प्रकार अहङ्कार ग्रन्थि का भेदन
जब तक नहीं होता, तब तक यह अविद्यमान
संसार भी इस [जीव] को नहीं छोड़ता है ।। ३६ ।।
स्फटिकस्यैव रागित्वं
जपाकुसुमयोगजम् ।
नापगच्छति तद्देवि कुसुमापहृति विना
॥ ३७ ॥
जपाकुसुम के संश्लिष्ट होने से
स्फटिक में पड़ने वाली लालिमा, हे देवि,
तब तक नहीं हटती जब तक कि जपा (ओड़हुल) के लाल फूल को उससे दूर न
हटा दिया जाय ॥ ३७ ॥
तथा संसरणं जीवे ह्यहङ्कारच्युतिं
विना ।
निवर्तते न देवेशि
कल्पकोटियुतायुतेः ।। ३८ ।।
उसी प्रकार हे देवि ! जीव में
संविष्ट अहङ्कार की च्युति के बिना करोड़ों कल्पों में भी असत्य संसार का भान नष्ट
नहीं होता ॥ ३८ ॥
सोऽहङ्कारस्त्रिधा प्रोक्तो
गुणभेदेन पार्वति ।
अहङ्कारोऽयमेवाहं तथा जीवगतो द्विधा
॥ ३९ ॥
हे पार्वति ! वह अहङ्कार ही गुण के
भेद से तीन प्रकार का कहा गया है। यह 'अहङ्कार'
में ही हूँ जो दो प्रकार से जीव में रहता हूँ ।। ३९ ।।
महत्तत्वं त्रिधा प्रोक्तं आध्यात्मादिप्रभेदतः
।
नारायणमनोरूपमाधिदैविकमुच्यते ॥ ४०
॥
अध्यात्म आदि भेद प्रभेद से 'महत्-तत्व' तीन प्रकार का है। नारायण का [जीव में]
मन रूप में होना 'आधिदैविक' कहा गया है
॥ ४० ॥
जीवानां चित्तरूपं यदध्यात्म्यमिति
चक्ष्यते ।
ब्रह्मणो देहरूपस्थमाधिभौतिकमुच्यते
॥ ४१ ॥
जीवों में 'चित्त' रूप से जो वह 'अध्यात्म'
रूप से अभिहित होता है। ब्रह्म का जो 'देहस्थ'
रूप है वह 'आधिभौतिक' कहा
जाता है । ४१ ।।
नारायणेधिदेवेन रूपेण परिनिष्ठितम्
।
आविर्बुभूव तद्वर्णभेदेर्वेदस्वरूपतः
॥ ४२ ॥
आधिदैविक रूप से परिनिष्ठित नारायण
ही उनके वर्णभेदों के द्वारा वेद स्वरूप में अविर्भूत होते हैं ॥ ४२ ॥
जीवगं यत्तु देवेशि चित्तरूपतया
स्थितम् ।
सुषुम्णावर्त्तिना प्राणवायुना सह
सङ्गतम् ॥ ४३ ॥
हे देवेशि,
जीव में जो चित्त रूप से स्थित है वह सुषुम्ना में रहने वाली प्राण
वायु से संगत है ॥ ४३ ॥
वायुस्तेन युतो देवि
ब्रह्मरन्ध्रातः पुनः ।
ताल्वोष्ठपुटनासादिभेदेन परमेश्वरि
।। ४४ ।।
वर्णात्माविर्भवति गद्यपद्यादिभेदतः।
ब्रह्मदेतया यस्मात् स्थितं
त्रैलोक्यकारणम् ।। ४५ ।।
अतस्तस्माज्जगज्जातं देवासुरनरोरगम्
।
इति तेऽभिहितं देवि रहस्यं
परमाद्भुतम् ।। ४६ ।।
हे देवि ! उससे युक्त होकर वायु
पुनः ब्रह्मरन्ध्र से आहत होकर, हे परमेश्वरि, तालु, ओष्ठ, पुट और नासिका के
भेद से उत्पन्न होता है । उस तालु, ओष्ठ आदि से गद्य और पद्य
आदि भेद के रूप में वही [शब्द ब्रह्म] वर्णात्मक रूप से अविर्भूत होता है ।
क्योंकि त्रैलोक्य का कारण रूप ब्रह्म देह रूप से स्थित है । अतः उससे देव,
असुर, नर और सर्प आदि जीवों की उत्पत्ति हुई।
इस प्रकार, हे देवि, परम अद्भुत रहस्य
मैंने तुम्हें बताया है ।। ४४-४६ ॥
श्रद्धाहीनाय दुष्टाय कृतघ्नाय
दुरात्मने ।
नास्तिकायाविनीताय वेदशास्त्रोद्गताय
च ॥ ४७ ॥
अविश्वस्ताय देवेशि दर्शयेन्म
कथञ्चन ।
यदा राजा तु सर्वस्वं बलं कोशो
महीगजान् ॥ ४८ ॥
निवेदयतु जिज्ञासुस्तदा तस्मै
प्रकाशयेत् ।
अन्यथा सिद्धिहानिः स्यात् सत्यं
सत्यं न संशयः ।। ४९ ।।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गोपितव्य
स्वयापि हि ।। ५० ।।
श्रद्धाविहीन,
दुष्ट कृतघ्न और दुरात्मा, नास्तिक, अविनीत एवं वेद शास्त्र को न जानने वाले को और अविश्वस्त पुरुष को,
हे देवेशि, कभी भी यह ज्ञान नहीं देना चाहिए।
यह ज्ञान तभी प्रकाशित करे जब कोई जिज्ञासु राजा अपना बल [ = सेना] खजाना, पृथ्वी और हाथी आदि सभी कुछ निवेदित कर दे। नहीं तो सिद्धि समाप्त हो जाती
है । यह निश्चय ही सत्य है । इस में कोई संशय नहीं जानना चाहिए। इसलिए, हे प्रिये, तुम्हें भी सब प्रकार से इस ( रहस्य ) का
गोपन ही करना चाहिए ।। ४७-५० ॥
॥ इति श्रीनारदपञ्चरात्र
श्रीमाहेश्वरतन्त्र शिवपार्वती संवादे एकविंशं पटलम् ।। २१ ।।
इस प्रकार श्री नारदपञ्चरात्र आगमगत
'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञानखण्ड ) में मां जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के
इक्कीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ।। २१ ।।
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 22

Post a Comment