माहेश्वरतन्त्र पटल २०
माहेश्वरतन्त्र के पटल २० में कूटस्थ
ब्रह्म की रहः लीला में दुःख दर्शन की लालसा क्यों, ब्रह्मविद्या के गोपन का निरूपण, ब्रह्मविद्या
निरूपण का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल २०
Maheshvar tantra Patal 20
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल २०
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र बीसवाँ पटल
माहेश्वरतन्त्र विंश पटल
अथ विंशं पटलम्
पार्वत्युवाच-
अहो देव महादेव परात्मन् परमेश्वर ।
त्वदुक्तमेतदाश्रुत्य मनो मे
क्षुभ्यतेतराम् ॥ १॥
पार्वती ने कहा-- हे देव,
महादेव, परमेश्वर आपके इस प्रकार के वचनों को
सुनकर मेरा मन अत्यन्त क्षुभित हो रहा है ॥ १ ॥
निरीहस्यापि देवस्य कूटस्थ
परमात्मनः ।
दिदृक्षा यत्समुत्पन्ना
रहःक्रीडावलोकने ॥ २ ॥
निस्पृह भी देव,
जो कूटस्थ है और परमात्मा है, उसे 'रह:क्रीडा' के अवलोकन की इच्छा आखिर कैसे उत्पन्न हो
जाती है ? ॥ २ ॥
नित्यानन्दविहाराणां प्रियाणां
परमात्मनः ।
दिक्षा यत्समुत्पन्ना केवलं
दुखदर्शने ॥ ३ ॥
नित्यप्रति आनन्द समुद्र में बिहार
करने वाले प्रिय परमात्मा की इच्छा केवल दुःखदर्शन की कैसे हो जाती है ?
॥ ३ ॥
इत्येतन्महदाश्चर्यं प्रतिभाति
महेश्वर ।
तन्निराकुरु देवेश मनः शस्यं
महातिकृत् ॥ ४ ॥
हे महेश्वर ! यह मुझे महान आश्चर्य
हो रहा है कि परस्पर विरोधी बातें कैसे होती हैं ? अतः हे देवेश ! इस मन के दुःखदायी काँटे को मेरे मन से निकाल दीजिए अर्थात्
संशय का निवारण करें ॥ ४ ॥
पूर्णस्यैवाप्तकामस्य किन्तु
क्रीडावलोकनै: ।
तदङ्गभूतास्तत्तुल्याः प्रियास्तु
परमात्मनः ॥ ५ ॥
पूर्ण और आप्तकाम [ - जिसकी सभी
कामनाएँ पूर्ण हैं ] वह भी क्रीडावलोकन मात्र में कैसे प्रवृत्त होता है?
उसके अङ्गभूत और उसके तुल्य वस्तु परमात्मा का प्रिय कैसे होता है ?
॥ ५ ॥
दुःखकामः कथं तासु
केवलानन्दमूर्त्तिषु ।
न दुःखदर्शने कश्चिन्मूर्खो वा रमते
क्वचित् ॥ ६ ॥
उन मात्र आनन्द की मूर्ति ब्रह्म
में दुःखदर्शन की कामना कैसे जागृत होती है? क्या
कहीं भी कोई मूर्ख दुःख दर्शन की लालसा या उसमें रमण करने की कामना करता है ?
॥ ६ ॥
एतदाचक्ष्व भगवन् कृपां कृत्वा
ममोपरि ।
शिव उवाच-
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि रहस्यं
परमाद्भुतम् ॥ ७ ॥
अतः हे भगवन् ! मेरे ऊपर कृपा करके
उसे मुझे बताइए ।
शिव ने कहा- हे देवि ! सुनो। मैं
अत्यन्त अदभुत रहस्य को तुमसे कहता हूँ ॥ ७ ॥
वेदागमपुराणेषु यत्तु गुप्ततरं
प्रिये !
अद्यप्रभृति कस्यापि
नोक्तवानहमद्रिजे ॥ ८ ॥
वेद, आगम और पुराणों में, हे प्रिय, जो आजतक अत्यन्त गुप्त था और जिसे हमने आज तक, हे
हिमवत् की पुत्री ! किसी से नहीं कहा ॥ ८ ॥
तव स्नेहवशाद देवि ! प्रवक्ष्यामि न
चान्यथा ।
त्वयापि गोपितव्यं हि स्कन्दाच्च
गणपादपि ।। ९ ।।
उसे मैं तुम्हारे स्नेह से वशीभूत
होकर तुम्ही से कहता हूँ और किसी से नहीं । अतः तुम्हें भी स्कन्दकुमार और गणपति
से भी इसे गुप्त रखना चाहिए ॥ ९ ॥
प्रकाशितं हरेद्धर्म यशोलक्ष्मी
सुखानि च ।
वेदशास्त्रपुराणानि सामान्यगणिका इव
।। १० ।।
यदि इसको किसी को बता दिया जाता है
तो उसके धर्म, यश, लक्ष्मी
एवं सुख तक का हरण हो जाता है । यह सामान्य वेश्या आदि जन को वेदशास्त्र और पुराणों
को प्रकाशित करने के समान हो जाता है ॥ १० ॥
इयं विद्या महाविद्या गोप्या
कुलवधूरिव ।
सुगुप्तेयं महाविद्या
ज्ञानसिद्धिकरी नृणाम् ॥। ११ ॥
यह ब्रह्मविद्या महान् विद्या है।
अतः इसका गोपन अच्छे कुल की वधू के समान करना चाहिए। वस्तुतः यह विद्या मनुष्यों
को 'ज्ञानसिद्धि' प्रदान करने वाली है। अतः इस महान
विद्या का भली प्रकार से गोपन करना चाहिए ॥ ११ ॥
यथा प्रकाशितं द्रव्यं
तस्करेभ्योपगच्छति ।
तथा प्रकाशिता विद्या पशुभ्य
उपगच्छति ॥ १२ ॥
क्योंकि जैसे प्रकाशित कर देने पर
द्रव्य लुटेरों के द्वारा लूट लिया जाता है वैसे ही प्रकाशित कर देने पर यह विद्या
पशुवत् पुरुषों के पास चली जाती है ।। १२ ।।
गोपितव्या ततो यत्नाद्विद्येयं
ब्रह्मदर्शिनी ।
मन्त्रौषधक्रियाधर्माः गुप्ता एव
फलन्ति हि ॥ १३ ॥
इसलिए ब्रह्म का प्रतिपादन करने
वाली इस विद्या का यत्नपूर्वक गोपन करना चाहिए। क्योंकि मन्त्र,
औषधि, [यौगिक] क्रियाएँ, और धर्म गुप्त रहने पर ही फलदायक होते हैं ।। १३ ।।
आवाच्यमपि ते वच्मि
शृणुष्वैकाग्रमानसा ।
गणनाविषयानन्दो वर्त्तते
केवलेऽक्षरे ॥ १४ ॥
सप्तद्वीपवतीं पृथ्वीं यः शास्ता
व्याहतेन्द्रियः ।
निरामयो निःसपत्नो युवा
राजेन्द्रवन्दितः ।। १५ ।।
तदानन्दो हि देवेशि ! मनुष्यानन्द
ईरितः ।
मनुष्यानन्दशतकं गन्धर्वानन्द उच्यते
।। १६ ।।
अतः जिसे नहीं कहना चाहिए उसे भी
मैं [ तुम्हारे स्नेहवश ] तुमसे कहता हूँ; उसे
एकाग्रमन से तुम सुनो-
अक्षर रूप परब्रह्म में 'आनन्द' की गणना इस प्रकार होती है - यह पृथ्वी,
सात द्वीपों वाली है उसका व्याहत [अजितेन्द्रिय ] इन्द्रियों वाला,
निरोग और शत्रु रहित जो राजाओं से वन्दित युवा शासक है उसके आनन्द
को, हे देवेशि, 'मनुष्य का आनन्द'
कहा गया है और मनुष्यानन्द से सौगुना अधिक 'गन्धर्वानन्द'
कहा गया है।।१४-१६।।
गन्धर्वानन्दशतकं पित्रानन्द उदीरिता
।
पित्रानन्दशतेनैको ह्युपदेवस्य
चोच्यते ॥ १७ ॥
गन्धर्वानन्द से सौ गुना अधिक
पितरों का आनन्द कहा गया है। पित्रानन्द से सौ गुना अधिक 'उपदेवों का आनन्द' कहा गया है ॥ १७ ॥
उपदेवानन्दशतं देवानन्द उदीर्यते ।
देवानन्दशतं देवि ! वैरंच्यानन्द
उच्यते ।। १८ ।।
उपदेवों के आनन्द का सौ गुना अधिक 'देवों का आनन्द' कहा गया है। हे देवि देवानन्द का सौ
गुना अधिक 'ब्रह्मा का आनन्द' कहा गया
है ॥ १८ ॥
वैरंध्यानन्दशतकमानन्दो वैष्णवः
स्मृतः ।
वैष्णवानन्दशतकं रुद्रानन्दस्तु
उच्यते ।। १९ ।।
ब्रह्म के आनन्द से सौ गुना अधिक 'विष्णु का आनन्द' विद्वानों ने कहा है ! और
वैष्णवानन्द से सौ गुना अधिक 'रुद्रानन्द' कहा गया है ।। १९ ।।
रुद्रानन्दशतेनोक्तः ईशानन्दपरो
महान् ।
ईशानन्दशतेनोक्त'
शैवानन्दस्तु केवलः ॥ २० ॥
रुद्रों के आनन्द से सौ गुना अधिक
ईश का महान् आनन्द है और 'ईशानन्द' से मात्र सौ गुना अधिक शिव का आनन्द है ।। २० ॥
तच्छतेन भवेद् देवि ! प्रकृत्यानन्द
उत्तमः ।
प्रकृत्यानन्दशतकं पुरुषानन्द
उच्यते ।। २१ ।।
उस [ शैवानन्द ] से सौ गुना अधिक 'प्रकृति का उत्तम आनन्द' होता है। प्रकृत्यानन्द से
सौ गुना अधिक 'पुरुष' का आनन्द कहा है
।। २१ ॥
पुरुषानन्दशतकं अक्षरानन्द उच्यते ।
अक्षरं परमं ब्रह्म ब्रह्मानन्दस्ततः
स्मृतः ।। २२ ।।
'पुरुषानन्द' से सौ गुना अधिक अक्षरारूप 'परब्रह्म का आनन्द'
कहा गया है। विद्वानों ने इसे ही 'ब्रह्मानन्द'
कहा है।।२२।
ब्रह्मानन्दमयं विश्व नानाभावो न
विद्यते ।
मायोपाधिसमायोगान्नानात्वेन प्रतीयते
।। २३ ।।
यह सम्पूर्ण विश्व ही ब्रह्मानन्दमय
है जहां नानात्व भाव नहीं होते । किन्तु माया के आवरण से आच्छन्न होने से वही
ब्रह्म नाना रूप में प्रतीत होता है ।। २३ ।।
तत्प्रतीतिनिरासे तु परं
ब्रह्मवशिष्यते ।
तन्माया प्रकृतिदेवि नित्या
तत्सहधर्मिणी ॥ २४ ॥
उस नानात्व की प्रतीति के निवारण
होने पर वह 'परब्रह्म' ही
शेष रह जाता है। हे देवि ! उनकी माया रूप प्रकृति नित्य और सहधर्मी है ॥ २४ ॥
शुद्धसत्व प्रधाना हि निर्मला
ज्ञानरूपिणी ।
तत्र यः प्रतिबिम्बोऽभूदक्षरस्य
परात्मनः ॥ २५ ॥
तमाहुः पुरुषं देवि !
श्रुतिसिद्धान्तवादिनः ।
स एव कालरूपेण प्रकृतिक्षोभकारकः ॥
२६ ॥
वह शुद्ध,
सत्तवप्रधान, निर्मल और ज्ञान रूप है। उस [
प्रकृति ] में परमात्मा अक्षर का जो प्रतिविम्ब होता है उसे ही श्रुति सिद्धान्त
के बक्ता, हे देवि ! 'पुरुष' कहते हैं। वही काल रूप से 'प्रकृति' को क्षुभित करने वाले है ।। २५-२६ ।।
तस्मान्नारायणो जज्ञे स एव
प्रणवाभिधः ।
हिरण्यगर्भमपि तं प्रवदन्ति मनीषिणः
।। २७ ।।
उन [ काल रूप पुरुष ] से नारायण
हुए। वही 'प्रणव' नाम
से पुकारे जाते हैं। मनीषि गण उन्हीं को हिरण्यगर्भ' भी कहते
हैं ।। २७ ।।
शब्दब्रह्ममयं
प्राहुस्तमेवागमवेदिनः ।
तस्माद्वेदाः प्रवर्त्तन्ते
शब्दब्रह्मात्मना प्रिये ।। २४ ।।
आगमशास्त्री उसे ही 'शब्दब्रह्म' मय कहते हैं। इसलिए, हे प्रिये ! वेद शब्द- ब्रह्मात्मक रूप में प्रवर्तित हैं ॥ २८ ॥
आदौ शब्दात्मकं विश्वं ततश्चार्थमयं
भवेत् ।
शब्दः प्रकृतिरूपश्च अर्थः
स्यात्पुरुषात्मकः ।। २९ ।।
वस्तुतः सबसे पहले शब्दात्मक विश्व
की सृष्टि हुई। उसके बाद वह शब्दात्मक विश्व अर्थमय हुआ । शब्द प्रकृति रूप है और
अर्थ पुरुषात्मक है ।। २९ ।
उभयात्मकः प्रपञ्चोऽयं
तस्मात्स्त्रीपुंस्वरूपधृक् ।
त्वमहं च तथा
विष्णुर्लक्ष्मीर्ब्रह्मा सरस्वती ॥ ३० ॥
यह प्रपंच उभयात्मक है । उसी से
स्त्री और पुरुष रूप धारण करके हम [ शिव
] और तुम [ पार्वती ], विष्णु और लक्ष्मी, ब्रह्मा और सरस्वती उत्पन्न हुए हैं ॥ ३० ॥
सूर्यः सज्ञानलः स्वाहा पुरुहूतः
पुलोमजा ।
अम्भोनिधिश्च मर्यादा वृक्षः
पल्लविनी लता ॥ ३१ ॥
सूर्य रूप में अग्नि और स्वाहा,
इन्द्र और इन्द्राणी तथा समुद्र पृथ्वी की मर्यादा रूप से तथा वृक्ष
एवं लता-प्रतान उत्पन्न हुए ॥ ३१ ॥
महद्वाल्पतरं वापि
तत्सर्वमुभयात्मकम् ।
अक्षरे शाश्वतावेतौ प्रकृतिः
पुरुषस्तथा ।। ३२ ।
छोटा या बड़ा सभी तत्व उभयात्मक रूप
से उत्पन्न हुआ। मूल रूप 'अक्षर' में शाश्वत तो 'प्रकृति और पुरुष' ही हैं।।३२॥
जाग्रत्स्वप्न विभेदेन
प्रपञ्चपरिणामिनो ।
नित्यत्वमुनयोर्देवि विवदन्तेऽत्र
वादिनः ॥ ३३ ॥
जाग्रत और स्वप्न के विशेष भेद से
यह सम्पूर्ण प्रपञ्च उसी [ प्रकृति और [पुरुष] का परिणाम है । हे देवि ! विद्वान्
लोग दोनों में ही 'नित्यत्व' के विषय में विवाद करते हैं ।। ३३ ॥
नित्य: प्रपञ्च एवेति नित्य इति
केचन ।
अहङ्कारवशाद्देवि वादिनो मूढबुद्धयः
।। ३४ ॥
'यह सम्पूर्ण प्रपञ्च नित्य ही है'
कुछ विद्वान् ऐसा कहते हैं और कुछ उसे 'अनित्य'
कहते हैं । हे देवि ! वे दोनों वादों के मानने वाले अहङ्कार के कारण
मूढ़ बुद्धि के हैं ।। ३४ ॥
नित्यानित्यं न जानन्ति
स्वपक्षाग्रहदोषतः ।
नित्यत्वात्कारणस्यापि प्रवाहे
नित्यतास्तु वा ।। ३५ ।।
श्रीतत्वाज्जन्यनाशस्य
ह्यनित्यत्वेऽपि का क्षतिः ।
द्वैताद्वते तथा देवि विवदन्ते कुबुद्धयः
॥ ३६ ॥
वस्तुतः अपने अपने पक्ष में आग्रह
होने के दोष के कारण वे 'नित्य और अनित्य' को नहीं जानते। कारण के नित्यत्व प्रवाह में नित्यता यदि होती है तो
श्रोत यज्ञ में जो पशुबलि दी जाती है उसके अनित्य होने से भी क्या क्षति है ?
इसी प्रकार कुत्सित बुद्धि वाले लोग भी, हे
देवि, द्वैत और अद्वैत के विषय में विवाद करते रहते हैं ।।
३५-३६ ॥
ईश्वराज्जीवपार्थक्यमिति तत्वविदो
विदुः ।
ब्रह्मवाज्ञानवशतो
जीवस्तत्प्रतिगीयते ॥ ३७ ॥
'ईश्वर से जीव पृथक है' - ऐसा तत्त्वविद लोग कहते हैं । वस्तुतः ब्रह्म ही अज्ञान से आच्छन्न होने
के कारण 'जीव' रूप से जाना जाता है ॥
३७ ॥
न जीवं परमार्थेन विदुरद्वैतवादिनः
।
न विरुद्धमिदं देवि ज्ञानावधिभेदतः
॥ ३८ ॥
अद्वैतवादी 'जीव' को परमार्थरूप से नहीं समझते। हे देवि, इसलिए अज्ञान रूप अवधि के भेद से यह [ ब्रह्म का माया से आच्छन्न होकर
सृष्टि करना और उसका नित्यत्व एवं अनित्यत्व ] विरुद्ध नहीं है ॥ ३८ ॥
ज्ञानेनाज्ञाननाशे तु
लब्धेनेश्वरतुष्टितः ।
जाग्रत्स्वप्नस्य विलये
स्वप्नसाक्षीव सुन्दरि ! ॥ ३९ ॥
ज्ञान से अज्ञान के नाश हो जाने पर
ईश्वर की प्राप्ति से सन्तुष्ट होने पर कोई विरोध नहीं जान पड़ता है। जैसे जग जाने
पर स्वप्न का विलय हो जाता है वैसे ही, हे
सुन्दरी ! यह जीव एवं जगत् स्वप्नवत् ही है ।। ३९ ।।
एकमेवावशिष्येत नित्यं ब्रह्मव
केवलम् ।
अद्वैतवादिनो हयेवं
श्रुतिमात्रावलम्बिनः ॥ ४० ॥
श्रुतिमात्र को मानने वाले
अद्वैतवादी इस प्रकार यही कहते हैं कि एकमात्र नित्य ब्रह्म ही [अज्ञान नाश के
बाद] बच रहता है ॥ ४० ॥
एकमेव परं ब्रह्म नाना नास्तीह
किश्चन ।
मृदेव सत्यमित्येवं नामरूपे
विकारवत् ॥। ४१ ।।
एकमात्र ब्रह्म की ही सत्ता है।
उसका नानात्व कुछ भी नहीं होता जैसे घड़े आदि मिट्टी के विकार मात्र हैं। वस्तुतः
मिट्टी ही सत्यमेव सभी घड़ों में है ॥ ४१ ॥
इत्यद्वैतं श्रुतिशत
रुद्धोषितमनेकधा ।
द्वैतवादरताश्चापि
द्वासुपर्णावितीरणात् ॥ ४२ ॥
इस प्रकार सैकड़ों श्रुति वाक्यों
से अनेकधा अद्वैत का ही उद्घोष किया गया है और द्वैतवाद का भी प्रतिपादन श्रुति
में 'द्वासुपर्णा" आदि मन्त्र से किया गया है ॥ ४२ ॥
द्वैतमेव प्रशंसन्ति ह्यभेदो
भजनात्मकः ।
अद्वैत भूमिका
धस्तात्सोपानास्थास्तु ते प्रिये ।। ४३ ।।
इस प्रकार वह अभेद और भजनात्मक [
अलग-अलग ] रूप से द्वैत की ही प्रशंसा करते हैं । हे प्रिये ! ये अद्धैत की ही
भूमि के नीचे सोपान हैं ॥ ४३ ॥
तेषां नारायणः साक्षात्परब्रह्म
श्रुतीरणात् ।
ब्रह्माभासमया जीवाः
क्षुद्रोपाधिगुणाश्रिताः ॥ ४४ ॥
इसलिये भगवान् नारायण ही साक्षात्
रूप से श्रुति द्वारा 'परब्रह्म' रूप से प्रतिपादित हैं । उस ब्रह्म में ही क्षुद्रोपाधिगुण से आश्रित होकर
[ माया से आच्छादित ] 'जीव' भासित होता
है ॥ ४४ ॥
अस्वतन्त्राः पराधीना नित्या इत्यपि
चक्षते।
अव्याहतं च नित्यत्वं
भ्रान्तिमूलमपि प्रिये ।। ४५ ।।
उसे ही अस्वतन्त्र,
पराधीन और नित्य भी कहा गया है । हे प्रिये, उसे
अव्याहत और नित्य एवं भ्रान्तिमूलक भी कहा गया है ॥ ४५ ॥
निद्रोपलब्धभावानां निद्रा
तावत्स्थितिः स्थिरा ।
इति यत् शास्त्रहृदयमज्ञात्वा
विवदन्ति ये ।। ४६ ।।
निद्रा के पहले के भाव निद्रा आने
के पहले तक ही स्थिर होते हैं । इस प्रकार जो शास्त्र को नहीं जानते वही विवाद
करते हैं ॥ ४६ ॥
द्वैताद्वैत विचारेऽस्मिन्न ते
तवमवाप्नुयुः ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सर्वशास्त्र
कनिश्चयम् ॥ ४७ ॥
ज्ञात्वा भजन्ति देवेशि !
निःसन्देहः फलात्मकः ।
वाक्यभेदाननादृत्य
बुद्धिवलेशादहङ्कृते ।। ४८ ।।
अन्ततः इस द्वैत एवं अद्वैत के
विचार में वे कुछ भी तत्व नहीं प्राप्त करते । इसलिए सभी प्रयत्नों के द्वारा सभी
शास्त्रों के निचोड़ को जानकर, हे देवेशि! वे
निसन्देह और फलात्मक [ ब्रह्म ] का ही भजन करते हैं। वे वाक्य भेदों का अनादर करके
बुद्धि के क्लेश के कारण अहङ्कार को छोड़ देते हैं ॥ ४८ ॥
ये प्रवर्तन्त एवैते सशल्याः
फलविच्युताः ।
एकमेवाद्वयं ब्रह्मद्विधा
लीलाविभेदतः ।। ४९ ।।
जो उसमें प्रवर्तित होते हैं वे
काँटों से युक्त होकर फल की प्राप्ति नहीं करते । एक ही ब्रह्म लीला के भेद से दो
दिखाई देता है ।। ४९ ।।
प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च लीलाभेदे
व्यवस्थिता ।
निवृत्तिः सुखसज्ञा हि
सुखमानन्दरूपकम् ॥ ५० ॥
वस्तुतः [ संसार में ] प्रवृत्ति और
निवृत्ति दोनों ही लीला भेद से [ माया के आवरण होने से ही] व्यवस्थित है । निवृत्ति
सुख की संज्ञा है और सुख आनन्द रूप है ।। ५० ।।
प्रसङ्गात् प्रकृतेर्देवि
प्रवृत्तिर्बहुरूपिणी ।
अजानतां वरारोहे ! दुःखरूपतया
स्थिता ।। ५१ ।।
अक्षरस्य तु सा प्रोक्ता
लीलान्यातीतधर्मिणी ।
प्रवृत्तिलीलालेशोऽपि नेवातीते
परात्मनि ॥ ५२ ॥
हे देवि ! प्रसङ्गात् प्रकृति की
प्रवृत्ति ही बहुत रूपों वाली है । हे वरारोहे ! उसे न जानने के कारण ही जीव दुःख
रूप समुद्र में गिरा जान पड़ता है। वह [ प्रकृति ] अक्षर रूप ब्रह्म की ही अतीत
धर्मिणी लीलाएं कही गई हैं । लेश मात्र भी लीला होने से प्रवृत्ति अतीत परमात्मा
में नहीं ही होती है ।।५१- ५२ ।।
आग्रहमात्रो देवेशि !
नित्यानन्दमहोदधेः ।
लेश एव सदा तिष्ठेत्सकामो
नित्यरूपधृक् ।। ५३ ।।
कामरूपी सदानन्दः कामांशो लेश
उच्यते ।
तस्मादेवाक्षरे देवि ! नित्यकामो हि
दर्शने ॥ ५४ ॥
हे देवेशि नित्य आनन्द रूप समुद्र
में वह आग्रहमात्र ही है। उसका 'लेश' सदैव रहता है और वह काम नित्यरूप धारण करने वाला है। कामरूप में वह
सदानन्द है और काम के अंश रूप में वह 'लेश' कहा जाता है। इसलिये, हे देवि ! अक्षय में ही नित्य
कामना का दर्शन होता है ।। ५३-५४ ॥
तस्मादेवाक्षरे जाता दिदृक्षा या तु
पार्वति ।
न चेककर्तृका सा तु परापरमयी हि सा
।। ५५ ।।
इसलिए,
हे देवि पार्वती ! उस अक्षर में जो देखने को इच्छा जागृत होती है: वह
एक कृत नहीं अपितु एक दूसरे से परस्पर भावित है ॥ ५५ ॥
अक्षरे ज्ञानतन्मात्रे स्वत इच्छा न
जायते ।
न प्रवर्तयते साक्षात्पूर्णात्मा
पुरुषोत्तमः ॥ ५६ ॥
ज्ञान रूप तन्मात्र अक्षर में स्वतः
इच्छा कभी भी नहीं होती है और कभी भी पूर्णपरमात्मा वह उत्तम 'पुरुष' प्रवर्तित भी नहीं होता ॥ ५६ ॥
सामरस्यमयीं
प्राहुस्तस्मादागमवेदिनः ।
आनन्दगा सामरस्यात्
स्वपक्षविषयग्रहा ।। ५७ ।।
साङ्गिनं तु परित्यज्य
भृशमङ्गेष्वसर्पत ।
स्वामिनीषु ततो जाता दिक्षा
दुःखदर्शने ॥ ५८ ॥
इसलिए आगम के वेत्ता जन उसे समान रस
वाली मानते हैं। आनन्द तुल्य रस से एवं अपने पक्ष के विषय के आग्रह से अपने संगी
को छोड़कर बहुतायत से अङ्गों में सर्पण कर जाने से स्थामिनियों में दुःखदर्शन की
इच्छा जागृत होती है ।। ५७-५८ ॥
उभयव्यापिनी सा तु सर्वकारणकारणा ।
ततः कार्यप्रवृत्तिस्तु
हेतोगुणनिबन्धिनी ।। ५९ ।।
स्त्री भावात्मिका जाता ब्रह्मादिस्तम्बभेदतः
।
इच्छया ससृजे निद्रा सापि जातो
मयात्मिका ॥ ६० ॥
वस्तुतः वह तो सभी कारणों की कारण
उभय रूप से व्याप्त है। उससे कार्य में प्रवृत्ति तो हेतुगुण से निबन्धित होने पर
वही ब्रह्मा आदि चराचर भेद से स्त्री और पुरुष भाव को प्राप्त होती है इच्छा के
द्वारा निद्रा का सृजन होता है। वह भी उभयात्मक होती है ।। ५९-६० ।।
ज्ञानात्मिका स्वतः शुद्धा
बहिर्वृत्तिविवजिता ।
निद्रया सृजते मोहश्चेतनाचेतनो हि
सः ॥ ६१ ॥
बाहरी वृत्तियों से रहित
ज्ञानात्मिका, स्वतः शुद्ध ब्रह्म निद्रा के
द्वारा उस [ पुरुष ] चेतन और अचेतन [जड़] में [अर्थात् चेतना रूप पुरुष और अचेतन
रूप प्रकृति रूपी जीव में ] मोह उत्पन्न हो जाता है ।। ६१ ॥
सचैतन्यस्य कार्यस्य
हेतुर्यच्चेतनात्मकः ।
स एव जडहेतुश्च यस्मादयमचेतनः ।। ६२
।।
चेतनता से युक्त जो कार्य का हेतु
है उससे वह चेतनात्मक और जड़ से युक्त - कार्य के हेतु से वही अचेतनात्मक [जड़ ]
है ॥ ६२ ॥
विद्याविद्येस एवोक्त शृणु तत्रापि
कारणम् ।
चिदचिग्रन्थिको ह्य् षश्चिदाकारेण
केवलम् ।। ६३ ।।
यदा परिणमेद् देवि ! यदा विद्येति
तां विदुः ।
यदा चैतन्यमावृत्य केवलं मोहरूपधृक्
॥ ६४ ॥
जीवबुद्धि समावृण्वन् अविद्येति च
गीयते ।
तमः कालुष्यमुत्सृज्य
शुद्धसत्वप्रधानिका ।। ६५ ।।
जीवबुद्धेर्भेदकरी मायेति कथिता
प्रिये ।
सात्विकांशं परित्यज्य केवलं
चित्स्वरूपिणी ।। ६६ ।।
उसमें भी,
हे देवि! तुम कारण को सुनो। वह ही 'विद्या'
और 'अविद्या' रूप से
प्रतिपादित हैं। क्योंकि चित् और अचित् रूप से ग्रथित यह चिदाकार के द्वारा ही जब
परिणाम को [अर्थात् बदलाव ] को प्राप्त करती है तब उसे 'विद्या'
रूप से जाना जाता है और जब चैतन्य आच्छन्न होकर केवल मोह रूप में
रहता है तब जीव बुद्धि समावृत्त होती हुई 'अविद्या' नाम से कही जाती है। वस्तुतः तम रूप कालिमा को छोड़कर शुद्ध एवं सत्तवप्रधान
जीव और बुद्धि में भेद करने वाली उसे, हे प्रिये ! 'माया' नाम से पुकारा जाता है और जब सात्विक अंश का
उसमें परित्याग होता है तो वही केवल 'चित्' स्वरूप होती है ।। ६६ ॥
अपरोक्षकरी विद्या ब्रह्मविद्येति
तां विदुः ।
तस्माद्विधा त्रिधा प्रोक्ता मया ते
वरवर्णिनि ! ॥ ६७ ॥
यह अपरोक्ष ज्ञान वाली विद्या ही 'ब्रह्मविद्या' नाम से जानी जाती है । हे वरवर्णिनि !
तुमसे वही दो प्रकार की ब्रह्मविद्या से समुत्पन्न तीन प्रकार ( सत्व--रज एवं तम) मेरे द्वारा कहे गए हैं ॥ ६७ ॥
ततो गुणास्त्रयो जातास्तेऽपि
तादृग्विधा शिवे ! ।
सत्वं तु चेतनं विद्धि तमो
विद्यादचेतनम् ॥ ६८ ॥
ये तीन गुण उससे उत्पन्न हुए। हे
शिवे ! वे भी उसी प्रकार के हैं। इस तरह चेतन को सत्व गुण वाला जानना चाहिए और
अचेतन को तम गुणवाला जानना चाहिए ॥ ६८ ॥
रजस्तदुभयात्मत्वाच्चेतनाचेतनात्मकम्
।
भूतानि पञ्च जातानि तानि
तादृग्विधान्यपि ।। ६९ ।।
उन दोनों से ही समुत्पन्न चेतन और
अचेतनात्मक को रजोगुण वाला जानना चाहिए। उन तीनों से उसी प्रकार से उद्भुत
पञ्चभूतों [ क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर ] को जानना चाहिए ।। ६९ ।।
अधिष्ठेयान्यधिष्ठातृतया
द्वैविध्यवन्ति च ।
ब्रह्माण्डमभवत्तेभ्यस्तदेवोभयरूपधृक्
॥ ७० ॥
अधिष्ठेय और अधिष्ठातृ रूप से वही
दो प्रकार के हैं। उन्हीं [ ब्रह्म और माया या प्रकृति और पुरुष] से उन्हीं दोनों
के उभयात्मक रूप वाले 'ब्रह्माण्ड का सृजन होता
है ।। ७० ।।
एतत्ते सर्वमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं
त्वया शिवे ! ।
समासेन महेशानि ! कि भूयः
श्रोतुमिच्छसि ।। ७१ ।।
इस प्रकार जो तुमने पूछा,
हे शिवे ! 'वह सभी कुछ हमने संक्षेप में
तुम्हें बतलाया । अब, हे महेशानि ! तुम और क्या पूछना चाहती
हो ? ॥ ७२ ॥
॥ इति श्रीपञ्चरात्र
श्रीमाहेश्वरतन्त्र शिवपार्वती संवादे विंशं पटलम् ॥ २० ॥
॥ इस प्रकार श्रीनारदपाश्चरात्र
आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञानखण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के बीसवें
पटल को डॉ० सुधाकर मालवीयकृत 'सरला' हिन्दी
व्याख्या पूर्ण हुई ॥२०॥
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 21

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