माहेश्वरतन्त्र पटल १९
माहेश्वरतन्त्र के पटल १९ में भगवान्
की प्रियाओं का आत्मानुसन्धान, बृहत्सेन की मायामोह समुद्र में डूबने उतराने की
कथा, आत्मा का निरूपण, स्वप्न सदृश, असत् संसार का निरूपण का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल १९
Maheshvar tantra Patal 19
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल १९
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र उन्नीसवाँ पटल
माहेश्वरतन्त्र एकोनविंश पटल
अथ एकोनविंशं पटलम्
शिव उवाच-
अथेदानीं शृणु शिवे प्रियाणां
कामनिर्णयम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण वैराग्यं देहगेहयोः
॥ १ ॥
मनोरथश्च यश्चासीत् प्रियाणां
दुःखदर्शने ।
रासे प्रदर्शिते प्रायो
ह्यसम्पूर्णेविशेषितः ॥ २ ॥
शिव ने कहा- इसके बाद,
अब हे शिवे ! प्रियों के कामनिर्णय को सुनो। जिसके श्रवणमात्र से शरीर
और गृह से वैराग्य प्राप्त होता है । प्रिय लोगों के दुःख रूप दर्शन में जो मनोरथ
था । प्रायः उसे रास में सम्पूर्ण रूप से और विशेष प्रकार से प्रदर्शित किया गया
था ।। १-२ ॥
तद्भोगार्थं पुनः सर्वाः प्रियास्ता
रासविच्युताः ।
कालमायामयं देवि ब्रह्माण्डं
विविशुः सह ॥ ३ ॥
उसे भोगने के लिए सभी प्रिया रास से
च्युत हो गई। हे देवि ! काल रूप मायामय ब्रह्माण्ड में उन्होंने साथ में प्रवेश
किया ॥ ३ ॥
संभूता भारते वर्षे नैकत्र
स्थितयोऽभवन् ।
मोहावेशवशाद् देवि !
दुस्तरादीशनिर्मितात् ॥ ४ ॥
विच्युतात्मातसन्धाना बभूवुर्भगवत्प्रियाः
।
यथा स्वप्ने जनः
कश्चिन्निद्रात्याजितसंस्मृतिः ॥ ५ ॥
उन्होंने भारतवर्ष में जन्म लिया
किन्तु हे देवि ! उनकी एक स्थान पर स्थिति न हुई । दुस्तर ईश निर्मित मोह जाल के
कारण फिर भी वे बिछुड़ी हुई भगवान् की प्रियाओं ने आत्मानुसन्धान किया। उन्हें ऐसा
प्रतीत हुआ जैसे कोई मनुष्य स्वप्न देखते हुए जगकर उसकी पुनः स्मृति में संलग्न हो
॥ ५ ॥
स्वप्नलब्धगजाकार आत्मानं मनुते
गजम् ।
मोहलब्धाकृतिस्तद्वल्लब्ध्वा
तादात्म्यभावतः ॥ ६ ॥
उच्चावचा योनीषु विभ्रमन्ति
विचित्रधा ।
तत्र देहाभिमानोत्यकर्म संसगं दूषिताः ॥ ७ ॥
कर्मबन्धस्ततो जातो यथा
स्यादुत्तरोत्तरम् ।
काकोलूकमार्जारखरगृध्रादि योनिषु ॥
८॥
भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा मनुष्येषु
भूत्वा भूत्वा पुनः पुनः ।
जायन्ते च म्रियन्ते च तेषामन्तो न
विद्यते ॥ ९ ॥
स्वप्न में दिखने वाले गज के आकार
में वह स्वयं को ही गज मान लेता है । स्वप्न की वस्तु से तादात्म्य के कारण मोह से
उत्पन्न आकृति के समान आकृति को पाकर ऊची एवं नींची विचित्र प्रकार की योनियों में
भ्रमित होते हैं। वहीं भी शरीर रूप अभिमान से प्राप्त कर्म के संसर्ग से दूषित
होकर वे कर्म के बन्धन में उत्तरोत्तर बाधते हुए, कुत्ता, कोक्षा, उल्लू,
बिल्ली, गदहा, और गिद्ध
आदि यानियों में जन्म लेते हैं। इस प्रकार अनेक योनियों में भ्रमित होते हुए
बार-बार मनुष्य योनि में जन्म लेते हैं और मरते हैं। उनका अन्त फिर भी नहीं होता ॥
६-९ ॥
जन्मदुःख जराः दुख बाल्ये
यदुःखमुल्बणम् ।
देहत्यागनिमित्त च दुःखमाप्ताः पुनः
पुनः ॥ १० ॥
क्वचिद्धर्मः क्वचिच्छोको
रागद्वेषादिकं क्वचित् ।
क्वचिन्धः क्वचिन्मोक्षो
राजसन्ताडनं क्वचित् ।। ११ ।।
इस तरह उनके जन्म के समय और
वृद्धावस्था में भी अथवा बाल्यकाल में या देह त्याग में भी बारम्बार दुःख ही
प्राप्त होता है । इस संसार में कही धर्म है तो कहीं शोक है,
और कहीं राग है तो कही द्वेष है, कहीं बन्धन
है तो कहीं मोक्ष है । कहीं राज्य का प्रताडन है ।। १०-११ ।
अन्नादिकाङ्क्षा क्वापि दरिद्रेणापि
विद्रताः ।
म्लानेन्द्रियमुखाकारा दैन्यभावं
समागताः ।। १२ ।।
अन्न आदि जरूरत की वस्तुओं को
आकाङक्षा से घूमते हुए वे दरिद्रता से भी दुःखी रहते हैं । इस प्रकार म्लान
इन्द्रियों के कारण उदास मुखाकृति में वे दैन्यभाव को प्राप्त करते हैं ।। १२ ।।
पुत्रमित्रकलत्रादिनाशोत्थं दुःखमद्भुतम्
।
प्राप्य हाहेति हाहेति परितापात्
जुषन्ति ताः ॥ १३ ॥
बृहत्सेनस्य राजर्षेर्यथा राज्ञी
पतिव्रता ।
अधीतपादा चोच्छिष्टा सुष्वाप
विधिमोहिता ॥ १४ ॥
इस संसार में पुत्र मित्र और स्त्री
आदि की मृत्यु से प्राप्त अद्भुत दुःख प्राप्त करके 'हा, आह' आदि रूप से विलाप करते
हुए वे चारो तरफ से दुःख से पीडित होते हैं । जैसे – [इस
सम्बन्ध में एक कथा इस प्रकार हैं ] बृहत्सेन नाम राजर्षि की महिषी पतिव्रता नारी
थीं। किन्तु एक दिन विधि के विधान से मोह को प्राप्त करके बिना पैर एवं मुँह धोए
ही जूठे मुँह सो गई ।। १३-१४ ।।
यक्षः कश्चिन्निशाचारी
प्रसुप्तामहच्च ताम् ।
समुद्रद्वीपमानीय यक्षमायामयं महत्
।। १५ ।।
ददर्श नगरं दिव्यं
दिव्याट्टालकगोपुरम् ।
यक्षस्तिरोदधे तस्यां
तदावेशविमोहिता ।। १६ ।।
इस दोष के कारण वह किसी रात में
विचरण करने वाले यक्ष के द्वारा सोते हुए हरण कर ली गई। किसी समुद्र के द्वीप में
लाई गई उन्होंने यक्ष की महान् माया से व्याप्त एक नगर को देखा। उस दिव्य नगर में
गोपुर से युक्त दिव्य अट्टालिकाएं थी । वहाँ पर जाकर यक्ष ने उन्हें आवेश से मोहित
कर उस नगरी में छिपा दिया और स्वयं अन्तर्धान हो गये ।। १५-१६ ।।
सैका बभ्राम नगरे गृहे गृहे विचेतना
।
यत्र यत्र गता सा तु जनस्तत्र
विभीषिता ।। १७ ।।
तमिश्रायां तमोमय्यां भ्रमन्ती
भ्रान्तमानसा ।
हृतवस्त्राम्बरा क्वापि प्रसह्य
परिपन्धिभिः ।। १८ ।।
वह अकेली ही इधर-उधर नगर में घर-घर
भ्रमित हुई। जहाँ-जहाँ वह गई, वहीं सभी
लोगों के द्वारा डराई गई। तमोमयी तामिश्र नामक रात्रि में वह भ्रान्तचित्त होकर
भ्रमित हो रही थी कि किन्हीं पथिकों ने वस्त्राच्छादन आदि -जबरदस्ती छीन लिया ।।
१७-१८ ।।
मुक्तकेशा वस्त्रहीना
धूलिधूसरविग्रहा ।
पिशाचिनीव नगरे बनामैका दिवानिशम्
।। १९ ।।
अन्ततः वह उस नगर में खुले बालों से
वस्त्रहीन होकर एवं धूलि से धूसरित शरीर से पिशाची के समान होकर अकेले ही दिन-रात
घूमने लगी ॥ १९ ॥
रुदन्ती करुणा दीना ताड्यमाना
जनेर्मुहुः ।
क्षुत्तृव्याकुलचित्ता सा वल्गन्तीव
जनाज्जनम् ॥ २० ॥
महाजनंश्च विपिने नगरात्तु विवासिता
।
व्याघ्रसिंहध्वनि श्रुत्वा भीषणं
श्रस्तमानसा ।। २१ ।।
वे रोती हुई,
करुणा से दीन हुई, बारम्बार वहाँ के लोगों के
द्वारा प्रताड़ित होती हुई, भूख और प्यास से व्याकुल चित्त
होकर जनजन से दुतकारी जाकर बहुत लोगों के द्वारा नगर से वन में निकाल दी गई। वहाँ
पर सिंह, चीता आदि वन्य प्राणियों की आवाज सुनकर वे भयंकर
रूप से भयभीत हो गई ।। २१ ।।
दृष्ट्वा तांस्तु पुनः साध्वी
वृक्षखण्डेष्वेवलीयत ।
वृक्ष कोटरगैः सर्पेदंशिता
विवशाभवत् ।। २२ ॥
फिर उन्हें देखकर वह सती साध्वी
वृक्षों की आड़ में छिप गई। किन्तु वृक्षों के कोटरों में रहने वाले सर्पों से डसी
जाकर अत्यन्त विवश हो गई ।। २२ ।
अशेत भूमिशयने विषव्याघूर्णमानसा ।
भूविलोत्थैर्वश्चिकाद्यैः सन्दष्टा
सर्वसन्धिषु ।। २३ ।
एवं नानाविधांस्तापान् प्राप्ता
नृपसुन्दरी ।
कर्कराकण्टकै विद्धपादाम्भोजा
महावने ॥ २४ ॥
विष से भ्रमित होकर वह भूमि पर सो
गई । भूमि के बिल आदि से निकलकर बिच्छू आदि से सभी जोड़ों में डसी जाकर वह नृपति सुन्दरी अनेक प्रकार के कष्टों को
प्राप्त हुई । उस महान अरण्य में कर्करा के काटों से उसके पद कमल विद्ध हो गए ।।
२३-२४ ।।
का त्वं कस्यासि वामोरु ! पृष्टा
सप्तर्षिभिस्तु सा ।
नाहं विदामि चात्मानं न तातं मातरं
पति ॥ २५ ॥
दुःखातिदुःखपाथोघो
मग्नास्मीत्यभ्यभाषत ।
भृशं नागरिकैर्दुष्टः पीडिता
भत्सिता पुनः ॥ २६ ॥
वहाँ सप्तर्षियों ने उससे पूछा - हे
वामोरु ! तुम कौन हो ? और किसकी पत्नी हो ?
उसने कहा- मैं अपने को नहीं जानती । मैं अपने माता-पिता एवं पति को
भी नहीं जानती । मैं तो अत्यन्त दुःख रूप पाप के समुद्र में डूबी हुई हूँ। मैं
यहाँ पर दुष्ट नागरिकों के द्वारा बारम्बार दुतकारी गई हूँ और पीड़ित की गई हूँ ।।
२५-२६ ।।
तस्करैर्वस्त्रभूषादि दुष्टैरपहृतं
हि मे ।
क्षुत्तृपरीता पापिष्ठेनंगराच्च
विवासिता ॥ २७ ॥
दुष्ट लुटेरों के द्वारा मेरे आभूषण
आदि लूट लिए गए। भूख और प्यास से व्याकुल मुझे पापिष्ठों ने नगर से निकाल दिया है
।। २७ ।।
याता महावनं भ्रान्ता
व्याघ्रसिंहभयाकुला ।
भुजङ्गवृश्चिकः
क्रूरैविषव्यापादितान्तरा ॥ २८ ॥
व्याघ्र,
सिंह आदि वन्य प्राणियों से भयकारक महावन में इसलिए मैं भ्रमित होकर
आ गई हूँ। उसके बाद क्रूर सर्प और विच्छूओं के द्वारा विष से डसी गई हूँ ॥ २८ ॥
भ्रमाम्यहं दिवारात्री न जाने
विदिशं दिशम् ।
अतः कुरुध्वं साहाय्यमनायायाः
कृपालवः ॥ २९ ॥
दिशा-दिशा में मैं न जाने कहीं-कहीं
रात दिन भ्रमित हो रही हूँ । अतः हे कृपालु सप्तर्षियों ! आप मुझ अनाथ की सहायता
करें ।। २९ ।।
एवमुक्तं तथा साध्व्या कृपया पीडिता
भृशम् ।
कमण्डलूजलेनौक्षन् यक्षोघ्रेन
मुनीश्वराः ॥ ३० ॥
इस प्रकार उस साध्वी रानी के कहने
पर उन मुनीश्वरों ने बहुत दुःखित हो -कृपा करके कमण्डलु के जल से प्रोक्षण [छींटा]
किया ॥ ३० ॥
लीनायां लक्षमायायां नात्मानं
समपद्यत ।
सस्मार मातरं तातं बृहत्सेनं पति
तथा ॥ ३१ ॥
तभी यक्ष की माया में लीन वह अपने
आप में सुस्थिर हुई। फिर माता और पिता को और पति बृहत्सेन को स्मरण किया ॥ ३१ ॥
व्रीडिताधोमुखी बाला मुनीन्द्रान्
प्रत्यभाषत ।
सूर्यवंशप्रसूतस्य बृहत्सेनस्य
धीमतः ।। ३२ ।।
प्रियास्म्यहं विप्रदेवा उच्छिष्टा
शयनं गता ।
केनचिज्जलधेस्तीरमानीता भयविह्वला
।। ३३ ।।
इसके बाद लज्जा से अधोमुख उस बाला
ने मुनियों से कहा- सूर्यवंश में उत्पन्न धीमान् बृहत्सेन की,
हे विप्रदेवो । मैं प्रिया हूँ। वस्तुतः जूठे मुह ही मैं सो गई थी।
अतः किसी [ यक्ष ] के द्वारा मैं भयाक्रान्त करके समुद्र के किनारे लाई गई थी ।।
३२-३३ ।
तत्रेक नगरं दिव्यं मया दृष्टं
महाद्भुतम् ।
तकला विभ्रमन्ती लोकपीडासहानिशम् ।।
३४ ।।
वहाँ हमने एक महान अद्भुत एवं दिव्य
नगर को देखा। वहीं पर अकेले ही रात-दिन लोक की [ नाना प्रकार ] पीड़ा को सहती हुई
घूमती रही ॥ ३४ ॥
ततो निष्कासिता पोरं प्राप्तेदं
विपिनं महत् ।
अस्तंगतात्मविज्ञाना भ्रान्ता
दुःखमयेऽध्वनि ।। ३५ ।।
वहाँ से उन पुरवासियों के द्वारा
निष्कासित मैं इस महान् अरण्य में आ गई हूँ । यहाँ पर मेरा ज्ञान अस्तंगत हो गया
है और मैं इस दुःखपूर्ण मार्ग में भ्रान्त हो गई थी ।। ३५ ।।
भवद्भिनंष्टमज्ञानं तमः सूर्यांशुभिर्यथा
।
नष्टं लब्धमिवात्मानं मेने
भवदनुग्रहात् ॥ ३६ ॥
किन्तु आपने हमारे अज्ञान को नष्ट
कर दिया। जैसे ही आपकी सूर्य रूप किरणों से ज्ञान का अन्धकार दूर किया गया वैसे ही
आपके अनुग्रह से अपने आप को मैंने पा लिया ॥ ३६ ॥
सवस्त्रभूषणाकल्पं देहं चैव यथा
पुरा ।
पश्यामि शयनोदबुद्धा यथा स्वप्ने
लयं गते ।। ३७ ॥
भवत्प्रसादाद् दुःखाब्धिमुत्तीर्णा
भगवत्तमाः ।
इत्युक्त्वा मुनिपादाब्जं
प्रणताभूत्पुनः पुनः ॥ ३८ ॥
वस्त्राभूषण से युक्त पहले जैसा
शरीर था वैसा ही मैं अब भी देख रही हूँ । जैसे कोई स्वप्न देखते हुए सोते हुए जग
जाने के बाद देखता है। हे भगवत्तम ! आपकी कृपा से इस दुःखरूप समुद्र से मैं पार पा
सकी। ऐसा कहकर वह मुनि के चरण कमलों पर पुनः पुनः प्रणत हुई ।। ३७-३८ ॥
ततः प्रोचुर्मुनिवराः
सान्त्वयन्तश्च तां सतीम् ।
भयं मा कुरु कल्याणि
पातिव्रत्यपरायणे ।। ३९ ।।
इसके बाद उन मुनिश्रेष्ठों ने उन
सती को सान्त्वना देते हुए कहा- हे पातिव्रत-धर्म में परायण,
हे कल्याणि ! मत डरो ॥ ३९ ॥
अज्ञानप्रभवं विश्वं वस्तुतो नास्ति
किञ्चन ।
यावदज्ञानमात्मस्थं तावद्दर्शयते भयम्
॥ ४० ॥
वस्तुतः यह विश्व अज्ञान से उत्पन्न
है । यह सब कुछ भी शाश्वत नहीं है । जब तक आत्मा में अज्ञान विद्यमान है तभी तक भय
है ॥ ४० ॥
मिथ्या स्वप्नोऽपि राजर्षिप्रिये !
भयकरो यथा ।
तथा मिथ्यापि संसारो भयकृतादृशा
जुषाम् ॥। ४१ ।।
राजर्षि की प्रिया ! जैसे झूठा
स्वप्न भी भयप्रद होता है । वैसे ही यह झूठा संसार भी मनुष्यों को भय ही प्रदान
करता है ॥। ४१॥
अज्ञातेव यथा रज्जुः सर्पभूता
भयप्रदा ।
अविद्यासबल ब्रह्मविवर्तोऽयं प्रपञ्चकः
।। ४२ ॥
तदंशभूतजीवानामविज्ञातो भयङ्करः ।
स्वात्मत्वेन तु विज्ञातो भयं
नोद्वहते पुनः ॥ ४३ ॥
जैसे न जानकारी रहने पर रस्सी भी
सर्पभूत होकर भयप्रद होती है वैसे ही यह सर्वं प्रपश्च अविद्याजनित सबल ब्रह्म का
परिणाम रूप है । उसी परमेश्वर का अंशभूत यह जीव विज्ञान न होने से भय को प्राप्त
करता है और अपनी आत्मा को जान लेने से फिर भय नहीं रहता है ।। ४२-४३ ॥
आत्मा शुद्धोऽव्ययः सूक्ष्मो व्यापी
नित्यो निरञ्जनः ।
स्वमायावरणाच्छन्नः स्वस्मिन्
स्वप्नं प्रपश्यति ॥ ४४ ॥
यह आत्मा शुद्ध है,
अव्यय, सूक्ष्म, व्यापक,
निश्य और निरञ्जन (निर्लेप ) है । वस्तुतः अपनी ही माया के आवरण से
आच्छादित हो अपने में ही वह स्वप्न देखता है ॥ ४४ ॥
यथा तदुद्भवैश्छन्नं शैवालः सलिलं
भवेत् ।
स्वमायया तथा छन्न अक्षरं ब्रह्म
केवलम् ॥ ४५ ॥
मायावृतं परं ब्रह्म
स्वप्नसाक्षितया पुनः ।
स्वाप्नमण्डं प्रविश्याशु धत्तं
नारायणाभिधाम् ॥ ४६ ॥
जैसे पानी से ही उत्पन्न शैवाल (
पानी की घास ) स्वयं पानी को ही ढक लेती है। वैसे ही अक्षर रूप ब्रह्म को स्वयं
उन्हीं का माया ढक लेती है । माया से आवृत परब्रह्म स्वप्न के समान साक्षात् रूप
से पुनः स्वप्नरूप अण्ड में शीघ्र ही प्रवेश करके 'नारायण' नाम से अभिहित होते हैं ॥ ४६ ॥
तस्य नाभेरभूत्पद्मं तत्र
जातश्चतुर्मुखः ।
प्रवरो वेदविदुषां बीजं संसारभूरुहः
॥ ४७ ॥
उन 'नारायण' के नाभि से ब्रह्मा पैदा होते हैं । यही
ब्रह्मा वेदवेत्ताओं में प्रवर हैं और इस संसार रूप भूरूपी वृक्ष के बीजस्वरूप हैं
॥ ४७ ॥
तत्र जाता वयं सर्वे स्वाप्निका एव
भामिनि ।
भ्रमामः कर्मभिर्नुन्नाः
स्वप्नमायामये पथि ॥ ४८ ॥
वयानुभूतमेतद्धि यथेदं यक्षमायिकम्
।
तस्यापसरणे साध्वि स्वात्मालब्धो
यथा पुरा ।। ४९ ।।
जीवाः सर्वे वयं तद्वद्
ब्रह्माभासमया अपि ।
मायाकार्याशविलये
भविष्यामोऽक्षरात्मकाः ।। ५० ।।
उसमें हम सब हे भमिनि ! स्वप्न की
तरह ही [असत्य रूप से ] पैदा होते हैं । स्वप्न रूपी माया से व्याप्त पथ में
कर्मों के द्वारा भ्रमित होते हैं । जैसा कि यक्ष के माया जाल में अभी- अभी
तुम्हारे द्वारा अनुभव किया गया है। हे साध्वि ! जैसे तुम पहले थी वैसे ही उस माया
के हटने से तुमने आत्मानुभूति की है । इसी प्रकार हम सब जीव उसी ब्रह्म के आभासक
रूप हैं । माया के कार्याश रूप से विलीन होने के बाद ही मैं अक्षरात्मक रूप से
होऊँगा ।। ४८-५० ।।
मायाकार्ये विद्यमाने दुःखशोको भयं
शुचः ।
धर्माधम पुण्यपापे सत्यमित्येव
गम्यते ॥ ५१ ॥
माया के कार्य रूप में विद्यमान
रहने पर दुःख, शोक और भय को शुद्ध रूप से
आत्मा जानता है । किन्तु धर्म या अधर्म में, पुण्य अथवा पाप
में 'सत्य' को जाना जाता है ।। ५१ ।।
तस्मादवास्तवं दुःखं विज्ञाय हृदये
दृढम् ।
वीतशोका वीतभया भव भामिनि नित्यदा
।। ५२ ।।
इसलिए,
हे भामिनि ! हृदय में यह दृढ़ता से विश्वास करो कि यह 'दुःख' अवास्तविक है। अतः नित्य ही भय और शोक से तुम
मुक्त होओ ।। ५२ ।।
इत्युक्त्वा तां मुनिश्रेष्ठा
योगमायाबलेन च ।
निमिषेण गृहं नित्युघंटिकांतरितं
प्रिये ॥ ५३ ॥
हे प्रिये ! इस प्रकार कहकर वे
मुनिश्रेष्ठ योगमाया के बल से पलक झपकते ही अन्तर्धान हो गए । ५३ ।।
प्रिया राज्ञोऽपि तद्वृत्तं विचार्य
च पुनः पुनः ।
महाकुतूहलाक्रान्ता राज्ञे सर्वं
न्यवेदयत् ॥ ५४ ॥
राजा ने भी अपनी प्रिया के उस कथानक
को बारम्बार विचार करके महान् कौतूहल से आक्रान्त होकर अन्य सभी राजाओं से उसे
बतलाया ॥ ५४ ॥
एवं ता देवदेवेशि प्रिया भगवतो हि
ताः ।
भ्रान्तात्मरूपविज्ञाना मायास्वप्ने
परात्मनः ।। ५५ ।।
इस प्रकार,
हे देवदेवेशि ! वे भगवान् की प्रिया थीं जिन्होंने भ्रान्त आत्मरूप
के माया रूपी स्वप्न में परमात्मा का विज्ञान प्राप्त किया था ।। ५५ ।।
नानायोनिषु देवेशि ससरन्ति पुनः
पुनः ।
भ्रान्तात्मानश्च्युतानन्दाः
ससारेप्यसति प्रिये ॥ ५६ ॥
हे देवेशि ! इसी प्रकार जीव पुनः
पुनः नाना योनियों में मरता और पैदा होता है। इस प्रकार,
हे प्रिये ! वह जीव इस असत् संसार में भ्रान्त आत्मा वाला होकर और [
ब्रह्म के ] आनन्द से च्युत होकर ही रहता है ।। ५६ ।।
निजधारित महानन्दे दुःखाभासो न
विद्यते ।
न दुःखानुभवश्चापि तत्रत्यानां कदाचन
॥ ५७ ॥
महान् आनन्द रूप में अपने धाम में
आत्मा किसी भी दुःख का आभास भी नहीं होता है । उस [ आनन्द ] में विचरण करने वालों
को कभी भी दुःख का अनुभव भी नहीं होता है ॥ ५७ ॥
न कार्पण्यं न दुःखं च नोद्वेगो
नारति क्वचित् ।
तत्प्रियाप्राथितं मत्वा निर्बन्धेन
गिरीन्द्रजे ॥ ५८ ॥
वहाँ न कार्पण्य [ = कंजूसी ] हैं न
दुःख है,
न किसी भी प्रकार के उद्वेग ही है, न कोई रति
है । हे गिरिन्द्रजे ! उसे बन्धन रहित जानकर ॥ ५८ ॥
कूटस्थस्वप्न सम्बन्धमनो भावान्
प्रचक्रिरे ।
असन्नपि महेशानि स्वप्नोऽयं दुःखदो
महान् ॥ ५९ ॥
स्वप्न के सम्बन्ध से आत्मा में
मनोभावों की उत्पत्ति होती है। हे महेशानि ! असत्य होते हुए भी यह स्वप्न महान्
दुःखदायी होता है । ५९ ।।
स्ववासनाकामशेषो ह्यधुनापि
निषेव्यते ॥ ६० ॥
क्योंकि [ इन्द्रियजन्य] वासना और
कामनाओं के शेष रहने से वह भी भोगता रहता है ।। ६० ।।
॥ इति श्रीपञ्चरात्र
श्रीमाहेश्वरतन्त्र उत्तरखण्डे शिवोमासंवादे एकोनविंशं पटकम् ।। १९ ।।
॥ इस प्रकार श्री नारदपश्चरात्र
आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञानखण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के
उन्नीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ।। १९ ।।
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 20

Post a Comment