नारायण स्तोत्र
राजा अश्वशिरा कृत इस नारायण स्तोत्र
से का नित्य स्तुति पाठ करने से यज्ञमूर्ति भगवान् नारायण की कृपा प्राप्त होता है
।
नारायण स्तोत्रम्
Narayan stotra
अश्वशिरा कृतं नारायणस्तोत्रं
श्रीवराहपुराणान्तर्गत नारायण स्तुति
नारायण स्तोत्र
श्रीवराह उवाच ।
नमामि याज्यं त्रिदशाधिपस्य
भवस्य सूर्यस्य हुताशनस्य ।
सोमस्य राज्ञो मरुतामनेक-
रूपं हरिं यज्ञनरं नमस्ये ।। ५.४६
।।
जो सूर्य,
चन्द्रमा, अग्नि, इन्द्र,
रुद्र तथा वायु आदि अनेक रूपों में विराजमान हैं, उन यज्ञमूर्ति भगवान् श्रीहरि को मेरा नमस्कार है।
सुभीमदंष्ट्रं शशिसूर्यनेत्रं
संवत्सरे चायनयुग्मकुक्षम् ।
दर्भाङ्गरोमाणमथेध्मशक्तिं
सनातनं यज्ञनरं नमामि ।। ५.४७ ।।
जिनके अत्यन्त भयंकर दाढ़ हैं,
सूर्य एवं चन्द्रमा जिनके नेत्र हैं, संवत्सर
और दोनों अयन जिनके उदर हैं, कुशसमूह ही जिनकी रोमावली है,
उन प्रचण्ड शक्तिशाली यज्ञस्वरूप सनातन श्रीहरि को मैं प्रणाम करता
हूँ।
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि
व्याप्तं शरीरेण दिशश्च सर्वाः ।
तमीड्यमीशं जगतां प्रसूतिं
जनार्दनं तं प्रणतोऽस्मि नित्यम् ।।
५.४८ ।।
स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का
सम्पूर्ण आकाश तथा सभी दिशाएँ जिनसे परिपूर्ण हैं, उन परम आराध्य, सर्वशक्तिसम्पन्न एवं सम्पूर्ण जगत्की
उत्पत्ति के कारण सनातन श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ।
सुरासुराणां च जयाजयाय
युगे युगे यः स्वशरीरमाद्यम् ।
सृजत्यनादिः परमेश्वरो य-
स्तं यज्ञमूर्तिं प्रणतोऽस्मि नाथम्
।। ५.४९ ।।
जिन पर कभी देवताओं और दानवों का
प्रभुत्व स्थापित नहीं होता, जो प्रत्येक
युग में विजयी होने के लिये प्रकट होते हैं, जिनका कभी जन्म नहीं
होता, जो स्वयं जगत्की रचना करते हैं, उन
यज्ञरूपधारी परम प्रभु भगवान् नारायण को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ।
दधार मायामयमुग्रतेजा
जयाय चक्रं त्वमलांशुशुभ्रम् ।
गदासिशार्ङ्गादिचतुर्भुजोऽयं
तं यज्ञमूर्तिं प्रणतोऽस्मि नित्यम्
।। ५.५० ।।
जो महातेजस्वी श्रीहरि शत्रुओं पर
विजय प्राप्त करने के लिये महामायामय परम प्रकाशयुक्त जाज्वल्यमान सुदर्शनचक्र
धारण करते हैं तथा शार्ङ्गधनुष एवं शङ्ख आदि से जिनकी चारों भुजाएँ सुशोभित होती
हैं,
उन यज्ञरूपधारी भगवान् नारायण को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ ।
क्वचित् सहस्त्रं शिरसां दधार
क्वचिन्महापर्वततुल्यकायम् ।
क्वचित् स एव त्रसरेणुतुल्यो
यस्तं सदा यज्ञनरं नमामि ।। ५.५१ ।।
जो कभी हजार सिरवाले,
कभी महान् पर्वत के समान शरीर धारण करनेवाले तथा कभी त्रसरेणु के
समान सूक्ष्म शरीरवाले बन जाते हैं, उन यज्ञपुरुष भगवान्
नारायण को मैं सदा प्रणाम करता हूँ।
चतुर्मुखो यः सृजते समग्रं
रथाङ्गपाणिः प्रतिपालनाय ।
क्षयाय कालानलसन्निभो य-
स्तं यज्ञमूर्तिं प्रणतोऽस्मि
नित्यम् ।। ५.५२ ।।
जिनकी चार भुजाएँ हैं,
जिनके द्वारा अखिल जगत् की सृष्टि हुई है, अर्जुन
की रक्षा के निमित्त जिन्होंने हाथ में रथ का चक्र उठा लिया था तथा जो प्रलय के
समय कालाग्नि का रूप धारण कर लेते हैं, उन यज्ञस्वरूप भगवान्
नारायण को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ ।
संसारचक्रक्रमणक्रियायै
य इज्यते सर्वगतः पुराणः ।
यो योगिभिर्ध्यायते चाप्रमेयस्
तं यज्ञमूर्तिं प्रणतोऽस्मि नित्यम्
।। ५.५३ ।।
संसार के जन्म-मरणरूप चक्र से
मुक्ति पाने के लिये जिन सर्वव्यापक पुराणपुरुष परमात्मा की मानव पूजा किया करते
हैं तथा जिन अप्रमेय परम प्रभु का दर्शन योगियों को केवल ध्यान द्वारा प्राप्त होता
है,
उन यज्ञमूर्ति भगवान् नारायण को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ ।
सम्यङ्मनस्यर्पितवानहं ते
यदा सुदृश्यं स्वतनौ नु तत्त्वम् ।
न चान्यदस्तोति मतिः स्थिरा मे
यतस्ततो मावतु शुद्धभावम् ।। ५.५४
।।
भगवन्! जिस समय मुझे अपने शरीर में
आपके वास्तविक स्वरूप की झाँकी प्राप्त हुई, उसी
क्षण मैंने मन ही मन अपने को आपके अर्पण कर दिया। मेरी बुद्धि में यह बात भलीभाँति
प्रतीत होने लगी कि जगत्में आपके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। तभी से मेरी भावना परम
पवित्र बन गयी है ।
इति श्रीवराहपुराणे पञ्चमाध्यायान्तर्गता राज्ञा अश्वशिरसा कृता नारायणस्तुतिः समाप्ता ॥

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