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ब्रह्मपारस्तोत्र

ब्रह्मपारस्तोत्र

इस ब्रह्मपार नामक स्तोत्र का पाठ करने से भगवान् श्रीहरि का सानिध्य प्राप्त होता है। इससे पूर्व आपने श्रीविष्णुपुराण तथा ब्रह्मपुराण में वर्णित इस उत्तम स्तोत्र को पढ़ा । अब यहाँ श्रीवराहपुराण अध्याय ३ श्लोक ११-२० में वर्णित ब्रह्मपारस्तोत्र पाठकों के लाभार्थ दिया जा रहा है ।

ब्रह्मपारस्तोत्र

नारदकृतं ब्रह्मपारस्तोत्रम्

Brahma Paar stotram

श्रीवराहपुराणांतर्गत ब्रह्मपार स्तोत्र

ब्रह्म पार स्तोत्र

ब्रह्मपार स्तोत्रं

नारद उवाच ।

परं पराणाममृतं पुराणं

पारं परं विष्णुमनन्तवीर्यम् ।

नमामि नित्यं पुरुषं पुराणं

परायणं पारगतं पराणाम् ।। ३.११ ।।

नारदजी ने कहा- जो परात्पर, अमृतस्वरूप, सनातन, अपार शक्तिशाली एवं जगत्के परम आश्रय हैं, उन पुराणपुरुष भगवान् महाविष्णु को मैं निरन्तर नमस्कार करता हूँ।

पुरातनं त्वप्रतिमं पुराणं

परापरं पारगमुग्रतेजसम् ।

गम्भीरगम्भीरधियां प्रधानं

नतोऽस्मि देवं हरिमीशितारम् ।। ३.१२ ।।

जो पुरातन, अतुलनीय, श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ एवं प्रचण्ड तेजस्वी हैं, जो गहन - गम्भीर बुद्धि-विचार करनेवालों में प्रधान तथा जगत्के शासक हैं, उन श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ।

परात्परं चापरमं प्रधानं

परास्पदं शुद्धपदं विशालम् ।

परात्परेशं पुरुषं पुराणं

नारायणं स्तौमि विशुद्धभावः ।। ३.१३ ।।

जो पर से भी पर हैं, जिनसे परे दूसरा कोई है ही नहीं, जो दूसरों को आश्रय देनेवाले एवं महान् पुरुष हैं, जिनका धाम विशुद्ध एवं विशाल है, ऐसे पुराणपुरुष भगवान् नारायण की परम शुद्धभाव से मैं स्तुति करता हूँ।

पुरा पुरं शून्यमिदं ससर्ज्ज

तदा स्थितत्वात् पुरुषः प्रधानः ।

जने प्रसिद्धः शरणं ममास्तु

नारायणो वीतमलः पुराणः ।। ३.१४ ।।

सृष्टि के पूर्व जब केवल शून्यमात्र था, उस समय पुरुषरूप से जिन्होंने प्रकृति की रचना की, वे भक्तजनों में प्रसिद्ध, शुद्धस्वरूप पुराणपुरुष भगवान् नारायण मेरे लिये शरण हों।

पारं परं विष्णुमपाररूपं

पुरातनं नीतिमतां प्रधानम् ।

धृतक्षमं शान्तिधरं क्षितीशं

शुभं सदा स्तौमि महानुभावम् ।। ३.१५ ।।

जो परात्पर, अपारस्वरूप, पुरातन, नीतिज्ञों में श्रेष्ठ, क्षमाशील, शान्ति के आगार तथा जगत् के शासक हैं, उन कल्याणस्वरूप भगवान् नारायण की मैं सदा स्तुति करता हूँ ।

सहस्त्रमूर्धानमनन्तपाद-

मनेकबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।

क्षराक्षरं क्षीरसमुद्रनिद्रं

नारायणं स्तौम्यमृतं परेशम् ।। ३.१६ ।।

जिनके हजारों मस्तक हैं, असंख्य चरण और भुजाएँ हैं, चन्द्रमा और सूर्य जिनके नेत्र हैं, क्षीरसागर में जो शयन करते हैं, उन अविनाशी सत्यस्वरूप परम प्रभु भगवान् नारायण की मैं स्तुति करता हूँ।

त्रिवेदगम्यं त्रिनवैकमूर्तिं

त्रिशुक्लसंस्थं त्रिहुताशभेदम् ।

त्रितत्त्वलक्ष्यं त्रियुगं त्रिनेत्रं

नमामि नारायणमप्रमेयम् ।। ३.१७ ।।

जो वेदत्रयी के अवलम्बन द्वारा जाने जाते हैं, जो परब्रह्मरूप एक मूर्ति से द्वादश आदित्यरूप बारह मूर्तियों में अभिव्यक्त होते हैं, जो ब्रह्मा, विष्णु और महेशरूप तीन परमोज्ज्वल मूर्तियों में स्थित हैं, जो अग्निरूप में दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य और आहवनीय - इन तीन भेदों में विभक्त होते हैं, जो स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण- इन तीन तत्त्वों के अवलम्बन द्वारा लक्षित होते हैं, जो भूत, वर्तमान और भविष्यरूप से त्रिकालात्मक हैं तथा सूर्य, चन्द्रमा एवं अग्निरूप तीन नेत्रों से युक्त हैं, उन अप्रमेयस्वरूप भगवान् नारायण को मैं प्रणाम करता हूँ।

कृते सितं रक्ततनुं तथा च

त्रेतायुगे पूततनुं पुराणम् ।

तथा हरिं द्वापरतः कलौ च

कृष्णीकृतात्मानमथो नमामि ।। ३.१८ ।।

जो अपने श्रीविग्रह को सत्ययुग में शुक्ल, त्रेता में रक्त, द्वापर में पीतवर्ण से अनुरञ्जित और कलियुग में कृष्णवर्ण में प्रकाशित करते हैं, उन पुराणपुरुष श्रीहरि को मैं नमस्कार करता हूँ ।

ससर्ज यो वक्त्रत एव विप्रान्

भुजान्तरे क्षत्रमथोरुयुग्मे ।

विशः पदाग्रेषु तथैव शूद्रान्

नमामि तं विश्वतनुं पुराणम् ।। ३.१९ ।।

जिन्होंने अपने मुख से ब्राह्मणों का, भुजाओं से क्षत्रियों का, दोनों जङ्घाओं से वैश्यों का एवं चरणों के अग्रभाग से शूद्रों का सृजन किया है, उन विश्वरूप पुराणपुरुष भगवान् नारायण को मैं प्रणाम करता हूँ।

परात्परं पारगतं प्रमेयं

युधांपतिं कार्यत एव कृष्णम् ।

गदासिचर्मण्यभृतोत्थपाणिं

नमामि नारायणमप्रमेयम् ।। ३.२० ।।

जो परे से भी परे, सर्वशास्त्रपारंगत, अप्रमेय और योद्धाओं में श्रेष्ठ हैं, साधुओं के परित्राणरूप कार्य के निमित्त जिन्होंने श्रीकृष्ण अवतार धारण किया है तथा जिनके हाथ ढाल, तलवार, गदा और अमृतमय कमल से सुशोभित हैं, उन अप्रमेय-स्वरूप भगवान् नारायण को मैं प्रणाम करता हूँ ।

।। इति श्रीवराहपुराणे नारदकृतं ब्रह्मपारस्तोत्रम् तृतीयोऽध्यायः ।। 

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