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पुण्डरीकाक्षपार स्तोत्र

पुण्डरीकाक्षपार स्तोत्र

श्रीवराहपुराण के अध्याय ६ में वर्णित पुण्डरीकाक्ष भगवान् नारायण के इस पुण्डरीकाक्षपार नामक उत्तम स्तोत्र का जो पुरुष श्रवण अथवा पढन करता है वह ब्रह्महत्यादि कठिन से कठिन पाप से मुक्त हो जाता है तथा उसे पुष्कर क्षेत्र में विधिपूर्वक स्नान करने का फल सुलभ होता है और उसे उत्तम गति की प्राप्ति और कल्पपर्यन्त विष्णुलोक में निवास प्राप्त होता है।

पुण्डरीकाक्षपार स्तोत्र

पुण्डरीकाक्षपार स्तोत्रम्

Pundrikaksha paar stotra

पुण्डरीकाक्षपार स्तोत्रं

श्रीपुण्डरीकाक्ष पार स्तोत्र

पुण्डरीकाक्षपारस्तोत्र

श्रीवराह उवाच ।

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते मधुसूदन ।

नमस्ते सर्वलोकेश नमस्ते तिग्मचक्रिणे ।। ६.१० ।।

पुण्डरीकाक्ष ! आपको नमस्कार है। मधुसूदन ! आपको नमस्कार है । सर्वलोकमहेश्वर ! आपको नमस्कार है। तीक्ष्ण सुदर्शनचक्र धारण करनेवाले श्रीहरि को मेरा बारंबार नमस्कार है।

विश्वमूर्तिं महाबाहुं वरदं सर्वतेजसम् ।

नमामि पुण्डरीकाक्षं विद्याऽविद्यात्मकं विभुम् ।। ६.११ ।।

महाबाहो ! आप विश्वरूप हैं, आप भक्तों को वर देनेवाले और सर्वव्यापक हैं, आप असीम तेजोराशि के निधान हैं, विद्या और अविद्या- इन दोनों में आपकी ही सत्ता विलसित होती है, ऐसे आप कमलनयन भगवान् श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ ।

आदिदेवं महादेवं वेदवेदाङ्गपारगम् ।

गम्भीरं सर्वदेवानां नमामि मधुसूदनम् ।। ६.१२ ।।

प्रभो! आप आदिदेव एवं देवताओं के भी देवता हैं। आप वेद-वेदाङ्ग में पारङ्गत, समस्त देवताओं में सबसे गहन एवं गम्भीर हैं। कमल के समान नेत्रोंवाले आप श्रीहरि को मैं नमस्कार करता हूँ।

विश्वमूर्तिं महामूर्तिं विद्यामूर्तिं त्रिमूर्तिकम् ।

कवचं सर्वदेवानां नमस्ये वारिजेक्षणम् ।। ६.१३ ।।

सहस्त्रशीर्षिणं देवं सहस्त्राक्षं महाभुजम् ।

जगत्संव्याप्य तिष्ठन्तं नमस्ये परमेश्वरम् ।। ६.१४ ।।

भगवन्! आपके हजारों मस्तक हैं, हजारों नेत्र हैं और अनन्त भुजाएँ हैं । आप सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त करके स्थित हैं, ऐसे आप परम प्रभु की मैं वन्दना करता हूँ।

शरण्यं शरणं देवं विष्णुं जिष्णुं सनातनम् ।

नीलमेघप्रतीकाशं नमस्ये चक्रपाणिनम् ।। ६.१५ ।।

जो सबके आश्रय और एकमात्र शरण लेने योग्य हैं, जो व्यापक होने से विष्णु एवं सर्वत्र जयशील होने से जिष्णु कहे जाते हैं, नीले मेघ के समान जिनकी कान्ति है, उन चक्रपाणि सनातन देवेश्वर श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ।

शुद्धं सर्वगतं नित्यं व्योमरूपं सनातनम् ।

भावाभावविनिर्मुक्तं मस्ये सर्वगं हरिम् ।। ६.१६ ।।

जो शुद्धस्वरूप, सर्वव्यापी, अविनाशी, आकाश के समान सूक्ष्म, सनातन तथा जन्म-मरण से रहित हैं, उन सर्वगत श्रीहरि का मैं अभिवादन करता हूँ।

नान्यत् किंचित् प्रपश्यामि व्यतिरिक्तं त्वयाऽच्युत ।

त्वन्मयं च प्रपश्यामि सर्वमेतच्चराचरम् ।। ६.१७ ।।

अच्युत! आपके अतिरिक्त मुझे कोई भी वस्तु प्रतीत नहीं हो रही है । यह सम्पूर्ण चराचर जगत् मुझे आपका ही स्वरूप दिखलायी पड़ रहा है।

इति श्रीवराहपुराणे षष्ठोऽध्यायः पुण्डरीकाक्षपार स्तोत्रं सम्पूर्ण: ।।

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