त्रिपुरा स्तुति
ऋषि सुमेधा ने रात्रि में स्वप्न
में श्रीपरमेश्वरी बालारूप में सम्पूर्ण सुन्दर अवयवों से सुशोभित तरुण अरुण के
समान श्रेष्ठ छविवाली अक्षमाला एवं पुस्तक तथा अभय मुद्रा से अत्यधिक सुन्दर
चतुर्भुजावाली तीन नेत्र तथा चन्द्रखण्ड से सुशोभित उज्ज्वल मुकुट वाली करोड़ों
कामदेवों से भी सुन्दर स्वरूपवती दश वर्ष की अवस्था में लीला से स्वीकार किया है
शरीर को जिसने ऐसी जगन्माता प्रकट हुई। स्वप्न समय में उन्हें देख हारितायन
प्रसन्न हुआ और दण्डवत् प्रणाम कर हर्ष से गद्गद स्वर में हुये अञ्जलि बांधकर वह त्रिपुरा
की स्तुति करने लगे।
त्रिपुरा स्तुति
Tripura stuti
त्रिपुरसुन्दरी स्तुति
त्रिपुरा स्तुति
बाला त्रिपुरसुन्दरी स्तुति
जय श्रीत्रिपुरे मातर्जय बालाम्बिके
परे ।
जय भक्तप्रिये नित्यं जय कारुण्य
विग्रहे ॥ ६१॥
हे श्रीत्रिपुरे! मातः आपकी जय हो,
हे बालाम्बिके ! हे परे ! आप की जय हो । हे नित्य भक्तों के प्रिय
करने वाली आपकी जय हो, हे करुणा से शरीर धारण करने वाली आपकी जय हो ।
लोके
त्रिविक्रमोल्लासिवस्तुपृवस्थितिर्यतः ।
त्रिपुरेति ततः प्रोक्ता
ब्रह्मादीनां पराश्रया ॥६२॥
महिम्नस्ते लेशं हरिहरभवाद्या अपि
परं,
न वक्तुं ज्ञातुं वा प्रभव इह
देवादिमुखः ।
तथाभूता देवी क इह भुवनेषु
स्तुतिपथं,
समीहेदारोढुं तव चरणसेवाविरहितः
॥६३॥
जहां से त्रिविक्रम स्थूल सूक्ष्म
एवं तुरीय, प्राण मन और वाणी सत्त्व,
रज और तम ऋक् साम एवं यजु से व्याप्त इसलिये ब्रह्मादिकों को परम आश्रय
देने वाली आप त्रिपुरा कही गई हैं। इस संसार में आपकी लेशमात्र महिमा को हरिहर शिवादिक तथा देवादि गुरुजन भी वर्णन
करने के लिये तथा जानने के लिये समर्थ नहीं हो सकेगें ऐसी सामर्थ्यमयी आप हैं आपकी
चरणसेवा से विमुख कौन व्यक्ति इस संसार में स्तुति मार्ग पर चढने के लिये समर्थ हो
सकता है ?
पदाम्भोजे भक्तिस्तव
भवतिचिन्तामणिगणो,
नतच्चित्रं देवि ! प्रभवति
समीहाधिकफलम् ।
अतस्त्वत्पादाब्जप्रणिहितसमस्तेन्द्रियवतां,
फलं न प्राप्यं किंवद परशिवे
सुन्दरि परे ॥६४॥
हे देवि ! परशिवे ! हे सुन्दरि ! हे
परे ! आपके चरणकमल में भक्ति चिन्तामणि रूप होती है और चेष्टा से भी अधिक फलवाली
होती है इसमें कोई विचित्रता नहीं इसलिये आपके चरण कमलों में समर्पित समस्त
इन्द्रिय वालों को क्या फल प्राप्त नहीं होगा ? सो
कहो ।
त्वमेवादौ सृष्टः सहजमुखपीयूष
जलधिर्नितान्तं,
विश्रान्ता वपुषि विमले निश्चलतरे ।
न खं वायुस्तेजः सलिलमपि
भूमिर्घटपटौ,
न चज्ञानाज्ञाने वचनविषयो वा
स्थितमभूत् ॥६५॥
आप ही आदि में सम्पूर्ण सृष्टि के
नित्य आनन्दरूपी अमृत के सर्वथा विश्राम स्थान हैं जब निश्चलतर शरीर विमल शरीर रूप
में आप प्रत्यक्ष हो जाती हैं न तो आकाश, न
वायु, न तेज, न जल, और न पृथ्वी न घट पट ही, न ज्ञान और न अज्ञान उस संवित्
प्राप्त की स्थिति में वैखरी वाणी में कहे जाते हैं परावाक् ही उसका गन्तव्य हो
जाता है।
त्वमेवैका सेयं निरवधिमहाशक्तिभरिता,
स्थिता संविद्र पा सकलजगतामादिसमये
।
जगन्माला जालाङ्कुरगणसुबीजैकवपुषा,
परानन्दाकारा परमशिवजीवस्थितिकरी
॥६६॥
आप एकाकी ही निःसीम महाशक्ति से भरी
हुई सम्पूर्ण जगत् के आदिकाल से संविद रूप में स्थित रहती है। जगत् के सम्पूर्ण
क्रियाकलापों के मायाजाल के अङ्कुर गुणों के सुन्दर बीज को अपने में समाकर परम आनंद
स्वरूप परमात्मतत्त्व भगवान् शङ्कर के उन्मेष
का कारण बनती हैं ।
ततः संविद्र पातव सकलमेतद्विलसितं,
विभातं सद्र पं तदितरवपुश्चापि सहसा
।
यथाम्भोधौ भङ्गा घटकलशकुण्डा इव
मृदि,
प्रभा भानोर्यद्वत्कनकशकलं भूषणगणाः
॥ ६७॥
तदनन्तर संविद् रूप आप ही यह सारा
संसारजाल जगचित्र के विलास रूप में आपसे इतर आकार धारण किया हुआ भी अकस्मात्
सद्रूपा प्रकट होती है । जैसे समुद्र में उसकी वीची (तरंगे ) सागर रूप ही रहती हैं;
जैसे मिट्टी में घड़ा, कलस, कुण्डा, शराव आदि नाना प्रकार से कहे जाते हैं। जिस
प्रकार सूर्य की भास्वर ज्योति का किरण - स्वर्ण जाल सूर्य के अतिरिक्त कुछ नहीं
और सम्पूर्ण आभूषणों का सोने के नाना आकारों में विशेष व्यवहारोपयोगी रूप के
अतिरिक्त कुछ नहीं, वैसे ही सारा जगत् आपका संवित् रूप ही है
।
अतस्त्वद्र पान्नो पृथगिह
भवेत्किञ्चिदपि वा,
सदा सर्वात्मत्वाद्विलससि
महाकाशवपुषा ।
तथाभूतायास्ते परिमितकराङ्घ्यादिवपुषा,
विलासो भक्तषु प्रभवति
कृपायन्त्रणवशात् ॥ ६८ ॥
तवाप्येतद्रूपं
शिवगुरुपदाम्भोजविलसत्,
सुभक्तिप्रोन्मीलद्विमलनयनानां
विधिवशात् ।
शक्तिपात कदाचित्केषाञ्चिद्भवति
पुरतो भाग्यवशतः
परं यत्तद्रूपं कथमिह भवेदम्ब सुलभम् ॥६९॥
अतः आपके रूप से पृथक् चाहे जो कुछ
भी हो उसमें आप ही सदा महाकाश के आकार में सर्वात्मभाव में विलास करती हैं;
ऐसी महामहिमामयी आपकी सगुण परिच्छिन्न मूर्ति जो हाथ पैर और मुख आदि
देहधारी रूप से भक्तों के ऊपर कृपा करने के लिये ही विलासमात्र है । हे मातः !
आपका यह अतीव दिव्यस्वरूप श्री शिव सद्गुरु के चरण कमल में अधिकाधिक भक्ति के
संरम्भ से खुल गये हैं ज्ञान नेत्र जिनके ऐसे महाभाग्यशाली किन्हीं पुण्य
पुञ्जवाले पुरुषों के विधिवश से और उनके महाभागवन्त होने के कारण कभी ही
साक्षात्कार में आता है। भला बताइये तो सही उस अलौकिक भास्वद रूप की आभा की झलक
किस प्रकार हमारे जैसे व्यक्तियों को अनायास सुलभ हो ?
नमस्ते बालाम्ब त्रिपुरहर
सौभाग्यनिलये,
नमस्ते भक्तेहासमधिकफलोत्पादचतुरे ।
नमस्ते
दैन्याद्रिप्रविदलनवज्रायितकृपे,
नमस्ते मोहाम्भोनिधिकवलनागस्त्यचरणे
॥७०॥
हे बालाग्ब ! (आत्मरूप से संवित्
प्रकाशात्मक आपका उन्मेषनिमेष ही सदा एकरस रहता है यहां बालाम्ब अन्वर्थ नाम है )
हे शंकरसौख्यआगरी ! मेरा आपको नमस्कार है, हे
भक्त के अभीष्ट से भी बहुत अधिक फलों के उत्पन्न करने में चतुर भगवती ! आपको
नमस्कार है, हे दीनतारूपी विशाल पर्वत के दलन करने में वज्र से
भी कठोर रूप से चूर्णकर कृपा करने वाली आपको नमस्कार है, हे मोह
रूपी समुद्र की चुल्लू करने में अगस्त्य को अपना अनुचर बनानेवाली महाविभूति
सम्पन्ने ! आपको पुनः पुनः सादर नति है ।
इति श्रीत्रिपुरारहस्य संहितायां त्रिपुरा स्तुति: नाम प्रथमोऽध्यायः ॥

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