पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

योगिनीतन्त्र पटल ५

योगिनीतन्त्र पटल ५ 

योगिनीतन्त्र पटल ५ में शय्या साधन आदि विविध साधनों का वर्णन है ।

योगिनीतन्त्र पटल ५

योगिनीतन्त्र पटल ५  

Yogini tantra patal 5

योगिनीतन्त्रम् पञ्चम: पटलः

योगिनी तन्त्र पञ्चम पटल

योगिनी तंत्र पांचवां पटल 

योगिनीतन्त्रम्

श्रीदेव्युवाच ।

भगवन्सर्वधर्मज्ञ लोकानुग्रहकारक ।

साधनं सर्वमन्त्रस्य सर्वाशापरिपूरकम् ।

तदहं श्रोतुमिच्छामि तद्वदस्व महेश्वर ॥ १ ॥

श्रीपार्वतीजी बोलीं-हे सब धर्मो के जाननेवाले लोकानुग्रहकारक भगवन् ! मैं सब मंत्रों के संपूर्ण अंग का पूर्ण करनेवाला साधन सुनने की इच्छा करती हूं, हे महेश्वर ! सो आप वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

ईश्वर उवाच ।

शय्यायाः साधनं ह्यादौ वक्ष्येऽहं परमाद्भुतम् ।

सार्द्धयामगतायान्तु निशायां साधकोत्तमः ॥२॥

भूत्वा दिगम्बरः सम्यगाचम्य विधिवत्तदा ।

अभ्युक्ष्य मूलमन्त्रेण शय्यायान्तत्र संविशेत् ॥ ३ ॥

महदेवजी बोले पहिले मैं परम अद्भुत शय्यासाधन कहता हूं, सो सुनो। साधकोत्तम मनुष्य रात्रि का डेढ प्रहर बीतने पर नग्न होकर यथाविधि आचमन पूर्वक मूलमंत्र से अपने शरीर पर जड छिड़ककर शय्या पर जाय ॥२-३॥

गुरुं परगुरुश्चैव परात्परगुरुन्तथा ।

परमेष्टिगुरुञ्चैव वामेऽभ्यर्च्य गणेश्वरम् ॥ ४ ॥

अनन्तर गुरु, परगुरु, परात्परगुरु, परमेष्टिगुरु इन सब गुरु और गणेश्वर की वामभाग में पूजा करके ॥ ४ ॥

दक्षिणे च भ्रुवोरूर्ध्वश्मशानावासिने नमः ।

ततो यमासनायान्ते नमः इत्यर्चयेच्छिवे ॥५॥

'दक्षिणे भ्रुवोरूर्ध्वश्मशानावासिने नमः ' । इस मंत्र से अर्चना करने के पीछे ' यमासनाय नमः ' इस मंत्र से पूजा करे ॥५॥

शय्यातले देवि प्रणवं वाग्भवञ्च फट् ॥

लिखित्वाचम्य यत्नेन स्वमन्त्रोक्तविधानतः ॥ ६॥

प्रणवं मणिषरिश्ववज्रिणीं चेन्महापदम् ॥

प्रतिसीरे रक्ष रक्ष मां हुं फट्स्वायायुतम् ॥ ७॥

हे शिवे ! कार और फट् अन्त वाग्भवमंत्र लिखकर आचमन के पीछे निजमन्त्रोक्त विधानानुसार कार और "मणिधरिश्चैव वज्रिणी चेन्महापदम् । प्रतिसीरे रक्ष रक्ष मां हुं फट् स्वाहा " ॥ ६- ७ ॥

अनेन मनुना देवि शिखां बद्ध्वा विधानतः ।

अङ्गन्यास करन्यासौ मातृकान्यासमेव च ॥ ८ ॥

इस मंत्र से विधिपूर्वक शिखाबंधन करे, फिर अंगन्यास करन्यास, मातृकान्यास ॥ ८ ॥

भूतशुद्रयादिकं कृत्वा हृत्पद्मे परमां शिवाम् ।

ध्यात्वा भक्त्या समभ्यर्च्य मानसैः साधकोत्तमः ॥ ९ ॥

और भूतशुद्धादिक समापनपूर्वक हृत्पद्म में भक्तिसहित पूजा करके साधकोत्तम मन में परमा शिवा का ध्यान करे ॥ ९ ॥

शय्यातले तां प्रणीय मन्त्रोपरि वरानने ।

प्रणवश्च ततो देवि बटुकेभ्यो नमस्तथा ॥ १० ॥

इति मन्त्रेण मनसा बटुं पाद्यादिभिर्यजेत् ।

ततस्तु वह्निबीजेन समन्ताजलधारया ॥ ११ ॥

वह्निप्राचीर माचिन्त्य सङ्कलपञ्च समादरात् ।

जपं कृत्त्वा समयथ विधिना परमेश्वरि ।

पुनः संकल्प्य देवेशि कुर्यात्सर्वक्रमं शिवे ॥ १२॥

होमश्च तर्पणञ्चैव अभिषेकं तनः परम् ।

विप्रस्य भोजनश्चैव अभावे द्विगुणं जपेत् ॥ १३ ॥

काञ्चनं दक्षिणां दत्वाच्छिद्रावधारणञ्चरेत् ।

संप्रोच्य बटुकं देवि क्षमस्वेति विसर्जयेत् ॥ १४ ॥

तदनन्तर हे वरानने ! शय्यातले तांप्रणीय ' फिर प्रणव ( ॐकार ) इसके पीछे ' बटुकेभ्यो नमः ' मंत्र से पाद्यादि द्वारा वटुक की पूजा करनी चाहिये । इसके उपरान्त वह्निबीज (रं) द्वारा चारों ओर जलधारा से वह्निप्राचीर की चिन्ता करके यत्नपूर्वक विधिसहित सर्व समापन करने पर फिर सर्वक्रम से संकल्प, होम, तर्पण और अभिषेक करके ब्राह्मण-भोजन एवं इसके अभाव में दूना जप करे। हे शिवे ! हे परमेश्वरि ! फिर सुवर्ण की दक्षिणा देकर अच्छिद्राव अर्थात् छिद्र रहित पात्र धारण करे फिर बटुक का स्तव करने के पीछे 'क्षमस्व इस मन्त्र से विसर्जन करे॥ १०- १४ ॥

एवमुक्तं महादेवि शय्यासाधनमुत्तमम् ।

मन्त्रसिद्धिकरं शीघ्रमस्मत्सायुज्यदायकम् ॥ १५ ॥

हे महादेवि ! यह मैंने तुमसे शीघ्र सिद्धि करनेवाला अपना सायुज्यदायक उत्तम शय्यासाधन कहा ।। १५ ।।

अथ शृणु त्रिवाटस्य चतुर्वाटस्य साधनम् ।

गत्वा तु त्रिपथं वापि चतुर्मार्ग वरानने ॥ १६ ॥

हे वरानने ! अब त्रिराहे और चौराहे का साधन कहता हूं, सुनो त्रिराहे वा चौराहे में जाकर ॥ १६ ॥

प्रणमेद्गुरुमभ्यर्च्य मणिधरीति मन्त्रतः ।

वद्ध्वा प्रथिन्तु वज्रान्ते निर्भयः साधकोत्तमः ॥ १७॥

गुरु की अर्चना और प्रणाम करके ( मणिधरी ) इस मंत्र से ग्रंथिबंधन- पूर्वक वज्रमंत्रोच्चारणपूर्वक साधक निर्भय होवे ॥ १७ ॥

श्मशानवासिनो ये ये देवा देव्यश्च भैरवाः ।

दयां कुर्वन्तु ते सर्वे सिद्धिदाश्च भवन्तु मे ॥ १८ ॥

फिर हाथ जोड़कर प्रार्थना करे कि हे श्मशान के रहनेवाले देवा देवताओ ! तुम सब मिलकर मेरे ऊपर दया करो और मुझे सिद्धि दो ॥ १८॥

प्रणमेत्प्रणवाद्येन मनुनानेन भक्तितः ।

ततः पूर्वमुखो वापि उत्तराशामुखोऽपि वा ॥ १९ ॥

उपविश्व समाचम्य स्वस्ति वाच्य महेश्वरि ।

स्थानं सम्मा तत्रैव प्रतबीजं लिखेत्सुधीः ॥२०॥

अनन्तर' प्रणवादि इस मंत्र से भक्तिपूर्वक प्रणाम करे । हे महेश्वरि ! तदनन्तर पूर्वमुख वा उत्तर मुखाभिमुख बैठकर आचमन के पीछे स्वस्तिवाचनपुरः सर स्थानमार्जन करके बुद्धिमान् साधक उसी स्थान में प्रेतबीज लिखे ॥ १९- २० ॥

बीजोपरि महादेवि विहितासनमास्तरेत् ।

तत्रोपविश्य देवेशि हृदीष्टदेवतां स्मरेत ॥ २१ ॥

हे देवि ! बीजोपरि विहित आसन बिछाय उसके ऊपर बैठकर हृदय में इष्टदेवता का स्मरण करना चाहिये ॥२१॥

यथेष्टमनसाराध्य ह्यष्टासु च बलिं हरेत् ।

कालादिभ्यो महेशानि पूजयित्वा विधानतः ॥ २२॥

मन में यथेष्ट आराधना करके अष्टदिशा में बलि देकर विधान द्वारा कालादि की पूजा करनी चाहिये ॥ २२ ॥

काली कपालिनी कुल्ला कुरुकुल्ला विरोधिनी ।

विप्रचित्ता तथा नीला बलाका च मुनिद्विषा ॥ २३॥

प्रणवादिनमोन्तेन पूजा बल्यादिना स्मृता ।

संकल्प्याष्टोत्तरशतं जप्त्वाच्छिद्रावधारणम् ॥

कृत्वा स्थानं परित्यज्य स्मरन्देवों गृहं व्रजेत् ॥२४॥

ओंकारादि अंगों सहित 'नमोऽस्तु ' मंत्र से बलि आदि के द्वारा काली कपालिनी, कुल्ला, कुरुकुल्ला, विरोधिनी, विप्रचित्ता, नीला, बलाका और मुनिद्विषा इन देवियों की पूजा करने के पीछे अष्टोत्तर शतवार जप करके अच्छिद्रावधारण करे, फिर इस स्थान को छोड़कर देवीजी का स्मरण करता हुआ घर को चला जाय ॥२३-२४॥

एवमुक्त साधनान्ते सर्वसिद्धिनिषेवितम् ।

यस्मै कस्मै न दातव्यं साधकानां परं हिनम् ॥२५॥

हे देवि ! यह मैंने तुमसे सर्वसिद्धिदायक वाटसाधन कहा। यह सर्व साधारण को नहीं देना चाहिये। यह साधकों का परम हितकारी है ॥२५॥

अतः परमहं वक्ष्ये बिल्वमूलस्य साधनम् ।

बिल्वमूलं महेशानि समन्ताच्छंकरः स्मृतम् ॥२६॥

अब मैं तुमसे बिल्ववृक्ष का साधन कहता हूं हे महेशानि ! चारों ओर के बिल्वमूल शंकर स्वरूप कहे गये हैं ॥२६॥

जटास्वरूपं देवेशि पर्ण जानीहि सुन्दरि ।

ऋग्यजुः सामसदृशं त्रिपत्रहि वरानने ॥ २७ ॥

हे देवेशि ! हे सुन्दरि ! उसके पर्ण मेरी जटा है। हे वरानने! उसके तीन पत्ते ऋक् यजुः और सामवेद स्वरूप हैं ॥ २७ ॥

शाखा हि सर्वशास्त्राणि जानीताम्मीनलोचने ।

कल्पवृक्षसमो बिल्वो ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।

महालक्ष्मीर्बिल्ववृक्षो जातः श्रीशैलपर्वते ॥ २८ ॥

शाखा को सर्वशास्त्र जानना चाहिये । हे मीनलोचने ! बिल्ववृक्ष कल्पवृक्ष के तुल्य और ब्रह्मा विष्णु शिवस्वरूप है श्रीमहालक्ष्मीजी ने बिल्ववृक्ष होकर ही श्रीशैलपर्वत में जन्म लिया था ॥ २८ ॥

श्रीदेव्युवाच ।

कथं सा विष्णुवनिता बिल्ववृक्षो बभूव ह ।

वृत्तांतं परमाश्वर्यं वद मे करुणामय ॥ २९ ॥

श्रीपार्वतीजी ने कहा- हे करुणामय ! विष्णु की भार्या ने किस प्रकार बिल्ववृक्ष होकर जन्म लिया । यह परमाश्वर्ययुक्त वृत्तान्त मैं सुनना चाहता हूं सो वर्णन करके मेरा कौतूहल चारितार्थ कीजिये ॥ २९ ॥

ईश्वर उवाच ।

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि वृत्तान्तं परमाद्भुतम् ।

सत्ये तु पूजयामास लिङ्गं रामेश्वराभिधम् ॥ ३० ॥

ज्योतीरूपं मदीयांशं प्रार्थ्य ब्रह्मादिभिः सह ।

तत्र मेऽनुग्रहाद्वाणी सर्वेषां प्रियतां गता ॥ ३१ ॥

ईश्वर बोले--हे देवि ! यह परम अद्भुत वृत्तान्त कहता हूं सुनो। सत्ययुग में ज्योतीरूप मेरे अंश रामेश्वर नामक लिंग की ब्रह्मादि देवताओं के सहित देवियों ने पूजा की थी, उनमें मेरे अनुग्रह से वाणी देवी सबकी प्रिया हुई है । ३०- ३१ ॥

विष्णोरतिप्रिया नित्यं सदासाभूत्सरस्वती ।

तादृक् प्रीतिर्न लक्ष्म्याञ्च जायते केशवस्य हि ॥ ३२ ॥

वह सरस्वती विष्णु की सदा प्यारी हुई है केशव की लक्ष्मी के प्रति वैसी प्रीति उत्पन्न नहीं हुई ॥ ३२ ॥

इति चिन्तापरा लक्ष्मीर्ययौ श्रीशैलमुत्तमम् ।

प्राप्यमल्लिङ्गमेकान्ते तपस्तेपेऽतिदारुणम् ॥ ३३ ॥

इस कारण लक्ष्मी देवी चिन्तायुक्त होकर उत्तम श्रीशैलपर्वत को गई वहां मेरे एक लिंग को प्राप्त होकर इन्होंने अत्यन्त दारुण तपस्या आरंभ की ॥ ३३ ॥

तथापि हृदि नैवाभूत्कृपा मे परमेश्वरि ।

तदा सा वृक्षरूपेण स्थिता लिंगाग्रतः सती ॥ ३४ ॥

हे परमेश्वरी ! तो भी मेरी कृपा का न होना देख लक्ष्मी देवी मेरे लिंग के अग्रस्थित स्थान में वृक्षरूप से अवस्थान करके ॥ ३४ ॥

पत्रैः पुष्पैः फलैः स्वीयैः पूजयामास सन्ततम् ।

कोटिवर्षे महेशानि ततो मेऽनुग्रहोऽभवत् ॥ ३५ ॥

अपने पत्र पुष्प और फलों से निरंतर मेरी पूजा करने लगी । हे महेशानि! तब करोडवर्ष पीछे मेरा अनुग्रह हुआ ॥ ३५ ।।

तेनैवानुग्रहेणैव विष्णोर्वक्षः स्थिताभवत् ।

तत्रैव परमेशानि विहरेत्सा सदैव हि ॥ ३६ ॥

उसी अनुग्रह के कारण लक्ष्मी विष्णु के वक्षस्थल में स्थित हुई और वह निरंतर उनके संग विहार करने लगी ।। ३६ ।

अतस्तु कारणादेवि तद्रूपेण हरिप्रिया ।

सदैव पूजयन्ती मां मद्भक्ता सातुला शिवे ॥ ३७ ॥

हे परमेशानि ! हे देवि ! इसी कारण वह हरिप्रिया उस वृक्षरूप में सदा ही मेरी पूजा करती रहती हैं, हे शिवे ! वह मेरे प्रति अत्यन्त भक्तिमती हैं ॥३७॥

अतस्तु वृक्षमास्थाय तिष्ठामि च दिवानिशम् ।

सर्वतीर्थमयो देवि सर्वदेवमयः सदा ॥ ३८ ॥

श्रीवृक्षः परमेशानि अत एव न संशयः ।

तत्फलैस्तत्प्रसूनैर्वा तत्पत्रेर्यः प्रपूजयेत् ॥ ३९॥

तत्काष्ठचन्दनैर्वापि स मे भक्तः स मे प्रियः ॥ ४० ॥

इसी कारण मैं दिनरात बिल्ववृक्ष का आश्रय करके वास करता हूं, हे परमेश्वरि ! हे देवी! अतएव बिल्ववृक्ष सदा ही सर्वतीर्थमय और सर्वदेवमय है इसमें सन्देह नहीं । बिल्वपत्र वा बिल्वपुष्प, बिल्व फल अथवा बिल्वाष्ट के चन्दन से जो मेरी पूजा करता है, हे देवि ! वही मेरा प्रिय और वही मेरा भक्त है ॥ ३८- ४० ॥

तत्काष्ठचन्दनं भाले यो धारयति संभ्रमात् ।

मत्ततुं शिवबुद्धया सा नमेदेवि मुदान्विता ॥ ४१ ॥

जो मनुष्य भ्रम से भी कपाल में विल्वकाष्ठ का चंदन धारण करता है, उसके देह को शिवतनु जानकर लक्ष्मी देवी हर्षित होकर प्रणाम करती हैं ॥ ४१ ॥

अतस्तच्चन्दनं देवि धारयेन कदाचन ।

तत्पत्रं तत्प्रसूनं वा धारयेत्रकदापिहि ॥ ४२ ॥

अतएव हे देवि ! वह चन्दन मनुष्यगण कभी धारण न करे एवं उसका पत्र वा पुष्प धारण करना भी उचित नहीं है ॥ ४२ ॥

बिल्वमूले महेशानि प्राणांस्त्यजति यो नरः ।

रुद्रदेवो भवेत्सत्यं पापकोटियुतोऽपि सः ॥ ४३ ॥

हे महेशानि ! जो मनुष्य बिल्वमूल में प्राणत्याग करता है. वह यदि करोडपापों से युक्त तो भी रुद्रदेह धारण करता है इसमें सन्देह नहीं ॥ ४३ ॥

अतस्तत्साधनं देवि सर्वेषां प्रियकारकम् ।

तत्र गत्वा बिल्वमूलं प्राग्वद्गुरुचतुष्टयम् ॥

अभ्यर्च्य यत्नतो देवि क्षेत्रपालं प्रपूज्य च ॥४४॥

हे देवि ! इस कारण उसका साधन सब देवताओं का प्रिय करनेवाला है, उस बिल्वमूल में जाकर पूर्ववत् गुरुचतुष्टय (चारों गुरु ) की पूजा पूर्वक परमयत्न से क्षेत्रपाल की पूजा करे ॥ ४४ ॥

क्षेत्रपाल महाभाग श्मशानाधिप सुव्रत ।

सिद्धिं देहि जगत्कर्त्तः स्थानं देहि नमोस्तुते ॥ ४५ ॥

फिर हे क्षेत्रपाल ! हे महाभाग ! हे श्मशान के अधिपति ! हे श्रेष्ठव्रतवाले ! हे जगत्कर्त्ता ! सिद्धि दीजिये । स्थान दीजिये । आपको प्रणाम है ॥ ४५ ॥

अनेन प्राणवाद्येन मनुना प्रणमेत्ततः ।

तनः स्थानन्तु संपूज्य लिखेत्तत्र वरानने ॥ ४६ ॥

वाग्भवं प्रेतबीजञ्च पुनर्वाग्भवमेव च ।

तदन्ते मूलमन्त्रञ्च विलिखेत्साधकोत्तमः ॥ ४७ ॥

'प्रणवादि " इस मंत्र से प्रणाम करे । हे वरानने । फिर उस स्थान की पूजा करके वाग्भव बीज, प्रेतबीज, पुनर्वार वाग्भव बीज और इसके पीछे साधकोत्तम मूलमंत्र लिखे ॥ ४६- ४७ ॥

पूजयित्वा च कालादीन्पूर्ववत्परमेश्वरि ।

संकल्प्याष्टोत्तरशतं जप्त्वाऽच्छिद्रं च धारयेत् ॥४८॥

हे परमेश्वरि ! फिर कालादि की पूजा पूर्ववत् समापन करके संकल्पूर्वक अष्टोत्तरशत जप करने के पीछे अच्छिद्रावधारण करे ॥ ४८ ॥

स्थानं परित्यज्य गुरुं संस्मरन् तद्गृहं व्रजेत् ॥

इत्येवं कथितं तुभ्यं सारात्सारं परात्परम् ॥ ४९ ॥

गोपनीयं सदा भद्रे विशेषात्पशुसंकुले ॥ ५० ॥

इसके उपरान्त उस स्थान को छोड़कर गुरु का चिंतन करते करते ही अपने घर चला जाय । यह मैंने तुम्हारे प्रति सार से भी सार पर से भी पर बिल्वसाधन कहा । हे भद्रे ! यह सदा ही और विशेषकर पशुसंकुल स्थान में गुप्त रखने योग्य है ॥ ४९- ५० ॥

इदानीं शृणु देवेशि मुण्डसाधनमुत्तमम् ।

यत्कृत्वा साधको याति महादेव्याः परं पदम् ॥ ६१ ॥

हे देवेशि ! अब उतम मुण्डसाधन सुनो। साधक यह मुण्डसाधन करके महादेवी के परमपद को प्राप्त होता है ॥ ५१ ॥

नरमाहिषमार्जारमुण्डकानि वरानने ।

अथवा परमेशानि नृमुण्डत्रयमादरात् ॥ ५२ ॥

हे वरानने ! नरमुण्ड, महिषमुण्ड और मार्जार ( बिलाव का ) मुण्ड अथवा तीन नरमुण्ड यत्नसहित लावे ॥ ५२ ॥

शिवासर्पसारमेयवृषभानां महेश्वरि ।

नरमुण्डं तथा मध्ये पञ्चमुण्डी समीरिता ॥ ५३ ॥

शिवा ( गीदड ) मुण्ड, सर्पमुण्ड, कुक्कर (कुत्ता) मुण्ड, वृषभमुण्ड और नरमुण्ड, हे महेश्वरि ! यही पांच मुण्ड हैं ॥ ५३ ॥

अथवा परमेशानि नराणां पञ्च मुण्डकान् ।

तथा शतं सहस्रं वायुतं लक्षं तथैव च ॥ ५४ ॥

नियुतञ्चाथ वा कोटिं नृमुण्डान् परमेश्वरि ।

नरमुण्डं स्थापयित्वा प्रोथयित्वा धरातले ॥ ५५ ॥

अथवा हे परमेशानि ! पांच नरमुण्ड ही पांच मुण्ड रूप में ग्रहण किये जाते हैं. तथा शत, सहस्र, अयुत, लक्ष, नियुत वा करोड नरमुण्ड गृहीत होते हैं। हे परमेश्वरि ! नरमुण्ड पृथ्वी में गाढकर ।। ५४- ५५ ।।

वितस्तिप्रमितां वेदिं तस्योपरि तु कल्पयेत् ।

आयामप्रस्थतो देवि चतुर्हस्तौ समाचरेत् ॥ ५६ ॥

स्थापनपूर्वक उनके ऊपर ऊर्ध्व में वितस्तिपारिमित वेदी बनावे, लम्बाई और चौडाई में वह चार हाथ की बराबर होनी चाहिये ॥ ५६ ॥

सहस्राक्षपर्यन्तं हस्तषोडशसम्मिताम् ।

ततः परं महादेवि शतहस्तमिताञ्चरेत् ॥ ५७ ॥

तस्यान्तुभूतनाथादींश्चतुर्दिक्षु समर्चयेत् ॥ ५८ ॥

सहस्र से लक्ष मुण्ड पर्यन्त सोलह हाथ वेदी और नियत से करोड संख्यक मुण्ड में २ सौ हाथ की बराबर वेदी बनानी चाहिये। उस वेदी में चारों ओर भूतनाथादि की पूजा करे ॥ ५७- ५८ ॥

पूर्वोक्तभूतनाथाय नमोमन्त्रेण देशिकः ।

पाद्यादिभिः पूजयित्वा बलिं दद्यात्प्रयत्नतः ॥ ५९ ॥

साधक व्यक्ति पूर्वोक्त भूतनाथजी नमो मन्त्र द्वारा पाद्यादि पूजा करके यत्नपूर्वक उसको बलि देवे ॥ ५९ ॥

एवन्तु दक्षिणे देवि श्मशानाधिपमादरात् ।

तद्वच्च पश्चिमे भागे कालभैरवमुत्तमम् ॥ ६० ॥

इस प्रकार दक्षिणदिशा में श्मशानाधिपति और पश्चिम दिशा में उत्तम कालभैरव की ॥ ६० ॥

श्मशानादुत्तरे तद्वत्पूजयित्वा बलिं हरेत् ।

वेदिमध्ये प्रेतबीजं फट्कारस्तदनन्तरम् ॥ ६१ ॥

पाद्यादिभिरनेनैव कुण्डानि परिपूजयेत् ॥ ६२ ॥

और उत्तर में उसी प्रकार श्मशान की पूजा करके आदरपूर्वक बलिदान करे वेदी में प्रेतबीज और फट्कार मंत्र से वाद्यादि कुण्ड की पूजा करनी चाहिये ॥ ६१- ६२ ॥

नैर्ऋत्यां ह्रीं चण्डिकायै बीजं च विलिखेत्ततः ।

तत्रैव पूजयेद्भक्त्या भारतीं शुभ्रविग्रहाम् ॥ ६३ ॥

साधकोत्तम नैर्ऋत्य कोण में ह्रीं चण्डिकायै' और बीजमंत्र लिखकर उसी स्थान में शुभ्र विग्रहा अर्थात् श्वेत शरीरवाली भारती की भक्तिपूर्वक पूजा करे ॥ ६३ ॥

वाग्देवतामंगयुतां नमोऽन्तवाग्भवादिना ।

अनेन मनुनाभ्यर्च्य बलिं तस्यै निवेदयेत् ॥ ६४ ॥

अंगयुक्त वाग्देवता की नमोऽन्त वाग्भवादि मंत्र से अर्चना करके उसको बलि निवेदन करनी चाहिये ॥ ६४ ॥

हे वीर सर्वदेवेश मुण्डरूप जगत्पते ।

दयां कुरु महाभाग सिद्धिदो भव मज्जपे ।। ६५ ।।

हे वीर ! हे सब देवताओं के ईश्वर ! हे मुण्डरूप ! हे जगत्पते ! हे महाभाग्यवाले ! मेरे जप में सिद्धि दो ॥ ६५ ॥

शवं कुर्याद्वह्निसंस्थं पाशामेन्दुकलान्वितम् ॥ ६६ ॥

इस मंत्र से वेदिका के ऊपरी भाग में तीन पुष्पाञ्जलि देवे । फिर शव को वह्निसंस्थ अर्थात् अग्नि में स्थापन और पाश को इन्दुकलायुक्त करके ॥६६॥

मायाबीजं कूर्श्वबीजं फट्कारस्तदनन्तरम् ।

पाद्यादिभिरनेनैव कुण्डानि परिपूजयेत् ॥ ६७ ॥

मायाबीज और कूचबीच फट्कार मन्त्र द्वारा पाद्यादि से कुण्ड की पूजा करे ॥ ६७ ॥

नैर्ऋत्यां ह्रींचण्डिकायैनमोमन्त्रेण देशिकः ।

वायव्यां भद्रकाल्यै नमोमन्त्रेण तत्परम् ॥ ६८ ॥

ईशाने च ह्रींदयायैनमोमन्त्रेण शाम्भवि ।

अग्नौ ह्रींचण्डोप्रायेनमोमन्त्रेण साधकः ॥ ६९ ॥

पूजयित्वा बलिं दत्त्वा तदुत्थाय च संमुखे ।

श्मशानवासिनो ये ये देवा देव्यश्च भैरवाः ॥ ७० ॥

दयां कुर्वन्तु ते सर्वे सिद्धिदास्ते भवन्तु मे ।

अनेन प्रणवाद्येनत्रिर्वै पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ॥ ७१ ॥

साधक "ह्रीं चण्डिकायै नमःइस मंत्र से नैर्ऋतकोण में, फिर 'ह्रीं भद्रकाल्यै नमः' इस मन्त्र से वायुकोण में 'ह्रीं दयायै नमः' इस मन्त्र से ईशान कोण में 'ह्रीं चण्डोप्रायै नमः' इस मन्त्र से अभिकोण में पूजा करके बलि- प्रदानपूर्वक उठकर खड़ा हो सन्मुख " श्मशानवासिनो ये ये देवा देव्यश्च भैरवाः । दयां कुर्वन्तु ते सर्वे सिद्धिदास्ते भवन्तु मे" प्रणवाद्य इस मन्त्र तीन पुष्पाञ्जलि निक्षेप करे ॥ ६८- ७१ ॥

वदे स्थानन्तु संपृश्य वशी भव वशी भव ।

विष्टरासनमास्तीर्य उपविश्य महेश्वरि ॥ ७२ ॥

अष्टाधिकायुतजपं कृत्वाऽच्छिदं च धारयेत् ।

नत्वा स्थानं परिष्कृत्य देवीं ध्यायन्गृहं व्रजेत् ॥७३॥

इसके पीछे स्थानस्पर्शपूर्वक वशीभव' यह वचन कहे। महेश्वरि ! फिर कुशासन बिछाकर उसके ऊपर बैठ और अष्टाधिक अयुत, (१०००८) जप करके अच्छिद्रावधारण करे इसके उपरान्त स्थानपरिष्कारपूर्वक देवी को प्रणाम और ध्यान करके घर चला जाय ॥ ७२- ७३ ॥

पुरश्चर्याविधेर्देवि शेषं संशृणु शाम्भदि ।

कीलकं नैव कुर्यात्तु त्रिमुण्डोपरि कर्हिचित् ॥ ७४ ॥

शाम्भवि देवि ! पुरश्चरण की विधि के अनुसार अवशिष्ट सुनो। उसमें त्रिमुण्डोपरि कभी कीलक न करे ॥ ७४ ॥

शून्यागारे नदीतीरे पर्वते वा चतुष्पथे ।

विल्यमुले श्मशाने वा निर्जने चैकलिङ्गके ॥ ७५ ॥

एतेषु प्रोथयेन्मुण्डा सर्वकामार्थसिद्धये ।

एवं वा प्रोथयित्वा च नारं मुण्डं विधानतः ॥ ७६ ॥

हे देवि ! संपूर्ण कामनाओं की सिद्धि के निमित्त शून्यागार में, नदी के तट पर, पर्वत चौराहे वा बिल्वमूल अथवा श्मशान में निर्जन में वा एक लिंग में इन सब स्थानों में मुण्डों को गाढ दे । इस प्रकार नरमुण्ड गाडकर इसी विधान से ॥७५- ७६ ॥

अनेन सर्वसिद्धिः स्याद्बहुभिः किमु सुव्रते ।

इत्येवं कथितं देवि मुण्डानां साधनं शिव ।

यत्कृत्वा सर्वसिद्धानामधिपो भुवि जायते ॥ ७७ ॥

पूजा करने पर सर्वसिद्धि होती है। हे सुत्रते ! हे शिवे । यह मैंने तुमसे मुण्डसाधन कहा। इसको साधन करके पृथ्वी में सर्व सिद्धीश्वर हो सकता है ॥ ७७ ॥

इति श्री योगिनीतन्त्रे सर्वतन्त्रोचमोत्तमे देवीश्वरसम्वादे चतुर्विंशतिसाहले भापाटीकायां पञ्चमः पटलः ॥ ५ ॥

आगे जारी........ योगिनीतन्त्र पटल 6

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