शारदातिलक पटल २
शारदातिलक पटल २ बैखरी सृष्टि पटल
है । मातृकाओं से मन्त्र की उत्पत्ति, मन्त्रों
का शोधन, पुरश्चरण प्रयोगकर्ता के लिए नियम आदि कहे गए हैं।
यहाँ गुरु एवं शिष्य का लक्षण प्रतिपादित है ।
शारदातिलक पटल २
Sharada tilak patal 2
शारदातिलकम् द्वितीयः पटल:
शारदातिलकतन्त्रम् (प्रथमो भागः )
शारदा तिलक तन्त्र दूसरा पटल
शारदातिलकम्
द्वितीयः पटल
अथ द्वितीयः पटल:-
अथ वैखरीसृष्टि प्रकरणम्
ततो व्यक्तिं प्रवक्ष्यामि वर्णानां
वदने नृणाम् ।
प्रेरिता मरुता नित्यं
सुषुम्णारन्ध्रनिर्गताः ॥ १ ॥
तत्र वर्णाभिव्यक्ति:
वर्णविभागश्च
कण्ठादिकरणैर्वर्णाः
क्रमादाविर्भवन्ति ते ।
एषु स्वराः स्मृताः सौम्याः
स्पर्शाः सौराः शुभोदयाः ॥ २ ॥
स्वरसंख्या स्पर्शसंख्या
आग्नेया व्यापकाः सर्वे
सोमसूर्याग्निदेवताः ।
स्वराः षोडश विख्याताः स्पर्शास्ते
पञ्चविंशतिः ॥ ३ ॥
इस प्रकार मध्यमान्त अर्थ सृष्टि
एवं शब्द सृष्टि का कथन करके अब 'बैखरी सृष्टि'
का विवेचन करते हैं-
अब मनुष्य के मुख में जिस प्रकार
वर्णों की उत्पत्ति होती है उसे कहता हूँ — प्रथमतः
वे वर्ण मारुत की प्रेरणा से 'पश्यन्ती' स्थान को प्राप्त होते हैं। पुनः सुषुम्णा स्थान से निकल कर कण्ठ, ताल्वादि करणों के द्वारा क्रमशः एक-एक कर आविर्भूत होते हैं । इनमें
अकारादि विसर्गान्त वर्ण 'स्वर वर्ण' कहे
जाते हैं जो सोम देवताक हैं । क से लेकर म पर्यन्त वर्ण 'स्पर्श'
कहे जाते हैं और सूर्य देवताक होने से सौर कहे जाते हैं। यकारादि
क्षकारान्त वर्ण अग्निदेवताक हैं और व्यापक हैं (इस प्रकार सभी वर्ण सोम, सूर्य एवं अग्नि देवताक हैं। इनमें अकारादि विसर्गान्त १६ 'वर्ण' स्वर वर्ण कहे जाते हैं । ककारादि मकारान्त २५
वर्ण स्पर्श कहे जाते हैं) ॥ १-३ ॥
मकारस्य पुंस्त्वम्
तत्त्वात्मानः स्मृताः स्पर्शा
मकारः पुरुषो यतः ।
व्यापका दश ते कामधनधर्मप्रदायिनः ॥
४ ॥
ऊपर कहे गये २५ स्पर्श वर्णों में
२४ वर्ण तत्त्व शब्द से व्यवहृत किये जाते हैं। 'मकार' वर्ण पुरुष (परमात्मा या विश्वरूप) कहा जाता ।
यकारादि से क्षकारान्त दश वर्ण व्यापक कहे जाते हैं। इस प्रकार ये सभी वर्ण क्रमशः
काम, धन और धर्म प्रदान करने वाले है ॥ ४ ॥
व्यापकसंख्या
स्वराणां
ह्रस्वदीर्घादिभेदः
ह्रस्वः स्वरेषु पूर्वोक्तः परो
दीर्घः क्रमादिमे ।
शिवशक्तिमयास्तेस्युर्बिन्दुसर्गावसानिकाः
॥ ५ ॥
पूर्व के पाँच स्वर अ इ उ ऋ लृ ए ओ
ह्रस्व संज्ञक हैं (यद्यपि एकार ओंकार दीर्घसंज्ञक है तथापि ह्रस्व की परिभाषा में
इनको ग्रहण किया जाता है, ये सभी पुरुष रूप
हैं इसी प्रकार आ ई ऊ ऋ लृ ऐ औ इनकी दीर्घ संज्ञा कही गई है और स्त्री रूप होने से
शक्त्यात्मक हैं । अब बिन्दु और विसर्ग का विवरण बताते हैं - ह्रस्व यदि अन्त में
बिन्दु युक्त हों तो ह्रस्व कहे जाते हैं और विसर्ग युक्त हों तो दीर्घ कहे जाते
हैं । इसमें बिन्दु शिव स्वरूप है और विसर्ग शक्ति स्वरूप है । इस प्रकार ह्रस्व
में बिन्दु का स्थान आठवाँ हुआ और दीर्घ में विसर्ग का स्थान आठवाँ हुआ ॥ ५ ॥
'बिन्दुः
पुमान् रविः'
बिन्दुः पुमान् रविः प्रोक्तः सर्गः
शक्तिर्निशाकरः ।
स्वराणां मध्यमं यच्च तच्चतुष्कं
नपुंसकम् ॥ ६ ॥
बिन्दु पुरुष एवं सूर्यस्वरूप है,
विसर्ग शक्तिस्वरूप और चन्द्रस्वरूप है, स्वरों
में जो ४ मध्य (ऋ ॠ ऌ ॡ) के स्वर हैं वे नपुंसक कहे जाते हैं ॥ ६ ॥
स्वराणां स्थितिस्थानानि
पिङ्गलायां स्थिता ह्रस्वा इडायां
सङ्गता परे ।
सुषुम्णामध्यगा ज्ञेयाश्चत्वारो ये
नपुंसकाः ॥ ७ ॥
ह्रस्व वर्ण पिङ्गला नाड़ी में रहते
है। दीर्घवर्ण इडा नाडी में स्थित है मध्य के ४ वर्ण (ऋ ॠ ऌ ॡ) जिन्हें नपुंसक कहा
जाता है,
वे सुषुम्णा में स्थित रहते हैं ॥ ७ ॥
वर्णानां शिवशक्तिमयत्वम्
विना स्वरैस्तु नान्येषां जायते
व्यक्तिरञ्जसा ।
शिवशक्तिमयान् प्राहुस्तस्माद्
वर्णान् मनीषिणः ॥ ८ ॥
यतः स्वर के बिना ( = अञ्जसा वर्णों
की उत्पत्ति नहीं हो सकती, इसलिये वे व्यञ्जन
कहे जाते हैं। पूर्व में स्वरों को शिव शक्त्यात्मक कह आये हैं उनसे मिलने के कारण
शिव शक्तिमय हैं- ऐसा विद्वानों ने कहा है ॥ ८ ॥
वर्णानां भूतात्मकत्वम्
कारणात् पञ्चभूतानामुद्भूता मातृका
यतः ।
ततो भूतात्मका वर्णाः पञ्च पञ्च
विभागतः ॥ ९॥
पञ्चभूतों के कारणभूत शिव शक्तिमय
बिन्दु के द्वारा यतः मातृकाओं (अकारादि क्षकारान्त वर्णों) की उत्पत्ति हुई है,
इसलिये वर्ण भी पाँच पाँच के विभाग से भूतात्मक (पञ्चमहाभूत) माने
गये हैं ॥ ९ ॥
वाय्वग्निभूजलाकाशाः पञ्चाशल्लिपयः
क्रमात् ।
पञ्च ह्रस्वाः पञ्च दीर्घा
बिन्द्वन्ताः सन्धिसम्भवाः ॥ १० ॥
पञ्चाशत् लिपियाँ क्रमशः वायु,
अग्नि, भू जल और आकाश स्वरूप हैं (यहाँ
उत्पत्ति क्रम से आकाश, वायु, अग्नि,
जल और पृथ्वी कहना चाहिए । किन्तु व्युत्क्रम रूप से कहा गया है)
पाँच ह्रस्व, पाँच दीर्घ एवं बिन्द्वन्त सन्ध्यक्षर (ए ऐ ओ औ
अः) को क्रम से समझना चाहिए ॥ १० ॥
मातृकावर्णानां
सोमसूर्याग्निभेदः
पञ्चशः कादयः षक्षलसहान्ताः
समीरिताः ।
सोमसूर्याग्निभेदेन
मातृकावर्णसम्भवाः ॥ ११ ॥
इस प्रकार पञ्चश: (पाँच के क्रम से)
कादि क च ट त प, एक हस्व (अ) एक दीर्घ (आ) एक एक
सन्ध्यक्षर (ए) य और षा ये दश अक्षर वाय्वात्मक हैं। इसी प्रकार इ ईख छ ठ थ फ ऐ
रक्षा ये दश अक्षर आग्नेय हैं, ग उ ऊ ग ज ड द ब ओल ये वर्ण
जलात्मक है, इसी प्रकार अन्य वर्णों को भी पृथ्व्यात्मकादि
रूप में समझना चाहिए। सोमात्मक, सूर्यात्मक और अग्न्यात्मक
(१६+१२+ १०) भेद से मातृकावर्णों की उत्पत्ति होती है ॥ ११ ॥
अष्टत्रिंशत्कलानामादि
अष्टत्रिंशत् कलास्तत्तन्मण्डलेषु
व्यवस्थिताः ।
अमृता मानदा पूषा तुष्टिः पुष्टी
रतिर्धृतिः ॥ १२ ॥
शशिनी चन्द्रिका
कान्तिज्र्ज्योत्स्ना श्रीः प्रीतिरङ्गदा ।
पूर्णा पूर्णामृता कामदायिन्यः
स्वरजाः कलाः ॥ १३ ॥
प्रणव में रहने वाले तीन अक्षरों
(अकार उकार और मकार) से ३८ कलायें उत्पन्न हुई हैं। जो (सोम,
सूर्य और अग्नि) मण्डल में व्यवस्थित रूप से रहती हैं।
अब १६ स्वर में रहने वाली क्रमशः १६
कलाओं के नाम कहते हैं- १. अमृता, २. मानदा,
३. पूषा, ४. तुष्टिः, ५.
पुष्टी, ६. रति, ७. धृति, ८. शशिनी, ९ चन्द्रिका, १०
कान्ति, ११. ज्योत्स्ना, १२. श्रीँ,
१३. प्रीतिः, १४. अङ्गदा, १५. पूर्णा एवं १६. पूर्णामृता-ये १६ कलायें कामनाओं को पूर्ण करती हैं और
स्वर से उत्पन्न हुई हैं। स्वर सोमात्मक हैं यह पूर्व में कह आये हैं। इसलिए ये १६
कलायें सोमात्मक हुईं ॥ १२-१३ ॥
तपिनी तापिनी धूम्रा मरीचिज्वालिनी
रुचि: ।
सुषुम्णा भोगदा विश्वा बोधिनी
धारिणी क्षमा ॥ १४॥
कभाद्या वसुदाः सौर्यष्ठडान्ता
द्वादशेरिताः ।
धूम्रार्च्चिरुष्मा ज्वलिनी
ज्वालिनी विस्फुलिङ्गिनी ।
सुश्रीः सुरूपा कपिला हव्यकव्यवहे
अपि ॥ १५ ॥
यादीनां दशवर्णानां कला धर्मप्रदा
इमाः ।
अभयेष्टकरा ध्येयाः श्वेतपीतारुणाः
क्रमात् ॥ १६ ॥
इनकी प्रयोग विधि इस प्रकार है- १.
तपिनी,
२. तापिनी, ३. धूम्रा, ४.
मरीचि, ५. ज्वालिनी, ६. रुचि, ७. सुषुम्णा, ८. भोगदा, ९.
विश्वा, १०. बोधिनी, ११. धारिणी और १२.
क्षमा-ये द्वादश कलायें क्रमशः अनुलोम क्रम से ककार से लेकर ठ पर्यन्त १२ वर्णों
की हैं तथा विलोम क्रम से 'भ' से लेकर
ड पर्यन्त १२ वर्णों की कही गई हैं। ये सभी सूर्य मण्डल में रहती हैं और वसु(
अर्थात् धन धान्य आदि) देने वाली हैं ।
१. धूम्रा,
२. अर्चि, ३. ऊष्मा, ४
ज्वलिनी, ५. ज्वालिनी, ६.
विस्फुलिङ्गिनी, ७. सुश्री, ८. सुरूपा
और ९. कपिला तथा १०. हव्यकव्यवहा- ये अग्नि में रहने वाली दश कलायें है जो यकार से
लेकर क्षकारान्त दश वर्णों की कलायें कही जाती हैं ये सभी धर्मप्रदा हैं। सभी के
हाथों में अभय तथा वर की मुद्रा हैं और इन ३८ कलाओं के वर्ण क्रमशः श्वेत, पीत और अरुण है ।। १४-१६ ॥
विमर्श - इनके वर्ण इसलिए कहे गए
हैं क्योंकि उसी के अनुसार श्वेत पुष्प या पीत पुष्प की माला एवं आभूषण प्रयोग में
लाना चाहिए । इसमें सौम्यकला का वर्ण श्वेत, सौर
कला का वर्ण पीत और अग्नि कला का वर्ण अरुण समझना चाहिए ।। १४-१६ ॥
पञ्चाशत् प्रणवकलाः
तारस्य पञ्चभेदेभ्यः
पञ्चाशद्वर्णगाः कलाः ॥ १७ ॥
प्रणव के क्रमशः तीन और पाँच भेद
कहे गये हैं। इनमें प्रणव के तीन अक्षर अकार, उकार
और मकार से उत्पन्न होने वाली ३८ कलाओं का नाम पूर्व में ( द्र० २. १२-१६) कह आये
हैं। अब पाँच भेद (अकार, उकार, मकार,
बिन्दु एवं नाद से उत्पन्न हुई ५० कलाओं को कहते हैं) – प्रणव के पाँच भेदों से क्रमशः पच्चास वर्णों की कलायें उत्पन्न हुई हैं ॥
१७ ॥
पञ्चाशत् प्रणवकलाः, तासामुत्पत्तिर्नामानि च
सृष्टिबुद्धिः स्मृतिर्मेधा
कान्तिर्लक्ष्मीर्धृतिः स्थिरा ।
स्थितिः सिद्धिरिति प्रोक्ताः
कचवर्गकलाः क्रमात् ॥ १८ ॥
अकाराद् ब्रह्मणोत्पन्नास्तप्तचामीकरप्रभाः
।
एताः
करधृताक्षत्रक्पङ्कजद्वयकुण्डिकाः ॥ १९ ॥
प्रणव की पचास कलाएँ- १. सृष्टि,
२. बुद्धि, ३. स्मृति, ४.
मेधा, ५. कान्ति, ६. लक्ष्मी, ७. धृति, ८. स्थिरा, ९ स्थिति
और १०. सिद्धि-ये दश क्रमशः क वर्ग और चवर्ग की कलायें हैं। ये सभी अकार रूप
परब्रह्म से उत्पन्न हैं। इन सबका वर्ण तपाये हुये सोने के समान जगमगाहट् से युक्त
हैं । इन सभी ने अपने अपने हाथों में रुद्राक्ष, पुष्पमाला,
दो कमल और कुण्डिका धारण किया है ।। १८-१९ ।
जरा च पालिनी शान्तिरीश्वरी रतिकामु
(मि) के ।
वरदाऽऽह्लादिनी प्रीतिर्दीर्घा
स्युष्टतवर्गजाः ॥ २० ॥
उकाराद्
विष्णुनोत्पन्नास्तमालदलसन्निभाः ।
अभीतिदरचक्रेष्टबाहवः
परिकीर्त्तिताः ॥ २१ ॥
अजरा, पालिनी, शान्ति, ईश्वरी,
रति, कामुकी, वरदा,
आह्लादिनी, प्रीति और दीर्घा – ये १० क्रमशः ट वर्ग और तवर्ग की कलायें है। ये सभी उकार रूप विष्णु से
उत्पन्न हुई हैं। इनका वर्ण तमाल के पत्ते के समान श्याम वर्ण वाला हैं । इनके
हाथों में अभय शङ्ख, चक्र तथा वरद मुद्रा है - ऐसा कहा जाता
है । २०-२१ ॥
तीक्ष्णा रौद्री भया निद्रा तन्द्री
क्षुत् क्रोधिनी क्रिया ।
उत्कारी मृत्युरेताः युः कथिताः
पयवर्गजाः ॥ २२ ॥
रुद्रेण मार्णादुत्पन्नाः
शरच्चन्द्रनिभप्रभाः ।
उद्वहन्त्योऽभयं शूलं कपालं
बाहुभिर्वरम् ॥ २३ ॥
१. तीक्ष्णा,
२. रौद्री ३. भया, ४. निद्रा, ५. तन्द्री, ६. क्षुधा, ७.
क्रोधिनी, ८. क्रिया, ९. उत्कारी और
१०. मृत्यु-ये पवर्ग तथा य वर्ग की क्रमशः कलायें है। ये रुद्र के द्वारा मकार
वर्ण से उत्पन्न हैं और शरत्कालीन चन्द्र वर्ण के समान इनका गौर वर्ण हैं और अपने
हाथ में अभय, शूल, कपाल और वर मुद्रा
धारण की हुई हैं ॥ २२-२३ ॥
ईश्वरेणोदिता बिन्दोः पीता
श्वेताऽरुणाऽसिता ।
अनन्ता च षवर्गस्था
जवाकुसुमसन्निभाः ॥ २४॥
१. श्वेत,
२. अरुण, ३. असित और ४. अनन्त ये चार
मुद्रायें ईश्वर के द्वारा बिन्दु में प्रकट की गई है तथा ष स ह क्ष वर्णों की
कलायें हैं और जपा (ओड़हुल) पुष्प के समान लाल वर्ण वाली हैं ॥ २४ ॥
अभयं हरिणं टङ्कं दधाना
बाहुभिर्वरम् ।
निवृत्तिः सप्रतिष्ठा स्याद्विद्या
शान्तिरनन्तरम् ॥ २५ ॥
इन्धिका दीपिका चैव रेचिका मोचिका
परा ।
सूक्ष्मा सूक्ष्मामृता ज्ञानामृता
चाप्यायिनी तथा ॥ २६ ॥
व्यापिनी व्योमरूपा स्युरनन्ता
स्वरसंयुताः ।
सदाशिवेन सञ्जाता नादादेताः
सितत्विषः ॥ २७ ॥
अक्षत्रकपुस्तकगुणकपालाढ्यकराम्बुजाः
।
न्यासे तु योजयेदादौ षोडश स्वरजाः
कलाः ।
इति पञ्चाशदाख्याताः कलाः
सर्वसमृद्धिदाः ॥ २८ ॥
इन्होंने अपने अपने बाहुओं में अभय,
हरिण, परशु और वर मुद्रा धारण किया है । १.
निवृत्ति, २ प्रतिष्ठा, ३. विद्या,
४. शान्ति, ५ इन्धिका ६. दीपिका, ७. रेचिका, ८. मोचिका, ९. परा,
१०. सूक्ष्मा, ११. सूक्ष्मामृता, १२. ज्ञानामृता, १३. आप्यायनी, १४. व्यापिनी, १५. व्योमरूपा और १६. अनन्ता - ये १६
स्वरों की क्रमशः कलाये हैं। (इन्हें षोडशी भी कहते हैं) ये सभी सदाशिव के द्वारा
नाद में उत्पन्न हुई कलायें हैं, इन सबका वर्ण शुभ्र हैं।
इनके कमलवत् हाथों में जपमाला, पुस्तक, गुण (त्रिशूल) और कपाल है। न्यास में सर्वत्र षोडश स्वरों में रहने वाली
इन्हीं कलाओं की प्रथम योजना करनी चाहिए। यहाँ तक हमने पचासों कलाओं का नाम
निर्देश किया। ये सभी कलायें सब प्रकार की समृद्धियों की दात्री हैं ।। २५-२९ ॥
पञ्चाशद्द्रतच्छक्तिनामानि
श्री कण्ठानन्तसूक्ष्माश्च
त्रिमूर्त्तिरमरेश्वरः ॥ २९ ॥
अर्घीशो भारभूतीशस्तिथीशः स्थाणुको
हरः ।
झिण्टीशो भौतिकः
सद्योजातश्चानुग्रहेश्वरः ॥ ३० ॥
अक्रूरश्च महासेनः षोडशस्वरमूर्तयः
।
पहले कह आये हैं कि कलायें रुद्र से
उत्पन्न हुई हैं अब उन रुद्रों के ५० नाम कहते हैं । सर्वप्रथम स्वर उत्पन्न करने
वाले रुद्रों का नाम कहते हैं- १. श्री कण्ठ, २.
अनन्त, ३. सूक्ष्म, ४. त्रिमूर्ति,
५. अमरेश्वर, ६. अर्धीश, ७. भारभूतीश, ८. अतिथीश, ९.
स्थाणु, १०. हर, ११. झिण्टीश, १२. भौतिक, १३. सद्योजात, १४.
अनुग्रहेश्वर, १५. अक्रूर और १६. महासेन – ये १६ रुद्र,
१६ स्वरों की मूर्तियाँ हैं ।। २९-३१ ॥
पश्चात्
क्रोधीशचण्डेशपञ्चान्तकशिवोत्तमाः ॥ ३१ ॥
अथैकरुद्रकूर्मैकनेत्रावचतुराननाः ।
अजेशशर्व सोमेशास्तथा लाङ्गलिदारुकौ
॥ ३२ ॥
अर्द्धनारीश्वर श्वोमाकान्तश्चाषाढि
दण्डिनौ ।
स्युरद्रिमीनमेषाख्यलोहिताश्च शिखी
तथा ॥ ३३ ॥
छगलण्डद्विरण्डेशौ महाकालाख्यवालिनौ
।
भुजङ्गेशपिनाकीशखङ्गीशाख्यवकास्तथा
॥ ३४ ॥
श्वेतभृग्वीशलकुलीशिवाः
सम्वर्त्तकस्ततः ।
एते रुद्राः स्मृता रक्ता
धृतशूलकपालकाः ॥ ३५ ॥
अब इसके बाद व्यञ्जन मूर्तियों को
कहते हैं। क्रोधीश, चण्डेश, पञ्चान्तक, शिवोत्तम, एकरुद्र,
कूर्म, एकनेत्र, चतुरानन,
अजेश, शर्व (१०), सोमेश,
लाङ्गली, दारुक, अर्धनारीश्वर,
उमाकान्त, आषाढी, दण्डी,
अद्रि, मीन, मेष (२०),
लोहित, शिखी, छगलण्डेश,
द्विरण्डेश, महाकाल, वालीश,
भुजङ्गेश, पिनाकीश, खड्गीश,
वकेश (३०), श्वेतभृग्वीश, लकुलीश, शिव और संवर्त्तक—ये
३४ रुद्र ३४ व्यञ्जनों की मूर्त्तियाँ हैं । इन सभी का वर्ण लाल है और सभी ने अपने
हाथों में कपाल तथा शूल धारण किया है ।। ३१-३५ ॥
पूर्णोदरी स्याद् विरजा शाल्मली
तदनन्तरम् ।
लोलाक्षी वर्चुलाक्षी च दीर्घघोणा
समीरिताः ॥ ३६ ॥
सुदीर्घमुखिगोमुख्यौ दीर्घजिहवा
तथैव च ।
कुण्डोदर्यूर्द्धकेशी च तथा
विकृतमुख्यपि ॥ ३७ ॥
ज्वालामुखी ततो ज्ञेया
पश्चादुल्कामुखी ततः ।
सुश्रीमुखी च विद्यामुख्येताः स्युः
स्वरशक्तयः ॥ ३८ ॥
अब इन रुद्रों की शक्तियों का वर्णन
करते हैं,
क्योंकि सभी वर्ण शिवशक्त्यात्मक हैं और शिव के द्वारा शक्ति में
उत्पन्न किय गये हैं पूणोंदरी, विरजा, शाल्मली,
लोलाक्षी, वर्तुलाक्षी, दीर्घघोणा,
सुदीर्घमुखी, गोमुखी, दीर्घ-
जिह्वा, कुण्डोदरी, ऊर्ध्वकेशी,
विकृतमुखी, ज्वालामुखी, उल्कामुखी,
सुश्रीमुखी और विद्यामुखी-ये १६ स्वरों की १६ शक्तियाँ है ।। ३६-३८
।।
महाकालीसरस्वत्यौ
सर्वसिद्धिसमन्विता ।
गौरी त्रैलोक्यविद्या
स्यान्मन्त्रशक्तिस्ततः परम् ॥ ३९ ॥
आत्मशक्तिर्भूतमाता तथा लम्बोदरी
मता ।
द्राविणी नागरी भूयः खेचरी चापि
मञ्जरी ॥ ४० ॥
रूपिणी वीरिणी पश्चात् काकोदर्यपि
पूतना ।
स्याद्भद्रकालियोगिन्यौ शङ्खिनी
गर्जिनी तथा ॥ ४१ ॥
कालरात्रिश्च कुब्जिन्या
कपर्दिन्यपि वज्रिणी ।
जया च सुमुखेश्वर्या रेवती माधवी
तथा ॥ ४२ ॥
वारुणी वायवी प्रोक्ता पश्चाद्रक्षोविदारिणी
।
ततश्च सहजा लक्ष्मीर्व्यापिनी
माययाऽन्विता ॥ ४३ ॥
एता रुद्राङ्कपीठस्थाः
सिन्दूरारुणविग्रहाः ।
रक्तोत्पलकपालाभ्यामलंकृतकराम्बुजाः
॥ ४४ ॥
१. महाकाली,
२. महासरस्वती, ३. सर्वसिद्धिसमन्विता गौरी ४.
त्रैलोक्य-विद्या, ५. मन्त्रशक्ति, ६.
आत्मशक्ति, ७. भूतमाता, ८. लम्बोदरी,
९. द्राविणी, १०. नागरी ११. खेचरी, १२. मञ्जरी, १३. रूपिणी, १४.
वीरिणी, १५. काकोदरी, १६. पूतना,
१७. भद्रकाली, १८. योगिनी, १९. शङ्खिनी, २०. गर्जिनी, २१.
कालरात्रि, २२. कुब्जिनी, २३. कपर्दिनी,
२४. वज्रिणी, २५. जया, २६.
सुमुखा, २७. ऐश्वर्या, २८. रेवती,
२९ माधवी, ३० वारुणी, ३१.
वायवी, ३२. रक्षोविदारिणी, ३३. सहजा
लक्ष्मी और ३४, मायाव्यापिनी- ये सभी शक्तियाँ रुद्र के अंक
रूप पीठ में स्थित हैं। सिन्दूर के समान रक्त वर्ण का इनका विग्रह है । इनके कमल
सदृश हाथों में रक्त वर्ण का कमल एवं कपाल विराजित है ।। ३९-४४ ॥
पञ्चाशत् केशवतच्छक्ति
नामानि
केशवनारायण माधव गोविन्द विष्णवः ।
मधुसूदनसंज्ञोऽन्यः स्यात्
त्रिविक्रमवामनौ ॥ ४५ ॥
श्रीधरश्च हृषीकेशः पद्मनाभस्ततः
परम् ।
दामोदरो वासुदेवः सङ्कर्षण इतीरिताः
॥ ४६ ॥
प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च स्वराणां
मूर्त्तयः क्रमात् ।
पश्चाच्चक्री गदी शार्ङ्गं खड़ी
शङ्खी हली पुनः ॥ ४७ ॥
मुषली शूलिसंज्ञोऽन्यः पाशी
स्यादङ्कुशी पुनः ।
मुकुन्दो नन्दजो नन्दी नरो
नरकजिद्धरिः ॥ ४८ ॥
कृष्णः सत्यः सात्वतः स्यात् शौरी
शूरो जनार्दनः ।
भूधरो विश्वमूर्त्तिश्च वैकुण्ठः
पुरुषोत्तमः ॥ ४९ ॥
बली बलानुजो बालो वृषघ्नश्च वृषः
पुनः ।
सिंहो वराहो विमलो नृसिंहो
मूर्त्तयो हलाम् ॥ ५० ॥
अब इन वर्णों की केशवादि
मूर्त्तियाँ और उनकी शक्ति मूर्त्तियों का वर्णन करते हैं- १. केशव,
२. नारायण, ३. माधव, ४.
गोविन्द, ५. विष्णु, ६. मधुसूदन,
७. त्रिविक्रम, ८. वामन, ९. श्रीधर, १०. हृषीकेश, ११.
पद्मनाभ, १२. दामोदर, १३. वासुदेव,
१४. संकर्षण, १५. प्रद्युम्न और १६. अनिरुद्ध-
ये १६ विष्णु १६ स्वरों की क्रमशः मूर्त्तियाँ हैं। अब इसके बाद व्यञ्जनों की
मूर्तियाँ कहते हैं-चक्री गदी, शार्ङ्गं खड्गी, शङ्खी, हली, मुषली, शूली, पाशी, अंकुशी (१०),
मुकुन्द, नन्दज, नन्द,
नर, नरकजित् हरि, कृष्ण,
सत्य, सात्वत, शौरी (२०),
शूर, जनार्दन, भूधर,
विश्वमूर्ति, वैकुण्ठ, पुरुषोत्तम,
वली, वलानुज, वाल वृषघ्न
(३०), वृष सिंह, वराह और विमल नृसिंह
ये ३४ व्यञ्जनों की मूर्तियाँ हैं । ४५-५० ॥
केशवाद्या इमे
श्यामाश्चक्रशङ्खलसत्कराः ।
कीर्त्तिः कान्तिस्तुष्टिपुष्टी
धृतिः शान्तिः क्रिया दया ॥ ५१ ॥
मेधा सहर्षा श्रद्धा च लज्जा
लक्ष्मीः सरस्वती ।
प्रीती रतिरिमाः प्रोक्ताः क्रमेण
स्वरशक्तयः ॥ ५२ ॥
ये सभी केशवादि मूर्तियाँ श्याम
वर्ण की हैं और इनके हाथ में चक्र और शङ्ख शोभित हो रहा है । अब इनकी शक्तियों का
वर्णन करते हैं - १. कीर्ति, २. तुष्टि,
३. पुष्टि, ४. घृति, ५
शान्ति, ६ क्रिया, ७ दया, ८. मेधा ९ सहर्षा, १०. श्रद्धा, ११. लज्जा, १२. लक्ष्मी, १३.
सरस्वती, १४. प्रीति, १५ रति-ये १६
क्रमशः स्वर शक्तियाँ हैं ॥ ५१-५२ ॥
जया दुर्गा प्रभा सत्या चण्डा वाणी
विलासिनी ।
विजया विरजा विश्वा विनदा सुनदा
स्मृतिः ॥ ५३ ॥
ऋद्धिः समृद्धिः शुद्धिः स्याद्
भक्तिर्बुद्धिः स्मृतिः क्षमा ।
रमोमा क्लेदिनी क्लिन्ना वसुदा
वसुधाऽपरा ॥ ५४ ॥
परा परायणा सूक्ष्मा सन्ध्या प्रज्ञा
प्रभा निशा ।
अमोघा विद्युता चेति कीर्त्याद्याः
सर्वकामदाः ॥ ५५ ॥
जया, दुर्गा, प्रभा, सत्या, चण्डा, वाणी, विलासिनी,
विजया, विरजा, १०.
विश्वा, विनदा, सुनदा, स्मृति, ऋद्धि, समृद्धि,
शुद्धि, भक्ति, बुद्धि,
स्मृति, २०. क्षमा, रमा,
उमा, क्लेदिनी, क्लिन्ना,
वसुदा, अपरा, वसुधा,
परा, परायणा, ३०.
सूक्ष्मा, सन्ध्या, प्रज्ञा, प्रभा, निशा, अमोघा एवं
विद्युता—ये हल वर्णों की ३६ शक्तियाँ हैं और संपूर्ण
कामनाओं को देने वाली हैं ।। ५३-५५ ॥
एताः प्रियतमाङ्केषु निषण्णाः
सस्मिताननाः ।
विद्युद्दामसमानाङ्ग्यः पङ्कजाभयबाहवः
॥ ५६ ॥
ये सभी अपने अपने प्रियतमों की गोद
में स्थित रहती हैं, सभी मन्द स्मित हैं
और बिजली के समान चमकती रहती हैं। इनके हाथों में कमल और अभय मुद्रा शोभित हो रही
है ॥ ५६ ॥
मातृकातो मन्त्रोत्पत्तिः
मातृकावर्णभेदेभ्यः सर्वे मन्त्राः
प्रजज्ञिरे ।
मन्त्रविद्याविभागेन त्रिविधा
मन्त्रजातयः ॥ ५७ ॥
मन्त्राणां
स्त्रीपुंनपुंसकत्वम्
पुंस्त्रीनपुंसकात्मानो मन्त्राः
सर्वे समीरिताः ।
मन्त्राः पुंदेवता ज्ञेया विद्याः
स्त्रीदेवताः स्मृताः ॥ ५८ ॥
मातृकाओं के वर्णभेद से समस्त
मन्त्रों की उत्पत्ति हुई है। मन्त्र विद्या के विभाग के अनुसार तीन प्रकार की
मन्त्रों जातियाँ कही गई हैं। ये सभी मन्त्र पुल्लिङ्ग,
स्त्रीलिङ्ग और नपुंसक भेद से तीन प्रकार के होते हैं। जिन मन्त्रों
के देवता पुरुष हैं वे पुम्मन्त्र हैं और जिनकी विद्या देवता हैं वे स्त्री मन्त्र
हैं ।। ५७-५८ ।।
तल्लक्षणानि
मन्त्रा हुंफडन्ताः
स्युर्द्विठान्ताश्च स्त्रियो मताः ।
नपुंसका नमोऽन्ताः स्युरित्युक्ता
मनवस्त्रिधा ॥ ५९ ॥
मन्त्राणामग्नीषोमात्मकत्वम्
शस्तास्ते त्रिविधा मन्त्रा
वश्यशान्त्यभिचारके ।
अग्नीषोमात्मका मन्त्रा विज्ञेयाः
क्रूरसौम्ययोः ॥ ६० ॥
जिन मन्त्रों के अन्त में 'हुं फट्' यह शब्द है वे पुल्लिङ्ग कहे जाते हैं ।
जिनके अन्त में दो ठ अर्थात् स्वाहा है वे स्त्री लिङ्ग मन्त्र है और जिनके अन्त
में 'नमः' शब्द का प्रयोग है वे नपुंसक
मन्त्र हैं। इस प्रकार हमने मन्त्र के तीन भेदों का वर्णन किया। ये तीनों मन्त्र
क्रमशः वशीकरण शान्ति तथा अभिचार कर्म में प्रशस्त कहे गये है । अग्नीषोमात्मक
मन्त्र क्रूर तथा सौम्य कर्मों में प्रयोग किये जाते हैं । ५९-६० ॥
कर्मणोर्वहिनतारान्त्यवियत्प्रायाः
समीरिताः ।
आग्नेया मनवः सौम्या
भूयिष्टेन्वमृताक्षराः ॥ ६१ ॥
अब अग्नीषोमात्मक मन्त्र का विवरण
प्रस्तुत करते हैं- वहिन (र) तार (ॐ) अन्त्य (क्ष) वियत् (ह) बाहुल्य अक्षर वाले
मन्त्र आग्नेय कहे गये है । इन्द्र (सकार) अमृत (वकार) बाहुल्य अक्षर वाले मन्त्र
सौम्य कहे गये हैं ॥ ६१ ॥
तेषां प्रबोधकालः
आग्नेयाः संप्रबुध्यन्ते प्राणे
चरति दक्षिणे ।
भागेऽन्यस्मिन् स्थिते प्राणे
सौम्या बोधं प्रयान्ति च ॥ ६२ ॥
नाडीद्वयं गते प्राणे सर्वे बोधं
प्रयान्ति च ।
प्रयच्छन्ति फलं सर्वे प्रबुद्धा
मन्त्रिणां सदा ॥ ६३ ॥
जब दक्षिण नासिका से वायु का सञ्चरण
होता है तब आग्नेय मन्त्र प्रबुद्ध होते हैं। और जब बायें नासिका से वायु का
सञ्चरण होता है तो सौम्य मन्त्र प्रबुद्ध होते हैं। जब बायें एवं दाहिने दोनों ओर
से प्राण का सञ्चारण हो रहा हो तो सभी मन्त्र प्रबुद्ध रहते हैं। मन्त्र प्रबुद्ध
होने पर ही साधकों को फल प्रदान करने में समर्थ होते हैं ।। ६२-६३ ।।
तेषां छिन्नादिदोषाः
तल्लक्षणानि
छिन्नादिदुष्टा ये मन्त्रा पालयन्ति
न साधकम् ।
छिन्नो रुद्धः शक्तिहीनः पराङ्मुख
उदीरितः ॥ ६४ ॥
बधिरो नेत्रहीनश्च कीलितः
स्तम्भितस्तथा ।
दग्धस्त्रस्तश्च भीतश्च मलिनश्च
तिरस्कृतः ॥ ६५ ॥
भेदितश्च सुषुप्तश्च मदोन्मत्तश्च
मूर्च्छितः ।
हृतवीर्यश्च हीनश्च प्रध्वस्तो
बालकः पुनः ॥ ६६ ॥
कुमारस्तु युवा प्रौढो बृद्धो
निस्त्रिंशकस्तथा ।
निर्बीज: सिद्धिहीनश्च मन्दः
कूटस्तथा पुनः ॥ ६७ ॥
निरंशः सत्वहीनश्च केकरो बीजहीनकः ।
धूमितालिङ्गितौ स्यातां मोहितश्च
क्षुधातुरः ॥ ६८ ॥
अतिदृप्तोऽङ्गहीनश्च अतिक्रुद्धः समीरितः
।
अतिक्रूरश्च सव्रीडः शान्तमानस एव च
॥ ६९ ॥
स्थानभ्रष्टश्च विकलः सोऽतिवृद्धः
प्रकीर्त्तितः ।
निःस्नेहः पीडितश्चापि
वक्ष्याम्येषाञ्च लक्षणम् ॥ ७० ॥
छिन्नादि दोषों से दुष्ट मन्त्र
साधक की रक्षा नहीं कर सकते। अब छिन्नादि दोषों की गणना करते हैं छिन्न,
रुद्ध, शक्तिहीन, पराङ्मुख
बधिर नेत्रहीन, कीलित, स्तम्भित,
दग्ध, भीत, मलिन,
तिरस्कृत, भेदित, सुषप्त
मदोन्मत्त, मूच्छित, हतवीर्य, हीन, प्रध्वस्त, बालक, कुमार, युवा, प्रौढ़ वृद्ध,
निस्त्रिंशक, निर्बीज, सिद्धिहीन,
मन्द कूट निरंश, सत्त्वहीन केकर, बीजहीनक, धूमित, अलिङ्गित,
मोहित, क्षुधार्तक अतिदृप्त, अङ्गहीन, अतिक्रुद्ध, अतिक्रूर,
सव्रीड, शान्तमानस, स्थानभ्रष्ट,
विकल, अतिवृद्ध, निःस्नेह,
पीड़ित -ये मन्त्र में रहने वाले दोष है, अब
मैं इनका लक्षण कहता हूँ ।। ६४-७० ॥
मनोर्यस्यादि मध्यान्तेष्वानिलं
बीजमुच्यते ।
संयुक्तं वा वियुक्तं वा
खराक्रान्तं त्रिधा पुनः ।
चतुर्धा पञ्चधा वा स्युः
समन्त्रश्छिन्न संज्ञकः ॥ ७१ ॥
जिस मन्त्र के आदि एवं अन्त में
रहने वाला अनिल बीज (यं) संयुक्त अक्षर के साथ अथवा केवल दो दो बार उच्चरित हो इस
प्रकार का मन्त्र छिन्न संज्ञक होता है। स्वराक्रान्त छिन्नमन्त्र तीन प्रकार का
होता है। आ, ई, ऊ,
ऐ औ- इन दीर्घ स्वरों में यदि शक्ति बीज (ह्रीँ) तीन अथवा चार अथवा
पाँच दीर्घ स्वरों से आक्रान्त हो तो वह भी छिन्न संज्ञक होता है ।। ७१ ।।
आदिमध्यावसानेषु
भूबीजद्वन्द्वलाञ्छितः ।
रुद्धमन्त्रः स विज्ञेयो भुक्तिमुक्तिविवर्जितः
॥ ७२ ॥
मायात्रितत्त्व श्रीबीजरावहीनस्तु
यो मनुः ।
शक्तिहीनः स कथितो यस्य मध्ये न
विद्यते ॥ ७३ ॥
कामबीजं मुखे माया शिरस्यङ्कुशमेव
वा ।
असौ पराङ्मुखः प्रोक्तो हकारो
बिन्दुसंयुतः ॥ ७४ ॥
आद्यन्तमध्येष्विन्दुर्वा न भवेद्
बधिरः स्मृतः ॥ ७५ ॥
जिस मन्त्र के आदि मध्य अथवा अन्त
में भू बीज (लँ) दो बार लगाया गया हो उसे रुद्धमन्त्र कहते हैं। ऐसा मन्त्र न तो
भोग देता है और न मोक्ष ही प्रदान करता है। माया (भुवनेश्वरी बीज ह्रीँ)
त्रितत्त्व (हूँ अथवा प्रणव), श्री बीज
(श्रीँ) राव (फ्रें) ये अक्षर जिस मन्त्र में नहीं हैं वे शक्तिहीन कहे जाते हैं।
जिस मन्त्र में कामबीज (क्रीँ) न हो, आदि में माया बीज
(ह्रीँ) न हो और अन्त में अंकुश (क्रों) ये तीनों न हों उसे पराङ्मुख कहते हैं ॥
७२-७५ ॥
पञ्चवर्णो मनुर्यः स्याद्
रेफार्केन्दुविवर्जितः ।
नेत्रहीनः स विज्ञेयो
दुःखशोकामयप्रदः ॥ ७६ ॥
जिस मन्त्र के आदि मध्य अथवा अन्त
में बिन्दु संयुक्त हकार न हो बिन्दु संयुक्त इन्दु (सकार) न हो तो वह मन्त्र बधिर
दोष से दुष्ट होता है पाँच अक्षर वाला जो मन्त्र रेफ अर्क (हकार) इन्द्र (सकार) से
रहित हो तो उसे नेत्रहीन कहा जाता है, ऐसा
मन्त्र दुःख शोक तथा रोग देने वाला होता है ॥ ७६ ॥
आदिमध्यावसानेषु हंसप्रासादवाग्मवाः
।
हकारोबिन्दुमान् जीवो रावं वापि
चतुष्कलम् ।
माया नमामि च पदं नास्ति यस्मिन् स
कीलितः ॥ ७७ ॥
जिस मन्त्र के आदि मध्य एवं अन्त
में हंस (हंसः) प्रसाद बीज (ह्रौं), वाग्भव
(ऐं), हकार बिन्दुमान् (हं), जीवः (सः),
राव (फ्रें), चतुष्कल (हूँ), माया (= शक्तिबीज ह्रीँ) एवं नमामि इनमें से कोई पद
नहीं है, उसे कीलित मन्त्र कहते हैं ।। ७७ ॥
एकं मध्ये द्वयं मूर्च्छिन
यस्मिन्नस्त्रपुरन्दरौ ।
विद्येते स तु मन्त्रः स्यात्
स्तम्भितः सिद्धिरोधकः ॥ ७८ ॥
स्तम्भित मन्त्र - जिस मन्त्र के
मध्य में एक अस्त्र (फट्कार) पुरन्दर (ल) न हो अथवा अन्त में दो फट्कार और ल न हो
उसे स्तम्भित मन्त्र कहा जाता है। क्योंकि ऐसे मन्त्र से सिद्धि नहीं होती अपितु
इस प्रकार के मन्त्र सिद्धि को रोकने वाले होते हैं ॥ ७८ ।।
वह्निवायुसमायुक्तो यस्य मन्त्रस्य
मूर्द्धनि ।
सप्तधा दृश्यते तं तु दग्धं मन्येत
मन्त्रवित् ॥ ७९ ॥
जिस मन्त्र के आदि में वह्नि (२)
तथा वायु (यकार) समवेत रूप से सात बार आया हो उस मन्त्र को मन्त्रवेत्ता को दग्ध
दोष से दूषित समझना चाहिए ।। ७९ ॥
अस्त्रं द्वाभ्यां त्रिभिः
षड्भिरष्टाभिर्दृश्यतेऽक्षरैः ।
त्रस्तः सोऽभिहितो यस्य मुखे न
प्रणवः स्थितः ।
शिवो वा शक्तिरथवा भीताख्यः स
प्रकीर्तितः ॥ ८० ॥
दो, तीन, छ: अथवा आठ अक्षरों से युक्त अस्त्र मन्त्र
(हुं फट् ) जिस मन्त्र में हो उसे त्रस्त कहा जाता है। जिस मन्त्र के आदि में
प्रणव, शिव (हं), शक्ति ( ) न हो वह
मन्त्र भीत कहा जाता है ।। ८० ॥
आदिमध्यावसानेषु भवेन्मार्णचतुष्टयम्
।
यस्य मन्त्रः स मलिनो मन्त्रवित् तं
विवर्जयेत् ॥ ८१ ॥
जिस मन्त्र के आदि मध्य तथा अन्त इन
तीनों स्थानों में कुल मिलाकर चार मकार हों उसे मलिन कहा जाता है। मन्त्रवेत्ता को
ऐसे मन्त्र का त्याग कर देना चाहिए ॥ ८१ ॥
यस्य मध्ये दकारोऽथ क्रोधो वा
मूर्द्धनि द्विधा ।
अस्त्रं तिष्ठति मन्त्रः स तिरस्कृत
उदाहृतः ॥ ८२ ॥
जिस मन्त्र के मध्य में अथवा अन्त
में दकार अथवा क्रोध (हुंकार) हो अथवा दो बार अस्त्र मन्त्र (हुं फट्) हो तो वह
तिरस्कृत कहा जाता है ॥ ८२ ॥
भ्योद्वयं हनदये शीर्षे वषडस्रञ्च च
मध्यतः ।
यस्यासौ भेदितो मन्त्रस्त्याज्यः
सिद्धिषु सूरिभिः ॥ ८३ ॥
जिस मन्त्र के हृदय प्रदेश में दो
बार 'भ्यो' कहा गया हो । अन्त में वषट् हो और मध्य में
अस्त्र मन्त्र (हुं फट्) हो तो उसे भेदित कहा जाता है । बुद्धिमानों को
सिद्धिकार्य में ऐसे मन्त्रों का त्याग कर देना चाहिए ॥ ८३ ॥
त्रिवर्णो हंसहीनो यः सुषुप्तः स
उदाहृतः ॥ ८४ ॥
जिस मन्त्र में तीन अक्षर हों
किन्तु उसमें 'हंस' इन
दोनों अक्षरों में कोई न हो तो वह सुषुप्त कहा जाता है ॥८४ ॥
मन्त्रो वाऽप्यथवा विद्या
सप्ताधिकदशाक्षरः ।
फट्कारपञ्चकादियों मदोन्मत्त
उदीरितः ॥ ८५ ॥
सात से अधिक अर्थात् आठ और दश इस
प्रकार कुल १८ अक्षर वाला जो मन्त्र पाँच बार फट्कार के अक्षरों से युक्त हो तो वह
'मदोन्मत्तं' कहा जाता है ।। ८५ ॥
तद्वदस्त्रं स्थितं मध्ये यस्य
मन्त्रः स मूर्च्छितः ।
विरामस्थानगं यस्य हृतवीर्यः स
कथ्यते ॥ ८६ ॥
इसी प्रकार जिस मन्त्र के मध्य में
पाँच बार अस्त्र (हुं फट् ) का प्रयोग हो,उसे
मूर्च्छित कहा जाता है। इसी प्रकार जिस मन्त्र के अन्त में पाँच बार 'हुं फट्' का प्रयोग हो तो उसे 'हृतवीर्य' कहा जाता है ॥ ८६ ॥
आदौ मध्ये तथा मूर्द्धिन
चतुरस्रयुतः
ज्ञातव्यो हीन इत्येष यः
स्यादष्टादशाक्षरः ॥ ८७ ॥
इसी प्रकार जिस अष्टादशाक्षर मन्त्र
के आदि और अन्त में तथा मध्य में चार बार अस्त्र (हुं फट् ) का प्रयोग हो उसे हीन
समझना चाहिए ॥ ८७ ।।
एकोनविंशत्यर्णो वा यो
मन्त्रस्तारसंयुतः ।
हृल्लेखाङ्कुशबीजाढ्यस्तं
प्रध्वस्तं प्रचक्षते ॥ ८८ ॥
सप्तवर्णो मनुर्बालः
कुमारोऽष्टाक्षरस्तु यः ।
षोडशार्णो युवा
प्रौढश्चत्वारिंशल्लिपिर्मनुः ॥ ८९ ॥
त्रिंशदश्चतुः षष्टिवर्णो मन्त्रः शताक्षरः
।
चतुः शताक्षरश्चापि वृद्ध
इत्यभिधीयते ॥ ९० ॥
उन्नीस अक्षर वाले जिस मन्त्र में
प्रणव के साथ हृल्लेखा (माया = ह्रीँ) अथवा अंकुश बीज (क्रों) हो तो वह मन्त्र 'प्रध्वस्त' कहा जाता है। सात अक्षर का मन्त्र बालक
होता है, आठ अक्षर का मन्त्र कुमार कहा जाता है, १६ अक्षर का मन्त्र युवा और २४ अक्षरों वाला मन्त्र प्रौढ़ कहा जाता है।
तीस अक्षर वाले, चौंसठ अक्षर वाले, सौ
अक्षरों वाले तथा १०४ अक्षर वाले मन्त्र को वृद्ध कहा जाता है ।। ८८-९० ॥
नवाक्षरो ध्रुवयुतो मनुर्निस्त्रिंश
ईरितः ।
यस्यावसाने हृदयं शिरोमन्त्रश्च
मध्यतः ॥ ९१ ॥
शिखा वर्म च न स्यातां वौषट् फट्कार
एव च ।
शिवशक्त्यर्णहीनो वा स निर्बीज इति
स्मृतः ॥ ९२ ॥
ध्रुव (ॐ कार) से युक्त नवाक्षर
मन्त्र निस्त्रिंश (घातक) कहा जाता है । जिस मन्त्र के अन्त में हृदय (नमः) पद का
प्रयोग न हो और मध्य में शिरः (स्वाहा) पद न हो, इसी प्रकार शिखा (वषट्) एवं वर्म (हुं), वौषट्
(फटकार), शिव (हं), शक्तिवर्ण (स) से
हीन हो तो उसे निर्बीज कहा जाता है॥ ९१-९२॥
एषु स्थानेषु फट्कारः षोढा यस्मिन्
प्रदृश्यते ।
स मन्त्रः सिद्धिहीनः स्यान्मन्दः
पङ्गयक्षरो मनुः ॥ ९३ ॥
कूट एकाक्षरो मन्त्रः स एवोक्तो
निरंशकः ।
द्विवर्णः सत्वहीनः
स्याच्चतुर्वर्णस्तु केकरः ॥ ९४ ॥
जिस मन्त्र के आदि मध्य और अन्त
तीनों स्थानों में मिलाकर छ: बार फट्कार शब्द का प्रयोग हो वह सिद्धहीन मन्त्र कहा
जाता है। दश अक्षर का मन्त्र मन्द कहा जाता है। कूट अथवा एकाक्षर मन्त्र 'निरंशक' कहा जाता है। दो अक्षर वाला मन्त्र
सत्त्वहीन तथा चार अक्षर वाला मन्त्र 'केकर' कहा जाता है ।। ९३-९४ ॥
षडक्षरो बीजहीनस्त्वर्द्धसप्ताक्षरो
मनुः ।
सार्द्धद्वादशवर्णो वा धूमितः स तु
निन्दितः ॥ ९५ ॥
सार्द्धबीजत्रयस्तद्वदेकविंशतिवर्णकः।
अविंशत्यर्णस्त्रिंशदर्णो यः
स्यादालिङ्गितस्तु सः ॥ ९६ ॥
छः अक्षर वाला मन्त्र बीजहीन,
साढे सात अक्षर का मन्त्र अथवा साढे बारह अक्षर का मन्त्र धूमित कहा
जाता है, जो सर्वथा निन्दित है । इसी प्रकार साढ़े तीन
बीजाक्षरों का तथा इक्कीस अक्षर का मन्त्र भी धूमित कहा जाता है । वीस अक्षर का
अथवा तीस अक्षर का मन्त्र आलिंगित कहा जाता है ।। ९५-९६।।
द्वात्रिंशदक्षरो मन्त्रो मोहितः
परिकीर्त्तितः ।
चतुर्विंशतिवर्णो यः
सप्तविंशतिवर्णकः ॥ ९७ ॥
क्षुधार्त्तः स तु
विज्ञेयश्चतुर्विंशतिवर्णकः ।
एकादशाक्षरो वापि पञ्चविंशतिवर्णकः
॥ ९८ ॥
त्रयोविंशतिवर्णो वा मन्त्रो दृप्त
उदाहृतः ॥ ९९ ॥
बत्तीस अक्षर वाला मन्त्र मोहित कहा
जाता है चौबीस अक्षरों का अथवा सत्ताइस अक्षरों का मन्त्र क्षुधार्त कहा जाता है,
इसी प्रकार चौबीस अक्षरों का, ग्यारह अक्षरों का, पच्चीस अक्षरों का
तथा तेईस अक्षरों का मन्त्र दृप्त कहा जाता है ॥ ९७- ९९ ॥
षड्विंशत्यक्षरो मन्त्रः
षट्त्रिंशद्वर्णकस्तथा ।
त्रिंशदेकोनवर्णो
वाऽप्यङ्गहीनोऽभिधीयते ॥ १०० ॥
अष्टाविंशत्यक्षरो वा एकत्रिंशदथापि
वा ।
अतिक्रुद्धः स कथितो निन्दितः
सर्वकर्मसु ॥ १०१ ॥
त्रिंशदक्षरको
मन्त्रस्त्रयस्त्रिंशदथापि वा ।
अतिक्रूरः स कथितो निन्दितः
सर्वकर्मसु ॥ १०२ ॥
छब्बीस अक्षरों वाला,
छत्तीस अक्षरों वाला और उन्तीस अक्षरों वाला मन्त्र अङ्गहीन कहा
जाता है । अट्ठाइस अक्षरों का तथा इकतीस अक्षरों का मन्त्र अतिक्रुद्ध कहा जाता है,
वह सभी कार्यों में निन्दित होता है। तीस अक्षरों वाला एवं तैंतीस
अक्षरों वाला मन्त्र अतिक्रूर कहा जाता है, वह भी सभी
कार्यों में निन्दित होता है ॥ १००-१०२ ॥
चत्वारिंशतमारभ्य
त्रिषष्टिर्यावदापतेत् ।
तावत्संख्या निगदिता मन्त्राः
सव्रीडसंज्ञकाः ॥ १०३ ॥
चालीस से आरम्भ कर एक एक अंक के
वृद्धि से तिरसठ संख्या के भीतर जितने भी अंक हैं उतने एक एक की वृद्धि से युक्त
अंक वाले मन्त्र ब्रीड संज्ञक कहे जाते हैं । अर्थात् ४०,
४१, ४२ इस क्रम से ६३ पर्यन्त अक्षरों वाले
प्रत्येक मन्त्र वीड संज्ञक होते हैं। इस क्रम से चौबीस प्रकार के मन्त्र हुये ।।
१०३ ॥
पञ्चषष्ट्यक्षरा ये
स्युर्मन्त्रास्ते शान्तमानसाः ।
एकोनशतपर्यन्तं पञ्चषष्ट्यक्षरादितः
॥ १०४ ॥
ये मन्त्रास्ते निगदिताः
स्थानभ्रष्टाहवया बुधैः ।
पैंसठ अक्षरों से युक्त मन्त्र
शान्तमानस कहे गये हैं। छाछठ संख्या से लेकर ९९ पर्यन्त एक एक कर जितनी संख्या में
आती है,
उतने उतने अक्षरों वाले प्रत्येक मन्त्र स्थानभ्रष्ट कहे जाते हैं।
इस क्रम में ३४ प्रकार के मन्त्र कहे गये। ऐसा बुद्धिमानों ने कहा है ।। १०४-१०५ ॥
त्रयोदशाक्षरा ये स्युर्मन्त्राः
पञ्चदशाक्षराः ॥ १०५ ॥
विकलास्तेऽभिधीयन्ते शतं सार्द्धं
शतं तु वा ।
शतद्वयं द्विनवतिरेकहीनाथवापि सा ॥
१०६ ॥
शतत्रयं वा यत्संख्या निःस्नेहास्ते
समीरिताः ।
जो मन्त्र तेरह अक्षर के हैं अथवा
जो मन्त्र पन्द्रह अक्षर वाले हैं वे सभी विकल कहे जाते हैं। सौ अक्षर वाले मन्त्र
सार्द्धशत (एक सौ पचास) अक्षर वाले मन्त्रः दो सौ अक्षर वाले मन्त्र,
द्विनवति (१८०) अक्षर वाले मन्त्र तथा उससे एक हीन ९१ अक्षर वाले
मन्त्र अथवा तीन सौ अक्षर वाले मन्त्र निःस्नेह कहे जाते हैं॥१०५-१०६॥
चतुःशतान्यथारभ्य यावद्वर्णसहस्रकम्
॥ १०७ ॥
अतिवृद्धः प्रयोगेषु परित्याज्यः
सदा बुधैः ।
सहस्त्रार्णाधिका मन्त्रा दण्डका
पीडिताहवयाः ॥ १०८ ॥
द्विसहस्राक्षरा मन्त्रा खण्डशः
शतधा कृताः ।
ज्ञातव्याः स्तोत्ररूपास्ते मन्त्रा
एते यथा स्थिताः ।
तथा विद्याश्च बोद्धव्या मन्त्रिभिः
काम्यकर्मसु ॥ १०९ ॥
चार सौ से लेकर एक हजार वर्ण वाले
मन्त्र अतिवृद्ध कहे जाते हैं, बुद्धिमानों
को सदा उनका त्याग कर देना चाहिए । एक हजार से अधिक अक्षर वाले मन्त्र दण्डक
(स्तोत्र) कहे गये है, उनको पीडित भी कहते हैं । दो सहस्र
अक्षरों वाले मन्त्रों को सौ सौ खण्डों में प्रविभक्त करने से वे स्तोत्र का रूप धारण
करते हैं, जैसे मन्त्र सदोष होते हैं वैसे ही स्तोत्र भी
मन्त्रज्ञ साधक को उन स्तोत्रों को भी मन्त्र के समान काम्य कर्मों में प्रयोग
करना चाहिए ।। १०७-१०९ ॥
दोषाज्ञाने सिद्धिहानिः
दोषानिमानविज्ञाय यो मन्त्रं भजते
जडः ।
सिद्धिर्न जायते तस्य कल्पकोटिशतैरपि
॥११० ॥
योनिमुद्रया
दुष्टमन्त्रशोधनम्
इत्यादि दोषदुष्टांस्तान्
मन्त्रानात्मनि योजयेत् ।
शोधयेदूर्द्धपवनो बद्धया
योनिमुद्रयां ॥ १११ ॥
अब दोषों का उपसंहार करते हुये कहते
हैं कि जो जड़ इन दोषों को बिना जाने हुये मन्त्र का प्रयोग करता है उसे करोड़ों
कल्पों में भी सिद्धि नहीं प्राप्त होती। जब इन दोषों से दृष्ट मन्त्रों को अपने
में अभिन्न मान कर योजना करनी हो तो प्राणायाम पूर्वक योनिमुद्रा बाँधकर शोधन कर
लेना चाहिए ॥११०- १११ ॥
तदसमर्थस्य दशसंस्कारैः
शोधनं
मन्त्राणां दश संस्काराः
मन्त्राणां दशसंस्काराः कथ्यन्ते
सिद्धिदायिनः ।
जननं जीवनं पश्चात् ताडनं बोधनन्तथा
॥ ११२ ॥
तन्नामादि
अथाभिषेको विमलीकरणाप्यायने पुनः ।
तर्पणं दीपनं गुप्तिर्दशैता
मन्त्रसंस्क्रियाः ॥ ११३ ॥
मन्त्रों के दश संस्कार करने पर वे
सिद्धि प्रदान करते हैं। वे दश संस्कार इस प्रकार हैं - १. जनन,
२. जीवन, ३ ताडन, ४.
बोधन, ५. अभिषेक, ६. विमलीकरण, ७. आप्यायन, ८. तर्पण, ९. दीपन
और १०. गुप्ति – इन संस्कारों से मन्त्र शुद्ध हो जाते हैं ॥
११२-११३ ॥
मन्त्राणां मातृकामध्यादुद्धारो
जननं स्मृतम् ॥ ११४ ॥
प्रणवान्तरितान् कृत्वा
मन्त्रवर्णान् जपेत् सुधीः ।
एतज्जीवनमित्याहुर्मन्त्रतन्त्रविशारदाः
॥ ११५ ॥
मातृका वर्णों के मध्य से मन्त्र का
उद्धार करना (निकालना) यह मन्त्र का जनन संस्कार कहा जाता है। उन मन्त्रों के
प्रत्येक अक्षरों को दो प्रणव के मध्य में रख कर सौ सौ बार समाहित हो कर जप करे तो
मन्त्र एवं तन्त्र के विद्वानों ने उसी को मन्त्रों का जीवनीकरण कहा है ।। ११४-११५
॥
मन्त्रवर्णान् समालिख्य
ताडयेच्चन्दनाम्भसा ।
प्रत्येकं वायुना मन्त्री ताडनं
तदुदाहृतम् ॥ ११६ ॥
मन्त्र वर्णों को गोरोचन कुंकुम आदि
से लिख कर चन्दन को घिस कर उसी के जल से 'यं'
इस वायु मन्त्र को पढ़ते हुये प्रत्येक अक्षर को सौ सौ बार ताड़न
करे तो उसे मन्त्रज्ञ लोगों ने ताड़न कहा है ।। ११६ ॥
विलिख्य मन्त्रं तं मन्त्री
प्रसूनैः करवीरजैः ।
तन्मन्त्राक्षरसंख्यातैर्हन्याद्यान्तेन
बोधनम् ॥ ११७ ॥
मन्त्रज्ञ साधक कुंकुम गोरोचनादि से
मन्त्र को लिखकर रक्त वर्ण के करवीर के पुष्पों से 'र' इस मन्त्र को पढ़ते हुये मन्त्र के अक्षरों के
संख्या के अनुसार (जितनी मन्त्र के अक्षरों की संख्या हो उतनी बार) ताड़न करे तो
उसे मन्त्र का बोधन संस्कार कहते हैं ।। ११७ ॥
स्वतन्त्रोक्तविधानेन मन्त्री
मन्त्रार्णसंख्यया ।
अश्वत्थपल्लवैर्मन्त्रमभिषिञ्चेद्
विशुद्धये ॥ ११८ ॥
मन्त्रज्ञ साधक अपने
सम्प्रदायानुसार अश्वत्थपल्लवों से मन्त्र के अक्षरों की जितनी संख्या हो उतनी वार
प्रत्येक अक्षर की शुद्धि के लिये अभिश्चिन करे तो उसे मन्त्र का अभिषेक संस्कार
कहते हैं ।। ११८ ॥
सञ्चिन्त्य मनसा मन्त्रं
ज्योतिर्मन्त्रेण निर्दहेत् ।
मन्त्रे मलत्रयं मन्त्री
विमलीकरणन्त्विदम् ॥ ११९ ॥
मन्त्रवेत्ता साधक मन से (मूलाधार
से कुण्डलिनी को ऊपर उठा कर ) मन्त्र का स्मरण करते हुये आगे कहे जाने वाले ज्योति
मन्त्र से जब मन्त्र के सहज आगन्तुक और मायी इन तीन प्रकार के दोषों को दूर कर
देता है तब मन्त्र का विमलीकरण संस्कार होता है ।। ११९ ॥
तारं व्योमाग्निमनुयुग् दण्डी
ज्योतिर्मनुर्मतः ।
कुशोदकेन जप्तेन प्रत्यर्णं
प्रोक्षणं मनोः ॥ १२० ॥
तेन मन्त्रेण विधिवदेतदाप्यायनं
मतम् ।
मन्त्रेण वारिणा मन्त्रे तर्पणं
तर्पणं स्मृतम् ॥ १२१ ॥
तार (ॐ) के साथ व्योम (हकार) अग्नि
(रकार) इन दोनों को मनु (औंकार) से युक्त कर
उस पर दण्डी (बिन्दु) लगा देवे तो वह ज्योति मन्त्र हो जाता है । इस प्रकार
निष्पन्न 'हौं' इस ज्योति मन्त्र का जप
करते हुये कुशा के जल से मन्त्र के एक एक अक्षरों पर १०८ बार विधिपूर्वक छिड़के तो
उसे मन्त्र का आप्यायन संस्कार कहा जाता है और 'अभुम्
मन्त्रं तर्पयामि नम:' इस प्रकार मन्त्र में योजना कर जल से
तर्पण करने का नाम तर्पण संस्कार कहा गया है ॥ १२०-१२१ ॥
तारमायारमायोगे मनोर्दीपनमुच्यते ।
जप्यमानस्य मन्त्रस्य
गोपनन्त्वप्रकाशनम् ॥ १२२ ॥
संस्कारा दश संप्रोक्ताः सर्वत् (म)
न्त्रेषु गोपिताः ।
यान् कृत्वा सम्प्रदायेन मन्त्री
वाञ्छितमश्नुते ॥ १२३ ॥
तार (प्रणव) माया ( शक्ति ह्रीँ)
रमा (श्रीँ) इन बीज मन्त्रों से मूल मन्त्र को युक्त करे तो मन्त्र का दीपन
संस्कार हो जाता है। जिस मन्त्र का जप करना हो उसे प्रकाशित नहीं करने का नाम
मन्त्र गुप्ति है। सभी मन्त्रों में गुप्त रहने वाले दश संस्कारों का हमने यहाँ तक
वर्णन किया। जिसके अनुष्ठान से मन्त्रज्ञ साधक सम्प्रदायानुसार अपनी अभीष्ट सिद्धि
प्राप्त कर लेता है ।। १२२-१२३ ॥
नक्षत्रचक्रादिनिर्णयः
स्वताराराशिकोष्ठानामनुकूलं
भजेन्मनुम् ।
प्रापलोभात्पटुः प्राज्यं
रुद्रस्याद्रि रुरुः करम् ॥ १२४ ॥
लोकलोपपटुः ग्राम खलौ द्यो भेषु
भेदिताः ।
वर्णाः क्रमात् स्वरान्त्यौ तु
रेवत्यंशगतौ स (त) दा ॥ १२५ ॥
अपने नक्षत्र,
राशि तथा कोष्ठ के अनुकूल जो मन्त्र हो उसी मन्त्र का जप करना
चाहिए। ऐसा करने से साधक को शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है। प्रा, २१ लो ३ भा ४ तप १ ढ १ प्रा २ ज्यं १ रू २ द्र २स्या १ द्रि २ रु २रू: २ क
१ र २ लो ३ क १ लो ३ प १ प१ टु १ प्रा २ प १ ख २ लौ ३ द्यो १ इस प्रकार कहे गये २
आदि अक्षरों में २७ नक्षत्रों को समझना चाहिए। इन नक्षत्रों में वर्णों का विभाग
प्रदर्शित कर दिया गया है। स्वर के अन्त में रहने वाले वर्ण का विसर्ग और बिन्दु
(= अनुस्वार) का रेवती में अन्तर्भाव समझ लेना चाहिए ॥ १२४-१२५ ॥
जन्मसम्पद्विपत् क्षेमः प्रत्यरिः
साधको वधः ।
मित्रं परममित्रञ्च जन्मादीनि पुनः
पुनः ॥ १२६ ॥
अपने जन्म नक्षत्र से दाहिने मन्त्र
नक्षत्र तक गणना करे तो उसका १. जन्म, २.
सम्पद्, ३. विपद्, ४. क्षेम, ५. प्रत्यरि, ६. साधक, ७. वध,
८. मित्र, ९. परममित्र – ये ९ फल होते हैं। इसी प्रकार आगे भी जन्मादि फल समझना चाहिए ।। १२५-१२६
।।
वालं गौरं खुरं शोणं शमी शोभेति
राशिषु ।
क्रमेण भेदिता वर्णाः कन्यायां
शादयः स्मृताः ॥ १२७ ॥
अब अक्षरों में राशि विभाग कहते
हैं। वा ४ लं ३ गौ ३ रं २ खु २ रं २ शो ५ णं ५ श ५ मी ५ शो ५ भा ४ इस प्रकार हमने
राशियों में क्रमशः वर्ण का विभाग कहा । स्वर के अन्त में रहने वाले विसर्ग और
बिन्दु तथा श ष स हल का कन्या राशि में प्रवेश समझना चाहिए। क्षकार की गणना मीन
राशि में है ॥ १२७ ।।
राशिचक्रम्
लग्नं धनं
भ्रातृबन्धुपुत्रशत्रुकलत्रकाः।
मरणं धर्मकर्मायव्यया द्वादशराशयः ॥
१२८ ॥
राशिचक्र - जन्म राशि से द्वादश
राशि पर्यन्त लग्न धन, भ्रातृ, बन्धु, पुत्र, शत्रु, कलत्र, मरण, धर्म, कर्म, आय और व्यय का विचार करना चाहिए । (अपनी राशि
से मन्त्र राशि पर्यन्त दाहिनी ओर से गणना करे। यदि अपनी राशि से मन्त्र की राशि
छठें आठवें अथवा बारहवें पड़े तो वह निन्द्य है। जहाँ तक हो सके शत्रुता रहित
मन्त्रों का जप करे ।। १२८ ॥
राशिचक्रम् । अकथहचक्रम्
चतुरस्त्रे लिखेद्वर्णांश्चतुः
कोष्ठसमन्विते ।
अकारादिक्षकारान्तान्
स्वनामाद्यक्षरादितः ॥ १२९ ॥
सिद्धादीन् कल्पयेन्मन्त्री
कुर्यात् सिद्धादिभिः पुनः ।
सिद्धादीन् सिद्धिदः सिद्धो जपात्
साध्यो हुतादिभिः ।
सुसिद्धः प्राप्तिमात्रेण साधकं भक्षयेदरिः
॥ १३० ॥
अकथह चक्र
|
अ
क थ ह १ |
उ
ङ प २ |
आ
ख द क्ष ३ |
ऊ
च फ ४ |
|
ओ
ड ब ५ |
लृ
झ म ६ |
औ
ढ श ७ |
लॄ
ञ य ८ |
|
ई
घ न ९ |
ऋॄ
ज भ १० |
इ
ग थ ११ |
ऋ
छ व १२ |
|
अः
त स १३ |
ऐ
ठ ल १४ |
अं
ण ष १५ |
ए
ट र १६ |
पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से
दक्षिण की ओर पाँच पाँच सीधी रेखा खींचे। इस प्रकार चार चार के क्रम से १६ कोष्ठक
का निर्माण करना चाहिए। पुनः अकथह चक्र १६ कोष्ठों में १६ स्वरों को लिख कर उसी
क्रम से ककारादि अक्षरों को भी लिखना चाहिए । फिर अपने नाम का आदि अक्षर जिस
चतुष्क में हो, उसे सिद्ध सिद्ध कोष्ठक समझना
चाहिए, उसके बाद तीन कोष्ठक दाहिने क्रम से, सिद्ध साध्य, सिद्ध सुसिद्ध सिद्धारि की कल्पना करे
।। १२९-१३० ।।
सिद्धार्णा बान्धवाः प्रोक्ताः
साध्यास्ते सेवकाः स्मृताः ।
सुसिद्धाः पोषका ज्ञेयाः शत्रवो
घातका मताः ॥ १३१ ॥
यदि अपने नाम वाले कोष्ठक में मन्त्र
का भी कोष्ठक मिल जावे तो मन्त्र सिद्ध समझना चाहिए । ध्यान रहे सिद्धमन्त्र बन्धु
के समान सुखद कहे गये हैं। साध्य मन्त्र सेवक के समान सेवा करते हैं । सुसिद्ध
मन्त्र पुष्टि प्रदान करते हैं और सिद्धारि मन्त्र शत्रु के समान घातक कहे गये हैं
।। १३१ ॥
मन्त्रजपस्थानम्
दीपस्थानम्
दीपस्थानं समाश्रित्य कृतं कर्म
फलप्रदम् ॥ १३२ ॥
दीप का फल पूर्व में कह आये हैं। 'दीप्यते पुरुषो यत्र' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जहाँ
साधक का तेज बढ़े वह दीप स्थान कहा जाता है, ककार से लेकर क्षकार
पर्यन्त वर्णों की दीपसंज्ञा है शेष १६ स्वर पीठ नाम से तन्त्र में अभिहित हैं।
जिस कोष्ठ में उपर्युक्त दीपाक्षर स्थित हों वही दीप का उपयुक्त स्थान माना गया
है। इसे कूर्मचक्र से जानना चाहिए ।
कूर्मचक्रम्
चतुरस्त्रां भुवं भित्त्वा
कोष्ठानां नवकं लिखेत् ।
पूर्वकोष्ठादि विलिखेत्
सप्तवर्गाननुक्रमात् ॥ १३३ ॥
लक्षमीशे मध्यकोष्ठे स्वरान्
युग्मक्रमाल्लिखेत् ।
दिक्षु पूर्वादितो यत्र
क्षेत्राख्याद्यक्षरस्थितम् ॥ १३४ ॥
मुखं तत् तस्य जानीयाद्धस्तावुभयतः
स्थितौ ।
कोष्ठे कुक्षी उभे पादौ द्वे शिष्टं
पुच्छमीरितम् ।
क्रमेणानेन विभजेन्मध्यस्थमपि भागतः
॥ १३५ ॥
कूर्मचक्र
|
ईशान- लक्ष |
पूर्व-
क,
ख, ग, घ, ङ |
च, छ, ज, झ, ञ- आग्नेय |
|
उत्तर-
श, ष, स, ह |
मध्य अ
आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ लृ
लॄ ए ऐ ओ औ अं अः |
ट, ठ, ड, ढ, ण -दक्षिण
|
|
वायव्य- य, र, ल, व |
प, फ, ब, भ, म - पश्चिम
|
त, थ, द, ध, न -नैर्ऋत्य |
मुखस्थो लभते सिद्धिं करस्थः
स्वल्पजीवनः ।
उदासीनः कुक्षिसंस्थः पादस्थो
दुःखमाप्नुयात् ॥ १३६ ॥
पुच्छस्थः पीड्यते मन्त्री
बन्धनोच्चाटनादिभिः ।
कूर्मचक्रमिदं प्रोक्तं मन्त्राणां
सिद्धिसाधनम् ॥ १३७ ॥
अब कूर्मचक्र के मुखादिस्थान में
अनुष्ठान करने का फल कहते हैं- ग्राम के नामाद्यक्षर वाले मुख भाग पर अनुष्ठान
करने से सिद्धि प्राप्त होती है । हस्त वाले नामाद्यक्षर पर जप करने से स्वल्प सुख
प्राप्त होता है। कुक्षि स्थान वाले ग्राम के नामाद्यक्षर पर अनुष्ठान करने से कोई
फल नहीं मिलता । पाद स्थान पर अनुष्ठान करने से दुःख की संप्राप्ति होती है। पुच्छ
स्थान पर बैठ कर अनुष्ठान करने वाला साधक, बन्धन,
एवं उच्चाटनादि कारणों से पीडित रहता है। मन्त्रों की सिद्धि में
साधनभूत इसी प्रक्रिया को कूर्मचक्र कहा गया है ।। १३६-१३७ ॥
पुरश्चरणे शस्तस्थानानि
पुण्यक्षेत्रं नदीतीरं गुहा
पर्वतमस्तकम् ।
तीर्थप्रदेशाः सिन्धूनां सङ्गमाः
पावनं वनम् ॥ १३८ ॥
उद्यानानि विविक्तानि विल्वमूलं तटं
गिरेः ।
देवतायतनं कूलं समुद्रस्य निजं
गृहम् ।
साधनेषु प्रशस्यन्ते स्थानान्येतानि
मन्त्रिणाम् ॥ १३९ ॥
पुण्य क्षेत्र,
नदी का तट, गुफा पर्वत का शिखर, तीर्थ स्थान, नदियों का सङ्गम, पवित्रस्थान वन, एकान्त में रहने वाला उद्यान,
बिल्वमूल, पर्वत का निचला प्रदेश, देवतायतन, समुद्र का किनारा और अपना घर - इतने स्थान
मन्त्र सिद्ध करने वाले साधकों के लिये प्रशस्तं कहे गये हैं ।। १३८-१३९ ॥
पुरश्चरणकर्त्तुर्भक्ष्याणि
भैक्ष्यं हविष्यं शाकानि विहितानि
फलं पयः ।
मूलं शक्तुर्यवोत्पन्नो
भक्ष्याण्येतानि मन्त्रिणाम् ॥ १४० ॥
मन्त्र सिद्ध करने वाले साधकों को भिक्षा
में प्राप्त अन्न हविष्यान्न (गेहूँ, यव,
मूँग, तण्डुलादि ) शाक, फल,
दूध, मूल, यव का सत्तू —
इतने ही पदार्थों का भक्षण विहित है ।। १४० ॥
गुरुलक्षणम्
पुरुषार्थसमावात्यै सच्छिस्यो
गुरुमाश्रयेत् ।
मातृतः पितृतः शुद्धः शुद्धभावो
जितेन्द्रियः ॥ १४१ ॥
अपने पुरुषार्थ की सिद्धि के लिये
उत्तम शिष्य को गुरु का आश्रय लेना चाहिए । अब गुरु का लक्षण कहते हैं—
जो शुद्ध माता पिता से उत्पन्न हो जिसका चित्त शाठ्य वापट्य से रहित
हो, जो जितेन्द्रिय हो ।। १४१।।
सर्वागमानां सारज्ञः
सर्वशास्त्रार्थतत्त्ववित् ।
परोपकारनिरतो जपपूजादितत्परः ॥ १४२
॥
अमोघवचनः शान्तो वेदवेदार्थपारगः ।
योगमार्गानुसन्धायी देवताहृदयङ्गमः
॥ १४३ ॥
इत्यादिगुणसम्पन्न गुरुरागमसम्मतः ॥
१४४ ॥
जो सम्पूर्ण आगम एवं शास्त्रों का
तत्वज्ञ हो, संपूर्ण शास्त्र के अर्थों को तत्त्वतः
जानता हो, परोपकार में निरत हो, जप
पूजा में तत्पर हो । व्यर्थ का बकवादी न हो, दयालु हो,
शान्त हो, वेद एवं वेदार्थ का पारदृश्वा
विद्वान् हो, योग मार्ग का अनुष्ठाता हो, देवता के समान दर्शनीय हो, इस प्रकार के गुणों से
सम्पन्न आगम सम्मत गुरु का आश्रय लेना चाहिए ।। १४२-१४४ ।।
शिष्यलक्षणम्
शिष्यः कुलीनः शुद्धात्मा
पुरुषार्थपरायणः ।
अधीतवेदः कुशलो दूरमुक्तमनोभवः ॥
१४५ ॥
अब शिष्य का लक्षण कहते हैं-शिष्य
को शुद्ध माता पिता से उत्पन्न, अतएव कुलीन
होना चाहिए । चित्त में किसी प्रकार की क्रूरता न हो, शुद्धात्मा,
व्यसन से रहित परिश्रमी, वेदज्ञ, लोक, शास्त्र कुशल और काम वासना से सतत दूर रहने
वाला होना चाहिए ।। १४५ ॥
हितैषी प्राणिनां
नित्यमास्तिकस्त्यक्तनास्तिकः ।
स्वधर्मनिरतो भक्त्या
पितृमातृहितोद्यतः ॥ १४६ ॥
शिष्याचारः
वाङ्मनः कायवसुभिर्गुरुशुश्रूषणे
रतः ।
त्यक्ताभिमानो गुरुषु
जातिविद्याधनादिभिः ॥ १४७ ॥
प्राणियों का हित कर्त्ता,
परलोक में विश्वास रखने वाला, नास्तिकता का
परित्यागी, स्वधर्मनिरत, एवं माता पिता
के हित में नित्य समुद्यत रहने वाला होना चाहिए । वाणी, मन,
शरीर और धन से सर्वदा गुरु सेवा में तत्पर गुरु में जाति विद्या,
एवं धनादि का अभिमान न करने वाला होना चाहिए ।। १४६-४७ ॥
गुर्वाज्ञापालनार्थं हि
प्राणव्ययरतोद्यतः ।
विहत्य च स्वकार्याणि गुरुकार्यरतः
सदा ॥ १४८ ॥
दासवन्निवसेद्यस्तु गुरौ भक्तया सदा
शिशुः ।
कुर्वान्नाज्ञां दिवारात्रौ
गुरुभक्तिपरायणः ॥ १४९ ॥
गुरु के आज्ञा पालन में प्राणों को
निछावर करने वाला, अपने समस्त कार्यों
की परवाह किये बिना गुरु के कार्य में निरत रहने वाला होना चाहिए। जो गुरु में
भक्ति के कारण दास के समान सेवक हो, सर्वदा पुत्रवत् आज्ञा
पालन में तत्पर हो, गुरु की आज्ञा में दिन रात लगा रहे तथा
गुरु भक्तिपरायण हो ॥१४८-१४९ ॥
शिष्यपरीक्षावधिकालः
आज्ञाकारी गुरोः शिष्यो
मनोवाक्कायकर्मभिः ।
यो भवेत् स तदा ग्राह्यो नेतरः
शुभकाङ्क्षया ॥ १५० ॥
मन्त्रपूजारहस्यानि यो गोपयति
सर्वदा ।
त्रिकालं यो
नमस्कुर्यादागमाचारतत्त्ववित् ॥ १५१ ॥
जो शिष्य मन,
वाणी, शरीर और कर्म से सर्वदा गुरु का आज्ञाकारी
हो, ऐसे ही शिष्य को कल्याण कामना से ग्रहण करना चाहिए दूसरे
को नहीं । जो शिष्य मन्त्र और पूजा के रहस्यों को कभी प्रकाशित न करें, जो आगम के आचार का तत्त्ववेत्ता हो और त्रिकाल गुरु को नमस्कार करने वाला
हो, ऐसे ही सत्पात्र को शिष्य बनाना चाहिए ।। १५०-१५१ ॥
स एव शिष्यः कर्त्तव्यो नेतरः
स्वल्पजीवनः ।
एतादृशगुणोपेतः शिष्यो भवति नापरः ॥
१५२ ॥
जो अल्पायु हो,
उसे शिष्य न बनावे। शिष्य होने की योग्यता के लिये इन्हीं गुणों की
आवश्यकता होती है और की नहीं । १५२ ।।
एकाब्देन भवेद् योग्यो
ब्राह्मणोऽब्दद्वयान्नृपः ।
वैश्यो वर्षैस्त्रिभिः
शूद्रश्चतुर्भिर्वत्सरैर्गुरोः ।
स शुश्रूषुः परिग्राह्यो
दीक्षायागव्रतादिषु ॥ १५३ ॥
गुरु शिष्य की परीक्षा करे। एक वर्ष
तक ब्राह्मण शिष्य के योग्य हो जाता है, दो
वर्ष में क्षत्रिय, तीन वर्ष में वैश्य और शूद्र चार वर्ष
में शिष्यत्व के योग्य हो जाता है । बहुत क्या ? जो शुश्रूषा
करने में तत्पर हो उसे दीक्षा, यज्ञ एवं व्रतादि कार्यों में
शिष्यता के लिये ग्रहण कर लेना चाहिए ।। १५३ ॥
॥ इति
श्रीलक्ष्मणदेशिकेन्द्रविरचिते शारदातिलके द्वितीय: पटलः समाप्तः ॥ २ ॥
।। इस प्रकार शारदातिलक के द्वितीय
पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ २ ॥
आगे जारी........ शारदातिलक पटल 3

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