पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

शारदातिलक पटल ३

शारदातिलक पटल ३  

शारदातिलक पटल ३ दीक्षाङ्गनिर्णय पटल है । वास्तुयाग की उत्पत्ति, वास्तुबलि, वास्तुदेव पूजा इस पटल का मुख्य विषय है । इसी सन्दर्भ में मण्डपनिर्माण, वेदीनिर्माण एवं विभिन्न प्रकार के कुण्डों के निर्माण की विधि वर्णित है।

शारदातिलक पटल ३

शारदातिलक पटल ३  

Sharada tilak patal 3

शारदातिलकम् तृतीयः पटल:

शारदातिलकतन्त्रम् (प्रथमो भागः )

शारदा तिलक तन्त्र तीसरा पटल

शारदातिलकम्

तृतीय पटल

अथ तृतीयः पटलः

अथ दीक्षाङ्गनिर्णय प्रकरणम्

ततो वक्ष्यामि दीक्षाङ्गं वास्तुयागपुरःसरम् ।

कृतेन येन मन्त्रज्ञो दीक्षायाः फलमश्नुते ॥ १ ॥

अब मैं वास्तुयाग के सहित दीक्षाङ्ग को कहता हूँ। जिसके करने से मन्त्रवेत्ता को दीक्षा का फल प्राप्त होता है ॥ १ ॥

विमर्श - इस प्रकार पूर्वोक्त रीति से प्रतिपादित स्वरूप वाले सभी पुरुषार्थ को देने वाले मन्त्र के ग्रहण एवं उपाय को दीक्षा कहते हैं। उस दीक्षा के विभिन्न अंगों का विवेचन यहाँ इस पटल में किया गया है ।

वास्तुयागोत्पत्तिः

राक्षसं वास्तुनामानं हत्वाऽधिष्ठाय तत्तनुम् ।

स्थितास्त्रिपञ्चाशद्देवास्तेभ्यः पूर्वं बलिं हरेत् ॥ २ ॥

दीक्षा कर्म में वास्तु नामक राक्षस के शरीर को आक्रान्त कर जो ५३ देवता स्थित हैं, सर्वप्रथम उन्हें बलिदान करना चाहिए ॥ २ ॥

वास्तुबलिमण्डलम्

बलिमण्डलमेतेषां यथावदभिधीयते ।

पूर्वापरायतं सूत्रं विन्यसेदुक्तमानतः ॥ ३ ॥

अब इन देवताओं के बलिमण्डल के लिये ६४ कोष्ठक की रचना का प्रकार कहते हैं। सर्वप्रथम पूर्व से पश्चिम की ओर, वास्तुशास्त्र में कहे गये प्रमाण के अनुसार रेखा खींचे ॥ ३ ॥

तन्मध्यं किञ्चिदालब्य मत्स्यौ द्वौ परितो लिखेत् ।

तयोर्मध्ये स्थितं सूत्रं विन्यसेद् दक्षिणोत्तरम् ॥ ४ ॥

द्वाभ्यां द्वाभ्यां तथाऽग्राभ्यां कोणेषु मकरान् लिखेत् ।

मत्स्यमध्ये स्थिताग्राणि तत्र सूत्राणि पातयेत् ॥ ५ ॥

चतुरस्त्रं भवेत्तत्र चतुः कोष्ठसमन्वितम् ।

तत् पुनर्विभजेन्मन्त्री चतुःषष्टिपदं यथा ॥ ६ ॥

फिर प्राची सूत्र के मध्यभाग से उत्तर और दक्षिण की ओर सूत्र घुमा कर दो चिन्ह बनावें । उसके मध्य में स्थित सूत्र को दक्षिण से उत्तर को मिला देवे । पूर्व की ओर दिये गये चिन्ह से ईशान और आग्नेय की ओर एक एक चिन्ह लगावे । फिर उसी सूत्र से उत्तर की ओर दिये गये चिन्ह में ईशान और वायव्य में चिन्ह लगावें। ऐसा करने से ईशान में एक रेखा बन जायेगी। इसी प्रकार पश्चिम की रेखा के वायव्य और नैर्ऋत्य में एक एक बिन्दु लगावे। ऐसा करने से वायव्य में एक रेखा बन जायेगी । फिर दक्षिण की रेखा में नैर्ऋत्य और आग्नेय में चिन्ह लगावे । इस प्रकार दोनों को मिला दे तो चतुष्कोण तैयार हो जायगा । फिर उसके मध्य में दोनों ओर से एक समान रेखा खींच देनी चाहिए। ऐसा करने से आठ कोष्ठक तैयार हो जायगा । इसी प्रकार रेखाओं के विभाग के माध्यम से ६४ कोष्ठकों का निर्माण करना चाहिए ।। ४-६ ॥

ईशानाद्रक्षसो यावद् यावदग्नेः प्रभञ्जनः ।

एवं सूत्रद्वयं दद्यात् कर्णसूत्रं समाहितः ॥ ७ ॥

फिर ईशान से नैऋत्य तक एक रेखा और आग्नेयकोण से वायव्य कोण पर्यन्त एक रेखा सावधानी के साथ खींचे। इस प्रकार चतुर्भुज के दो दो कोनों को मिलाने से कर्णसूत्र बनता है ॥ ७ ॥

ब्रह्मादिवास्तुदेवतानामानि

ब्रह्माणं पूजयेदादौ मध्ये कोष्ठचतुष्टये ।

दिक्चतुष्केषु पूर्वादि यजेदार्यमनन्तरम् ॥ ८ ॥

विवस्वन्तं ततो मित्रं महीधरमतः परम् ।

सर्वप्रथम मध्य के चार कोष्ठकों में ब्रह्मा की पूजा करे ।

विमर्श - परन्तु उससे भी पहले 'सर्वज्ञानक्रियाव्यक्त कमलासनाय योगपीठाय नम:' इस मन्त्र से योगपीठ की पूजा कर तदनन्तर 'ॐ नमो ब्रह्मणे' इस मूल मन्त्र से ब्रह्मदेव की पूजा करें ॥ ८ ॥

फिर उसके पूर्वादि दिशाओं के चार कोष्ठकों में क्रमश: पूर्व में आर्य, दक्षिण दिशा में विवस्वान्, पश्चिम दिशा में मित्र और उत्तर दिशा में महीधर की पूजा करे ॥ ८-९ ॥

कोणार्द्धकोष्ठद्वन्द्वेषु वहन्यादिपरितः पुनः ॥ ९ ॥

सावित्रं सवितारञ्च शक्रमिन्द्रजयं पुनः ।

रुद्रं रुद्रजयं विद्वानापं चाऽप्यापवत्सकम् ॥ १० ॥

तदनन्तर विद्वान् साधक ब्रह्मा से आग्नेय कोण में जहाँ कर्ण रेखा खींची गई हैं उसके आधे ऊपर वाले कोष्ठ में सावित्र की नीचे वाले कोष्ठ में सविता की, नैऋत्य में ऊपर एवं नीचे के क्रम से शक्र, इन्द्रजय की एवं पुनः वायव्य कोण में रुद्र एवं रुद्रजय की, पुनः ईशान कोण में आप और आपवत्स की पूजा करे ।। ९-१० ॥

तत्कर्णसूत्रोभयतः कोष्ठद्वन्द्वेषु देशिकः ।

शर्वं गुहं चार्यमणं जृम्भकं पिलपिच्छकम् ॥ ११ ॥

चरकीञ्च विदारीञ्च पूतनामर्चयेत् क्रमात् ।

पुनः कर्णसूत्र के दोनों ओर दोनों कोष्ठकों में (ऊपर एवं अधः भाग में) स्वयं आयार्य शर्व, गुह, अर्यमा, जृम्भक, पिलपिच्छक, चरकी विदारी, और पूतना की क्रमशः पूजा करे ।। ११-१२ ॥

अर्चयेद् दिक्षु पूर्वादि सार्द्धाद्यन्तपदेष्विमान् ॥ १२ ॥

अष्टावष्टौ विभागेन देवान् देशिकसत्तमः ।

क्रमादीशानपर्जन्यजयन्ताः शक्रभास्करौ ॥ १३ ॥

सत्यो वृषान्तरिक्षौ च दिशि प्राच्यामवस्थिताः ।

पुनः पूर्वादि चारों दिशाओं में आदि के आधे भाग से लेकर (क्योंकि पूर्वादि दिशाओं के प्रथम कोष्ठ पर कर्ण सूत्र से दो भाग हो जाते हैं। इसी प्रकार अन्त में भी कर्ण सूत्र में दो भाग होने से अन्त के कोष्ठ में भी दो भाग हो जाते हैं) अन्त के आधे पर्यन्त आठ कोष्ठकों में आठ आठ के विभाग से आचार्य पूर्व दिशा में स्थित १. ईशान, २. पर्जन्य, ३. जयन्त, ४. शक्र, ५. भास्कर, ६. सत्य, ७. वृष एवं ८. अन्तरिक्ष- इन आठ देवताओं की पूजा करे ।। १२-१४।।

अग्निः पूषा च वितथो यमश्च गृहरक्षकः ॥ १४ ॥

गन्धर्वो भृङ्गराजश्च मृगो दक्षिणदिग्गताः ।

तदनन्तर दक्षिण दिशा में रहने वाले १. अग्नि, २. पूषा, ३. वितथ, ४. यम, ५. गृहरक्षक, ६ गन्धर्व, ७ भृङ्गराज, एवं ८. मृग- इन देवताओं की पूजा करे ।। १४-१५ ॥

निर्ऋति दौर्वारिकश्च सुग्रीववरुणौ ततः ॥ १५ ॥

पुष्पदन्तासुरौ शे (शो) षरोगौ प्रत्यदिशि स्थिताः ।

वायुर्नागश्च मुख्यश्च सोमो भल्लाट एव च ।

अर्गलाख्यो दित्यदिती कुवेरस्य दिशि स्थिताः ॥ १६ ॥

पुनः पश्चिम दिशा में स्थित १. निर्ऋति, २. दौवारिक, ३. सुग्रीव, ४. वरुण, ५. पुष्पदन्त, ६. असुर, ७. शेष और ८. रोग-इन आठ देवताओं की पूजा करे । पुनः कुबेर की दिशा में (उत्तर) में रहने वाले १. वायु, २. नाग, ३. मुख्य, ४. सोम, ५. भल्लाठ, ६. अर्गल, ७. दिति और ८. अदिति- इन आठ देवताओं की पूजा करे ।। १५-१६ ॥

वास्तुबलिविधानम्

उक्तानामपि देवानां पदान्यापूर्वपञ्चभिः ।

रजोभिस्तेष्वथैतेभ्यः पायसान्नैर्बलिं हरेत् ॥ १७ ॥

इन ऊपर कहे गये ६४ देवताओं के कोष्ठकों को पचरंगे रंग से रंग देवे । पुनः इनके लिये पायस की बलि प्रदान करे ॥ १७ ॥

अयं वास्तुबलिः प्रोक्तः सर्वसम्पत् समृद्धिदः ॥ १८ ॥

इस प्रकार उक्त देवताओं के उद्देश्य से दी गई यह बलि, संपूर्ण संपत्तियों की समृद्धि प्रदान करती है ॥ १८ ॥

विमर्श-यही (reflectance irrespective of the rank of coal ) कोष्ठकों के रँगने का प्रकार, प्रत्येक देवताओं के लिये समर्पित की जाने वाली बलि प्रदान की वस्तु तथा मन्त्र आदि कर्मकाण्ड के ग्रन्थों में तथा आचार्यों से जानना चाहिये यहाँ विस्तार के भय से तथा मूल में निर्दिष्ट न होने से हम उल्लेख नहीं करते ।

मण्डपनिर्माणि देशकालनिरूपणम्

नक्षत्रराशिवाराणामनुकूले शुभेऽहनि ।

ततो भूमितले शुद्धे तुषाङ्गारविवर्जिते ॥ १९ ॥

मण्डपरचनम्

पुण्याहं वाचयित्वा तु मण्डपं रचयेच्छुभम् ।

पञ्चभिः सप्तभिर्हस्तैर्नवभिर्वा मितान्तरम् ॥ २० ॥

मण्डपे स्तभनिवेशनम्

षोडशस्तम्भसंयुक्तं चत्वारस्तेषु मध्यगाः ।

अष्टहस्तसमुच्छ्रायाः संस्थाप्या द्वादशाऽभितः ॥ २१ ॥

जिस दिन नक्षत्र राशि, वार अनुकूल हो, माङ्गलिक दिन हो और तुष (भूसा) अङ्गार (कोयला राखी) से वर्जित भूमितल शुद्ध हो । उस समय ब्राह्मणों के द्वारा पुण्याह वाचन कर पाँच, सात या नव हाथ के प्रमाण में श्रेष्ठ मण्डप का निर्माण करे । मण्डप में १६ खम्भे होने चाहिए, जिसमें मध्य में चार खम्भा बनावे, शेष बारह खम्भे मण्डप के चारों ओर लगावे। उनकी ऊँचाई आठ हाथ होनी चाहिए । १९-२१ ॥

पञ्चहस्तप्रमाणास्ते विच्छिद्रा ऋजवः शुभाः ।

तत्पञ्चमांशं निखनेन् मेदिन्यां तन्त्रवित्तमः ॥ २२ ॥

नारिकेलदलैर्वशैश्छादयेत् तत्समन्ततः ।

द्वारेषु तोरणानि स्युः क्रमात् क्षीरमहीरुहाम् ॥ २३ ॥

अथवा सभी खम्भे पाँच हाथ प्रमाण के होने चाहिए। उनमें छिद्र नहीं होना चाहिए, और सभी सीधे तथा शुभ होने चाहिए। मण्डप का जानकार साधक, जितनी खम्भे की लम्बाई हो उसका पञ्चमांश पृथ्वी में खन कर गाड़ देवे । मण्डप के चारों ओर से नारिकेल के पत्ते अथवा बाँस के पत्ते से चारों ओर से आड़ कर देना चाहिए । मण्डप के चारों ओर के द्वारों पर क्रमशः दुधारु वृक्ष का तोरण लगाना चाहिए। (अश्वत्थ, उदुम्बर, प्लक्ष और वट की शाखा का तोरण प्रशस्त कहा गया है ) ।। २२-२३ ॥

स्तम्भोच्छ्रायः स्मृतस्तेषां सप्तहस्तैः पृथक् पृथक् ।

दशाङ्गुलप्रमाणे तत्परीणाह ईरितः ॥ २४ ॥

शूललक्षणं तत्स्थापनञ्च

तिर्यक्फलकमानं स्यात् स्तम्भानामर्द्धमानतः ।

शूलानि कल्पयेन्मध्ये तोरणे हस्तमानतः ॥ २५ ॥

उत्तम मण्डप में खम्भे की ऊँचाई सात हाथ, मध्यम में छः हाथ तथा कनिष्ठ में पाँच हाथ इस प्रकार ऊँचाई का क्रम कहा गया है। उनका विस्तार प्रमाणतः दश अगुल बताया गया है। द्वार के दोनों खम्भों को मध्य में ऊपर लगाये जाने वाली तोरण की देहली फलक का मान खम्भे की ऊँचाई का आधा होना चाहिए । इस प्रकार यदि खम्भा पाँच हाथ ऊँचा है तो तोरण की ऊँचाई ढ़ाई हाथ होनी चाहिए । प्रत्येक तोरण पर एक हाथ का शूल निर्माण करना चाहिए ।। २४-२५ ॥

ध्वजबन्धनम्

दिक्षु ध्वजान्निबध्नीयाल्लोकपालसमप्रभान् ।

वितानदर्भमालाद्यैरलङ्कुर्वीत मण्डपम् ॥ २६ ॥

वेदीनिर्माणम्

तत्त्रिभागमिते क्षेत्रेऽरत्रिमात्रसमन्विताम् ।

चतुरस्त्रां ततो वेदीं मण्डलाय प्रकल्पयेत् ॥ २७ ॥

अङ्कुरार्पणम्

प्रागेव दीक्षादिवसात् सप्तभिर्विधिवद्दिनैः ।

सर्वमङ्गलसम्पत्त्यै विदध्यादङ्कुरार्पणम् ॥ २८ ॥

प्रत्येक दिशाओं में लोकपालों के वर्णों के अनुसार ध्वजा आरोपित करना चाहिए । तदनन्तर समस्त मण्डप वितान दर्म और मालादि से अलंकृत करना चाहिए । पुनः मण्डप का त्रिभाग कर उसके बीचो-बीच अरत्नि प्रमाण में चौकोर वेदी का निर्माण करे। दीक्षा दिन के आरम्भ से सात दिन के पहले अर्थात् आठवें दिन, पहले संपूर्ण मङ्गलों की संप्राप्ति के लिये अंकुश के आरोपण का विधान करना चाहिए ।। २६-२८ ॥

मण्डपस्योत्तरे भागे शालां पूर्वापरायताम् ।

गूढां कुर्यात् ततस्तस्यां मण्डलं रचयेत् सुधीः ॥ २९ ॥

मण्डप के उत्तरी भाग में दश हाथ लम्बी पाँच हाथ चौड़ी पूर्व से पश्चिम ओर की लम्बी एक चौकोर बात रहित शाला जिसका द्वार दक्षिणाभिमुख हो निर्माण करे और उसे चटाई आदि से घेर कर सुगुप्त करे । तदनन्तर बुद्धिमान् शिष्य उसी में मण्डल का निर्माण करे ।। २९ ॥

मण्डलप्रमाणम्

पञ्चहस्तप्रमाणानि पञ्च सूत्राणि पातयेत् ।

पूर्वापरायतान्येषामन्तरं द्वादशाङ्गुलम् ॥ ३० ॥

दक्षिणोत्तरसूत्राणि तद्वदेकादशाऽर्पयेत् ।

पदानि तत्र जायन्ते चत्वारिंशत् प्रमार्जयेत् ॥ ३१ ॥

पङ्कयां वीथीश्चतस्त्रोऽन्तश्चतुष्कोभयपार्श्वयोः।

वीथ्यौ द्वे च चतुष्कोष्ठत्रयमत्राऽवशिष्यते ॥ ३२ ॥

पदानि रञ्जयेत्तानि श्वेतपीतारुणासितैः ।

रजोभिः श्यामलेनाऽथ वीथीरापूरयेत् सुधीः ॥ ३३ ॥

उस शाला के मध्य भाग में पूर्व से पश्चिम की ओर पाँच हाथ का सूत्र देकर उसमें दक्षिण से उत्तर की ओर बारह बारह अङ्गुल के दो दो सूत्र के आधार से ग्यारह सूत्र लगावें । फिर उसके बाहर चारों ओर चार वीथी का निर्माण करे । पूर्व से चार कोष्ठ की एक वीथी, दक्षिण से आठ कोष्ठक की एक वीथी, पश्चिम से कोष्ठ की एक वीथी, और इसी प्रकार उत्तर से आठ कोण की वीथी मार्जित करे । पुनः मध्य में रहने वाली चतुष्कोष्ठक के दोनों पार्श्व भाग में दो दो कोष्ठक रूप दो वीधी का मार्जन करे। ऐसा करने से तीन तीन चतुष्कोष्ठक अर्थात् बारह कोष्ठक शेष रह जायेंगे। अब कोष्ठकों के रंगने का प्रकार कहते हैं-वायव्य कोण के चतुष्कोष्ठक को श्वेत रंग से, आग्नेय कोण के चतुष्कोष्ठक को पीत रंग से, नैर्ऋत्य कोण के चतुष्कोण को लाल रंग से और ईशान कोण के चतुष्कोष्ठक को काले रंग से रंग देवे ॥ ३०-३३ ॥

अङ्कुरार्पण पात्रादिनियमः

पात्राणि त्रिविधान्याहुरङ्कुरार्पणकर्मसु ।

पालिकाः पञ्चमुख्यश्च शरावाश्च चतुः क्रमात् ॥ ३४ ॥

प्रोक्ताः स्युः सर्वतन्त्रज्ञैर्हरिब्रह्मशिवात्मकाः ।

एषामुच्छ्राय उन्नेयः षोडशद्वादशाष्टभिः ॥ ३५ ॥

अब अंकुशरोपण का विधान कहते हैं- अंकुशरोपण कर्म में तीन प्रकार के पात्र कहे गये हैं- १. पालिका (मोटे और ऊँचे प्रकार के शराब जिसे होडी कहा जाता है) २. पञ्चमुखी (परई) और ३. शराव (पुरवा)। इनमें प्रत्येक की संख्या चार चार होनी चाहिए। सर्व तत्त्वज्ञों ने इन तीन प्रकार के पात्रों में प्रथम को विष्णु स्वरूप, द्वितीय को ब्रह्मा स्वरूप, और तृतीय प्रकार के पात्र को शिव स्वरूप कहा है। इनकी ऊँचाई क्रमशः सोलह, बारह और आठ अङ्गुल की करनी चाहिए ।। ३४-३५ ॥

अङ्गुलैः क्रमशस्तानि शुभान्यावेष्ट्य तन्तुना ।

प्रक्षाल्य देशिकस्तेषु पदेष्वाहितशालिषु ॥ ३६ ॥

आचार्य सर्वप्रथम उन पात्रों का प्रक्षालन करे। फिर तन्तु से तीन बार उसे आवेष्टित करे । गन्ध और कुशादि डालकर पश्चिमादि क्रम से उन्हें चावल पर स्थापित करे ॥ ३६ ॥

सगन्धदर्भकूर्चेषु पश्चिमादि निवेशयेत् ।

करीषवालुकामृद्भिस्तानि पात्राणि पूरयेत् ॥ ३७ ॥

पश्चिम के चार कोष्ठकों में चार पालिका पात्र, मध्य के चार कोष्ठकों में चार पञ्चमुखी और पूर्व के चार कोष्ठकों में चार शराव स्थापित करे । तदनन्तर गोबर का चूर्ण (कर्सी) बालू और मिट्टी से उन सभी पात्रों को भर देवे॥३७॥

सुधाबीजेन बीजानि दुग्धैः प्रक्षाल्य तन्त्रवित् ।

मूलमन्त्राभिजप्तानि पञ्चघोषपुरः सरम् ॥ ३८ ॥

आशीर्वाग्भिर्द्विजातीनां मङ्गलाचार पूर्वकम् ।

निर्वपेत्तेषु पात्रेषु देशिको यतमानसः ॥ ३९॥

अब बीज वपन का विधान कहते हैं- तन्त्रवेत्ता सुधा बीज (वं) पढ़कर गाय के दूध के द्वारा बीज को प्रक्षालित करे। फिर मूल मन्त्र का १०८ बार जप कर पञ्चघोष (पटह, ढक्का, मृदङ्ग, मुखवाद्य और शङ्ख) करते हुये मङ्गलाचार पूर्वक ब्राह्मणों का आशीर्वाद ग्रहण करते हुये आचार्य स्वयं समाहित मन हो उसमें बीज वपन करे ।। ३८-३९ ॥

प्रशस्तबीजानि

शालिश्यामाढकीमुग्दतिलनिष्पावसर्षपाः ।

कुलत्थकङ्गुमाषाश्च बीजान्यङ्कुरकर्मणि ॥ ४० ॥

अब बोये जाने वाले बीज का नाम कहते हैं-शाली (हेमन्त ऋतु में होने वाला धान्य विशेष) श्यामाक ( साँवा ), आढकी (तूवरी) निष्पावा ( राजमाष, वोड़ा ) मूँग, तिल, निष्पाव, सर्षप, कुलत्थ, कंगु और भाष इन बीजों को उन पात्रो में बो देवे ॥ ४० ॥

हरिद्राद्भिः समभ्युक्ष्य वस्त्रैराच्छाद्य देशिकः ।

बलि त्रिविधपात्राणां दिक्षु पूर्वादितो हरेत् ॥ ४१ ॥

प्रणवाद्यैर्नमोऽन्तैश्च रात्रौ रात्रीशनामभिः ।

भूतानि पितरो यक्षा नागा ब्रह्मा शिवो हरिः ॥ ४२ ॥

पुनः हल्दी से रँगे गये एक एक वस्त्र से चार चार पात्रों के क्रम से आचार्य स्वयं ढक देवे और उन तीन प्रकार के पात्रों के चारों ओर पूर्वादि दिशाओं में बलि प्रदान की क्रिया रात्रि में रात्रिश के नाम से प्रारम्भ करें। एक रात्रि में बलिदान के पश्चात् दूसरे दिन स्थान शुद्ध कर पुनः द्वितीय रात्रि में बलिदान करे । इसी प्रकार का क्रम सातों रात्रि में रखे । प्रतिदिन बलिदान का मन्त्र इस प्रकार है (ॐ भूतेभ्यो नमः गन्ध पुष्प धूप दीप नैवेद्य-ताम्बूल सहितं बलिं गृह्णन्तु स्वाहा, यह प्रथम रात्रि में बलिदान का मन्त्र है, दूसरी रात्रि में भूतेभ्यः नमः के स्थान में पितृभ्यो नमः मन्त्र का सन्निवेश करे। यह क्रम सर्वत्र जानना चाहिए ।। ४१-४२ ॥

सप्तानामपि रात्रीणां देवताः समुदीरिताः ।

भूतेभ्यः स्युर्लाजतिलहरिद्रादधिसक्तवः ॥ ४३ ॥

बलिद्रव्याणि

सान्नाः पितृभ्यः सतिलास्तण्डुलाः परिकीर्त्तिताः ।

करम्भलाजा यक्षेभ्यो नारिकेलोदकान्विताः ॥ ४४ ॥

सतुपिष्टञ्च नागेभ्यो ब्रह्मणे पङ्कजाक्षतम् ।

सापूपमन्नं शर्वाय विष्णवे तु गुडौदनम् ॥ ४५ ॥

भूत, पितर, यक्ष, नाग, ब्रह्मा, शिव और हरि-ये सात रात्रियों के सात देवता कहे गये हैं। अब इन सात रात्रियों में पृथक् पृथक् दी जाने वाली बलिदान की सात वस्तुयें कहते हैं। प्रथम रात्रि में भूतों के लिये, लाजा, तिल, हरिद्रा, दही, सत्तू और अन्न की बलि देवे । पुनः द्वितीय रात्रि में पितरों को तिल सहित अक्षत तण्डुल का बलिदान करे । तृतीय रात्रि में यक्षों के लिये करम्भ (दधि मिश्रित सत्तू) और लाजा का बलिदान करे । चतुर्थ रात्रि में नागों के लिये नारिकेल के जल से युक्त सत्तू के चूर्ण का बलिदान करे। पञ्चम रात्रि में ब्रह्मा के लिये कमल सहित अखण्ड अक्षत का तथा षष्ठ रात्रि में शिव के लिये अपूप सहित अन्न का और सातवीं रात्रि में विष्णु के लिये, गुड़ मिश्रित ओदन का बलिदान करे ।। ४३-४५ ॥

ततो लोकेश्वरेभ्योऽपि वितरेद्विधिवद्द्बलिम् ।

दीक्षायामभिषेकेषु नववेश्मप्रवेशने ।

उत्सवेषु च सम्पत्त्यै विदध्यादङ्कुरार्पणम् ॥ ४६ ॥

इसी प्रकार पायस आदि के द्वारा लोकेश्वरों को भी विधिपूर्वक बलि देनी चाहिए। दीक्षा ग्रहण काल में, अभिषेक में नव गृह प्रवेश में, उत्सव उपस्थित होने पर तथा संपत्ति की प्राप्ति के लिये अंकुरार्पण की क्रिया अवश्य करनी चाहिए।।४६।।

प्राक् प्रोक्ते मण्डपे विद्वान् वेदिकाया बहिस्त्रिधा ॥ ४७ ॥

क्षेत्रं विभज्य मध्यांशे पूर्वादि परिकल्पयेत् ।

अष्टास्वाशासु कुण्डानि रम्याकाराण्यनुक्रमात् ॥ ४८ ॥

चतुरस्रकुण्डमानम्

शारदातिलक पटल ३- चतुरस्रकुण्डमानम्

चतुरस्त्रं योनिमर्द्धचन्द्रं त्र्यस्त्रं सुवर्त्तुलम् ।

षडस्रं पङ्कजाकारमष्टास्त्रं तानि नामतः ॥ ४९ ॥

मण्डप में कुण्डविधान - विद्वान् साधक पूर्व में कहे गये मण्डप में वेदी से बाहर के क्षेत्र को तीन भागों में प्रविभक्त कर मध्य भाग में पूर्वादि आठों दिशाओं में परम मनोहर मेखला सहित आठ कुण्डों का निर्माण करे। चतुरस्र, योनि, अर्द्धचन्द्र, त्र्यस्र, सुवर्त्तुल, षडस्र, पङ्कजाकार और अष्टास्त्र- ये आठ प्रकार के कुण्डों के नाम हैं।।४७-४९।।

आचार्यकुण्डं मध्ये स्याद् गौरीपतिमहेन्द्रयोः ।

हस्तमानमितां भूमिं पूर्ववत् परिकल्पयेत् ॥ ५० ॥

समन्तात् कुण्डमेतत् स्याच्चतुरस्रं शुभावहम् ।

चतुर्विंशत्यङ्गुलाढ्यं हस्तं तन्त्रविदो विदुः ॥ ५१ ॥

कर्तुर्दक्षिणहस्तस्य मध्यमाङ्गलिपर्वणः ।

मध्यस्य दीर्घमानेन मानाङ्गुलमुदीरितम् ॥ ५२ ॥

यवानामष्टभिः क्लृप्तं मानाङ्गुलमुदीरितम् ।

ईशान और पूर्व के मध्य में आचार्य का नवाँ कुण्ड होना चाहिए। एक हाथ लम्बा एक हाथ चौड़ा और एक हाथ गहरा इस प्रकार का शुभावह कुण्ड चतुरस्र कहा जाता है। कोई कोई तन्त्रवेत्ता दीक्षा लेने वाले शिष्य के २४ अङ्गुल का प्रमाण बताते हैं। कर्त्ता (शिष्य) के दाहिने हाथ के मध्यम अङ्गुलि के मध्य पर्व पर्यन्त मान को चौबीस अङ्गुलि का प्रमाण माना गया है। शास्त्रकारों ने आठ यव के प्रमाण को एक अङ्गुल प्रमाण माना है ॥ ५०-५३ ॥

योनिकुण्डम्

चतुरस्त्रीकृतं क्षेत्रं पञ्चधा विभजेत् सुधीः ॥ ५३ ॥

अब योनिकुण्ड के निर्माण का विधान कहते हैं- (१) बुद्धिमान् साधक एक हाथ वाले चतुरस्र के क्षेत्रफल को पाँच विभागों में प्रविभक्त करे। यह पाँचवाँ भाग ४ अङ्गुल साढ़े ६ यव के आस पास होगा । ( यह चतुरस्र ही सभी कुण्डों का प्रकृतिभूत आधार है ) ।। ५०-५३ ।।

शारदातिलक पटल ३- योनिकुण्ड

न्यसेत् पुरस्तादेकांशं कोणार्द्धार्द्धप्रमाणतः ।

भ्रमयेत् कोणमानेन तथाऽन्यदपि मन्त्रवित् ।

सूत्रयुग्मं ततो दद्यात् कुण्डं योनिनिभं भवेत् ॥ ५४ ॥

पुनः मध्यरेखा जो उत्तर से दक्षिण की ओर खींची गई है उसमें उत्तर की ओर पञ्चमांश बढ़ा देवे । तदनन्तर उत्तर की बढ़ी हुई उस रेखा को पूर्व और पश्चिम की रेखा से मिला देना चाहिए । इसी प्रकार पूर्व दक्षिण और पश्चिम दक्षिण को मिला दें। पुनः पूर्व दक्षिण रेखा के अर्ध भाग से तथा पश्चिम दक्षिण की रेखा के अर्ध भाग से वृत्तार्ध का निर्माण करना चाहिए। ऐसा करने से योनि कुण्ड निर्मित हो जायगा ॥। ५४ ।।

अर्द्धचन्द्रकुण्डम्

शारदातिलक पटल ३- अर्द्धचन्द्रकुण्ड

चतुरस्त्रीकृतं क्षेत्रं दशधा विभजेत् पुनः ।

एकमेकं त्यजेदंशमध ऊर्द्धञ्च तन्त्रवित् ॥ ५५ ॥

ज्यासूत्रं पातयेदग्रे तन्मानाद् भ्रमयेत्ततः ।

अर्द्धचन्द्रनिभं कुण्डं रमणीयमिदं भवेत् ॥ ५६ ॥

(२) अब अर्द्धचन्द्र कुण्ड के निर्माण का विधान कहते हैं-

सर्वप्रथम चतुरस्त्रीकृत क्षेत्र को दश भागों में प्रविभक्त करे । तदनन्तर एक भाग ऊपर और एक भाग नीचे छोड़ देवे। फिर नीचे से ऊपर पर्यन्त प्रमाण में अर्धवृत्त का निर्माण करे और दोनों जीवा को मिला देवे। ऐसा करने से अर्धचन्द्र कुण्ड हो जाता है । यह अत्यन्त मनोहर होता है ।। ५५-५६ ॥

त्रास्त्रकुण्डम्

शारदातिलक पटल ३- त्रास्त्रकुण्ड

चतुर्द्धा भेदिते क्षेत्रे न्यसेदुभयपार्श्वयोः ।

एकैकमंशं तन्मानादग्रतो लाञ्छयेत्ततः ।

सूत्रद्वयं ततः कुर्यात् त्र्यस्त्रं कुण्डमुदाहृतम् ॥ ५७ ॥

(३) त्र्यस्त्रकुण्ड सर्वप्रथम चतुरस्र क्षेत्र का निर्माण करे । पुनः मध्य रेखा से दोनों ओर उसके चार भाग करे । पश्चात् मध्य रेखा में पड़े लम्ब को पूर्व की ओर चतुर्थांश बढ़ावे और आधार रेखा को दोनों ओर भी चतुर्थाशं बढ़ा देवे । फिर लम्ब से बढ़ी रेखा को दोनों बढ़े क्षेत्रों से मिला देवे। ऐसा करने से त्र्यत्र कुण्ड बन जाता है ॥ ५७ ॥

वृत्तकुण्डम्

अष्टादशांशे क्षेत्रे च न्यसेदेकं बहिर्बुधः ।

भ्रमयेत्तेन मानेन वृत्तं कुण्डमनुत्तमम् ॥ ५८ ॥

शारदातिलक पटल ३- वृत्तकुण्ड

(४) अब वृत्तकुण्ड के निर्माण का विधान कहते हैं-

बुद्धिमान साधक सर्वप्रथम चतुरस्त्र क्षेत्र को अट्ठारह भागों में प्रविभक्त करे । फिर मध्य के पूर्व पश्चिम तथा उत्तर दक्षिण के रेखाओं में उसका एक एक अंश बढ़ा देवे । पश्चात् व्यास के केन्द्र बिन्दु से चारों ओर वृत्त रेखा खींच देवे । तो वृत्त कुण्ड बन जाता है ॥ ५८ ॥

अष्टधा विभजेत् क्षेत्रं मध्यसूत्रस्य पार्श्वयोः ।

भागं न्यसेदेकमेकं भागेनाऽनेन मध्यतः ॥ ५९ ॥

षडस्त्रकुण्डम्

कुर्यात् पार्श्वद्वये मत्स्यचतुष्कं तन्त्रवित्तमः ।

सूत्रषट्कं ततो दद्यात् षडस्रं कुण्डमुत्तमम् ॥ ६० ॥

शारदातिलक पटल ३- षडस्रकुण्ड

(५) षडस्त्रकुण्ड - सर्वप्रथम चतुरस्र क्षेत्र के मध्य से दोनों ओर की रेखा को आठ 1भागों में प्रविभक्त करे । तदनन्तर मध्य की उत्तर-दक्षिण और पूर्व पश्चिम की रेखाओं को अष्टमांश बढ़ा देवे । तदनन्तर बढ़ी हुई रेखाओं से सम्बद्ध व्यास के केन्द्र से एक वृत्त का निर्माण करना । तदनन्तर बढ़ी हुई रेखा के दोनों ओर तन्त्रवेत्ता साधक ४ चिन्ह लगावे। फिर छओं सूत्रों को मिला देवे तो षडस्रकुण्ड हो जाता है ।। ५९-६० ।।

पद्मकुण्डम्

चतुरस्त्रीकृतं क्षेत्रं विभज्याऽष्टादशांशतः।

एकं भागं बहिर्न्यस्य भ्रामयेत्तेन वर्त्तुलम् ॥ ६१ ॥

वृत्तानि कर्णिकादीनां बहिस्त्रीणि प्रकल्पयेत् ।

पद्मकुण्डमिदं प्रोक्तं विलोचनमनोहरम् ॥ ६२ ॥

शारदातिलक पटल ३- पद्मकुण्ड

(६) अब पद्मकुण्ड के निर्माण का विधान कहते हैं-

चतुरस्र क्षेत्र को १८ भागों में प्रविभक्त करे। पुनः एक भाग बाहर छोड़कर चारों ओर गोल वृत्त बना देवे । पुनः कर्णिका के बाहर तीन वृत्त का निर्माण कर ले। तो देखने में अत्यन्त मनोहर पद्मकुण्ड बन जाता है ।। ६१-६२ ।।

अष्टास्त्रकुण्डम्

पूर्वोक्तं विभजेत् क्षेत्रं चतुर्विंशतिभागतः ।

एकं भागं बहिर्न्यस्य चतुरस्त्रं प्रकल्पयेत् ॥ ६३ ॥

अन्तस्थ चतुरस्रस्य कोणार्द्धार्द्धप्रमाणतः ।

बाह्यस्य चतुरस्त्रस्य कोणाभ्यां परिलाञ्छयेत् ॥ ६४ ॥

दिशं प्रति यथान्यायमष्टसूत्राणि पातयेत् ।

अष्टात्रं कुण्डमेतद्धि तन्त्रविद्भिरुदाहृतम् ॥ ६५ ॥

शारदातिलक पटल ३- अष्टास्त्रकुण्ड

(७) अष्टास्त्रकुण्ड-

पूर्वोक्त १८ अगुल के चतुरस्र क्षेत्र को २४ भागों में प्रविभक्त करे। तदनन्तर चारों ओर एक भाग को बाहर से छोड़कर पुनः उसे चौकोर निर्माण करे । तदनन्तर अन्तस्थ चतुरस्र के कोण के आधे भाग से बाहर के चतुरस्र कोणों से मिला देवे । फिर आठों दिशाओं के आठों सूत्रों को एक में मिला देवे । तन्त्रवेत्ताओं ने इस प्रकार के बने हुये कुण्ड को अष्टात्र कुण्ड कहा है ।। ६३-६५ ।।

खातमानम्

यावान् कुण्डस्य विस्तारः खननं तावदीरितम् ॥ ६६ ॥

कुण्ड का जितना विस्तार हो उतने ही प्रमाण में उसकी गहराई होनी चाहिए ।। ६६ ।।

मेखलालक्षणं तन्मानञ्च

कुण्डानां यादृशं रूपं मेखलानाञ्च तादृशम् ॥ ६७ ॥

मेखला लक्षण एवं उसका मान-कुण्ड का जैसा स्वरूप हो, मेखला भी उसी प्रकार की होनी चाहिए । अर्थात् चतुरस्र कुण्ड में चतुरस्र मेखला, योनि में योनी रूपा मेखला बनानी चाहिए । यही क्रम सर्वत्र समझना चाहिए ॥ ६७ ॥

कुण्डानां मेखलास्तिस्रो मुष्टिमात्रे तु ताः क्रमात् ।

उत्सेधायामतो ज्ञेया येकार्द्धाङ्गलसम्मिताः ॥ ६८ ॥

हर प्रकार के कुण्डों में तीन तीन मेखलायें होनी चाहिए । त्रिमेखला पक्ष में उनकी ऊँचाई तथा चौड़ाई क्रमशः एक मुष्टि बराबर होनी चाहिए। प्रथम मेखला दो अगुल चौड़ी दो अगुल ऊँची, दूसरी मेखला प्रथम की अपेक्षा एक अङ्गुल चौड़ी तथा एक अङ्गुल ऊँची, इसी प्रकार तृतीय मेखला द्वितीय मेखला की अपेक्षा आधा अङ्गुल चौड़ी तथा आधा अङ्गुल ऊँची होनी चाहिए ॥ ६८ ॥

अरत्रिमात्रे कुण्डे स्युस्तास्त्रि द्व्येकाङ्गुलात्मिकाः ।

एकहस्तमिते कुण्डे वेदाग्निनयनाङ्गलाः ॥ ६९ ॥

यदि अरत्नि प्रमाण का कुण्ड हो तो तीनों मेखलायें क्रमशः तीन, दो और एक अङ्गुल चौड़ी तथा ऊँची होनी चाहिए। यदि एक हाथ का कुण्ड हो तो चार, तीन और दो अङगुल चौड़ी तथा ऊँची मेखला करना चाहिए ॥ ६९ ॥

नेमिलक्षणम्

मेखलानां भवेदन्तः परितो नेमिरङ्गुलात ।

एकहस्तस्य कुण्डस्य वर्द्धयेत् तत् क्रमात् सुधीः ।

दशहस्तान्तमन्येषां अर्द्धांङ्गुलवशात् पृथक् ॥ ७० ॥

यदि एक हाथ का कुण्ड हो तो मेखला के भीतर चारों ओर एक अङ्गुल का कण्ठ निर्माण करे । कुण्ड के विस्तार के अनुसार उसका कण्ठ भी बढ़ाते रहना चाहिए । इसी प्रकार दश हाथ के कुण्ड में पृथक् पृथक् आधा अङ्गुल कण्ठ बढाते रहना चाहिए ॥ ७० ॥

कुण्डे द्विहस्ते ता ज्ञेया रसवेदगुणाङ्गुलाः । 

चतुर्हस्तेषु कुण्डेषु वसुतर्कयुगाङ्गलाः ॥ ७१ ॥

यदि दो हाथ का कुण्ड हो तो मेखलायें भी क्रमशः चार और तीन अङ्गुल ऊँची तथा चौड़ी करनी चाहिए। यदि चार हाथ का कुण्ड हो तो आठ, छः और चार अङ्गुल की ऊँचाई तथा चौड़ाई करनी चाहिए ॥ ७१ ॥

कुण्डे रसकरे ताः स्युर्दशाष्टर्त्वङ्गुलान्विताः ।

वसुहस्तमिते कुण्डे भानुपयष्टकाङ्गुलाः ॥ ७२ ॥

दशहस्तमिते कुण्डे मनुभानुदशाङ्गुलाः ।

विस्तारोत्सेधतो ज्ञेया मेखलाः सर्वतो बुधैः ॥ ७३ ॥

योनिलक्षणम्

होतुरग्रे योनिरासामुपर्यश्वत्थपत्रवत् ॥ ७४ ॥

यदि कुण्ड छः हाथ का हो तो मेखला भी क्रमशः दश, आठ और छः हाथ की ऊँची तथा चौड़ी करनी चाहिए। यदि कुण्ड आठ हाथ का हो तो मेखला भी बारह, दश तथा आठ अङ्गुल चौड़ी एवं ऊँची होनी चाहिए । यदि कुण्ड दश हाथ का हो तो मेखलायें भी क्रमशः चौदह, बारह और दश अङ्गुल की होनी चाहिए । इसी प्रकार बुद्धिमान् साधक कुण्ड के अनुसार मेखलाओं के ऊँचाई तथा चौड़ाई का विचार कर लेवें। होता के आगे इन मेखलाओं के ऊपर अश्वत्थ पत्र के आकार की योनि होनी चाहिए ।। ७२-७४ ॥

मुष्ट्यरत्र्येकहस्तानां कुण्डानां योनिरीरिता ।

षट्चतुर्ह्यङ्गुलायामविस्तारोन्नतिशालिनी ॥ ७५ ॥

एकाङ्गुलन्तु योन्ययं कुर्यादीषदधोमुखम् ।

एकैकाङ्गुलतो योनिं कुण्डेष्वन्येषु वर्द्धयेत् ।

यवद्वयक्रमेणैव योन्यग्रमपि वर्द्धयेत् ॥ ७६ ॥

नाललक्षणम् तन्मानञ्च

स्थलादारभ्य नालं स्याद् योन्या मध्ये सरन्ध्रकम् ।

नार्पयेत् कुण्डकोणेषु योनिं तां तन्त्रवित्तमः ॥ ७७ ॥

मुष्टि, अरत्नि एवं एक हाथ के कुण्ड में छः, चार एवं दो अगुल की चौड़ी तथा ऊँची योनि बनानी चाहिए । योनि का अग्रभाग एक अङ्गुल तथा उसका मुख कुछ नीचे की ओर झुका रहना चाहिए। इसी प्रकार अन्य कुण्डों में विस्तार के अनुसार दो-दो यव के क्रम से अङ्गुल योनि एक एक का अग्र भाग बढ़ाते रहना चाहिए । योनि के मध्य में स्थल (मेखला) से आरम्भ कर छिद्र के सहित नाल का निर्माण करना चाहिए। तन्त्रवेत्ता विद्वान् कुण्ड के कोणों पर योनि का निर्माण न करे ।। ७५- ७७ ॥

नाभिलक्षणम् तन्मानञ्च

कुण्डानां कल्पयेदन्तर्नाभिमम्बुजसन्निभाम् ।

तत्तत् कुण्डानुरूपं वा मानमस्य निगद्यते ॥ ७८ ॥

कुण्ड के भीतर कमल के आकार की नाभि बनानी चाहिए अथवा कुण्ड की जैसी आकृति हो वैसी नाभि निर्माण करे ॥ ७८ ॥

मुष्ट्यरन्त्येक हस्तानां नाभिरुत्सेधतारतः ।

द्वित्रिवेदाङ्गुलोपेता कुण्डेष्वन्येषु वर्द्धयेत् ॥ ७९ ॥

यवद्वयक्रमेणैव नाभिं पृथगुदारधीः ।

योनिकुण्डे योनिमब्जकुण्डे नाभिं विवर्जयेत् ॥ ८० ॥

नाभिक्षेत्रं त्रिधा भित्वा मध्ये कुर्वीत कर्णिकाम् ।

बहिरंशद्वयेनाष्टौ पत्राणि परिकल्पयेत् ॥ ८१ ॥

अब उस नाभि का मान कहते हैं-

मुष्टि, अरत्नि तथा एक हाथ के कुण्ड में नाभि की ऊँचाई क्रमशः दो, तीन और चार अङ्गुल की होनी चाहिए । अन्य कुण्डों में इसकी ऊँचाई भी बढ़ाते रहना चाहिए । उदार बुद्धि वाले बुद्धिमान् को अन्य कुण्ड में दो दो यव के क्रम से पृथक् पृथक् नाभि बढ़ाते रहना चाहिए । योनि कुण्ड में योनि का तथा पद्मकुण्ड में नाभि का निर्माण नहीं करना चाहिए। नाभि क्षेत्र का तीन भाग कर मध्यभाग में कर्णिका का निर्माण करना चाहिए। बाहर के दो भाग में आठ कमल पत्र का निर्माण करना चाहिए ।। ७९- ८१ ॥

मुष्टिमात्रमितं कुण्डं शतार्द्धे संप्रचक्षते ।

शतहोमेऽरत्निमात्रं हस्तमात्रं सहस्रके ॥ ८२ ॥

अब मुष्टि अरत्नि तथा हस्तादि मात्र कुण्डों की उपयोगिता कहते हैंसौ के आधे अर्थात् पच्चास आहुति वाले होम में मुष्टि मात्र कुण्ड का निर्माण करे। सौ आहुति वाले होम में अरत्निमात्र तथा सहस्र आहुति वाले होम में एक हाथ के कुण्ड के निर्माण का विधान कहा गया है ।। ८२ ।।

द्विहस्तमयुते लक्षे चतुर्हस्तमुदीरितम् ।

दशलक्षे तु षड्डस्तं कोट्यामष्टकरं स्मृतम् ॥ ८३ ॥

दश हजार की आहुति में दो हाथ का और एक लाख की आहुति में चार हाथ का कुण्ड कहा गया है। दश लाख की आहुति में छ: हाथ का तथा एक करोड़ की आहुति में आठ हाथ का कुण्ड निर्माण करना चाहिए ॥ ८३ ॥

प्रयोगभेदे कुण्डमानादिभेदः

एकहस्तमितं कुण्डमेकलक्षे विधीयते ।

लक्षाणां दशकं यावत्तावद्धस्तेन वर्द्धयेत् ।

दशहस्तमितं कुण्डं कोटिहोमे विधीयते ॥ ८४ ॥

कोई कोई आचार्य एक लाख की आहुति के लिये एक हाथ के कुण्ड का विधान करते हैं और इसी प्रकार दश लाख की आहुति तक क्रमशः एक-एक हाथ कुण्ड को बढ़ाते रहना चाहिएऐसा मानते हैं। दश हाथ से अधिक कुण्ड का प्रमाण कहीं नहीं देखा गया है। अतः एक करोड़ की आहुति के लिये मात्र दश हाथ का कुण्ड होना चाहिए ॥ ८४ ॥

चतुरस्त्रादिकुण्डप्रयोगभेदः

सर्वसिद्धिकरं कुण्डं चतुरस्रमुदाहृतम् ।

पुत्रप्रदं योनिकुण्डमर्द्धेन्वाभं शुभप्रदम् ॥ ८५ ॥

अब ऊपर कहे गये आठ प्रकार के कुण्ड का फल कहते हैं-

चतुरस्र कुण्ड सब प्रकार की सिद्धि प्रदान करता है । योनि कुण्ड पुत्र प्रदान करता है और अर्द्धचन्द्र कुण्ड सब प्रकार का मङ्गल करता है ।। ८५ ।।

शत्रुक्षयकरं त्र्यस्त्रं वर्तुलं शान्तिकर्मणि ।

छेदमारणयोः कुण्डं षडस्त्रं पद्मसन्निभम् ॥ ८६ ॥

वृष्टिदं रोगशमनं कुण्डमष्टास्त्रमीरितम् ।

त्र्यत्रकुण्ड शत्रुओं का क्षय करने वाला होता है, शान्ति कर्म में वर्तुल कुण्ड का निर्माण करना चाहिए। किसी शत्रु के मारण (उच्चाटन) तथा छेदन में षडस्र कुण्ड का विधान है । पद्म कुण्ड वृष्टि कराने वाला होता हैं तथा अष्टात्र कुण्ड रोगों का शमन करने वाला कहा गया हैं ।। ८६-८७ ॥

विप्राणां चतुरस्त्रं स्याद्राज्ञां वर्त्तुलमिष्यते ॥ ८७ ॥

वैश्यानामर्द्धचन्द्राभं शूद्राणां त्र्यस्त्रमीरितम् ।

चतुरस्रन्तु सर्वेषां केचिदिच्छन्ति तान्त्रिकाः ।

कुण्डरूपन्तु जानीयात् परमं प्रकृतेर्वपुः ॥ ८८ ॥

ब्राह्मणों के लिये चतुरस्र कुण्ड का विधान है, क्षत्रियों के लिये वर्त्तुल कुण्ड का विधान है, वैश्यों के लिये अर्द्ध चन्द्र तथा शूद्रों के लिये त्र्यन कुण्ड का विधान कहा गया है। कोई कोई तन्त्रवेत्ता चतुरस्र कुण्ड सभी के लिये विहित है - ऐसा कहते हैं। कुण्ड के स्वरूप को प्रकृति का परम रूप जानना चाहिए ।। ८७-८८ ॥

प्राच्यां शिरः समाख्यातं बाहू दक्षिणसौम्ययोः ।

उदरं कुण्डमित्युक्तं योनिः पादौ तु पश्चिमे ॥ ८९ ॥

पूर्व में प्रकृति का शिर है, दक्षिण तथा उत्तर में बाहू हैं कुण्ड उसका उदर है, पश्चिम की ओर की योनि उसका पैर है ॥ ८९ ।।

स्थण्डिललक्षणम्

नित्यं नैमित्तिकं काम्यं स्थण्डिले वा समाचरेत् ।

हस्तमात्रेण तत् कुर्यात् बालुकाभिः सुशोभनम् ॥ ९० ॥

अङ्गुलोत्सेधसंयुक्तं चतुरस्त्रं समन्ततः ।

एवं प्रोक्तानि कुण्डानि कथ्यते स्रुक्स्रुवौ ततः ॥ ९१ ॥

अब कुण्ड का अनुकल्प कहते हैंकुण्ड के अभाव में नित्य नैमित्तिक तथा काम्य कर्म स्थण्डिल में ही करना चाहिए । स्थण्डिल का प्रमाण हस्तमात्र कहा गया है । उसे बालुका से अच्छी तरह सुशोभित करना चाहिए। उसकी ऊँचाई एक अङ्गुल की होनी चाहिए तथा उसे चौकोर बनाना चाहिए। यहाँ तक हमने कुण्ड का वर्णन किया । अब स्रुक तथा स्रुवा का वर्णन करता हूँ ।। ९०-९१ ॥

स्रुगादिलक्षणम्

प्रकल्पयेत् स्रुचं यागे वक्ष्यमाणेन वर्त्मना ।

श्रीपर्णी शिंशपाक्षीरशाखिष्वेकतम (मयं) गुरुः ॥ ९२ ॥

गृहीत्वा विभजेद्धस्तमात्रं षट्त्रिंशता पुनः ।

विंशत्यंशैर्भवेद्दण्डो वेदी तैरष्टभिर्भवेत् ॥ ९३॥

एकांशेन मितः कण्ठः सप्तभागमितं मुखम् ।

वेदीत्र्यंशेन विस्तारः कण्ठस्य परिकीर्त्तितः ॥ ९४ ॥

अयं कण्ठसमानं स्यान्मुखे मार्गं प्रकल्पयेत् ।

कनिष्ठाङ्गुलिमानेन सर्पिषो निर्गमाय च ॥ ९५ ॥

यज्ञकार्य में आगे कही जाने वाली विधि के अनुसार स्रुचा का निर्माण करना चाहिए । आचार्य श्रीपर्णी, शिंशपा अथवा बटादि क्षीरीवृक्ष में किसी एक की शाखा एक हाथ प्रमाण में ले आवे। पुनः उसे छत्तीस भागों में प्रविभक्त करे । जिसमें बीस भाग दण्ड के लिये छोड़ देवे और आठ भाग वेदी के लिये छोड़े, एक भाग में कण्ठ तथा सात भाग में मुख बनावे । वेदी के तीन अंश में कण्ठ का विस्तार कहा गया है । उसका अग्रभाग (मुख) कण्ठ के समान अर्थात् वेदी के तीन भाग पर्यन्त विस्तृत होना चाहिए। मुख में घी गिरने के लिये कनिष्ठाङ्गुलि के प्रमाण का छिद्र करना चाहिए ।। ९२- ९५ ॥

वेदीरचनाविधिः

वेदिमध्ये विधातव्या भागेनैकेन कर्णिका ।

विदधीत बहिस्तस्या एकांशेनाऽभितोऽवटम् ॥ ९६ ॥

तस्य खात त्रिभिर्भागैर्वृत्तमर्द्धांतो भवेत् ।

अंशेनैकेन परितो दलानि परिकल्पयेत् ।

मेखला मुखवेद्योः स्यात् परितोऽर्द्धांशमानतः ॥ ९७ ॥

वेदी के मध्य में एक भाग से कर्णिका का निर्माण करना चाहिए। उसके बाहर चारों ओर एक अंश में गर्त्त बनाना चाहिए। तीन भाग (दो अंगुल) में उसका खात तथा आधे अंश (एक अङ्गुल) में उसका वृत्त बनाना चाहिए । उसके चारों ओर एक अंश (अगुल) में दलों का निर्माण करना चाहिए । पुनः मुख और वेदी के मध्य में मेखला का निर्माण चारों ओर आधे अगुल के प्रमाण में करना चाहिए ।। ९६-९७ ।।

दण्डमूलाग्रयोः कुम्भौ गुणवेदाङ्गलैः क्रमात् ।

गण्डीयुगं यमांशैः स्याद्दण्डस्यानाह ईरितः ॥ ९८ ॥

षड्भिरंशैः पृष्ठभागो वेद्याः कूर्माकृतिर्भवेत् ।

हंसस्य वा हस्तिनो वा पोत्रिणो वा मुखं लिखेत् ।

मुखस्य पृष्ठभागेऽस्याः सप्रोक्तं लक्षणं स्रुचः ॥ ९९ ॥

दण्ड तथा मूल के अग्रभाग में तीन और चार अङ्गुल के क्रम से दो कुम्भ का निर्माण करे। दो दो अगुल का दो गण्डी (कङ्कणाकार) निर्माण करे। दण्ड की विशालता छः अंशों में करनी चाहिए। वेदी का पृष्ठभाग कूर्म की पीठ के आकार का होना चाहिए। स्रुचा के पृष्ठभाग में हंस, हाथी अथवा शूकर का मुख निर्माण करे ।। ९८-९९ ॥

स्रुवलक्षणम्

स्रुचश्चतुर्विंशतिभिर्भागैरारचयेत् स्रुवम् ।

द्वाविंशत्या दण्डमानमंशैरेतस्य कीर्त्तितम् ॥ १०० ॥

स्रुचा के चौबीस भाग में खुब का निर्माण करना चाहिए। जिसमें २२ बाइस भाग दण्ड के लिये छोड़ना चाहिए ॥ १०० ॥

चतुर्भिरंशैरानाहः कर्षाज्यग्राहि तच्छिरः ।

अंशद्वयेन निखनेत् पङ्के मृगपदाकृति ॥ १०१ ॥

चार अंशों में उसका विस्तार तथा शिर दो अंशों में उसका १६ माष प्रमाण में शिर निर्माण करना चाहिए। जिस प्रकार पङ्क में मृग का पैर धँसता है, उसी प्रकार उसका खात होना चाहिए ।। १०१ ॥

विमर्श - दश गुञ्जा का एक माष होता है और १६ माष का एक कर्ष होता है ।

दण्डमूलाग्रयोर्गण्डी भवेत् कङ्कणभूषिता ।

स्रुवस्य विधिराख्यातः कीर्त्यन्ते मण्डलान्यथ ॥ १०२ ॥

दण्ड के मूलभाग तथा अग्रभाग में कङ्कणाभूषित गण्डी होनी चाहिए । यहाँ तक स्रुव के निर्माण की विधि कही गई । अब सर्वतोभद्र मण्डल की विधि कहते हैं ॥ १०२ ॥

सर्वतोभद्रमण्डलरचनामाह

चतुरस्त्रे चतुः कोष्ठे कर्णसूत्रसमन्विते ।

चतुर्ष्वपि च कोष्ठेषु कोणसूत्रचतुष्टयम् ॥ १०३ ॥

मध्ये मध्ये यथा मत्स्या भवेयुः पातयेत्तथा ।

पूर्वापराद्वे मन्त्री याम्योत्तरायते ॥ १०४ ॥

पातयेत्तेषु मत्स्येषु समं सूत्रचतुष्टयम् ।

पूर्ववत् कोणकोष्ठेषु कर्णसूत्राणि पातयेत् ॥ १०५ ॥

सर्वतोभद्रमण्डल विधान- दो दो कर्णसूत्र से युक्त चार कोष्ठक का एक चौकोर बनावे। फिर चारों कोष्ठकों में प्रत्येक में चार चार कोष्ठक जिस प्रकार हों उस प्रकार दो पूर्व से पश्चिम तथा दो उत्तर से दक्षिण क्रम से मध्य मध्य में चिह्न लगा देना चाहिए । पुनः उन चिन्हों पर भी प्रत्येक कोण कोष्ठक में चार चार सूत्र लगा कर चार चिन्ह करे ।। १०३-१०५ ॥

तदुद्भूतेषु मत्स्येषु दद्यात् सूत्रचतुष्टयम् ।

ततः कोष्ठेषु मत्स्याः स्युस्तेषु सूत्राणि पातयेत् ॥ १०६ ॥

यावच्छतद्वयं मन्त्री षट्पञ्चाशत् पदान्यपि ।

तावत्तेनैव विधिना तत्र सूत्राणि पातयेत् ॥ १०७ ॥

पुनः इसी प्रकार निष्पन्न प्रत्येक कोण कोष्ठक में चार चार चिन्ह करे। इस प्रकार तब तक सूत्र के द्वारा उस विधि से चिन्ह लगाते रहना चाहिए जब तक कुल दो सौ छप्पन कोष्ठक नहीं बन जाते ।। १०६-१०७ ।।

षट्त्रिंशता पदैर्मध्ये लिखेत् पद्मं स (सु) लक्षणम् ।

बहिः पङ्क्या भवेत् पीठं पङ्गियुग्मेन वीथिका ॥ १०८ ॥

अब कोष्ठकों की उपयोगिता कहते हैं-

मध्य में रहने वाले ३६ कोष्ठकों में सुलक्षण कमल का वक्ष्यमाण विधि से निर्माण करे । उसके बाहर चारों ओर २८ कोष्ठकों में आगे कहे जाने वाली विधि के अनुसार, पीठ निर्माण करे। उसके बाहर चारों ओर दो पंक्ति में अर्थात् ८० कोष्ठकों में आगे कही जाने वाली विधि के अनुसार वीथि का निर्माण करे ॥ १०८ ॥

द्वारशोभोपशोभास्त्रान् शिष्टाभ्यां परिकल्पयेत् ।

शास्त्रोक्तविधिना मन्त्री ततः पद्मं समालिखेत् ॥ १०९ ॥

उसके बाहर शेष दो पंक्तियों में अर्थात् एक सौ बारह ११२ कोष्ठकों में द्वार, शोभा, उपशोभा, अस्त्र तथा कोणों का वक्ष्यमाण रीति से निर्माण करे । अब मन्त्रज्ञ जिस प्रकार शास्त्रोक्तरीति से पद्म का निर्माण करे उसका प्रकार कहते हैं ॥ १०९ ॥

पद्मक्षेत्रस्य सन्त्यज्य द्वादशांशं बहिः सुधीः ।

तन्मध्यं विभजेद् वृत्तस्त्रिभिः समविभागतः ॥ ११० ॥

आद्यं स्यात् कर्णिकास्थानं केशराणां द्वितीयकम् ।

तृतीयं तत्र (पद्म) पत्राणामुक्तांशेन दलाग्रकम् ॥ १११ ॥

बुद्धिमान् आचार्य पद्म क्षेत्र की लम्बाई को १२ भागो में प्रविभक्त कर उसका बाहरी एक भाग (= बारहवाँ भाग) छोड़ देवे। शेष क्षेत्र को समविभाग के अनुसार तीन वृत्तों में प्रविभक्त करे। उसमें आद्यवृत्त कर्णिका का स्थान है। दूसरा वृत्त केशरों का स्थान है तथा तीसरा वृत्त पद्म पत्रों का स्थान कहा जाता है, शेष द्वादशांश में दान के लिये निर्माण किये जाने वाले वृत्त का प्रकार आगे कहेंगे ॥ ११०- १११ ॥

बाह्यवृत्तान्तरालस्य मानं यद् विधिना सुधीः ।

निधाय केशराग्रेषु परितोऽर्द्धनिशाकरान् ॥ ११२ ॥

लिखित्वा संन्धिसंस्थानि तत्र सूत्राणि पातयेत् ॥ ११३ ॥

बुद्धिमान् आचार्य बाह्यवृत्त (पत्रावृत्त) के मध्य में जितना अन्तराल हो उतने प्रमाण से केशरा वृत्त के आगे सूत्र रखकर विधिपूर्वक दोनों ओर से अर्ध चन्द्राकार आकृति बनावें । इस प्रकार आठ अर्द्धचन्द्राकार आकृति का निर्माण हो जायेगा ॥ ११२-११३ ॥

दलायाणाञ्च यन्मानं तन्मानं वृत्तमालिखेत् ।

तदन्तराले तन्मध्य सूत्रस्योभयतः सुधीः ।

आलिखेद्बाह्यहस्तेन दलाग्राणि समन्ततः ॥ ११४ ॥

इस प्रकार बनाये गये चतुर्थ वृत्त के अन्तराल में पत्रमध्य सूत्र के दोनों ओर बुद्धिमान् आचार्य वाह्य हस्त से चारों ओर से दलाग्र इस प्रकार बनावे जिस प्रकार मनोहर अष्टदल कमल का निर्माण हो जावे ॥ ११४ ॥

दलमूलेषु युगशः केशराणि प्रकल्पयेत् ।

एतत् साधारणं प्रोक्तं पङ्कजं तन्त्रवेदिभिः ॥ ११५ ॥

अब केशरों की रचना का प्रकार कहते हैं- प्रत्येक दल के मूल भाग में दो दो केशर का निर्माण करे। इस प्रकार तन्त्रवेत्ताओं ने सामान्य रूप से पंकज के निर्माण का प्रकार कहा है ॥ ११५ ॥

पदानि त्रीणि पादार्थं पीठकोणेषु मार्जयेत् ।

अवशिष्टैः पदैर्विद्वान् गात्राणि परिकल्पयेत् ॥ ११६ ॥

अब पीठ की रचना का प्रकार कहते हैं-पीठ के लिये स्थापित पंक्ति में एक एक कोण के कोष्ठ तथा उसके पार्श्व के दो दो कोष्ठ इस प्रकार कुल तीन कोष्ठ पीठ के पाद के लिये रंग देवे। विद्वान् साधक शेष चार कोष्ठक से पीठ का गात्र निर्माण करें ॥ ११६ ॥

पदानि वीथिसंस्थानि मार्जयेत् पङ्कयभेदतः ।

दिक्षु द्वाराणि रचयेद् द्विचतुः कोष्ठकैस्ततः ॥ ११७ ॥

वीथी के लिये संस्थापित दोनों पंक्तियों को एक प्रकार के रंग से रंग देवे । पुनः साधक चार दिशाओं में दो कोष्ठक तथा चार कोष्ठकों में चार द्वार का निर्माण करे ॥ ११७ ॥

पदैस्त्रिभिरथैकेन शोभाः स्युर्द्वारपार्श्वयोः ।

उपशोभाः स्युरेकेन त्रिभिः कोष्ठैरनन्तरम् ।

अवशिष्टैः पदैः षड्भिः कोणानां स्याच्चतुष्टयम् ॥ ११८॥

द्वार के भीतरी पार्श्व भाग में स्थित तीन तीन कोष्ठ तथा वाह्य स्थित कोष्ठ के एक-एक कोष्ठ को रँग देना चाहिए। इस प्रकार आठ शोभा के स्थान निर्माण करना चाहिए । पुनः पंक्ति के भीतरी भाग में शोभा से सटे हुये दोनों ओर एक एक कोष्ठक तथा बाहर के तीन तीन कोष्ठकों को रंग देवे । इस प्रकार आठ उपशोभा बनाना चाहिए । पुनः भीतरी पंक्ति में उपशोभा से लगे हुये दोनों ओर तीन तीन कोष्ठक तथा बाहर पंक्ति में स्थित तीन तीन कोष्ठकों को रंग देवे । ऐसा करने से चार कोण बन जायेंगे ॥ ११८ ॥

रञ्जयेत् पञ्चभिर्वर्णैर्मण्डलं तन्मनोहरम् ।

पीतं हरिद्राचूर्णं स्यात् सितं तण्डुलसम्भवम् ॥ ११९॥

कुसुम्भचूर्णमरुणं कृष्णं दग्धपुलाकजम् ।

विल्वादिपत्रजं श्याममित्युक्तं वर्णपञ्चकम् ॥ १२०॥

अङ्गुलोत्सेधविस्तारा: सीमारेखाः सिताः शुभाः ।

कर्णिकां पीतवर्णेन केशराण्यरुणेन च ॥ १२१ ॥

सर्वतोभद्रमण्डल को पंचरंगे रंग से भली प्रकार रंग देना चाहिए, जिससे उसकी शोभा निखर उठे । हरिद्रा के चूर्ण का पीत रंग, चावल को कूट कर सफेद रंग, कुसुम्भ के पुष्प का अरुण रंग, जलाये गये तुच्छ धान्य का कृष्ण रंग तथा बिल्वादि पत्र को कूट कर श्याम रंग तैयार करे। इस प्रकार पाँचों वर्ण का वर्णन किया । सर्वतोभद्रमण्डल की सीमा रेखा को एक अङ्गुल की ऊँचाई से सफेद चावल से रंग देना चाहिए। कर्णिकाओं को पीतवर्ण के रंग से तथा केशरों को लाल रंग से रंग देवे ॥ ११९-१२१ ॥

शुक्लवर्णेन पत्राणि तत्सन्धिं श्यामलेन च ।

रजसा रञ्जयेन्मन्त्री यद्वा पीतैव कर्णिका ॥ १२२ ॥

केशराः पीतरक्ताः स्युररुणानि दलान्यपि ।

सन्धयः कृष्ण (शुक्ल) वर्णाः स्युः पीतेनाऽप्यसितेन वा ॥ १२३ ॥

अष्ट पत्रों को शुक्लवर्ण से, उनकी सन्धियों को श्याम वर्ण से, कर्णिकाओं को लाल रंग से अथवा पीत वर्ण से मन्त्रवेत्ता आचार्य रंग देवे । केशर को पीत तथा रक्त वर्ण से, पत्रों को लाल रंग से, सन्धियों को काले, श्वेत एवं पीत अथवा सफेद रंग को छोड़कर जिस किसी भी रंग से रंग देवे ।। १२२-१२३ ॥

रञ्जयेत् पीठगर्भाणि पादाः स्युररुणप्रभाः ।

गात्राणि तस्य शुक्लानि वीथीषु च चतसृषु ॥ १२४ ॥

आलिखेत् कल्पलतिका दलपुष्पफलान्विताः ।

वर्णैर्नानाविधैश्चित्रैः सर्वदृष्टिमनोहराः ॥ १२५ ॥

पीठ के कोण तथा पाद अरुणवर्ण का होना चाहिए। उसका गात्र शुक्ल वर्ण का होना चाहिए । तदनन्तर चारों वीथियों में पत्ते पुष्प से समन्वित कल्पलतिका का निर्माण करे। यह कल्पलता नाना प्रकार के वर्णों से चित्रित होनी चाहिए जिससे देखने में मनोहर लगे ॥ १२४-१२५ ॥

द्वाराणि श्वेतवर्णानि शोभा रक्ताः समीरिताः ।

उपशोभाः पीतवर्णाः कोणान्यसितभानि च ॥ १२६ ॥

द्वार श्वेत वर्ण के और शोभास्थान रक्तवर्ण का होना चाहिए। इसी प्रकार उपशोभा पीतवर्ण का तथा कोण काले रंग में रँगना चाहिए ।। १२६ ॥

तिस्रो रेखा बहिः कुर्यात् सितरक्तासिताः क्रमात् ।

मण्डलं सर्वतोभद्रमेतत् साधारणं स्मृतम् ॥ १२७ ॥

इसके बाद बाहर तीन रेखा क्रमशः श्वेत, रक्त तथा काले वर्ण की बनानी चाहिए । यह साधारण सर्वतोभद्रमण्डल कहा जाता है ।। १२६-१२७ ॥

मण्डलान्तरम्

चतुरस्त्रां भुवं भित्वा दिग्भ्यो द्वादशधा सुधीः ।

पातयेत्तत्र सूत्राणि कोष्ठानां दृश्यते शतम् ॥ १२८ ॥

चतुश्चत्वारिंशदाढ्यं पश्चात् षट्त्रिंशताऽम्बुजम् ।

कोष्ठैः प्रकल्पयेत् पीठं पङ्कयां नैवात्र वीथिकाः ॥ १२९॥

अब दूसरे प्रकार का मण्डल कहते हैं- विद्वान् चारों ओर से चौकोर भूमि का विभाग १२ भागों में करे । उसमें इस प्रकार से सूत्र लगावें जिससे १४४ कोष्ठक हो जावें । तदनन्तर उसमें बीच के ३६ कोष्ठकों में कमल का निर्माण करे। इसमें वीथी न बनावे ॥ १२८-१२९ ॥

द्वारशोभे यथापूर्वमुपशोभा न दृश्यते ।

अवशिष्टैः पदैः कुर्यात् षड्भिः कोणानि तन्त्रवित् ।

विदध्यात् पूर्ववच्छेषमेवं वा मण्डलं शुभम् ॥ १३० ॥

पूर्ववत् द्वारशोभा बनावे । किन्तु उपशोभा न बनावे । शेष बचे हुये छ: छः कोष्ठकों को रंग देवे और बाहर तीन रेखा का निर्माण कर देवे । इस प्रकार से एक पङ्कज नामक शुभमण्डल का निर्माण करना चाहिए ॥ १३० ॥

नवनाभमण्डलम्

चतुरस्त्रे चतुःषष्टिपदान्यारचयेत् सुधीः ।

पदैश्चतुर्भिः पद्मं स्यान्मध्ये तत्परितः पुनः ॥ १३१ ॥

चतस्रः कुर्वीत मण्डलान्तावसानिकाः ।

दिग्गतेषु चतुष्केषु पङ्कजानि समालिखेत् ॥ १३२ ॥

विदिग्गतचतुष्काणि भित्वा षोडशधा सुधीः ।

मार्जयेत् स्वस्तिकाकारं श्वेतपीतारुणासितैः ॥ १३३ ॥

अब नवनाभमण्डल का क्रम कहते हैं- पूर्ववत् चतुरस्र (चौकोर ) रेखा खींचकर उसमें ६४ कोष्ठक बनाकर उसके मध्य के चार चार कोष्ठकों में पद्म का निर्माण करे । फिर उसके चारों ओर आठ आठ कोष्ठक और चार वीथि बनावे । उसके बाद चारों दिशाओं में आठ आठ कोष्ठ में चार वीथि बनावे। इस प्रकार आठों दिशाओं में चार कोष्ठाष्टक शेष रहेगा । उसमें चारों दिशाओं में चार चार कोष्ठों में चार कमल बनावे और कोणो में रहने वाले चार चार कोष्ठों को लेकर १६ कोष्ठकों को चावल से भर देवे। ऐसा करने से वह स्वस्तिकाकार सम्पन्न हो जायगा ।। १३१-१३३ ॥

रजोभिः पूरयेत्तानि स्वस्तिकानि शिवादितः ।

प्राक् प्रोक्तेनैव मार्गेण शेषमन्यत् समापयेत् ।

नवनाभमिदं प्रोक्तं मण्डलं सर्वसिद्धिदम् ॥ १३४॥

ईशान कोण से आरम्भ कर वायव्य पर्यन्त सभी स्वस्तिक चिन्हों को पूर्व में कही गई विधि के अनुसार रंग देवे । तदनन्तर कमलों को रंग कर वीथी में कल्पलतादि निर्माण कर इस कार्य को समाप्त करे। यह नवनाभ नामक मण्डल जो कहा गया हैसभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है ॥ १३४ ॥

पञ्चाब्जमण्डलम्

पञ्चाब्जं मण्डलं प्रोक्तमेतत् स्वस्तिकवर्जितम् ।

दीक्षायां देवपूजार्थं मण्डलानां चतुष्टयम् ।

सर्वतन्त्रानुसारेण प्रोक्तं सर्वसमृद्धिदम् ॥ १३५ ॥

इस प्रकार स्वस्तिक रहित पञ्चाब्जमण्डल कहा गया है। दीक्षा के लिये किये जाने वाले पूजा कार्य में जिन चार प्रकार के मण्डलों की आवश्यकता होती है उसका वर्णन सभी तन्त्रों के अनुसार हमने यहाँ किया जो सर्व समृद्धियों को देने वाला है ॥ १३५ ॥

॥ इति श्रीलक्ष्मणदेशिकेन्द्रविरचिते शारदातिलके तृतीयः पटलः समाप्तः ॥ ३ ॥

॥ इस प्रकार शारदातिलक के तीसरे पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ३ ॥

आगे जारी........ शारदातिलक पटल 4

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