शारदातिलक पटल ४
शारदातिलक पटल ४ पटल दीक्षा प्रकरण
है । दीक्षा शब्द की व्युत्पत्ति एवं विभिन्न प्रकार की दीक्षाओं का वर्णन इस पटल
में किया गया है । लोकपाल पूजा एवं अग्निसंस्कार का वर्णन है ।
शारदातिलक पटल ४
Sharada tilak patal 4
शारदातिलकम् चतुर्थः पटल:
शारदातिलकतन्त्रम् (प्रथमो भागः )
शारदा तिलक तन्त्र चौथा पटल
शारदातिलकम्
चतुर्थ पटल
अथ चतुर्थः पटलः
अथ दीक्षाप्रकरणम्
अथ दीक्षां प्रवक्ष्यामि मन्त्रिणां
हितकाम्यया ।
विना यया न लभ्येत सर्वमन्त्रफलं
यतः ॥ १ ॥
दीक्षा के द्वारा जो मन्त्र ग्रहण किया
जाता है,
वही फलप्रद होता है । इसलिये मन्त्र साधन में दीक्षा की आवश्यकता
है। अतः ग्रन्थकार दीक्षा का क्रम कहते हैं- अब मैं शिष्यों के हित के लिये दीक्षा
की विधि कहता हूँ। क्योंकि दीक्षा के बिना सभी प्रकार के मन्त्रों का फल प्राप्त
नहीं होता है ॥ १ ॥
दीक्षाशब्दव्युत्पत्तिः
दिव्यं ज्ञानं यतो दद्यात् कुर्यात्
पापस्य संक्षयः ।
तस्माद् दीक्षेति संप्रोक्ता
देशिकैस्तन्त्रवेदिभिः ॥ २ ॥
दीक्षाया
क्रियावत्यादिभेदः
चतुर्विधा सा सन्दिष्टा
क्रियावत्यादिभेदतः ।
क्रियावती वर्णमयी कलात्मा
वेधमय्यपि ॥ ३ ॥
यतः दीक्षा दिव्यज्ञान प्रदान करती
है और समस्त पापों का क्षय करती है, इसलिये
तन्त्रवेत्ता आचार्यों ने उसे 'दीक्षा' कहा है। यह दीक्षा क्रियावती, वर्णमयी, कलात्मा और वेधमयी भेद से चार प्रकार की कही गई है॥२-३॥
ताः क्रमेणैव कथ्यन्ते
तन्त्रेऽस्मिन् सम्पदावहाः ॥ ४ ॥
क्रियावतीदीक्षाविधिः
देशिको विधिवत् स्नात्वा कृत्वा
पौर्वाह्निकीः क्रियाः ।
यायादलङ्कृतो मौनी यागार्थं
यागमण्डपम् ॥ ५ ॥
ये सभी दीक्षायें ऐश्वर्य प्रदान
करने वाली हैं। अतः उन सभी प्रकार की दीक्षाओं को इस तन्त्रशास्त्र में कहता हूँ ।
सर्वप्रथम दीक्षा देने वाला आचार्य विधिवत् स्नान करे । तदनन्तर पूर्वाहण की सारी
क्रिया संपादन कर शुचि और अलङ्कार युक्त हो मौन धारण कर यज्ञ के लिये याग मण्डप
में जावे ॥ ४-५ ॥
शाक्तादिभेदेनाचमनभेदः
आचम्य विधिना तत्र सामान्यार्ध्यं
विधायच ।
द्वारमस्त्राम्बुभिः प्रोक्ष्य
द्वारपूजां समाचरेत् ॥ ६ ॥
विधिपूर्वक आचमन करने के अनन्तर
सामान्यार्घ्य का निर्माण कर अर्घ पात्र को (ॐ ह्रः द्वारार्घ्यं साधयामि) यह
मन्त्र पढ़ कर द्वार पर रखे । पुनः यागमण्डप के द्वार को अस्त्र मन्त्र (अस्त्राय
फट् ) द्वारा प्रक्षालित करे । फिर द्वार की पूजा करे ॥ ६ ॥
द्वारपूजाविधिः
ऊर्ध्वोडुम्बरके विघ्नं महालक्ष्मी
सरस्वतीम् ।
ततो दक्षिणशाखायां विघ्नं
क्षेत्रेशमन्यतः ॥ ७ ॥
सर्वप्रथम द्वार के ऊपर
ऊद्धोंडुम्बरक काष्ठ में विघ्न, महालक्ष्मी,
और महासरस्वती की पूजा करे। फिर द्वार के दक्षिण भाग में विघ्न और
क्षेत्रेश की पूजा करे ।। ७ ।।
विमर्श
-द्वार के दोनों खम्भों पर ऊपर तिरछे लगे हुये काष्ठ को ऊद्धडुम्बरक कहते है ।
तयोः पार्श्वगते गङ्गायमुने
पुष्पवारिभिः ।
देहल्यामर्चयेदस्त्रं
प्रतिद्वारमिति क्रमात् ॥ ८ ॥
द्वार के वाम भाग में पुष्प के जल
से गङ्गा और यमुना की पूजा करे । तदनन्तर देहली में ‘ॐ ह्रः अस्त्राय फट् नमः' इस मन्त्र को पढ़कर अस्त्र
की पूजा करे ॥ ८ ॥
विघ्नापसारणम्
अनन्तरं देशिकेन्द्रो
दिव्यदृष्ट्यवलोकनात् ।
दिव्यानुत्सारयेद्
विघ्नानस्त्रादिद्भिश्चान्तरीक्षगान् ॥ ९ ॥
पुनः आचार्य अपने में शिव की भावना
करते हुये अपनी दिव्य दृष्टि से मण्डपस्थ दिव्य विघ्नों को दूर करे और सामान्य
अर्घ्य पात्र के जल से अन्तरिक्ष में रहने वाले विघ्नों को दूर करे ।। ९ ।।
पार्ष्णिघातैस्त्रिभिभौमानिति
विघ्नान्निवारयेत् ॥ १० ॥
तीन पादाघात पृथ्वी पर देकर 'अपसर्पन्तु ते भूताः' आदि मन्त्र से भूमिगत समस्त
विघ्नों को दूर करे ॥ १० ॥
गृहप्रवेश:
किञ्चित् स्पृशन् वामशाखां देहलीं
लङ्घयेद् गुरुः ।
अङ्गं सङ्कोचयन्नन्तः
प्रविशेद्दक्षिणाङ्घ्रिणा ॥ ११ ॥
इस प्रकार समस्त विघ्नों का उत्सारण
कर गुरु अपने अङ्गों को संकुचित करते हुये द्वार के वाम भाग का स्पर्श करते हुये
स्वयं देहली को पार करे । मण्डप के भीतर दाहिना पैर रख कर प्रवेश करे ॥ ११ ॥
नैर्ऋत्यां दिशि वास्त्वीशान्
ब्रह्माणञ्च समर्चयेत् ।
पञ्चगव्यार्घ्यतोयाभ्यां
प्रोक्षयेद् यागमण्डपम् ॥ १२ ॥
मण्डप के नैर्ऋत्य दिशा में
क्षेत्रपाल और ब्रह्मदेव का पूजन करे । पञ्चगव्य और अर्घ्य स्थित जल से याग मण्डप
का प्रोक्षण करे ॥ १२ ॥
चतुष्पथान्तं तच्छुद्धिं विदध्याद्
वीक्षणादिना ।
वीक्षणं मूलमन्त्रेण शरेण प्रोक्षणं
मतम् ॥ १३॥
आचार्य मूल मन्त्र पढ़कर चतुष्पथ
पर्यन्त भूमि को स्ववीक्षणादि द्वारा शुद्ध करे । पुनः अस्त्र मन्त्र ॐ ह्रः
(अस्त्राय फट्) तथा कवच मन्त्र (कवचाय हुँ) को पढ़कर याग मण्डप का प्रोक्षण करे ॥
१३ ॥
विमर्श
- मण्डप से बाहर तोरण स्तम्भ पर्यन्त एक हाथ की भूमि को चतुष्पथ कहते हैं ॥ १३ ॥
तेनैव ताडनं
दर्भैर्वर्मणाऽभ्युक्षणं मतम् ।
चन्दनागुरुकर्पूरैर्धूपयेदन्तरं
सुधीः ॥ १४ ॥
अस्त्र मन्त्र पढ़कर दर्भ से ताडन
करे और कवच मन्त्र पढ़ कर अभ्युक्षण करने के पश्चात् बुद्धिमान् आचार्य चन्दन,
अगुरु तथा कपूर का धूप देवे ॥ १४ ॥
विकिरान् विकिरेत् तत्र
सप्तजप्तांश्छराणुना ।
लाजाचन्दनसिद्धार्थभस्मदूर्वाङ्कुशाक्षताः
॥ १५ ॥
विकिरा इति सन्दिष्टाः
सर्वविघ्नौघनाशनाः ।
अस्त्रजप्तेन दर्भाणां मुष्टिना
मार्जयेच्च तान् ॥ १६ ॥
पुनः अस्त्र मन्त्र को सात बार पढ़
कर कुछ विकिरों को यज्ञ मण्डप में विकीर्ण करे । लावा-चन्दन,
सिद्धार्थ (पीली सरसों), भस्म, दूर्वा, और अक्षत ये विकिर कहे जाते हैं। ये विकिर,
सभी विघ्नों का नाश करने वाले हैं, अतः अस्त्र
मन्त्र मढ़कर दर्भयुक्त मुष्टि से उन विकिरों का मार्जन करना चाहिए । १५-१६ ॥
वर्द्धन्यासनम्
ईशस्य दिशि वर्द्धन्या आसनाय
प्रकल्पयेत् ।
पुण्याहं वाचयित्वा तु ब्राह्मणान्
परितोष्य च ॥ १७ ॥
उक्तेषु मण्डलेष्वेकं वेदिकायां
समालिखेत् ।
विशेन्मृद्वासने मन्त्री प्राङ्मुखो
वाप्युदङ्मुखः ॥ १८ ॥
इतनी क्रिया कर लेने के पश्चात्
वर्द्धनी रखने के लिये शेष विकिरों को ईशान कोण में आसन के रूप में रखना चाहिए।
तदनन्तर पुण्याहवाचन कर ब्राह्मणों को दक्षिणा से संतुष्ट कर वेदिका के ऊपर कहे
गये मण्डलों में किसी एक मण्डल (सर्वतोभद्र) का निर्माण करे ।। १७-१८ ॥
बद्ध पद्मासनो मौनी
समाहितजितेन्द्रियः ।
स्थापयेद्दक्षिणे भागे
पूजाद्रव्याणि देशिकः ॥ १९ ॥
मन्त्रवेत्ता स्वयं पूर्वाभिमुख
अथवा उत्तराभिमुख हो कोमल आसन पर पद्मासन लगा कर, मौन हो, अपनी इन्द्रियों को वश में रख कर सुखपूर्वक
बैठे और अपनी दाहिनी ओर पुष्पादि पूजा के समस्त उपकरणों को स्थापित करे ॥ १९ ॥
पात्रासादनम्
सुवासिताम्बुसम्पूर्णं सव्ये कुम्भं
सुशोभनम् ।
प्रक्षालनाय करयोः पश्चात् पात्रं
निवेशयेत् ॥ २० ॥
घृतप्रज्ज्वालितान् दीपान्
स्थापयेत् परितः शुभान् ।
दर्पणं चामरं छत्रं तालवृन्तं
मनोहरम् ॥ २१ ॥
मङ्गलाङ्कुर पात्राणि
स्थापयेद्दिक्षु देशिकः ।
बाईं ओर कर्पूरादि से सुवासित शोभा
युक्त जलपूर्ण घट स्थापित करे । हस्तप्रक्षालन के लिये पीछे की ओर जलपात्र स्थापित
करे। घी से जलते हुये शोभा युक्त दीपों को अपने चारों ओर स्थापित करे और दिशाओं
में मनोहर दर्पण, मनोहर चामर,
मनोहर छत्र, मनोहर ताड़पत्र का पंखा और मनोहर मङ्गलांकुर
पात्रों को भी स्थापित करें ॥२०-२२॥
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा
वामदक्षिणपार्श्वयोः ॥ २२ ॥
भूतशुद्धिः
नत्वा गुरून् गणेशानं भूतशुद्धिं
समाचरेत् ।
करशुद्धिं समासाद्य पश्चात्तालत्रयं
ततः ॥ २३ ॥
उद्धर्द्धमस्त्रमन्त्रेण
दिग्बन्धमपि देशिकः ।
तेन सञ्जनितं तेजो रक्षां कुर्यात्
समन्ततः ॥ २४ ॥
पुनः हाथ जोड़कर अपनी बाईं ओर तथा
दाहिनी ओर (ॐ गुं गुरुभ्यो नमः, ॐ गं गणपतये
नमः इस मन्त्र से ) गुरु तथा गणपति को नमस्कार कर भूतशुद्धि करे । इस प्रकार हाथ
शुद्ध कर लेने के पश्चात् अस्त्र मन्त्र पढ़कर (त्रिशूलाग्र अंगुलि करके
अस्त्रमुद्रा से) ऊपर और नीचे तीन ताल दे कर दिग्बन्धन करे। क्योंकि उस ताल से
उत्पन्न तेज चारों ओर से यज्ञकर्त्ता की रक्षा करता है ।। २२-२४ ॥
परमात्मन्यात्मयोजनम्
सुषुम्णावर्त्मनात्मानं परमात्मनि
योजयेत् ।
योगयुक्तेन विधिना चिन्मन्त्रेण
समाहितः ॥ २५ ॥
पुनः समाहित चित्त हो गुरूपदिष्ट
मार्ग से कुण्डलिनी को ऊपर उठाकर सहस्रार की कर्णिका में ले जाकर वहाँ पर रहने
वाले परमात्मा में अपनी आत्मा को चिन्मन्त्र के द्वारा संयुक्त करे ।। २५ ।।
कारणे तत्त्वचिन्ता
कारणे सर्वभूतानां तत्त्वान्यपि च
चिन्तयेत् ।
बीजभावेन लीनानि व्युत्क्रमात्
परमात्मनि ॥ २६ ॥
समस्त कार्य अपने कारण में लय को
प्राप्त होते हैं, इस नियम के अनुसार
समस्त बीज तत्त्व, जिसमें संहार काल में लीन रहते हैं और जो
समस्त भूतों का कारण है, उस परमात्मा में पृथ्व्यादि
तत्त्वों का भी ध्यान करे ॥ २६ ॥
ततः संशोषयेद् देहं वायुबीजेन
वायुना ।
वहिनबीजेन तेनैव संहरेत् सकलां
तनुम् ॥ २७ ॥
तदनन्तर वायुबीज (यँ) इस मन्त्र को
पढ़कर वायु को ऊपर उठा कर पूरक के द्वारा शरीर का शोषण करे। वहिन बीज (रँ) इस
मन्त्र को पढ़कर साधक अपने कलुष सहित पाप को कुम्भक के द्वारा जला देवे ॥ २७ ॥
विश्लेषयेत् तदा
दोषानमृतेनामृताम्भसा ।
आप्लाव्याप्लावयेद्
देहमापादतलमस्तकम् ॥ २८ ॥
इस प्रकार पापपुरुष का दाह कर रेचक
के द्वारा वायु बीज (यँ) से उस पाप पुरुष को अपने शरीर से बाहर निकाल देवें । पुनः
अमृत बीज (बँ) इस मन्त्र को पढ़कर अमृत रूप जल को पाद से लेकर मस्तक पर्यन्त समस्त
शरीर में प्रवाहित करते हुये शरीर को अमृत रस से परिपूर्ण करे ॥ २८ ॥
आत्मलीनतत्त्वानां
स्वस्थानप्रापणम्
आत्मलीनानि तत्त्वानि स्वस्थानं
प्रापयेत्तदा ।
जीवात्मनो हृदयाम्भोजे
आनयनम्
आत्मानं हृदयाम्भोजमानयेत्
परमात्मनः ॥ २९ ॥
सृष्टि क्रम से आत्मा में लीन
पृथ्व्यादि तत्त्वों को पुनः अपने स्थान पर ला कर स्थापित करे । इसी प्रकार अकार
से लेकर क्षकारान्त वर्णों को भी तत्तत्स्थानों में प्राप्त करावें । तदनन्तर
परमात्मा में युक्त हुये जीव को भी सहस्रार से ले आकर हृदय कमल में स्थापित करे ॥
२९ ॥
हंसन्यासादि
मनुना हंसदेवस्य
कुर्यान्त्र्यासादिकं ततः ।
ऋषिच्छन्दोदैवतानि न्यसेत्
मन्त्रस्य मन्त्रवित् ॥ ३० ॥
तदनन्तर हंसदेव के मन्त्र (हं सः)
से न्यासादि करे । पुनः मन्त्रवेत्ता उसी मन्त्र के ऋषि छन्द तथा देवता का भी
न्यास करे ॥ ३० ॥
प्राणायामः
आत्मनो मूर्द्धिन वदने हृदये च
यथाक्रमात् ।
विधाय मूलमन्त्रेण प्राणायामं
यथाविधि ॥ ३१ ॥
शिर, मुख तथा हृदय यथाक्रम न्यास के स्थान कहे गये हैं। हंस मन्त्र के जप में
उसकी विधि इस प्रकार है- 'हं पुरुषात्मने नमः शिरसि; सः प्रकृत्यात्मने नमः मुखे तथा हंसः प्रकृतिपुरुषात्मने नमः हृदये । इसके
बाद मूल मन्त्र से यथाविधि प्राणायाम करना चाहिए ॥ ३१ ॥
बहिर्मातृकान्यासादि
विदध्यान्मातृकान्यासं
मन्त्रन्यासमनन्तरम् ।
अङ्गुष्ठादिष्वङ्गुलीषु न्यसेदङ्गैः
सजातिभिः ॥ ३२ ॥
फिर वक्ष्यमाण मातृकान्यास करना
चाहिए। उसके अनन्तर वक्ष्यमाण भुवनेशी मन्त्र का न्यास करें। सजातीय अङ्गों से
अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, तर्जनीभ्यां नमः,
मध्यमाभ्यां नमः, इत्यादि क्रम से अङ्गुष्ठादि
अङ्गुलियों में करन्यास करे ॥ ३२ ॥
दिग्बन्धनम्
अस्त्रं तत्तलयोर्न्यस्य
कुर्यात्तालत्रयादिकम् ।
दिशस्तेनैव बध्नीयाच्छोटिकाभिः
समाहितः ॥ ३३ ॥
तदनन्तर दोनों हाथ के तलवों में
अस्त्र न्यास कर हाथों के द्वारा तीन ताल देकर अङ्गुष्ठ तथा तर्जनी से छोटिका लगा
कर सावधानी से दिशाओं की रक्षा करे ।। ३३ ।।
अङ्गन्यासमन्त्राः
हृदयादिषु
विन्यस्येदङ्गमन्त्रांस्ततः सुधीः ।
हृदयाय नमः पूर्वं शिरसे वहिनवल्लभा
॥ ३४ ॥
शिखायै वषडित्युक्तं कवचाय
हुमीरितम् ।
नेत्रत्रयाय वौषट् स्यादस्त्राय
फडिति क्रमात् ॥ ३५ ॥
फिर बुद्धिमान् आचार्य हृदयादि
स्थानों में अङ्ग मन्त्रों का न्यास करे । सर्वप्रथम 'हृदयाय नमः' से हृदय में, 'शिरसे
स्वाहा' से शिर में 'शिखायै वषट्'
से शिखा में, 'कवचाय हुँ' इससे दोनों बाहुओं में, 'नेत्रत्रयाय वौषट्' से दोनों नेत्रों में तथा 'अस्त्राय फट्' से शरीर के चारों ओर न्यास करे ।। ३४-३५ ॥
षडङ्गमन्त्रानित्युक्तान् षडङ्गेषु
नियोजयेत् ।
पञ्चाङ्गानि मनोर्यस्य तत्र
नेत्रमनुं त्यजेत् ॥ ३६ ॥
जहाँ मन्त्र के छः अङ्ग कहे गये हैं
वहाँ उपर्युक्त छः स्थानों में न्यास करे, किन्तु
जहाँ मन्त्र के पाँच अङ्ग हैं वहाँ 'नेत्रत्रयाय वौषट्'
इस मन्त्र का त्याग कर देना चाहिए ॥ ३६ ॥
अङ्गहीनस्य मन्त्रस्य
स्वेनैवाङ्गानि कल्पयेत् ।
तत्तत्कल्पोक्तविधिना न्यासानन्यान्
समाचरेत् ॥ ३७ ॥
जहाँ मन्त्रों के अङ्ग नहीं बताये
गये हैं,
जैसे अष्टाक्षरादि नारायण मन्त्र, वहाँ पर
स्वयं अङ्गों की कल्पना कर लेनी चाहिए और मन्त्र में कहे गये तत्कल्पोक्त विधि के
अनुसार न्यास का विधान कर लेना चाहिए ॥ ३७ ॥
आत्मयागे पीठकल्पनविधिः
कल्पयेदात्मनो देहे पीठं धर्मादिभिः
क्रमात् ।
अंसोरुयुग्मयोर्विद्वान्
प्रादक्षिण्येन देशिकः ॥ ३८ ॥
धर्मं ज्ञानञ्च वैराग्यमैश्वर्यं
न्यस्य तु क्रमात् ।
मुखपार्श्वनाभिपार्श्वेऽधर्मादींश्च
प्रकल्पयेत् ॥ ३९ ॥
धर्मादयः स्मृताः पादाः पीठगात्राणि
चापरे ।
आचार्य सर्वप्रथम अपने शरीर में
धर्मादि (धर्म, ज्ञान, वैराग्य,
ऐश्वर्य ) का न्यास कर उसी को आधार पीठ के रूप में कल्पित करे ।
प्रदक्षिण क्रम के अनुसार दाहिने कन्धे से लेकर बायें कन्धे तथा बायें ऊरु से लेकर
दाहिने ऊरु पर्यन्त क्रमशः धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य का न्यास करे । पुनः मुख, वाम
पार्श्व, नाभि तथा दक्षिण पार्श्व में अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वर्य का न्यास करे ।।
३८-३९ ॥
विमर्श -
धर्म,
ज्ञान, वैराग्य एवं ऐश्वर्य उस आधारभूत पीठ के
पैर हैं। अन्य अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य
तथा अनैश्वर्य गात्र हैं ।
अनन्तं हृदये पद्ममस्मिन्
सूर्येन्दुपावकान् ॥ ४० ॥
हृदय में वक्ष्यमाण अनन्त नामक पद्म
है,
जिसमें सूर्य-चन्द्रमा तथा पावक इन तीन मण्डलों का निवास है ॥४०॥
एषु स्वस्वकला
न्यस्येन्नामाद्यक्षरपूर्विकाः ।
सत्त्वादींस्त्रीन् गुणान्
न्यस्येत्तथैवात्र गुरूत्तमः ॥ ४१ ॥
आत्मानमन्तरात्मानं परमात्मानमत्र
तु ।
ज्ञानात्मानं प्रविन्यस्य न्यसेत्
पीठमनुं ततः ॥ ४२ ॥
इन तीन मण्डलों में नाम के आदि
अक्षर युक्त पद का सन्निवेश कर क्रमश: उनकी कलाओं का भी सन्निवेश करे। जैसे 'सूं सूर्यमण्डलं न्यसामि', ऐसा कहकर सूर्यमण्डल का
निवेश कर पश्चात् उनकी कलाओं का निवेश करे। इसी प्रकार सोममण्डल और सोमकला का तथा
वहिनमण्डल एवं वहिनकला का निवेश करे । फिर उत्तम गुरु 'सं
सत्त्वाय नमः' से सत्त्वगुण का, 'रं
रजसे नमः' से रजोगुण का तथा 'तं तमसे नमः'
से तमोगुण का भी उस पीठ में सन्निवेश करे । तदनन्तर आत्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा और ज्ञानात्मा का न्यास कर
अपने शरीर रूपी पीठ में पीठमन्त्र का न्यास करे।।४१-४२॥
विमर्श
- इसके बाद मां मायातत्त्वाय नमः, कं
कलातत्त्वाय नमः, विं विद्यातत्त्वाय नमः और पं परतत्त्वाय
नमः पद से हृत् पद्म के आठ दलों एवं मध्य में नौ पीठशक्तियों का न्यास करना चाहिए
।। ४२ ।।
तत्रेष्टदेवताचिन्तनम्
एवं देहमये पीठे
चिन्तयेदिष्टदेवताम् ।
अर्घ्यस्थापनविधिः
मुद्राः प्रदर्श्य
विधिवदर्घ्यस्थापनमाचरेत् ॥ ४३ ॥
पुनः उसी देहमयपीठ में अपने इष्टदेवता
का ध्यान कर, सविधि मुद्रा प्रदर्शित कर
अर्घ्य स्थापन की क्रिया आरम्भ करे ॥ ४३ ॥
विमर्श
- इस प्रकार विधिपूर्वक मानसी पूजा करके देवता से इस प्रकार अभ्यर्थना करे-
'ॐ स्वागतं देवदेवेश सन्निधीभाव
केशव ।
गृहाण मानसीं पूजां
यथार्थपरिभाविताम् ॥' इति ।
इस मन्त्र में सम्बोधन पद केशव के
स्थान पर तत्तद् देवों का नाम रखना चाहिए ।। ४३ ।।
शङ्खमस्त्राम्बुना प्रोक्ष्य वामतो
वह्निमण्डले ।
साधारं स्थापयेद् विद्वान्
बिन्दुस्रुतसुधामयैः ॥ ४४ ॥
तोयैः सुगन्धिपुष्पाद्यैः पूरयेत्तं
यथाविधि ।
आधारं पावकं शङ्खं सूर्यं तोयं
सुधामयम् ॥ ४५ ॥
अस्त्र मन्त्र (अस्त्राय फट्) पढ़
कर जल से शङ्ख का प्रक्षालन करे और उसे विद्वान् साधक बाई ओर अपने आगे वहिनमण्डल
में किसी आधार कुशादि पर स्थापित करे । उस अर्घ्य पात्र को चन्द्रमण्डल से झरते
हुये सुधामय बिन्दुओं से, जिसमें सुगन्धित
पुष्प कर्पूर, गुलाबजल आदि पड़े हों यथाविधि परिपूर्ण करे ।
शङ्ख के आधार पात्र में अग्निमण्डल की और उस पर स्थापित शङ्ख में सूर्यमण्डल की
तथा शङ्ख स्थित जल में चन्द्रमण्डल की भावना करे ।। ४४-४५ ॥
स्मरेद्वहन्यर्कचन्द्राणां
कलास्तास्तेष्वनुक्रमात् ।
मूलमन्त्रं जपेत् स्पृष्ट्वा
न्यसेत्तस्याङ्गमन्त्रवित् ॥ ४६ ॥
पुनः उन-उन स्थानों में क्रमशः
अग्नि,
सूर्य, तथा चन्द्रमा की कलाओं का ध्यान करे ।
तदनन्तर अङ्ग तथा मन्त्रवेत्ता विद्वान्, शङ्ख स्थित जल का
स्पर्श करते हुये मूल मन्त्र का आठ बार जप करे ॥ ४६ ॥
हृन्मन्त्रेणाभिसम्पूज्य हस्ताभ्यां
छादयन्नपः ।
जपेद्विद्यां यथान्यायं देशिको
देवताधिया ॥ ४७ ॥
पुनः दोनों हाथों से जल को आच्छादित
कर हृन्मन्त्र (अद्द्भ्यो नमः) इस मन्त्र को सात या आठ बार पढ़े। पुनः उसमें देवता
बुद्धि कर विद्यामन्त्र (अर्थात् मूल मन्त्र) का जप करे ॥ ४७ ॥
अस्त्रमन्त्रेण संरक्ष्य
कवचेनावगुण्ठ्य च ।
धेनुमुद्रां समापाद्य रोधयेत्तत्
स्वमुद्रया ॥ ४८ ॥
पुनः अस्त्र मन्त्र (अस्त्राय फट्)
से छोटिका (चुटकी) बजा कर उसकी रक्षा करे । कवच मन्त्र (कवचाय हुँ) पढ़कर उसको
चारों ओर से जल से घेर देवे । धेनु मुद्रा दिखा कर उसमें अमृतत्त्व लावे तथा
स्वमुद्रा (सन्निरोधिनी) से उसमें सन्निरुद्ध करे । इस प्रकार अवगुण्ठन मुद्रा,
धेनुमुद्रा तथा सन्निरोधन करे । विमर्श - अवगुण्ठन मुद्रा, धेनुमुद्रा, तथा सन्निरोधन मुद्रा का लक्षण तेइसवें
पटल में देखना चाहिए ॥ ४८ ॥
दक्षिणे प्रोक्षणीपात्रमाधायाऽद्भिः
प्रपूरयेत् ।
किञ्चिदर्थ्याम्बु संगृह्य
प्रोक्षण्यम्भसि योजयेत् ॥ ४९ ॥
पुनः शङ्ख के दक्षिण भाग में
ताम्रादि निर्मित प्रोक्षणी पात्र रख कर उसे जल से परिपूर्ण करे । पुनः शङ्ख स्थित
अर्घ्यजल ले कर उसे प्रोक्षणी पात्र में मिला देवे ॥ ४९ ॥
अर्घ्यस्योत्तरतः कार्यं पाद्यं
साचमनीयकम् ।
आत्मानं यागवस्तूनि मण्डलं
प्रोक्षयेद् गुरुः ॥ ५० ॥
अर्घ्य पात्र के उत्तरभाग में आचमनी
युक्त पाद्य पात्र स्थापित करे । तदनन्तर गुरु स्वयं प्रोक्षणी के जल से मन्त्र
पढ़ते हुये अपने को, यज्ञ की वस्तुओं को
तथा मण्डल को प्रोक्षित करे ।। ५० ।।
प्रोक्षणीपात्रतोयेन
मनुनाऽन्यान्यपि क्रमात् ।
धर्मादिपूजा
न्यासक्रमेण देहे स्वे धर्मादीन्
पूजयेत्ततः ॥ ५१ ॥
इसी प्रकार अन्यान्य वस्तुओं को भी
प्रोक्षित करे । तदनन्तर अपने शरीर में न्यास क्रम के अनुसार धर्मादिकों की पूजा
करे ।
विमर्श –
यहाँ न्यास क्रम से पूजा का अभिप्राय इस प्रकार है- प्रथम मण्डूक,
कालाग्नि, रुद्र तथा कूर्म के आधार
स्वाधिष्ठान, नाभिदेश में पूजा करे और आधार शक्तियों की हृदय
में पूजा करे। तदनन्तर धर्म, ज्ञान, वैराग्य,
ऐश्वर्य, अधर्म, अज्ञान,
अवैराग्य तथा अनैश्वर्य की यथास्थान पूजा करे ॥५१॥
अशक्तस्य विधिः
पुष्पाद्यैः पीठमन्वन्तं तस्मिंश्च
परदेवताम् ।
पञ्चकृत्वः पुनः कुर्यात्
पुष्पाञ्जलिमनन्यधीः ॥ ५२ ॥
तदनन्तर उस स्वदेहमय पीठ में
परदेवता की गन्ध-पुष्प द्वारा पीठ-शक्ति से लेकर पीठ मन्त्र पर्यन्त पूजा कर
अनन्यबुद्धि ( एकाग्रचित्त) से अपने शरीर रूपी पीठ में पाँच बार पुष्पाञ्जलि
समर्पित करे ॥ ५२ ॥
उत्तमाङ्गहृदाधारपादसर्वाङ्गके
क्रमात् ।
विना निवेद्यं गन्धाद्यैरुपचारैः
समर्चयेत् ॥ ५३ ॥
आचार्य आसन से लेकर दीप पर्यन्त
समस्त उपचारों द्वारा स्वदेहमय पीठ के शिर हृदयाधार और पाद पर्यन्त स्थानों की
(मानस) पूजा करे किन्तु बाहर नैवैद्य न देवे ॥ ५३ ॥
विमर्श
- गुरु से उपदिष्ट मार्ग द्वारा कुण्डलिनी का उत्थापन करके द्वादश चक्र तक उसे
लाकर वहाँ शिव से मिलाकर उससे उत्थित अमृतधारा से देवता को प्रसन्न करे । यह अन्तः
नैवेद्य समर्पण है।
गुरूपदिष्टविधिना शेषमन्यत्
समापयेत् ।
सर्वमेतत् प्रयुञ्जीत
प्रोक्षणीस्थेन वारिणा ॥ ५४ ॥
अन्य शेष कार्य जैसे (मानस,
धूप, दीप, मन्त्रजप
जपनिवेदन तथा ब्रह्मार्पणादि कार्य) अपनी गुरु परम्परा की शिक्षा के अनुसार समाप्त
करे। यह सारा कार्य प्रोक्षणी स्थित जल से करना चाहिए ॥ ५४ ॥
बहिर्यागविधिः
विसृज्य तोयं प्रोक्षण्याः
पूरयेत्तां यथा पुरा ।
ततस्तन्मण्डलं मन्त्री गन्धाद्यैः
साधु पूजयेत् ॥ ५५ ॥
यहाँ तक अन्तर्याग कहा गया। अब
बहिर्याग की क्रिया कहते हैं- तदनन्तर मन्त्रवेत्ता प्रोक्षणी का जल हटा देवे और
पूर्ववत् दूसरे जल से उसे पूर्ण करे । पश्चात् सर्वतोभद्रमण्डल की - 'सर्वतो भद्रमण्डलाय नमः - इस मन्त्र से गन्धादि उपचारों द्वारा पूजा करे
।। ५५ ।।
शालिभिः कर्णिकामध्यमापूर्योपरि
तण्डुलैः ।
अलंकृत्य पुनस्तेषु दर्भानास्तीर्य
तन्त्रवित् ॥ ५६ ॥
तन्त्रवेत्ता कर्णिका के मध्य आढ़क
प्रमाण शालि धान्य से परिपूर्ण कर उसके ऊपर अष्टमांश चावल रख कर,
उस पर पुनः कुशा रखे ॥ ५६ ॥
पीठपूजा । आधारशक्तिपूजा
कूर्च्चमक्षतसंयुक्तं
न्यसेत्तेषामथोपरि ।
आधारशक्तिमारभ्य पीठं मन्त्रमयं
यजेत् ॥ ५७ ॥
पुनः कुश समूह पर अक्षत रख कर उसके
ऊपर आधार शक्ति से आरम्भ कर मन्त्रमय पीठ की पूजा करे ।। ५७ ।।
कूर्मध्यानम् ।
अनन्तध्यानम्
अधः कूर्मशिलारूढां
शरच्चन्द्रनिभप्रभाम् ।
आधारशक्तिं प्रयजेत्
पङ्कजद्वयधारिणीम् ॥ ५८ ॥
आसन के नीचे कूर्म की आधारभूत शिला
पर आरूढ़ शरच्चन्द्र की चन्द्रिका के समान शोभा वाली दो कमल के पुष्पों को धारण
करने वाली आधार शक्ति का पूजन करे ।। ५८ ।।
विमर्श
- इसका तात्पर्य यह है कि कर्णिका में महाकाय रक्तवर्ण वाले मण्डूक की 'मण्डूकाय नमः' इस मन्त्र से पूजा करे। उसके ऊपर दश
भुजा वाले, पाँच मुख वाले रक्त कृष्ण दक्षिणवाम पार्श्व वाले
कालाग्नि नामक रुद्र की 'कालाग्निरुद्राय नमः ' - इस मन्त्र से पूजा करे। उसके ऊपर विशालकाय वाले कूर्म की 'कूर्माय नमः' मन्त्र से पूजा करे । पुनः कूर्मशिला
पर आरूढ़ आधार शक्ति की पूजा करे ।। ५८ ।।
मूर्ध्नि तस्याः समारूढं कूर्मं
नीलाभमर्चयेत् ।
ऊर्द्ध ब्रह्मशिलासीनमनन्तं
कुन्दसन्निभम् ॥ ५९ ॥
उस आधार शक्ति के ऊपर (पूर्व कथित
कूर्म शिला से भिन्न) नीलवर्ण वाले कूर्म की पूजा करे । उसके ऊपर ब्रह्म शिला पर
आसीन कुन्द के समान स्वच्छ वर्ण वाले अनन्त नामक आसन की 'अनन्ताय नमः ' - इस मन्त्र से पूजा करे ।। ५९ ।।
यजेच्चक्रधरं मूर्ध्नि धारयन्तं
वसुन्धराम् ।
तमालश्यामलां तत्र
नीलेन्दीवरधारिणीम् ॥ ६० ॥
अनन्त के शिर पर तमाल श्यामला,
नीलेन्दीवरी धारिणी वसुन्धरा को धारण करने वाले चक्रधारी वाराह रूपी
विष्णु का 'वराहरूपधारिणे नमः ' - इस
मन्त्र से पूजन करे ॥ ६० ॥
वसुमत्यादि
अभ्यर्चयेद्वसुमतीं
स्फुरत्सागरमेखलाम् ।
तस्यां रत्नमयं द्वीपं तस्मिंश्च
मणिमण्डपम् ॥ ६१ ॥
सागर रूप मेखला वाली वसुमती को 'वसुमत्यै नमः' – इस मन्त्र से, तदनन्तर 'समुद्राय नम:' इस
मन्त्र से सागर का पूजन करे। तदनन्तर पृथ्वी में रहने वाले रत्नमय सात द्वीपों की
पूजा करे। तदनन्तर मणिमय मण्डप की पूजा करे ॥ ६१ ॥
यजेत् कल्पतरूंस्तस्मिन्
साधकाभीष्टसिद्धिदान् ।
अधस्तात् पूजयेत्तेषां वेदिकां
मण्डपोज्ज्वलाम् ॥ ६२ ॥
पुनः उस मणिमण्डप में साधकों का
अभीष्ट पूर्ण करने वाले कल्पवृक्षों की पूजा करे । उस कल्पवृक्ष के नीचे मण्डप के
समान उज्ज्वल वर्ण वाली वेदिका को 'वेदिकायै
नमः' इस मन्त्र से पूजन करे ॥ ६२ ॥
पश्चादभ्यर्चयेत्तस्यां पीठं
धर्मादिभिः पुनः ।
रक्तश्यामहरिद्रेन्द्रनीलाभान्
पादरूपिणः ॥ ६३ ॥
तदनन्तर धर्मादिकों के साथ पीठ का
पूजन करे। इसमें धर्म रक्तवर्ण तथा वृष स्वरूप हैं । ज्ञान श्याम वर्ण तथा
सिंहस्वरूप है। वैराग्य पीतवर्ण तथा भूत स्वरूप है । ऐश्वर्य काला तथा गज का
स्वरूप है। इस प्रकार ये सभी धर्म, ज्ञान,
वैराग्य और ऐश्वर्य उस पीठ के पादस्वरूप हैं ॥ ६३ ॥
वृषकेशरिभूतेभरूपान् धर्मादिकान्
यजेत् ।
गात्रेषु पूजयेत्तांस्तु
नञ्पूर्वानुक्तलक्षणान् ॥ ६४ ॥
इस प्रकार वृष,
सिंह, भूत तथा हस्ति स्वरूप धर्मादिकों की
पूजा कर पीठ देवता के गात्र में अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वर्य जो ऊपर कहे गये वृष सिंह, भूत
तथा हस्ती स्वरूप हैं उनका भी पूजन करे ॥ ६४ ॥
आग्नेयादिषु कोणेषु दिक्षु
चाथाम्बुजं यजेत् ।
आनन्दकन्दं प्रथमं
संविन्नालमनन्तरम् ॥ ६५ ॥
पीठ देवता का मुख भाग प्राची कहा
जाता है,
अतः आग्नेयादि कोणों में तथा पूर्वादि दिशाओं में क्रमशः धर्मादिकों
तथा अधर्मादि चतुष्टय की पूजा कर हृदय स्थान में अनन्त नामक पद्म की पूजा करें,
जिस पद्म का आनन्द ही कन्द है, और संवित्
(तत्त्वज्ञान) जिसका नाल है, उसकी भी पूजा करे ।। ६५ ।।
सर्वतत्त्वात्मकं पद्ममभ्यर्च्य
तदनन्तरम् ।
मन्त्री प्रकृतिपत्राणि
विकारमयकेसरान् ॥ ६६ ॥
कर्णिकापूजा
पञ्चाशद्बीजवर्णाढ्यां कर्णिकां
पूजयेत्ततः ।
तत्र
सूर्येन्दुपावककलापूजा
कलाभिः पूजयेत् सार्द्धं तस्यां
सूर्येन्दुपावकान् ॥ ६७ ॥
इस प्रकार मन्त्रज्ञ आचार्य,
अनन्त स्वरूप पद्म की पूजा कर, उस पद्म के
प्रकृति रूप पत्र विकारमय केशर तथा पचास वर्ण स्वरूप कर्णिका की पूजा करे । पुनः
कर्णिका में कलाओं के सहित सूर्यमण्डल, इन्द्रमण्डल तथा
पावकमण्डल की पूजा करे ।। ६६-६७ ।
सत्त्वादिपूजा ।
चतुरात्मपूजा
प्रणवस्य त्रिभिर्वर्णैरथ
सत्त्वादिकान् गुणान् ।
आत्मानमन्तरात्मानं
परमात्मानमर्चयेत् ॥ ६८ ॥
ज्ञानात्मानञ्च विधिवत्
पीठमन्त्रावसानकम् ।
पीठशक्ती: केसरेषु मध्ये च सवराभयाः
॥ ६९ ॥
पुनः उसी कर्णिका में प्रणव के आकार,
उकार तथा मकार रूप तीन वर्णों के साथ सत्त्वादिक त्रिगुण की पूजा
करे। तदनन्तर आत्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा
तथा ज्ञानात्मा की पूजा करे। पुनः केशर में पीठ शक्ति तथा पीठमन्त्र की पूजा करे ।
पूजा काल में वर तथा अभय मुद्रा धारण किये हुये पीठ शक्तियों का भी ध्यान करे ।।
६८-६९ ।।
कुम्भस्थापनविधिस्तच्छोधनञ्च
हेमादिरचितं कुम्भमस्त्राद्भिः
क्षालितान्तरम् ।
चन्दनागुरुकर्पूरधूपितं शोभनाकृतिम्
॥ ७० ॥
इस प्रकार पूजा समाप्त करने के
पश्चात् सुवर्णादि निर्मित एवं देखने में मनोहर कुम्भ का अस्त्र मन्त्र (अस्त्राय
फट् ) से प्रक्षालन करे । तदनन्तर चन्दन, अगुरु
तथा कपूर का धूप देकर उसे सुवासित करे ॥ ७० ॥
आवेष्टिताङ्गं नीरन्ध्रं तन्तुना
त्रिगुणात्मना ।
अर्चितं गन्धपुष्पाद्यैः
कूर्चाक्षतसमन्वितम् ॥ ७१ ॥
छिद्र रहित उस घट को त्रिगुणात्मक
तन्तु से आवेष्टित करे । पुनः उसमें कुश तथा अक्षत आदि डालकर गन्ध पुष्पादि से उसे
अर्चित करे ॥ ७१ ॥
नवरत्नोदरं मन्त्री
स्थापयेत्तारमुच्चरन् ।
ऐक्यं सङ्कल्पय कुम्भस्य पीठस्य च
विधानवित् ॥ ७२ ॥
पुनः कलश में नव रत्न (द्र. ६.
९४-९५) छोड़कर 'ॐकार' का उच्चारण
करते हुये मन्त्र विधानवेत्ता साधक आचार्य, पीठ और कुम्भ में
ऐक्य की भावना करते हुये उसे स्थापित करे ॥ ७२ ॥
क्षीरद्रुमकषायेण पलाशत्वग्भवेन वा
।
तीर्थोदकैर्वा
कर्पूरगन्धपुष्पसुवासितैः ॥ ७३ ॥
आत्माभेदेन विधिवन्मातृकां
प्रतिलोमतः ।
जपन्मूलमनुं तद्वत् पूरयेद्
देवताधिया ॥ ७४ ॥
क्षीरद्रुम (अश्वत्थ उदुम्बर,
प्लक्ष या वट) के त्वक् (छाल) के कषाय से अथवा केवल पलाश के छाल के
कषाय (आयुर्वेद की रीति से अग्नि पर तपाये गये चतुर्थांश जल को कषाय कहते हैं) से
अथवा तीर्थ जल से जो कपूर, गन्ध, और
पुष्प से सुवासित हो, देवता बुद्धि करते हुये घट को पूर्ण
करे। घट में जल भरते समय, प्रतिलोम क्रम से मातृका वर्ण
पढ़कर मूल मन्त्र का जप करते रहना चाहिए ।। ७३-७४ ॥
शङ्खे क्वाथाम्बुसम्पूर्णे गन्धाष्टकमभीष्टदम्
।
विलोड्य पूजयेत्तस्मिन्नावाह्य
सकलाः कलाः ॥ ७५ ॥
कलश में भरने से शेष क्वाथ को
अर्घ्यपात्र स्थित शङ्ख के अतिरिक्त किसी दूसरे शङ्ख में डाल देवे । पुनः 'गन्धद्वाराम्' इस मन्त्र को पढ़कर गन्धाष्टक को भली
प्रकार विलोडित करे ।। ७५ ।।
दश वहनेः कलाः पूर्वं द्वादश
द्वादशात्मनः ।
कलाः षोडश सोमस्य पश्चात् पञ्चाशतं
कलाः ॥ ७६ ॥
तदनन्तर अग्नि की दश कलायें,
सूर्य की बारह कलायें, सोम की सोलह कलायें इस
प्रकार कुल ३८ कला, फिर ॐकार की ५१ कला, तदनन्तर ५ गुप्त कला का इस प्रकार कुल ९४ कलाओं का आवाहन कर उनका पूजन करे
॥ ७६ ॥
जपित्वा प्रतिलोमेन मूलमन्त्रञ्च
मन्त्रवित् ।
समाहितेन मनसा ध्यायन्मन्त्रस्य
देवताम् ॥ ७७ ॥
तदनन्तर मन्त्रवेत्ता प्रतिलोम क्रम
से मूल मन्त्र का एकाग्ररूपेण जप करते हुये मन्त्र के देवता का ध्यान करे॥७७॥
प्राणप्रतिष्ठा
प्राणप्रतिष्ठां कुर्वीत तत्र तत्र
विचक्षणः ।
कलात्मकं शङ्खसंस्थं क्वाथं कुम्भे
विनिक्षिपेत् ॥ ७८ ॥
पुनः बुद्धिमान् मन्त्रवेत्ता उस
शङ्ख के जल में मन्त्र देवता की भावना करते हुये उसमें मन्त्र की प्राण प्रतिष्ठा
करे। तदनन्तर कलायुक्त शङ्ख में रहने वाले क्वाथ को कुम्भ में डाल देवे ॥ ७८ ॥
गन्धष्टकम्
गन्धाष्टकं तत् त्रिविधं
शक्तिविष्णुशिवात्मकम् ।
चन्दनागुरुकर्पूरचोरकुङ्कुमरोचनाः ॥
७९ ॥
जटामांसीकपियुताः शक्तेर्गन्धाष्टकं
विदुः ।
चन्दनागुरुहनीवेरकुष्ठकुङ्कुमसेव्यकाः
॥ ८० ॥
जटामांसीमुरमिति विष्णोर्गन्धाष्टकं
विदुः ।
माहीर
चन्दनागुरुकर्पूरतमालजलकुङ्कुमम् ।
कुशीतकुष्ठ संयुक्तं शैवं
गन्धाष्टकं स्मृतम् ॥ ८१ ॥
पुनः उस कुम्भ में 'गन्धद्वारा इस मन्त्र से पूर्व विलोडित गन्धाष्टक डाल देवे । शक्ति,
विष्णु तथा शिव के भेद से गन्धाष्टक तीन प्रकार का होता है । शक्ति
के गन्धाष्टक कहे गये हैं । चन्दन, अगुरु, ह्रीवेर, कुष्ठ, कंकुम,
सेव्यक, जटामांसी और मुरा – ये विष्णु के गन्धाष्टक हैं । चन्दन, अगुरु, कर्पूर, तमाल, अगुरु, कपूर, चोर, कुंकुम, गोरोचन, जटामांसी तथा कपि—ये
आठ जल, कुंकुम, कुशीत तथा कुष्ठ-ये ८
शैव गन्धाष्टक कहे गये हैं।७९-८१॥
प्राणप्रतिष्ठामन्त्रः
पाशादित्र्यक्षरात्मान्ते
स्यादमुष्यपदन्ततः ।
क्रमात् प्राणा इह प्राणास्तथा जीव
इह स्थितः ॥ ८२ ॥
अमुष्य सर्वेन्द्रियाणि
भूयोऽमुष्यपदं भवेत् ।
वाङ्मनोनयन
श्रोत्रघ्राणप्राणपदान्यथ ॥ ८३ ॥
पश्चादिहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु
ठद्वयम् ।
अयं प्राणमनुः प्रोक्तः सर्वजीवप्रदायकः
॥ ८४ ॥
पाशादि तीन अक्षर (क्रों),
इसके अन्त में आत्माक्षर (यं रं लं वं शं षं सं हौं), इसके अनन्तर ‘अमुष्य' पद,
तदनन्तर 'प्राणा इह प्राणा:', इसके बाद 'जीव इह स्थितः', तदनन्तर
'अमुष्य सर्वेन्द्रियाणि' तदनन्तर पुनः
'अमुष्य' पद, पुनः
'वाङ्मनोनयन श्रोत्रघ्राण प्राण', पद
इसके पश्चात् 'इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु' पद, तदनन्तर 'स्वाहा' पद का उच्चारण करे। यह प्राण का मन्त्र है, जो
सर्वत्र जीवन प्रदान करने वाला है ।। ८२-८४ ।।
पश्चादश्वत्थपनसचूतकोमलपल्लवैः ।
इन्द्रवल्लीसमाबद्धैः सुरद्रुमधिया गुरुः
।
कुम्भवक्त्रे पिधायास्मिंश्चषकं
सफलीकृतम् ॥ ८५ ॥
इस प्रकार प्राण प्रतिष्ठा कर लेने
के पश्चात् गुरु अश्वत्थ, पनस और आम के
पल्लवों से जो इन्द्रनील के वेल में बँधे हों उसमें कल्पवृक्ष की भावना कर कुम्भ
के मुख को ढक देवे । तदनन्तर फल सहित अक्षत से पूर्ण पात्र द्वारा उस कलश का मुख
ढक देवे ॥ ८५ ॥
संस्थापयेत् फलधिया विधिवत्
कल्पशाखिनाम् ।
ततः कुम्भं निर्मलेन क्षौमयुग्मेन
वेष्टयेत् ॥ ८६ ॥
इस प्रकार कुम्भ को अपने फल सिद्धि
हेतु कल्पवृक्ष की भावना करते हुये मूल मन्त्र पढ़कर आचार्य स्वयं स्थापित करे ।
पुनः निर्मल दो अतसी से बने वस्त्रों से उस कलश को ढक देवे ॥ ८६ ॥
मूलेन मूर्त्तिं
क्लृप्तास्मिंश्छायायां कल्पशाखिनाम् ।
आवाह्य पूजयेत्तस्यां मन्त्री
मन्त्रस्य देवताम् ॥ ८७ ॥
इस प्रकार निष्पन्न हुये कलश रूप
कल्पवृक्ष की छाया में मूल मन्त्र को पढ़कर मूर्ति का आवाहन कर मन्त्रज्ञ आचार्य
मन्त्र के देवता का पूजन करे ॥८७॥
देवावाहनादिकथनम्
मूलमन्त्रं समुच्चार्य
सुषुम्णावर्त्मना सुधीः ।
आनीय तेजः
स्वस्थानान्नासिकारन्ध्रनिर्गतम् ॥ ८८ ॥
करस्थमातृकाम्भोजे चैतन्यं
पुष्पसञ्चये ।
संयोज्य ब्रह्मरन्ध्रेण मूर्त्यामावाहयेत्
सुधीः ॥ ८९ ॥
अब इष्टदेवता के आवाहन का प्रकार
कहते हैं—
आचार्य मूल मन्त्र का उच्चारण करते हुये सुषुम्णा के मार्ग से हृदय
स्थान से, वायु द्वारा तेज को ऊपर उठाकर नासिका के छिद्रों
से निकलने वाले तेज को ब्रह्मरन्ध्र में लाकर उसके द्वारा अपने हाथ में स्थित
मातृका कमल रूप संचित पुष्प में चैतन्य को संयुक्त कर मूर्ति में इष्ट देवता का
आवाहन करे । ८८-८९ ।।
संस्थापनं सन्निधानं
सन्निरोधमनन्तरम् ।
सकलीकरणं पश्चाद् विदध्यादवगुण्ठनम्
॥ ९० ॥
तदनन्तर उस मूर्ति में आवाहन के बाद
देवता का संस्थापन, सन्निधान और
सन्निरोध करे । अनन्तर सकलीकरण कर अवगुण्ठन करे ॥ ९० ॥
अमृतीकरणं कृत्वा कुर्वीत
परमीकृतिम् ।
क्रमादेतानि कुर्वीत स्वमुद्राभिः
समाहितः ॥ ९१ ॥
तदनन्तर अमृतीकरण कर परमीकरण करे।
यह सारी क्रिया क्रमशः तत्तन्मुद्राओं से समाहित होकर करनी चाहिए (इन क्रियाओं में
की जाने वाली मुद्रा तेइसवें पटल में देखता चाहिए ) ॥ ९१ ॥
विमर्श
- आनन्दपूर्णता की स्थिति को अमृतीकरण कहते हैं। जिसे धेनुमुद्रा से प्रदर्शित
करना चाहिए। सर्वापराध सहिष्णु होने को परमीकरण कहते हैं जिसे महामुद्रा के द्वारा
प्रदर्शित करते हैं। समाहित से तात्पर्य है - मूलमन्त्र से सम्पुटित मातृकाक्षरों
को देवता के विग्रह में न्यस्त करते हुए कृत्य करना ।। ९९ ।।
उपचाराः
अथोपचारान् कुर्वीत मन्त्रवित्
स्वागतादिकान् ।
स्वागतं कुशलप्रश्न निगदेदग्रतो
गुरुः ॥ ९२ ॥
आवाहन से अमृतीकरण कर लेने के
पश्चात् मन्त्रवेत्ता गुरु षोडशोपचार द्वारा पूजन करे तथा स्वागत कर कुशल प्रश्न
भी पूछे ॥ ९२ ॥
पाद्यं पादाम्बुजे दद्याद् देवस्य
हृदयाणुना ।
एतच्छ्यामाकदूर्वाब्जविष्णुक्रान्ताभिरीरितम्
॥ ९३ ॥
तदनन्तर हृदयमन्त्र (देवाय नमः,
देव्यै नमः) इस मन्त्र से इष्ट देवता के चरण कमलों में श्यामाक,
दूर्वा, कमल और विष्णुक्रान्ता मिश्रित पाद्य
समर्पित करे ॥ ९३ ॥
सुधामन्त्रेण वदने दद्यादाचमनीयकम्
।
जातीलवङ्गकक्कोलैस्तदुक्तं
तन्त्रवेदिभिः ॥ ९४ ॥
सुधा मन्त्र (वम्) पढ़कर मुख में
आचमन देवे। यह आचमन का जल जाती, लवंग और कंकोल
पदार्थ से मिश्रित होना चाहिए ऐसा तन्त्रवेत्ताओं ने कहा है ॥ ९४ ॥
अर्घ्यं दिशेत्ततो मूर्द्धिन
शिरोमन्त्रेण देशिकः ।
गन्धपुष्पाक्षतयवकुशाग्रतिलसर्षपैः॥
९५ ॥
सदूर्वैः सर्वदेवानामेतदर्घ्यमुदीरितम्
।
सुधाणुना ततः कुर्यान्मधुपर्कं
मुखाम्बुजे ॥ ९६ ॥
तदनन्तर आचार्य शिरो मन्त्र (अमुक
देवाय देव्यै वा स्वाहा ) से इष्ट देवता के शिर पर अर्घ्य प्रदान करे। यह अर्ध्य
गन्ध,
पुष्प अक्षत, यव, कुशाग्र,
तिल, सर्वप तथा दूर्वा से युक्त होना चाहिए जो
सभी देवताओं के लिये प्रशस्त कहा गया है । तदनन्तर सुधा मन्त्र (वम्) से देवता के
मुखकमल में मधुपर्क प्रदान करना चाहिए ।। ९५-९६ ॥
आज्यं दधिमधून्मिश्रमेतदुक्तं
मनीषिभिः ।
तेनैव मनुना कुर्यादद्धिराचमनीयकम्
॥ ९७ ॥
मनीषी लोगों ने घी,
दधि और मधु से मिले पदार्थ को मधुपर्क कहा है । पुनः उसी मन्त्र से
आचार्य मधुपर्क देने के पश्चात् आचमन भी करावे ॥ ९७ ॥
गन्धाद्भिः कारयेत् स्नानं वाससी
परिधापयेत् ।
दद्याद् दिव्योपवीतञ्च
हाराद्याभरणैः सह ॥ ९८ ॥
फिर सुगन्ध युक्त पदार्थ मिश्रित जल
से इष्टदेवता को स्नान करावे । धौत वस्त्र तथा उत्तरीय प्रदान करे और हारादि
आभरणों के सहित दिव्य यज्ञोपवीत पहनावे ॥ ९८ ॥
अङ्गादिपूजा
न्यासक्रमेण मनुना
पुटितैर्मातृकाक्षरैः ।
अभ्यर्च्य देवीं गन्धाद्यैरङ्गादीन्
पूजयेत् ततः ॥ ९९ ॥
उपचार से पूर्व जो इष्ट देवता में
न्यास कहा गया है, मूल मन्त्र से
संपुटित एक एक मातृका वर्णों द्वारा इष्ट देवता का गन्धादि उपचारों द्वारा पूजन
करे । पुनः तदङ्गभूत लोकपालों का पूजन कर धूपादि प्रदान करे ॥ ९९ ॥
पूजापुष्पाणि
गन्धश्चन्दनकर्पूर कालागुरुभिरीरितः
।
कमले करवीरे द्वे कुमुदे
तुलसीद्वयम् ॥ १०० ॥
जातीद्वयं केतके द्वे कहलारं
चम्पकोत्पले ।
कुन्दमन्दारपुन्नागपाटला नागचम्पकम्
॥ १०१ ॥
आरग्वधं कर्णिकारं पारन्ती
नवमल्लिका ।
सौगन्धिकं सकोरण्टं
पलाशाशोकमल्लिकाः ॥ १०२ ॥
धूस्तूरं सर्जकं बिल्वमर्जुनं
मुनिपुष्प (पत्र) कम् ।
अन्यान्यपि सुगन्धीनि पत्रपुष्पाणि
देशिकैः ॥ १०३ ॥
उपदिष्टानि पूजायामाददीत विचक्षणः ।
कालागुरु,
चन्दन तथा कपूर को मिला कर सुगन्ध प्रदान करना चाहिए । दो कमल,
दो करवीर, दो कुमुद, दो
तुलसीपत्र, दो जाती पुष्प, दो केतकी,
दो कहलार (कुमुद), दो चम्पक, दो उत्पल, कुन्द, मन्दार,
पुन्नाग, गुलाब, नागकेशर,
चम्पक, आरग्बध, कचनार,
पारन्ती नवमल्लिका, सौगन्धिक कुरण्ट, पलाश, अशोक, मल्लिका, धत्तूर, सहिजन, बिल्वपत्र,
अर्जुन, अगस्त्य — इसी प्रकार
अन्य भी पत्र पुष्प, पूजा के कार्य में आचार्यों ने विहित
किया है। अतः विचक्षण साधक इन्हें पूजा के कार्य में ग्रहण करे ।। १००-१०४ ॥
मलिनं भूमिसंस्पृष्टं कृमिकेशादि
दूषितम् ॥ १०४॥
अङ्गस्पृष्टं समाघ्रातं त्यजेत्
पर्युषितं गुरुः ।
देवस्य मस्तकं कुर्यात् कुसुमोपहितं
सदा ॥ १०५ ॥
मलिन, पृथ्वी पर गिरे हुये, कृमि, केशादि
दूषित, अङ्ग से स्पृष्ट, सूँघे गये तथा
पर्युषित पुष्प अवश्य ही पूजा कार्य में नहीं ग्रहण करना चाहिए । बुद्धिमान् साधक
इष्टदेवता का मस्तक सर्वदा पुष्पों से अलंकृत रखे ॥ १०४- १०५ ॥
पूजाकाले देवताया नोपरि भ्रामयेत्
करम् ।
अगुरूशीरगुग्गुलुशर्करामधुचन्दनैः ॥
१०६ ॥
धूपयेदाज्य संमिश्रैर्नीचैर्देवस्य
देशिकः ।
वर्त्या कर्पूरगर्भिण्या सर्पिषा
तिलजेन वा ॥ १०७ ॥
आरोप्य दर्शयेद्दीपानुच्चैः
सौरभशालिनः ।
स्वादूपदंशं विमलं पायसं सहशर्करम्
॥ १०८ ॥
कदलीफलसंयुक्तं साज्यं मन्त्री
निवेदयेत् ।
तत्र जलं दद्यादुपचारान्तरान्तरा ॥
१०९ ॥
पूजा करते समय देवता के ऊपर हाथ न
घुमावे । अगुरु, उशीर, गुग्गुल,
शर्करा, मधु, चन्दन
इन्हें घी में मिला कर आचार्य इष्ट देवता के नीचे धूप प्रदान करे । कर्पूर मिश्रित,
घी मिश्रित तथा तिल तेल मिश्रित अथवा अन्य सुगन्धित पदार्थ
मिश्रितबत्ती किसी पात्र में स्थापित कर ऊँचे स्थान से (नेत्र के समानान्तर ) दीप
प्रदान करे । तदनन्तर मन्त्री स्वादिष्ट, विमल पायस, जिसमें शर्करा मिला हो और इसी प्रकार केले का फल तथा घी मिश्रित पदार्थों
का नैवेद्य अपने इष्ट देवता को समर्पित करे । उपचारों के बीच बीच में पुष्पाञ्जलि
दे कर जल भी देते रहना चाहिए ।। १०६- १०९ ॥
अङ्गदेवताध्यानम्
अङ्गादिलोकपालान्तं यजेदावरणान्यपि
।
केशरेष्वग्निकोणादि हृदयादीनि
पूजयेत् ॥ ११० ॥
इस प्रकार इष्टदेवता की पूजा कर
लेने के पश्चात् आदि में अङ्गावृत्ति के क्रम से लोकपाल पर्यन्त आवरणों की पूजा
करे । केशर के अग्निकोण में हृदय की, ईशानकोण
में शिर की नैर्ऋत्य में शिखा की तथा वायव्य में कवच की पूजा करे॥११०॥
नेत्रम दिशास्वस्त्रं ध्यातव्या
अङ्गदेवताः ।
तुषारस्फटिकश्यामनीलकृष्णारुणार्चिषः
॥ १११ ॥
अपने अग्रभाग में नेत्र की और
दिशाओं में अस्त्र की पूजा करे । तुषार, स्फटिक,
श्याम, नील, कृष्ण तथा
रक्तवर्ण वाली अङ्ग देवता का ध्यान करना चाहिए ॥ १११ ॥
वरदाभयधारिण्यः प्रधानतनवः स्त्रियः
।
पश्चादभ्यर्चनीयाः स्युः कल्पोक्तावृतयः
क्रमात् ॥ ११२ ॥
ये सभी अङ्ग देवता वर तथा अभय धारण
करने वाली हैं मुख्य रूप से स्त्री स्वरूप वाली हैं । इनकी पूजा कर लेने के
पश्चात् कल्पोक्त आवरणों की पूजा करनी चाहिए ॥ ११२ ॥
लोकपालपूजा
अन्ते यजेल्लोकपालान्
मूलपारिषदान्वितान् ।
हेतिजात्यधिपोपेतान् दिक्षु
पूर्वादितः क्रमात् ॥ ११३ ॥
पुनः अन्त में तत्तत्पारिषदों से
युक्त इन्द्राग्नि आदि लोकपालों की पूजा उनके आयुध, देवता, प्रेत, राक्षस, जल, प्राण, नक्षत्र, भूत तथा नागलोकादि जाति तथा उनके वाहन एवं परिवार आदि के साथ क्रमशः
पूर्वादि दिशाओं में करनी चाहिए ॥ ११३ ॥
तेषां नामादि
इन्द्रमग्निं यमं रक्षो वरुणं पवनं
विधुम् ।
ईशानं पन्नगाधीशमध ऊर्ध्वं पितामहम्
॥ ११४ ॥
पीतो रक्तो सितो धूम्रः शुक्लो
धूम्रः सितावुभौ ।
गौरोऽरुणः क्रमादेते वर्णतः
परिकीर्तिताः ॥ ११५ ॥
इन्द्र,
अग्नि, यम, राक्षस,
वरुण, पवन, चन्द्रमा,
ईशान, पन्नग तथा पितामह—ये
दश दिक्पाल हैं। ये क्रम से पीत, रक्त, सित, धूम्र, शुक्ल, धूम्र, सित, सित, गौर तथा अरुण वर्ण के कहे गये हैं ।। ११४-११५ ॥
वज्रं शक्तिं दण्डमसिं पाशमङ्कुशकं
गदाम् ।
शूलं चक्रं पद्ममेषामायुधानि
क्रमाद्विदुः ॥ ११६ ॥
इन लोकपालों के वज्र,
शक्ति, दण्ड, असि,
पाश, अंकुश, गदा,
शूल, चक्र और पद्म क्रमशः आयुध कहे गए हैं ॥
११६ ॥
पीतशुक्लसिताकाशविद्युद्रक्तसितासिताः।
करविन्द पाटलाभा वज्राद्याः
परिकीर्तिताः ॥ ११७ ॥
अग्निसंस्कारः
एवं सम्पूज्य विधिवन्निवेद्यान्तं
ततो गुरुः ।
दक्षिणेस्थण्डिलं कृत्वा तत्राऽऽधाय
हुताशनम् ॥ ११८ ॥
इन वज्रादि आयुधों के वर्ण पीत,
शुक्ल, सित, आकाश (नीला),
विद्युत्, रक्त, सित,
असित, करविन्द (अरुण) तथा पाटल के समान कहे गए
हैं। इस प्रकार गुरु नैवेद्य पर्यन्त सायुध सपरिवार लोकपालों की पूजा कर दक्षिण
में स्थण्डिल निर्माण कर उस पर अग्नि की स्थापना करे ॥ ११७-११८ ॥
संस्कृत्य विधिवद्विद्वान्
वैश्वदेवं समाचरेत् ।
तत्र सम्पूज्य
गन्धाद्यैर्देवतामुक्तविग्रहाम् ॥ ११९ ॥
विद्वान् आचार्य विधिपूर्वक अग्नि
का संस्कार कर उनका पूजन करे। पश्चात् ऊपर कहे गये विग्रह वाले देवता का गन्धादि
द्वारा पूजन करे ॥ ११९ ॥
तारव्याहृतिभिर्हुत्वा मूलमन्त्रेण
मन्त्रवित् ।
सर्पिष्मता पायसेन
पञ्चविंशतिसंख्यया ॥ १२० ॥
हुत्वा व्याहृतिभिर्भूयो गन्धाद्यैः
पुनरर्चयेत् ।
तां योजयित्वा पीठस्थमूर्तौ वहिनं
विसर्जयेत् ॥ १२१ ॥
मन्त्रवेत्ता आदि में चार आहुति 'भूः स्वाहा', 'भुवः स्वाहा', 'स्वः
स्वाहा' तथा 'भूर्भुवः स्वः स्वाहा'
– इन मन्त्रों से देकर पश्चात् घी युक्त खीर से पुनः २५ बार व्याहति
होम कर गन्धादि द्वारा उन देवता का पूजन करे। फिर उन देवता को पीठस्थ मूर्ति में
सन्निविष्ट कर अग्नि का विसर्जन कर देवे ॥ १२०-१२१ ॥
अवशिष्टेन हविषा विकिरेत् परितो
बलिम् ।
देवतायाः पार्षदेभ्यो
गन्धपुष्पाक्षतान्वितम् ॥ १२२ ॥
हवन करने से शेष जो पायस बचे उसमें
गन्ध पुष्पादि मिला कर देवता के पार्षदों के लिये बलि रूप में उसे विकीर्ण कर देवे
॥ १२२ ॥
ततो निवेद्यमुद्धृत्य शोधयित्वा जलं
पुनः ।
पञ्चोपचारैः सम्पूज्य
दर्शयेच्छत्रचामरे ॥ १२३ ॥
फिर (१०९ श्लोक में कहे गये) समस्त
नैवेद्य पदार्थों को उठा लेवे और उस स्थल को शुद्ध करे । देवता का पञ्चोपचार से
पूजन कर उन्हें छत्र तथा चामर प्रदर्शित करे ॥१२३॥
कर्पूरशकलोन्मिश्रं ताम्बूलञ्च
निवेदयेत् ।
सहस्रावृत्य संजप्य
मूलमन्त्रमनन्यधीः ।
तज्जप्तं सर्वसम्पत्त्यै देवतायै
समर्पयेत् ॥ १२४ ॥
तदनन्तर कपूर खण्ड से मिश्रित
ताम्बूल समर्पित करे । पुनः अनन्य बुद्धि से सहस्रावृत्ति मूल मन्त्र का जप कर
सर्वैश्वर्य प्राप्ति के लिये देवता को जप समर्पित करे ।। १२४ ।।
अस्त्रदेवताध्यानम् ।
तन्मन्त्रः
ततः शम्भोदिशि गुरुर्विकिरे
पूर्वसञ्चिते ॥ १२५ ॥
तदनन्तर ईशान कोण में पूर्व सञ्चित
विकिर पर जहाँ हेम तथा वस्त्र से संयुक्त जलपूर्ण केकरी (सनाल जलपात्र) रखी हुई थी,
उस पर अस्त्र देवता को स्थापित कर पूजा करे ॥ १२५ ॥
हेमवस्त्रादिसंयुक्तां कर्करीं
तोयपूरिताम् ।
संस्थाप्य तस्यां सिंहस्थां
खड्गखेटकधारिणीम् ॥ १२६ ॥
अब कर्करी पर स्थापित की जाने वाली
अस्त्र देवता का स्वरूप कहते हैं—जो खड्ग तथा
खेटक धारण करने वाली हैं, सिंह पर स्थित हैं, जिनका रूप अत्यन्त भयानक है और जिनका मुख पश्चिम की ओर है ।। १२६ ॥
घोररूपां पश्चिमास्यां
पूजयेदस्त्रदेवताम् ।
चलासनेन सम्पूज्य तामादाय गुरुः
पुनः ॥ १२७ ॥
रक्षेति लोकपालानां नालमुक्तेन
वारिणा ।
देवाज्ञां श्रावयन्नन्तः परिवृत्त्य
प्रदक्षिणम् ॥ १२८ ॥
अस्त्रमन्त्रं समुच्चार्य यथापूर्वं
निवेशयेत् ।
अभ्यर्च्य भूयो गन्धाद्यैरस्त्रं
तत्र स्थिरासने ॥ १२९ ॥
इस प्रकार के अस्त्र देवता का आसन
से उठकर आचार्य स्वयं पूजन करे । फिर उस कर्करी को हाथ में ले कर उसके नाल से जल
गिराते हुये 'लोकपालानां रक्षा' इस मन्त्र को सुनाते हुये भीतर की वेदी के चारों ओर प्रदक्षिणा कर अस्त्र
मन्त्र (अस्त्राय फट्) पढ़कर कर्करी को यथास्थान सन्निविष्ट कर देवे । पुनः निश्चल
आसन पर बैठ कर गन्धादि द्वारा पुनः कर्करी स्थित अस्त्र देवता की पूजा करे ।।
१२७-१२९ ॥
ततश्च संस्कृते वहनौ गोक्षीरेण चरुं
पचेत् ।
अस्त्रेण क्षालिते पात्रे नवे
ताम्रमयादिके ॥ १३० ॥
तदनन्तर 'अस्त्र मन्त्र' से धोये गये, नवीन
ताम्रादि निर्मित पात्र में गो दुग्ध स्थापित कर सुसंस्कृत अग्नि में चरु का
निर्माण करे ॥ १३० ॥
तण्डुलान् शालिसम्भूतान्
मूलमन्त्राभिमन्त्रितान् ।
प्रसृतीनां पञ्चदश क्षिप्त्वा
चाऽस्त्रमनुं जपेत् ॥ १३१ ॥
मूल मन्त्र से अभिमन्त्रित शाली
नामक धान्य के पञ्चदश प्रसृति प्रमाण तण्डुल को धो कर उसे गो दुग्ध पात्र में डाल
कर अस्त्र मन्त्र का जप करते हुये चरु का निर्माण करना चाहिए ।। १३१ ॥
प्रक्षाल्य पात्रवदनं पिधाय
कवचाणुना ।
प्राङ्मुखो मूलमन्त्रेण
देशिकेन्द्रश्चरुं पचेत् ॥१३२ ॥
कवच मन्त्र से उस चरु पात्र का मुख
ढक देवे । पुनः पूर्वाभिमुख हो विज्ञ आचार्य मूल मन्त्र का जप करते हुये चरु को
पकावे ॥ १३२ ॥
स्रुवेणाज्येन संस्विन्ने
दद्यात्तप्ताभिघारणम् ।
मूलेन पश्चात्तत्पात्रं
कवचेनाऽवतारयेत् ॥ १३३ ॥
चरु के पक जाने पर तप्त घृत खुवा में
डालकर उसी से मूल मन्त्र पढ़कर उसका अभिघारण करे । पुनः कवच मन्त्र (कवचाय हुँ)
पढ़कर चरु पात्र को नीचे उतार लेवे ॥ १३३ ॥
अस्त्रजप्ते कुशास्तीर्णे मण्डले
विधिवद् गुरुः ।
तं विभज्य त्रिधा भागमेक देवाय
कल्पयेत् ॥ १३४ ॥
अन्यमग्नौ प्रजुहुयादपरं देशिकः
स्वयम् ।
शिष्येण सार्द्धं भुञ्जीत
विहिताचमनस्तदा ॥ १३५ ॥
चरु के उतार लेने के पश्चात् आचार्य
स्वयं अस्त्र मन्त्र से अभिमन्त्रित कुशा के द्वारा आच्छादित मण्डल पर दो पात्र रख
कर चरु को बराबर बराबर दो भागों में विधिवत् प्रविभक्त करे । उसमें से एक भाग
देवता के लिये रख देवे । दूसरा भाग अग्नि में हवन करे और देवता के लिये निवेदित
अपर भाग आचमन कर शिष्य के साथ स्वयं भोजन करे ।। १३४-१३५ ॥
आचान्तं शिष्यमानीय सकलीकृत्य
देशिकः ।
तालप्रमाणं हृज्जप्तं
क्षीरवृक्षादिसम्भवम् ॥ १३६ ॥
दन्तकाष्ठम्
दन्तकाष्ठं तदा दद्याच्छिष्याय
नियतात्मने ।
दन्तान् विशोध्य स पुनस्तत्
प्रक्षाल्य विसर्जयेत् ॥ १३७ ॥
पुनः आचार्य आचमन किये शिष्य को
अपने पास बुला कर उसके अङ्गों में षडङ्गन्यास कर उसका सकलीकरण करे । तदनन्तर
हृन्मन्त्र (नमः) पढ़कर तोडे गये क्षीरीवृक्ष के दन्तकाष्ठ को जिसका प्रमाण
तालमात्र (लगभग एक वित्ता) के बराबर हो नियमपूर्वक रहने वाले शिष्य को देवे। शिष्य
उसे ले कर अपने दाँतों को स्वच्छ करे । पुनः उस दन्तकाष्ठ को दूर फेंक देवे ॥
१३६-१३७ ॥
शिखाबन्धः, अधिवास:
अनन्तरकर्त्तव्यानि
यथाविधि तमाचान्तं
शिखाबन्धाभिरक्षितम् ।
विधाय सार्द्धममुना वेद्यां
दर्भास्तरे गुरुः ।
शयीत तस्यां तां रात्रिमधिवासः
समीरितः ॥ १३८ ॥
पुनः यथाविधि शास्त्रीय रीति से
शिष्य को आचमन कराकर आचार्य मूलमन्त्र से अथवा 'अघोरामित्यादि' मन्त्र से शिष्य की शिखा बाँधकर
अभिरक्षित करे । तदनन्तर उसी शिष्य के साथ वेदी पर दर्भयुक्त आसन पर उस रात्रि में
शयन करे। इस प्रकार हमने अधिवास की क्रिया का वर्णन किया ॥ १३८ ॥
॥ इति
श्रीलक्ष्मणदेशिकेन्द्रविरचिते शारदातिलके चतुर्थः पटलः समाप्तः ॥ ४ ॥
।। इस प्रकार शारदातिलक के चतुर्थ
पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ४ ॥
आगे जारी........ शारदातिलक पटल 5

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