माहेश्वरतन्त्र पटल २९
माहेश्वरतन्त्र के पटल २९ में मन्त्रराज
कथन और बीज मन्त्रों का विवेचन का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल २९
Maheshvar tantra Patal 29
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल २९
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र उन्तीसवाँ पटल
माहेश्वरतन्त्र एकोनत्रिंश पटल
अथ एकोनत्रिंशं पटलम्
पार्वत्युवाच -
ब्रूहि तं च महेशान् मन्त्रराजं महेश्वर
।
यस्य श्रवणमात्रेण सर्वमन्त्रफलं भवेत्
॥ १ ॥
पार्वती ने कहा- हे महेशान,
हे महेश्वर उस मन्त्रराज को आप हमसे कहें जिनके श्रवणमात्र से ही
सभी मन्त्रों का फल प्राप्त हो जाय ॥ १ ॥
श्रीमहादेव उवाच -
देवेशि मन्त्रराजोऽयं भाति गोप्यतरो
महान् ।
पातकानि प्रलीयन्ते सकृद्यस्य जपादपि
॥ २ ॥
श्री महादेव ने कहा-हे देवेशि यह
मन्त्रराज अत्यन्त गोपनीय और महान् है। जिसका एक बार भी जप कर लेने से अनेक पाप
नष्ट हो जाते हैं ॥ २ ॥
सप्तकोटिमहामन्त्रस्तवाग्रे कथिता
मया ।
तेषु श्रीकृष्णमन्त्राश्च बहवः
कीर्त्तितास्तव ॥ ३ ॥
मेरे द्वारा सात कोटि महामन्त्र
तुम्हारे सामने कहे गए। उनमें से श्रीकृष्ण के मन्त्रों का तुमने बहुत प्रकार से
यश कीर्तित किया है ॥ ३ ॥
रासलीलाप्रविष्टस्य पुरा
गोपालरूपिणः ।
प्रोक्ता मन्त्रा महेशानि तत्रायं
गोपितो मया ॥ ४ ॥
रहस्यस्वान्मया नोक्तः पुनस्तं
परिपृच्छसि ।
स्वयापि गोपितव्योऽयं न देयः स्यात्कथचन
।। ५ ।।
गोपाल रूप में पहले रासलीला में
प्रविष्ट गोपाल के मन्त्रों को, हे महेशानि !
हमने कहा जो मेरे द्वारा वहीं छिपाया गया था। मैंने गोपनीय होने से उसे नहीं कहा
था । उसे पुनः तुम पूँछ रही हो । अतः तुम्हें भी उसका गोपन करना चाहिए । किसी भी
प्रकार से इसे किसी को नहीं देना चाहिए ॥ ४-५ ॥
लेखयित्त्वा ददेन्मन्त्रं न
वाचोपदिशेत्प्रये ।
ब्रह्महत्या सहस्राणां दत्त्वा
पापमवाप्नुयात् ॥ ६ ॥
[ यदि किसी को देना भी हो तो ]
लिखकर ही मन्त्र को दे दे । किन्तु हे प्रिये ! वाणी से उसका उपदेश न करे । देने
से वह सहस्र ब्रह्महत्या के पाप को प्राप्त करता है ॥ ६ ॥
निर्धारत्वे वासनाया यदि प्रमोद्गमो
भवेत् ।
तदैवोपदिशेद्देवि ह्यन्यथा
कृष्णघातकः ॥ ७ ॥
उत्कट वासना का यदि प्रेमोद्गम होवे
तो हे देवि ! तभी [वाणी से] उपदेश करे । नहीं तो उपदेश करने वाला कृष्णघातक ही
होता है ॥ ७ ॥
विधिः सर्वोऽपि कर्त्तव्यो
मन्त्रदानं विनाप्रिये।
ततः परीक्षिते काले योग्यत्वे
मन्त्रमादिशेत् ॥ ८ ॥
मन्त्रदान की सम्पूर्ण विधि भी करे
। हे प्रिये ! फिर समय की परीक्षा करके योग्य व्यक्ति को ही मन्त्र का उपदेश करे॥८॥
शृणु मन्त्रं प्रवक्ष्यामि सावधानेन
चेतसा ।
स्वर आद्यश्चतुर्थश्च
आकाशस्तदनन्तरम् ।। ९ ।।
वायुबीजं ततः पश्चात् अग्निबीजमतः
परम् ।
ततो वरुणबीजव भूबीजं स्यात्ततः परम्
।। १० ।।
सावधान चित्त से सुनो,
अब मैं मन्त्र कहता हूँ-पहला स्वर (आ) और चतुर्थ स्वर (ई) अक्षर
स्वर है। इसके बाद आकाश है। इस प्रकार 'आकाशोऽहम्' यह (व्योम बीज) है । उसके बाद वायुबीज है, उसके बाद
अग्निबीज है। उसके बाद वरुणबीज है । उसके बाद भू बीज है ।। ९-१० ॥
श्रीकृष्ण परमानन्द ते प्रियास्मीति
वं वदेत् ।
मामङ्गीकुविति चोक्त्वा दर्शयेति
द्वयं वदेत् ।। ११ ।।
'हे श्रीकृष्ण ! परम आनन्द को
देने वाले ! मैं आपकी प्रिया है' इस प्रकार कहे । 'मुझे अङ्गीकार करो' इस प्रकार कहकर दर्शय दर्शय'
दिखाओ दिखाओ ऐसा दो बार कहे ॥। ११ ॥
प्रबोधयेति द्वितीयं मोहेति च ततो
वदेत् ।
मपाकुरुद्वयं चोक्त्वा नमोन्तोऽयं
महामनुः ॥ १२ ॥
इसके द्वितीय शब्द प्रबोधय 'जगाओ' और इसके बाद 'मेरे मोह
को हटाओ' इस प्रकार कहकर 'आपको नमस्कार
है' – ऐसा अन्त में कहे ॥ १२ ॥
एकोनैकोनपञ्चाशद्वर्णेः सङ्घटितः
प्रिये ।
आद्यबीज महेशानि परमात्माक्षरः
प्रभुः ।। १३ ।।
हे प्रिये ! हे महेशानि ! परमात्मा
अक्षर प्रभु के आद्य बीज को ४९- ४९ वर्णों से संघटित करके कहे ॥ १३ ॥
तस्मात्सृष्टिवर्णमयी हकारान्ताविजृम्भिता
।
प्रतिलोमलय तस्याः स एव परिशिष्यते
॥ १४ ॥
इसीलिए यह सृष्टि अन्त में हकार से
विजृम्भित वर्णमय कही गई है । उस सृष्टि के प्रतिलोम जय के बाद वही शेष रहता है ॥
१४ ॥
अनन्तत्वादात्मतत्वाद्
व्यापकत्वान्महेश्वरि ।
न तस्यास्ति लयः क्वापि वर्णानामात्मनः
प्रिये ।। १५ ।।
हे महेश्वरि ! आत्म तत्व के व्यापक
और अनन्त होने से उस वर्णात्मक आत्मा कालय कभी भी, हे प्रिये ! नहीं होता है ।। १५ ।।
स्वरश्चतुर्थस्तन्माया
हय्पर्यङकुरता गता ।
ततो ज्ञानहरा देवि जाता सा
विश्वमोहिनी ॥ १६ ॥
जो चतुर्थस्वर (ई) है वह माया है
क्योंकि ऊपर में वही अङकुरत्व को प्राप्त होती है । वह माया,
फिर, हे देवि ! ज्ञान को हर लेने वाली होती है
और वही विश्व को मोह लेती है ॥ १६ ॥
मध्यबिन्दुसमायोगाच्छुन्यरूपा हि साभवत्
।
शून्यत्त्वेधस्तना रेखा
जगदङकुररूपिणी ।। १७॥
किन्तु वह मध्य विन्दु के समायोग से
शुन्य रूप हो जाती है। जगत्-अङकुरा रूप से यही शून्यत्व अधस्तना रेखा है।।१७।।
अर्द्ध
बिन्दुसमायोगाद्योगमायात्मिका हि सा ।
एवं त्रितययोगेन ज्ञेयं तस्या
गुणत्रयम् ।। १८ ।।
वही माया अर्धबिन्दु के समायोग से
योगमायात्मिका माया हो जाती है। इस प्रकार तीनों के योग से उसे गुणत्रय वाली जानना
चाहिए ।। १८ ।।
प्रतिबिम्बवदाभासं निर्मले
परमात्मनि ।
यदा समरसाकारा विश्वयोनिस्तदा हि सा
॥ १९ ॥
निर्मल परमात्मा में वह प्रतिबिम्ब
के समान आभासित होती है । जब वह 'सम-रस' आकार वाली होती है, तब वह विश्व को उत्पन्न करने वाली
होती है ॥ १९ ॥
कोणत्रयसमायोगा
ब्रह्मादित्रितयात्मिका ।
लोकत्रयात्मिका चंव तथा
वेदत्रयात्मिका ॥ २० ॥
कोणत्रय के समायोग से वह ब्रह्मादि
रूप से त्रयात्मिका, लोक त्रयात्मिका
तथा दयात्मिका है ।। २० ।।
इच्छाज्ञानक्रियात्मा च
कालत्रितयरूपिणी ।
अग्निसोमार्करूपा च सर्वत्रितयरूपिणी
।। २१ ।।
इच्छा,
ज्ञान और क्रियात्मक रूप से वह कालत्रयरूपिणी है । वही अग्नि, चन्द्र और सूर्य रूप होने से सम्पूर्ण रूप से तयात्मिका है ।। २१ ।।
अधोमुखा हि सा ज्ञेयावतरन्ती
परात्मनः ।
यदा चोर्ध्वमुखी भूयाद्वह्निज्वालेव
सा लये ।। २२ ।
परम आत्मा से जब वह अवतरित होती है
तो उसे अधोमुख जानना चाहिए और जब वह ऊर्ध्वमुखी होए तो प्रलय की अग्नि की ज्वाला
के समान होती है ।। २२ ।।
शून्यत्वेऽवस्तना रेखा जगदङ्कुररूपिणी
।
यदेव च महत्तत्त्वमित्याहुस्तन्त्रवादिनः
। २३ ।।
अहङ्कारस्तु रेखान्तस्तद्गुणोपाधिसङ्गतः।
त्रिविधः स तु
विज्ञेयस्तस्माद्भूतानि जज्ञिरे ॥ २४ ॥
शून्य में वह जगदङ्कुर रूप से
अधस्तन रेखा होती है। तन्त्र के ज्ञाता विद्वान् उसी को 'महत् तस्त्र' कहते हैं और उसकी गुणोपाधि से सङ्गत
होकर रेखा के अन्तस्थल में विद्यमान होने से उसे 'अहङ्कार
कहते हैं। इस प्रकार वह त्रिविध रूप से जानी जाती है । जिससे समस्त प्राणिजात की
उत्पत्ति होती है ।। २३-२४ ।।
तद्वाचकान्यक्षराणि हकारादीनि पञ्च च
।
पुरतस्तानि दृश्यन्ते मन्त्रराजे महेश्वरि
।। २५ ।।
उसके वाचक हकार आदि ( ह य व र ल)
पाँच अक्षर होते हैं । उस मन्त्रराज के सामने, हे
महेश्वरि वे रहते हैं ।। २५ ।।
आकाशस्तु हकारस्थो देवता तु सदाशिवः
।
गुणः शब्दस्तथा श्रोत्रं श्रोतव्या
दिक् च सुन्दरि ॥ २६ ॥
आकाश हकारस्य हैं और देवता सदाशिव
हैं उसका गुण शब्द है और हे सुन्दरि ! उसे कानों से और दिशाओं में सुना जाता है ।।
२६ ।।
यकारे देवदेवेशि वायुरीश्वर एव च ।
स्पर्शस्त्वगिन्द्रियं देवि
स्पृष्टव्यं च महीरुहम् ।। २७ ।।
हे देवदेवेशि ! यकार वायु है जो
ईश्वर ही है। हे देवि ! स्पर्श त्वक् इन्द्रिय है जो वृक्षों के हिलने डुलने रूप
स्पर्श से जाना जाता है ।। २७ ।।
रकारेऽग्निरह देवि रूपं चक्षू
रविस्तथा ।
दृष्टव्यं चेति विज्ञेय
मञ्जूषामणिवत्तथा ॥ २८ ॥
और मैं रकार रूप अग्नि हैं। हे देवि
रूप को जानने के लिए चक्षु इन्द्रिय सूर्य हैं। मञ्जूषामणि के समान इस इन्द्रिय से
जानना चाहिए और देखना चाहिए ।। २८ ।।
वकारे सलिलं विष्ण रसश्च
रसनेन्द्रियम् ।
रसितव्यं च वरुणो देवता चेति
संस्थिता ।। २९ ।।
वकार जलरूप है और विष्णु भगवान् रस
रूप है जिन्हें रसनेन्द्रिय से जानना चाहिए और उसके देवता वरुण हैं ।। २९ ।।
लकारे पृथिवीतत्वं ब्रह्मा गन्धश्च
नासिका ।
घ्रातव्यमश्विनो देवि देवता चेति
संस्थिता ।। ३० ।।
लकार में पृथ्वी तत्व ब्रह्म रूप से
विद्यमान है और नासिका में वह गन्ध से सूघकर जाना जाता है । हे देवि ! अश्विन द्वथ
उनके देवता हैं ॥ ३० ॥
इत्येवं पञ्चभूतानां बीजकार्य
तदीवरि ।
सदर्श कथित ते च यदाहुः
क्षरसञ्ज्ञया ॥ ३१ ॥
इस प्रकार बीजरूप पश्चभूतों के वही
कार्य होते हैं। हे ईश्वरि । उन्हीं को तुमसे हमने कहा है । जिसे विद्वत्जन 'अक्षर' नाम से सदृश अभिहित करते हैं ॥ ३१ ॥
अकारः परमं ब्रह्म कूटस्थ व्यापक
ध्रुवम् ।
अनुत्तरं निविशेष चिदंशस्तेन कथ्यते
।। ३२ ।।
अक्षरातीतरूपोऽसौ शेषवर्णैर्मनुः स्मृतः।
तस्मादहो सच्चिदानन्दरूपोऽय
मन्त्रनायकः ॥ ३३ ॥
अकार ही परब्रह्म है जो कूटस्थ
(अविचल ),
व्यापक और ध्रुव है। इसीलिए उसे उत्तररहित, निविशेष
और चित् अंश रूप कहा गया है। अक्षर से परे यह मन्त्र रूप ही शेष वर्णों के द्वारा
कहा है। इसलिए यह नायक मन्त्र, हे देवि ! सत् चित् और आनन्द
स्वरूप है ।। ३२-३३ ।
मननं विश्वविज्ञानं त्राणं
संसारसङ्कटात् ।
यतः करोति संसिद्धो मन्त्र
इत्युच्यते प्रिये ।। ३४ ।।
संसार रूप संकट से बचने के लिए इसका
मनन करना ही विश्व का विज्ञान है । इसीलिए, हे
प्रिये । मन्त्र की संसिद्धि को कहा गया है ॥ ३४ ॥
मन्त्रचूडामणि ज्ञात्वा मुच्यते
सर्वसंशयात् ।
विज्ञाते मन्त्र राजन्ये ज्ञातव्य
नावशिष्यते ।। ३५ ।।
इस प्रकार इस मन्त्रराज को जानकर वह
सभी संदेहों से मुक्त हो जाता है । इस मन्त्रराज के जान लेने पर अन्य कुछ भी जानने
को शेष नहीं रह जाता है ।। ३५ ।।
शाब्दं वपुः परानन्दवपुषः परमेश्वरि
।
मन्त्रचूडामणिरयं मया ते
परिकीर्तितः ॥ ३६ ॥
हे परमेश्वरि ! शब्द शरीर वाले
श्रेष्ठ आनन्दकारी शरीर रूप इस मन्त्रराज को तुमसे मैंने कहा है ।। ३६ ।।
अकथ्यः पारमार्थ्येन तथापि कथितस्तव
।
गोपनीयः प्रयत्नेन जननी जारगर्भवत्
।। ३७ ।।
परमार्थं तत्त्व कहने योग्य नहीं है
। फिर भी तुमसे हमने कहा है । इसलिए प्रयत्नपूर्वक इसका गोपन उसी प्रकार करना
चाहिए जैसे माता व्यभिचरित गर्भ को छिपाती है ॥ ३७ ॥
पश्यन्ति ये शठधियो वर्णबुध्या
महामनुम् ।
ते यान्ति नरकान् सर्वे
यावदाभूतसप्लवम् ।। ३८ ।।
जो बुद्धि वाले लोग इस महा मन्त्र
को 'वर्णं' बुद्धि से समझते हैं, वे
सभी जब तक भूतों का लय न हो जाय, तब तक नरकों को प्राप्त
होते हैं ॥ ३८ ॥
पुरुष मन्त्रजप्तारं ये पश्यन्ति
नराधमाः ।
तेषां पापानि नश्यन्ति
ब्रह्महत्यादिकान्यपि ॥। ३९ ।।
जो नराधम भी मन्त्र जपते हुए
पुरुषों को यदि देखते हैं तो उनके ब्रह्म हत्या आदि पापों का विनाश हो जाता है ।।
३९ ।
कोटिकल्पेषु पापिष्ठा नित्यं
पापपरायणाः ।
तेऽपि शुध्यन्ति
सम्पर्कान्मन्त्रजप्तुनं सशयः ।। ४० ।।
कोटि कल्पों में भी जो अत्यन्त पापी
रहें हैं और जो नित्य पाप में ही दत्तचित्त रहे हों वे सभी इस मन्त्र के जप करने
वाले के सम्पर्क में आने से ही शुद्ध हो जाते हैं। इसमें संशय नहीं है ॥ ४० ॥
लब्धे चिन्तामणी देवि
किमन्यर्धनसञ्चयेः ।
तथा लब्धे मन्त्रराजे किमन्यैः
साधनैर्भवेत् ॥ ४१ ॥
एतन्मन्त्रार्थविज्ञानं
मन्त्रसिद्धान्तसूचकम् ।
यो नित्य भावयेच्चित्ते वासना तस्य
शुध्यति ॥ ४२ ॥
हे देवि,
चिन्तामणि के प्राप्त हो जाने पर अन्य धन सम्पत्ति के सञ्चय का क्या
लाभ है ? और जब मन्त्र राज की प्राप्ति हो गई तो अन्य साधनों
को लेकर क्या होगा ? मन्त्रों के सिद्धान्त का सूचक यही
मन्त्र का 'अर्थ-विज्ञान' है। इसलिए जो
नित्य प्रति इस मन्त्र की भावना अपने चित्त में करता है तो उसकी सभी वासनाएं शुद्ध
हो जाती हैं ।। ४१-४२ ॥
विहाय मायामालिन्यं
देहन्द्रियनिबन्धनम् ।
वासना सम्मुखीभूयाद्विवेकं
प्रतिबिम्बवत् ॥ ४३ ॥
शरीर और उनकी इन्द्रियों के बन्धनों
को तोड़कर माया रूप मालिन्य को छोड़कर उसकी वासना सम्मुख उपस्थित हो जाती है
(अर्थात् वह जो इच्छा करता है वही होता है) और उसे प्रतिबिम्ब के समान विवेक
प्राप्त हो जाता है ।। ४३ ।।
मन्त्रमाहात्म्यमेतत्तु मया ते
परिकीर्तितम् ।
किमन्यत् श्रोतुमिच्छा ते तदिदानीं
वद प्रिये ॥ ४४ ॥
इस प्रकार इस मन्त्र के माहात्म्य
को हमने तुम्हें बतलाया है । हे प्रिये ! अब तुम और क्या सुनना चाहती हो ?
उसे कहो ॥ ४४ ॥
॥ इति श्री माहेश्वरतन्त्रे
उत्तरखण्डे शिवोमासंवादे एकोनत्रिशतितमं पटलम् ।। २९ ।।
॥ इस प्रकार श्री नारदपश्चरात्र
आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र के उत्तरखण्ड ( ज्ञानखण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और
भगवान् शङ्कर के संवाद के उन्तीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ।। २९ ॥
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 30

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