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त्रिपुरा रहस्य अध्याय १

त्रिपुरा रहस्य अध्याय १

त्रिपुरा रहस्य अध्याय १में सर्वप्रपञ्च के कारणभूत ॐ शिवतत्त्व और ह्रीं शक्तितत्त्व के द्वारा प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाव से आगे के ग्रन्थविषयक वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण, दक्षिण देश में मलयाचल की प्राकृतिक सुषमा और उसकी उपत्यकाओं तथा पर्वत के ऊपर की भूमि के मनोरम दृश्य का वर्णन, महर्षिप्रवर पुण्यपुञ्ज श्रीपरशुराम के आश्रम का वर्णन तथा हारितायन का आगमन । श्रेयः प्राप्ति के लिये अपने गुरु श्रीपरशुराम को उसका प्रश्न करना । महाविष्णु स्वरूप दत्तात्रेय का पूर्वसमय में साक्षात् श्रीत्रिपुराम्बा के विषय में हुए संवाद स्मरण तदनुसार अपने शिष्य सुमेधा को भगवती बाला की दीक्षा देना । सुमेधा हारितायन को साधना करने से बालाम्बा का स्वप्न में दर्शन और हारितायन को स्वरूपाविर्भूत बालाम्बा के साक्षात् दर्शन होने की सत्यता का आकाशवाणी द्वारा निश्चय, श्रीबाला की दीक्षा लिये हुए सुमेधा का फिर अपने गुरुदेव के समीप जाना और भगवती परा को प्रसन्न करने का साधन बताने से उसे सिद्धि प्राप्त होना। ब्रह्मा की सभा आये श्रीनारद एवं हारितायन सुमेधा का सम्वाद का वर्णन है ।

त्रिपुरा रहस्य अध्याय १

त्रिपुरा रहस्य अध्याय १

Tripura rahasya chapter 1

त्रिपुरारहस्यम् प्रथमोऽध्यायः

त्रिपुरा रहस्य प्रथम अध्याय 

त्रिपुरा रहस्य माहात्म्य खण्ड अध्याय १

श्रीमन्महागणाधिपतयेनमः

श्रीपरमगुरुभ्यो नमः

परमेष्ठिगुरुभ्यो नमः

श्रीसरस्वत्यैनमः

त्रिपुरा रहस्यम्

( माहात्म्य खण्डम् )

त्रिपुराम्बिकायै नमः

* मङ्गलाचरण *

श्रीगणेशाम्बिके नत्वा नारायणपदाम्बुजम् ।

त्रिपुराम्वारहस्यस्य भाषां कुर्मो यथामति ॥

प्रथमोऽध्यायः

परशुरामः सुमेधसोः सम्वादः

प्रथम अध्याय

परशुराम और सुमेधा का सम्वाद

ॐ नमः कारणानन्द हृद्बीजाकाशगात्रिणे ।

यल्लीलालेशल सितालो कालो काण्ड रेणवः ॥ १॥

सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति स्थिति संहार के एकमात्र भाव ॐकारवाच्य उन कारणानन्द से हृद बीजरूपी आकाश गात्रवाले (देहवाले) अपनी स्वाच्छन्द्यभरता से ही सृष्टि के लीला विस्तार का प्रकटन करने वाले महामहिम तत्व को नमस्कार करता हूँ जिनकी लीला के लेश-मात्र से लोकालोक ब्रह्माण्ड की रेणुका स्वरूपगत रूप में प्रतिष्ठित हो कर कार्य करती चलती है ॥ १ ॥

यदक्षरं परं ब्रह्म जगन्मालामणिप्रभम् ।

सर्वं सर्वात्मकं सर्वसारं सर्वपदाश्रयम् ॥२॥

जो स्वयं अक्षर (अविकारी) पर ब्रह्म है और सम्पूर्ण जगद्रचना रूपी माला में मणि की कान्ति धारण कर स्वयं विलसित है उस सर्व ब्रह्ममय ब्रह्मात्मक रूपवाले सम्पूर्ण संसार के सार और सम्पूर्ण श्रेष्ठ धामों के आश्रय भूत उस परतत्व का मैं अभिनिवेश ( ध्यान ) करता हूँ ॥२॥

देवाऽशेष संसारदलबीज शिवात्मकम् ।

शिवरूपं शक्तिरूपं ब्रह्मरूपस्वरूपकम् ॥ ३॥

सम्पूर्ण संसार की इस परम प्रकान्त विच्छित्ति के लिए जो बीजरूप से शिवरूप में अधिष्ठित है और शक्ति तथा शक्तिमान् के अभेद के साथ ही जो शिवतादात्म्योपपन्न शक्ति स्वरूप और शक्तितादात्म्यापन्न शिवरूप है और ब्रह्मस्वरूप अधिष्ठित हैं उनका मैं अभिनिवेश करता हूँ ॥३॥

त्रिपुरां परमेशानी महाप्रलयसाक्षिणीम् ।

दग्धका मोज्जीवनाय सुधासारांनमाम्यहम् ॥४॥

श्रीमती त्रिपुरा परमेश्वरी भगवती जो महाप्रलय की साक्षिणी है और दग्धकाम के उज्जीवन के लिये सुधारमयी है उस भगवती को मैं नमस्कार करता हूँ ॥४॥

अस्तिदक्षिणदिग्भागेमलयाद्रिर्महोच्छ्रयः ।

शृङ्गसङ्घातसंक्रान्तसप्तसप्तिमहापथः ॥५॥

अनेकशृङ्गलीलात्त महापुरुषवभवः ।

स्वाङ्गव्याप्तिपराक्षिप्तमहामेरुमहीत्वकः ॥६॥

दक्षिण दिशा में विशाल गिरिराज मलयाचल है उसके सर्वोच्च शिखरों की ऊंचाई से भगवान् सूर्यनारायण विशाल क्रान्ति-मार्ग भी सङ्क्रमण पाता है । परमव्योम को स्पर्श करने वाले उन शिखरों से ऐसा प्रतीत होता है महापुरुष के वैभव की कान्ति झलकती हो अपने अङ्गों की व्यापकता से महामेरु से आक्रान्त पृथ्वी का वह पलभर बन रहा हो ॥ ५ ६॥

नानावृक्षाङ्कुरप्रान्तविश्रान्तघनमण्डलः ।

मृदुप्रबालविलसच्छविक्षिप्तारुणप्रभः ॥७॥

अमरीमृदुगीतात्तभृङ्गीरवसमश्रुतिः ।

श्रीगन्धगन्धसंरम्भजितनाक्यङ्गसौरभः ॥८॥

उस विशाल पर्वतराज की अधित्यका में नाना विशाल वृक्षों का घनमण्डल छाया हुआ है कि प्राकृत दृश्यों की नयनाभिराम छवि का वर्णन करते नहीं बनता । कोमल प्रबाल (मूगे) की अरुणिमा शोभा से सूर्य है लालिमा को भी वह पर्वतराज दूर बिठाता है । उन सुगन्धित वृक्षों में भौरों का गुजार का निनाद ऐसा लगता है मानो देवगण की स्त्रियां वहां अपने कोमल कण्ठों से मृदुगीतों का गायन करती हों । चन्दन की मृदुमन्दगुण से ऐसा प्रतीत होता है मानो देवगण के अङ्गों की सौरभ वहां उतर आई हो ॥ ७८॥

एलालतापरिमलविलसद्बालमारुतः ।

अनेक पद्मिनी फुल्लपद्मसंस्थितहंसकः ॥९ ॥

प्रावृड्जलदसंस्पर्धिगन्धसिन्धुरमण्डलः ।

भिन्न सिन्धुरदानोद्यद्वासनाभरितान्तरः ॥१०॥

एला ( इलाइची ) लता की भीनी-भीनी मनोमोहक परिमल से शीतलमन्द सुगन्ध पवन में एक प्रकार महकता समा गई है। अनेक पद्मिनी के और फूले हुए कमल के पुष्पों के साथ हंसपंक्ति अत्यधिक शोभा दे रही है। आकाश के बादलों से गिरी बूँदों की स्पर्धा से मुग्धकारी भूमि की गन्ध में मानो हाथियों के गण्डस्थल से मादक गन्ध आ गई हो। उस मदकपोल की गन्ध को उत्कण्ठित भ्रमर समूह को दान देने के लिए जैसे वे उन्मत्त गज अत्यन्त उत्सुक हो गई हों । उस पर्वतराज की ऊपर वाली भूमि (अधित्यका) में सिंह, व्याघ्र, वराह आदि हिंसक जन्तुओं का समूह यत्र तत्र घुमता है जिससे वहां की नैसर्गिक शोभा कई गुना बढ़ गई है ॥९-१०॥

सिंहव्याघ्रवराहौघशोभाल दधित्यकः ।

विस्तीर्णवनखण्डान्तराश्रमोयदुपत्यकः ॥११॥

तापसान्तेवासिवेदघोषघुङ घुमितान्तरः ।

हुतगव्यघृतामोदपरिबृंहितमारुतः ॥१२॥

वायुकम्पितशाखाग्रबद्धचीरपताककः ।

कचित्तु तरुमूलेषु सुखासनसमाश्रयाः ॥१३॥

इसके साथ ही पर्वत के सन्निकटवर्ती भूमि प्रदेश के विस्तृत वन प्रदेश में मुनियों के आश्रम शोभित हैं जिनमें उन ऋषियों के शिष्यगण वेदपाठ की मधुर ध्वनि से सारे वातावरण को आर्षघोष से निनादित कर रहे हैं, उन आश्रमों में यज्ञकुण्डस्थित अग्नि में हवन करने से नाना गव्य हवनद्रव्यों तथा घृत की सुगन्धि से सारा वायुमण्डल मुखरित हो रहा है। वायु के निरन्तर बहने से वृक्षों की शाखाओं के अग्रभाग में बराबर स्पन्दन चालू रहता है जो बंधी हुई चीर पताकाओं को इधर-उधर फहराते रहती हैं । इन तपोवनों में कहीं पर वृक्षों के मूल भाग में सुखासन (आलथी पालथी मार कर ) से तपस्वी ध्यान में ऐसे बैठे हैं मानों चित्रलिखित मूर्ति ही विराज रही हो ॥ ११-१३॥

तपस्विनो ध्यानपराश्चित्रार्पितनरा इव ।

क्वचिद्ब्रह्मपरं जप्यं जपन्तो ब्रह्मवादिनः ॥ १४ ॥

क्वचिदनन्हूयमानानित्यनैमित्तिकक्रमैः ।

क्वचिदध्यापयामासुर्वेदान् विप्रार्भकान्बुधाः ॥ १५॥

कहीं पर ब्रह्मविचार -परायण महर्षिगण ब्रह्मानुचिन्तन में तत्पर हैं; किसी स्थान पर नित्य एवं नैमित्तिक विधिविधान से यज्ञवेदियों में आहुतियां दी जा रही हैं। कहीं विद्वान् लोग विप्रवटुकों (ब्रह्मचारियों) को चारों वेद पढ़ा रहे हैं ॥१४- १५॥

क्वचित्सभायांशास्त्रेषु मीमांसन्ते परस्परम् ।

कचित्प्रवचनं चक्रुः पुराणानां कथाविदः ॥१६॥

एक ओर शास्त्रों के पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष को लेकर सिद्धान्त स्थिर करने के लिए निगमागम पारदर्शी विद्वान् महानुभाव मीमांसा में लगे हैं और कहीं पर कथा के मर्मस्पर्शी वाचकवृन्द पुराणों के उपन्यास और प्रवचन कार्यों में लगे हैं ॥१६॥

एवंविधेऽद्रिप्रवरे सर्वर्त्तु गुणभूषिते ।

प्रत्यग्भागे विविक्तायां भुवि कासाररोधसि ॥१७॥

तृणपर्ण चयोदञ्चस्कुटी मध्य महोतले ।

विष्टरे सुखमासीनः कार्ष्णसाराङ्गसम्भवे ॥१८॥

कर्पूरगौरसर्वाङ्गः स्वच्छवस्त्रोपवीतकः ।

भस्मोद्धूलितसर्वाङ्गः कालशोभित्रिपुण्ड्रकः ॥ १९॥

इस प्रकार प्रकृतिनटी की सुरम्य लीला भूमि में उस पर्वतराज में जहां सम्पूर्ण ऋतुओं का क्रमशः उन्मेष होता रहता है प्रत्यग्भाग (सर्वत्र) ही में विस्तृतभूमि पर सरोवरों के किनारे सुन्दर तृण पत्रों से छायी हुई कुटिया में कृष्णसारमृग की चर्म के बने आसन पर सुखपूर्वक विराजमान कपूर की भांति गौरवर्ण स्वच्छ वस्त्र और यज्ञोपवीत धारण किये सारे शरीर में भस्म रमाये हुए महाकाल के भाल में शोभा पाने वाले त्रिपुण्ड्र को धारण कर अपनी नित्यक्रियाओं को विधिपूर्वक सम्पादन कर शान्त सुन्दर रूपवाले श्रीपरशुराम विराजमान हैं ॥१७-१९॥

कृतनित्यक्रियःशान्तोजामदग्न्यः शुभेक्षणः ।

यः साक्षाद्द वदेवस्य विष्णोरंशसमुद्भवः ॥२०॥

रामः सर्वजनारामः साक्षात्पशुपतेः प्रियः ।

विष्णोर्दत्तात्रेयमूत्तः सेवालब्धात्मवैभवः ॥२१॥

जो साक्षात् देवाधिदेव भगवान् विष्णु के अंश से उत्पन्न हैं, सम्पूर्ण प्राणीमात्र को प्रिय हैं और प्रत्यक्ष भगवान पशुपति के प्रिय अपने आराध्य गुरुवर्य श्रीविष्णु भगवान् दत्तात्रेय की मूर्ति की निष्ठामयी सेवा से ही  आत्मसाक्षात्कार की पूर्ण विभूति प्राप्त हुई है ॥ २०-२१॥

तं कदाचिन्मुनिवरं प्रसन्नेन्द्रियमानसम् ।

प्रियशिष्यः सुमेधाह्नः सदा सेवनतत्परः ॥२२॥

पप्रच्छ प्राञ्जलिर्भूत्वाभक्तिश्रद्धासमन्वितः ।

राम ! दीनदयासिन्धो ! भक्तानुग्रहविग्रह ! ॥२३॥

पुरैकदा मया पृष्टो भवान् भूरिविभावनः ।

किं दीनमानुषादीनां संसारक्लेशभागिनाम् ॥२४॥

परं श्रेयोवहं पुण्यं सर्वोत्तमतमंभवेत् ।

यस्मादभ्यधिकं नैव किञ्चिच्छ्रेयःसुसाधनम् ॥२५॥

एतन्मे ब्रूहि विप्रेन्द्र श्रोतव्यं यदि मे भवेत् ।

अपि गोप्यं वदन्तीह गुरवो दीनवत्सलाः ॥२६॥

एवं मयापि संपृष्टो भवानीपत्स्मिताननः ।

वदामि कालक्रमतः प्रोक्तवानिति भार्गव ! ॥२७॥

तस्याद्य षोडशसमा व्यतीयुस्त्रुटिलेशवत् ।

स एवाऽर्थो मम स्वान्ते परिवर्तेत्यहर्निशम् ॥२८॥

वद मे तत्सुकृपया मय्यनन्यशरण्यके ।

इति तद्वचनं श्रुत्वा भार्गवः परिचिन्तयन् ॥२९॥

सस्मार तत्पुरा प्रोक्तं दत्तात्रेयेण विष्णुना ।

त्रिपुराया रहस्यं यत्साक्षाच्छिवमुखाच्छ्रुतम् ॥३०॥

एक दिन प्रसन्न इन्द्रिय मनवाले उन मुनिवर श्रीपरशुराम को उनकी सेवा में सदा परायण प्रिय शिष्य सुमेध ने भक्ति श्रद्धायुक्त हो प्रणाम कर पूछा हे दीनदयासिन्धो भक्तजन पर कृपा के लिए ही शरीर धारण करने वाले गुरुवर्य ! मैंने एक बार चतुरस्र (चारों तरफ) कल्याण दृष्टि वाले आप से पूछा था कि संसार के उग्र तापों से पीडित दीन हीन मनुष्य आदि के लिये क्या अत्यधिक कल्याणकारी सब से उत्तमोत्तम पुण्य है जिस से अधिक अन्य कोई भी श्रेयस्कर साधन नहीं हो ? हे विप्रेन्द्र ! आप मुझे सुनने के योग्य समझें तो अवश्य ही बतलावें, क्योंकि प्रणतवत्सल गुरु अत्यधिक गोपनीय तत्त्व को भी अधिकारी शिष्यों को कृपा कर कहते ही हैं । इस प्रकार मेरे पूछने पर आपने कुछ-कुछ मन्द हास्य करते हुए कहा कि कालक्रम से जो कहा गया था उसे बताता हूँ । उसके बाद आज तक वर्ष एक त्रुटि के भाग के समान समय बीत गया, वही प्रश्न मेरे मन में दिन रात घूमता रहता है । आप बहुत अनुज्ञा करके आप की अनन्य (एकमात्र) शरण में आये हुए मुझे यह बताइये। इस प्रकार उस का प्रश्न सुनकर उन्होंने सोचा श्रीविष्णुदत्तात्रेय ने जो पहले श्रीशिवजी के मुख से सुना था उसी श्री त्रिपुरा भगवती के रहस्य का स्मरण किया ॥२२-३०॥

विशुद्धहृदि संन्यस्तं कालेन शिवाज्ञया ।

मयि संक्राम्य सर्वस्वं भक्तिज्ञानोपवृ हितम् ॥३१॥

माहात्म्यवैराग्ययुक्तमितिहासैर्विचित्रितम् ।

न देयमेतत् कस्मैचित्तन्त्रसर्वस्त्रमुत्तमम् ॥३२॥

नास्तिकाय शठायाऽपि नाम्ना भागेकलेशतः ।

भक्तानामपि चान्येषां वक्तव्यं न पुरस्त्वया ॥ ३३ ॥

कारणात्परमेशस्य वाक्यार्थस्यापि गौरवात् ।

एकस्तव महाभक्तः सुमेधा हारितायनः ॥३४॥

शिष्यस्तस्मै सुभक्ताय वद कालेन भार्गव ! ।

स चैतत्समुपाकर्ण्य ग्रन्थतोऽनुविधास्यति ॥३५॥

यह शास्त्र विशुद्ध हृदय में भली प्रकार सुरक्षित रक्खा हुआ उस समय श्रीशिव की आज्ञा से भक्ति-ज्ञान से पूर्ण मुझे नाना चित्रविचित्र इतिहासों से सुसज्जित माहात्म्य और वैराग्य से युक्त प्राप्त हुआ था । उन्होंने मुझे यह आदेश दिया कि यह उत्तम तन्त्रों का सर्वस्व है किसी भी नास्तिक मूर्ख को लेशमात्र भी मत देना । अधिक क्या जो अन्य देवों के भक्त हैं उन्हें भी मत देना। क्योंकि भगवान् परमेश से यह वचन मिला है। और उनके कहने का बहुत बड़ा महत्व है कि तेरा एक बड़ा भक्ति करनेवाला सुमेधा हारितायन ( हरीत का वंशज ) शिष्य होगा; हे भार्गव उसे समय आने पर तू अच्छी प्रकार कहना वह इस तत्त्व को सुन कर ग्रन्थ बनायेगा ॥३१-३५॥

संहितां पावनीं धन्यां तन्त्रसार समन्वयाम् ।

ग्रन्थरूप विधायाऽथ शिष्यानध्यापयिष्यति ॥ ३६ ॥

वह भली प्रकार तन्त्रों के सार का समन्वय करने वाली अत्यन्त पवित्र धन्य संहिता को ग्रन्थ रूप में निबन्धन कर अपने शिष्यवर्ग को पढ़ायेगा ॥ ३६ ॥

इति स्मृत्वा गुरुवचः शिष्यं दृष्ट्वा कृताञ्जलिम् ।

नियत्या भगवच्छक्तेरनुल्लङ्ध्यस्थितिचिरम् ॥३७॥

चिन्तयित्वा सुनिश्चित्य तं प्राह पुरतः स्थितम् ।

वत्स कालं प्रतीक्षस्व सर्वं कालेन जायते ॥ ३८ ॥

इस प्रकार अपने पूज्य गुरुवर्य के कथन को स्मरण कर अपने सामने अञ्जलि बांध कर प्रणाम करते हुए उसी शिष्य को देख कर भाग्याधीन ही भगवान की शक्ति द्वारा यह सब अवसर उपस्थित किया गया है इसका उलङ्घन नहीं किया जा सकता इसे भली प्रकार सोच विचार से निश्चित करके अपने सामने खड़े सुमेधा से श्री परशुराम बोले, "हे वत्स ! समय की प्रतीक्षा करो सब कुछ समय पर ही होता है" ॥ ३७-३८ ॥

श्वः पुष्ये शुभवेलायामुत्तरोपक्रमं भवेत् ।

एवं स्थिते समभवत्सन्ध्यामृदुकरो रविः ॥३९॥

अन्वास्य पश्चिम सन्ध्यां तौ जप्य जेपतुः परम् ।

ध्यायन्हृदिस्वात्मशक्तिरात्रौ सुष्वपतुः सुखम् ॥४०॥

"कल पुष्य नक्षत्र है मैं तुम्हें अपने प्रश्न का यथोचित प्रत्युत्तर दूंगा" । ऐसे कहते कहते सूर्य की तेज किरणें मन्द हो गई और सन्ध्या काल उपस्थित हो गया । पश्चिम सन्ध्या का काल उपस्थित होते ही दोनों गुरु-शिष्य सन्ध्यागत भगवान् अंशुमाली का उस स्थान पर उपस्थान करने लगे और उन्होंने परम जपनीय इष्टदेव के मंत्र का विधिपूर्वक जप किया एवं अपने हृदयप्रदेश में आत्म-शक्ति का ध्यान करते हुए रात्रि में सुखपूर्वक शयन किया ॥ ३९-४० ॥

अथ प्रातः समुत्थाय कृताह्निकविधिं गुरुम् ।

दण्डवत्प्रणिपत्याथ बद्धाञ्जलिपुटो नतः ॥४१॥

उपतस्थे समुचिते काले परमशोभने ।

अथ तं राम आहूय वत्सेति मधुरस्वरम् ॥४२॥

पुष्पाञ्जलिं प्रयोज्याग्रस्थितमासने शुभे ।

या बाला त्रिपुरा प्रोक्ता ललिताश्री कुमारिका ॥४३॥

तस्या वपुर्वाङमयं यत्तच्छिष्याय प्रदत्तवान् ।

साङ्ग पीठं समभ्यर्च्य नाना विभवहेतुभिः॥४४॥

प्रजप्त दिव्य कलशतोयैः संस्ताप्य मार्गतः ।

पाशत्रयमपि छित्त्वा चाधिवास्य निशांयतः ॥४५॥

बाद में प्रातः काल उपस्थित होने पर जब गुरु श्रीपरशुरामजी अपनी नित्यक्रियाओं को सम्पादन कर चुके तब  हारितायन सुमेधा ने उनके पास आकर दण्डवत्प्रणाम कर हाथ जोड़े हुए नतमस्तक हो परम शोभन समय में वंदना की । अनन्तर श्रीपरशुराम ने उसे बुला कर " हे वत्स" इस मधुरस्वर से सम्बोधित किया । उन्होंने अपने सामने सुवर्ण के आसन पर विराजमान भगवती को पुष्पाञ्जलि समर्पित कर भगवतीललिता श्रीत्रिपुरा कुमारिका का ध्यान करें हुए उसके वाङ्मय शरीर को अपने अधिकारी शिष्य को दे दिया अर्थात् ललिता रहस्य का उपदेश किया। उन्होंने नाना उपलब्ध वैभव की सामग्रियों से सपरिकर भगवती के पीठ की दिव्यमन्त्रित कलसजल से निगमागम प्रतिपादित विधिविधान से स्नान करवाकर पूजा की। तीनों पाशों को छेदन कर रात्रिकाल बिता दिया ॥४१-४५॥

ग्राहयानास तद्रूपमाधारत्रयशोभितम् ।

द्वादशाद्यं तुर्य मध्यमत्रसान चतुर्दशम् ॥४६॥

त्रिधा स्थितं च तद्रूपं तथा चर्याक्रमं शुभम् ।

आचारक्रममुद्रादि रहस्यमखिलं क्रमात् ॥४७॥

मूर्धन् मूलदेशेषु प्रसाद विनियोजनम् ।

स्वात्मानावाहुतिं तत्त्रयाणां क्रमशोऽब्रवीत् ॥४८॥

तीनों आधारों पर शोभित उस महाभगवती का रूप ग्रहण किया ( ध्यान किया) एवं द्वादशादि परावाकसंशित और चौदह तत्वों का त्रिधास्थित भगवती का रूप और शुभचर्याक्रम आचार क्रम मुद्रा आदि का सम्पूर्ण रहस्य क्रम से बताया । मूर्धा, हृदय और गणेश स्थान के मूलवाले देशों में आत्मप्रीणन की प्रतिक्रिया और आत्मरूपी अग्नि में तर तत्वों की आहुति देने का क्रमनिरूपण बताया ॥ ४६४८ ॥

इति प्रोच्य समादिश्य तत्साधनविधौ ततः ।

वत्सैतद्ब्रह्म परमं सोधयस्वाविलम्बितम् ॥४९॥

इस प्रकार रहस्यपूर्ण तत्वों का क्रम बता कर और सब साधन विधि के सम्बन्ध का उपदेश विधिपूर्वक देकर श्रीपरशुराम बोले हे वत्स ! यही परम ब्रह्म है इसे तू विना विलम्ब के साधन कर॥ ४९ ॥

ततः पूर्णपद तुभ्यं ददाम्यचिरकालतः ।

इति संप्राप्तसर्वस्वरहस्यो हारितायनः ॥५०॥

त्रिः परिक्रम्य नत्खातं श्रीशैलं प्राविशद् तम् ।

तत्र श्री भ्रामरीदेवी नित्यं सन्निहितास्थिता ॥५१॥

 ““इसके बाद मैं तुझे शीघ्र ही पूर्णपद की प्राप्ति प्रदान करूंगा"। इस प्रकार सम्पूर्ण सर्वस्वरहस्य को पाकर श्रीहारितायन ने अपने गुरुवर्य की तीन परिक्रमा कर श्रीशैल में साधना करने को शीघ्रतापूर्वक प्रवेश किया वहां भगवती भ्रामरीदेवी नित्य विराजमान थी । ५० - ५१ ॥

तस्याः सम्मुखतः स्वच्छ वातातपसह कुटीम् ।

निर्माय तत्र कालेन साधनं समुपाक्रमत् ॥५२॥

उनके सम्मुख सुन्दर वायु और गर्मी को सहन करने वाली कुटी बनाकर वहां समय से साधन करना शुरू किया ॥ ५२ ॥

एवं साधयतस्तस्य फलाहारस्य योगिनः ।

भक्तिश्रद्धानिर्भरस्य नियतेन्द्रियचेतसः ॥ ५३॥

प्रसन्नचित्तस्य सदा ध्यानतत्परचेतस ।  

विश्वस्तगुरुवाक्यस्य नवपञ्चत्रिमासकाः ॥ ५४ ॥

ययुःक्षणमिवात्यर्थं संसिद्धं तस्य साधनम् ।

प्रसन्नदेहकरणः सुस्वरः शुभलोचनः ॥ ५५॥

लघुगात्रानो दृष्टः पुष्टाष्टावयवः शुभः ।

अथ स्वतस्य रात्रौ बाला श्रीपरमेश्वरी ॥ ५६ ॥

सर्वावयवशोभाढ्या तरुणारुण सच्छविः ।

अक्षमाला पुस्तकाभीक्रशोभिचतुर्भुजा ॥५७॥

त्रिनेत्रचन्द्रशकलविलसन्मुकुटोज्ज्वला ।

कोटिमन्मथलावण्या कुमारी दशवार्षिकी ॥ ५८ ॥

प्रादुरासीज्जगन्माता लीलास्वीकृतविग्रहा ।

तां दृष्ट्वा स्वप्नसमये प्रसन्नो हारितायनः ॥५९॥

इस प्रकार सदा ध्यान में तत्पर मन वाले, प्रसन्न चित्त भक्ति श्रद्धा में निर्भर इन्द्रियों को नियत रूप तथा गुरु वचनों में विश्वास रखने वाले फलाहार से साधन करते हुये उस योगिराज के सतरह मास क्षण के समान बीत गये और उसका साधन अव्यर्थ एवं पूर्ण सिद्ध हो गया देह और अन्तःकरण जिसका प्रसन्न हो गया; श्रेष्ठस्वर, सुन्दर - नेत्र, अल्प भोजन से हलका शरीर वाला आठ अवयव जिसके पुष्ट हो गये हैं ऐसा पुष्ट और सुन्दर रूप में दीखा । इसके बाद उस रात्रि में स्वप्न में श्रीपरमेश्वरी बालारूप में सम्पूर्ण सुन्दर अवयवों से सुशोभित तरुण अरुण के समान श्रेष्ठ छविवाली अक्षमाला एवं पुस्तक तथा अभय मुद्रा से अत्यधिक सुन्दर चतुर्भुजावाली तीन नेत्र तथा चन्द्रखण्ड से सुशोभित उज्ज्वल मुकुट वाली करोड़ों कामदेवों से भी सुन्दर स्वरूपवती दश वर्ष की अवस्था में लीला से स्वीकार किया है शरीर को जिसने ऐसी जगन्माता प्रकट हुई। स्वप्न समय में उन्हें देख हारितायन प्रसन्न हुआ ॥ ५३ – ५९

दण्डवत्प्रणिपत्याथ हर्षगद्गद सुस्वरः ।

कृताञ्जलिपुटो भूत्वा संस्तोतुमुपचक्रमे ॥ ६० ॥

इसके बाद दण्डवत् प्रणाम कर हर्ष से गद्गद स्वर में हुये अञ्जलि बांधकर वह स्तुति करने लगे । 

त्रिपुरा रहस्य अध्याय १

श्लोक ६१ से ७० तक बाला त्रिपुरसुन्दरी स्तुति वर्णित है । इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-

त्रिपुरा स्तुति

अब आगे-

त्रिपुरा रहस्य अध्याय १

इति स्तुत्वा महादेवीं प्रेमविह्वलितान्तरः ।

दण्डवत्पतितो भूमौ तस्याश्चरणसन्निधौ ॥७१॥

इस प्रकार महादेवी की स्तुति कर प्रेम से विह्वल है अन्तःकरण जिसका उस भगवती के चरणों प्रणाम करके वह पृथ्वी पर दण्डवत् गिर गया ॥ ७१ ॥

आनन्दाश्रुकलारुद्धनेत्रः पुलकिताङ्गकः ।

भक्तिनिर्भरितस्वान्तो नाशक्नोत्किमपीहितुम् ॥७२॥

आनन्द के आंसुओं से नेत्र वाला पुलकित शरीर होकर भक्ति से पंगु है अन्तःकरण जिसका ऐसे कुछ भी बोलने की चेष्टा नहीं कर सका ॥ ७२॥

यदा स वक्तुं द्रष्टुं वाकिञ्चित्कर्तुमनीश्वरः ।

प्रेमवारिधिनिर्मग्नस्तदा सा त्रिपुराम्बिका ॥७३॥

प्राह गम्भीरामृतौघवर्षिया सुस्मितानना ।

वाचावत्सेत्युपामन्त्रय मूर्ध्नि हस्ताम्बुजं न्यधात् ॥७४॥

जब वह प्रेम रूपी समुद्र में डूबा हुआ बोलने तथा देखने के लिये और कुछ भी करने के लिये असमर्थ रहा वह त्रिपुराम्बिका प्रसन्न मुखवाली (मन्द हास्य मुखवाली) गम्भीर अमृत समूह की वर्षा करने वाली वाणी से " ऐसा सम्बोधन कर उसके मस्तक पर अपने करकमल को रक्खा ।।७३-७४।।

स तु पूर्व दर्शनेन मग्न आनन्दसागरे ।

पुनस्तस्याः करस्पर्शादब्रह्मानन्दमयोऽभवत् ॥७५॥

उवाच सा जगन्माता सुमेधोत्ति मा चिरम् ।

गच्छ शीघ्रं गुरोः पार्श्वे सिद्धोऽसी प्सितलाभतः॥७६॥

वह तो प्रथमदर्शन से आनन्द समुद्र में मग्न हो गया था फिर उसके हाथ के स्पर्श से ब्रह्मानन्द में मग्न हो गया । वह जगन्माता बोली हे सुमेधः" ! उठ विलम्ब मत कर शीघ्र ही गुरु के पास जाओ; ईप्सित लाभ से तुम पूर्ण हो गये हो ॥७५-७६॥

इत्युक्वाऽन्तर्हिता सद्यो मनोरथमनुष्यवत् ।

सोऽपि प्रबुद्धस्तत्काले किमेतदिति चिन्तयन् ॥७७॥

नातिस्वस्थमनाः स्वप्ने भूयोभूयो विचिन्तयन् ।

तां मूर्त्ति सुन्दरीं वाचं पीयूषरससोदरीम् ॥७८॥

वेलां कल्यात्मिकां ज्ञात्वा स्नानायाऽगात्सरिद्वरे ।

तदेव चिन्तयानः स विस्मृताह्निकसत्क्रियः॥७९॥

स्मयन्नुवाच स्वात्मानमेतत्किम्मे समीक्षितम् ।

सत्यं वा यदि वाऽसत्यं न वेदम्येतस्य कारणम् ॥८०॥

इतनी कह वह तत्क्षण अन्तर्हित हो गई वह भी मनोरथ करने वाले मनुष्य के विचार के समान ही सहसा जागा । अरे यह क्या ! ऐसा विचार करता हुआ स्वप्न में देखे दृश्य से मन अत्यन्त अस्वस्थ ऐसा वह बारम्बार सुन्दरमूर्ति अमृत व पूर्ण वाणी के विषय में विचार करता हुआ प्रातःकाल जानकर समुद्र किनारे नित्यक्रिया करने के लिये गया । अपनी सारी नित्यक्रियाओं को भूलकर भगवती का ही चिन्तन करता हुआ वह आश्चर्य करता अपने आप में कहने लगा, यह मैंने क्या देखा ? यह सत्य है या झूठ इसका कारण मैं नहीं जानता हूँ ॥ ७७-८०॥

विश्वस्य गुरुसान्निध्यं गत्वाकिं प्रब्रवीम्यहम् ।

स्वप्नस्य भ्रान्तिरूपत्वादविश्वास्योमनीषिणाम् ॥८१॥

न गच्छामि कथं देव्या वचनाच्छ्रद्वया खलः ।

अहो विषममाभाति कालस्य गतिरुवणा ॥८२॥

मैं विश्वास कर गुरु के समीप जाकर क्या बोलूँ ? स्वप्न के भ्रान्तिरूप होने से बुद्धिमानों के लिये वह विश्वास करने योग्य नहीं है । हतविवेक मैं भगवती के कहने से क्यों न जाऊं ? अहो ! आश्चर्य है मुझे सब कुछ ही विषम लगता है, काल की कुटिल गति है ॥ ८१-८२ ॥

तथापि नैव गच्छामि तत्परा क्षन्तुमर्हति ।

इति निश्चित्य नित्यार्थे प्रवृत्ते तु सुमेधसि ॥८३॥

आहा शरीरवाण्येनं शृणु वत्सेति वल्गुना ।

वचसां त्वमविश्वासं त्यज सत्यं न तन्मृषा ॥८४॥

तो भी मैं न जाऊं तो भगवती पराम्बा मुझे क्षमा कर सकती है इस प्रकार जब निश्चित कर सुमेधा अपने नित्यकर्म में लग गये 'आकाश से बड़ी स्पष्ट प्रेममयी दिव्यवाणी बोली " हे वत्स" ! इसे सुन मेरे कहे हुए का तुम अविश्वास छोड़ो, जो कुछ तुमने देखा वह सब कुछ सत्य है कभी मिथ्या नहीं है ॥८३-८४॥

इति श्रुत्वाऽथ वचनमाकाशे निर्जनालये ।

प्रसन्नचित्तः साष्टाङ्ग ननाम भुवि सादरः ॥८५॥

अथ शीघ्र रामशयं गत्वा तत्पादपङ्कजम् ।

मूर्ध्ना संस्पृश्य तद्वृत्तं यथावत्स न्यवेदयत् ॥ ८६ ॥

अनन्तर इस प्रकार देवलोक से आकाश में वाणी सुनकर सुमेधा अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्होंने आदर सहित इष्ट-देव को साष्टाङ्ग प्रणाम किया । अब शीघ्र ही श्रीपरशुरामजी के आश्रम में जाकर उनके चरण कमलों में मस्तक नवाकर वह सम्पूर्ण वृत्तान्त, जैसा उसने अनुभव किया, कह दिया ।। ८५-८६ ।।

तच्छ्रुत्वा भार्गवो रामः प्राह शिष्यं सुविस्मितः ।

धन्यस्त्वं वत्स ते स्वप्ने दृष्टा सा त्रिपुरा परा ॥८७॥

नान्यस्त्वत्तो धन्यतरः प्रसन्ना यस्य सा परा ।

मयाऽपि सर्वमेतत्तेवृत्तं समवलोकितम् ॥८८॥

इसे सुनकर भार्गव श्रीपरशुराम ने अत्यन्त विस्मित होकर शिष्य को कहा "हे वत्स" ! तू वस्तुतः धन्य है तेरे स्वप्न में परा जगदम्बा त्रिपुरा का दर्शन हुआ यह तेरे लिये गौरव की बात है । तेरे से अधिक धन्य अन्य दूसरा व्यक्ति नहीं हैं। जिस पर वह परमाम्बा इतनी अधिक प्रसन्न हुई हो मैंने भी यह सब वृत्तान्त योगदृष्टि से देखा॥८७-८८॥

योगदृष्ट्याऽथ ते सर्वं सम्यक् सम्पद्यतेऽधुना ।

इत्युक्त्वा सुशुभे काले साङ्गोपाङ्गां सविस्तराम् ॥८९॥

श्रीविद्यां क्रममार्गेण दीक्षयामास योगिराट ।

प्राप्तदीक्षस्य तस्याथो दत्तात्रेयाच्छुतं पुरा ॥९०॥

अब सारी बातें ही भली भांति सम्पन्न की जायेगी यह कहकर अत्यन्त शुभ मुहूर्त्त में योगिराज श्रीपरशुराम ने कौल मार्ग के अनुसार साङ्गोपाङ्ग विस्तारपूर्वक उसे श्रीविद्या की दीक्षा दी ॥८९-९०।।

इतिहासं तन्त्रसारं पुण्यं भागवतोत्तमम् ।

साक्षाच्छिवोक्तं त्रिपुरारहस्यमुपदिष्टवान् ॥९१॥

सुमेधा के दीक्षा प्राप्त कर लेनेपर जो पवित्र भगवती के सम्बन्ध का अत्युत्तम तन्त्रों का सार रूप इतिहास प्रत्यक्ष में भगवान शंकर ने अपने श्रीमुख से कहा उस त्रिपुरारहस्य का उपदेश उसे किया ॥ ९१ ॥

वत्सेतत्परमं गोप्यं रक्षणीयं प्रयत्नतः ।

न्यस्तं मयि श्रीगुरुणा तदाज्ञावशतस्त्वयि ॥ ९२॥

हे वत्स ! यह सारा ही तत्व परम रहस्यपूर्ण है इसे विशेष प्रयत्न से सुरक्षित रखना चाहिये; मुझे श्री भगवान् गुरुदेव ने उपदेश किया उन्हीं की आज्ञा से मैंने तुम्हें यह बता दिया ॥९२॥

संक्रामितमभक्तेषु नास्तिकेषु न वक्ष्यसि ।

आराध्य त्रिपुरेशानीं तत्प्रसादमवाप्य च ॥ ९३॥

इस परमसार रहस्य को भक्तिहीन व नास्तिक व्यक्तियों को तू न कहना । भगवती त्रिपुरामहेश्वरी की आराधना कर उनका अनुग्रह प्राप्त करके ग्रन्थ के आकार में बनाकर इसे सच्छिष्यों ( अधिकारियों ) को ही बताना ॥९३॥

निवध्य ग्रन्थरूपेण सच्छिष्येषु नियोजय ।

एवमाज्ञा मम गुरोस्तत्सत्यं स्यान्न चान्यथा ॥ ९४ ॥

इस प्रकार "मेरे गुरु की आज्ञा सत्य हो अन्यथा न हो जाय" यह कहकर सुमेधा ने नतमस्तक हो गुरुदेव को प्रणाम किया और आशीर्वाद से गुरु ने भी उसकी वर्धापना की ॥ ९३-९४॥

इत्युक्त्वा प्रणतं शिष्यमाशीर्भिरनुयोजयत् ।

अथ नत्वा गुरु रामं परिक्रम्य प्रदक्षिणम् ॥९५ ॥

जगाम हालास्यपुरे यत्र श्रीमीनलोचना ।  

पराम्बा राजते साक्षात्सुन्दरेश्वरवल्लभा ॥९६ ॥

तदनन्तर गुरु श्रीपरशुराम को नमन करके प्रदक्षिणा क्रम से परिक्रमण कर वह सुमेधा ऋषि हालास्यपुर में गया जहाँ शोभायुक्त मीन लोचनवाली ( भगवती मीनाक्षी ) साक्षात् सुन्दरेश्वर महेश्वर की पत्नी विराजमान थी ॥९५-९६॥

सुवर्णपद्मिनीतीरे वेगवत्यविदूरतः ।

तपः परममातिष्ठदु द्दिश्य श्रीपराम्बिकाम् ॥९७ ॥

वेगवती स्वर्ण पद्मिनी के तट से कुछ दूर पर उसने श्री पराम्बा का ध्यान कर उत्कृष्ट तपस्या की ॥९७॥

ध्याननिष्ठो महाभागो नियमैरन्वितो यमैः ।

काले काले पूजयन् तां नियतेन्द्रियमानसः ॥९८॥

अपने तपस्या काल में वह महाभाग ध्यानपूर्वक यम-नियमों का पालन करता हुआ संयमपूर्वक नियत समय पर भगवती का पूजन करता रहा ॥९८॥

तां ध्यायन् ललितां नित्यं भक्तिभावसमृद्धिमान् ।

पूजयामाम परमामेवं तस्य सुमेधसः ॥९९॥

नित्य ही भगवती ललिता को एकनिष्ठ ध्यान से जपते हुये उसका अनन्य भक्तिभाव बढता रहा और पूजा का अविकल चलता रहा; इस प्रकार उस सुमेधा के द्वारा भगवती ललिता की एकाग्रमन से ध्यान धारणा करते हुये पांचवा वर्ष बीत गये ॥ ९९॥

अतिक्रान्ताः समाः पञ्च ललितां ध्यायतोऽन्वहम् ।

अथैकदा ध्याननिष्ठो दृष्ट्वाऽन्तः पुरुषं शिवम् ॥१००॥

कर्पूरगौरं जटिलं भस्मोद्धूलितविग्रहम् ।

करेणवादयन् वीणां पुरतः समवस्थितम् ॥१०१॥

किमेतदिति साश्चर्यमुन्मील्य नयने तदा ।

पुःरस्थितं नारदं तमन्वीक्ष्योत्थाय विस्मितः ॥१०२॥

विष्टरं प्रतिपाद्यऽथ प्रणिपत्य कृताञ्जलिः ।

उवाच मधुरं वाक्यं विनीतो हृष्टमानसः ॥ १०३ ॥

इसके बाद एक दिन जब वह अपने ध्यान को केन्द्रित कर हृदयस्थ इष्टदेव शिव के ध्यान में लगा हुआ आनन्द अनुभव करता हुआ कर्पूर के समान गौरवर्णवाले, जटाधारी सारे शरीर में भस्म रमाये परमप्रभु का स्मरण करता था तभी हाथ से वीणा बजाते हुये महापुरुष को अपने सामने देखकर अहो ! यह क्या है इसप्रकार आश्चर्यपूर्वक अपने नेत्रों को खोलकर सामने खड़े हुये नारद को देख फिर विस्मित हो उठकर उन्हें भली प्रकार पाद्य अर्ध्य, व आसन देकर हाथ जोड़कर पूजाकर प्रणाम किया और अत्यन्त प्रसन्न होकर विनीत भाव से वह मधुरवाणी बोला ॥१०१-१०३॥

देवर्षे स्वागतं तेऽस्तु क्षन्तव्या मदपाकृतिः ।

मया ध्यानस्थितेनेह पुरस्त्वं नावलोकितः ॥ १०४ ॥

हे देवर्षे ! आपका स्वागत हो मेरे से ध्यान में बैठे कोई अपराध हो गया हो और आपको मैंने न देखा हो तो कृपा कर क्षमा करें ॥ १०४ ॥

सतां समागमो लोके भूर्यभ्युदयकारणम् ।

कृतार्थोऽहं भवद्भिर्यदनुग्रहविलोकितः ॥१०५॥

महान् पुरुषों का समागम वारंवार इस संसार में अभ्युदय का कारण होता है । मैं तो आपकी कृपादृष्टि से ही कृतकृत्य हो गया हूँ ॥ १०५ ॥

ईप्सितं मे सुसम्पन्न भवद्दर्शनमात्रतः ।

तथापि मे मुनिश्रेष्ठ ! प्रष्टव्यमवशिष्यते ॥ १०६ ॥

पृच्छामि किञ्चित्वां ब्रह्मन महान सन्देह आस्थितः ।

त्वं बहिः संस्थितोऽपीह कथं मेऽन्तः समीक्षितः ॥ १०७॥

एतस्य कारणं ब्रूहि यदि श्रोतव्यमस्ति मे ।

साधवः समभावेन संस्थिता दीनवत्सलाः ॥ १०८ ॥

मेरी सम्पूर्ण कामनायें और अभीष्ट आपके शुभदर्शन से ही पूर्ण हो गये हैं फिर भी हे मुनिश्रेष्ठ मुझे आपसे पूछना बाकी है । ब्रह्मन् ! मैं आपको कुछ पूछता हूँ मुझे बड़ा संदेह हो रहा है, हे महाराज आप बाहर विराजमान हैं तो भी मुझे अपने अन्तःकरण में कैसे दिखलाई पड़े ? यदि मेरे सुनाने योग्य हो तो इसका कारण मुझे बतलाइये । साधु महानुभाव दीनों पर अकारण स्नेह करते हैं और उनकी समदृष्टि होती है ॥ १०६-१०८॥

इति पृष्टस्तदा तेन लोकानुग्रहतत्परः ।

नारदः प्रहसन् वाक्यमुवाचाऽखिलदर्शनः ॥ १०९ ॥

इस प्रकार सुमेधा के पूछने पर सम्पूर्ण प्राणीहि ते रत देवर्षि नारद जो अपने आत्मयोग से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का दर्शन करने का सामर्थ्य रखते हैं हँसते हुये बोले ॥ १०९ ॥

इति श्रीमदितिहासोत्तमे त्रिपुरा रहस्ये द्वादशसाहस्यां संहितायां नारदाभिगमनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

इतिहासोत्तम त्रिपुरारहस्य की बारह हजार श्लोक वाली संहिता के अस्सी अध्यायोंवाले ग्रन्थ में नारदाभिगमननामक प्रथम अध्याय संपूर्ण ॥१॥

आगे जारी........ त्रिपुरा रहस्य अध्याय 2

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