पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

शारदातिलक पटल ६

शारदातिलक पटल ६     

शारदातिलक पटल ६ मातृकाप्रकरण है। इसमें वाग्देवता का ध्यान, मातृका चक्र, शारदा का ध्यान, वर्णेश्वरी का ध्यान एवं महालक्ष्मी का ध्यान तथा मातृका पूजा वर्णित है।

शारदातिलक पटल ६

शारदातिलक पटल ६     

Sharada tilak patal 6

शारदातिलकम् षष्ठः पटल:

शारदातिलकतन्त्रम् (प्रथमो भागः )

शारदा तिलक तन्त्र छटवां पटल

शारदातिलकम्

षष्ठ पटल

अथ षष्ठः पटल:

अथ मातृकाप्रकरणम्

अथ वर्णतनुं वक्ष्ये विश्वबोधविधायिनीम् ।

यस्यामनुपलब्धायां सर्वमेतज्जगज्जडम् ॥ १ ॥

ग्रन्थकार दीक्षा के अनन्तर मन्त्र कहने के उपक्रम में मन्त्र की प्रकृतिभूता मातृकाओं का प्रतिपादन करते हैं-

समस्त जगत् की ज्ञानशक्ति उत्पन्न करने वाली (वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती तथा परा स्वरूपा) मातृका का वर्णन करता हूँ। उन मातृपश्यन्ती तथा परा स्वरूपा मातृका का वर्णन करता हूँ जिन मातृकाओं के अभाव में यह सारा जगत् जड़ जैसा प्रतीत होता है ॥ १ ॥

ऋषिर्ब्रह्मा समुद्दिष्टो गायत्री छन्द ईरितम् ।

सरस्वती समाख्याता देवता देशिकोत्तमैः ॥ २ ॥

इन मातृकाओं के ब्रह्मा ऋषि हैं, इनका छन्द गायत्री हैं, (तन्त्र के) आचार्यों ने इनका देवता सरस्वती को कहा है ॥ २ ॥

अक्लीवह्रस्वदीर्घान्तर्गतैः षड्वर्गकैः क्रमात् ।

षडङ्गानि विधेयानि जातियुक्तानि देशिकैः ॥ ३ ॥

क्लीव (ऋ ॠ ल लू) इन वर्णों के अतिरिक्त छः ह्रस्व (अ इ उ ए ओ अं) वर्ण तथा छः दीर्घवर्ण (आ ई ऊ ऐ औ अः) तथा छ: वर्ग (क च ट त प य इन्हें मिला देने पर मातृकाओं के षडङ्ग हो जाते हैं। अतः इनके जाति वाले स्थानों के साथ न्यास करना चाहिए । प्रयोग विधि- अं कं खं गं घं डं आं हृदयाय नमः । इं चं छं जं झं जं ई शिरसे स्वाहा । इत्यादि।।३।।

वाग्देवता

पञ्चाशल्लिपिभिर्विभक्तमुखदोः पन्मध्यवक्षःस्थलां

भास्वन्मौलिनिबद्धचन्द्रशकलामापीनतुङ्गस्तनीम् ।

मुद्रामक्षगुणं सुधाढ्यकलशं विद्याञ्च हस्ताम्बुजै-

विभ्राणां विशदप्रभां त्रिनयनां वाग्देवतामाश्रये ॥ ४ ॥

अब षडङ्गन्यास करने के पश्चात् वाग्देवता का ध्यान कहते हैं-

वाग्देवता का ध्यान - जिनका मुख, बाहु, पैर, कटि प्रदेश तथा वक्षःस्थल प्रदेश पच्चास वर्णात्मक लिपियों से विभक्त है, जिनके भालस्थल में द्वितीया का चन्द्रमा सुशोभित है, तथा स्तन अत्यन्त पीन (स्थूल है), जिन्होंने अपने कर- कमलों में मुद्रा, जपमाला, सुधा संयुक्त कलश और विद्या धारण किया है, जो शुभ वस्त्र तथा शुभ अलङ्कारों से जगमगा रही हैं ऐसी तीन नेत्रों वाली वाग्देवता का मैं ध्यान करता हूँ ॥ ४ ॥

अक्षरन्यासस्थानानि

ललाटमुखवृत्ताक्षिश्रुतिघ्राणेषु गण्डयोः ।

ओष्ठदन्तोत्तमाङ्गास्यदोः पत्सन्ध्यग्रकेषु च ॥५॥

पार्श्वयोः पृष्ठतो नाभौ जठरे हृदयेऽसवो ।

ककुद्यसे च हृत्पूर्वं पाणिपादयुगे तथा ॥ ६ ॥

जठराननयोर्न्यस्येन्मातृकार्णान् यथाक्रमात् ।

त्वगसृङ्मांसमेदोऽस्थिमज्जा शुक्रात्मकान् विदुः ॥ ७ ॥

अब उपर्युक्त ५० अक्षरों के न्यास के लिये स्थानों का निर्देश करते हैं

१. केशान्त, २. मुखवृत्त, ३-४. दो नेत्र, ५-६ दो कान, ७. घ्राण, ८. गण्ड प्रदेश ९. ओष्ठ, १०. दाँत, ११. शिर, १२. मुख १३-१४. भुजा तथा पैरों के सन्धि प्रदेश के अग्रभाग, १५-१६ दोनों पार्श्व पृष्ठभाग, १७. नाभिप्रदेश, १८. जठर १९. हृदय २० कन्धा, २१ ग्रीवा, २२. हृदय, २३-२४ दोनों हाथ, २५-२६ दोनों पैर, २७. जठर, तथा २८. आननये कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, तथा पवर्ग य र ल वर्णों के न्यास स्थान हैं ।। ५-७ ।।

पुरश्चरणम्

वा (या) दिहा (सा) न्तान् न्यसेदात्मपरमज्ञानपूर्वकान् ।

दीक्षितः प्रोक्तमार्गेण न्यसेल्लक्षं समाहितः ॥ ८ ॥

जपेत् तत्संख्यया विद्वानयुतं मधुराप्लुतैः ।

विदधीत तिलैहोंमं मातृकामन्वहं जपेत् ॥ ९ ॥

त्वक्, असृङ्, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, तथा शुक्र व श ष स ह क्ष ल इन वर्णों के न्यास स्थान कहे गये हैं। दीक्षा लेने वाला साधक एकाग्र चित्त हो इन वर्णों का एक लाख न्यास तथा एक लाख जप करे । इस प्रक्रिया में एक बार न्यास कर एक बार जप करे । पुनः एक न्यास कर एक जप करे यही क्रम है। पुनः त्रिमधुर (घी, मधु और दूध) से आप्लुत तिलों से दस हजार होम करे तथा प्रति आहुति में एक एक बार मातृकाओं का जप भी करे ।। ७-९ ।।

मातृकाचक्रम्

व्योमेन्द्वौरसनार्णकर्णिकमचां द्वन्द्वैः स्फुरत्केशरं

पत्रान्तर्गतपञ्चवर्गयशलार्णादित्रिवर्गं क्रमात् ।

आशास्वस्त्रिषु लान्तलाङ्गलियुजा क्षौणीपुरेणावृतं

पद्मं कल्पितमत्र पूजयतु तां वर्णात्मिकां देवताम् ॥ १० ॥

इसके पश्चात् अष्टपत्र युक्त एक कमल बनावे। उसकी कर्णिकाओं में व्योम (हकार) इन्द्र (स) उन दोनों पर औ की मात्रा जो विसर्ग युक्त हों, इस प्रकार हसौं: आदि में लिखकर चतुर्दश स्वर लिखे । केशरों में दो दो अच् लिखे । अष्टपत्रों पर क वर्ग, च वर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, यवर्ग, ( य र ल व श वर्ग ( स ह श ष) तथा ल वर्ग (लक्ष त्र ज्ञ) इन आठ वर्गों को लिखे, दिशाओं के कोणों में बाहर चार ठ युक्त चार वकार लिखे, इस प्रकार भूपुर युक्त श्वेत कमल की रचना करे । पुनः उस पर वर्णदेवता (सरस्वती) की पूजा करे। क्योंकि सरस्वती श्वेत कमल पर आसीन रहती हैं ॥ १० ॥

पीठशक्तयः

आधारशक्तिमारभ्य पीठशक्त्यन्तमर्चयेत् ।

मेधा प्रज्ञा प्रभा विद्या धीर्धृतिस्मृतिबुद्धयः ॥ ११ ॥

विद्येश्वरीति सम्प्रोक्ता भारत्या नव शक्तयः ।

वर्णाब्जेनासनं दद्यान्मूर्त्तिं मूलेन कल्पयेत् ॥ १२ ॥

उपर्युक्त पूजा का क्रम आधार शक्ति से आरम्भ कर पीठ शक्ति के अर्चन पर्यन्त होना चाहिए । मेधा, प्रज्ञा, प्रभा, विद्या, धी, धृति, स्मृति, बुद्धि और विद्येश्वरीये नव सरस्वती की शक्तियाँ कही गई हैं। 'वर्णाब्जाय नमः' इस मन्त्र से आसन देना चाहिए और मूल मन्त्र से (ॐ ह्रीं ) से उस पर मूर्ति स्थापित करनी चाहिए ।। ११-१२ ॥

आवरणदेवतानामानि

आवाह्य पूजयेत् तस्यां देवीमावरणैः सह ।

अङ्गैरावरणं पूर्वं द्वितीयं युग्मशः स्वरैः ॥ १३ ॥

अष्टवर्गैस्तृतीयं स्यात् तच्छक्तिभिरनन्तरम् ।

पञ्चमं मातृभिः प्रोक्तं षष्ठं लोकेश्वरैः स्मृतम् ॥ १४ ॥

इस प्रकार आवाहन कर कर्णिका मध्य में अङ्गमन्त्रों से प्रथमावरण की, दो दो स्वरों (अं आं नमः) से द्वितीय आवरण की, अष्टवर्ग से तृतीय आवरण की, शक्तियों के नामों से चतुर्थ आवरण की, मातृकावर्णों से पञ्चम आवरण की तथा लोकपालों के नामों से षष्ठ आवरण की पूजा करे ।। १३-१४ ।।

लोकपालायुधैः प्रोक्तं वज्राद्यैः सप्तमं ततः ।

विधिनाऽनेन वर्णेशीमुपचारैः प्रपूजयेत् ॥ १५ ॥

लोकपालों के वज्रादि आयुधों के नाम से सप्तम आवरण की पूजा करे । पुनः वागीश्वरी की इसी विधि से गन्धादि उपचारों द्वारा पूजा सुसम्पन्न करे ।। १५॥

व्यापिनी पालिनी पश्चात् पावनी क्लेदिनी तथा ।

धारिणी मालिनी भूयो हंसिनी शान्तिनी स्मृता ॥ १६ ॥

शुभ्राः पत्रेषु सम्पूज्या धृताक्षगुणपुस्तकाः ।

तदनन्तर व्यापिनी, पालिनी, पावनी, क्लेदिनी धारिणी, मालिनी, हंसिनी एवं शंन्तिनी इन शुभ्रवर्ण वाली आठ देवियों की जिनके हाथों में अक्षमाला तथा पुस्तक शोभित है, उनकी पूजा करे ।। १६-१७ ।।

ब्राह्मी माहेश्वरी भूयः कौमारी वैष्णवी मता ॥ १७ ॥

वाराह्यनन्तरेन्द्राणी चामुण्डा सप्तमी मता ।

अष्टमी स्यान्महालक्ष्मीः प्रोक्ताः स्युर्विश्वमातरः ॥ १८ ॥

पुनः भुपूर में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी, सप्तमी चामुण्डा तथा आठवीं महालक्ष्मी का नीचे लिखे प्रकार से ध्यान कर पूजन करे । ये सभी विश्व की मातायें हैं ।। १७-१८ ॥

ब्राह्मयादीनां ध्यानकथनम्

१.दण्डं कमण्डलुं पश्चादक्षसूत्रमथाऽ भयम् ।

बिभ्रती कनकच्छाया ब्राह्मी कृष्णाजिनोज्ज्वला ॥ १९ ॥

सोने के समान कान्तिवाली, कृष्णाजिन धारण किये हुये ब्राह्मी देवी अपने हाथों में दण्ड, कमण्डलु जपमाला तथा अभय धारण की हैं। इस प्रकार ब्रह्माणी का ध्यान करे ।। १९ ॥

२. शूलं परश्वधं क्षुद्रदुन्दुभिं नृकरोटिकाम् ।

वहन्ती हिमसङ्काशा ध्येया माहेश्वरी शुभा ॥ २० ॥

हिम के समान शुभ्र वर्ण वाली, सबका शुभ करने वाली माहेश्वरी अपने हाथों में शूल, फरसा, दुन्दुभि तथा मनुष्य की खोपड़ी धारण की है। माहेश्वरी का ध्यान साधक को इसी रूप में करना चाहिए ।। २० ।।

३. अङ्कुशं दण्डखट्वाङ्गौ पाशञ्च दधती करैः ।

बन्धूकपुष्पसङ्काशा कौमारी कामदायिनी ॥ २१ ॥

बन्धूक पुष्प के समान वर्ण वाली कामदायिनी कौमारी अपने हाथों में अंकुश, दण्ड, खट्वांग तथा पाश धारण की हैं। इस स्वरूप से कौमारी का ध्यान करे ।। २१ ।

४. चक्रं घण्टां कपालञ्च शङ्खञ्च दधती करैः ।

तमालश्यामला ध्येया वैष्णवी विभ्रमोज्ज्वला ॥ २२ ॥

तमाल पत्र के समान श्यामवर्ण वाली, क्रीडा में निपुण, वैष्णवी अपने हाथों में चक्र, घण्टा, कपाल तथा शङ्ख धारण की हैं। उन वैष्णवी का इस स्वरूप से ध्यान करे ।। २२ ।।

५. मुषलं करवालञ्च खेटकं दधती हलम् ।

करैश्चतुर्भिर्वाराही ध्येया कालघनच्छविः ॥ २३ ॥

काले बादल के समान कान्तिवाली वाराही अपने हाथों में मुशल, करवाल, खेटक तथा हल धारण की हैं। उनका भी इसी स्वरूप से ध्यान करे ॥ २३ ॥

६. अङ्कुशं तोमरं विद्युत् कुलिशं बिभ्रती करैः ।

इन्द्रनीलनिभेन्द्राणी ध्येया सर्वसमृद्धिदा ॥ २४ ॥

इन्द्रनील के समान कान्ति वाली इन्द्राणी अपने हाथों में अंकुश, तोमर, विद्युत् तथा वज्र धारण की हैं। उनका इस रूप से ध्यान करे ।। २४ ।।

७. शूलं कृपाणं नृशिरः कपालं दधती करैः ।

मुण्डनङ्मण्डिता ध्येया चामुण्डा रक्तविग्रहा ॥ २५ ॥

शूल कृपाण (तलवार), नृशिर और कपाल हाथों में धारण करने वाली मुण्डमाला से मण्डित रक्तवर्ण वाली चामुण्डा का ध्यान करना चाहिए ।। २५ ।।

८. अक्षत्रजं बीजपूरं कपालं पङ्कजं करैः ।

वहन्ती हेमसङ्काशा महालक्ष्मी: समीरिता ॥ २६ ॥

सुवर्ण के समान कान्ति वाली महालक्ष्मी अपने हाथों में जप माला, बीज- पूर, कपाल तथा कमल धारण की हैं उनका इस स्वरूप से ध्यान करे ।। २६ ।।

पूजयेन्मातृकामित्थं नित्यं साधकसत्तमः ॥ २७ ॥

इस प्रकार ऊपर कही गई ८ मातृकाओं का ध्यान कर उत्तम साधक उनका पूजन करे ।। २७ ।।

सृष्टिन्यासः । स्थितिन्यासः

न्यसेत् सर्गान्वितान् सृष्ट्या ध्यात्वा देवीं यथाविधि ।

सबिन्द्वन्तिकान् न्यस्य डार्णाद्यान् स्थितिवर्त्मना ॥ २८ ॥

विद्यात् पूर्वोदितान् विद्वानृष्यादीनङ्गसंयुतान् ।

ध्यायेद् वर्णेश्वरीमत्र वल्लभेन समन्विताम् ॥ २९ ॥

पुनः विधि अनुसार जब सृष्टि मार्ग से षडङ्ग न्यास करे तब सर्ग युक्त स्थिति में उनका ध्यान करे । सर्ग युक्त स्थितिन्यास में अः नमः केशान्ते, आः नमः मुखवृत्तेः, इत्यादि न्यास का क्रम जानना चाहिए ।

विद्वान् साधक स्थिति क्रम में डकार वर्ण से आरम्भ कर ठ पर्यन्त वर्णों का न्यास करे । इस क्रम में मातृका देवताओं के षडङ्गन्यास, सर्ग बिन्दु युक्त वर्णों स करना चाहिए । इनके ऋषि, छन्द तथा देवता का भी पूर्वोक्त क्रम से विनियोग करना चाहिए ।

प्रयोग विधि इस प्रकार है-डं नमः दक्षिण गुल्फे, ढं नमः दक्षिण- पादांगुलिमूले के क्रम से क्षकारान्त न्यास कर अं नमः केशान्ते, ठं नमः दक्षिणजानुनि पर्यन्त न्यास करे ।। २८-२९ ।।

वर्णेश्वरीध्यानम्

सिन्दूरकान्तिममिताभरणां त्रिनेत्रां

विद्याक्षसूत्रमृगपोतवरं दधानाम् ।

पार्श्वस्थितां भगवतीमपि काञ्चनाङ्गीं

ध्यायेत् कराब्जधृतपुस्तकवर्णमालाम् ॥ ३० ॥

स्थिति क्रम में वर्णेश्वरी का ध्यान वर्णेश्वर से युक्त इस प्रकार करना चाहिए- जिनके शरीर की कान्ति सिन्दूर के समान है, जो अपरिमित आभूषणों से युक्त हैं, जिनके तीन विशाल नेत्र हैं जिन्होंने अपने हाथों में विद्या, अक्षसूत्र, मृगपोत तथा वरमुद्रा धारण किया है, जिनके पार्श्वभाग में काञ्चन के समान वर्ण वाली भगवती अपने कर कमलों में पुस्तक तथा वर्णमाला धारण किये हुये स्थित हैं ।। २९-३० ॥

संहारन्यासः

अभ्यर्चनादिकं सर्वं विदध्यात् पूर्ववर्त्मना ।

बिन्दुयुक्तामिमां न्यस्येत् संहृत्या प्रतिलोमतः ॥ ३१ ॥

विद्यात् पूर्वोदितान् विद्वान् ऋष्यादीनङ्गसंयुतान् ।

इस प्रकार ध्यान के पश्चात् उनका पूजन कर प्रतिलोम क्रम से क्षकारादि से आरम्भ कर अकारान्त वर्णों को बिन्दु से युक्त कर भगवती का संहार न्यास करे । ऋषि, छन्द तथा देवता का विनियोग भी पूर्ववत् करे ।

विमर्श - संहार क्रम में इस प्रकार की विधि है - 'यथा क्षं नमः' हृदादि मुखे, 'हं नमः' हृदादि जठरे इत्यादि ।

विद्वान् साधक पूर्व में कहे गये प्रकार के अनुसार इनका ऋषि, छन्द, देवता तथा षडङ्ग समझे ।। ३१-३२ ।।

ध्येया वर्णमये पीठे देवी वाग्वल्लभा शिवा ॥ ३२ ॥

संहारमातृकाध्यानम्

अक्षत्रजं हरिणपोतमुदग्रटङ्कं

विद्यां करैरविरतं दधतीं त्रिनेत्राम् ।

अर्द्धेन्दुमौलिमरुणामरविन्दवासां

वर्णेश्वरीं प्रणमत स्तनभारनम्राम् ॥ ३३ ॥

पुनः वर्णमय पीठ पर वाग्वल्लभा शिवाभगवती का ध्यान इस प्रकार करे - माला, हरिणशावक, तीक्ष्ण परशु तथा विद्या को अपने हाथों में निरन्तर धारण की हुई, तीन नेत्र वाली, मस्तक पर अर्द्धेन्दु से विराजमान कमल पर निवास करने वाली तथा स्तन भार से नम्र भगवती वर्णेश्वरी को प्रणाम करना चाहिए ।। ३२-३३ ॥

न्यासार्चनादिकं सर्वं कुर्यात् पूर्वोक्तवर्त्मना ।

तारोत्याभिः कलाभिस्तां न्यसेत् साधकसत्तमः ॥ ३४ ॥

वर्णाद्यास्तारसंयुक्ता न्यस्तव्यास्ता नमोऽन्विताः।

पुनः उनका न्यास तथा पूजन पूर्वोक्त रीति से कर उत्तम साधक प्रणव से उत्पन्न सृष्टि आदि पाँच भेद वाली कलाओं से युक्त मातृकाओं को पूर्वोक्त स्थानों में न्यास करे । पुनः संहार क्रम में भी प्रणव संयुक्त अकारादि वर्ण जिनके अन्त में नमः पद हो उनसे न्यास करे। प्रथम नाद कला से उत्पन्न निवृत्ति आदि से तदनन्तर अकार ऊकार मकार बिन्दु से उत्पन्न सृष्टि आदि से न्यास करे ।

प्रयोग विधि - यथा - 'ॐ अं निवृत्यै नमः केशान्ते' इत्यादि ।

विमर्श - अन्तर्गत पदार्थ का बाहर भासित होना सृष्टि है, शिव में भासित होना स्थिति है । संस्कार मात्र शेष रह कर पुनः भीतर में निवास करने का नाम संहार है ।। ३४-३५ ।।

अस्या ऋष्यादिकथनम्

ऋषिः प्रजापतिश्छन्दो गायत्रं समुदाहृतम् ॥ ३५ ॥

कलात्मा वर्णजननी देवता शारदा स्मृता ।

ह्रस्वदीर्घान्तरगतैः षडङ्गं प्रणवैः स्मृतम् ॥ ३६ ॥

इसके भी प्रजापति ऋषि हैं, गायत्री छन्द हैं, कलात्मा वर्णजननी शारदा देवता हैं। क्लीव वर्ण (ऋ ऋ लृ लू) से रहित हस्व और दीर्घ के मध्य में प्रणव मन्त्र लगा कर षडङ्गन्यास करे ।

प्रयोग विधि - यथा- 'अं ॐ आं हृदयाय नमः' इत्यादि ।। ३५-३६ ॥

शारदाध्यानम्

हस्तैः पद्मं रथाङ्गं गुणमथ हरिणं पुस्तकं वर्णमालां

टङ्कं शुभ्रं कपालं दरममृतलसद्धेमकुम्भं वहन्तीम् ।

मुक्ताविद्युत्पयोदस्फटिकनवजवाबन्धुरैः पञ्चवक्त्रै-

त्र्यक्षैर्वक्षोजनम्रां सकलशशिनिभां शारदां तां नमामि ॥ ३७ ॥

जिन्होंने अपने दश हाथों में १. पद्म, २. चक्र, ३. अक्षमाला, ४. हरिणशिशु, ५. पुस्तक, ६. वर्णमाला, ७. शुभ्रपरशु, ८. कपाल, ९. त्रिशूल तथा १०. अमृत युक्त हेमकुम्भ धारण किया है तथा जिनके पाँच मुख, मुक्ता, विद्युत्, प्रमोद, स्फटिक तथा नवीन जपापुष्प के समान आभा वाले हैं, जिनके तीन नेत्र हैं तथा स्तनभार से जो अत्यन्त विनम्र है, जो संपूर्ण कलाओं से युक्त चन्द्रमा के समान शोभित हो रही हैं ऐसी शारदा को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३७ ॥

श्रीकण्ठमातृकाप्रकरणम्

अर्चयेदुक्तमार्गेण शारदां सर्वकामदाम् ।

तार्त्तीयपूर्वां तां न्यस्येन्नमोऽन्तां रुद्रसंयुताम् ॥ ३८ ॥

संपूर्ण कामनाओं को देने वाली शारदा का पूर्ववत् अर्चन करे । पुनः 'हसौं' मन्त्र को आदि में लगाकर रुद्र तथा उनकी शक्तियों को चतुर्थ्यन्त कर उसमें नमः पद लगाकर, तत्तत्स्थानों में न्यास करे ।

प्रयोग विधि - यथा— 'हसौ श्रीकण्ठेशपूर्णोदरीभ्यां नमः केशान्ते' आदि । ( द्र० मन्त्रमहोदधि पृ० ६७२-६७५) ।।३८।।

ऋष्यादिकथनम्

सधातुप्राणशक्त्यात्मयुक्ता यादिषु ते क्रमात् ।

ऋषिः स्याद्दक्षिणामूर्त्तिर्गायत्रं छन्द ईरितम् ॥ ३९ ॥

अर्द्धनारीश्वरः प्रोक्तो देवता तन्त्रवेदिभिः ।

हसा षड्दीर्घयुक्तेन कुर्यादङ्गानि देशिकः ॥ ४० ॥

पुनः साधक यकारादि दश व्यापक वर्णों को आदि में उच्चारण कर त्वक्, असृक्, मांस, मेद, अस्थि मज्जा एवं शुक्र इन सप्त धातुओं को बारी बारी से आत्मशक्ति के साथ रुद्रात्मक शक्तियों में चतुर्थी विभक्ति लगाकर अन्त में नमः शब्द का प्रयोग करते हुये न्यास करे ।

प्रयोग विधियथाॐ ह्सौं यं त्वगात्मभ्यां बालीशसुमुखीश्वरीभ्यां नमः हृदये इत्यादि ।

तन्त्रवेत्ताओं ने इस न्यास का ऋषि दक्षिणामूर्ति, गायत्री छन्द तथा अर्धनारीश्वर देवता कहा है । तदनन्तर साधक छः दीर्घाक्षरों (आ ई ऊ ऐ औ अः) से युक्त हसौ मन्त्र से षडङ्गन्यास करे ।

प्रयोग विधि - यथा - ॐ आं हसौ हृदयाय नमः, ॐ ई हसौ शिरसे स्वाहा इत्यादि ।। ३९-४० ॥

अर्द्धाम्बिकेशध्यानम्

बन्धूककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां

पाशाङ्कुशौ च वरदं निजबाहुदण्डैः ।

बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्र-

मर्द्धाम्बिकेशमनिशं वपुराश्रयामः ॥ ४१ ॥

अर्धनारीश्वर का ध्यान-जिन अर्द्धनारीश्वर का वर्ण बन्धूक पुष्प तथा काञ्चन वर्ण के समान रक्त पीत मिश्रित है । जिन्होंने अपने हाथों में मनोहर जपमाला, पाश, अंकुश तथा वर मुद्रा धारण किया है, जो चन्द्रमा की कला का आभूषण मस्तक में धारण किये हुये हैं। ऐसे अर्धाम्बिकेश्वर के दिव्य विग्रह का मैं ध्यान करता हूँ ।। ४१ ॥

केशवादिमातृकान्यासः

पूर्वोक्तेनैव मार्गेण पूजयेत् तं यथाविधि ।

स्मराद्यां मातृकां न्यस्येत् केशवादिनमोऽन्विताम् ॥ ४२ ॥

इस प्रकार अर्द्धनारीश्वर का ध्यान कर पूर्वोक्त रीति से उनका पूजन करे। और स्मराद्यां (क्ली) पूर्वक काम मातृका का न्यास करे ।

प्रयोग विधि - यथाक्लीं अं कामरतिभ्यां नमः इति केशान्ते इत्यादि ।

इस न्यास के बाद मातृकाक्षरों से युक्त केशवादि और उनकी शक्तियों में चतुर्थ्यन्त लगा कर नमः पद से केशवादिन्यास करे ।

प्रयोग विधि - यथाॐ अं केशवकीर्तिभ्यां नमः केशान्ते इत्यादि ( द्र० मन्त्रमहोदधि पृ०६७५-६७७) ।।४२।।

सधातुप्राणशक्त्यात्मयुक्ता यादिषु विष्णवः ।

ऋषिः प्रजापतिः प्रोक्तो गायत्रं छन्द ईरितम् ॥ ४३ ॥

अर्द्धलक्ष्मीर्हरिः साक्षाद् देवताऽत्र समीरिता ।

दीर्घयुक्तेन बीजेन षडङ्गानि समाचरेत् ॥ ४४ ॥

पुनः यकारादि पूर्वक त्वगादि से युक्त प्राणशक्ति भूत आत्मशब्द के साथ विष्णु के नामों द्वारा त्वगादि सप्त धातुओं में न्यास करे ।

प्रयोग विधि - यथा यं त्वगात्मने पुरुषोत्तमवसुधाभ्यां नमः हृदये' इत्यादि ।

इस न्यास के प्रजापति ऋषि है, गायत्री छन्द है अर्धलक्ष्मी एवं हरि साक्षात् देवता कहे गये हैं । तदनन्तर दीर्घाक्षर ( आ ई ऊ ऐं औ अ:) आदि से युक्त बीजाक्षर (क्लॉ, क्लीँ) से षडङ्गन्यास करे ।

प्रयोग विधि - यथा—'आं क्लीं हृदये नमः' इति हृदि इत्यादि ॥४३-४४।।

अर्द्धलक्ष्मीध्यानम्

हस्तैर्बिभ्रत् सरसिजगदाशङ्खचक्राणि विद्यां

पद्मादर्शों कनककलशं मेघविद्युद्विलासम् ।

वामो तुङ्गंस्तनमविरलाकल्पमाश्लेषलोभा-

देकीभूतं वपुरवतु वः पुण्डरीकाक्षलक्ष्म्योः ॥ ४५ ॥

पुनः अर्धलक्ष्मीश्वर हरि का ध्यान इस प्रकार करे जिन अर्द्धलक्ष्मीश्वर श्री हरि ने अपने हाथों में कमल, गदा, शङ्ख, चक्र, विद्या, पद्म, आदर्श तथा कनक कलश धारण किया है तथा आलिङ्गन के लोभ से मेघ में चमकती हुई बिजली के समान जिनका बायाँ स्तन निरन्तर अविरल रूप से अर्धविष्णु में एकीभूत हो गया है - ऐसे पुण्डरीकाक्ष श्री विष्णु तथा माता लक्ष्मी का मिला हुआ अर्द्धलक्ष्मीश्वर स्वरूप हम लोगों की रक्षा करे ।। ४५ ।।

अत्राऽर्चनादिकं सर्वं प्राग्वन्मन्त्री समाचरेत् ।

शक्तिपूर्वं तनौ न्यस्येन्मातृकां मन्त्रवित्तमः ॥ ४६ ॥

इस प्रकार ध्यान कर, मन्त्र साधक उन अर्द्धलक्ष्मीश्वर का पूर्ववत् पूजन करे । पुनः शक्तिपूर्वक (ह्रीं क्लीं) मातृकाओं से न्यास करे ।। ४६ ।।

ऋषिः शक्तिः स्मृतं छन्दो गायत्रं देवता बुधैः ।

सम्प्रोक्ता विश्वजननी सर्वसौभाग्यदायिनी ॥ ४७ ॥

बुद्धिमानों ने इस न्यास का ऋषि वशिष्ठपुत्र शक्ति, गायत्री छन्द तथा सर्वसौभाग्यदायिनी विश्वजननी देवता कहा है ।। ४७ ।।

दीर्घार्द्धेन्दुयुजाऽङ्गानि कुर्यान्मायात्मना बुधः ॥ ४८ ॥

दीर्घ वर्णों पर (आ ई ऊ ऐ औ अ:) अद्धेन्दु अनुस्वार लगा कर उससे युक्त मायाबीज से अङ्गन्यास करे ।

प्रयोग विधि - यथा - 'ॐ आं क्लीं ह्रीं हृदयाय नमः' इति हृदि इत्यादि ॥ ४८॥

विश्वजननीध्यानम्

उद्यत्कोटिदिवाकर प्रतिभटोत्तुङ्गोरुपीनस्तनी

बहवार्द्धेन्दुकिरीटहार रसनामञ्जीर संशोभिता ।

बिभ्राणा करपङ्कजैर्जपवटीं पाशाङ्कुशौ पुस्तकं

दिश्याद् वो जगदीश्वरी त्रिनयना पद्मे निषण्णा मुखम् ॥४९॥

उदय होते हुये करोडों सूर्य के समान जिनके अङ्ग प्रत्यङ्ग की कान्ति है, जिनका ऊरु अत्यन्त मांसल तथा उत्तुङ्ग है, स्तन स्थूल (मोटे हैं) भाल प्रदेश पर द्वितीया के चन्द्रमा का किरीट, वक्ष:स्थल में मुक्ताहार, कटिप्रदेश में काञ्ची, पैरों में मञ्जीर शोभा दे रही है और जिनके कर कमलों में जपमाला, पाश, अंकुश और पुस्तक विद्यमान हैं, पद्मासन पर बैठी हुई ऐसी तीन नेत्रों वाली जगदीश्वरी आप को सुख प्रदान करें ।। ४९ ।।

पुरोदितेन विधिना देवीमन्वहमर्चयेत् ।

न्यसेच्छ्रीबीजसम्पन्नां मातृकां विधिना तनौ ॥ ५० ॥

इस प्रकार पूर्व में कही गई विधि के अनुसार देवी का नित्य अर्चन करे । पश्चात् श्री बीज से युक्त मातृकाओं से अङ्गन्यास करे ।

प्रयोग विधि-यथा- 'ॐ श्रीं अं नमः' इत्यादि ।। ५० ।।

ऋषिर्भृगुः स्मृतं छन्दो गायत्रं देवता स्मृता ।

समस्तसम्पदामादिर्जगतां नायिका बुधैः ॥ ५१ ॥

प्राक् प्रस्तुतेन बीजेन कुर्यादङ्गानि साधकः ॥ ५२ ॥

इस न्यास के भृगु ऋषि हैं, गायत्री छन्द है। बुद्धिमानों ने इसका जगत् की समस्त संपत्तियों को प्रदान करने वाली महालक्ष्मी को देवता कहा है । पुनः साधक पूर्ववत् (षड्दीर्घ) श्री बीज से षडङ्गन्यास करे ।। ५१-५२ ।।

महालक्ष्मीध्यानम्

विद्युद्दामसमप्रभां हिमगिरि प्रख्यैश्चतुर्भिर्गजैः

शुण्डादण्डसमुद्धृतामृतघटैरासिच्यमानामिमाम् ।

बिभ्राणां करपङ्कजैर्जपवटीं पद्मद्वयं पुस्तकं

भास्वद्रत्नसमुज्ज्वलां कुचनतां ध्यायेज्जगत्स्वामिनीम् ॥५३॥

इसके बाद इस प्रकार महालक्ष्मी का ध्यान करे- जिनके शरीर की कान्ति बिजली के समान जगमगा रही है, जिन्हें हिमालय पहाड़ के समान ऊँचे ऊँचे चार गजराज अपने शुण्डादण्ड में धारण किये गये अमृत के घड़े से स्नान करा रहे हैं, जिन्होंने अपने कर कमलों में जपमाला, दो कमल, और पुस्तक धारण किया है, ऐसी रत्नों के आभूषणों से सुशोभित कुचभार से विनम्र जगत्स्वामिनी महालक्ष्मी का हम ध्यान करते हैं ।। ५३ ।।

आराधयेदिमां प्रोक्तवर्त्मना कुसुमादिभिः ।

न्यसेत् स्मराद्यां वपुषि मातृकां मङ्गलप्रदाम् ॥ ५४ ॥

तदनन्तर पूर्वोक्त रीति से पुष्प गन्धाक्षतादि द्वारा उनका पूजन करे और शरीर में मङ्गलप्रद क्लीं युक्त मातृकाओं से न्यास करे ॥ ५४ ॥

ऋषिः सम्मोहनः प्रोक्तश्छन्दो गायत्रमुच्यते ।

देवता मन्त्रिभिः प्रोक्ता समस्तजननी परा ॥ ५५ ॥

स्मरेण दीर्घयुक्तेन विदध्यादङ्गकल्पनाम् ॥ ५६ ॥

इस न्यास के सम्मोहन ऋषि है, गायत्री छन्द है तथा मन्त्रज्ञों ने पराम्बा समस्त जगज्जननी को इसका देवता कहा है । षड्दीर्घ युक्त काम मन्त्र के द्वारा षडङ्गन्यास करे ।

प्रयोग विधि- 'ॐ आं क्लीं हृदये नमः' इति हृदि आदि ।। ५५-५६ ॥

समस्तजननीध्यानम्

बालार्ककोटिरुचिरां स्फटिकाक्षमालां

कोदण्डमिक्षुजनितं स्मरपञ्चबाणान् ।

विद्याञ्च हस्तकमलैर्दधतीं त्रिनेत्रां

ध्यायेत् समस्तजननीं नवचन्द्रचूडाम् ॥ ५७ ॥

तदनन्तर समस्त जगत् की जननी का ध्यान इस प्रकार करे-

करोड़ों उदीयमान सूर्य के समान जिनके शरीर की कान्ति है, जिन्होंने अपने कमल के समान हाथों में इक्षु का धनुष तथा काम के पञ्चबाण और विद्या धारण किया है, ऐसी तीन नेत्रवाली, चन्द्रमा को मस्तक में धारण किये हुये समस्त जगत् की जननी का मैं ध्यान करता हूँ ॥ ५७ ॥

अर्चनादिक्रियाः सर्वाः प्रोक्ताः पूर्वविधानतः ।

शक्तिश्रीकामबीजाद्यां देवीं वर्णतनुं भजेत् ॥ ५८ ॥

इनकी भी अर्चनादि क्रिया पूर्वोक्त रीति से विधानपूर्वक करनी चाहिए । शक्ति ह्रीँ श्रीं (श्रीँ) कामबीज (क्ली) पूर्वक मातृकाओं का न्यास करे ॥ ५८ ॥

ऋषिः पूर्वोदितश्छन्दो गायत्रं देवता बुधैः ।

सम्मोहनी समुद्दिष्टा सर्वलोकवशङ्करी ॥ ५९ ॥

इसके भी पूर्वोक्त ऋषि हैं, गायत्री छन्द हैं, तथा बुद्धिमानों ने समस्त लोकों को वश में करने वाली सम्मोहनी देवी को इसका देवता कहा है ॥ ५९ ॥

आवर्त्तितैस्त्रिभिर्बीजैः षडङ्गानि प्रकल्पयेत् ॥ ६० ॥

'ह्रीं क्लीं श्रीं" इन तीन बीज मन्त्रों की दो बार आवृत्ति कर षडङ्गन्यास करे । पुनः इस प्रकार ध्यान करे ॥ ६० ॥

सम्मोहनीध्यानम्

ध्यायेयमक्षवलयेक्षुशरासपाशान्

पद्मद्वयाङ्कुशशरान् वरपुस्तकञ्च ।

बिभ्रती निजकरैररुणां कुचार्तां  

सम्मोहनीं त्रिनयनां तरुणेन्दुचूडाम् ॥ ६१ ॥

सम्मोहिनी का ध्यान अपने हाथों में अक्षवलय, इक्षु का शरासन, पद्मद्वय, अंकुश, बाण तथा नवीन पुस्तक धारण की हुई अरुण वर्णा, कुचभार विनम्र, तीन नेत्र वाली, अर्द्ध चन्द्र को भालप्रदेश में धारण किये हुये सम्मोहनी भगवती का मैं ध्यान करता हूँ ॥ ६१ ॥

यजेदावरणैः सार्द्धमुपचारैः सुशोभनाम् ।

प्रपञ्चयागं वक्ष्यामि सच्चिदानन्दसिद्धिदम् ॥ ६२ ॥

वेदादिः शक्तिरजपा परमात्ममहामनुः।

वहनेर्जाया च कथिता पञ्चमन्त्राः शुभावहाः ॥ ६३ ॥

सबका कल्याण करने वाली इन सम्मोहनी देवी का आवरणों के सहित उपचारों से पूजन करे । अब सत् चिद् आनन्द तथा सिद्धि देने वाले प्रपञ्चयाग को प्रपञ्चयाग को कहता हूँ ॥ ६२ ॥

प्रपञ्चयाग वेदादि (प्रणव) शक्ति (ह्रीँ) अजपा (हंस) परमात्ममनु (सोऽहम् ) वहिनजाया (स्वाहा) ये उस प्रपञ्चयाग के महामन्त्र हैं। ॐ ह्रीं हंसः सोऽहँ स्वाहा' यही इस मन्त्र का स्वरूप हैं ।। ६३ ।।

तारशक्त्यादिकां न्यस्येदजपात्मद्विठान्तिकाम् ।

मातृकामुक्तमार्गेण सृष्ट्या देहे विधानवित् ॥ ६४ ॥

तारशक्ति (प्रणव) के सहित मायाबीज आदि में लगाकर पश्चात् अजपा (हंसः) परमात्मनु (सोऽहँ) के सहित स्वाहा अन्त में लगा कर प्रत्येक वर्ण से न्यास करे ।

प्रयोग विधि - यथा—'ॐ ह्रीं अं हंसः सोऽहं स्वाहा' इति केशान्ते इत्यादि ।। ६४।।

ऋषिर्ब्रह्मा समुद्दिष्टश्छन्दो गायत्रमीरितम् ।

समस्तवर्णसंव्याप्त परं तेजोऽस्य देवता ॥ ६५ ॥

इसके ब्रह्मा ऋषि तथा गायत्री छन्द हैं । समस्त वर्णों में व्याप्त परतेज इसका देवता कहा गया है ।। ६५ ।।

स्वाहाद्यैः पञ्चमनुभिः पञ्चाङ्गानि प्रकल्पयेत् ।

अस्त्रं दिक्षु बुधः कुर्याद् भूयो हरिहराक्षरैः ॥ ६६ ॥

प्रपञ्च मन्त्र के विलोम रूप स्वाहादि मन्त्रों के द्वारा पञ्चाङ्ग न्यास करे ।

प्रयोग विधि - यथास्वाहा हृदयाय नमः सोहं शिरसे स्वाहा, हंसः शिखायै वषट्, ह्रीँ, कवचाय हुम् ॐ नेत्रद्वयाभ्यां वौषट् इत्यादि । तदनन्तर इस प्रकार ध्यान करे ।। ६६ ।।

ब्रह्मध्यानम्

तारादिपञ्चमनुभिः परिचीयमानं

मानैरगम्यमनिशं जगदेकमूलम् ।

सच्चित्समस्तगमनश्वरमच्युतं तत्

तेजः परं भजत सान्द्रसुधांशु (धाम्बु) राशिम् ॥ ६७ ॥

जिस परब्रह्म स्वरूप तेज का परिचय प्रपञ्चमन्त्र (ॐ ह्रीँ हंसः सोऽहं स्वाहा ) से प्राप्त होता है, जो अन्य प्रमाणों से अगम्य होने के कारण ज्ञान से परे है, जो जगत् का मूल कारण है और सच्चिदानन्द स्वरूप हैं, जो सब में व्याप्त है तथा जिसका कभी नाश नहीं होता, जिसमें कभी विकार नहीं होता, ऐसे सान्द्र सुधासमुद्र रूपी परब्रह्मतेज का भजन करना चाहिए ।। ६७ ।।

प्रपञ्चयागः

पञ्चभूतमया वर्णा वर्गशः प्रागुदीरिताः ।

तस्माज्ज्ञानेन्द्रियात्मानः प्रपञ्चं तन्मयं विदुः ॥ ६८ ॥

देहोऽपि तादृशस्तस्मिन् न्यस्येद् वर्णान् विलोमतः ।

तत्तत्स्थानयुतान् मन्त्री जुहुयात् परतेजसि ॥ ६९ ॥

वर्गों के प्रसङ्ग (२,,१०) से यह कहा गया है कि वर्ण पञ्चभूतमय हैं, उन भूतमय वर्णों से ज्ञानेन्द्रियाँ तथा समस्त प्रपञ्च उन्हीं से उत्पन्न हुये हैं, देह भी पञ्चभूतमय हैं इसलिये पञ्चभूतमय देह में पञ्चभूतमय वर्णों का विलोम क्रम से न्यास करे ।

उसकी विधि - उ औ ग ज ड द ब ल ह पृथ्व्यात्मकान् दशवर्णान् तलादिजानुपर्यन्तं न्यसामि । एवं नाभि पर्यन्तम्, हृदय पर्यन्तम् इत्यादि । पुनः आकाश वर्णों को शिर से आरम्भ कर पादतल पर्यन्त न्यास करे ।

तदनन्तर मन्त्रज्ञ साधक 'ॐ ह्रीं क्षं हंसः सोऽहं स्वाहा' इस संहार क्रम से न्यास करे तथा 'क्षकार' तदधिष्ठातृ देवतां तत्तत्स्थानं च तदवच्छिन्नचैतन्ये जुहोमि' इस प्रकार ध्यान भी करे ।। ६८-६९ ।।

एवं वर्णमयं होमं कृत्वा दिव्यतनुर्भवेत् ।

न्यस्य मन्त्री यथान्यायं देहे विश्वस्य मातरम् ॥ ७० ॥

साधक इस प्रकार अपने शरीर में शास्त्रीय रीति से विश्वमाता का न्यास कर तथा वर्णमय होम कर दिव्य शरीर वाला हो जावे ।। ७० ।

जपेन्मन्त्रान् भजेद्देवान् यजेदग्निमनन्यधीः ।

द्रव्यैश्च जुहुयादग्नौ मन्त्रवित् तन्त्रचोदितैः ॥ ७१ ॥

तदनन्तर दिव्य शरीर हो एकाग्रचित्त से मन्त्र का जप करे और देवताओं का पूजन करे तथा तन्त्रोक्त द्रव्यों द्वारा मन्त्रवेत्ता साधक अग्नि में होम करे ।

विमर्श -मातृकाक्षरों से संपुटित मन्त्र जप का विधान है ऐसा करने से मातृकायें सिद्ध हो जाती हैं । मातृकाओं के सिद्ध होने पर ही सभी मन्त्रों की सिद्धि होती है क्योंकि मातृकायें सभी वर्णों की जननी हैं ।। ७१ ।।

काम्यकर्मकथनम्

अश्वत्थोडुम्बरप्लक्षन्यग्रोधसमिधस्तिलाः।

सिद्धार्थपायसाज्यानि द्रव्याण्यष्टौ विदुर्बुधाः ॥ ७२ ॥

१. अश्व, २. गूलर, ३. पाकर एवं ४. वट की समिधायें कही गई हैं। ५. तिल, ६. सिद्धार्थ (श्वेत सर्षप) ७. पायस और ८. घृत-ये ८ द्रव्य तन्त्र शास्त्रों में होम के लिये विहित कहे गये है । ७२ ॥

अमीभिर्जुहुयाल्लक्षं तदर्द्धं वा समाहितः ।

सर्वान् कामानवाप्नोति परां सिद्धिञ्च विन्दति ॥ ७३ ॥

इनमें एक लाख होम के लिये एक एक द्रव्य से १२५० आहुति देवे, अथवा उसकी आधी संख्या में होम करे। ऐसा करने से साधक को महान् सिद्धि प्राप्त होती है और वह अपनी समस्त कामनाओं को प्राप्त कर लेता है ।। ७३ ।।

एभिरर्कसहस्राणि हुत्वा मन्त्री विनाशयेत् ।

रिपून् क्षुद्रग्रहान् भूतान् ज्वराञ्छापांश्च पन्नगान् ॥ ७४ ॥

मन्त्राणामयथावृत्तिप्रतिपत्तिसमुद्भवान् ।

विकारान् नाशयेदाशु होमोऽयं समुदीरितः ॥ ७५ ॥

इन द्रव्यों के साथ आक के सहस्रों पत्रों द्वारा होम करने से मन्त्रज्ञ ब्राह्मण अपने शत्रुओं का क्षुद्र उपसर्ग (जड़ता, द्वेष, मानसिक दुःख, उच्चाटन, भ्रम और मारण व्याधि) ग्रह-बाधा, भूतबाधा, शाप सर्पव्याधा मन्त्रों के अयथोचित उच्चारण होने से उत्पन्न उन्मादादि विकार शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ।। ७४-७५ ।।

विमर्श - जिस मन्त्र का जो स्थान प्रयत्न है, उसे वैसा न उच्चारण करने से मन्त्र विकृत हो जाते हैं और वे उन्मादादि व्याधियों को उत्पन्न करते हैं।

एभिस्त्रिमधुरोपेतैर्जुहुयाल्लक्षमानतः।

अचिरादेव स भवेत् साक्षाद् भूमिपुरन्दरः ॥ ७६ ॥

जो पय, मधु, घृत इन तीन मधुर पदार्थों से युक्त कर उपर्युक्त अष्टद्रव्यों द्वारा पृथक् पृथक् (कुल मिलाकर) एक लाख होम करता है वह शीघ्र ही इस पृथ्वी का इन्द्र बन जाता है ।। ७६ ।।

अमीभिः साधको हुत्वा वश्यादीनपि साधयेत् ।

हुत्वा लक्षं तिलैः शुद्धैर्मुच्यते सर्वपातकैः ॥ ७७ ॥

इन त्रिमधुराक्त अष्टद्रव्यों के होम करने से साधक वशीकरणादि समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण कर लेता है। इतना ही नहीं त्रिमधुराक्त तिल से एक लाख होम करने से वह सभी पातकों से मुक्त हो जाता है ॥ ७७ ॥

पायसान्नेन जुहुयान्मन्त्री सर्वसमृद्धये ।

पद्मानां लक्षहोमेन महतीं श्रियमाप्नुयात् ॥ ७८ ॥

अपने को सब प्रकार से सम्पन्न बनाने के लिये मन्त्रज्ञ साधक पायसान्न (खीर) से होम करे। एक लाख कमलों से होम करने पर अत्यधिक लक्ष्मी की प्राप्ति होती है ।। ७८ ॥

घृतेन जुहुयाल्लक्षं प्राप्नुयात् कीर्त्तिमुत्तमाम् ।

जातीकुसुमहोमेन सर्वलोकवशं नयेत् ॥ ७९ ॥

केवल घृत द्वारा एक लाख होम करने से साधक महान् कीर्ति प्राप्त करता है । जाती पुष्प के होम से सारे संसार को वश में करने में समर्थ होता है ।। ७९ ।।

संशोधितैस्त्रिमध्वक्तैर्लवणैर्लक्षमानतः।

जुहुयाद् गुलिकाः कृत्वा वशयेत् सर्वमञ्जसा ॥ ८० ॥

भली प्रकार से शुद्ध किये गये, त्रिमधुमिश्रित लवण की गोली बना कर एक लाख होम करने से साधक सबको अनायास वश में कर सकता है ॥ ८० ॥

लिखित्वा पत्रखण्डेषु मातृकार्णान् पृथक् पृथक् ।

अभ्यर्च्य जुहुयाद् वहनौ तत्पत्राक्षरमुच्चरन् ॥ ८१ ॥

अभिचारहरहोमः

अभिचारहरो होमः सर्वरक्षाप्रसिद्धिदः ।

सहस्रहोमे वितरेद् दक्षिणां निष्कमानतः ॥ ८२ ॥

पत्ते के टुकड़ों पर अलग अलग एक एक मातृकाओं को लिख कर उस पत्र में लिखे गये वर्णों का उच्चारण कर होम करने से अन्य द्वारा किया गया अभिचार (मारण) प्रयोग नष्ट हो जाता है तथा साधक की सब प्रकार से रक्षा होती है । उसे सिद्धि प्राप्त होती है। एक सहस्रहोम में एक निष्क (चार सुवर्ण) दक्षिणा देनी चाहिए ।। ८१-८२ ।।

अर्द्ध वा शक्तितो दद्याद् यथोक्तं फलमाप्नुयात् ।

अनया सप्त संजप्तं पिबेत् प्रातर्दिने दिने ॥ ८३ ॥

ब्राह्मीघृतपाकप्रकार:

सलिलं स भवेद् वाग्मी लभते कवितां पराम् ।

ब्राह्मीरसे वचाकल्के पयसा विपचेद् घृतम् ॥ ८४ ॥

यदि दक्षिणा देने की उतनी शक्ति न हो तो आधी दक्षिणा देने से भी उसे यथोक्त फल प्राप्त होता है। इस मन्त्र के द्वारा सात बार अभिमन्त्रित जल प्रतिदिन प्रातः काल पीने से मनुष्य वाक्पटु हो जाता है और महान् कवि होकर उत्तमोत्तम कविता करने में समर्थ हो जाता है। वचा कूटकर ब्राह्मी के स्वरस में घी के साथ चार गुना दूध में पकावें ॥। ८३-८४ ।।

अयुतं मातृकाजप्तमर्चितञ्च विधानतः ।

पिबेत् प्रातः स मेधावी भवेद् वाक्पतिसन्निभः ॥ ८५ ॥

पुनः दश हजार मातृका वर्णों से उसे अभिमन्त्रित कर विधिपूर्वक पूजा करे । ऐसे रसायन को प्रातः काल पीने से साधक मेधावी तथा बृहस्पति जैसा प्रतिभाशाली हो जाता है ।। ८५ ।।

ब्राह्मीं सहस्रसंजप्तां वचां वा पयसा पिबेत् ।

स लभेन्महतीं मेधामचिरान्नाऽत्र संशयः ॥ ८६ ॥

एक हजार मन्त्र से अभिमन्त्रित ब्राह्मी का रस अथवा वचा का रस दुग्ध के साथ पान करे तो साधक शीघ्रातिशीघ्र महती मेधा प्राप्त करता है, इसमें संदेह नहीं है ।। ८६ ।।

मातृकापूजा

पूर्वोक्तं पङ्कजं कृत्वा कुम्भं संस्थाप्य पूर्ववत् ।

क्वाथेन पूरयेन्मन्त्री यथावत् क्षीरशाखिनाम् ॥ ८७ ॥

अष्टगन्धं विलोड्याऽस्मिन्नवरत्नसमन्विते ।

पूर्व में कही गई विधि के अनुसार पूर्ववत् कमल बनाकर कलश स्थापित कर उसे क्षीरी वृक्ष के क्वाथ से पूर्ण करे । पुनः उसमें नवरत्न छोड़कर अष्ट गन्ध को विलोडित करे । पुनः उपर्युक्त विधि से उस कलश में मातृका देवियों का आवाहन कर पूजन करे ।। ८७-८८ ।।

आवाह्य पूजयेद् देवीं मातृकामुक्तमार्गतः ॥ ८८ ॥

सहस्त्रसाधितैस्तोयैरभिषिञ्चेत् प्रियं नरम् ।

भानुवारे शुभे लग्ने ब्राह्मणानपि भोजयेत् ॥ ८९ ॥

गुरवे दक्षिणां दद्याद् भक्तियुक्तः स्वशक्तितः।

विश्वसम्मोहनप्रद-अभिषेकम्

रक्षाकरं विशेषेण कृत्याद्रोहोपशान्तिदम् ॥ ९० ॥

ऐश्वर्यजननं पुंसां सर्वसौभाग्यसिद्धिदम् ।

अभिषेकमिमं प्राहुर्विश्वसम्मोहनप्रदम् ॥ ९१ ॥

पुनः रविवार को शुभ लग्न में एक हजार मन्त्र से अभिमन्त्रित उस कलश के जल से अपने प्रिय पुरुष का अभिषेक करे तथा ब्राह्मणों को भोजन भी करावे । अपनी शक्ति के अनुसार भक्तियुक्त हो गुरु को दक्षिणा देवे। तो उससे रक्षा होती है, विशेष कर द्रोह की शान्ति होती है। ऐश्वर्य प्राप्त होता है, साधक को सभी सौभाग्य प्राप्त होते हैं। इस अभिषेक को समस्त विश्व का सम्मोहन कहा गया है ।। ८८-९१ ।।

पूर्वोक्तमण्डलं कृत्वा मन्त्री नवपदान्वितम् ।

मध्यादि स्थापयेत् तेषु पदेषु कलशान् नव ॥ ९२ ॥

तन्तुभिर्वेष्टितान् शुद्धान् बहिश्चन्दनचर्चितान् ।

सुधूपवासितान् मन्त्री दूर्वाक्षतसमन्वितान् ॥ ९३॥

आपूर्य शुद्धतोयैस्तान् वेष्टयेदंशकैस्तु तान् ।

मुक्तामाणिक्यवैदूर्यगोमेदान् वज्रविमौ ॥ ९४ ॥

पद्मरागं मरकतं नीलञ्चेति यथाक्रमात् ।

उक्तानि नवरत्नानि तेषु कुम्भेषु निक्षिपेत् ॥ ९५ ॥

विष्णुक्रान्तामिन्द्रवल्लीं देवीं दूर्वाञ्च निक्षिपेत् ।

स्थापयेत् कुम्भवक्त्रेषु कोमलांश्चतपल्लवान् ॥ ९६ ॥

पूर्वोक्त रूप से नौ नाम वाला मण्डल (गोला) बनाकर मन्त्री सर्वप्रथम मध्य में उसके पश्चात् अन्यत्र स्थानों में नव कलश स्थापित करे। वे कलश सर्वथा छिद्र और कालिमा से रहित हों। उन्हें सूत्र से आवेष्टित करे । बाहर चन्दनादि का अनुलेप करे तथा धूप देकर अच्छी तरह सुवासित करे और उसमें दूर्वाक्षत डाल कर शुद्ध जल से परिपूर्ण करे। पुनः उन कुम्भों में मुक्ता, माणिक्य, वैदूर्य, गोमेद वज्र, विद्रुम, पुष्पराग, मरकत तथा गारुड़-इन नव रत्नों को कलश में छोड़ देवे । पुनः विष्णुक्रान्ता, इन्द्रवल्ली, सहदेवी और दूर्वा (कंकोल) तथा आम्रपल्लव छोड़ देवे ॥ ९२-९६।।

विन्यसेदक्षतोपेतांश्चषकांश्च फलान्वितान् ।

मध्ये कुम्भे समाराध्य देवीं मन्त्री वृषादितः ॥ ९७ ॥

इतना कर लेने के पश्चात् कलश पर अक्षत तथा फलपूर्ण पूर्णपात्र स्थापित करना चाहिए। तदनन्तर उस कलश पर इन्द्र का आदि में, तदनन्तर देवी का पूजन करे ।। ९७ ।।

अर्चयेद् दिक्षु कुम्भेषु व्यापिन्याद्याः पुरोदिताः ।

वर्गमन्त्रयुताः प्रोक्तलक्षणाः सर्वसिद्धिदाः ॥ ९८ ॥

शर्कराघृतसंयुक्तं पायसञ्च निवेदयेत् ।

स्पृष्टवा कुम्भान् कुशैर्विद्यां जपेत् साग्रं शतं शतम् ॥ ९९ ॥

कलश के चारों ओर पूर्व में कहे गये लक्षण युक्त, संपूर्ण सिद्धियों को देने वाली अकारादि वर्णों से व्यस्त तथा समस्त क्रम से व्यापिनी (द्र. ६. १६) आदि देवियों का पूजन करे और उन्हें शर्करा तथा घृतसंयुक्त रोध निवेदित करना चहिए । तदनन्तर प्रत्येक कुम्भों को कुशा से स्पर्श करते है । प्रत्येक क्रम से एक सौ आठ बार मूल मन्त्र का जप करे ।। ९८-९९ ।।

अभिषिश्चेद् विलोमेन साध्यं तं दत्तदक्षिणम् ।

सर्वपापक्षयकरं शुभदं शान्तिसिद्धिदम् ॥ १००॥

कृत्याद्रोहादिशमनं सौभाग्यश्रीजयप्रदम् ।

पुत्रप्रदं च बन्ध्यानामभिषेकमिमं विदुः ॥ १०१॥

पुनः दक्षिणा देने वाले उस शिष्य को विलोम क्रम से (अन्त कलश के क्रम से) अभिषिञ्चित करे। यह अभिषेक सभी प्रकार के पापों का विनाश करता है। और शान्ति तथा सिद्धि प्रदान करता है। कृत्या तथा द्रोहा का शमन करता है, सौभाग्य तथा श्री प्रदान करता है, बन्ध्या स्त्रियों को सन्तान देता है, ऐसा इस अभिषेक का माहात्म्य तान्त्रिक लोग बताते हैं ।। ९९-१०१ ।।

ज्वरार्त्तस्य पुरः स्थित्वा जपेत् सायं सहस्रकम् ।

ज्वरो नश्यति तस्याशु क्षुद्रभूतग्रहा अपि ॥ १०२ ॥

ज्वरार्त्त साधक के आगे खड़े होकर इस प्रपञ्च मन्त्र का १०८ बार जप करे तो उसके ज्वर का विनाश शीघ्र ही हो जाता है और उसके सारे क्षुद्र ग्रह दूर भाग जाते हैं ।। १०२ ।।

परतेजसि सञ्चिन्त्य शुभ्रं स्रुतसुधामयम् ।

विधुं विद्यां जपेद् योगो विषरोगविनाशकृत् ॥ १०३ ॥

वलीपलितरोगघ्नः क्षुत्पिपासाप्रणाशनः।

पुष्टिदः सर्वसौभाग्यदायी लक्ष्मीशुभप्रदः ॥ १०४॥

परब्रह्म स्वरूप सहस्र कर्णिका में स्थित इस तेज में अमृत रूप सुधा का क्षरण करते हुये चन्द्रमण्डल का ध्यान कर यदि इस मन्त्र का जप करे तो विष और रोग नष्ट हो जाते हैं ।। १०३ ।।

यह मन्त्र बुढापा और रोग को नष्ट करता है, भूख प्यास मिटाता है, पुष्टि प्रदान करता है सभी प्रकार के सौभाग्य तथा लक्ष्मी को प्रदान करता है ।। १०४ ॥

त्रिशक्तिमुद्रिका

सोमसूर्याग्निरूपाः स्युर्वर्णा लोहत्रयं तथा ।

रौप्यमिन्दुः स्मृतो हेम सूर्यस्ताम्रं हुताशनः ॥ १०५ ॥

सोम, सूर्य तथा अग्नि स्वरूप ये वर्ण त्रिलौह स्वरूप हैं । चाँदी सोम स्वरूप है, हेम सूर्य स्वरूप है, ताँबा अग्नि स्वरूप है ।। १०५ ।।

लोहभागाः समुद्दिष्टाः स्वराद्यक्षरसंख्यया ।

तैलहै: कारयेन्मुद्रामसङ्कलितसङ्गताम् ॥ १०६ ॥

इन लोहभागों में चाँदी का भाग १६, सुवर्ण का भाग १२ तथा ताम्र का भाग १० लेकर उनकी पृथक् पृथक् उतने ही परिमाण की अगुठी बनवावे । पुनः अलग अलग बनी हुई उन मुद्रिकाओं को एक में मिला देवे ।।१०६।।

सायं सहस्रं संजप्य स्पृष्ट्वा तां जुहुयात् ततः ।

तस्यां सम्पातयेन्मन्त्री सर्पिषा पूर्वसंख्यया ॥ १०७ ॥

उस मुद्रिका को हाथ में लेकर १००८ बार इस मन्त्र का जप करे । पुनः उसका स्पर्श करते हुये उतनी ही संख्या में होम भी करे । होम करते समय प्रत्येक आहुति से शेष घी किसी पात्र में संस्त्रव के रूप में रखता जावे ॥१०७॥

निक्षिप्य कुम्भे तां मुद्रामभिषेकोक्तवर्त्मना ।

आवाह्य पूजयेद् देवीमुपचारैः समाहितः ॥ १०८ ॥

पुनः मन्त्रज्ञ ब्राह्मण अभिषेक में कही गई विधि के अनुसार उस मुद्रा को कुम्भ में छोड़ देवे । पश्चात् मुद्रा में देवी का आवाहन कर उपचारों द्वारा पूजन करे ।। १०८ ।।

अभिषिच्य विनीताय दद्यात् तां मुद्रिकां गुरुः ।

इयं रक्षः क्षुद्ररोगविषज्वरविनाशिनी ॥ १०९ ॥

तदनन्तर उस मुद्रा का कलश के जल से अभिषेक कर गुरु उसे विनयशील, शिष्य को दे देवें। इस प्रकार की सुसंस्कृत अंगूठी राक्षस, क्षुद्र (द्र. ६. ७३) रोग एवं विषज्वरों को विनष्ट करती है ।। १०९ ।।

व्यालचौरमृगादिभ्यो रक्षां कुर्याद् विशेषतः ।

युद्धे विजयमाप्नोति धारयन्मनुजेश्वरः ॥ ११० ॥

यह मुद्रिका विशेष कर साँप, चौर तथा जङ्गली जन्तुओं से रक्षा करती है। इस प्रकार की मुद्रिका धारण करने वाला मनुष्य युद्ध में सर्वदा विजय प्राप्त करता है ।। ११० ।।

नवरत्नमुद्रिका

विभजेन्मातृकां मन्त्री नव वर्गान् यथाक्रमात् ।

अष्टावष्टौ स्वराः स्पर्शाः पञ्चशो व्यापका अपि ॥ १११ ॥

अब त्रिलोह की मुद्रिका का विधान कहने के बाद नवरत्न की मुद्रिका का विधान करते हैं-

मन्त्रज्ञ ब्राह्मण १६ स्वरों, २५ स्पर्श वर्णों एवं यकारादि क्षकारान्त नव वर्गों वाले मातृका वर्णों से पाँच बार इस प्रकार न्यास करे-

(१) समस्त स्वरों का उच्चारण कर 'सोममण्डलाय नमः' से शिर से लेकर कण्ठ पर्यन्त, पुनः ककार से लेकर मकारान्त स्पर्श वर्णों का उच्चारण कर 'सूर्यमण्डलाय नमः' से गले से लेकर हृदय पर्यन्त यकार से क्षकारान्त वर्ण समुदायों का उच्चारण कर 'वहिनमण्डलाय नमः' से हृदयादि पादपर्यन्त न्यास करे। यह मण्डलत्रय से एक न्यास कहा गया ।

(२) पुनः अकार से ठकारान्त वर्णों का उच्चारण कर 'सोममण्डलाय नमः' से मूर्धादि हृदयपर्यन्त, डकारादि से क्षान्त वर्णों का उच्चारण कर 'अग्निमण्डलाय नमः' से हृदय से पादपर्यन्त न्यास करे। यह अग्निषोमीय दूसरा न्यास हुआ ।

(३) पुनः अकारादि से क्षकारान्त वर्णों का उच्चारण कर 'हंसपुरुषात्मने नम:' इससे सर्वाङ्ग में व्यापक रूप से न्यास करे। यह तीसरा हंसन्यास हुआ ।

पुनः अं आं इं ईं उं ऊं ऋ ॠ लं इन नव वर्णों का उच्चारण कर 'सूर्याय भगवते नमः' इत्यादि क्रम से सूर्य प्रभृति केत्वन्त ग्रहों का न्यास करे । तदनन्तर पूर्वोक्त तीन न्यासों को विपरीत क्रम से करे। यह ग्रहन्यास हुआ। इस प्रकार पाँच न्यास करे ॥ १११ ॥

नववर्गाः समुत्पन्ना नववर्गेश्वरा ग्रहाः ।

अर्केन्दुरक्तज्ञगुरुभृगुमन्दाहिकेतवः ॥ ११२ ॥

जिस प्रकार मातृकाओं से नववर्ग उत्पन्न हुये हैं उसी प्रकार नव रत्नों के अधीश्वर नव ग्रह भी मातृकाओं से उत्पन्न हुये है। सूर्य, चन्द्र, मङ्गल, बुध, गुरु, शुक्र, शनैश्चर, राहु, केतु इन नवों ग्रहों के नाम हैं ।। ११२ ।।

माणिक्यं मौक्तिकं चारु विद्रुमं गारुडं पुनः ।

पुष्परागं लसद्वज्रं नीलं गोमेदकं शुभम् ॥ ११३ ॥

वैदूर्यं नव रत्नानि मुद्रां तैः कल्पयेच्छुभाम् ।

जपहोमादिकं सर्वं कुर्यात् पूर्वोक्तवर्त्मना ॥ ११४॥

यो मुद्रां धारयेदेनां तस्य स्युर्वशगा ग्रहाः ।

वर्द्धते तस्य सौभाग्यं लक्ष्मीरव्याहता भवेत् ॥ ११५ ॥

माणिक्य, मौक्तिक, लाल मूँगा, गारुड, पुष्पराग, षट्कोण वज्र (हीरा), नील, गोमेद तथा वैदूर्य ये नवरत्न हैं, इन नवरत्नों की अगूठी बनवाकर पूर्वोक्त कही गई विधि के अनुसार जप होम आदि करे। इस प्रकार की नव रत्न की मुद्रा जो धारण करता है, सभी ग्रह उसके वशीभूत हो जाते हैं, उसका सौभाग्य तो बढ़ता ही है, उसकी लक्ष्मी भी अनन्त होती हैं ।। ११३- ११५ ।।

कृत्या द्रोहा विनश्यन्ति नश्यन्ति सकलापदः ।

रक्षोभूतपिशाचाद्यां नेक्षन्ते तं भयाकुलाः ॥ ११६ ॥

उपर्युपरि वर्द्धन्ते धनरत्नादिसम्पदः ।

मुद्रिकायाः प्रसादेन राजलक्ष्मीः स्थिरा सदा ॥ ११७ ॥

उस पर कृत्याजन्य अभिचार काम नहीं करते। उससे द्रोह करने वाले नष्ट हो जाते हैं । समस्त आपत्तियाँ भी विनष्ट हो जाती हैं। राक्षस, भूत एवं पिशाचादि उससे भयभीत हो जाते हैं और उसकी ओर दृष्टि तक नहीं करते और धन, रत्न तथा सम्पदा उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है। इस प्रकार उन रत्नों की अँगूठी के प्रसाद से राजलक्ष्मी (= गृहलक्ष्मी) स्थिर हो जाती है ।। ११६-११७ ।।

मातृकाधारणयन्त्रम्

तार्त्तीयोज्ज्वलकर्णिकं स्वरयुगैराविर्भवत् केसरं

वर्गोल्लासिवसुच्छदं वसुमतीगेहेन संवेष्टितम् ।

ताराधीश्वरवारिवर्णविलसद्दिक्कोणसंशोभितं

यन्त्रं वर्णतनोः परं निगदितं सर्वामयघ्नं परम् ॥ ११८ ॥

कर्णिकाओं में त्रिपुरा का तीसरा मन्त्रकूट हस्त्रौं (द्र. १२. ४) लिखे । केशरों में दो दो स्वर लिखे । अष्टपत्रों पर मातृकाओं के अष्टवर्ग लिखे। वसुमती गेह (लकार) से उसे वेष्टित करे। दिशाओं के कोणों के ताराधीश्वर ठकार या ॐकार वारिवर्ण (व) इस प्रकार ॐ वँ वर्ण से सुशोभित करे । यह वर्णतनु का यन्त्र स्थान कहा गया है । जो संपूर्ण पापों को विनष्ट करने वाला है ।। ११८ ॥

॥ इति श्रीलक्ष्मणदेशिकेन्द्रविरचिते शारदातिलके षष्ठः पटलः समाप्तः ॥ ६ ॥

॥ इस प्रकार शारदातिलक के छठवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ६ ॥

आगे जारी........ शारदातिलक पटल 7

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