योगिनीतन्त्र पटल ११
योगिनीतन्त्र पटल ११ में स्थानभेद से मंत्रादि के साधन का फल वर्णन किया गया है।
योगिनीतन्त्र पटल ११
Yogini tantra patal 11
योगिनीतन्त्रम् एकादशः पटलः
योगिनी तन्त्र एकादश पटल
योगिनी तंत्र ग्यारहवां पटल
योगिनीतन्त्रम्
श्रीदेव्युवाच ।
देवदानवगन्धर्वसुरेश परिपूजित ।
गणेशनंदिचन्द्रेश गोविन्दविधिवन्दित
॥ १ ॥
श्रीदेवीने कहा-हे
देवदानवगन्धर्वसुरेशपूजित ! हे गणेशनन्दिचन्द्रेश गोविन्दविधिवंदित ! ॥ १ ॥
योगीन्द्रवन्दितपद सर्वलोकगुरो हर ।
या प्रोक्ता परमा विद्या काली
कलुषनाशिनी ॥ २ ॥
यद्यन्मन्त्रं साधनं च पूजनं व
पुरस्क्रियाम् ।
मुद्रां बलिं तथा होमं भावं स्थानं
तथैव च ॥ ३ ॥
ध्यानं स्तोत्रं च कवचं श्रुतमस्याः
पुरा मया ।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि स्थानभेदं
महेश्वर ॥ ४ ॥
हे योगीन्द्रवंदितपद,
सर्वलोकगुरो, परमेश्वर, शंकर,
हर ! आपने जो कलुषनाशिनी परमा कालीविद्या और जो जो मन्त्रसाधन,
पूजन, पुरस्क्रिया मुद्रा, बलि, होम और भाव एवं स्थान ध्यान स्तोत्र और कवच
इत्यादि कहा, वह मैंने सब सुना । अब हे महेश्वर ! मैं
स्थानभेद सुनने की इच्छा करती हूं ॥ २- ४ ॥
कुत्र वा प्राप्यते मोक्षः कुत्र वा
सिद्धिरुत्तमा ।
झटित्येवं महादेव कृपया वद शङ्कर ॥
५ ॥
कहां मुक्ति प्राप्त हो जाती है,
कहां तत्काल उत्तमा सिद्धि लाभ होती है। हे महादेव शंकर ! यह आप
कृपा पूर्वक कहिये ॥ ५॥
यदाश्रितो द्रुतं लोकः स्वकार्य
फलभाग्भवेत ।
प्रयासस्य च बाहुल्यं हित्वा हि
परमेश्वर ॥ ६ ॥
हे परमेश्वर ! मनुष्य अत्यन्त
परिश्रम के विना ही जिसका आश्रय करके शीघ्र स्वकार्य का फल भोगें,
वह वर्णन कीजिये ॥ ६ ॥
ईश्वर उवाच ।
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि स्थानं
परमदुर्लभम् ।
द्रुतसिद्धिकरं देवि
महामोक्षफलप्रदम् ॥ ७ ॥
ईश्वर ने कहा- हे देवि ! शीघ्रसिद्धिकर,
महामोक्षफलप्रद, परम दुर्लभ स्थान का वर्णन
करता हूं सुनो ॥ ७ ॥
कालिकायाः श्मशानाद्धि
नान्यत्स्थानं प्रशस्यते ।
तत्र यद्यत्कृतं कर्म तदनन्तफलं
लभेत् ॥ ८ ॥
कालिका का श्मशान से श्रेष्ठ दूसरा
कोई स्थान नहीं है, वहां जो जो कर्म
किया जाता है वह अनन्त फल देनेवाला होता है ॥ ८ ॥
तत्र चैका पुरश्चर्य्या कृता
चेत्परमेश्वरि ।
न तु मैवं महादेवि भावयुक्तः
सशक्तिकः ॥ ९ ॥
अवश्यं मन्त्रसिद्धिः स्यान्नात्र
चित्रं कथंचन ।
अनन्तफलदा पूजा सर्वत्रैव जले स्थले
॥ १० ॥
हे परमेश्वरि ! हे महादेवि ! वहां
भावयुक्त और भक्तियुक्त होकर पुरश्चरण करने पर उसके समान अन्य कार्य नहीं हैं उसके
द्वारा अवश्य ही मन्त्रसिद्धि होती है, इसमें
कुछ सन्देह नहीं । जल में व स्थल में सवर्त्र ही ॥ ९- १० ॥
दिव्यभावेन वा देवि वीरभावेन
चेद्भवेत् ।
शाक्तं वा वैष्णवं वापि शैवं वान्यं
तथा पुनः ॥ ११ ॥
वाराणस्यां जपेद्यावन्मासमात्रं
वरानने ।
प्रातःकालं समारभ्य यावन्मध्यन्दिनं
भवेत् ॥ १२ ॥
अवश्यं मन्त्रसिद्धिः स्यात्सत्यमेव
सुसिद्धिदे ।
निर्वाणं तस्य देवेशि त्ववश्यं
जायते शिवे ॥ १३ ॥
दिव्यभाव वा वीरभाव से पूजा करने पर
अनन्त फल प्रदान करती है । हे सुसिद्धिप्रदे शंकार ! शाक्त हों वा वैष्णव हों,
वाराणसी में प्रातः समय से आरम्भ करके मध्य दिनपर्यन्त केवल एक
महीने जप करने पर अवश्य ही मन्त्र सिद्धि होती है वह निःसन्देह सत्य जानना । हे
देवेशि शिवे ! उसको अवश्य ही निर्वाणमुक्ति होती है ॥११-१३॥
महाश्मशानं देवेशि आनन्दकाननं तथा ।
अविमुक्तं महादेवि तथा गौरीमुखं
पुनः ॥ १४ ॥
हे अमरेश्वरि ! महादेवी ! महाश्मशान,
आनन्दकानन, अविमुक्त और गौरीकानन ॥ १४ ॥
वाराणसी महाक्षेत्रं कालीरूपं
परात्परम् ।
तत्र यद्यत्कृतं देवि किं तस्य
कथयामि ते ॥ १५ ॥
तथा वाराणसी,
यह परात्पर कालीरूप महाक्षेत्र है, वहां जो जो
कर्म किया जाता है उसका फल प्रकाश करने की मुझमें सामर्थ्य नहीं है ॥ १५ ॥
कामरूपे महापूजा सर्वसिद्धिफलप्रदा
।
नेपालस्य कांचनाद्रिं
ब्रह्मपुत्रस्य सङ्गमम् ॥ १६ ॥
कामरूप में महापूजा करने से
सर्वप्रकार की सिद्धि और सर्वफल प्राप्त होता है । नेपाल का कांचनगिरि,
ब्रह्मपुत्र संगम ॥ १६ ॥
करतोयां समाश्रित्य यावदिक्करवासिनी
।
उत्तरस्यां कञ्जगिरिः करतोयात्तु
पश्चिमे ॥ १७ ॥
करतोयासे दिक्करवासिनीपर्यन्त और
उत्तर में कलगिरि और तीर्थश्रेष्ठ करतोया के पश्चिम में ॥ १७ ॥
तीर्थश्रेष्ठा दिक्षु नदी
पूर्वस्यां गिरिकन्यके ।
दक्षिणे ब्रह्मपुत्रस्य लाक्षायाः
सङ्गमावधि ।
कामरूप इति ख्यातः सर्वशास्त्रेषु
निश्चितः ॥ १८ ॥
इक्षुनदीपर्यन्त,
पूर्वदिशा में गिरिकन्यकापर्यन्त और दक्षिण में ब्रह्मपुत्र और
लाक्षा नदी के संगमपर्यन्त स्थान कामरूप के नाम से सब शास्त्रों में निश्चित है ॥
१८ ॥
ऋणानि त्रीण्यपाकर्तुं यस्य चित्तं
प्रसीदति ।
स गच्छेत्परया भक्त्या
कामाख्यायोनिसन्निधिम् ॥ १९
पितृऋण,
ऋषिऋण और देवऋण यह तीनों ऋण चुकाने में जिसका मन प्रसन्न होता है,
वह परम भक्तिसहित कामाख्या की योनि के समीप गमन करेगा ॥ १९ ॥
तीर्थयात्रा समासाद्य यदेकोऽप्यत्र
गच्छति ॥
पदे पदेऽश्वमेधस्य फलं प्राप्नोति
मानवः ॥ २० ॥
तीर्थयात्रा अवलम्बन करके जो कोई
मनुष्य इस तीर्थ में गमन करता है, पद पद में
उसको अश्वमेध का फल प्राप्त होता है ॥ २० ॥
त्रिंशद्योजनविस्तीर्ण दीर्घेण
शतयोजनम् ॥
कामरूपं विजानीहि
त्रिकोणाकारमुत्तमम् ॥ २१ ॥
हे देवि ! इस उत्तम कामरूप को
त्रिकोणाकार दैर्ध्य में सौ योजन और विस्तार में तीस योजन जाने ॥ २१ ॥
ईशाने चैव केदारो वायव्यां गजशासनः
।
दक्षिणे सङ्गमें देवि लाक्षाया
ब्रह्मरेतसः ॥ २२ ॥
ईशान में केदार,
वायुकोण में गजशासन और दक्षिण में ब्रह्मरेतः अर्थात् ब्रह्मपुत्र की
लाक्षा नदी का संगम है॥२२॥
त्रिकोणमेवं जानीहि
सुरासुरनमस्कृतम् ।
तत्र ये मानवाः सन्ति ते देवा नात्र
संशयः ॥ २३ ॥
कामरूप को इस प्रकार त्रिकोण जानना
चाहिये,
यह स्थान सुरासुर सभी का नमस्कृत है, वहां जो
मनुष्य हैं वह देवता हैं इसमें सन्देह नहीं ॥२३ ॥
तत्र यद्यजलं देवि तत्सर्वं
तीर्थमेव हि ।
उपवीथिश्व वीथिश्च उपपीठं च पीठकम्
॥ २४ ॥
वहां जो जो जल हैं,
वह सभी तीर्थ हैं, हे महादेवि ! वहां उपवीथि,
वीथि, उपपीठ, पीठ ॥ २४ ॥
सिद्धपीठं महापीठं ब्रह्मपीठं
तदन्तरम् ।
विष्णुपीठं महादेवि रुद्रपीठं
तदन्तरम् ॥ २५ ॥
नवयोनिरिति ख्याता चतुर्दिक्षु
समन्ततः ।
तत्र तत्र महापूजोत्तरोत्तरफलाधिका
॥ २६ ॥
सिद्धपीठ,
महापीठ, ब्रह्मपीठ, विष्णुपीठ
और रुद्रपीठ, यह नव पीठ नव योनि कहकर विख्यात है और इसके
चारों और अवस्थित हैं । हे महादेवि ! वह वह महापूजा उत्तरोतर सब स्थानों में अधिक
अधिक फल देती है ॥ २५- २६ ॥
द्विगुणं द्विगुणं भद्रे फलमेव
सुनिश्चितम् ।
सर्वासाचैव विद्यानां सर्वमन्त्रस्य
शाम्भवि ॥ २७ ॥
पूजने जपने चैव द्विगुणं द्विगुणं
फलम् ।
नवयोनिः समाख्याता कामाख्या
योनिमण्डलम् २८ ॥
इन सबमें क्रमानुसार दूना दूना फल
अवधारित (निश्चय किया हुआ) है । वहां सर्वविध विद्या और सर्वविध मन्त्र की पूजा
एवं जप करने से दूना दूना फल प्राप्त होता है । हे भद्रे ! हे शाम्भवि ! कामाख्या
योनिमण्डल नवयोनि द्वारा विख्यात होता है ॥ २७- २८ ॥
आयोनिर्महिपर्यन्तं या
विद्यागन्धमादनम् ।
पञ्चकोशमिदं देवि सर्वेषामेव
दुर्लभम् ॥ २९ ॥
योनि से महिपर्यन्त और विद्या से
गन्धमादनपर्यन्त यह पांच कोश स्थान सबको ही दुर्लभ है ॥ २९ ॥
ब्रह्मविष्णु सुरेशाद्यैः सेवितं
परमाद्भुतम् ।
देवा मरणमिच्छन्ति का कथा मानुषेषु
च ॥ ३० ॥
परम अद्भुत और ब्रह्मा,
विष्णु सुरेश्वरादि से सेवित है, मनुष्यों की
बात तो क्या कहूं देवता भी उस स्थान में मरने की इच्छा करते हैं ॥ ३० ॥
योनिपीठे महेशानि पञ्चकोशमिते शिवे
।
ये गच्छन्ति शिवाकारा ये
मृतास्तेऽपुनर्भवाः ॥३१ ॥
हे महेशानि ! पांचकोश परिमित
योनिपीठ में जो मनुष्य गमन करता है, वह
शिवतुल्य होता है और मरने के पीछे फिर जन्म लेना नहीं पडता ॥ ३१ ॥
ते च सूर्याकरं क्लेशं न
प्राप्नुवन्ति कर्हिचित् ।
योनिपीठे च निष्पापा ये वसन्ति
नरोत्तमाः ।
ते सर्वे शङ्करा
जानात्रिनेत्राश्चन्द्रमूर्द्धजाः ॥ ३२ ॥
वह मनुष्य किञ्चित् मात्र भी
सूर्यान्मज शनि के क्लेश को प्राप्त नहीं होता । जो नरोत्तम योनिपीठ में वास करते
हैं,
वह चन्द्रशेखर और त्रिनेत्र शंकर तुल्य होते हैं ॥ ३२ ॥
सर्वासाचैव विद्यानां सर्वमन्त्रस्य
चेश्वरि ।
पूजनं जपनश्चैव कुरुते साधकोत्तमः ।
अणिमाद्यष्टसिद्धीनामाश्रयो जायते
नरः ॥ ३३ ॥
हे ईश्वरि ! साधकोत्तमगण सर्वविध
विद्या एवं सर्वविध मन्त्र की पूजा और जप करते हैं। मनुष्यगण इस स्थान में
अणिमादिक आठ प्रकार की सिद्धि प्राप्त करते हैं ॥ ३३ ॥
तन्मध्ये च महादेवि
गिरिर्नीलाभिधोज्ज्वलः ।
ब्रह्मविष्णुशिवाकारः सर्वशक्तिमयः
पुनः ॥ ३४ ॥
हे महादेवि ! उस योनिपीठ में
ब्रह्मा विष्णु शिवाकार सर्वशक्तिमय नील नाम उज्वलगिरि विद्यमान है ॥ ३४ ॥
तन्मध्ये परमेशानि मनोभवगुहा परा ।
मनोभवगुहामध्ये रक्तपानीयरूपिणी ॥
३५ ॥
हे परमेशानि ! तिसमें परमोत्तम
मनोभवगुहा है। मनोभवगुहा में रक्त पानीयरूपिणी ॥ ३५ ॥
कोटिलिङ्गसमाकीर्णा कामाख्या
कल्पवल्लरी ।
तत्तेजसा तु संदीप्ता मनोमवगुहा सदा
॥ ३६ ॥
कोटिलिंग समाकीर्ण कामाख्या नामक
कल्पलता विद्यमान है, यह मनोभवगुहा उसके
तेज से सदा दीप्तिमान रहती है ॥ ३६ ॥
अस्याः स्पर्शनमात्रेण लोहो याति
सुवर्णताम् ।
चतुर्हस्तप्रमाणानि
समन्तात्पर्वतात्मजे ॥ ३७ ॥
अस्याः स्पर्शनमात्रेण शिवत्वमेति
मानवः ।
निष्पापो जायते देवि
तत्क्षणान्नात्र संशयः ॥ ३८ ॥
उसके स्पर्शमात्र से ही लोहा सुवर्ण
होता है,
हे पर्वतात्मजे ! वह चारों ओर में चार हाथ परिमित होगा उसके स्पर्श
मात्र से ही मनुष्य शिवत्व को प्राप्त होता है और तत्काल निष्पाप होता है इसमें
सन्देह नहीं ॥ ३७-३८ ॥
अत्र यद्यत्कृतं कर्म तदनन्तफलं
लभेत् ॥ ३९ ॥
इसमें जो जो कर्म किये जाते हैं,
वह सभी अनन्त फलदायक होते हैं ॥ ३९ ॥
तन्मध्ये परमेशानि
समन्ताद्वादशांगुलम् ।
आपातालाद्धदं देवि
प्रोच्छलजलमण्डलम् ॥ ४० ॥
हे परमेशानि देवि ! उसमें चारों ओर
द्वादशांगुल परिमित पाताल पर्यन्त विस्तृत प्रोच्छलित ( रमडते हुए ) जल मण्डल हृद
( तालाव) विद्यमान है ॥ ४० ॥
तज्जलं परमेशानि
ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् ।
ईश्वरं तज्जलं देवि
कारणार्णवसंज्ञकम् ॥ ४१ ॥
हे परमेशानि ! वह जल ब्रह्म,
विष्णु, शिवात्मक है । हे देवि ! वह जल
ऐश्वरीय और कारणार्णव के नाम से विख्यात है ॥ ४१ ॥
बहु किं कथ्यते देवि तज्जलं
परमामृतम् ।
शङ्कितेनैव कथितं मानर्जानीहि
सुन्दरि ॥ ४२ ॥
हे देवि ! बहुत कहने से क्या है,
वही जल परमामृत है । सुन्दरि ! मैंने यह शंकित होकर ही कहा है तुम
जानो ॥ ४२ ॥
कांक्षति सततं देवि तज्जलं सचराचरम्
।
तजलस्पर्शमात्रेण तद्धदस्पर्शनेन च
।। ४३ ॥
तत्क्षणान्मानवों देवि देवो भवति
निश्चितम् ।
पुण्यपापविनिर्मुक्तो जीवन्मुक्तो
मवेदूध्रुवम् ॥ ४४ ॥
सचराचर अखिल ब्रह्माण्डमंडल उस जल की
आकांक्षा करता है, उस जल और उस हृद के
स्पर्श करते ही मनुष्य देवता होता है और पाप पुण्य से छूटकर जीवन्मुक्त होता है,
इसमें संदेह नहीं ॥४३-४४॥
तद्धदे पूजयेद्यो हि तज्जलेन
महेश्वरि ।
जिह्वाकोटिसहस्रैस्तु
वक्त्रकोटिशतैरपि ॥ ४५ ॥
वर्णितुं नैव शक्नोमि तत्फलं
गिरिनन्दिनि ।
दे हस्तं विनिक्षिप्य जलमध्ये
महेश्वरि ॥ ४६ ॥
अष्टोत्तरशतज पान्महासिद्धीश्वरो
भुवि ।
मन्त्रसिद्धिर्भवत्तस्य
तत्क्षणान्नात्र संशयः ॥ ४७ ॥
हे पर्वतनंदिनी ! जो मनुष्य उस हृद की
उसी के जल से पूजा करता है, उसका जितना फल है,
वह मैं करोड हजार जीभ और सौ करोड मुख प्राप्त होनेपर भी वर्णन करने में
समर्थ नहीं हो सकता । हे महेश्वरि ! उस हृद के जल में हाथ डालकर एक सौ आठवार जप
करने पर वह मनुष्य पृथ्वीतल में महासिद्धीश्वर होता है और तत्काल उसके मन्त्र की
सिद्धि होती है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ४५-४७ ॥
शैवो वा वैष्णवो वापि शाक्तो नान्यो
महेश्वरि ।
जप्यते यैस्तु मन्त्रो हि तत्क्षणं
सिद्धिमृच्छति ।
अष्टोत्तरशतेनापि नात्र कार्या
विचारणा ॥ ४८ ॥
हे देवेशि ! शाक्त वैष्णव व शैव ही
क्यों न हो, अथवा अन्य जो कोई हो, वहां जो एक सौ आठवार मन्त्र जपता है, तो तत्काल उसकी
मन्त्रसिद्धि होती है इसमें सन्देह नहीं ॥ ४८ ॥
कुशाप्रोत्थितं तदेव पितृभ्यो यः
प्रयच्छति ।
गयाश्राद्धं कृतं तेन नियुताब्दं
महेश्वरि ॥ ४९ ॥
जो मनुष्य वहां कुशाग्र द्वारा वह
जल पितरों को प्रदान करता है उसके द्वारा ही उसको नियुताब्दव्यापी अर्थात् लक्ष
वर्ष पर्यन्त गया श्राद्ध करने का फल होता है || ४९
॥
एतते कथितं देवि
कामाख्यायोनिमण्डलम् ।
संक्षेपेण महेशानि वक्ष्याम्येवं
विशेषतः ॥ ५० ॥
हे देवि । यह मैंने तुमसे कामाख्या
योनिमण्डल कहा । हे महेशानि ! अब संक्षेप से उसका माहात्म्य कहता हूं ॥ ५० ॥
किन्त्वस्य कथ्यते देवि माहात्म्यं
च यशस्विनि ।
तत्र कोटियोगिनीभिः काली वसति
तारिणी ॥ ५१ ॥
हे परमैश्वर्यसम्पन्न देवी ! अब हम
उसके माहात्म्य का वर्णन करते हैं। तुम श्रवण करो। वहां करोड करोड योनियों के सहित
जगत्तारिणी कालिका वास करती है ॥ ५१ ॥
छिन्नमस्ता भैरवी सा सप्त सप्त
विभेदिता ।
धूमा च भुवनेशानी मातङ्गी कमलालया ॥
५२ ॥
भगक्लिन्ना भगधारा तथा चैव भगन्दरी
।
दुर्गा च जयदुर्गा च तथा
महिषमर्दिनी ॥ ५३ ॥
सप्त सप्त विभेद में छिन्नमस्ता,
भैरवी, धूमावती भुवनेश्वरी, मातंगी कमलालया, भगक्लिन्ना, भगधारा,
भगन्दरी, दुर्गा, जयदुर्गा,
महिषमर्दिनी ॥ ५२- ५३ ॥
उपविद्याश्र याः प्रोक्ताः
सर्वाभिस्ताभिरेव च ।
ब्रह्मविष्णुमहेशादौ महाकाली
वसेत्सदा ॥ ५४ ॥
और जो सब उपविद्या हैं,
उन सबके सहित एवं ब्रह्मा विष्णु और महेशादि देवताओं के सहित
महाकाली निरन्तर वहां वास करती है ॥ ५४ ॥
ब्रह्ममुखाश्रयं
पीठमुग्रताराधिदैवतम् ।
तत्पीठं द्विविधं प्रोक्तं गुप्तं
व्यक्त महेश्वरि ॥ ५५ ॥
हे देवी! उग्रतारा जिसकी अधिदेवता
है. वहां ब्रह्ममुखाश्रयपीठ विद्यमान है वह पीठ दो प्रकार कहा गया है गुप्त और
व्यक्त ॥ ५५ ॥
व्यक्ताद्गुप्तं पुण्यतरं दुरापं
साधकोत्तमैः ।
सर्वत्र लभ्यते देवि
कुलद्वयविशारदैः ॥ ५६ ॥
व्यक्त की अपेक्षा गुप्तपीठ साधक को
अधिकतर पुण्य प्रदान करती है। यह गुप्तपीठ दुर्लभ है किन्तु दोनों कुलविशारद
अर्थात् विद्यावीरभावापन्न मनुष्यगण सर्वत्र ही उसको लाभ कर सकते हैं ॥ ५६ ॥
मनोभवगुहावह्नौ देवीशिखरमुन्नतम् ।
तन्महोप्रमिति ख्यातं पीठं
परमदुर्लभम् ॥ ५७ ॥
मनोभवगुहा की अग्नि देवी का शिखर उन्नत
(ऊंचा ) रहता है वह पीठ महोप्रनाम से विख्यात और परमदुर्लभ है ॥५७॥
सिद्धिकाली ब्रह्मरूपा देवता
भुवनेश्वरी ।
निवसेत्तत्र या काली
घोरदैत्यविनाशिनी ॥ ५८ ॥
उस पीठ में घोर दैत्य विनाशिनी,
ब्रह्मरूपा भुवनेश्वरी देवता सिद्धिकाली वास करती है ॥ ५८ ॥
तत्पीठोपरि संविश्य दशधा च
जपेन्मनुम् ।
तदा मन्त्रविशुद्धिः स्यात्तद्देहेन
शिवो भवेत् ॥ ५९ ॥
उस पीठ के ऊपर बैठ दशवार जप करने पर
उसके मन्त्र की सिद्धि होती है और उस देह के अन्त में शिवतुल्य होता है ॥ ५९ ॥
यत्फलं ते मया प्रोक्तं हृदमध्ये
सुलोचने ।
पादहीनं तत्फलं स्यात्पूर्ण
शिवजपार्चने ॥ ६० ॥
हे सुलोचने ! मैंने तुमसे हृद में
जिस फल का होना कहा है वह फल पादहीन होता है और शिव के जप तथा अर्चना से संपूर्ण
होता है ॥ ६० ॥
अर्ध जालन्धरे ज्ञेयमुडीयाने
तदर्द्धकम् ।
अवश्यं मन्त्रसिद्धिः स्यान्नेपाले
तिथिवासरे ॥ ६१ ॥
लकण्ठसमीपे तु नात्र कार्या विचारणा
।
जपेन देवदेवेशि कथितं ते मया मुदा ॥
६२ ॥
हे देवि ! जालंधर में उससे आधा फल
और उड्डीयान में उससे आधा जाने, नेपाल में
नीलकंठ के समीप तिथिवासर में मन्त्र जपने से मन्त्र सिद्धि होती है इसमें सन्देह
नहीं इस प्रकार जप करने से सिद्धि होती है सो मैंने तुम्हारे प्रति वर्णन करके
सुनाई ॥ ६१-६२ ॥
त्रयोदशाहे महासिद्धिरे काकानने तथा
।
दशलक्षण गङ्गायां सिद्धिरावश्यकं
शिवे ॥ ६३ ॥
हे देवी देवेश्वरि ! एकाकानन में
तेरह दिन जप करने से महासिद्धि प्राप्त होती है। हे शिवे ! गंगा में दशलाख जप करने
से अवश्य ही सिद्धि लाभ करता है ॥ ६३ ॥
रादायां विकटाक्षायां तञ्च
पर्वतात्मजे ।
लक्षत्रयेण सिद्धिः स्यात्सत्यमेव
मुसिद्धिदे ॥ ६४ ॥
हे पर्वतात्मजे ! हे सुसिद्धिदे !
राढा और विकटाक्षा में तीन लाख जप से तत्क्षण सिद्ध होता है,
इसमें सन्देह नहीं ॥ ६४ ॥
पुष्कराख्ये च लक्षेण प्रयागे
विंशलक्षतः ।
कोटिजपाद्रोणगिरौ ज्वालायाञ्च
द्विलक्षतः ॥ ६५ ॥
पुष्कर में लक्ष जप से और प्रयाग
में बीस लाख जप से, द्रोणगिरी में
करोड़ जप से, ज्वालामुखी में दो लाख जप से ॥६५॥
तथैव विरजे क्षेत्रे लक्षद्वादशतः
शिवे ।
हिमालये त्रिलक्षेण केदारे
पञ्चलक्षतः ॥ ६६ ॥
कैलासे दशलक्षेण जयन्त्यां
पञ्चलक्षतः ।
उज्जयिन्यां दशाहेन मासेन मन्दराचले
॥ ६७ ॥
अवश्यं मन्त्रसिद्धिः
स्याज्जपनात्पूजनाच्छिवे ॥ ६८ ॥
विरज क्षेत्र में बारह लाख जप से
हिमालय में तीन लाख जप से केदार में पांच लाख जप से कैलास में दश लाख जप से जयन्ती
में पांच लाख जप से उज्जयनी में दशाह ( दश दिन पर्यन्त ) जप से मन्दराचल में मास मात्र
जप से और पूजा से अवश्य ही सिद्धिलाभ होता है ॥ ६६-६८ ॥
इत्येवं कथितं तुभ्यं यत्पृष्टं
गिरिसम्भवे ।
मातृजारसमं देवि सर्वदा परिगोपयेत्
॥ ६९ ॥
हे शिवे ! यह मैंने तुम्हारे पूछने के
विषय का उत्तर दिया । यह मातृजार के समान सदा गुप्त रखने योग्य है ॥६९॥
इति श्रीयोगिनी तन्त्रे
सर्वतन्त्रोत्तमोतमे देवीश्वरसम्बादे चतुविंशति साहस्त्रे भाषाटीकायामेकादशः
पटलः।।११।।
आगे जारी........ योगिनीतन्त्र पटल 12

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