विजयासन देवी महास्तोत्र
विजयासन देवी महास्तोत्र देवी
दुर्गा की स्तुति है, जिसमें
कामरूपिणी, अष्टसिद्धिदात्री, शत्रुसंहारिणी,
नवचक्रनिवासिनि, मणिद्वीपधिराज्यास्था और
ब्रह्म-विष्णु-शिव आदि द्वारा वंदित चंडिका के रूप में देवी दुर्गा का महिमामंडन
किया गया है। यह स्तोत्र देवी के विभिन्न रूपों और शक्तियों का वर्णन करता है,
जैसे कि इच्छाओं को पूर्ण करने वाली, सिद्धियाँ
प्रदान करने वाली, महान बल देने वाली, नवदुर्गा
स्वरूपिणी और सभी लोकों द्वारा पूजित होने वाली शक्ति ।
श्री विजयासन देवी महास्तोत्रम्
Vijayasan devi mahastotra
श्री विजयासन देवी महास्तोत्रं
विजयासनदेवी महास्तोत्र हिन्दी अर्थ
सहित
विजयासन देवी महास्तोत्र
ॐ नमो विजयायै रथारूढायै नमः।
शत्रुसैन्यविनाशिन्यै कालरात्र्यै नमो नमः॥ १॥
मैं उस देवी विजयासन को नमस्कार
करता हूँ जो रथ पर आरूढ़ हैं, शत्रुओं की
सेना का विनाश करती हैं और स्वयं कालरात्रि के समरूप हैं।
जय जयेति जगदंबिके त्वं,
शरणागतवत्सला भीषणे ।
विजयसिंहासने राजते त्वं, महिषमर्दिनि
ते नमो नमः॥ २ ॥
हे जगदंबा! आप ही शरणागतों पर कृपा
करने वाली और दुष्टों के लिए भयानक स्वरूप हैं। आप विजय के सिंहासन पर विराजमान
हैं। हे महिषासुरमर्दिनी! आपको बारंबार नमस्कार है।
रक्ताम्बरा रक्तवर्णा,
रक्तनेत्रा च दंष्ट्रिणी ।
रक्तचर्माम्बरधरा, रक्तमाल्यविभूषिता
॥ ३ ॥
आप रक्तवर्णा हैं,
लाल वस्त्र धारण करती हैं, आपकी आँखें भी लाल
हैं और आप उग्र दंष्ट्रा से युक्त हैं। आप रक्तवर्ण चर्म का वस्त्र धारण करती हैं
और रक्तमालाओं से अलंकृत हैं।
त्रिशूलचक्रगदाशंखखड्गपाशकुट्टिमान्
।
धारयन्ती स्म बालेव त्वं, अष्टभुजा
विराजते ॥ ४ ॥
आपके आठ भुजाओं में त्रिशूल,
चक्र, गदा, शंख, खड्ग, पाश आदि अस्त्र-शस्त्र शोभित हैं। आप बालारूप
में भी महासामर्थ्य से पूर्ण हैं।
विजया त्वं बलप्रदा,
भुक्तिमुक्तिफलप्रदा ।
सप्तलोकप्रशंस्ये त्वं, देवसेना
सहायिनी ॥ ५ ॥
हे विजयादेवी! आप बल प्रदान करने
वाली हैं। भोग और मोक्ष दोनों की दात्री हैं। सातों लोकों में आपकी महिमा प्रसिद्ध
है और आप देवताओं की सेना की सहायक हैं।
कवचं ते वज्रसारं,
मंत्रं ते हृदयस्थितम् ।
यंत्रं ते रथसन्निभं, ध्यानं
ते मनोहारिणम् ॥ ६ ॥
आपका कवच वज्र के समान अटूट है,
आपका मंत्र हृदय में स्थित है, आपका यंत्र
युद्धरथ जैसा है और आपका ध्यान अत्यंत मनोहारी है।
शुंभासुरविनाशिनि,
निशुंभमथनी परा ।
चण्डमुण्डप्रहर्त्री त्वं, रक्तबीजभयं
हरि ॥ ७ ॥
आपने शुंभ और निशुंभ जैसे दैत्यों
का वध किया, चण्ड और मुण्ड का भी नाश किया
और रक्तबीज जैसे विकट असुर का भय दूर किया।
नमस्ते करालवदने,
नमस्ते महाशूलधारिणि ।
नमस्ते विजयासनायै, नमस्ते
रणचण्डिके ॥ ८ ॥
हे करालवदने! हे महाशूलधारिणी! हे
विजयासन! हे रणचण्डिका! आपको बारंबार नमस्कार है।
दुर्गे कालिनि कालारि,
विनाशिनि सुरार्चिते ।
प्रेतासनसमारूढे, दक्षयज्ञविनाशिनि
॥ ९ ॥
हे दुर्गे! आप काल की भी संहारिणी
हैं। सुरों द्वारा पूजिता हैं। प्रेतासन पर आरूढ़ होती हैं और अधर्ममय यज्ञ का नाश
करने वाली हैं।
कपालमालिनी त्वं हि,
सिंहवाहनसंस्थिते ।
अट्टहासप्रचण्डे त्वं, विकरालि
नमोऽस्तु ते ॥ १० ॥
आप कपालमाला धारण करती हैं,
सिंहवाहिनी हैं, आपके अट्टहास से दिशाएँ
काँपती हैं, हे विकराल स्वरूपे! आपको प्रणाम।
सप्तशतीस्मृतिरूपा,
नवाक्षरी महाजपः।
विज्ञानघनरूपा त्वं,
सर्वसिद्धिप्रदायिनी ॥ ११ ॥
आप दुर्गा सप्तशती का साक्षात् रूप
हैं,
नवाक्षरी मंत्र की शक्ति हैं, साक्षात ज्ञान
का घन स्वरूप हैं और सभी सिद्धियाँ प्रदान करने वाली हैं।
जपे ध्याने यज्ञकर्मणि,
त्वदीयं च बलं परम् ।
यन्त्रे मन्त्रे तन्त्रचक्रे, त्वं
राज्ञी परमेति च ॥१२ ॥
जप, ध्यान और यज्ञ आदि सभी कर्मों में आपका बल परम होता है। यंत्र, मंत्र और तंत्र के समस्त चक्रों में आप ही परमेश्वरी हैं।
योगमाया जगद्धात्री,
त्रिगुणात्मस्वरूपिणी ।
राजराजेश्वरि त्वं हि,
सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी ॥१३॥
आप योगमाया हैं,
सम्पूर्ण जगत की धात्री हैं, सत्व-रज-तम तीनों
गुणों की अधिष्ठात्री हैं, और त्रैलोक्य की अधिपति हैं जो
सृष्टि, स्थिति और संहार करती हैं।
विजयासनसमारूढे,
मुण्डमालाविभूषिते ।
भैरवी शंभुकान्ता त्वं,
मातृकाभिर्विराजिता ॥१४ ॥
आप विजयासन पर विराजमान हैं,
मुण्डों की माला पहने हुए हैं, भैरवी हैं,
शिव की प्रेयसी हैं और मातृका शक्तियों से घिरी हुई हैं।
भीमदंष्ट्रे भीमरूपे,
सर्वशत्रुनिषूदिनि ।
वज्रपंजरकवचे,
लोकत्रयविहारिणि ॥१५ ॥
आपकी दंष्ट्राएँ भयानक हैं,
स्वरूप भी उग्र है, आप सभी शत्रुओं का संहार
करती हैं, वज्ररूपी कवच से युक्त हैं और तीनों लोकों में
विहार करती हैं।
शरणागतत्राणे त्वं,
भक्तवाञ्छितदायिनी ।
दुर्भिक्षदाहशमनि,
शमशाननिवासिनि ॥१६॥
आप शरणागतों की रक्षा करती हैं,
भक्तों की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करती हैं। आप दुर्भिक्ष और दाह
(अभाव एवं पीड़ा) का शमन करती हैं और शमशान में निवास करने वाली हैं।
दिगम्बरा त्वं कालिका,
ब्रह्मविद्या परात्परा ।
शिवशक्ति संयुक्ता त्वं, अग्निकाली
स्वभावतः॥१७॥
आप दिगम्बरा हैं,
कालिका हैं, ब्रह्मविद्या की साक्षात् मूर्ति
हैं। आप शिवशक्ति से संयुक्त हैं और अग्निस्वरूपा हैं।
भूतप्रेतपिशाचघ्नि,
ग्रहबाधाविनाशिनी ।
दशदिक्परिपालिका, नवदुर्गास्वरूपिणी
॥१८ ॥
आप भूत,
प्रेत, पिशाच और ग्रहों की बाधाओं को नष्ट
करती हैं। दसों दिशाओं की रक्षिका हैं और नवदुर्गा स्वरूप में प्रतिष्ठित हैं।
रक्तचन्दनचर्चिता त्वं,
कंकालशकुनिप्रिया ।
शंखिनी डाकिनीभिः सेव्या, योगिन्याः
परमेश्वरी ॥१९॥
आप रक्तचन्दन से अर्चित होती हैं,
कंकाल और श्मशानप्रिय हैं, तांत्रिक शक्तियाँ –
शंखिनी-डाकिनी आदि – आपकी सेवा करती हैं,
और आप योगिनियों की अधिपति हैं।
ग्रहणचण्डिके देवी,
स्वप्नदोषनिवारिणि ।
सप्तकोटि देववन्द्या, तीर्थशक्तिप्रदायिनी
॥ २०॥
आप ग्रहणकाल की चण्डिका हैं,
स्वप्न में आने वाले दोषों को नष्ट करने वाली हैं, सात करोड़ देवताओं द्वारा वंदित हैं और तीर्थों की शक्ति देती हैं।
भैरवशक्ति संयुक्ते,
नरसिंहप्रतीकृते ।
दुर्गातीतपदे स्थिता,
ब्रह्मपदप्रकाशिनी ॥२१ ॥
आप भैरवशक्ति से संयुक्त हैं,
नरसिंह के समान प्रचंड हैं। आप दुर्गा से भी परे (अतीता) दिव्य पद
पर स्थित हैं और ब्रह्मपद को प्रकाशित करने वाली हैं।
विजयं कुरु मे देवी,
शत्रुहन्तारि दुर्गमे ।
मम सर्वार्थसिद्धिं त्वं, कुरु
कात्यायनी शिवे ॥ २२ ॥
हे देवी! हे दुर्गा! मेरी विजय सुनिश्चित
करें। आप शत्रुओं का विनाश करने वाली हैं। हे कात्यायनी शिवा! मेरे समस्त कार्यों
की सिद्धि करें।
राजद्वारे गृहे चैव,
रणभूमौ महाभये ।
त्वं रक्ष त्वं धारय मां,
त्वमेव परमेश्वरी ॥२३॥
राजद्वार पर,
घर में, रणभूमि में या किसी भी भयानक स्थिति
में — हे देवी! आप ही मुझे रक्षा प्रदान करें। आप ही
परमेश्वरी हैं।
यः पठेत स्तोत्रमेतत्तु,
रात्रौ वा दिवसेऽपि च ।
सर्वशत्रु विनिर्मुक्तो,
जीवेद्वर्षशतं सुखम् ॥२४ ॥
जो कोई इस स्तोत्र का पाठ रात्रि
अथवा दिन में करता है, वह समस्त शत्रुओं
से मुक्त होकर सौ वर्षों तक सुखपूर्वक जीवित रहता है।
दुर्गायै कालिकायै च,
चामुंडायै नमो नमः।
विजयासने संस्थायै,
नमस्ते रणमूर्तये ॥ २५ ॥
दुर्गा,
कालिका और चामुंडा — इन सभी को नमस्कार है।
विजयासन देवी, जो रण की मूर्ति हैं, उन्हें
भी कोटिशः वंदन है।
विजयासनजगदम्बिके! मम चित्ते वसतु
सदा ।
विजयं मे प्रयच्छ त्वं,
भुक्तिमुक्तिं च देहि मे ॥२६ ॥
हे विजयासन जगदम्बा! आप सदा मेरे
हृदय में निवास करें। मुझे जीवन में विजय, भोग
तथा मोक्ष – सब प्रदान करें।
मातृकाचक्रसंस्थे त्वं,
कुलकुण्डलिवेधिनी ।
त्रिपुरे त्रिलोकमातः, त्रिगुणेश्वरि
नमोऽस्तु ते ॥२७॥
आप मातृका चक्र में प्रतिष्ठित हैं,
कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करने वाली हैं। आप त्रिपुरा देवी हैं,
तीनों लोकों की माता हैं और त्रिगुणों की अधिष्ठात्री हैं।
महातारा महावेगा,
छिन्नमस्ता भयङ्करी ।
धूम्रवर्णा ज्वलज्जिह्वा, कालसर्पविनाशिनी
॥२८॥
आप महातारा हैं,
तीव्र गति वाली हैं, छिन्नमस्ता के रूप में
उग्र हैं। आपकी जीभ अग्नि के समान प्रज्वलित है और आप कालसर्प जैसे दोषों का नाश
करती हैं।
प्रचण्डचामुण्डे रौद्रे,
करालवदनप्रिये ।
स्मशानचक्रवर्ती त्वं, महामाया
निरूपिता ॥ २९॥
हे प्रचण्ड चामुण्डा! आप रौद्र
रूपवाली,
उग्र मुखवाली हैं। श्मशान में विचरण करती हैं और सच्चिदानन्दस्वरूप
महामाया कहलाती हैं।
भूतभावनसंरक्षिणि,
तन्त्रीमन्त्रविभाविनी ।
मोहिनी ज्ञानदा देवी, सर्वविद्याप्रकाशिनी
॥३०॥
आप सम्पूर्ण प्राणियों की रक्षक हैं,
तंत्र-मंत्र की अधिष्ठात्री हैं। मोहिनी रूप से सम्मोहित करती हैं
और ज्ञान देने वाली समस्त विद्याओं की प्रकाशिका हैं।
कामदा कामरूपा च,
सिद्धिदा सिद्धरूपिणी ।
ऋद्धिसिद्धिप्रदात्री त्वं, अणिमाद्यष्टसिद्धिदा
॥३१॥
आप इच्छाओं को पूर्ण करने वाली हैं,
इच्छा की ही रूप हैं। सिद्धियाँ प्रदान करती हैं, अष्टसिद्धियाँ – अणिमा, लघिमा
आदि – देने वाली हैं।
शत्रुसंहारिणी देवी,
वज्रपंजरकवचिता ।
महाबलप्रदा शक्तिः, रणदुर्गे
नमोऽस्तु ते ॥३२॥
आप शत्रुओं का संहार करती हैं,
वज्र-कवच से सुरक्षित हैं। आप महान बल प्रदान करती हैं। हे
रणदुर्गे! आपको नमस्कार।
नवचक्रनिवासिनि त्वं,
नवदुर्गा विचित्रिते ।
योगिनीदशमूर्तिं त्वं, दशदिक्पालवल्लभे
॥३३॥
आप नवचक्र (साधनात्मक मंडल) में
निवास करती हैं, नवदुर्गा के रूप से विभूषिता
हैं। दस योगिनियों की अधिपति और दसों दिशाओं के रक्षकों की प्रिय हैं।
सप्तार्चिषि सप्तलोके,
सप्ततन्त्रीस्वरूपिणि ।
सप्तशतीमयी देवी, सप्तशक्ति
समन्विता ॥३४॥
आप सात अग्नियों में,
सात लोकों में प्रतिष्ठित हैं, सप्ततंत्रों की
स्वरूपा हैं। दुर्गा सप्तशती में वर्णित सात महाशक्तियों से युक्त हैं।
मणिद्वीपाधिराज्यस्था,
सर्वलोकनमस्कृता ।
ब्रह्मविष्णुशिवादिष्टा, चण्डिके
नमोऽस्तु ते ॥३५॥
आप मणिद्वीप की अधिष्ठात्री महारानी
हैं,
सभी लोकों द्वारा पूजिता हैं। ब्रह्मा, विष्णु,
शिव — सभी द्वारा वंदित हैं। हे चण्डिके! आपको
नमस्कार।
विजयासने संस्थिता त्वं,
विश्ववन्द्या महेश्वरी ।
त्रैलोक्यविजया त्वं हि,
सर्वरक्षाविधानकरी ॥३६॥
आप विजयासन पर स्थित हैं,
सम्पूर्ण विश्व द्वारा वंदनीया हैं। तीनों लोकों में विजय देने वाली
हैं और सम्पूर्ण रक्षा की व्यवस्था करती हैं।
कूष्माण्डचण्डिके त्वं,
भैरवी नृसिंहिका ।
काली कराली महागौरी, शान्तिदायिनि
मातरः॥३७॥
आप कूष्माण्डा,
चण्डिका, भैरवी और नरसिंहिनी हैं। आप कालिका,
कराली और महागौरी हैं — और शांति प्रदान करने
वाली माता हैं।
रक्तबीजविनाशिनि,
ब्रह्मास्त्रानलशोषिता ।
शिवशक्तिस्वरूपा त्वं, सर्वसंकटनाशिनी
॥३८ ॥
आपने रक्तबीज का वध किया,
ब्रह्मास्त्रों की अग्नि को भी शांत किया। आप शिवशक्ति की मूर्ति
हैं और सब संकटों का नाश करती हैं।
युद्धायुद्धप्रभा देवी,
युगान्तकृतिदारिणि ।
संहारिणी सृष्टिकर्त्री, सत्त्वरजस्तमःमयी
॥३९॥
आप युद्ध की प्रभा स्वरूपा हैं,
युग के अंत में संहार करती हैं, सृष्टि का
निर्माण भी करती हैं और सत्व, रज, तम
तीनों गुणों की अधिष्ठात्री हैं।
शिववामाङ्गनिलया,
शारदापरिसेविता ।
भद्रकाली महालक्ष्मीः, ललिता
परदेवता ॥४०॥
आप शिव के वाम अंश में स्थित हैं,
शारदा द्वारा सेविता हैं। आप भद्रकाली, महालक्ष्मी
और परम ललिता देवी हैं।
विजयं कुरु मे नित्यं,
जयविज्ञापनं श्रुते ।
विजयासनदेवी त्वं,
वरदा भव मे सदा ॥४१॥
हे विजयासनदेवी! कृपया मेरी विजय
सुनिश्चित करें। मेरा जय-संकल्प सुनें और मुझे सदा वर प्रदान करें।
भुक्तिमुक्तिफलप्रदात्री,
भक्तानां सुखदायिनी ।
विजयासनमाहात्म्यं,
त्वमेव खलु दर्शय ॥४२॥
हे देवी! आप भोग और मोक्ष दोनों
प्रदान करने वाली हैं, भक्तों को परम सुख
देने वाली हैं। विजयासन की महिमा आप ही प्रकाशित करें।
नारायणप्रिये देवि,
योगमायास्वरूपिणि ।
लक्ष्मीरूपा जगद्धात्री,
भद्रकाली नमोऽस्तु ते ॥४३ ॥
हे देवी! आप नारायण की प्रिया,
योगमाया स्वरूपा, लक्ष्मी और जगद्धात्री हैं।
हे भद्रकाली! आपको प्रणाम।
विजया विजयी देवी,
विष्णुरूपा विराजिता ।
मङ्गलाचरणे शक्तिः, सिद्धिलक्ष्मी
नमोऽस्तु ते ॥४४ ॥
आप ही विजया हैं,
आप ही विजय देने वाली देवी हैं। विष्णु रूप में प्रतिष्ठित हैं। सभी
शुभ आरंभों की अधिष्ठात्री, सिद्धिलक्ष्मी हैं — आपको नमस्कार।
रक्तनेत्रा रुद्रवामा,
चक्रराजप्रभञ्जिनी ।
सुदर्शनसमायुक्ता,
दण्डिनी कालशूलिनी ॥४५॥
आप रक्तवर्ण नेत्रों वाली रुद्रवामा
हैं,
चक्रराज को चलाने वाली हैं। सुदर्शनचक्र से युक्त, दण्डिनी स्वरूपा और कालशूलधारिणी हैं।
हृदयगूढा योगनिद्रा,
बन्धमोचनकारिणी ।
माया बिभ्रति विश्वेशि, अज्ञानतिमिरापहा
॥४६॥
आप हृदय में गूढ़ रूप से विद्यमान
योगनिद्रा हैं, बंधनों को काटने वाली हैं। हे
विश्वेश्वरी! आप माया की स्वामिनी हैं और अज्ञान के अंधकार को हरने वाली हैं।
राजराजेश्वरी त्वं हि,
राजसिंहासने स्थिता ।
चक्रिणी पिङ्गलाक्षी च, वीरवाहनवाहिनी
॥४७ ॥
आप राजाओं की अधिपति हैं,
राजसिंहासन पर आसीन हैं। चक्रधारिणी, पिंगलवर्ण
नेत्रों वाली और वीरों के वाहन पर आरूढ़ हैं।
शरणागतवत्सला त्वं,
परात्परतरस्विनी ।
देवदानवपूज्या त्वं, निर्गुणा
सगुणात्मिका ॥४८॥
आप शरण में आए जनों पर विशेष स्नेह
रखने वाली हैं। परात्पर हैं, देवों और
दैत्यों द्वारा पूजिता हैं, निर्गुण होते हुए भी सगुण रूप
में प्रकट होती हैं।
ध्यानयोगप्रिया शक्तिः,
अनाहतनिवासिनी ।
विज्ञानप्रदया देवि,
ज्ञानमुद्रा धरासि या ॥४९॥
आप ध्यान और योग की प्रिय हैं,
अनाहत चक्र में निवास करती हैं। विज्ञान और आत्मबोध देने वाली देवी
हैं, और ज्ञानमुद्रा धारण करती हैं।
विवेकप्रदया देवि,
संशयच्छेदनायिनि ।
सर्वशास्त्रमयी विद्या, ब्रह्मस्वरूपिणि
शिवे ॥ 50॥
आप विवेक प्रदान करती हैं,
संदेहों का नाश करती हैं। सभी शास्त्रों की साक्षात विद्या हैं और
ब्रह्मस्वरूपा शिवा हैं।
विजयासनदेवी त्वं,
भक्तानां सफलप्रदा ।
ममापि कुरु कल्याणं, चिरंजीवतु
मे कुलम् ॥५१॥
हे विजयासन देवी! आप भक्तों को
सफलता देने वाली हैं। कृपा करके मुझे भी कल्याण दें और मेरे कुल को चिरंजीवी
बनाएं।
इदं स्तोत्रं महापुण्यं,
विजयायै समर्पितम् ।
यः पठेत श्रद्धया युक्तः, स
जयेत् त्रिभुवं ध्रुवम् ॥५२॥
यह अत्यंत पुण्यदायी स्तोत्र
विजयासन देवी को समर्पित है। जो इसे श्रद्धा से पढ़ता है,
वह निश्चित ही तीनों लोकों में विजय प्राप्त करता है।
इतिश्री विजयासन देवी महास्तोत्रम् ॥

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