कुलार्णवतन्त्र उल्लास १
कुलार्णवतन्त्र उल्लास १ में जीव के
मोक्ष का उपाय, शिव का स्वरूप, जीव की सामान्य अवस्थाएँ, जीव के चतुर्विध शरीर,
शरीर की रक्षा, कृत कर्मों का फल अगले जन्म में, अपने अपराध से प्राप्त दुःखादि, निःसङ्ग
जीव को मुक्ति लाभ, संसार के दोष, विवेक ज्ञान के बिना शारीरिक कष्टादि द्वारा
मुक्ति नहीं, अकेले कर्मकाण्ड का दोष, तत्त्वज्ञान ही मोक्ष का कारण, परमार्थ
ज्ञान के विना शास्त्रादि पाठ से मुक्ति नहीं, आत्मस्थ तत्त्व, ज्ञान से ही मुक्ति,
गुरुवाणी ही मुक्तिदायिनी, ज्ञान के दो प्रकार १. आगम,
२. विवेक, इन्द्रियनिग्रह और गुरुकृपा बिना तत्त्वज्ञान नहीं का
वर्णन है।
कुलार्णवतन्त्र प्रथम उल्लास
Kularnava Tantra 1st Ullas
कुलार्णवतन्त्रम् प्रथमोल्लासः - जीवस्थितिकथनम्
कुलार्णवतन्त्र उल्लास १
कुलार्णवतन्त्र पहला उल्लास
कुलार्णवतन्त्रम्
अथ प्रथमोल्लासः
कैलासशिखरासीनं देवदेवं जगद्गुरुम्
।
पप्रच्छेशं परानन्दं पार्वती
परमेश्वरम् ॥ १ ॥
जीव के मोक्ष का उपाय
- एक समय जब देवों के देव, जगद्गुरु, ईश, परानन्द परमेश्वर भगवान् शङ्कर कैलाश पर्वत के
शिखर पर बैठे थे तब श्री देवी पार्वती ने उनसे पूँछा (जीवों के मोक्ष का उपाय क्या
है ? ) ॥ १ ॥
श्रीदेव्युवाच
भगवन् देवदेवेश पञ्चक्रतुविधायक ।
सर्वज्ञ भक्तिसुलभ शरणागतवत्सल ॥ २
॥
कुलेश परमेशान करुणामृतवारिधे ।
असारे घोरसंसारे सर्वदुःखमलीमसाः ॥
३ ॥
नानाविधशरीरस्था अनन्ता जीवराशयः ।
जायन्ते च प्रियन्ते च तेषां मोक्षो
न विद्यते ॥ ४ ॥
सदा दुःखातुरा देव न सुखी विद्यते
क्वचित् ।
केनोपायेन देवेश मुच्यते वद मे
प्रभो ॥ ५ ॥
श्री देवी ने कहा- हे भगवान् ! हे
देवदेवेश ! हे पञ्च यज्ञों का विधान करने वाले ! हे सर्वज्ञ ! हे भक्ति से सुलभ
होने वाले ! हे शरणागतवत्सल ! हे कुल के ईश ! हे परम ईशान ! हे करुणामृत समुद्र
वाले ! इस सारहीन कठिन संसार में नाना प्रकार के शरीरों से अनन्त जीव-राशियाँ सभी
(दैहिक,
दैविक एवं भौतिक) दुःखों से मलिन (परिपूर्ण) हैं। वे उत्पन्न होती
हैं और काल के गाल में विलीन हो जाती हैं। उनका कोई अन्त (मोक्ष) नहीं है। हे देव!
अत्यन्त घोर दुःख से व्याकुल होकर वे कभी सुख नहीं भोगती हैं। अतः हे प्रभो ! हे देवेश!
वे जीव किस उपाय से मुक्त हो सकते हैं? यह मुझसे कहिए ।। २-५
।।
विमर्श
- पञ्चक्रतुविधायकम् — तैत्तिरीय आरण्यक
में पाँच यज्ञ इस प्रकार बताए गए हैं - १. ब्रह्मयज्ञ, २.
देवयज्ञ, ३. पितृयज्ञ (तर्पण आदि), ४.
भूतयज्ञ (बलि आदि) एवं ५. स्वाध्याय ।
श्रीईश्वर उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि यन्मां त्वं
परिपृच्छसि ।
तस्य श्रवणमात्रेण संसाराद् मुच्यते
नरः ॥ ६ ॥
श्री ईश्वर ने कहा- हे देवि !
सुनिये । आपने मुझसे जो पूँछा है, उसे बताता हूँ
। इसके सुनने मात्र से मनुष्य संसार से मुक्त हो जाता है ॥ ६ ॥
अस्ति देविं परब्रह्मस्वरूपो
निष्कलः शिवः ।
सर्वज्ञः सर्वकर्त्ता च सर्वेशो
निर्मलोऽद्वयः ॥ ७ ॥
स्वयं ज्योतिरनाद्यन्तो निर्विकारः
परात् परः ।
निर्गुणः सच्चिदानन्दस्तदंशा
जीवसंज्ञकाः ॥ ८ ॥
अनाद्यविद्योपहिता यथाग्नौ
विस्फुलिङ्गकाः ।
शिव का स्वरूप-
हे देवि ! परब्रह्म स्वरूप शिव ही सत्य हैं । वह सर्वज्ञ,
सर्वकर्ता, सर्वेश और निर्मल एवं अद्वितीय है।
वह आदि अन्त से रहित स्वयं ज्योति हैं तथा निर्विकार, पर से
भी परे, निर्गुण और सच्चिदानन्द हैं । सभी जीव संज्ञा वाले
उन्हीं शिव के अंश हैं, जो अनादि अविद्या से उपहित (संयुक्त)
होकर उनसे उसी प्रकार भिन्न हुये हैं, जैसे कि अग्नि में से
चिनगारियाँ फूट कर अलग होती हैं ।। ७-९ ।।
गर्भाद्युपाधिसंभिन्नाः कर्मभिः करणादिभिः
॥ ९ ॥
सर्वदुःखप्रदैः
स्वीयपुण्यपापैर्नियन्त्रिताः ।
तत्तज्जातियुतं देहम् आयुर्भोगश्च
कर्मजम् ॥ १० ॥
प्रतिजन्म प्रपद्यन्ते मानुषा
मूढचेतसः ।
सूक्ष्मलिङ्गशरीरन्तदामोक्षादक्षयं
प्रिये ॥ ११ ॥
जीव की सामान्य अवस्थाएँ
- हे प्रिये ! वे सभी मूर्ख मनुष्य दुःखदायक अपने कर्मों से गर्भादि उपाधियों से
पृथक् होकर तथा अपने पुण्य एवं पापों से नियन्त्रित होकर कर्मवशात् प्रत्येक जन्म
में तत्तज्जन्मों में तत्तद्देह, आयु एवं भोग
प्राप्त करते रहते हैं । उनका लिङ्ग शरीर जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं करता तब तक
अक्षय बना रहता है ।
विमर्श
- हे प्रिये ! वे जीव गर्भ आदि विभिन्न उपाधियों और अनादि कर्मों आदि के कारण शिव
से पृथक् रहते हैं तथा अपने सुख एवं दुःखदायक पुण्य एवं पापों से नियन्त्रित रहते
हैं । अपने अपने कर्मानुसार प्राप्त अज्ञानी जीव उन उन जातियों से युक्त देह,
आयु और प्रारब्ध का जन्म जन्मान्तरों में भोग करते रहते हैं,
जिसका कोई अन्त नहीं है।। ९-११।।
थावराः क्रिमयश्चाब्जाः पक्षिणः
पशवो नराः ।
धार्मिकास्त्रिदशास्तद्वन्मोक्षिणश्च
यथाक्रमम् ॥ १२ ॥
चतुर्विधशरीराणि धृत्वा धृत्वा
सहस्रशः ।
सुकृतान्मानवो भूत्वा ज्ञानी
चेन्मोक्षमाप्नुयात् ॥ १३ ॥
चतुरशीतिलक्षेषु शरीरेषु शरीरिणाम्
।
न मानुष्यं विना यत्र तत्त्वज्ञानं
तु लभ्यते ॥ १४ ॥
जीव के चतुर्विध शरीर-स्थावर,
कृमि, जलचर, मत्स्यादि
पशु पक्षी, मनुष्य, धार्मिक (धर्मशील),
देवता ये क्रमानुसार मोक्ष के अधिकारी हैं । ये सहस्रों जन्म तक चार
प्रकार के शरीर बारम्बार धारण कर चौरासी लाख योनियों में भटकते रहते हैं । तदनन्तर
पुण्यवशात् मनुष्य होकर यदि ज्ञान प्राप्त हुआ तब मुक्ति को प्राप्त करता है।
क्योंकि चौरासी लाख शरीरधारियों में मनुष्य शरीर धारण किये बिना तत्वज्ञान नहीं
होता ।
विमर्श -
हे देवि ! ( १. उद्भिज अर्थात् पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले ) स्थावर जीव,
( २. स्वेदज अर्थात् पसीने से उत्पन्न होने वाले ) कृमी (कीट) जीव,
( ३. अण्डज अर्थात् अण्डों से उत्पन्न होने वाले ) जलचर एवं खेचर
(पक्षी) जीव एवं (४. जरायुज अर्थात् गर्भ से उत्पन्न होने वाले ) पशु, मनुष्यादि जीव—ये चार प्रकार के शरीरों में उक्त जीव
सहस्रों बार जन्म लेते हैं। उक्त प्रकार के चौरासी लाख योनियों में से सुकृत से
प्राप्त मनुष्य शरीर ही ऐसा श्रेष्ठ है जिसके द्वारा जीव को तत्त्व का ज्ञान होता है,
और तत्त्वज्ञान प्राप्त होने पर वह मोक्ष प्राप्त करता है क्योंकि
अन्य शरीरों में तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की क्षमता नहीं है ॥ १२-१४ ।।
अत्र जन्मसहस्रेषु सहस्त्रैरपि
पार्वति ।
कदाचिल्लभते जन्तुर्मानुष्यं
पुण्यसञ्चयात् ॥ १५ ॥
हे पार्वती ! सैकड़ों एवं हजारों
योनियों में अच्छे कर्मों के फलस्वरूप कभी वे मानव होकर जब ज्ञानी होते हैं,
तब मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।। १५ ।।
सोपानभूतं मोक्षस्य मानुष्यं
प्राप्य दुर्लभम् ।
यस्तारयति नात्मानं तस्मात्
पापतरोऽत्र कः ॥ १६ ॥
मोक्ष प्राप्ति के लिए सोपान
(सीढ़ी) के समान दुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त कर जो अपनी आत्मा को मुक्त नहीं
करता,
उससे बड़ा पापी कौन है ?
ततश्चाप्युत्तमं जन्म लब्ध्वा
चेन्द्रियसौष्ठवम् ।
न वेत्त्यात्महितं यस्तु स भवेत्
आत्मघातकः ॥ १७ ॥
उत्तम जन्म और सुन्दर इन्द्रियों को
पाकर भी जो अपने हित को नहीं समझता वह आत्महत्या करने वाला आत्मघाती है ॥ १७ ॥
विना देहेन कस्यापि पुरुषार्थो न
विद्यते ।
तस्माद्देहधनं प्राप्य पुण्यकर्माणि
साधयेत् ॥ १८ ॥
मनुष्य शरीर के बिना अन्य शरीरधारी
जीव (धर्म, अर्थ, काम
एवं मोक्ष) पुरुषार्थ नहीं कर सकता । अतः शरीर रूपी धन पाकर पुण्य कर्मों को करना
चाहिए ॥ १८ ॥
रक्षेत् सर्वात्मनात्मानम् आत्मा
सर्वस्य भाजनम् ।
रक्षणे यत्नमातिष्ठेत् यावत्तत्त्वं
न पश्यति ॥ १९ ॥
शरीर की रक्षा-
इस कारण सभी प्रकार से प्रयत्नों द्वारा मनुष्य को अपने आत्मा की रक्षा करनी चाहिए
। वस्तुतः आत्मा ही सभी वस्तुओं की प्राप्ति का साधन है । इसलिए मनुष्य को चाहिए
कि वह सभी प्रकार से तब तक अपने आत्मा की रक्षा करें,
जब तक तत्त्वज्ञान न हो जाय ।। १९ ।।
पुनर्ग्रामाः पुनः क्षेत्रं
पुनर्वित्तं पुनर्गृहम् ।
पुनः शुभाशुभं कर्म न शरीरं पुनः
पुनः ॥ २० ॥
ग्राम,
भूमि, धन और गृह तथा शुभ एवं अशुभ कर्म तो बार
बार प्राप्त किए जा सकते हैं किन्तु मनुष्य शरीर पुनः पुनः (बार बार) नहीं प्राप्त
होता है ॥ २० ॥
शरीररक्षणायासः क्रियते सर्वदा जनैः
।
नहीच्छन्ति तनुत्यागमपि
कुष्ठादिरोगतः ॥ २१ ॥
तद्गोपितं स्याद् यलेन धर्मो
ज्ञानार्थमेव च ।
ज्ञानञ्च ध्यानयोगार्थं सोऽचिरात्
परिमुच्यते ॥ २२ ॥
अतः मनुष्य को सदैव अपने शरीर की
(आधि व्याधि से ) रक्षा करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। कुष्ठ आदि रोगों से
ग्रस्त रोगी जन भी शरीर त्याग की इच्छा नहीं करते । जब तक शरीर है तब तक धर्म एवं ज्ञान
के लिए शरीर का गोपन (संरक्षण) करना चाहिए । ( सदाचारपूर्वक शरीर की रक्षा से किए
गए) धर्म से ज्ञान पैदा होता है, ज्ञान ध्यान
एवं योग के लिए होता है और उसी ज्ञान के कारण साधक शीघ्र ही मुक्त हो जाता है ।।
२१-२२ ॥
आत्मैव यदि नात्मानमहितेभ्यो
निवारयेत् ।
कोऽन्यो हितकरस्तस्मादात्मानं
तारयिष्यति ॥ २३ ॥
अहितकारी (सांसारिक तृष्णादि से)
यदि मनुष्य अपने से ही अपने को निकालने का साधन न खोजे तो उसके लिए अन्य हितकारी
जन कौन है जो भवसागर से उसे मुक्त कराएगा ।। २३ ।।
इहैव नरकव्याधेश्चिकित्सां न करोति
यः ।
गत्वा निरौषधं स्थानं व्याधिस्थः
किं करिष्यति ॥ २४ ॥
इस संसार में रहकर ही जो नरक रूपी
व्याधि से अपनी चिकित्सा नहीं करता है वह व्याधिग्रस्त मनुष्य बिना औषधि के फिर
अन्य स्थान को जाकर क्या करेगा ।। २४ ।
सुदीप्त भवने को वा कूपं खनति
दुर्मतिः ।
यावत्तिष्ठति देहोऽयं तावत्तत्त्वं
समभ्यसेत् ॥ २५ ॥
घर में आग लगने पर कौन बेवकूफ कुआँ
खोदता है । अतः जब तक इस शरीर में आत्मा है तब तक परम तत्त्व (पारमार्थिक सत्ता)
के ज्ञान के लिए अभ्यास करते रहना चाहिए ।। २५ ।।
व्याघ्रीवास्ते जरा चायुर्याति
भिन्नघटाम्बुवत् ।
निघ्नन्ति रिपुवद्रोगास्तस्माच्छ्रेयः
समाचरेत् ॥ २६ ॥
वृद्धावस्था बाघिन के समान (खा जाने
के लिए) सामने आकर खड़ी हो जाती है। फूटे हुए घड़े से पानी के रिसने के समान
धीरे-धीरे आयु क्षीण होती रहती है। शत्रु के समान व्याधि चोट पहुँचाती रहती है ।
इसलिए श्रेय का मार्ग अपनाना चाहिए ।। २६ ।।
यावन्नाश्रयते दुःखं यावन्नायान्ति
चापदः ।
यावन्नेन्द्रियवैकल्यं तावच्छ्रेय:
समाचरेत् ॥ २७ ॥
जब तक दुःख नहीं आते और जब तक
विपत्ति नहीं अथवा जब तक इन्द्रियाँ अपंग नहीं हो जातीं उसके पहले ही श्रेय का
कार्य करते रहना चाहिए ।। २७।।
कालो न ज्ञायते नानाकार्यैः संसारसम्भवैः
।
सुखदुःखरतो जन्तुर्न वेत्ति
हितमात्मनः ॥ २८ ॥
संसार के नाना प्रकार के कर्मों में
फँसे रहने के कारण काल के बीत जाने का ज्ञान ही नहीं रहता । सुख एवं दुःख में फँसा
हुआ जीव अपने हित को सोंच भी नहीं पाता ॥ २८ ॥
जडानार्त्तान्मृतानापद्गतान्
दृष्ट्वाऽतिदुःखितान् ।
लोको मोहसुरां पीत्वा न विभेति
कदाचन ॥ २९ ॥
अज्ञान रूपी मदिरा को पीने के कारण
जड़ बुद्धि एवं आर्त जन, क्षुधा तृष्णा से
व्याकुल, मरते हुए और अन्य आपत्ति में पड़े हुए अत्यन्त
दुःखी जीवों को देखकर भी कभी भय नहीं लगता है ।। २९ ।।
सम्पदः स्वप्नसङ्काशा यौवनं
कुसुमोपमम् ।
तडिच्चञ्चलमायुश्च कस्य स्याज्जगतो
धृतिः ॥ ३० ॥
सम्पत्ति स्वप्न के समान मिथ्या है,
यौवन फूल के समान मुरझा जाने वाला है । आयु बिजली के समान
क्षणभङ्गुर है फिर कौन शाश्वत है ॥३०॥
विमर्श
- शरीर की रक्षा का सदा प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि मनुष्य शरीर बार बार नहीं
मिलता । जब तक शरीर है, तब तक तत्त्व ज्ञान
प्राप्त करने का अभ्यास करे, क्योंकि शरीर की आयु व्यतीत
होती जाती है । अतः जब तक वृद्धावस्था, रोग, दुःख, आपत्ति आदि से बचा रहे, तब
तक अपने कल्याण के लिए प्रयत्न करे । सांसारिक कार्यों में समय बीतने का पता नहीं
चलता । सुख दुःख में डूबा हुआ जीव अपने हित को नहीं जान पाता । मोह में पड़कर उसे
भय नहीं रहता कि सम्पत्ति स्वप्न के समान मिथ्या है । यौवन फूल के समान मुरझा जाने
वाला है । आयु बिजली के समान चञ्चल है । १९-३० ॥
शतं जीवितमत्यल्पं निद्रा स्यादर्द्धहारिणी
।
बाल्यरोगजरादुःखैरर्द्धं तदपि
निष्फलम् ॥ ३१ ॥
मनुष्य का सौ वर्ष का जीवन बहुत कम
है क्योंकि आधा समय तो निद्रा में बीत जाता है । बचपन,
बुढ़ापा और रोगादि में शेष आधा समय बीतता है जो सर्वथा व्यर्थ है ॥
३१ ॥
प्रारब्धव्ये निरुद्योगो
जागर्त्तव्ये सुषुप्तकः ।
विश्वस्तव्यो भयस्थाने घातकैः किं न
हन्यते ॥ ३२ ॥
जो प्रारम्भ करने योग्य समय में
निष्क्रिय अथवा प्रारब्ध के बल पर निष्क्रिय रहता है,
जागने योग्य समय में सोने वाला और जो भय योग्य ( इस संसार) में
विश्वास (आश्वस्त) करता है वह घातकों के द्वारा क्यों नहीं मारा जायगा अर्थात्
असावधान व्यक्ति तो मारा ही जायगा ।। ३२ ।।
तोयफेनसमे देहे जीवे शकुनिवत्
स्थिते ।
अनित्येऽप्रियसंसारे कथं तिष्ठन्ति
निर्भयाः ॥ ३३ ॥
जल के फेन के समान क्षणभंगुर इस
शरीर में पक्षी के समान स्थित जीव इस नाशवान् अप्रिय संसार में किस प्रकार निर्भय
रह सकता है ? ॥ ३३॥
अहिते हितबुद्धिः स्यादध्रुवे
ध्रुवचिन्तकः ।
अनर्थं चार्थविज्ञानी स्वमृत्युं यो
न वेत्ति च ॥ ३४ ॥
जो ( विषय वासना) अहितकारी है,
उसमें जीव हित बुद्धि समझता है और जो (संसार) अनित्य है उसे वह
नित्य समझता है । जो व्यर्थ है उसे वह सार्थक समझता है अन्ततः अपनी (ध्रुव) मृत्यु
को नहीं देख पाता है ।। ३४ ।।
पश्यन्नपि न पश्येत् स शृण्वन्नपि न
बुध्यति ।
पठन्नपि न जानाति तव मायाविमोहितः ॥
३५ ॥
हे देवि ! आपकी माया से मोहित हुआ
जीव इन बातों को देखता हुआ भी नहीं देख पाता, सुनता
हुआ भी नहीं सुनता तथा पढ़ कर जानते हुए भी नहीं जानता ॥ ३५ ॥
सन्निमज्जज्जगदिदं गम्भीरे कालसागरे
।
मृत्युरोगजराग्राहे न किञ्चिदपि
बुध्यति ॥ ३६ ॥
इस मृत्यु,
जरा, रोग रूप ग्राहों से युक्त अगाध काल रूप
समुद्र में सारा जगत् डूब रहा है फिर भी जीव कुछ भी नहीं समझ पाता ।। ३६ ।।
प्रतिक्षणमयं कायो जीर्यमाणो न
लक्ष्यते ।
आमकुम्भ इवाम्भःस्थो विशीर्णो नैव
भाव्यते ॥ ३७ ॥
यह शरीर प्रतिक्षण जीर्ण होता जा
रहा है जो दिखाई नहीं पड़ता । जिस प्रकार पानी में पड़ा हुआ कच्चे मिट्टी का घड़ा
प्रति क्षण गलता जाता है ॥ ३७ ॥
युज्यते वेष्टनं वायोराकाशस्य च
खण्डनम् ।
प्रथनञ्च तरङ्गाणामास्था नायुषि
युज्यते ॥ ३८ ॥
वायु का रोकना सम्भव है । आकाश का
खण्ड खण्ड होना भी सम्भव है। तरङ्गों का परस्पर ग्रथन भी हो सकता है किन्तु किसी
भी प्रकार आयु के क्षय को नहीं रोका जा सकता ॥ ३८ ॥
विमर्श -
दीवार से वायु को रोका जा सकता है और आकाश को विखण्डित (छोटा) किया जा सकता है तथा
तरनों को भी बाँध द्वारा विच्छिन्न किया जा सकता है किन्तु किसी भी प्रकार आयु के
क्षय को नहीं रोका जा सकता ॥ ३८ ॥
पृथिवी दह्यते येन मेरुश्चापि
विशीर्यते ।
शुष्यते सागरजलं शरीरे देवि का कथा
॥ ३९ ॥
हे देवि ! प्रलय काल में पृथ्वी जल
जाती है और मेरु पर्वत भी टूट जाता है तथा समुद्र का जल भी जब सूख जाता है तो फिर
इस नश्वर शरीर की क्या औकात है ? ॥ ३९ ॥
अपत्यं मे कलत्रं मे धनं मे
बान्धवश्च मे ।
लपन्तमिति मत्त्र्त्यं हि हन्ति
कालवृको बलात् ॥ ४० ॥
वह यही रटता रहता है कि 'यह मेरा पुत्र है, यह मेरी पत्नी है, यह मेरा धन है, ये मेरे बन्धु हैं । इतने में ही काल
रूप भेड़िया आकर बलात् उसे मार डालता है ॥ ४० ॥
इदं कृतमिदं कार्यमिदमन्यत्
कृताकृतम् ।
एवमीहासमायुक्तं मृत्युरति जनं
प्रिये ॥ ४१ ॥
यह काम मैंने कर लिया,
वह काम करना है, यह कार्य अधूरा है इसी ऊहापोह
में रहते हुए, हे प्रिये ! मृत्यु उसे खा जाती है ॥ ४१ ॥
श्वः कार्यमद्य कर्त्तव्यं
पूर्वाहणे चापराहिनकम् ।
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतं
वाऽस्य न वा कृतम् ॥ ४२ ॥
जो कल करना है उसे आज ही करना चाहिए
और जो शाम को करना है उसे पूर्वाह्ण में ही कर लेना चाहिए क्योंकि मृत्यु किसी की
प्रतिक्षा नहीं करती कि इसने क्या किया है या क्या नहीं किया है ?
॥ ४२ ॥
जरादर्शितपन्थानं प्रचण्डव्याधिसैनिकम्
।
मृत्युशत्रुमभिज्ञोऽसि आयान्तं किं
न पश्यसि ॥ ४३ ॥
मृत्यु रूप शत्रु भयानक रोगों वाली
सेना को लिए हुए आ गया है । जिसका रास्ता बुढ़ापा दिखा रहा है । इसे जान कर भी आप
उसकी ओर क्यों नहीं देखते ॥ ४३ ॥
विमर्श
- बुद्धिमान् साधक प्रचण्ड रोग रूप सैनिकों से युक्त वार्द्धक्य रूप दर्शित मार्ग
वाले मृत्यु रूप शत्रु को आता हुआ जानते हुए भी नहीं देख पाता है ।
आशा सूचीविनिर्भिन्नं सिक्तं
विषयसर्पिषा ।
रागद्वेषानले पक्वं मृत्युरश्नाति
मानवम् ॥ ४४ ॥
आशा रूपी सूई से खण्ड खण्ड हुई,
विषय वासना रूप घृत से सिञ्चित तथा राग एवं द्वेष रूप अग्नि में पके
हुए मानव को मृत्यु खा रही है ।। ४४ ।
बालांश्च यौवनस्थांश्च वृद्धान्
गर्भगतानपि ।
सर्वांश्च हिंसते
मृत्युरेवम्भूतमिदं जगत् ॥ ४५ ॥
चाहे बालक हो या युवा,
वृद्ध हो या गर्भस्थ शिशु - सभी को वह खा जाती है । इस संसार का यही
नियम है ॥ ४५ ॥
ब्रह्माविष्णुमहेशादिदेवता भूतजातयः
।
नाशमेवानुधावन्ति तस्माच्छ्रेय:
समाचरेत् ॥ ४६ ॥
ब्रह्मा आदि स्वर्गस्थ देवों की भी
नश्वरता-ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता और समस्त भूतजात भी नाश की ओर भाग रहे हैं । अतः अपने
कल्याण के लिए साधक को प्रयत्नशील रहना चाहिए ॥ ४६ ॥
स्वस्ववर्णाश्रमाचारलङ्घनाद्
दुष्प्रतिग्रहात् ।
परस्त्रीधनलोभाच्च नृणामायुःक्षयो
भवेत् ॥ ४७ ॥
जीवन में आयु क्षय के कारण-अपने
वर्ण और आश्रम के आचारों का पालन न करने से, अनुचित
रूप से प्रतिग्रह (धन धान्यादि का ग्रहण करने) से और पर स्त्री एवं पराये धन की
लालसा करने से आयु का नाश होता है ॥४७॥
वेदशास्त्राद्यनभ्यासात्तथैव
गुर्वनर्चनात् ।
नृणामायुःक्षयो
भूयादिन्द्रियाणामनिग्रहात् ॥ ४८ ॥
वेदादि शास्त्रों का अभ्यास न करने
से,
गुरु जनों का पूजन सत्कार न करने से और इन्द्रियों का निग्रह न करने
से मनुष्यों की आयु का क्षय होता है ॥ ४८ ॥
व्याधिराधिर्विषं शस्त्रं ना सर्पः
पशवो मृगाः ।
मरणं येन निर्दिष्टं तेन गच्छन्ति
जन्तवः ॥ ४९ ॥
आधि (मानसिक चिन्ता,
calamity), व्याधि, विष, शस्त्र, सर्प, पशु आदि जिनके
द्वारा जिसकी मृत्यु होनी होती है उसी के द्वारा उस मनुष्य का जीवन समाप्त होता है
॥ ४९ ॥
जीवस्तृणजलौकेव देहाद्देहान्तरं
व्रजेत् ।
सम्प्राप्य परमंशेन देहं त्यजति
पूर्वजम् ॥ ५० ॥
बाल्ययौवनवृद्धत्वं यथा
देहान्तरादिकम् ।
तथा
देहान्तरप्राप्तिर्गृहाद्गृहमिवागतः ॥ ५१ ॥
जिस प्रकार जोंक अपना अगला पैर आगे
रख कर ही पश्चात् अपना दूसरा पैर आगे रखता है उसी प्रकार जीव आगे के शरीर में जाकर
पश्चात् अपना शरीर छोड़ता है । जिस प्रकार शरीर में बाल्य एवं युवावस्था तथा
वृद्धावस्था में परिवर्तन होता है अथवा कोई एक घर से दूसरे घर में जाता है उसी
प्रकार यह जीव एक देह से दूसरे देह को धारण करता है ।
विमर्श -
बचपन से युवावस्था में और युवावस्था से वृद्धावस्था में जैसे शरीर बदल जाता है,
वैसे ही अपने परम अंश (कारण शरीर) के साथ जीव अपने वर्तमान् शरीर को
छोड़ कर अगले शरीर को ग्रहण करता है । जैसे एक घर से दूसरे घर में जाया जाता है,
उसी प्रकार जन्मान्तर में शरीर का परिवर्तन होता है ।। ५०-५१ ॥
जनाः कृत्वेह कर्माणि सुखदुःखानि
भुञ्जते ।
परत्राज्ञानिनो देवि यान्त्यायान्ति
पुनः पुनः ॥ ५२ ॥
कृत कर्मों का फल अगले जन्म में-
हे देवि ! अज्ञानी जन कर्म करके इस लोक तथा परलोक में उसका फल भोगते हैं । इस
प्रकार एक योनि से दूसरे योनि में मरते जीते हुए संसार में पुनः पुनः आया जाया
करते हैं ॥५२॥
इह यत् क्रियते कर्म तत्
परत्रोपभुज्यते ।
सिक्तमूलस्य वृक्षस्य फलं शाखासु
दृश्यते ॥ ५३ ॥
इस संसार में जो कर्म किया जाता है,
उसका फल अगले जन्म में भोगने को मिलता है, जिस
प्रकार वृक्ष की जड़ को पानी से सींचने पर उसकी डालों में फल दिखाई देते हैं ॥ ५३
॥
दारिद्र्यदुःखरोगाश्च बन्धनव्यसनानि
च ।
आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि
देहिनाम् ॥ ५४ ॥
अपने अपराध से प्राप्त
दुःखादि-दरिद्रता, दुःख, रोग, बन्धन और व्यसन आदि अपने ही अपराध रूपी वृक्ष
के फल संसार में शरीरधारियों को मिलते हैं ।। ५४ ।।
निःसङ्ग एव मोक्षः स्याद्दोषाः
सर्वे च सङ्गजाः ।
तस्मात् सङ्गं परित्यज्य
तत्त्वनिष्ठः सुखी भवेत् ।
सङ्गाच्च चलते ज्ञानी चावश्यं
किमुताल्पवित् ॥ ५५ ॥
निःसङ्ग जीव को मुक्ति लाभ
- सङ्ग ( विषयों के प्रति आसक्ति ) से ही सभी दोष उत्पन्न होते हैं । अतः निःसङ्ग
( अनासक्ति ) द्वारा ही मोक्ष मिलता है । इसलिये सङ्ग को छोड़कर तत्त्वनिष्ठ बनकर
सुखी होना चाहिए । ज्ञानी व्यक्ति भी विषयों के प्रति आसक्त हो कर गिर जाते हैं
फिर सामान्य जन की तो बात ही क्या है ।। ५५ ।।
सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः स
चेत्त्यक्तुं न शक्यते ।
सद्भिः सह स कर्त्तव्यः सतां सङ्गो
हि भेषजम् ॥ ५६ ॥
सत्सङ्गश्च विवेकश्च निर्मलं
नयनद्वयम् ।
यस्य नास्ति नरः सोऽन्धः कथं न
स्यादमार्गगः ॥ ५७ ॥
इसलिए विषयासक्ति सर्वथा त्याज्य है
और विषयासक्ति को यदि सर्वथा न छोड़ सके, तो
सज्जनों का सङ्ग करे क्योंकि सज्जनों की संगति संसार रूप रोग की औषधि है । फिर
सत्सङ्ग और विवेक — ये दो पुण्य कार्य और अच्छे आँखों के
समान निर्मल हैं । जो मनुष्य इनसे रहित है, वह अन्धा ही है,
वह फिर क्यों मार्गभ्रष्ट नहीं हो जायगा ।। ५६-५७ ॥
यावतः कुरुते जन्तुः सम्बन्धान्मनसः
प्रियान् ।
तावन्तोऽस्य विशन्त्येते हृदये
शोकशङ्कवः ॥ ५८ ॥
स्वदेहमपि जीवोऽयं त्यक्त्वा याति
कुलेश्वरि ।
स्त्री मातृपितृपुत्रादिसम्बन्धः
केन हेतुना ॥ ५९ ॥
दुःखमूलो हि संसारः स यस्यास्ति स
दुःखितः ।
तस्य त्यागः कृतो येन स सुखी नापरः
प्रिये ॥ ६० ॥
प्रभवं सर्वदुःखानामाश्रयं
सकलापदाम् ।
आलयं सर्वपापानां संसारं वर्जयेत्
प्रिये ॥ ६१ ॥
संसार के दोष
–
इस जगत में मनुष्य अपने मन को प्रिय लगने वाले जितने सम्बन्धों को
स्थापित करता है उतने ही शोक के शंकु (कील) अपने हृदय में गाड़ता है । हे
कुलेश्वरि ! जब अपना शरीर भी छोड़ कर इस संसार से जाना है तब किस कारण स्त्री,
माता-पिता और पुत्र से सम्बन्ध स्थापित किया जाय । यह संसार दुःख का
मूल है। हे प्रिये ! जो संसार में लिप्त है, वही दुःखी है ।
जो उस संसार का त्याग करता है, वह सुखी होता है, अन्य नहीं । यह संसार ही सभी प्रकार के दुःखों का उत्पत्ति स्थान है और
समस्त प्रकार की आपत्तियों का आश्रय है । अतः हे प्रिये ! सब प्रकार के पापों से
पूर्ण इस संसार से दूर रहना चाहिए ।। ६१ ॥
अबन्धबन्धनं घोरं मिश्रीकृतमहाविषम्
।
अशस्त्रखण्डनं देवि
संसारासक्तचेतसाम् ॥ ६२ ॥
हे देवि ! जिसका मन संसार में आसक्त
है उसके लिए यह संसार बिना बन्धन के भी बन्धन है । घोर महाविषों से मिश्रित है तथा
विना शस्त्र के टुकड़े टुकड़े हो जाता है ॥ ६२ ॥
आदिमध्यावसानेषु सर्वं दुःखमिदं यतः
।
तस्मात् सन्त्यज्य संसारं
तत्त्वनिष्ठः सुखी भवेत् ॥ ६३ ॥
यह संसार जीवन के आदि,
मध्य और अन्त में दुःखदायक है । अतः संसार को छोड़कर तत्त्वनिष्ठ
होकर सुखी होना चाहिए ।। ६३ ।।
लौहदारुमयैः पाशैर्दृढबन्धोऽपि
मुच्यते ।
स्त्रीधनादिषु संसक्तो मुच्यते न
कदाचन ॥ ६४ ॥
लोहे एवं लकड़ी के बने हुए पाश
(बन्धन) से छुटकारा सम्भव है । किन्तु स्त्री धन आदि में लिप्त जीव का कभी भी
छूटना सम्भव नहीं है ॥६४॥
कुटुम्बचिन्तायुक्तस्य श्रुतशीलादयो
गुणाः ।
अपक्वकुम्भजलवत् नश्यन्त्यङ्गेन
केवलम् ॥ ६५ ॥
कुटुम्ब की चिन्ता जिसे है,
उसके ज्ञान, शील आदि गुण कच्चे घड़े में रख्खे
हुए जल के समान नष्ट हो जाते हैं ।। ६५ ॥
वञ्चिताशेषचित्तैस्तैर्नित्यं लोको
विनाशितः ।
हा हन्त
विषयाहारैर्देहस्थेन्द्रियतस्करैः ॥ ६६ ॥
ओह ! कितने खेद की बात है कि विषयों
का आहार करने वाले अपने शरीर में स्थित इन्द्रिय रूपी तस्करों से अपना सारा
चित्तरूपी धन चुरा लिये जाने के कारण यह सारा संसार विनष्ट हो रहा है ।
विमर्श
- ओह ! शरीर में रहते हुए ही इन्द्रिय रूप तस्करों के द्वारा विषय रूप आहार को खा
कर अतृप्त वासनाओं से छले जाकर नित्य ही शरीर का विनाश होता रहता है ॥ ६६ ॥
मांसलुब्धो यथा मत्स्यो लौहशंकुं न
पश्यति ।
सुखलुब्धस्तथा देही यमबाधां न
पश्यति ॥ ६७ ॥
जैसे मांस का लोभी मत्स्य लोहे के
बने शंकु (कील ) को नहीं देख पाता है वैसे ही सुख पाने के लोभ में पड़ा हुआ जीव
मृत्यु को नहीं देख पाता ।। ६७ ।
हिताहितं ना जानन्तो
नित्यमुन्मार्गगामिनः ।
कुक्षिपूरणनिष्ठा ये तेऽबुधा नारकाः
प्रिये ॥ ६८ ॥
हे प्रिये ! हित एवं अहित को न
जानकर पेट भरने में ही जो अज्ञानी लोग लगे रहते हैं वे नित्य ही उलटे मार्ग पर
जाने वाले नरक को नहीं जानते हैं ।
विमर्श
- अपना हिताहित न जानने वाले जो मूर्ख उदरपूर्त्यर्थ नित्य ही बुरे रास्ते का
अनुसरण करते हैं निश्चय ही वे नरकगामी हैं ।। ६८ ।
निद्रादिमैथुनाहाराः सर्वेषां
प्राणिनां समाः ।
ज्ञानवान् मानवः प्रोक्तो ज्ञानहीनः
पशुः प्रिये ॥ ६९ ॥
निद्रा,
मैथुन और भोजन सभी प्राणियों में समान रूप से होते हैं । किन्तु जो
ज्ञानी है, वही 'मानव' कहा जाता है। हे प्रिये ! ज्ञान से हीन मानव 'पशु'
है ॥ ६९ ॥
प्रभाते मलमूत्राभ्यां
क्षुत्तृड्भ्यां मध्यगे रवौ ।
रात्रौ मदननिद्राभ्यां बाध्यन्ते
मानवाः प्रिये ॥ ७० ॥
हे प्रिये ! प्रात:काल मल मूत्र से,
मध्याहन में भूख प्यास से और रात्रि में वासना एवं निद्रा से मनुष्य
पीड़ित रहते हैं ॥ ७० ॥
स्वदेहधर्मदारादिनिरताः सर्वजन्तवः
।
जायन्ते च प्रियन्ते च हा
हन्ताज्ञानमोहिताः ॥ ७१ ॥
हाय ! यह अत्यन्त खेद की बात है कि
अपने शरीर, धर्म और स्त्री आदि में आसक्त
रहने वाले सभी जीव अज्ञान से मोहित होकर जन्म लेते रहते हैं और मरते रहते हैं ॥ ७१
॥
स्वस्ववर्णाश्रमाचारनिरताः सर्वमानवाः
।
न जानन्ति परं तत्त्वं मूढा
नश्यन्ति पार्वति ॥ ७२ ॥
हे पार्वति ! अपने अपने वर्ण और
आश्रम के आचार में पड़े हुए सभी मूर्ख मानव परम तत्त्व को नहीं जानते अतः नष्ट हो
जाते हैं ॥ ७२ ॥
क्रियायासपराः केचित् क्रतुचर्यादि
संयुताः ।
अज्ञानसंयुतात्मानः सञ्चरन्ति
प्रतारकाः ॥ ७३ ॥
कुछ लोग कर्मनिष्ठ होते हैं,
तो कुछ यज्ञ-पूजादि करते हैं । इस प्रकार के अज्ञान में पड़े हुए
लोग दूसरों को धोखा देते रहते हैं ॥ ७३ ॥
नाममात्रेण सन्तुष्टाः कर्मकाण्डरता
नराः ।
मन्त्रोच्चारणहोमाद्यैर्भ्रामिताः
क्रतुविस्तरैः ॥ ७४ ॥
एकभक्तोपवासाद्यैर्नियमैः कायशोषणैः
।
मूढाः परोक्षमिच्छन्ति तव
मायाविमोहिताः ॥ ७५ ॥
कर्मकाण्ड में निरत विशाल यज्ञों
में मन्त्रोच्चारण द्वारा किये गये होम से नाम मात्र संतुष्ट,
एक बार भोजन अथवा उपवास आदि नियमों से शरीर को सुखाकर आपकी माया से
विमोहित हुए मूर्ख जन परोक्ष परब्रह्म को पाने की इच्छा करते हैं ।
विमर्श
- कर्मकाण्ड में लगे हुए मनुष्य नाम मात्र से सन्तुष्ट होकर मन्त्र जप,
होमादि विस्तृत यज्ञों में भ्रमित रहते हैं और एक समय भोजन एवं
उपवास आदि के नियमों से शरीर को सुखाकर मूर्ख लोग मायावश मोक्ष पाने की आशा करते
हैं ।। ७४-७५ ॥
देहदण्डनमात्रेण का
मुक्तिरविवेकिनाम् ।
वल्मीकताडनाद्देवि मृतः किन्नु
महोरगः ॥ ७६ ॥
विवेक ज्ञान के बिना शारीरिक कष्टादि
द्वारा मुक्ति नहीं- हे देवि ! जिस प्रकार वल्मीक
के ताडन मात्र से महान् सर्प नहीं मरता है? उसी
प्रकार शरीर को कष्ट देने मात्रसे अविवेकी (अज्ञानी) लोगों को मुक्ति नहीं प्राप्त
होती?
धनाहारार्जने युक्ता दाम्भिका
वेषधारिणः ।
भ्रमन्ति ज्ञानिवल्लोके भ्रामयन्ति
जनानपि ॥ ७७ ॥
दम्भ करने वाले लोग,
धन और भोजन कमाने के लिए अनेक प्रकार का वेश धारण कर अपने को ज्ञानी
मान कर संसार में घूमते रहते हैं तथा लोगों को भ्रम में डालते हैं ॥ ७७ ॥
सांसारिकसुखासक्तं
ब्रह्मज्ञोऽस्मीति वादिनम् ।
कर्मब्रह्मोभयभ्रष्टं तं
त्यजेदन्त्यजं यथा ॥ ७८ ॥
इस प्रकार संसार के सुख में आसक्त,
किन्तु 'मैं ब्रह्म हूँ' यह कहने वाले व्यक्ति कर्म और ब्रह्म दोनों से भ्रष्ट होते हैं । अतः
अन्त्यज के समान उनका सर्वथा त्याग करना चाहिए ।। ७८ ।
गृहारण्यसमा लोके गतव्रीडा दिगम्बराः
।
चरन्ति गर्दभाद्याश्च योगिनस्ते
भवन्ति किम् ॥ ७९ ॥
अकेले कर्मकाण्ड का दोष-जिनके
लिए घर एवं वन एक समान है ऐसे लज्जा शून्य नङ्गे होकर घूमने वाले गर्दभादि पशु
क्या योगी होते हैं ? अर्थात् निर्लज्ज
नङ्गे रह कर घूमने मात्र से कोई योगी नहीं होता ।। ७९ ।।
मृद्भस्मम्रक्षणाद् देवि मुक्ताः
स्युर्यदि मानवाः ।
मृद्भस्मवासिनो ग्राम्याः किं ते
मुक्ता भवन्ति हि ॥ ८० ॥
हे देवि ! मिट्टी और भस्म लगाने से
यदि मुक्ति मिलती है, तो क्या गाँव की
मिट्टी में तथा राख में रहने वाले ग्रामजन क्या मुक्त होते हैं ?
तृणपर्णोदकाहाराः सततं वनवासिनः ।
हिरणादिमृगा देवि योगिनस्ते भवन्ति
किम् ॥ ८१ ॥
हे प्रिये ! हरिण आदि पशु घास पत्ते
और जल का आहार करते हैं तथा सदैव वन में रहते हैं, तो क्या वे योगी हैं ? ॥ ८१ ॥
आजन्ममरणान्तञ्च गङ्गादितटिनीस्थिताः
।
मण्डूकमत्स्यप्रमुखा व्रतिनस्ते
भवन्ति किम् ॥ ८२ ॥
मेढ़क,
मछली आदि जन्म से मृत्यु तक गङ्गा आदि नदियों में रहते हैं, तो क्या वे व्रत करने वाले हैं ? ॥ ८२ ॥
वदन्ति हृदयानन्दं पठन्ति
शुकसारिकाः ।
जनानां पुरतो देवि विबुधाः किं
भवन्ति हि ॥ ८३ ॥
हे देवि ! तोते और मैना लोगों के
सामने आनन्दपूर्वक राम राम का पाठ करते हैं, तो
क्या वे इस शब्दोच्चारण मात्र से विद्वान् समझे जाते हैं ?
पारावताः शिलाहाराः परमेश्वरि
चातकाः ।
न पिबन्ति महीतोयं योगिनस्ते भवन्ति
किम् ॥ ८४ ॥
हे परमेश्वरि ! कबूतर कंकड़ों का
आहार करते हैं और चातक पक्षी पृथ्वी पर पड़ा हुआ जल नहीं पीते,
तो क्या वे योगी हो जाते हैं ? ॥ ८४ ॥
शीतवातातपसहा भक्ष्याभक्ष्यसमाः प्रिये
।
तिष्ठन्ति शूकराद्याश्च योगिनस्ते
भवन्ति किम् ॥ ८५ ॥
हे प्रिये ! सूअर आदि पशु जाड़े,
गर्मी, धूप को सहन करते हैं, भक्ष्य-अभक्ष्य जिनके लिए समान है, तो क्या वे योगी
बन जाते हैं ? ।। ८५ ।।
तस्मादित्यादिकं कर्म
लोकवश्ञ्चनकारकम् ।
मोक्षस्य कारणं
साक्षात्तत्त्वज्ञानं कुलेश्वरि ॥ ८६ ॥
तत्त्वज्ञान ही मोक्ष का कारण-
इस प्रकार उक्त कर्म लोगों को भ्रम में डालने वाले हैं। हे कुलेश्वरि ! मोक्ष का
कारण तो साक्षात् तत्त्वज्ञान है ॥८६॥
षड्दर्शनमहाकूपे पतिताः पशवः प्रिये
।
परमार्थं न जानन्ति
पशुपाशानियन्त्रिताः ॥ ८७ ॥
परमार्थ ज्ञान के विना शास्त्रादि
पाठ से मुक्ति नहीं - हे प्रिये ! षड्दर्शन रूपी
गहरे कुएँ में पड़े हुए लोग पशु । पशु-पाशों में बँधे हुये वे परमार्थ को नहीं
जानते ॥ ८७ ॥
वेदशास्त्रार्णवे घोरे ताड्यमाना इतस्ततः
।
कालोर्मिग्राहप्रस्ताश्च तिष्ठन्ति
हि कुतार्किकाः ॥ ८८ ॥
इस वेद शास्त्र रूपी घोर सागर में
इधर उधर टक्कर खाते हुए काल रूपी ग्राह से ग्रस्त कुतार्किक निवास करते हैं ।
डूबते उतराते हुये वे लोग कुतर्क रूपी भयंकर लहरों और मगर घड़ियालों के मध्य फँसे
रहते हैं ।। ८८॥
वेदागमपुराणज्ञः परमार्थं न वेत्ति
यः ।
विडम्बकस्य तस्यापि तत् सर्वं
काकभाषितम् ॥ ८९ ॥
वेद, आगम और पुराणों को जानने वाला जो व्यक्ति परमार्थ को नहीं जानता, उस दाम्भिक का सारा कथन कौए के काँव-काँव के समान निरर्थक होता है ॥ ८९ ॥
इदं ज्ञानमिदं ज्ञेयमिति
चिन्तासमाकुलाः ।
पठन्त्यहर्निशं देवि परतत्त्वपराङ्मुखः
॥ ९० ॥
हे देवि ! परतत्त्व से दूर रहकर लोग
रात-दिन 'यह ज्ञान है यह ज्ञेय है' यही पढ़ते हैं और इसी बात
के विचार में व्याकुल रहते हैं ॥ ९० ॥
वाक्यच्छन्दोनिबन्धेन काव्यालङ्कारशोभिना
।
चिन्तया दुःखिता मूढास्तिष्ठन्ति
व्याकुलेन्द्रियाः ॥ ९१ ॥
मूर्ख लोग वाक्य,
छन्द, निबन्ध, काव्य और
अलङ्कार में किस प्रकार शोभा हो इसी चिन्ता से दुःखी हो व्याकुल रहते हैं ॥ ९१ ॥
अन्यथा परमं तत्त्वं जनाः
क्लिश्यन्ति चान्यथा ।
अन्यथा शास्त्रसद्भावो व्याख्यां
कुर्वन्ति चान्यथा ॥ ९२ ॥
परम तत्त्व कुछ और है किन्तु लोग
व्यर्थ की बातों से क्लेश पाते हैं । शास्त्र का सद्भाव कुछ और है किन्तु लोग उसकी
भिन्न व्याख्या करते हैं ॥ ९२ ॥
कथयन्त्युन्मनीभावं स्वयं
नानुभवन्ति हि ।
अहङ्कारहता केचिदुपदेशविवर्जिताः ॥
९३ ॥
पठन्ति वेदशास्त्राणि विवदन्ति
परस्परम् ।
न जानन्ति परं तत्त्वं दर्वी पाकरसं
यथा ॥ ९४ ॥
उन्मनी भाव की चर्चा तो करते हैं
किन्तु स्वयं उस भाव को अनुभव नहीं करते । कुछ लोग अहङ्कार से मारे जाते हैं
किन्तु उपदेश सुनना नहीं चाहते। वेद शास्त्र अवश्य पढ़ते हैं किन्तु परस्पर विवाद
में फँस रहते हैं । परम तत्त्व को वे उसी प्रकार नहीं जानते जिस प्रकार कलछुल दाल
के स्वाद को नहीं जानती ॥ ९३-९४ ॥
शिरो वहति पुष्पाणि गन्धं जानाति
नासिका ।
पठन्ति वेदशास्त्राणि दुर्लभो
भाववेदकः ॥ ९५ ॥
आत्मस्थ तत्त्व
- जैसे शिर पुष्प का वहन तो करता है किन्तु गन्ध तो नासिका ही प्राप्त करती है,
वैसे ही वेद एवं शास्त्रों को लोग पढ़ते हैं किन्तु उनके भाव को
समझने वाले दुर्लभ हैं ।। ९५ ।।
तत्त्वमात्मस्थमज्ञात्त्वा मूढः
शास्त्रेषु मुह्यति ।
गोपः कक्षगतं छागं कूपे पश्यति
दुर्मतिः ॥ ९६ ॥
आत्मस्थ तत्त्व को न जानकर मूढ़ लोग
शास्त्रों में मोहित रहते हैं, जैसे ग्वाले
के बगल में ही छाग विद्यमान हैं किन्तु उसे वह मूर्ख कूएँ में ढूँढ़ता है ।। ९६ ।।
संसार मोहनाशाय शाब्दबोधो न हि
क्षमः
न निवर्त्तेत तिमिरं
कदाचिद्दीपवार्त्तया ॥ ९७ ॥
संसार का मोह शब्दज्ञान से वैसे ही
नष्ट नहीं होता है, जैसे दीपक की बात
करने मात्र से अँधेरा दूर नहीं होता ।। ९७ ।।
प्रज्ञाहीनस्य पठनम्
अन्धस्यादर्शदर्शनम् ।
देवि प्रज्ञावतः शास्त्रं
तत्त्वज्ञानस्य कारणम् ॥ ९८ ॥
प्रज्ञा से हीन व्यक्ति का पढ़ना
उसी प्रकार है, जैसे अन्धे को दर्पण में दिखाना
। हे देवि ! प्रज्ञावान् को ही शास्त्र से ज्ञान मिलता है ।। ९८ ॥
अग्रतः पृष्ठतः केचित् पार्श्वयोरपि
केचन ।
तत्त्वमीदृक् तादृगिति विवदन्ति
परस्परम् ।
सद्विद्यादानशूराद्यैर्गुणैर्विख्यातमानवाः॥
९९ ॥
प्रत्यक्षग्रहणं नास्ति वार्त्तया
ग्रहणं कुतः ।
एवं ये शास्त्रसम्मूढास्ते दूरस्था
न संशयः ॥ १०० ॥
विद्या,
दान, शूरता आदि गुणों से प्रसिद्ध लोग आगे
पीछे, अगल बगल यह विवाद करते रहते हैं कि 'कोई तत्त्व इस प्रकार का है, कोई उस प्रकार का है।'
इत्यादि विवाद करते हैं किन्तु प्रत्यक्ष को ग्रहण नहीं करते,
भला वार्ता करने से क्या प्राप्त होगा । इस प्रकार शास्त्र में जो
मोहित हैं, वे 'तत्त्व' से निःसन्देह बहुत दूर रहते हैं।।९९-१००॥
इदं ज्ञानमिदं ज्ञेयं सर्वतः
श्रोतुमिच्छति ।
देवि वर्षसहस्त्रायुः शास्त्रान्तं
नैव गच्छति ॥ १०१ ॥
'यह ज्ञान है, यह ज्ञेय है'- इस प्रकार सर्वत्र सुनना चाहते हैं ।
इस तरह हे देवि ! वे सहस्र वर्षों की आयु में भी शास्त्र का सार नहीं समझ पाते।
वेदाद्यनेकशास्त्राणि
स्वल्पायुर्विघ्नकोटयः ।
तस्मात् सारं विजानीयात् क्षीरं हंस
इवाम्भसः ॥ १०२ ॥
वेद आदि अनेक शास्त्र हैं और आयु
स्वल्प है और असंख्य विघ्न हैं । अतः सार तत्व को जानना चाहिए जैसे हंस पानी में
दूध को पहचान लेता है ॥ १०२ ॥
अभ्यस्य सर्वशास्त्राणि तत्त्वं
ज्ञात्वा हि बुद्धिमान् ।
पलालमिव धान्यार्थी सर्वशास्त्रं
परित्यजेत् ॥ १०३ ॥
सब शास्त्रों का अभ्यास कर तत्त्व
को जानकर बुद्धिमान् व्यक्ति को सभी शास्त्रों को छोड़ देना चाहिये,
जिस प्रकार चावल को चाहने वाला भूसी का त्याग कर देता है ॥ १०३ ॥
यथामृतेन तृप्तस्य नाहारेण
प्रयोजनम् ।
तत्त्वज्ञस्य तथा देवि न शास्त्रेण
प्रयोजनम् ॥ १०४॥
जो अमृत का पान कर तृप्त हो जाता है,
वह भोजन की चिन्ता नहीं करता । हे देवि ! इसी प्रकार तत्त्व का
ज्ञाता शास्त्रों से सम्बन्ध नहीं रखता ।
न वेदाध्ययनान्मुक्तिर्न
शास्त्रपठनादपि ।
ज्ञानादेव हि मुक्तिः स्यान्नान्यथा
वीरवन्दिते ॥ १०५ ॥
ज्ञान से ही मुक्ति न तो वेदों के
अध्ययन से मुक्ति मिलती हैं और न शास्त्रों के पढने से ही । ज्ञान ही से मुक्ति
मिलती है । हे वीरवन्दिते ! अन्य से नहीं ।। १०५ ॥
नाश्रमाः कारणं मुक्तेर्दर्शनानि न
कारणम् ।
तथैव सर्वशास्त्राणि ज्ञानमेव हि
कारणम् ॥ १०६ ॥
मुक्ति में न आश्रम ( चार आश्रम) ही
कारण हैं,
न दर्शनों के मनन से ही मुक्ति प्राप्त होती है । उसी प्रकार समस्त
शास्त्र भी मुक्ति में कारण नहीं केवल ज्ञान ही कारण है ॥ १०६ ॥
मुक्तिदा गुरुवागेका विद्याः सर्वा
विडम्बकाः ।
काष्ठभारश्रमादस्मादेकं सञ्जीवनं
परम् ॥ १०७ ॥
गुरुवाणी ही मुक्तिदायिनी
- मुक्तिदायिनी एकमात्र गुरुवाणी है, शेष
सभी विद्याएँ विडम्बनाभात्र हैं। काठ के भार से श्रम प्राप्त करने की अपेक्षा एक
संजीवन जड़ी का ढोना कहीं अच्छा है ।। १०७ ॥
अद्वैतन्तु शिवेनोक्तं
क्रियायासविवर्जितम् ।
गुरुवक्त्रेण लभ्येत
नान्यथागमकोटिभिः ॥ १०८ ॥
अद्वैतवाद शिव जी ने कहा है जिसमें
किसी प्रकार क कर्म का आयास नहीं है। वह गुरुमुख से ही प्राप्त होता है,
अन्य करोडों आगमों से नहीं प्राप्त होता ।। १०८ ।।
आगमोत्थं विवेकोत्थं द्विधा ज्ञानं
प्रचक्षते ।
ब्दब्रह्मागममयं परं ब्रह्म
विवेकजम् ॥ १०९ ॥
ज्ञान के दो प्रकार
- १. आगम,
२. विवेक-ज्ञान दो प्रकार का बताया गया हैं - एक तो आगम से प्राप्त
होता है और दूसरा विवेक से । आगम से प्राप्त ज्ञान शब्द ब्रह्मपरक होता है और
विवेक से प्राप्त ज्ञान परंब्रह्म का निदर्शक होता है ॥ १०९ ॥
अद्वैतं केचिदिच्छन्ति
द्वैतमिच्छन्ति चापरे ।
मम तत्त्वं च जानन्ति
द्वैताद्वैतविवर्जितम् ॥ ११० ॥
कुछ लोग द्वैत को चाहते हैं तो कुछ
अद्वैत को, किन्तु मेरे तत्त्व को वही
जानते हैं जो द्वैत-अद्वैत से परे हैं ॥११०॥
द्वे पदे बन्धमोक्षाय ममेति
निर्ममेति च ।
ममेति बाध्यते जन्तुर्न ममेति
विमुच्यते ॥ १११ ॥
यह मेरा है,
यह मेरा नहीं है यही दो पद क्रमशः बन्धन और मोक्ष के कारण है । मेरा
है—यही जीव को बांधता है । मेरा नहीं है—यह जीव को मुक्ति दिलाता है ॥ १११ ॥
तत् कर्म यन्न बन्धाय विद्या सा या
विमुक्तये ।
आयासायापरं कर्म विद्यान्या
शिल्पनैपुणम् ॥ ११२ ॥
कर्म वही है जो बन्धनकारक न हो और
वही विद्या है जो मुक्तिकारक हैं अर्थात् वही वास्तव में कर्म है,
जो बन्धनकारक न हो और वही विद्या है, जो
मुक्तिकारिणी हो । अन्य कर्म दुःख के कारण होते हैं और अन्य विद्याएँ मात्र शिल्प
नैपुण्य है ॥ ११२ ॥
यावत् कामादि दीप्येत यावत्
संसारवासना ।
यावदिन्द्रियचापल्यं तावत्तत्त्वकथा
कुतः ॥ ११३ ॥
यावत् प्रयत्नवेगोऽस्ति यावत्
सङ्कल्पकल्पना ।
यावन्न मनसः स्थैर्यं
तावत्तत्त्वकथा कुतः ॥ ११४ ॥
इन्द्रियनिग्रह और गुरुकृपा बिना
तत्त्वज्ञान के नहीं— जब तक कामना
उत्तेजित रहती है, जब तक सांसारिक इच्छाएँ बनी रहती हैं,
और जब तक इन्द्रियाँ चञ्चल हैं, तब तक तत्व की
बात कहाँ ? जब तक प्रयत्न का वेग है, जब
तक संकल्प की कल्पना बनी हुई है और जब तक मन में स्थिरता नहीं है, तब तक तत्व की बात कहाँ ? ॥। ११३-११४ ॥
यावद्देहाभिमानश्च ममता यावदस्ति हि
।
यावन्न गुरुकारुण्यं तावत्तत्त्वकथा
कुतः ॥ ११५ ॥
तावत्तपो व्रतं तीर्थ
जपहोमार्च्चनादिकम् ।
वेदशास्त्रागमकथा यावत्तत्त्वं न
विन्दते ॥ ११६ ॥
जब तक देहाभिमान है,
जब तक ममता बनी है और जब तक गुरु की दया प्राप्त नहीं है, तब तक तत्त्व की कथा कहाँ ? तप, व्रत, तीर्थ, जप, होम, अर्चन आदि तभी तक हैं और वेदशास्त्र आगम की
चर्चा भी तभी तक है, जब तक तत्त्व की प्राप्ति नहीं होती ?
॥ ११५-११६ ॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन सर्वावस्थासु
सर्वदा ।
तत्त्वनिष्ठो भवेद्देवि
यदीच्छेन्मोक्षमात्मनः ॥ ११७ ॥
अतएव, हे देवि ! यदि आत्ममुक्ति की इच्छा हो तो सभी प्रयत्नों से सभी अवस्थाओं
में सदैव तत्त्वनिष्ठ रहे ॥ ११७ ॥
धर्मज्ञानसुपुष्पस्य स्वर्गलोक
फलस्य च ।
तापत्रयार्त्तिसन्तप्तश्छायां
मोक्षतरोः श्रयेत् ॥ ११८ ॥
तापत्रय के कष्ट से पीड़ित व्यक्ति
स्वधर्मज्ञानरूपी पुष्प और स्वकुलोक्त (अर्थात् अपने कुल धर्म में जो बातें
प्रचलित हैं ऐसे) स्वर्ग के फल वाले मोक्षरूप कल्पवृक्ष की छाया का आश्रय ग्रहण
करे ।। ११८ ।।
बहुनान किंमुक्तेन रहस्यं शृणु
पार्वति ।
कुलधर्ममृते मुक्तर्नास्ति सत्यं न
संशयः ॥ ११९ ॥
हे पार्वति ! अधिक कहने से क्या लाभ?
रहस्य की बात सुनिए। कुलधर्म के सिवा मुक्ति नहीं है, यह सत्य है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ११९ ॥
तस्माद्वदामि तत्त्वन्ते विज्ञाय
श्रीगुरोर्मुखात् ।
सुखेन मुच्यते देवि
घोरसंसारबन्धनात् ॥ १२० ॥
अतएव मैं गुरुमुख से उस तत्त्व को
जानकर आपसे कहता हूँ, जिससे हे देवि ! इस
घोर संसार के बन्धन से जीव सहज ही मुक्त हो जाता है ।। १२० ।।
इति ते कथिता काचिज्जीवजातिस्थितिः
प्रिये ।
समासेन कुलेशानि किं भूयः
श्रोतुमिच्छसि ॥ १२१ ॥
हे प्रिये ! इस प्रकार मैंने आपसे
जीवों के जन्म और उनकी स्थिति के विषय में संक्षेप से कहा है । अब हे कुलेशानि! आप
और क्या सुनना चाहती हैं ।। १२१ ॥
॥ इति श्रीकुलार्णवे
निर्वाणमोक्षद्वारे महारहस्ये सर्वागमोत्तमोत्तमे सपादलक्षग्रन्थे पञ्चमखण्डे
ऊर्ध्वाम्नायतन्त्रे जीव-स्थितिकथनं नाम
प्रथमोल्लासः ॥ १ ॥
॥ इस प्रकार श्रीकुलार्णवतन्त्र के
ऊर्ध्वाम्नायतन्त्र में जीवस्थिति कथन नामक प्रथम उल्लास की पं० चित्तरञ्जन मालवीय
कृत हिन्दी पूर्ण हुई ॥ १ ॥
आगे जारी...........कुलार्णवतन्त्र उल्लास 2

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