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गणेश स्तोत्र

गणेश स्तोत्र

इस श्रीगणेश स्तवराज स्तोत्र का विधि-पूर्वक नित्य पाठ करने से सभी प्रकार की सुख- सम्पत्तियों की प्राप्ति होती हैं ।

श्रीगणेश स्तोत्र

श्रीगणेश स्तोत्रम्

Shri Ganesh Stotra

श्रीगणेश स्तोत्रं

श्रीगणेशस्तोत्र

श्रीगणेश स्तोत्र हिन्दी अर्थ सहित  

॥ श्री गणेश स्तोत्र ॥

॥ ॐ गण गणपतये नमः ॥

ॐ कारमाद्यं प्रवदन्ति सन्तो वाचः श्रुतिनामपि ये गृणन्ति ।

गजाननं देवगणानतांघ्रिं भजेऽहमर्द्धेन्दुकृतावतंसम् ॥ १॥

सभी श्रुति-वाक्य और सिद्ध-वचन जिन्हें 'आद्य ॐकार' कहते हैं, देव-गण जिनके चरणों पर झुके रहते हैं, जिनके मस्तक पर अर्द्ध-चन्द्र आभूषण के समान शोभायमान है, उन गजानन की मैं वन्दना करता हूँ ।

पादारविन्दार्चनतत्पराणां संसारदावानलभङ्गदक्षम् ।

निरन्तरं निर्गतदानतोयैस्तं नौमि विघ्नेश्वरमम्बुजाभम् ॥ २॥

निरन्तर प्रवाहित होनेवाले मद-जल द्वारा जो अपने चरण-कमलों की पूजा करनेवाले भक्तों की संसार रूपी दावाग्नि को नष्ट करने में निपुण हैं, उन रक्त-कमल के समान आभावाले विघ्नेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ ।

कृताङ्गरागं नवकुंकुमेन, मत्तालिमालां मदपङ्कलग्नाम् ।

निवारयन्तं निजकर्णतालैः, को विस्मरेत् पुत्रमनङ्गशत्रोः ॥ ३॥

जो नवीन कुंकुम से शरीर को लिप्त करते हैं और जो मद के पङ्क में फँसे मतवाले भौरों को अपने कानों के थपेड़ों द्वारा हटाते रहते हैं, उन कामदेव-शत्रु अर्थात् भगवान् शङ्कर के पुत्र अर्थात् श्रीगणेश जी को कौन भूल सकता है?  

शम्भोर्जटाजूटनिवासिगङ्गाजलं समानीय कराम्बुजेन ।

लीलाभिराराच्छिवमर्चयन्तं, गजाननं भक्तियुता भजन्ति ॥ ४॥

जो अपने कर-कमलों द्वारा महेश्वर के जटाजूट से गङ्गा-जल को लेकर उसके द्वारा क्रीड़ा करने के बहाने से वहीं विराजमान शङ्कर की पूजा करते हैं, उन गजानन की वन्दना सभी भक्ति-पूर्वक करते हैं।

कुमारभुक्तौ पुनरात्महेतोः, पयोधरौ पर्वतराजपुत्र्याः ।

प्रक्षालयन्तं करशीकरेण, मौग्ध्येन तं नागमुखं भजामि ॥ ५॥

जो कार्तिकेय द्वारा पिए गए माता पार्वती के दोनों स्तनों को अपने पान के लिए अपनी सुन्दर सूँड़ के जल-विन्दुओं द्वारा प्रक्षालित करते हैं, उन गजानन को मैं प्रणाम करता हूँ ।

त्वया समुद्धृत्य गजास्यहस्तं, शीकराः पुष्कररन्ध्रमुक्ताः ।

व्योमाङ्गने ते विचरन्ति ताराः, कालात्मना मौक्तिकतुल्यभासः ॥ ६॥

हे गजानन ! आप सूँड़ उठाकर उसके छिद्र द्वारा ऊपर की ओर जो स्वच्छ जल-विन्दु फेंकते हैं, वे ही काल-क्रम से मोतियों के समान प्रकाशमान होकर गगनाङ्गन में तारों के रूप में घूमते हैं ।

क्रीडारते वारिनिधौ गजास्ये, वेलामतिक्रामति वारिपूरे ।

कल्पावसानं परिचिन्त्य देवाः, कैलासनाथं श्रुतिभिः स्तुवन्ति ॥ ७॥

समुद्र में गजानन के जल-क्रीड़ा करने से सागर की जल-राशि उछल कर तटों का उल्लङ्घन करने लगती है, जिससे देव-गण महा-प्रलय की चिन्ता में पड़कर कैलाश-पति भगवान् शङ्कर की स्तुति करने लगते हैं ।

नागानने नागकृतोत्तरीये, क्रीडारते देवकुमारसङ्घैः ।

त्वयि क्षणं कालगतिं विहाय, तौ प्रापतुः कन्दुकतामिनेन्दु ॥ ८॥

हे गजानन ! आप नागोत्तरीय धारण कर देव-कुमारों के साथ जब क्रीड़ा करते हैं, तब सूर्य और चन्द्र क्षण भर के लिए अपनी काल-गति को छोड़कर आपके लिए क्रीड़ा-कन्दुक बन जाते हैं ।

मदोल्लसत्पञ्चमुखैरजस्रमध्यापयन्तं सकलागमार्थान् ।

देवान् ऋषीन् भक्तजनैकमित्रं, हेरम्बमर्कारुणमाश्रयामि ॥ ९॥

जो अपने मद-मत्त पाँच मुखों द्वारा देवों और ऋषियों को निरन्तर सभी आगम-शास्त्रों का अर्थ बताते रहते हैं, भक्तों के जो एक-मात्र मित्र हैं, उन सूर्य-जैसे रक्त-वर्ण हेरम्ब श्रीगणेश जी की मैं शरण लेता हूँ ।

पादाम्बुजाभ्यामतिकोमलाभ्यां, कृतार्थयन्तं कृपया धरित्रीम् ।

अकारणं कारणमाप्तवाचां, तन्नागवक्त्रं न जहाति चेतः ॥ १०॥

जो अपने अत्यन्त कोमल चरण-कमलों के स्पर्श द्वारा दया-पूर्वक पृथ्वी को धन्य करते हैं, जो बिना कारण के ही अपनी सिद्ध वाणी द्वारा सभी कार्यों के कारण हैं, उन गजानन को चेतना कभी नहीं छोड़ती ।

येनार्पितं सत्यवतीसुताय, पुराणमालिख्य विषाणकोट्या ।

तं चन्द्रमौलेस्तनयं तपोभिराराध्यमानन्दघनं भजामि ॥ ११॥

जिन्होंने अपने विशाल दाँतों के अग्रभाग से पुराण लिखकर सत्यवती-पुत्र वेद व्यास को दिए, बहु-तपस्या से जिनकी उपासना की जाती है, उन आनन्द-मय चन्द्रमौलि अर्थात् भगवान् शङ्कर के पुत्र गजानन की मैं वन्दना करता हूँ ।

पदं श्रुतीनामपदं स्तुतीनां, लीलावतारं परमात्ममूर्तेः ।

नागात्मको वा पुरुषात्मको वेत्यभेद्यमाद्यं भज विघ्नराजम् ॥ १२॥

जो श्रुति के पद होते हुए भी स्तुति के पद नहीं हैं अर्थात् जो वेद-प्रतिपाद्य नहीं हैं अथवा जिनका स्तवन पूर्ण रूप में नहीं किया जा सकता, जो परमात्मा - मूर्ति के लीलावतार हैं, जो गज-मूर्ति हैं या पुरुष - मूर्ति - यह समझ में नहीं आता, उन आदि विघ्न-राज गजानन की मैं वन्दना करता हूँ ।

पाशांकुशौ भग्नरदं त्वभीष्टं, करैर्दधानं कररन्ध्रमुक्तैः ।

मुक्ताफलाभैः पृथुशीकरौघैः, सिञ्चन्तमङ्गं शिवयोर्भजामि ॥ १३॥

जो अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, भग्न दाँत और वर- मुद्रा धारण किए हैं और सूँड़ के छिद्र से निकलते हुए मोतियों जैसे स्थूल जल-कणों द्वारा जो शिव और भवानी के शरीर का अभिषेक कर रहे हैं, उन गजानन की मैं वन्दना करता हूँ ।

अनेकमेकं गजमेकदन्तं, चैतन्यरूपं जगदादिबीजम् ।

ब्रह्मेति यं ब्रह्मविदो वदन्ति, तं शम्भुसूनुं सततं भजामि ॥ १४॥

जो एक होकर भी अनेक रूपों में शोभा पाते हैं, जो एक-दन्त गज हैं, जो चैतन्य-रूप हैं, जो जगत् के आदि-बीज हैं, ब्रह्म-ज्ञानी जिन्हें ब्रह्म कहते हैं, उन्हीं शम्भु पुत्र श्रीगणेश जी की मैं वन्दना करता हूँ ।

अङ्के स्थिताया निजवल्लभाया, मुखाम्बुजालोकनलोलनेत्रम् ।

स्मेराननाब्जं मदवैभवेन, रुद्धं भजे विश्वविमोहनं तम् ॥ १५॥

जिनके दोनों नेत्र गोद में बैठी हुई अपनी प्रियतमा के मुख-कमल का दर्शन करने में मग्न हैं, जिनके मुख-कमल पर सदा कोमल मुस्कान रहती है, मद-भार से जो सदा विह्वल रहते हैं, उन संसार- मोहक गणपति की मैं वन्दना करता हूँ ।

ये पूर्वमाराध्य गजानन! त्वां, सर्वाणि शास्त्राणि पठन्ति तेषाम् ।

त्वत्तो न चान्यत् प्रतिपाद्यमस्ति, तदस्ति चेत् सत्यमसत्यकल्पम् ॥ १६॥

हे गजानन ! जो पहले आपकी पूजा कर समस्त शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, उन्हें आपके अतिरिक्त अन्य कोई प्रतिपाद्य पदार्थ नहीं मिलता। अन्य कोई द्रव्य सत्य प्रतीयमान होने पर भी असत्य ही सिद्ध होता है ।

हिरण्यवर्णं जगदीशितारं, कविं पुराणं रविमण्डलस्थम् ।

गजाननं यं प्रवदन्ति सन्तस्तत् कालयोगैस्तमहं प्रपद्ये ॥ १७॥

स्वर्ण के समान जिनके शरीर की शोभा है, जो जगदीश्वर और पुरातन कवि हैं, आदित्य - मण्डल में जो विराजमान हैं, जिन्हे साधु-गण 'गजानन' कहते हैं, उन भगवान् श्रीगणेश को समयानुसार मैं प्राप्त करूँ ।

वेदान्त गीतं पुरुषं भजेऽहमात्मानमानन्दघनं हृदिस्थम् ।

गजाननं यन्महसा जनानां, विघ्नान्धकारो विलयं प्रयाति ॥ १८॥

जिनके तेज से विघ्न रूपी अन्धकार का नाश हो जाता है, वेदान्त-शास्त्र में जिन्हें आनन्द- घन परमात्मा के नाम से गाया है, उन्हीं हृदय में विराजमान गजानन की मैं वन्दना करता हूँ ।

शम्भोः समालोक्य जटाकलापे, शशाङ्कखण्डं निजपुष्करेण ।

स्वभग्नदन्तं प्रविचिन्त्य मौग्ध्यादाकर्ष्टुकामः श्रियमातनोतु ॥ १९॥

जो बाल-सुलभ अज्ञता से भगवान् शङ्कर के जटाजूट में स्थित चन्द्र- खण्ड को, अपना टूटा हुआ दाँत समझकर, अपनी सूँड़ द्वारा खींचने की इच्छा करते हैं, वे भगवान् श्रीगणेश मेरे ऐश्वर्य की वृद्धि करें ।

विघ्नार्गलानां विनिपातनार्थं, यं नारिकेलैः कदलीफलाद्यैः ।

प्रभावयन्तो मदवारणास्यं, प्रभुं सदाऽभीष्टमहं भजे तम् ॥ २०॥

विघ्न रूपी अर्गला को हटाने के लिए जिन मत्त गजानन का ध्यान करते हुए नारियल और केला आदि फलों से सभी लोग पूजन-अर्चन करते हैं, उन्हीं अभीष्ट फल-दाता भगवान् श्रीगणेश की मैं वन्दना करता हूँ ।

श्रीगणेश स्तोत्रं फलश्रुति

यज्ञैरनेकैर्बहुभिस्तपोभिराराध्यमाद्यं गजराजवक्त्रम् ।

स्तुत्याऽनया ये विधिना स्तुवन्ति, ते सर्वलक्ष्मीनिधयो भवन्ति ॥ १॥

अनेक प्रकार के यज्ञों और बहुत से तप के द्वारा जिनकी उपासना की जाती है, उन्हीं आद्य गजराज-मुख भगवान् श्रीगणेश की स्तुति जो इस स्तवराज के द्वारा विधि-पूर्वक करते हैं, वे भगवती लक्ष्मी की सभी प्रकार की सम्पत्तियों को प्राप्त करते हैं ।

॥ इति श्री गणेश स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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