पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

शारदातिलक पटल ८

शारदातिलक पटल ८      

शारदातिलक पटल ८ महालक्ष्मी प्रकरण है। इसमें महालक्ष्मी से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के मन्त्रों का उद्धार करते हुए अन्त में लक्ष्मी यन्त्र का विधान किया गया है ।

शारदातिलक पटल ८

शारदातिलक पटल ८      

Sharada tilak patal 8

शारदातिलकम् अष्टमः पटल:

शारदातिलकतन्त्रम् (प्रथमो भागः )

शारदा तिलक तन्त्र आठवाँ पटल

शारदातिलकम्

अष्टम पटल

अथाष्टमः पटल:

अथ महालक्ष्मीप्रकरणम्

अथ वक्ष्ये श्रियो मन्त्रान् श्रीसौभाग्यफलप्रदान् ।

यस्याः कटाक्षमात्रेण त्रैलोक्यमभिवर्द्धते ॥ १ ॥

अब इसके बाद श्री एवं सौभाग्य रूप फल प्रदान करने वाले श्री के मन्त्रों को कहता हूँ । जिनके एक मात्र चितवन से त्रैलोक्यवासी समस्त जन समृद्ध हो जाते हैं ॥ १ ॥

वान्तं वहिनसमारूढं वामेनेत्रेन्दुसंयुतम् ।

बीजमेतच्छ्रियः प्रोक्तं चिन्तामणिरिवापरः ॥ २ ॥

इस महालक्ष्मी महामन्त्र का उद्धार कहते हैं-वान्त (श) वहिन (र) वामनेत्र (ईकार) इन्दु (अनुस्वार) इस प्रकार 'श्री' यह महालक्ष्मी का बीज निष्पन्न हुआ । यह चिन्तामणि के समान चिन्तित मनोरथ को प्रदान करता है ।।२ ।

लक्ष्मीमन्त्रः । ऋष्यादिकथनम्

ऋषिर्भृगुर्निवृच्छन्दो देवता श्रीः समीरिता ।

षदीर्घयुक्तबीजेन कुर्यादङ्गानि षट् क्रमात् ॥ ३ ॥

इस महालक्ष्मी बीजमन्त्र के भृगु ऋषि हैं, श्री देवता हैं । साधक छः दीर्घ वाले वर्णों से युक्त इस श्री बीज से षडङ्गन्यास करे। यथा-ॐ आं श्रीं हृदयाय नमः' इत्यादि ॥ ३ ॥

महालक्ष्मीध्यानम् । पुरश्चरणादिकथनम्

कान्त्या काञ्चनसन्निभां हिमगिरिप्रख्यैश्चतुर्भिर्गजै-

र्हस्तोत्क्षिप्तहिरण्मयामृतघटैरासिच्यमानां श्रियम् ।

बिभ्राणां वरमब्जयुग्ममभयं हस्तैः किरीटोज्ज्वलां

क्षौमाबद्धनितम्बबिम्बलसितां वन्देऽरविन्दस्थिताम् ॥ ४ ॥

अब महालक्ष्मी का ध्यान कहते हैं-जिनकी कान्ति सुवर्ण के समान हैं, जो हिमालय जैसे ऊँचे ऊँचे दिग्गजों द्वारा शुण्ड में स्थित हिरण्यमय अमृत पूर्ण घड़ों से सिच्यमान हैं। जिनके हाथों में वर मुद्रा, दो कमल तथा अभय शोभित हो रहा है और मस्तक पर दिव्य मुकुट विराजमान है। जिनके नितम्ब प्रदेश पर रेशमी वस्त्र शोभित हो रहा है। कमलासन पर बैठी हुई ऐसी महालक्ष्मी की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ४ ॥

भानुलक्षं जपेन्मन्त्रं दीक्षितो विजितेन्द्रियः ।

श्रियमप्यर्चयेन्नित्यं सुगन्धिकुसुमादिभिः ॥ ५ ॥

पुरश्चरण- साधक दीक्षा लेकर इन्द्रियों को अपने वश में कर बारह लाख इस बीज मन्त्र का जप करे। प्रतिदिन कुसुमादि से महाश्री का पूजन करे ।। ५ ।।

तत्सहस्त्रं प्रजुहुयात् कमलैर्मधुरोक्षितैः ।

जपान्ते जुहुयान्मन्त्री तिलैर्वा मधुराप्लुतैः ॥ ६ ॥

बिल्वैः फलैर्वा जुहुयात् त्रिभिर्वा साधकोत्तमः ।

अत्र सम्यग् यजेत् पीठं नवशक्तिसमन्वितम् ॥ ७ ॥

जप समाप्त कर लेने पर मन्त्रवेत्ता तत्क्षण ( व्यवधान रहित) कलश त्रिमधु से पूर्ण कर उससे अथवा त्रिमधु (को दूध, घी, मधु से) मिश्रित तिलों द्वारा होम करे । अथवा विल्व के फल से होम करे। अथवा इन तीनों द्रव्यों से पृथक् पृथक् चार चार सहस्र होम करे। तदनन्तर भलीभाँति नव शक्तियों से युक्त महापीठ का पूजन करे।।६-७।।

विभूतिरुन्नतिः कान्तिः सृष्टिः कीर्त्तिश्च सन्नतिः ।

पुष्टिरुत्कृष्टिर्ऋद्धिश्च संप्रोक्ता नव शक्तयः ॥ ८ ॥

विभूति, उन्नति, कान्ति, सृष्टि, कीर्ति, सन्नति, पुष्टि, उत्कृष्टि और ऋद्धि-ये नव महाश्री की शक्तियाँ कही गई हैं ॥ ८ ॥

पीठमन्त्रः

अत्रावाह्य यजेद्देवीं परिवारैः समन्विताम् ।

बीजाद्यमासनं दत्त्वा मूर्त्तिं मूलेन कल्पयेत् ॥ ९ ॥

श्री बीज की कर्णिका में आसन की पूजा कर तदनन्तर परिवार समन्वित महाश्री का पूजन करे । श्रीबीज से संयुक्त सर्वशक्ति के कमलासन की इस प्रकार पूजा करे यथा 'श्रीं सर्वशक्तिकमलासनाय नमः' । इस प्रकार पूजित पीठ पर मूल मन्त्र से श्री की मूर्ति का आवाहन कर पूजा करे ।। ९ ।।

यजेत् पूर्ववदङ्गानि दिग्दलेष्वर्चयेत्ततः ।

वासुदेवं सङ्कर्षणं प्रद्युम्नमनिरुद्धकम् ॥ १० ॥

तदनन्तर अङ्गों की पूजा करे । पुनः कर्णिका के चारों ओर के पत्र पर वासुदेव संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध की पूजा करे ।। १० ।

वासुदेवादिध्यानम्

हिमपीततमालेन्द्रनीलाभान् पीतवाससः ।

शङ्खचक्रगदापद्मधारिणस्तान् चतुर्भुजान् ॥ ११ ॥

ये ऊपर कहे गये चारों देवता क्रमशः स्वच्छ पीताम्बर, तमाल सदृश काला, इन्द्रनील सदृश कर्बुर एवं पीताम्बर धारण किये हुये हैं एवं सभी अपने हाथों में शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुये हैं। ये सभी देवता चतुर्भुज स्वरूप हैं ।। ११ ।।

विदिग्गतेषु पत्रेषु दमकादीन् यजेद् गजान् ।

दमकं सलिलञ्चैव गुग्गुलुञ्च कुरुण्टकम् ॥ १२ ॥

आग्नेयादि कोण में स्थित कमल पत्र पर दमक आदि गजराजों की पूजा करे। उन चारों के नाम इस प्रकार हैं-दमक, सलिल, गुग्गुलु, कुरण्टक ॥१२॥

यजेच्छङ्खनिधिं देव्या दक्षिणे दयितान्विताम् ।

मुक्तामाणिक्यसङ्काशौ किञ्चित्स्मितमुखाम्बुजौ ॥ १३ ॥

देवी के दक्षिण भाग में भार्यासहित शङ्ख निधि की पूजा करे । ये दोनों दम्पती मुक्ता माणिक्य के समान लावण्य युक्त और स्वच्छ हैं और मुख कमल से मन्द मन्द मुस्कुरा रहे हैं ।। १३ ।।

अन्योन्यालिङ्गनपरौ शङ्खपङ्कजधारिणौ ।

विगलद्रत्नवर्षाभ्यां शङ्खाभ्यां मूर्ध्नि लाञ्छितौ ॥ १४ ॥

दोनों ही एक दूसरे को आलिङ्गन किये हुये हैं, शङ्ख तथा कमल धारण किये हुये हैं । दोनों ही अपने करकमलों में सुशोभित शङ्खों के द्वारा रत्न की वर्षा करते हुये दिखाई पड़ रहे हैं ।। १४ ।।

तुन्दिलं कम्बुकनिधिं वसुधारां घनस्तनीम् ।

वामतः पङ्कजनिधिं प्रियया सहितं यजेत् ॥ १५ ॥

शङ्खनिधि तुन्दिल (तोंद) हैं, उनकी भार्या वसुधारा के स्तनद्वय अत्यन्त कर्कश हैं । इसके बाद उसी कर्णिका में महालक्ष्मी के बाई ओर प्रिया सहित पद्मनिधि की पूजा करे ।। १५ ।।

सिन्दूराभौ भुजाश्लिष्टौ रक्तपद्मोत्पलान्वितौ ।

निःसरद्रत्नधाराभ्यां पद्माभ्यां मूर्द्धिनलाञ्छितौ ॥ १६ ॥

दोनों के शरीर का वर्ण सिन्दूर के सदृश है, दोनों ही परस्पर भुजाओं से आश्लिष्ट हैं। दोनों के हाथों में रक्त वर्ण का कमल शोभित हो रहा है। और दोनों ही रत्न धारा की वर्षा करते हुये दो कमलों को अपने शिर पर धारण किये हुये हैं ।। १६ ।।

तुन्दिलं पङ्कजनिधिं तन्वीं वसुमतीमपि ।

दलाग्रेषु यजेदेता बलाक्याद्याः समन्ततः ॥ १७ ॥

पद्मनिधि शरीर से तुन्दिल हैं, वसुमती तन्वी होते हुये भी कर्कश स्तन वाली है। तदनन्तर पत्र के अग्रभाग में चारों ओर बलाका आदि (८ शक्तियों) की पूजा करे। अब बलाकादिकों के नाम कहते हैं-

बलाकी विमला चैव कमला वनमालिका ।

विभीषिका मालिका च शाङ्करी वसुमालिका ॥ १८ ॥

बलाकी, विमला, कमला, नवमालिका, विभीषिका, मालिका, शांकरी, वसुमालिका ये बलाकादि शक्तियों के नाम हैं ।। १७-१८ ।।

पङ्कजद्वयधारिण्यो मुक्ताहार समप्रभाः ।

लोकेशानर्चयेदन्ते वज्राद्यस्त्राणि तद्बहिः ॥ १९ ॥

ये सभी दो दो कमल अपने हाथों में धारण की हैं और सभी मुक्ता के हार के समान कान्तिमती हैं। तदनन्तर लोकेश्वरों की उसके बाद अस्त्रादिकों का पूजन करे ।। १९ ।।

इत्थं यो भजते देवीं विधिना साधकोत्तमः ।

धनधान्यसमृद्धिः स्याच्छ्रियमाप्नोत्यनिन्दिताम् ॥ २० ॥

जो उत्तम साधक इस प्रकार देवी का पूजन करता है वह धन धान्य से समृद्ध हो जाता है और विशुद्ध लक्ष्मी से युक्त हो जाता है ।। २० ।।

वक्षः प्रमाणे सलिले स्थित्वा मन्त्रमिमं जपेत् ।

त्रिलक्षं संयतो मन्त्री देवीं ध्यात्वाऽर्कमण्डले ॥ २१ ॥

वक्षस्थल प्रमाण वाले जल में स्थित हो इस मन्त्र का जप करे और सूर्यमण्डल में देवी का ध्यान करे । इन्द्रियों को संयम में रखते हुये तीन लाख जप करे ।। २१ ।।

स भवेदल्पकालेन रमाया वसतिः स्थिरा ।

विष्णुगेहस्थ बिल्वस्य मूलमास्थाय मन्त्रवित् ॥ २२ ॥

त्रिलक्षं प्रजपेन्मन्त्रं वाञ्छितं लभते धनम् ।

वह महालक्ष्मी का स्थिर निवास स्थान बन जाता है यदि विष्णु मन्दिर में रहने वाले विल्ववृक्ष के नीचे इस मन्त्र का तीन लाख जप करे तो वह अभिलाषित धन प्राप्त करता है ।। २२-२३ ।।

अशोकवहनौ जुहुयात्तण्डुलैराज्यलोडितैः ॥ २३ ॥

वशयत्यचिरादेव त्रैलोक्यमपि मन्त्रवित् ।

जुहुयात्तण्डुलैः शुद्धैरर्काग्नौ नियुतं वशौ ॥ २४ ॥

राज्यश्रियमवाप्नोति राजपुत्रो महीयसीम् ।

जुहुयात् खादिरे वहनौ तण्डुलैर्मधुरोक्षितैः ॥ २५ ॥

यदि अशोक काष्ठ से जलती हुई अग्नि में घृत संपृक्त चावल से इस मन्त्र से होम करे तो वह स्वल्प काल में त्रिलोकी को भी वश में करने में समर्थ हो जाता है । यदि अपने इन्द्रियों को वश में कर मदार की लकड़ी से समृद्ध अग्नि में शुद्ध तण्डुल द्वारा दस हजार होम करे तो वह राजपुत्र विपुल राज्यलक्ष्मी प्राप्त करता है ।। २३-२५ ।।

राजा वश्यो भवेच्छीघ्रं महालक्ष्मीश्च वर्द्धते ।

बिल्वच्छायामधिवसन् बिल्वमिश्रहविष्यभुक् ॥ २६ ॥

संवत्सरद्वयं हुत्वा तत्फलैरथवाऽम्बुजैः ।

साधकेन्द्रो महालक्ष्मीं चक्षुषा पश्यति ध्रुवम् ॥ २७ ॥

त्रिमधुर मिश्रित चावल से खैर की लकड़ी में होम करे तो राजा वश्य हो जाता है और महालक्ष्मी की अभिवृद्धि होती हैं। बिल्व की छाया में रहकर बिल्वमिश्रित हविष्य का भोजन करे और विल्व फल एवं कमल से होम करे तो दो संवत्सर में साधकेन्द्र को निश्चय ही महालक्ष्मी प्राप्त होती हैं ।। २६-२७ ।।

हविषा घृतसिक्तेन पायसेन ससर्पिषा ।

हुत्वा श्रियमवाप्नोति नियुतं मन्त्रवित्तमः ॥ २८ ॥

घृत मिश्रित हविष्य से अथवा घृतमिश्रित पायस (खीर) द्वारा दस हजार होम करने से मन्त्रवेत्ता लक्ष्मी प्राप्त करता है ।। २८ ।।

मधुराक्तारुणाम्भोजैर्जुहुयाल्लक्षमादरात् ।

न मुञ्चति रमा तस्य वंशमाभूतसंप्लवम् ॥ २९ ॥

त्रिमधुर मिश्रित लाल कमल से श्रद्धापूर्वक एक लाख होम करने से लक्ष्मी साधक के वंश को तब तक नहीं छोड़ती जब तक महाप्रलय नहीं होता ।। २९ ।।

चतुर्बीजात्मकमन्त्रः

वाग्भवं वनिता विष्णोर्माया मकरकेतनः ।

चतुर्बीजात्मको मन्त्रश्चतुर्वर्गफलप्रदः ।

अङ्गानि कुर्याद् दीर्घायरमाबीजेन मन्त्रवित् ॥ ३० ॥

अब महालक्ष्मी के अन्य मन्त्र के उद्धार की विधि कहते हैं- वाग्भव (ऐं) विष्णोर्वनिता (श्रीँ) माया (ह्रीँ) मकरकेतन ( काम बीज क्ली) इस प्रकार ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं" ये चार बीजाक्षर धर्म, अर्थ, काम, तथा मोक्ष रूप चार पदार्थों को देने वाले हैं। मन्त्रवेत्ता आं ईं ॐ ऐं औं अः इन दीर्घवर्णों को क्रमशः 'श्री' इस लक्ष्मी मन्त्र से युक्त कर षडङ्गादिन्यास करे ।। ३० ।।

चतुर्बीजाक्षरध्यानम् । पुरश्चरणादिकथनम्

माणिक्यप्रतिमप्रभां हिमनिभैस्तुङ्गैश्चतुर्भिर्गजै-

हस्ताग्राहितरत्नकुम्भसलिलैरासिच्यमानां सदा ।

हस्ताब्जैर्वरदानमम्बुजयुगाभीतीर्दधानां हरे:

कान्तां काङ्क्षितपारिजातलतिकां वन्दे सरोजासनाम् ॥ ३१ ॥

अब इस चतुरक्षर बीज मन्त्र का ध्यान कहते हैंजिनके शरीर की कान्ति माणिक्य के समान देदीप्यमान है हिमालय के समान ऊँचे ऊँचे चार महादिग्गज जिन्हें अपने हाथों में ग्रहण किये गये कुम्भों से आनन्दपूर्वक स्नान करा रहे हैं। जिन्होंने अपने कमल सदृश हाथों में वरदान दो कमल तथा अभय मुद्रा धारण किए हुए हैं ऐसी विष्णुकान्ता महालक्ष्मी, जो मनोरथ पूर्ण करने के लिये साक्षात् कल्पलता के समान है और कमलासन पर विराजमान है, उनकी मैं वन्दना करता हूँ ।। ३१ ।

ऋष्यादिकथनम्

भानुलक्षं हविष्याशी जपेदन्ते सरोरुहैः ।

जुहुयादरुणैः फुल्लैस्तत्सहस्त्रं जितेन्द्रियः ॥ ३२ ॥

रमायाः कल्पिते पीठे तद्विधानेन पूजयेत् ।

कुर्यात् प्रयोगांस्तत्रस्थान् मनुना तेन साधकः ॥ ३३ ॥

निधिभिः सेव्यते नित्यं मूर्त्तिमद्भिरुपस्थितैः ।

हविष्य का भोजन करते हुये ब्रह्मचर्यादि नियमों का पालन करते हुये जो साधकेन्द्र उपर्युक्त घृतमिश्रित लाल कमल के पुष्पों से बारह हजार हवन करता है महालक्ष्मी के पीठ पर विधानपूर्वक पूजा एवं उसी कही गई विधि से समस्त प्रयोगों को करता है तो समस्त नवनिधियाँ शरीर धारण कर उसकी साक्षात् सेवा करती हैं।।३२-३४॥

दशाक्षरमन्त्रः

दीर्घा यादिर्विसर्गान्तो ब्रह्मा भानुर्वसुन्धरा ॥ ३४ ॥

वान्ते सिन्यै प्रिया वहनेर्मनुः प्रोक्तो दशाक्षरः ।

ऋषिर्दक्षो विराट् छन्दो देवता श्रीः समीरिता ॥ ३५ ॥

अब महालक्ष्मी का अन्य मन्त्र कहते हैं- दीर्घा (न) सविसर्गान्त यादि (म), ब्रह्मा (क) भानु (म) वसुन्धरा (ल) फिर 'वा' उसके बाद सिन्यै शब्द, तदनन्तर वह्निप्रिया (स्वाहा ) । इस प्रकार यह दशाक्षर महामन्त्र उद्धृत हुआ। इसका स्वरूप नमः कमलवासिन्यै स्वाहा' (१०) हुआ। इस मन्त्र के ऋषि 'दक्ष' हैं 'विराट' छन्द है तथा 'श्री' देवता कही गई हैं ।। ३५ ।।

पञ्चाङ्गमन्त्रः

देव्यै हृदयमाख्यातं पद्मिन्यै शिर ईरितम् ।

विष्णुपल्यै शिखा प्रोक्ता वरदायै तनुच्छदम् ॥ ३६ ॥

अस्त्रं कमलरूपायै नमोऽन्ताः प्रणवादिकाः ।

अङ्गमन्त्राः समुद्दिष्टा ध्यायेदेवीमनन्यधीः ॥ ३७ ॥

अब इस मन्त्र के पञ्चाङ्ग न्यास का प्रकार कहते हैं— 'देव्यै नमः हृदये' इससे हृदय का, 'पद्मिन्यै नमः शिरसे स्वाहा' से शिर का, विष्णुपत्न्यै नमः शिखायै वषट्' से शिखा का, 'वरदायै नमः कवचाय हुँ' से दोनों भुजाओं का, 'कमलरूपायै नमः अस्त्राय फट्' से चारों ओर इस प्रकार पञ्चाङ्गन्यास करे । यतः यह न्यास पञ्चाङ्ग है, अतः नेत्रद्वयाय वौषट्' के लिये न्यास नहीं कहा गया। यहाँ तक हमने पञ्चाङ्गन्यास कहा अब अनन्यबुद्धि से जिस प्रकार ध्यान करना चाहिए उस विधि को कहता हूँ ।। ३६-३७ ।।

महालक्ष्मीध्यानम् । पुरश्चरणादिकथनम्

आसीना सरसीरुहे स्मितमुखी हस्ताम्बुजैर्बिभ्रती

दानं पद्मयुगाभये च वपुषा सौदामिनीसन्निभा ।

मुक्तादामविराजमानपृथुलोत्तुङ्गस्तनोद्भासिनी

पायाद्वः कमला कटाक्षविभवैरानन्दयन्ती हरिम् ॥ ३८ ॥

जो कमलासन पर विराजमान हो ईषद्धास्य से युक्त हैं, जिनके हाथों में वरदान, दो कमल, तथा अभयमुद्रा शोभित हो रही है जिनका शरीर का वर्ण बिजली के जैसा देदीप्यमान है, जिनके उत्तुंगस्तनों पर विराजमान मोतियों की लड़ी उद्भासित हो रही है, एवं जो अपने नेत्र के कटाक्षों द्वारा श्री विष्णु के हृदय में आनन्द उत्पन्न कर रही हैं, ऐसी महालक्ष्मी आप की रक्षा करें ॥ ३८ ॥

दशलक्षं जपेन्मन्त्रं मन्त्रविद्विजितेन्द्रियः ।

दशांशं जुहुयान्मन्त्री मधुराक्तैः सरोरुहैः ॥ ३९॥

पुरश्चरण- ब्रह्मचर्य एवं समस्त इन्द्रियों को वश में रखते हुये साधक उपर्युक्त मन्त्र का दश लाख जप करे एवं त्रिमधुर (घी, दुग्ध, मधु) मिश्रित कमलों द्वारा दशांश होम करे ।। ३९ ।।

श्रीपीठे पूजयेदेवीमङ्गानि प्रथमं यजेत् ।

बलाकाद्यास्ततः पूज्या लोकेशास्त्रावृती अपि ॥ ४० ॥

श्री पीठ पर देवी की पूजा कर सर्वप्रथम अङ्गावरण की पूजा करे तदनन्तर 'बलाकादि' शक्तियों की पूजा करे। पुनः लोकपालों की, तदनन्तर उनके अस्त्रों की भी पूजा करे ।। ४० ।।

इति सम्पूजयेद्देवीं सम्पदामालयो भवेत् ।

समुद्रगायां सरिति कण्ठमात्रजले स्थितः ॥ ४१ ॥

त्रिलक्षं प्रजपेन्मन्त्री साक्षाद् वैश्रवणो भवेत् ।

इस प्रकार से जो साधक देवी का पूजन करता है उसका घर सम्पत्तियों से परिपूर्ण हो जाता है । यदि साधक समुद्रगामिनी किसी नदी में कण्ठ मात्र जल में स्थित होकर मात्र तीन लाख जप करे तो वह साक्षात् कुबेर जैसा धनाढ्य हो जाता है ।। ४१-४२ ॥

आराध्योत्तरनक्षत्रे देवीं स्रक्चन्दनादिभिः ॥ ४२ ॥

नन्द्यावर्त्तभवैः पुष्पैः सहस्रं जुहुयात्ततः ।

पौर्णमास्यां फलैर्बिल्वैर्जुहुयान्मधुराप्लुतैः ॥ ४३ ॥

पञ्चम्यां विशदाम्भोजैः शुक्रवारे सुगन्धिभिः ।

अन्यैर्वा विशदैः पुष्यैः प्रतिमासं विशालधीः ।

स भवेदब्दमात्रेण सर्वदा सम्पदां निधिः ॥ ४४ ॥

तीनों उत्तरानक्षत्र में माल्य चन्दनादि उपचारों से देवी का पूजन करे और यदि साधक नन्द्यावर्त्त के पुष्पों से एक सहस्र होम करे तो संपत्तिशाली हो जाता है । त्रिमधुर मिश्रित बिल्वफल से पूर्णमासी के दिन होम करे तो वह संपत्तिशाली हो जाता है । पञ्चमी तिथि को जब शुक्रवार का दिन हो तो सुगन्धित कमल युक्त पुष्पों से एक हजार आहुति देने पर संमृद्धिशाली हो जाता है अथवा बुद्धिमान् साधक अन्य विशद पुष्पों से प्रतिमास पञ्चमी युक्त शुक्रवार को होम करे तो वह एक वर्ष में सारे संपत्तियों का निधान हो जाता है ।। ४२-४४ ।।

द्वादशाक्षर श्रीमन्त्रः । ऋष्यादिकथनम्

वाग्भवं शम्भुवनिता रमा मकरकेतनः ।

तार्त्तीयञ्च जगत् पाश्र्व वहिनबीजसमुज्ज्वलः ॥ ४५ ॥

अर्धीशाढ्यो भृगुस्त्यै हन्मन्त्रोऽयं द्वादशाक्षरः ।

महालक्ष्म्याः समुद्दिष्टस्ताराद्यः सर्वसिद्धिदः ॥ ४६ ॥

अब अन्य प्रकार के श्री मन्त्र का उद्धार कहते हैं-वाग्भवं (ऐं) शम्भु- वनिता (ह्रीँ) रमा (श्रीँ) मकरकेतनः क्लीं, तार्तीय (ह्सौः), फिर 'जगत्' पद, वहिनबीज रेफ उससे युक्त पार्श्व (प) अर्धीश (ऊकार) उससे युक्त सकार वर्ण (सू), तदनन्तर 'त्यै' पुनः 'हृद्' नमः वर्ण, पुनः मन्त्र के आदि में तार (ॐ) इस प्रकार प्रणव सहित १३ अक्षरों का यह मन्त्र उद्धृत हुआ (प्रणव को छोड़ देने पर १२ अक्षर होता है)।

प्रयोग स्वरूप - ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं ह्सौः जगत्प्रसूत्यै नमः' । इस प्रकार यह महालक्ष्मी का मन्त्र कहा गया। इसके अनुष्ठान से सभी कार्यों की सिद्धि होती है ।। ४५-४६ ।।

ऋषिर्ब्रह्मा समुद्दिष्टश्छन्दो गायत्रमीरितम् ।

देवता जगतामादिर्महालक्ष्मीः समीरिता ॥ ४७ ॥

इस मन्त्र के ऋषि ब्रह्मा, गायत्री छन्द तथा जगत् की आदि कारणभूता महालक्ष्मी देवता कही गई हैं ।। ४७ ।।

हस्तौ संशोध्य मन्त्रेण तारादिहृदयान्तिकम् ।

बीजानां पञ्चकं न्यस्येदङ्गुलीषु यथाक्रमम् ॥ ४८ ॥

मन्त्रशेषं न्यसेन्मन्त्री तलयोरुभयोरपि ।

मूर्द्धादि चरणं यावन्मन्त्रेण व्यापकं न्यसेत् ॥ ४९ ॥

प्रणव से लेकर नमः पर्यन्त इस मन्त्र को पढ़कर दोनों हाथों में व्यापक न्यास करे। पुनः पाँच बीज मन्त्रों से (ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं हसौः) से अङ्गुष्ठादि पाँचों अगुलियों में बारी बारी से एक एक बीजाक्षर द्वारा न्यास करे, तदनन्तर शेष मन्त्रं 'जगत्प्रसूत्यै नम:' इस मन्त्र से दोनों हाथ के तलवों में न्यास करे । इसी प्रकार ५ बीजाक्षरों से हृदयादिन्यास कर संपूर्ण मन्त्र से मूर्धा से लेकर पैर के तलवे पर्यन्त व्यापक न्यास करे ।। ४८-४९ ।।

मूर्द्धास्यवक्षोगुह्याङ्घ्रौ पञ्च बीजानि विन्यसेत् ।

शेषान् न्यसेत् सप्त वर्णान् हृदये सप्तधातुषु ॥ ५० ॥

तदनन्तर शिर से लेकर वक्षःस्थल, गुह्य एवं दोनों चरणों में पाँच बीजाक्षरों से न्यास करे। शेष सात वर्णों से सात धातुओं में हृदयस्थान पर न्यास करे ।। ५० ।।

अङ्गानि पञ्चभिर्बीजैरस्त्रं शिष्टाक्षरैर्भवेत् ।

ज्ञानैश्वर्यादिभिर्युक्तैश्चतुर्थ्यन्तैः सजातिभिः ॥ ५१ ॥

बीजाक्षरों को क्रमशः उच्चारण कर उसके आगे ज्ञानेश्वर्यादि वर्णों में चतुर्थी "विभक्ति लगावे, तदनन्तर क्रमशः हृदयादि स्थानों में अङ्गन्यास करे ।

विमर्श - इसका प्रयोग इस प्रकार जानना चाहिए- 'ॐ ऐं ज्ञानाय नमः हृदये, ॐ ह्रीं ऐश्वर्याय नमः शिरसि इत्यादि ।। ५१ ।।

ज्ञानमैश्वर्यशक्ती च बलवीर्ये सतेजसी ।

ज्ञानैश्वर्यादयः प्रोक्ताः षट् क्रमादङ्गदेवताः ॥ ५२ ॥

अब पूर्वोक्त ज्ञानादि का नाम संकथन करते हैं ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति बल वीर्य और तेज-ये ६ इस मन्त्र के अङ्ग देवता कहे जाते हैं ।। ५२ ।।

महालक्ष्मीध्यानम्

एवं न्यस्तशरीरोऽसौ स्मरेदुद्यानमुत्तमम् ।

चम्पकाशोकपुन्नागपाटलैरुपशोभितम् ॥ ५३ ॥

साधक इस प्रकार अङ्गों का न्यास कर भगवती महाश्री के उद्यान का स्मरण करे । जो उद्यान चम्पक, अशोक, पुन्नाग एवं पाटल (गुलाब) से शोभित है ।।५३।।

लवङ्गमाधवीबिल्वदेवदारुनमेरुभिः ।

मन्दारपारिजाताद्यैः कल्पवृक्षैः सुपुष्पितैः ॥ ५४ ॥

चन्दनैः कर्णिकारैश्च मातुलिङ्गैश्च वञ्जुलैः ।

दाडिमीलकुचाङ्कोलैः पूगैः कुरवकैरपि ॥ ५५ ॥

कदलीकुन्दमन्दारनारिकेलैरलङ्कृतम् ।

अन्यैः सुगन्धिपुष्पाढ्यैर्वृक्षसङ्घैश्च मण्डितम् ॥ ५६ ॥

मालतीमल्लिकाजाती केतकीशतपत्रकैः ।

पारन्तीतुलसीनन्द्यावर्तैदमनकैरपि ॥ ५७ ॥

सर्वर्तुकुसुमोपेतैर्नमद्भिरुपशोभितम् ।

मन्दमारुतसम्भिन्नकुसुमामोदिदिङ्मुखम् ॥ ५८ ॥

तस्य मध्ये सदोत्फुल्लैः कुमुदोत्पलपङ्कजैः ।

सौगन्धिकैश्च कहलारैर्नवैः कुवलयैरपि ॥ ५९ ॥

हंससारसकारण्ड भ्रमरैश्चक्रनामभिः ।

अन्यैः कलकलारावैर्विहगैरुपशोभिते ॥ ६० ॥

जिसमें सुपुष्पित लवंग, मालती, विल्व, देवदारु, नमेरु ( रुद्राक्ष ) मन्दार, पारिजात एवं कल्पवृक्ष हैं। चन्दन, कर्णिका (करवीर) मातुलिङ्ग (बीजपूर) वज्जुल (वेंत) दाडिम (अनार) लकुच, अङ्कोल, पूग एवं कुरवक वृक्ष, कदली कुन्द मन्दार, नारिकेल एवं अन्यान्य सुगन्धित वृक्षों से जो शोभित हो रहा है। मालती, मल्लिका, जाती, केतकी, शतपत्रक, पारन्ती, तुलसी, नन्द्यावर्त्त एवं दमनक, इसी प्रकार सभी ऋतुओं के फूल एवं फल से झुके हुये वृक्षों से जो शोभित हो रहा है इस प्रकार के उद्यान का स्मरण करे। वायु के झकोरों से जिसमें फूले हुये वृक्षों के समुदाय, दिशाओं में अपनी सुगन्धि विकीर्ण कर रहे हैं। इस प्रकार के उस उद्यान के मध्य में एक महान् सर है जो सदैव पुष्पित कुमुद, उत्पल, पंकज, सौगन्धिक, कहलार एवं नवीन कुवलयों से परिपूर्ण हैं। जो हंस, सारस, कारण्ड, भ्रमर, चक्रवाक एवं अन्य प्रकार के कलरव करने वाले मनोहर पक्षियों से सुशोभित है ।। ५४-६० ।।

महासरसि तन्मध्ये पुलिनेऽतिमनोहरे ।

परितः पारिजाताढ्यं मण्डपं मणिकुट्टिमम् ॥ ६१ ॥

इस प्रकार के अत्यन्त मनोहर उस तालाब के मध्य पुलिन में मण्डप का ध्यान करे, जिसके चारों ओर पारिजात के वृक्ष लगे हुये हैं एवं जिस मण्डप की भूमि मणियों से निर्मित है ॥ ६१ ॥

उद्यदादित्यसकाशं भास्वरं शशिशीतलम् ।

चतुर्द्वारसमायुक्तं हेमप्राकारशोभितम् ॥ ६२ ॥

जो मण्डप उदीयमान सूर्य के समान भासित हो रहा है और चन्द्रमा के समान शीतल है, जिसमें चार दरवाजे लगे हुये हैं एवं जिसके चारों ओर सुवर्ण का प्राकार (चहारदीवारी) बना हुआ है ।। ६२ ।

रत्नोपक्लृप्तिसंशोभिकपाटाष्टकसंयुतम् ।

नवरत्नसमाक्लृप्ततुङ्गगोपुरतोरणम् ॥ ६३ ॥

हेमदण्डसमालम्बिध्वजावलिपरिष्कृतम् ।

नवरत्नसमाबद्धस्तम्भराजिविराजितम् ॥ ६४ ॥

सहस्रदीपसंयुक्तदीपदण्डविराजितम् ।

तप्तहाटकसंक्लृप्तवातायनमनोहरम् ॥ ६५ ॥

नानावर्णांशुकोबद्धसुवर्णशतकोटिभिः ।

किङ्किणीमालिकायुक्तपताकाभिरलङ्कृतम् ॥ ६६ ॥

जिस मण्डप की रचना नवरत्नों से हुई है, जिसमें आठ किवाड़ लगे हुये हैं तथा जिसका गोपुर (मुख्यद्वार) अत्यन्त ऊँचा है, जो तोरणों से अलंकृत है । जिस गोपुर के ऊपर सोने के दण्डों में लटकते हुये महान् ध्वजों का समूह शोभा पा रहा है, इस प्रकार के उस मण्डप के खम्भों में नवरत्न जड़े गये हैं । जो तपाये गये संशुद्ध सुवर्णमय वातायनों से शोभित हो रहा है और जिसमें सहस्रों जलने वाले दीपों के दण्ड विराज रहे हैं। सुवर्ण की बनी हुई सैकड़ों क्षुद्रघण्टिका की मालाओं से अलंकृत तथा नाना वर्ण के वस्त्रों से रचित पताकायें जिस मण्डप में फहरा रही हैं ।। ६३-६६ ।।

जातरूपमयैरत्नविचित्रैरतिविस्तृतैः ।

माणिक्यवज्रवैदूर्यस्वर्णमालावलीयुतैः ॥ ६७ ॥

अन्तरान्तरसम्बद्धरत्नैर्दृष्टिमनोहरैः ।

विचित्रैश्चित्रवर्णैश्च वितानैरुपशोभितम् ॥ ६८ ॥

सुवर्ण एवं रत्नों के कारीगरी से युक्त, अत्यन्त विशाल माणिक्य रत्न, वैदूर्य तथा सुवर्णमय मालाओं से विभूषित बीच बीच में पिरोये गये रत्नों की प्रभा से अत्यन्त मनोहर ऐसे विचित्र एवं चित्रवर्णों वाले वितानों से जिसकी शोभा हो रही है, ऐसे मण्डप का ध्यान कर पूजन करना चाहिए ।

विमर्श - तन्त्रान्तरों में इसका क्रम इस प्रकार कहा गया है-पृथ्वी के बाद क्षीरसमुद्र, उसमें विद्यमान द्वीप, उस द्वीप में उद्यान, उद्यान के मध्य में महासर उसमें विद्यमान कमल मण्डप, पारिजात एवं रत्न सिंहासन की पूजा करे ।। ६७-६८ ।।

सर्वरत्नसमायुक्तं हेमकुट्टिममुज्ज्वलम् ।

केतकी मालतीजातीचम्पकोत्पलकेसरैः ॥ ६९ ॥

मल्लिकातुलसीजातीनन्द्यावर्त्तकदम्बकैः ।

एतैरन्यैश्च कुसुमैरलङ्कृतमहीतलम् ॥ ७० ॥

वह मण्डप सभी प्रकार के रत्नों से युक्त है, उसका गच सुवर्ण का बनाया गया है । केतकी, मालती, जाती, चम्पक उत्पल, केशर, मल्लिका, तुलसी, जाती, नन्द्यावर्त्तः कदम्बक एवं अन्य प्रकार के फूले हुये फूलों से जिसका महीमण्डल अलङ्कृत है ऐसे मण्डप का ध्यान कर पूजा करे ।। ६९-७० ॥

अम्बुकाश्मीरकस्तूरीमृगनाभितमालकैः ।

चन्दनागुरुकर्पूरैरामोदितदिगन्तरम् ॥ ७१ ॥

कुंकुम, केशर मृगनाभि में रहने वाली कस्तूरी, तमाल, चन्दन, अगरु, कर्पूर आदि से जहाँ दिग् दिगन्त सुगन्धित हो रहे हैं ॥ ७१ ॥

एवं सञ्चिन्त्य मनसा मण्डपं सुमनोहरम् ।

तन्मध्ये भावयेन्मन्त्री पारिजात मनोहरम् ॥ ७२ ॥

साधक इस प्रकार ऊपर कहे गये अत्यन्त मनोहर मण्डप का मन में ध्यान करे । पुनः उस मण्डप के मध्य में मनोहर पारिजात वृक्ष का ध्यान करे ।। ७२ ।।

तस्याधस्तात् स्मरेन्मन्त्री रत्नसिंहासनं महत् ।

तस्मिन् सञ्चिन्तयेद्देवीं महालक्ष्मीं मनोरमाम् ॥ ७३ ॥

उस पारिजात के नीचे साधक रत्नजटित सिंहासन का ध्यान करे। तदनन्तर उस रत्न सिंहासन पर विराजमान मनोरम महालक्ष्मी का इस प्रकार ध्यान करना चाहिए ।। ७३ ।।

बालार्कद्युतिमिन्दुखण्डविलसत्कोटीरहारोज्ज्वलां

रत्नाकल्पविभूषितां कुचनतां शालेः करैर्मञ्जरीम् ।

पद्मे कौस्तुभरत्नमप्यविरतं सम्बिभ्रतीं सुस्मितां

फुल्लाम्भोजविलोचनत्रययुतां ध्यायेत् परां देवताम् ॥ ७४ ॥

उदीयमान सूर्य के समान अर्धचन्द्र युक्त जिनका किरीट है, स्तनों पर मुक्ताहार धारण करने से जिनके शरीर की कान्ति उज्ज्वल है, जो रत्नजटित नाना प्रकार के आभूषणों को धारण की हैं तथा कुचभार से विनम्र हैं । जिनके हाथों में धान्य की मञ्जरी, दो कमल तथा कौस्तुभ रत्न धारण की हैं, जिनका मुखारविन्द मन्द मन्द हास्य से युक्त हैं और जिनके तीन नेत्र फूले हुये कमल की श्री से युक्त हैं ऐसी परदेवता स्वरूपा महाश्रीलक्ष्मी का ध्यान करना चाहिए ।। ७४ ।।

शिञ्जन्मञ्जीरसंशोभिपदाम्भोजविराजिताम् ।

नवरत्नगणाकीर्णकाञ्चीदामविभूषिताम् ॥ ७५ ॥

जिनके पादारबिन्द बजते हुये मञ्जीर (पायजेब) से सुशोभित हो रहे हैं और कटिप्रदेश में नव रत्न जटित काची शोभा पा रही है ।। ७५ ।।

मुक्तामाणिक्य वैदूर्यसम्बद्धोदरबन्धनाम् ।

विभ्राजमानां मध्येन वलित्रितयशोभिना ॥ ७६ ॥

जिनकी नीवी में मुक्ता, माणिक्य तथा वैदूर्य (मूँगा) जड़ा हुआ है और जो त्रिवलीयुक्त कटिप्रदेश से विराजमान है ।। ७६ ।।

जाहनवीसरिदावर्त्तशोभिनाभिविभूषिताम् ।

पाटीरपङ्ककर्पूर कुङ्कुमालङ्कृतस्तनीम् ॥ ७७ ॥

वारिवाहविनिर्मुक्तमुक्तादामगरीयसीम् ।

वहन्तीमुत्तरासंग दुकूलपरिकल्पितम् ॥ ७८ ॥

गङ्गा के भँवर के समान गोल गोल गहरी नाभि से जो अत्यन्त शोभित हो रही है तथा जिनके स्तनों में चन्दन, पंक, कर्पूर एवं कुंकुम का लेप लगा हुआ है । जो समुद्र के द्वारा निकाले गये मोतियों की माला धारण की हैं और उत्तरीय एवं शाटी के साथ दुकूल वस्त्र से युक्त हैं ।। ७७-७८ ।।

तप्तकाञ्चनसन्नद्धवैदूर्याङ्गदभूषणाम् ।

पद्मरागस्फुरत्स्वर्णकङ्कणाढ्यकराम्बुजाम् ॥ ७९ ॥

जिनके वाहुमण्डल में दमकते हुये सुवर्ण, और वैदूर्य निर्मित बाजूबन्द सुशोभित हो रहे हैं तथा पद्मराग से देदीप्यमान कङ्कणों द्वारा जिनके कर कमल उद्भासित हो रहे हैं ।। ७९ ।।

माणिक्यशकलाबद्धमुद्रिकाभिरलङ्कृताम् ।

तप्तहाटकसंक्लृप्तमालायैवेयशोभिताम् ॥ ८० ॥

विचित्रविविधाकल्पकम्बुसङ्काशकन्धराम् ।

उद्यद्दिनकराकारमणिताटङ्कमण्डिताम् ॥ ८१ ॥

जिनके हाथों में रहने वाली अगूठी में माणिक्य जटित है एवं जिनके गले में तपाये गये सुबर्ण निर्मित ग्रैवेयक शोभा दे रहे हैं। विविध आभूषणों से सुसज्जित जिनका गला एक विचित्र प्रकार के शब्द जैसा शोभित हो रहा है। कानों में उदीयमान सूर्य के समान मणिमय वालियाँ शोभा दे रही हैं ।। ८०-८१ ।।

रत्नाङ्कितलसत्स्वर्णकर्णपूरोपशोभिताम् ।

जवाविद्रुमलावण्यललिताधरपल्लवाम् ॥ ८२ ॥

दाडिमीफलबीजाभदन्तपङ्किविराजिताम् ।

कलङ्ककार्श्यनिर्मुक्तशरच्चन्द्रनिभाननाम् ॥ ८३ ॥

पुण्डरीकदलाकारनयनत्रयसुन्दरीम् ।

भ्रूलताजितकन्दर्पकरकार्मुकविभ्रमाम् ॥ ८४ ॥

रत्नजटित सुवर्ण के कर्णफूल धारण करने से जो शोभित हो रही हैं तथा जिनका अधरपल्लव जपा एवं प्रवाल की शोभा के समान सुसज्जित हैं । जो अनार के फल रूप बीज के समान दाँतों की पंक्तियों से शोभा पा रही हैं तथा जिनका मुख, कलंक तथा कार्श्यरहित चन्द्रमा के समान शोभा देता है। जो कमल पत्र के समान विशाल तीन नेत्रों से महान् सुन्दरी दीख रही हैं, जिन्होंने अपनी तिरछी चितवन से कामदेव द्वारा धारण किये गये धनुष को भी जीत लिया है ।। ८२-८४ ॥

विकसत्तिलपुष्पश्रीविजयोद्यतनासिकाम् ।

ललाटकान्तिविभवविजितार्द्धसुधाकराम् ॥ ८५ ॥

सान्द्रसौरभसम्पन्नकस्तूरीतिलकाङ्किताम् ।

मत्तालिमालाविलसदलकाढ्यमुखाम्बुजाम् ॥ ८६ ॥

जिनकी नासिका फूले हुये तिल पुष्प की शोभा को विजित कर रही है और जो अपने ललाट की कान्ति से अर्धचन्द्र की शोभा को भी मात कर रही हैं। अत्यन्त सुगन्धित कस्तूरी का तिलक जिनके भाल प्रदेश में अंकित हैं, तथा मत्त भौरों के समूह जिन केशों पर विराज रहे हैं ऐसे केशों से सुशोभित जिनका मुख कमल है ।। ८५-८६ ॥

पारिजातप्रसून श्रीवाहिधम्मिल्लबन्धनाम् ।

अनर्घ्यरत्नघटितमुकुटाङ्कितमस्तकाम् ॥ ८७ ॥

सर्वलावण्यवसतिं भवनं विभ्रमश्रियः ।

तेजसां जन्मभूमिं तां महालक्ष्मीं मनोहराम् ॥ ८८ ॥

पारिजात के प्रसून की श्री से जिनका केशबन्धन सुशोभित है तथा जिनके मस्तक में रहने वाले किरीट बहुमूल्य मणियों से जटित हैं। इस प्रकार जो समस्त सौन्दर्यो की वसति हैं तथा समस्त हाव भाव युक्त विलासों के शोभा का घर हैं । जो समस्त तेजों की जन्मदात्री हैं, ऐसी महासुन्दरी महालक्ष्मी का ध्यान करना चाहिए ।। ८७-८८ ॥

पुरश्चरणादिकथनम्

एवं सञ्चिन्तयन् देवीं हविष्याशी जितेन्द्रियः ।

भानुलक्षं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयाद् घृतैः ॥ ८९ ॥

जुहुयाच्छ्रीफलैः पद्यैः प्रत्येकमयुतं ततः ।

तर्पयेत् सलिलैः शुद्धैः सुगन्धैरयुतद्वयम् ॥ ९० ॥

श्रीबीजस्योदिते पीठे महालक्ष्मीं प्रपूजयेत् ।

श्रीबीजेनासनं दद्यान्मूर्त्तिं मूलेन कल्पयेत् ॥ ९१ ॥

पूजयेद्दक्षिणे पार्श्वे देव्याः शङ्करनन्दनम् ।

अन्यतः पुष्पधन्वानं पुष्पाञ्जलिकरं यजेत् ॥ ९२ ॥

इन्द्रियों को वश में कर साधक हविष्यान्न भोजन करते हुये १२ लाख जप करे और घृत से उसका दशांश होम करे। पुनः श्री फल से तथा पद्म पुष्प से प्रत्येक से अलग अलग दस दस हजार होम करे, सुगन्धित शुद्ध जल से दो दस सहस्र (बीस हजार) तर्पण करे तथा पूर्वोक्त श्री बीज के मन्त्र का उच्चारण कर (द्र. ८. ९) पीठ पूजन करे। पश्चात् उस पर महालक्ष्मी का पूजन करे। श्री बीज आसन दे मूलमन्त्र पढ़कर मूर्ति का आवाहन करे । महालक्ष्मी की दाहिनी ओर पुष्पाञ्जलियुक्त गणपति का तथा बाईं ओर हाथ में पुष्पाञ्जलि लिये हुये कामदेव का पूजन करे ।। ८९-९२ ।।

अङ्गानि पूर्वमुक्तेषु स्थानेषु विधिवद् यजेत् ।

उमाद्याः पत्रमध्यस्था: शक्तीरष्टौ यजेत् क्रमात् ॥ ९३ ॥

पुनः पूर्व में कही गई विधि के अनुसार अङ्गों का विधिवद् पूजन करे । अष्टपत्रों के मध्य भाग में उमा आदि आठ श्री की महाशक्तियों का क्रमशः यजन करे ।। ९३।।

अथोमा श्रीसरस्वत्यौ दुर्गा धरणिसंयुता ।

गायत्री देव्युषा चैव पद्महस्ताः सुभूषणाः ॥ ९४ ॥

उमा श्री सरस्वती, दुर्गा, धरणी, गायत्री, देवी और उषा जो अपने अपने हाथों में कमल धारण की हैं तथा मनोहर आभूषणों से सुसज्जित है, ये महालक्ष्मी की आठ शक्तियाँ कही गई हैं ।। ९४ ।।

जहनुसूर्यसुते पूज्ये पादप्रक्षालनोद्यते ।

शङ्खपद्मनिधी पूज्यौ पार्श्वयोर्धृतचामरौ ॥ ९५ ॥

धृतातपत्रं वरुणं पूजयेत् पश्चिमे ततः ।

सम्पूज्य राशीन् परितो यजेदथ नव ग्रहान् ॥ ९६ ॥

पश्चात् महालक्ष्मी का पाद प्रक्षालन करने वाली गङ्गा और यमुना का पूजन करे । तदनन्तर चामर धारण किये हुये शङ्खनिधि तथा पद्मनिधि का अर्चन करे । देवी के पश्चिम भाग में देवी को छत्र लगाये हुये वरुण का पूजन करे । चारों ओर मेषादि राशियों का पूजन करे । तदनन्तर नवग्रहों का पूजन करे ।। ९५-९६ ।।

पूजयेद् दिग्गजान् दिक्षु चतुर्दन्तविभूषितान् ।

ऐरावतः पुण्डरीको वामनः कुमुदोऽञ्जनः ॥ ९७ ॥

पुष्पदन्तः सार्वभौमः सुप्रतीकश्च ते क्रमात् ।

अभ्यर्चयेदथेन्द्रादीन् तदस्त्राण्यपि तद्बहिः ॥ ९८ ॥

तदनन्तर आठों दिशाओं में चार चार दाँतों वाले आठ दिग्गजों का पूजन करे । उनके नाम इस प्रकार हैं- ऐरावत, पुण्डरीक, वामन, कुमुद, अञ्जन, पुष्पदन्त, सुप्रतीक और सार्वभौम । इसके बाद इन्द्रादि लोकपालों का पूजन करे। उसके पश्चात् उनके वज्रादि अस्त्रों का यन्त्र के बाहर पूजन करें ।। ९७-९८ ॥

आगमोक्तेन विधिना सुगन्धैः सुमनोहरैः ।

पूजयेद् गन्धपुष्पाद्यैर्देवीमन्वहमादरात् ॥ ९९ ॥

शास्त्र में कही गई विधि के अनुसार गन्ध युक्त मनोहर पुष्पों एवं अन्य पूजन सामग्रियों से देवी का श्रद्धापूर्वक नित्य पूजन करे ।। ९९ ।।

दूर्वाभिराज्यसिक्ताभिर्जुहुयादायुषे नरः ।

दशरात्रं समिद्धेऽग्नावष्टोत्तरसहस्रकम् ॥ १०० ॥

आयु की कामना वाला मनुष्य आज्य मिश्रित दूर्वा की १००८ आहुति से दश रात्रि पर्यन्त जलती हुई अग्नि में होम करे ।। १०० ॥

गुडूचीराज्यसंसिक्ता जुहुयात् सप्तवासरम् ।

अष्टोत्तरसहस्त्रं यः स जीवेच्छरदां शतम् ॥ १०१ ॥

यदि प्रतिदिन आज्य मिश्रित गुडूची से १००८ आहुति के क्रम से ७ रात्रि पर्यन्त इस मन्त्र से होम करे तो वह सैकड़ों वर्ष तक जीता है ।। १०१ ।।

हुत्वा तिलान् घृताभ्यक्तान् दीर्घमायुरवाप्नुयात् ।

आरभ्याऽर्कदिनं मन्त्री दशरात्रं दिने दिने ॥ १०२ ॥

घृतमिश्रित तिल से प्रतिदिन उतनी ही आहुति के क्रम से उतने ही दिन होम करे तो दीर्घायु की प्राप्ति होती है ।। १०२ ।।

आज्याक्तार्कसमिद्धोमादारोग्यं लभते ध्रुवम् ।

कण्ठमात्रोदके स्थित्वा ध्यात्वा देवीं दिवाकरे ॥ १०३ ॥

ऊर्वबाहुर्दशशतमष्टोत्तरमिमं जपेत् ।

आरोग्यं लभते सद्यो(मर्त्यों) वाञ्छितान्यपि मन्त्रवित् ॥१०४

मन्त्रज्ञ साधक रविवार से आरम्भ कर प्रतिदिन आज्यमिश्रित अर्क की समिधा से दशरात्रि पर्यन्त १००८ आहुति प्रदान करे तो वह आरोग्य प्राप्त करता है। कण्ठ मात्र जल में स्थित होकर सूर्य में महालक्ष्मी का ध्यान कर अपने बाहु को ऊपर किये जो १००८ अर्क समिधा का जल में होम करता है, वह आरोग्य तो प्राप्त करता ही है, उसके अभिलषित भी सिद्ध हो जाते हैं ।। १०३-१०४ ॥

शालिभिर्जुहवतो नित्यमष्टोत्तरसहस्रकम् ।

अचिरादेव महती लक्ष्मीः सञ्जायते ध्रुवम् ॥ १०५ ॥

जो प्रतिदिन शालि धान्य की मञ्जरियों से प्रतिदिन १००८ आहुति प्रदान करता है, उसे थोड़े ही दिन में अपरिमित लक्ष्मी प्राप्त होती हैं ।। १०५ ।।

प्रसूनैर्जुहुयान्मन्त्री लक्ष्मीवल्लीसमुद्भवैः ।

नन्द्यावर्त्तसमुत्थैर्वा सिद्धार्थैश्च घृतप्लुतैः ॥ १०६ ॥

महतीं श्रियमाप्नोति मान्यते सर्वजन्तुभिः ।

लक्ष्मीलता के पुष्पों से अथवा नन्द्यावर्त्त के पुष्पों से अथवा श्वेत सर्षप को घी में मिला कर होम करे तो साधक महान् लक्ष्मी प्राप्त करता है और सारा जगत उसका आदर करता है ।। १०६-१०७ ।।

मरीचजीरकोन्मिश्रैर्नारिकेलरजोयुतैः ॥ १०७ ॥

सगुडैराज्यसम्पक्वैरपूपैराज्यलोलितैः ।

जुहुयात् पायसाहारो मन्त्रविद्विजितेन्द्रियः ॥ १०८ ॥

अष्टोत्तरशतं नित्यं मण्डलाद्धनदो भवेत् ।

हविषा गुडमिश्रेण जुहुयादन्नवान् भवेत् ॥ १०९ ॥

मरीच तथा जीरा को मिलाकर नारिकेल के रज में उसे डुबोकर, अथवा घृत में पकाये गये गुड से मिश्रित अपूप को घृत में मिला कर प्रतिदिन १०८ आहुति से होम करे, खीर का भोजन करे, इन्द्रियों को वश में रखे तो साधक कुबेर के समान धनी हो जाता है । यदि गुडमिश्रित हवि से होम करे तो अल्पकाल में अर्थ सम्पन्न हो जाता है ।। १०७-१०९ ।।

जवापुष्पाणि जुहुयादष्टोत्तरसहस्रकम् ।

गृहीत्वा प्रजपेद्भस्म नागवल्लीरसान्वितम् ॥ ११० ॥

तिलकं तनुयात्तेन सर्ववश्यकरं भवेत् ।

ब्रह्मवृक्षसमित्पुष्पैर्ब्राह्मणान् वशयेद्वशी ॥ १११ ॥

यदि साधक जपा के पुष्प की १००८ आहुति से जलती हुई अग्नि में होम करे और उसका भस्म ले कर नागवल्ली से युक्त कर तिलक लगावे तो वह सबको अपने वश में कर लेता है। साधक जितेन्द्रिय हो पलाश की लकड़ी तथा उसके पुष्प से होम करे तो ब्राह्मणों को वश में कर लेता है ।। ११०-१११ ॥

जातीपुष्पैश्च राजानं वैश्यान् रक्तोत्पलैः सुधीः ।

शूद्रान्नीलोत्पलैर्हुत्वा वशयेन्मन्त्रवित्तमः ॥ ११२ ॥

पुष्पैर्मधूकजैर्हुत्वा वशमानयति स्त्रियः ।

जाती पुष्प से होम करने से साधक राजा को वश में कर लेता है। यदि साधक शुभ रक्त कमल से होम करे तो वैश्य को और नील कमल से होम करे तो शूद्र को वश में कर लेता है । मधूक पुष्पों से होम करे तो स्त्रियों को वश में कर लेता है ।। ११२-११३ ॥

कृत्वा नवपदात्मानं मण्डलं यन्त्रभूषितम् ॥ ११३ ॥

अभिषेकं प्रकुर्वीत विधिना सर्वसिद्धये ।

नव पदात्मक मण्डल का निर्माण कर उस पर यन्त्र स्थापित करे । पश्चात् सर्वसिद्धि के लिये उसका अभिषेक करे ।। ११३-११४ ।।

कलशान् स्थापयेत्तेषु पदेषु शुभलक्षणान् ॥ ११४ ॥

अब उस यन्त्र के अभिषेक का प्रकार कहते हैं-उन नव पदों पर शुभ लक्षण युक्त कलश स्थापित करे ।

चन्दनालिप्तसर्वाङ्गान् दूर्वाक्षतसमन्वितान् ।

दुकूलवेष्टितानेतान् पूरयेत्तीर्थवारिणा ॥ ११५ ॥

नवरत्नसमाबद्धं कर्षकाञ्चनकल्पितम् ।

मध्यकुम्भे क्षिपेत् पद्मं यन्त्राढ्यं देशिकोत्तमः ॥ ११६ ॥

चन्दनोशीरकर्पूरजातीकङ्कोलकुङ्कुमम् ।

कुष्ठागुरुतमालैलायुतं संपिष्य भागतः ॥ ११७ ॥

विलोड्य सर्वकुम्भेषु रत्नान्यपि विनिःक्षिपेत् ।

अब कलश स्थापन का प्रकार कहते हैंकलश में सर्वत्र चन्दन का अनुलेप करे, उसमें दूर्वा और अक्षत डाले । पुनः तीर्थ के जल से उसे परिपूर्ण कर वस्त्र से चारों और वेष्टित करे । उसमें नव रत्न युक्त १६० रत्ती सुवर्ण निर्मित कार्षापण छोड़ देवे । पुनः उस कुम्भ के मध्य में आचार्य यन्त्र रूप पद्म डाल देवे। पुनः चन्दन, उशीर, कर्पूर, जायफल, कंकोल, कुंकुम, कुष्ठ, अगुरु, तमाल एवं इलायची को समभाग में लेकर उसे पीस देवे । तदनन्तर उस चूर्ण को सभी लग्नों में डाल कर भली प्रकार उसे कुम्भ के जल में विलोडित करे तथा मातृका (६) पटल में कहे गये नव रत्न (द्र. ६. ११२-११३) भी उसमें छोड़ देवे ।। ११५- ११८ ॥

लक्ष्मीर्दूर्वा सदाभद्रा सहदेवी मधुव्रता ॥ ११८ ॥

मुशली शक्रवल्ली च क्रान्तापामार्गपत्रकान् ।

प्रियङ्गुमुद्गगोधूमव्रीहींश्च सतिलान् यवान् ॥ ११९ ॥

शालितण्डुलमाषश्च प्रक्षाल्यैतेषु निक्षिपेत् ।

धात्रीलकुचबिल्वानां कदलीनारिकेलयोः ॥ १२० ॥

फलान्यपि विनिक्षिप्य पुष्पाण्येतानि निक्षिपेत् ।

पद्मं सौगन्धिकं जातिं मल्लिकां बकुलन्तथा ॥ १२१ ॥

चम्पकाशोकपुन्नागतुलसीकेतकोद्भवम् ।

पल्लवानि वटाश्वत्थप्लक्षोडुम्बरशाखिनाम् ॥ १२२ ॥

तदनन्तर लक्ष्मी, दूर्वा, सदाभद्रा (मुस्ता) सहदेवी, मधुव्रता (भृङ्गराज), मुसली (मुसलीकन्द), शूक्रवल्ली (इन्द्रवारुणी), कान्ता (विष्णुकान्ता), अपामार्ग का पत्र, प्रियंक (काँक), मूँग, गेहूँ, धान, तिल युक्त यव साठी का चावल और उर्द - इन्हें धो कर सभी कुम्भों में डाल देवे तदनन्तर ऑवला, लकुच, बिल्व, केला तथा नारिकेल का फल डालकर उन कमल सौगन्धिक जाती, मल्लिका, बकुल, चम्पक, अशोक पुंनाग तुलसी और केतक के पुष्पों को छोड़ देवे । तदनन्तर वट, अश्वत्थ (पीपर) प्लक्ष (पाकर) और उदुम्बर ( गूलर) के पत्तों को भी उनमें छोड़ देवे ।। ११८-१२२ ।।

ब्रह्मकूच्च विनिक्षिप्य चषकैः सफलाक्षतैः ।

पिधाय कुम्भवक्त्राणि क्षौमैराच्छादयेत्ततः ॥ १२३ ॥

तदनन्तर कुशा छोड़कर फलयुक्त चम्पक पुष्प डालकर उनका मुख ढक कर क्षौम वस्त्र से उसे आच्छादित कर देवे ।। १२३ ।।

आवाह्य मध्यकलशे महालक्ष्मीं प्रपूजयेत् ।

यजेदुमाद्याः शिष्टेषु कलशेष्वष्टसु क्रमात् ॥ १२४ ॥

गन्धैर्मनोहरैः पुष्पैर्धूपदीपसमन्वितैः ।

निवेद्य भक्ष्यभोज्यानि तान् स्पृष्ट्वा प्रजपेन्मनुम् ॥ १२५ ॥

त्रिसहस्रं जपस्यान्ते साध्यमानीय संयतम् ।

संस्थाप्य स्थण्डिले पीठं तस्मिंस्तं विनिवेशयेत् ॥ १२६ ॥

तदनन्तर मध्य कलश में महालक्ष्मी का आवाहन कर पूजन करें। पुनः शेष आठ कलशों में उमादि अष्टशक्तियों (द्र. ८.९४) का पूजन मनोहर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप युक्त उपचारों के साथ नाना प्रकार के भक्ष्य भोज्य पदार्थों का नैवेद्य लगा कर करे । इस प्रकार पूजित सभी कलशों को कुश के द्वारा स्पर्श कर तीन सहस्र महालक्ष्मी के मन्त्र का जप करे । तदनन्तर ब्रह्मचर्यादि नियमों से युक्त शिष्य को वेदी पर आसन रख कर उसी पर उसे बिठावे ।। १२४-१२६ ॥

रम्यैराभरणैर्वस्त्रैरलङ्कृत्य तमादरात् ।

सुमङ्गलाभिर्नारीभिः क्षिप्तपुष्पाक्षतान्वितम् ॥ १२७ ॥

अर्चितानां द्विजातीनामाशीर्वादपुरःसरम् ।

नदत्सु पञ्चवाद्येषु मुहूर्त्ते शोभने सुधीः ॥ १२८ ॥

मध्यस्थं कुम्भमुद्धृत्य महालक्ष्मीमनुं स्मरन् ।

अभिषिञ्चेत् क्रमादन्यैः कलशैरपि देशिकः ॥ १२९ ॥

आचार्य उसे भलीभाँति उत्तम प्रकार के वस्त्र एवं आभरणों से भूषित करे । तत्पश्चात् युवती एवं सौभाग्यवती स्त्रियाँ उस पर पुष्प एवं अक्षत की वर्षा करें । पुनः पूजित ब्राह्मणों के आशीर्वाद पूर्वक पञ्चवाद्य से युक्त शुभ मूहूर्त में आचार्य स्वयं मध्यस्थ कुम्भ से जल लेकर उससे महालक्ष्मी का स्मरण करते हुये शिष्य का अभिषेक करें। इसी प्रकार क्रमशः अन्य आठ कलशों से भी जल ले कर अभिषेक करें ।। १२७-१२९ ।।

करेणाऽस्य शिरः स्पृष्ट्वा प्रयुञ्जीताशिषं गुरुः ।

भद्रमस्तु शिवञ्चाऽस्तु महालक्ष्मीः प्रसीदतु ॥ १३० ॥

पुनः गुरु हाथ से अपने शिष्य का शिर स्पर्श कर इस प्रकार का आशीर्वाद प्रदान करें - हे शिष्य तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारा मङ्गल हो । महालक्ष्मी तुम पर सदैव प्रसन्न रहें ।। १३० ॥

रक्षन्तु त्वां सदा देवाः सम्पदः सन्तु सर्वदा ।

अथोत्थायाऽभिषिक्तः सन् वाससी परिधाय च ॥ १३१ ॥

देवगण तुम्हारी रक्षा करें। तुमको सर्वदा सम्पत्ति प्राप्त होती रहे । इस प्रकार जब अभिषेक का कार्य सम्पन्न हो जाय तो अभिषिक्त शिष्य अपने आसन से उठकर पुनः अन्य अहत धौत वस्त्र एवं उत्तरीय वस्त्र धारण करे ।। १३१ ॥

यथाविधि समाचम्य दण्डवत् प्रणमेद् गुरुम् ।

वस्त्रैराभरणैर्धान्यैर्धनैर्गन्धै) गोंमहिषादिभिः ॥ १३२ ॥

दासीदासैश्च विधिवत्तोषयेद्देवताधिया ।

ब्राह्मणान् भोजयेत् पश्चाद्दीनान्धकृपणैः सह ॥ १३३ ॥

पुनः आचमन कर दण्ड के समान पृथ्वी पर गिर कर अपने गुरु को प्रणाम करे और गुरु में देवता बुद्धि करते हुये उन्हें वस्त्र, आभूषण, धान्य धन, गौ, महिषी, दासी एवं दास के दान द्वारा प्रसन्न करे । इसके अनन्तर ब्राह्मण भोजन कराकर दीन अन्ध एवं दरिद्रों को भी भोजन करावे ।। १३२-१३३ ।।

महान्तमुत्सवं कुर्याद्भवने बन्धुभिः सह ।

तदा कृतार्थमात्मानं मन्यते मनुजोत्तमः ॥ १३४ ॥

उस दिन अपने बन्धु बान्धवों के साथ घर पर महान् उत्सव करे। ऐसा कर के वह उत्तम शिष्य अपने को कृतार्थ समझे ।। १३४ ।।

अभिषिक्तो नरपति: परान् विजयतेऽचिरात् ।

पट्टेच्छुः पट्टमाप्नोति राजपुत्रो न संशयः ॥ १३५ ॥

उक्त रूप से अभिषिक्त राजा अपने शत्रुओं पर स्वल्प काल में विजय प्राप्त करता है और राजपुत्र यदि किसी पद की कामना से उक्त प्रकार से अभिषिक्त होता है तो वह अचिर काल में ही उस पद को प्राप्त कर लेता है ।। १३५

अभिषिक्ता सती बन्ध्या सूते पुत्रं महामतिम् ।

महारोगेषु जातेषु कृत्याद्रोहेषु देशिकः ॥ १३६ ॥

भूतेषु दुर्निमित्तादौ विदध्यादभिषेचनम् ।

सर्वसम्पत्करं पुंसां सर्वसौभाग्यसिद्धिदम् ॥१३७ ॥

यदि पतिव्रता वन्ध्या स्त्री का इस प्रकार अभिषेक किया जाता है तो वह स्वल्प काल में महाबुद्धिमान् पुत्ररत्न पैदा करती है। यदि महारोग उत्पन्न हो गया हो, अथवा द्रोहवश किसी ने कृत्या का प्रयोग कर दिया हो, अथवा किसी प्राणी को अपशकुन युक्त स्वप्न दिखाई पड़े तो उसे उपर्युक्त प्रकार से अभिषेक कराना चाहिए। क्योंकि यह अभिषेक प्राणियों को सब प्रकार की संपत्ति प्रदान करता है और सभी प्रकार के सौभाग्य तथा सिद्धियाँ प्रदान करता है ।। १३६-१३७ ॥

सर्वरोगप्रशमनं सर्वापद्विनिवारकम् ।

गर्भरक्षाकरं स्त्रीणां दीर्घायुर्जनकं परम् ॥१३८ ॥

प्रसूतानामपि स्त्रीणां सूतिकागाररक्षकम् ।

प्रणष्टपुष्पगर्भाणां पुष्पगर्भाभिरक्षणम् ॥ १३९ ॥

यह अभिषेक सभी रोगों को शान्त कर देता है, सभी विपत्तियों को दूर करता है। स्त्रियों के गर्भ की रक्षा करता है तथा दीर्घायु प्रदान करता है। प्रसूता स्त्रियों के सूतिका के आगार की रक्षा करता है, जिससे उसके पुत्रादिकों पर कोई बाधा नहीं आती, जिन स्त्रियों के पुष्प (रज) एवं गर्भ नष्ट होते रहते हैं, उन्हें यह अभिषेक पुनः पुष्प प्रदान करता है तथा गर्भ धारण कराता है ।। १३८-१३९ ।।

आसत्रशत्रुभीतानां नाशनञ्च महीभृताम् ।

अभिषेकमिमं प्राहुरागमार्थविशारदाः ॥ १४० ॥

यह अभिषेक राजाओं के ऊपर आने वाले आसन्न शत्रुओं के भय को सद्यः प्रणष्ट करने वाला है। इस प्रकार आगमशास्त्र के विशेषज्ञों ने इस अभिषेक का माहात्म्य कहा है ।। १४० ।।

शारदातिलक पटल ८  लक्ष्मीयन्त्रम्

लक्ष्मीयन्त्रम्

वेदादिस्थितसाध्यनाम युगशः श्रीशक्तिमारान्वितं

किञ्जल्केषु दिनेशपत्रविलसन्मन्त्राक्षरं तद्बहिः ।

पद्मं व्यञ्जनकेसरं स्वरलसत्पत्राष्टयुग्मं धरा-

बिम्बाभ्यां वषडन्तया त्वरितया यन्त्रं लिखेद् वेष्टितम् ॥ १४१ ॥

भूपुरद्वयकोणेषु क्षौ लेख्यौ पुनः पुनः ।

अब पद्म स्वरूप इस महालक्ष्मीयन्त्र को लिखने का विधान कहते हैं- सर्वप्रथम कर्णिका में ॐकारपूर्वक साध्य एवं साध्य का कार्य लिखे । तदनन्तर केशरों में प्रथम केशर पर श्री बीज, दूसरे पर काम बीज एवं श्री बीज, तीसरे पर शक्ति बीज एवं काम बीज, इस क्रम से सभी केशरों पर लिखे । पुनः द्वादश पत्रों पर मन्त्राक्षरों को लिखे । उसके बाहर के केशरों पर दो दो व्यञ्जन अक्षरों के क्रम से ककारादि वर्णों को लिखे, पुनः षोडश पत्रों पर १६ स्वरों को लिखे । पुनः उसे त्वरिता मन्त्र से वेष्टित कर पश्चाद् भूपुर से वेष्टित करे। भूपूर के प्रत्येक दोनों कोनों पर ह क्ष इन दो अक्षरों को बारम्बार लिखे ।। १४१-१४२ ।।

महालक्ष्मीयन्त्रमिदं सर्वैश्वर्यफलप्रदम् ॥ १४२ ॥

सर्वदुःखप्रशमनं सर्वापद्विनिवारणम् ।

बहुना किमिहोक्तेन परमस्मान्न विद्यते ॥ १४३ ॥

इस प्रकार से लिखा गया महालक्ष्मी यन्त्र सभी प्रकार का ऐश्वर्य प्रदान करता है । सभी प्रकार के दुःख का शमन करता है एवं सभी आपत्तियों को दूर करता है । इस विषय में इससे अधिक क्या कहा जा सकता है कि इस मन्त्र से बढ़कर और कोई मन्त्र नहीं है ।। १४२-१४३ ॥

सप्तविंशत्यक्षरमहालक्ष्मीमन्त्रः

शम्भुपत्नी श्रिया रुद्धा कमौ भगवती मही ।

ब्रह्मादित्यौ धरा दीर्घा लः क्षादिर्भगवान् मरुत् ॥ १४४ ॥

प्रसीदयुगलं भूयः श्रीरुद्धा भुवनेश्वरी ।

महालक्ष्मि नमोऽन्तः स्यात् प्रणवादिरयं मनुः ॥ १४५ ॥

सप्तविंशत्यक्षराढ्यः प्रोक्तः सर्वसमृद्धिदः ।

कमले हृदयं प्रोक्तं शिरः स्यात् कमलालये ॥ १४६ ॥

अब महालक्ष्मी के अन्य मन्त्र का उद्धार बताते हैं- शम्भुपत्नी (ह्रीं ) इसे 'श्री' बीज से संपुटित करे, तदनन्तर 'कम' वर्ण के आगे ल को एकार से युक्त करे इस प्रकार 'कमले', पुनः ब्रह्मादित्य (कम) इसके पश्चात् लकार को दीर्घ आकार से संयुक्त करे, पुनः क्षादि (ल) वर्ण का उच्चारण कर यकार को एकार की मात्रा से युक्त करे इस प्रकार 'कमलालये' निष्पन्न हुआ। तदनन्तर 'प्रसीद' • शब्द का दो बार उच्चारण कर श्री से संपुटित भुवनेश्वरी (श्रीं ह्रीं श्रीं) तदनन्तर 'महालक्ष्म्यै नमः' पद कहे। यह मन्त्र प्रणवादि हैं इस प्रकार २७ अक्षरों वाला यह श्री का महामन्त्र सभी प्रकार की समृद्धि प्रदान करता है।

मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार हुआॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः' (२७) ।। १४४-१४६ ।

शिखा प्रसीद तेनैव कवचं चतुरक्षरैः ।

अस्त्रमेतैः पदैः कुर्यात् त्रिबीजपुटितैः पृथक् ॥ १४७ ॥

'श्रीं ह्रीं श्रीं" इस तीन बीज मन्त्र से पृथक् पृथक् संपुटित कर क्रमश: कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद महालक्ष्म्यै पदों से हृदय, शिर, शिखा, कवच, एवं अस्त्र का न्यास करे।

प्रयोग विधि इस प्रकार जानना चाहिएयथा 'श्रीं ह्रीं श्री कमले श्रीं ह्रीं श्रीं हृदयाय नमः इत्यादि ॥ १४७ ॥

महालक्ष्मीध्यानम् । पुरश्चरणादिकथनम्

सिन्दूरारुणकान्तिमब्जवसतिं सौन्दर्यवारां निधिं

कोटीराङ्गदहारकुण्डलकटीसूत्रादिभिर्भूषिताम् ।

हस्ताब्जैर्वसुपत्रमब्जयुगलादर्शों वहन्तीं परा-

मावीतां परिचारिकाभिरनिशं ध्यायेत् प्रियां शार्ङ्गिणः ॥ १४८ ॥

न्यास के पश्चात् अब महालक्ष्मी के ध्यान का प्रकार कहते हैं-जिनके शरीर की कान्ति सिन्दूर के समान अरुण वर्ण की है जो सौन्दर्य की राशिभूत समुद्र जैसी हैं और मुकुट, अङ्गद, हार, कुण्डल तथा काञ्ची युक्त आभूषणों से शोभित हो रही हैं जिन्होंने अपने हस्त कमलों में वसु, पुस्तक, अब्जयुगल एवं आदर्श (शीशा) धारण किए हुए हैं तथा निरन्तर परिचारिका गणों से घिरी रहती हैं ऐसी विष्णु पत्नी महालक्ष्मी का ध्यान करना चाहिए ।।१४८।।

लक्षं जपेत् फलैर्बिल्वैर्जुहुयान्मधुरोक्षितैः ।

दशांशं संस्कृते वहनौ प्राक्प्रोक्तेनैव वर्त्मना ॥ १४९ ॥

उपर्युक्त मन्त्र का एक लाख जप करे । पश्चात् त्रिमधुर सिक्त विल्व फल का होम सुसंस्कृत अग्नि में पूर्वोक्त बताये गये क्रम से करे ।। १४९ ।।

श्रीबीजोक्ते यजेत् पीठे वक्ष्यमाणक्रमेण ताम् ।

अङ्गावृत्तेर्बहिः पूज्या मूर्त्तयः श्रीधरादयः ॥ १५० ॥

तदनन्तर श्री बीज में कहे गये पीठ पर आगे कही जाने वाली विधि के अनुसार श्री देवी की पूजा करे । कर्णिका में अङ्गपूजा एवं उसके बाहर के पत्र मूल में श्रीधरादिमूर्तियों की पूजा करे ।। १५० ।।

श्रीधराख्यं हृषीकेशं वैकुण्ठं विश्वरूपकम् ।

वासुदेवं सङ्कर्षणं प्रद्युम्नमनिरुद्धकम् ॥ १५१॥

दलमूलेषु संपूज्य पत्रमध्येषु संयजेत् ।

भारती पार्वतीं चान्द्रीं शचीञ्च दमकादिकान् ॥ १५२ ॥

अब श्री धरादि का नाम कहते हैंश्रीधर, हृषीकेश, वैकुण्ठ, विश्व-रूपक, वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध । इन आठों की चार दिशाओं में पत्र के मूल भाग में पूजा कर पत्र के मध्यभाग में भारती, पार्वती, चान्द्री एवं शची की पूजाकर पश्चात् चार कोणों में तथा दमक आदि दिग्गजों (द्र. ८. १२) की भी पूजा करे ।। १५१-१५२ ।।

दलाग्रेष्वर्चयेद् बाणान् महालक्ष्म्याः क्रमादमून् ।

अनुरागञ्च संवादं विजयं वल्लभं मदम् ॥ १५३॥

हर्षं बलञ्च तेजश्च लोकनाथाननन्तरम् ।

तदायुधानि तद्बाह्ये पूजयेत् साधकोत्तमाः ॥ १५४॥

दल के अग्रभाग में महालक्ष्मी के वक्ष्यमाण बाणों की पूजा क्रमशः करे । अनुराग, संवाद, विजय, वल्लभ, मद, हर्ष, बल और तेज -ये महालक्ष्मी के बाणों के नाम हैं । इसके बाद लोकपालों की पूजा करे । उसके बाहर उत्तम साधक इन्द्रादि लोकपालों के वज्रादि आयुधों की पूजा करे ।। १५३-१५४ ।।

अनेन विधिना देवीं महालक्ष्मीमुपासते ।

ये तेषु निवसेल्लक्ष्मीरस्मरन्ती निजालयम् ॥ १५५ ॥

इस प्रकार जो उत्तम साधक महालक्ष्मी की उपासना करते हैं लक्ष्मी उनके यहाँ सर्वदा निवास करती हैं, यहाँ तक कि अपने घर को भी भूल जाती हैं ।। १५५ ॥

उत्पलैर्जुहुयाल्लक्षं चन्दनाम्भसि लोलितैः ।

शत्रूणां लभते राज्यं विना युद्धेन पार्थिवः ॥ १५६ ॥

चन्दन के जल से संसिक्त उत्पलों के द्वारा उपर्युक्त मन्त्र से एक लाख आहुति प्रदान करे तो राजा बिना युद्ध किये ही अपने शत्रुओं के राज्य पर अधिकार कर लेता है ।। १५६ ।।

जपन् राजसभां गच्छेत् सम्भाव्येत तया नरः ।

दूर्वा देवी महालक्ष्मीर्विष्णुक्रान्ता मधुव्रता ॥ १५७ ॥

मुशली शक्रवल्ली च सदाभद्राऽञ्जलिप्रिया ।

हरिचन्दनकर्पूरचन्दनाङ्कोलरोचनाः ॥ १५८ ॥

मालूरकेसरी कुष्ठं सर्वं पिष्ट्वा निशारसैः ।

अष्टोत्तरसहस्रन्तु जपित्वा तिलकक्रियाम् ॥ १५९ ॥

कुर्वतो मन्त्रिणः सर्वे वशे तिष्ठन्त्यहर्निशम् ।

श्रियो मन्त्रं भजेन्मन्त्री श्रीसूक्तान्यपि संजपेत् ॥ १६० ॥

यदि इस मन्त्र का जप करते हुये राजसभा में जावे तो वह मन्त्रज्ञ उस राजसभा से पूजित होता है। दूर्वा, सहदेवी, महालक्ष्मी, विष्णुकान्ता, मधुव्रता (भृङ्गराज) मुसली, इन्द्रवारुणी, सदाभद्रा (मुस्ता) अञ्जलिप्रिया, हरिचन्दन (पीतचन्दन) कपूर, चन्दन, अङ्कोल, गोरोचन, मालूर (विल्व) केसर (नागकेशर) कुष्ठ इन सब औषधियों को समभाग लेकर निशा (हरिद्रा) के रस में पीस देवे । पुनः उसे हाथ में लेकर १००८ बार इस मन्त्र का जप कर तिलक करे तो सभी लोग सर्वदा उस मन्त्रवेत्ता के वशीभूत हो निवास करते हैं। मन्त्रज्ञ जिस प्रकार जप करे उसी प्रकार श्री सूक्त का भी जप करे ।। १५७-१६० ।।

कमलोपासकधर्मकथनम्

भूयसीं श्रियमाकाङ्क्षन् सत्यवादी भवेत् सदा ।

प्रत्यगाशामुखोऽश्नीयात् स्मितपूर्वं प्रियं वदेत् ॥ १६१ ॥

अब ग्रन्थकार श्री प्राप्ति के लिये तन्त्र शास्त्रों में कहे गये नियमों का उपदेश करते हैं । अत्यधिक श्री चाहने वाले साधक को सर्वदा सत्य बोलना चाहिए और सदा पश्चिमाभिमुख भोजन करना चाहिए तथा स्मितपूर्वाभिभाषी होना चाहिए ।। १६१ ।।

भूषयेद् गन्धपुष्पाद्यैर्वात्मानं नियतः शुचिः ।

शयीत शुद्धशय्यायां तरुण्या सह नान्यया ॥ १६२ ॥

गन्धपुष्पादिकों से अपने को अलंकृत करना चाहिए तथा नियमों का पालन करते हुये पवित्र रहना चाहिए। शुद्धशय्या पर युवती स्त्री के साथ शयन करना चाहिए अन्यथा (वृद्धादि) स्त्रियों के साथ शयन वर्जित हैं।।१६२।।

नग्नो नाऽवतरेदम्भस्तैलाभ्यक्तो न भक्षयेत् ।

हरिद्रां न मुखे लिप्येन्न स्वपेदशुचिः क्वचित् ॥ १६३ ॥

नङ्गे होकर जल में स्नान नहीं करना चाहिए। तेल मिश्रित किसी भी पदार्थ का भक्षण नहीं करना चाहिए। हरिद्रा का लेप मुख में न लगावें और अपवित्र होकर किसी भी स्थान में शयन नहीं करना चाहिए ।। १६३ ।।

न वृथा विलिखेद्भूमिं न बिल्वं द्रोणमम्बुजम् ।

धारयेन्मूर्ध्नि नैवाऽद्यात् लोणं तैलञ्च केवलम् ॥ १६४॥

व्यर्थ पृथ्वी को न कुरेदे । बिल्व, गुमा एवं कमल शिर पर न धारण करे । केवल नमक एवं केवल तेल कभी न खावे ।। १६४ ।।

मलिनो न भवेज्जातु कुत्सितान्नं न भक्षयेत् ।

द्रोणपङ्कजबिल्वानि पद्भ्यां जातु न लङ्घयेत् ॥ १६५ ॥

कभी भी मलिन न रहे । कुत्सित अन्न का भोजन कभी न करे । गुमा, कमल एवं विल्व को पैर से कभी न लाँघे ।। १६५ ।।

सहदेवीमिन्द्रवल्लीं श्रीवल्लीं विष्णुवल्लभाम् ।

कन्यां जम्बुं प्रवालञ्च धारयेन्मूद्धिर्न सर्वदा ॥ १६६ ॥

सहदेवी, इन्द्रवारुणी, श्रीलता, विष्णुकान्ता तथा घृत कुमारी एवं मूँगा सर्वदा शिर पर धारण करना चाहिए ।। १६६ ।।

इत्याचारपरो नित्यं विष्णुभक्तो दृढव्रतः ।

श्रियमाप्नोति महतीं देवानामपि दुर्लभाम् ॥ १६७ ॥

लक्ष्मी चाहने वालों को ऊपरोक्त सभी प्रकार के आचारों का पालन करना चाहिए, निरन्तर विष्णु में भक्ति रखनी चाहिए तथा नियमों का कड़ाई से पालन करना चाहिए ।। १६७ ।।

॥ इति श्रीलक्ष्मणदेशिकेन्द्रविरचिते शारदातिलके अष्टमः पटलः समाप्तः ॥ ८ ॥

।। इस प्रकार शारदातिलक के आठवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ८ ॥

आगे जारी........ शारदातिलक पटल 9

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