पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

शारदातिलक पटल ७

शारदातिलक पटल ७     

शारदातिलक पटल ७ भूतलिपिप्रकरण है। इसमें नववर्गाद्यक्षर का कथन वर्ग वर्णों की भूतात्मकता, वागीश्वरी का ध्यान एवं उनका पुरश्चरणादि कथन है।

शारदातिलक पटल ७

शारदातिलक पटल ७     

Sharada tilak patal 7

शारदातिलकम् सप्तमः पटल:

शारदातिलकतन्त्रम् (प्रथमो भागः )

शारदा तिलक तन्त्र सातवाँ पटल

शारदातिलकम्

सप्तम पटल

अथ सप्तमः पटलः

अथ भूतलिपिप्रकरणम्

अथ भूतलिपिं वक्ष्ये सुगोप्यामतिदुर्लभाम् ।

यां प्राप्य शम्भोर्मुनयः सर्वान् कामान् प्रपेदिरे ॥ १ ॥

अब मैं अत्यन्त्य गोपनीय तथा सर्वथा दुर्लभ 'भूतलिपि का वर्णन करता हूँ, जिसे मुनियों ने सदाशिव से प्राप्तकर अपनी सारी कामनायें पूर्ण की थीं ॥१॥

भूतलिपिमन्त्रः

पञ्च ह्रस्वाः सन्धिवर्णा व्योमेराग्निजलं धरा ।

अन्त्यमाद्यं द्वितीयञ्च चतुर्थं मध्यमं क्रमात् ॥ २ ॥

पञ्चवर्गाक्षराणि स्युर्वान्तं श्वेतेन्दुभिः सह ।

एषा भूतलिपिः प्रोक्ता द्विचत्वारिंशदक्षरैः ॥ ३ ॥

नववर्गाद्यक्षरकथनम्

आयम्बरार्णा वर्गाणां पञ्चमाः शार्णसंयुताः ।

वर्गाद्या इति विज्ञेया नव वर्गाः स्मृता अमी ॥ ४ ॥

वर्गवर्णानां भूतात्मकत्वम्

व्योमेराग्निजलक्षोणीवर्गवर्णान् पृथग् विदुः ।

द्वितीयवर्गे भूर्न स्यान्नवमे न जलं धरा ॥ ५ ॥

इस भूतलिपि में नव वर्ग तथा ४२ अक्षर होते हैं, इसका विवरण प्रकार है-पाँच ह्रस्व (अ इ उ ऋ लृ ) यह प्रथम वर्ग है, सन्धि वर्ण (ए ऐ ओ औ) चार यह द्वितीय वर्ग है, (ह य र व ल ) यह तृतीय वर्ग है, ङ क ख ग यह चतुर्थ वर्ग है, इसी प्रकार अ च छ झ ज यह पञ्चम वर्ग है, ण ट ठ ड यह षष्ठ वर्ग है, न त थ ध द यह सप्तम वर्ग है, म प फ भ ब यह अष्टम वर्ग है, वान्त (श) श्वेत (ष) इन्द्र (स) यह नवम वर्ग है।

इस प्रकार इन ४२ अक्षरों की भूतलिपि मानी गई है और उपर्युक्त नव वर्गों के क्रमशः अकार, एकार, ककार, चकार, टकार, तकार, पकार, सकार तथा शकार आद्यक्षर हैं। ये ९ वर्ग, प्रथम अक्षर के क्रम से आकाशादि पञ्चमहाभूत के स्वरूप हैं । द्वितीय वर्ग में चार अक्षर हैं, इसलिये उसमें पञ्चभूतों में अन्तिम पृथ्वी रूप भूत का अभाव है । नवम वर्ग में तीन अक्षर हैं, इसलिये उसमें अन्तिम दो और पृथ्वी रूप भूत नहीं है।

इसका विवरण इस प्रकार है-अ ए ह ड ज ण न म श आकाश रूप महाभूत हैं, इ ऐ य क ट त प ष ये वायु रूप महाभूत हैं, उ ओ ख छ ठ थ फ ब स तेज रूप महाभूत हैं, ऋ औ द्य झ ढ ध भ जल रूप महाभूत हैं, लृ ल ग ज ड द ब पृथ्वी वर्ग हैं ॥ २-५ ॥

नववर्गदेवताः

विरिञ्चिविष्णुरुद्राश्विप्रजापतिदिगीश्वराः ।

क्रियादिशक्तिसहिताः क्रमात् स्युर्वर्गदेवताः ॥ ६ ॥

अब इन वर्गों के देवता का पृथक् पृथक् प्रतिपादन करते हैं- ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, अश्विनीकुमार प्रजापति, चार दिग्पाल (इन्द्र, यम, वरुण और सोम) ये अपनी क्रियादि शक्तियों के साथ इन वर्गों के देवता कहे गये हैं ।। ६ ।।

ऋषिः स्याद्दक्षिणामूर्त्तिर्गायत्रं छन्द ईरितम् ।

देवता कथिता सद्भिः साक्षाद् वर्णेश्वरी परा ॥ ७ ॥

इस भूतलिपि के दक्षिणामूर्ति ऋषि, गायत्री छन्द तथा साक्षाद् वर्णेश्वरी परादेवता हैं ऐसा सज्जनों ने कहा है ॥ ७ ॥

हादिषड्वर्गकैः कुर्यात् षडङ्गानि सजातिभिः ।

ध्यायेल्लिपितरोर्मूले देवीं तन्मयपङ्कजे ॥ ८ ॥

साधक तृतीय वर्ग हादि (ह य र व ल) से आरम्भ कर हृदयादि षडङ्गन्यास करे, यथा हं यं रं वं लं हृदयाय नमः इति हृदि इत्यादि और लिपिरूपी वृक्ष के नीचे वर्णमय पंकज पर देवी का ध्यान करे ।। ८ ॥

लिपितरुस्वरूपम्

वदन्ति सुधियो वृक्षं नित्यं वर्णमयं शुभम् ।

परसम्विन्महाबीजं बिन्दुनादमहाशिफम् ॥ ९ ॥

सुधी लोग वर्णमय इस शुभ वृक्ष को नित्य कहते हैं, पर संवित् (कुण्डलिनी) इसका महाबीज है, बिन्दुनाद इसकी महाशिफा (मूल) है ॥ ९ ॥

पृथिव्यक्षरशाखाभिः सर्वाशासु विजृम्भितम् ।

सलिलाक्षरपत्रैः स्वैः संछादितजगत्त्रयम् ॥ १० ॥

यह लिपिस्वरूप वर्णवृक्ष पृथ्वी भूतरूप (द्र. ७.५) अक्षर शाखाओं से सभी दिशाओं में फैला हुआ है और जल रूप (द्र. ७.५) अक्षर पत्रों से तीनों लोकों को अच्छादित किए हुए है ॥ १० ॥

वहिनवर्णाङ्कुरेर्दीप्तं रत्नैरिव सुरद्रुमम् ।

मरुद्वर्णलसत्पुष्पैर्द्योतयन्तं वपुः श्रियम् ॥ ११ ॥

अग्निरूप वर्णांकुर (द्र. ७.५) से इस प्रकार दीप्त है जिस प्रकार रत्नों से कल्पवृक्ष जगमगाता है, वायुवर्ण रूपी पुष्पों (द्र. ७.५) से यह वृक्ष अपनी शोभा व्यक्त करता है ।। ११ ।

आकाशार्ण फलैर्नग्रं सर्वभूताश्रयं परम् ।

परामृताख्यमधुभिः सिञ्चन्तं परमेश्वरीम् ॥ १२ ॥

आकाश वर्ण (द्र. ७.५) रूपी फलों से नम्र हैं, इस प्रकार के इस वृक्ष के नीचे जगत् के सारे प्राणी आश्रय लेते हैं और यह वृक्ष अपने अमृत रूपी मधु से श्री वागीश्वरी रूपा परमेश्वरी को अभिषिक्त करता ।। १२ ।।

वेदागमादिभिः क्लृप्तं समुन्नतिमनोहरम् ।

शिवशक्तिमयं साक्षाच्छायाश्रितजगत्त्रयम् ॥ १३ ॥

एनमाश्रित्य मुनयः सर्वान् कामानवाप्नुयुः ॥ १४ ॥

यह वर्णात्मक वृक्ष वेद आगम तथा सच्छास्त्रों द्वारा सौन्दर्य से संयुक्त तथा ऊँचाई को प्राप्त कराया गया है। यह साक्षात् शिवशक्तिमय है इसी की छाया में तीनों लोक आश्रय प्राप्त करते हैं। इस वृक्ष का आश्रय ले कर मुनियों ने अपनी संपूर्ण कामनायें प्राप्त की हैं ।। १३-१४ ।।

वागीश्वरीध्यानम्

अङ्कोन्मुक्तशशाङ्ककोटिसदृशीमापीनतुङ्गस्तनीं

चन्द्रार्द्धाकिंतमस्तकां मधुमदादालोलनेत्रत्रयाम् ।

बिभ्राणामनिशं वरं जपवटी विद्यां कपालं करै-

राधां यौवनगर्वितां लिपितनुं वागीश्वरीमाश्रये ॥ १५ ॥

अब लिपि वृक्ष के नीचे वर्णमय कमल पर विराजमान विश्ववन्द्या वागीश्वरी का ध्यान कहते हैं-कलङ्क रहित करोड़ों चन्द्रमा के समान प्रभावाली, तुंगस्तनी मस्तक पर अर्द्धचन्द्र से सुशोभित, मधुमद से जिनके तीनों नेत्र चञ्चलता को प्राप्त हो रहे हैं, जिन्होंने अपने हाथों में वर, जपमाला, विद्या (= पुस्तक) एवं कपाल धारण किया है जो जवानी के मद से इठला रही हैं लिपि रूप विग्रह वाली इस प्रकार की भगवती वागीश्वरी का मैं आश्रय लेता हूँ ॥ १५ ॥

आधारदेशेऽधिष्ठाने नाभौ हृदि गले पुनः ।

बिन्दौ नादे ततः शक्त्यां शिवे देशिकसत्तमः ॥ १६ ॥

नवाधारेषु विन्यस्य स्वरान् नव यथाविधि ।

हादिवर्णांस्तनौ न्यस्येन्मुखे ऊर्वादितः सुधीः ॥ १७ ॥

इसके बाद उत्तम आचार्य को लिङ्ग एवं गुदा के मध्य में स्थित मूलाधार, लिङ्ग, नाभि, हृदय, कण्ठ भ्रूमध्य, केशान्त, केश से ऊर्ध्वभाग तथा शिवस्थान (सहस्र कमल पत्र जहाँ स्थित है) इन नव आधार स्थानों में नवस्वरों में बिन्दु लगाकर न्यास करना चहिए ।। १६-१७ ।।

ऊर्वमाहेन्द्रयाम्योदक्पश्चिमेषु समाहितः ।

दो:पत्सु पञ्चवर्गाणां वर्णान् देशिकसत्तमः ॥ १८ ॥ क्ष

अग्रमूलोपमूलाग्रमध्यदेशक्रमेण तु ।

जठरे पार्श्वयुगले नाभौ पृष्ठे समाहितः ॥ १९ ॥

पुरश्चरणादिकथनम्

पुनः हादि वर्ण (हं यं रं वं लं) इस तृतीय वर्ग के पाँच अक्षरों से अपने में पञ्चवक्त्र की भावना करते हुये क्रमशः ऊर्ध्वमुख, पूर्वमुख, दक्षिणमुख, उदङ्मुख तथा पश्चिम मुख में समाहित बुद्धि से न्यास करे। इसी प्रकार हाथ पैर के अग्रभाग (अङ्गुल्यन्त) में शरीर के मूल कन्धे एवं अंसों में, उपमूल (दोनों कूर्पर एवं दोनों जानुभाग में) उपाग्र (कर पाद की अङ्गुलि की प्रथम सन्धि ) में, मध्यदेश (मध्य सन्धि मणिबन्ध और गुल्फ) में, जठर में, दोनों पार्श्व में, नाभि तथा पृष्ठ में, क्रमशः पञ्चवर्गों में (एक एक वर्ण को बिन्दुयुक्त कर) न्यास करे । पञ्चवर्ग का क्रम (द्र. ७. २) न्यास करे ।। १८-१९ ।।

गुह्यहृद्भ्रूविले न्यस्येत् शादिवर्णत्रयं क्रमात् ।

सृष्ट्यां सर्गावसाना स्यात् स्थितौ वहिनमरुत्पयः ॥ २० ॥

वियद्भूमिक्रमान्यस्येद् बिन्दुसर्गावसानिकाम्।

संहृतौ प्रतिलोमेन विन्यसेबिन्दुभूषिताम् ॥ २१ ॥

इसके अनन्तर सावधानीपूर्वक गुह्यप्रदेश, हृदय तथा भ्रू स्थानों में शादि वर्ण (शष स) का न्यास करे। ऊपर कहा गया यह न्यास सृष्टिक्रम में भूतवर्णों में विसर्ग लगा कर करे । स्थितिक्रम में अग्नि, वायु, जल, आकाश तथा भूमि के वर्णों में एक एक को बिन्दु एवं विसर्ग युक्त कर करे । पुनः उसी प्रकार दूसरी बार भी न्यास करे । यथा- ॐ: , इं:, ऋं:, अं:, लृं:, ओः, ऐं:, औ:, एं:  इत्यादि । संहारक्रम में भूतलिपि के प्रत्येक वर्ण के विपरीत क्रम से बिन्दु (अनुस्वार) लगा कर न्यास करे ।। २०-२१ ॥

आगमोक्तेन मार्गेण दीक्षितः साधकोत्तमः ।

लक्षं न्यस्येज्जपेत्तावदयुतं जुहुयात् तिलैः ॥ २२ ॥

उत्तम साधक उपर्युक्त प्रकार से भूतलिपियों से एक बार न्यास करे और पुनः एक बार जप करे । इस प्रकार एक लक्षन्यास तथा एक लाख जप सम्पन्न कर तिलों से हवन करे ।। २२ ।।

पूजयेदन्वहं देवीं पीठे प्रागीरिते सुधीः ।

वर्णाब्जेनासनं दद्यान्मूर्त्तिं मूलेन कल्पयेत् ॥ २३ ॥

पूर्वोक्त कहे गये पीठ अष्टदल कमल के भूपुर को चार द्वार से युक्त कर सर्वप्रथम पहले कही गई पीठशक्ति का पूजन कर वर्णाब्ज से आसन देकर मूल मन्त्र से देवी का आवाहन कर पूजन करे ।

विमर्श - पश्चात् केशरों में अङ्गों का अर्चन कर ऊपर के दिग्दलों के चारों दिशाओं में चार अम्बिकादि शक्तियों का पूजन करे। उसके बाद ब्राह्मी आदि का पूजन कर षोडश दलों में कराला आदि महाशक्तियों का पूजन करे ।

देवी का आसनदान का प्रयोग इस प्रकार है- 'हसौः वर्णाब्जाय भूतलिपि- योगपीठाय नमः' इत्यादि ।। २३ ।।

अङ्गावरणदेवताः

देवीं सम्पूजयेत् तस्यामङ्गाद्यावरणैः सह ।

आदावङ्गावृति: पश्चादम्बिकाद्याभिरीरिता ॥ २४ ॥

द्वितीया मातृभिः प्रोक्ता तृतीया द्व्यष्टशक्तिभिः ।

चतुर्थी पञ्चमी प्रोक्ता द्वाविंशच्छक्तिभिः पुनः ॥ २५ ॥

चतुःषष्ट्या स्मृता षष्ठी शक्तिभिर्लोकनायकैः ।

सप्तमी पुनरेतेषामस्त्रैः स्यादष्टमावृतिः ॥ २६ ॥

अब इस आवरण पूजा का क्रम इस प्रकार कहते हैं-

अङ्गादि आवरणों के सहित देवी का पूजन इस प्रकार करे - सर्वप्रथम अङ्गादि आवरणों की पूजा करे । तदनन्तर द्वितीय आवरण में अम्बिकादि की, तृतीय आवरण में मातृकाओं की, चतुर्थ आवरण में १६ शक्तियों की, पञ्चम आवरण में पुनः ३२ शक्तियों की, षष्ठ आवरण में ६४ शक्तियों की, सप्तम आवरण में शक्तियुक्त दिक्पालों की और पुनः अष्टम आवरण में इनके वज्रादि अस्त्रों की पूजा करे ।। २४-२६ ।।

एवं पूज्या जगद्धात्री श्रीभूतलिपिदेवता ।

स्थानेषूक्तेषु विधिवदभ्यर्च्याऽङ्गानि पूजयेत् ॥ २७ ॥

इस प्रकार जगद्धात्री भूतलिपि देवता का विधिवत् पूजन करे । तदनन्तर उसी भाँति उनके अङ्गों की भी पूजा उक्त स्थानों पर करे ।। २७ ।।

अम्बिकावाग्भवी दुर्गा श्रीशक्तिचोक्तलक्षणाः ।

ब्राह्मयाद्याः पूर्ववत् पूज्याः कराली विकराल्युमा ॥ २८ ॥

अम्बिका, वाग्भवी, दुर्गा और श्री ये चार द्वितीय आवरण की देवता हैं जिनका संकेत पूर्वोक्त ७. २४ में किया गया है। ब्राह्मी आदि आठ देवियों के नाम पूर्व में ६. १७-१८ में कह आये हैं ।। २८ ।।

सरस्वतीश्रीदुर्गाषा लक्ष्मीश्रुत्यौ स्मृतिर्धृतिः ।

श्रद्धा मेधा मतिः कान्तिरार्या षोडश शक्तयः ॥ २९ ॥

१. कराली, २. विकराली, ३. उमा, ४. सरस्वती, ५. श्री, ६. दुर्गा, ७. उषा, ८. लक्ष्मी, ९. श्रुति, १०. स्मृति, ११. धृति, १२. श्रद्धा, १३. मेधा, १४. मति, १५. कान्ति और १६. आर्या-ये १६ शक्तियाँ है ।। २९ ।।

खड़खेटकधारिण्यः श्यामाः पूज्याः स्वलङ्कृताः ।

विद्याहीपुष्टयः प्रज्ञा सिनीवाली कुहूः पुनः ॥ ३० ॥

रुद्रा वीर्या प्रभा नन्दा स्यात् पोषा ऋद्धिदा शुभा ।

कालरात्रिर्महारात्रिर्भद्रकाली कपर्दिनी ॥ ३१ ॥

विकृतिर्दण्डिमुण्डिन्यौ सेन्दुखण्डा शिखण्डिनी ।

निशुम्भशुम्भमथिनी महिषासुरमर्दिनी ॥ ३२ ॥

इन्द्राणी चैव रुद्राणी शङ्करार्द्धशरीरिणी ।

नारी नारायणी चैव त्रिशूलिन्यपि पालिनी ॥ ३३ ॥

अम्बिका हलादिनी चैव द्वात्रिंशच्छक्तयः स्मृताः ।

चक्रहस्ताः पिशाचास्याः सम्पूज्याश्चारुभूषणाः ॥ ३४ ॥

अब षोडश शक्तियों के नामों को कहता हूँ-

ये शक्तियाँ अपने हाथों में खड्ग खेटक धारण किए हुए हैं, श्यामा हैं, अलङ्कारों से सुशोभित हैं और जगत्पूज्या हैं।

अब ३२ शक्तियों का नाम कहता हूँ । १. विद्या, २. ह्रीं, ३. पुष्टि, ४. प्रज्ञा, ५. सिनीवाली, ६. कुहू, ७. रुद्रा, ८. वीर्या, ९. प्रभा, १०. नन्दा, ११. पोषा, १२. कल्याण करने वाली ऋद्धिदा, १३. कालरात्री, १४. महारात्रि, १५ भद्रकाली, १६. कपर्दिनी, १७. विकृति, १८. दण्डिनी, १९. मुण्डिनी, २० सेन्दुखण्डा, २१. शिखण्डिनी, २२. निशुम्भशुम्भमथिनी, २३. महिषासुरमर्दिनी, २४ इन्द्राणी, २५ रुद्राणी, २६. शंकरार्धशरीरिणी, २७. नारी, २८. नारायणी, २९. त्रिशूलिनी, ३०. पालिनी, ३१. अम्बिका एवं ३२. हादिनी-ये ३२ शक्तियाँ है। ये शक्तियाँ चक्र धारण करने वाली हैं, उत्तम भूषणों से भूषित हैं, इनका मुख पिशाच जैसा भयानक है, और सभी पूजा के योग्य हैं।।३०-३४ ।।

पिङ्गलाक्षी विडालाक्षी समृद्धिर्वृद्धिरेव च ।

श्रद्धा स्वाहा स्वधाभिख्या मायासंज्ञा वसुन्धरा ॥ ३५ ॥

त्रिलोकधात्री सावित्री गायत्री त्रिदशेश्वरी ।

सुरूपा बहुरूपा च स्कन्दमाताऽच्युतप्रिया ॥ ३६ ॥

विमला चामला पश्चादरुणी पुनरारुणी ।

प्रकृतिर्विकृतिः सृष्टिः स्थितिः संहृतिरेव च ॥ ३७ ॥

सन्ध्या माता सती हंसी मर्दिका रञ्जिका परा ।

देवमाता भगवती देवकी कमलासना ॥ ३८ ॥

त्रिमुखी सप्तमुख्यन्या सुराऽसुरविमर्दिनी ।

लम्बोष्ठी चोर्ध्वकेशी च बहुशीर्षा वृकोदरी ॥ ३९ ॥

रथरेखाह्वया पश्चाच्छशिरेखा तथाऽपरा ।

गगनवेगा पवनवेगा च तदनन्तरम् ॥ ४० ॥

ततो भुवनपालाख्या ततः स्यान्मदनातुरा ।

अनङ्गाऽनङ्गमदना तथैवाऽनङ्गमेखला ॥ ४१ ॥

अनङ्गकुसुमा विश्वरूपाऽसुरभयङ्करी ।

अक्षोभ्यासत्यवादिन्यौ वज्ररूपा शुचिव्रता ॥ ४२ ॥

वरदाख्या च वागीशा चतुःषष्टिः समीरिताः ।

चापबाणधराः सर्वा ज्वालाजिहवा महाप्रभाः ॥ ४३ ॥

दंष्ट्रिण्योर्द्धवकेश्यस्ता युद्धोपक्रान्तमानसाः ।

सर्वाभरणसन्दीप्ताः पूजनीयाः प्रयत्नतः ॥ ४४ ॥

अब ऊपर कही गई ६४ शक्तियों का नाम कहता हूँ । १. पिङ्गलाक्षी, विडालाक्षी, समृद्धि, वृद्धि, श्रद्धा, स्वाहा, स्वधा, माया, वसुन्धरा, १०. त्रिलोक- धात्री, सावित्री, गायत्री, त्रिदशेश्वरी, सुरूपा, बहुरूपा, स्कन्दमाता, अच्युतप्रिया, विमला, २०. अमला, अरुणी, आरुणि, प्रकृति, विकृति, सृष्टि, स्थिति, संहृति, सन्ध्या, माता, ३०. सती, हंसी, मर्दिका, रञ्जिका, परा, देवमाता, भगवती, देवकी, कमलासना, त्रिमुखी, सप्तमुख्या ४०. सुरासुरविमर्दिनी, लम्बोष्ठी, ऊर्ध्वकेशी, बहुशीर्षा, वृकोदरी, रथरेखा, शशिरेखा, गगनवेगा, पवनवेगा, त्रिभुवन- पाला, ५०. मदनातुरा, अनङ्गा, अनङ्गमदना, अनङ्गमेखला, अनङ्गकुसुमा, विश्वरूपा, असुरभयंकरी, अक्षोभ्या, सत्यवादिनी, वज्ररूपा, शुचिव्रता, वरदा और वागीशा-ये ६४ शक्तियों के नाम हैं। ये सभी अपने हाथों में चाप बाण धारण की हुई हैं और सभी अपनी जिहवा से आग की वर्षा करती हैं। सब के दाँत बहुत बड़े हैं और केश ऊपर की ओर खड़े हैं, सभी युद्ध के लिये समुत्सुकमना हैं। ये सभी आभूषणों से जगमगा रही हैं। अतः साधक को प्रयत्नपूर्वक इनकी पूजा करनी चाहिए ॥ ३५-४४ ।।

लोकेशाः पूर्ववत् पूज्यास्तद्वद्वज्रादिकान्यपि ।

इत्थं यः पूजयेन्मन्त्री श्रीभूतलिपिदेवताम् ॥ ४५ ॥

श्रीवाण्योः स भवेद् भूमिर्देवैरप्यभिवन्द्यते ।

कमलैरयुतं हुत्वा राजानं वशमानयेत् ॥ ४६ ॥

इसी प्रकार लोकपालों का भी पूजन करे। पश्चात् वज्रादि आयुधों का पूजन करे जो मन्त्रज्ञ साधक इस प्रकार भूतलिपि के देवता का पूजन करता है वह लक्ष्मी तथा सरस्वती इन दोनों का भागी होता है और देवगण भी उसका अभिनन्दन करते हैं। दश हजार कमलों के हवन से मन्त्रवेत्ता साधक राजा को भी अपने वश में कर लेता है ।। ४५-४६ ।।

होमादिविधि:

उत्पलैर्जुहुयात् तद्वन्महालक्ष्मीः प्रजायते ।

पलाशकुसुमैर्हुत्वा वत्सरेण कविर्भवेत् ॥ ४७ ॥

राजीलवणहोमेन वनितां वशमानयेत् ।

मातृकोक्तानि कर्माणि कुर्यादत्रापि साधकः ॥ ४८ ॥

उत्पल के होम से महालक्ष्मी की अभिवृद्धि होती है । पलाश पुष्पों द्वारा होम करने से एक वर्ष में साधक कवि हो जाता है । राजी (राई) और नमक मिलाकर होम करने से चाहे कैसी भी स्त्री हो वह वश में हो जाती है। साधक मातृका में कहे गये कर्मों को इस भूतलिपि के प्रयोग में भी करे ।। ४७-४८ ।।

भूतलिप्या पुटीकृत्य यो मन्त्रं भजते नरः ।

क्रमोत्क्रमाच्छतावृत्या तस्य सिद्धो भवेन्मनुः ॥ ४९ ॥

जो साधक मनुष्य भूतलिपि से संपुटित किसी भी मन्त्र का जप बारी बारी से सौ आवृत्ति करता है वह मन्त्र उसे सिद्ध हो जाता है ।। ४९ ।।

सुषुप्तभुजगाकारां कुण्डलीं मध्यवर्त्मना ।

सङ्गमय परं स्थानं प्राणवित् तां परामृतैः ॥ ५० ॥

प्लावयेन्मूद्धिर्न मूलान्तं योगोऽयं सर्वसिद्धिदः ।

अनया न्यस्तदेहस्तु तेजसा भास्करो भवेत् ॥ ५१ ॥

योगी सोई हुई सर्पिणी के समान त्रिवेष्टित इस कुण्डलिनी शक्ति को सुषुम्ना मार्ग से ६ चक्रों का भेदन कर सहस्रार कमल वाले शिवचक्र में रहने वाले परामृत से संयुक्त कर उस परामृत से शिर से मूलाधार पर्यन्त स्थानों को सरावोर करे । यह योग समस्त सिद्धियों को देने वाला है। इससे न्यास करने वाला सूर्य के समान कान्तिमान् हो जाता है ।। ५०-५१ ।।

यन्त्रक्रिया विशेषांस्तु ज्ञात्वा कर्माणि साधयेत् ॥ ५२ ॥

साधक पञ्चमहाभूतों की यन्त्र क्रिया की विशेषताओं को जान कर तदनन्तर यन्त्र निर्माण रूप कार्य साधन करे ।। ५२ ।

वियद् यन्त्रम्

बिन्द्वाढ्यं गगनं तदेव शिवयुक् ज्ञानी चतुर्थ्या युतो

नत्यन्तो मनुरेष मध्यविहितः साध्यस्य बन्ध्वक्षरैः ।

पत्रेष्वक्षरशो हकारपुटितांस्तद्भूतवर्णान् लिखे-

च्छिष्टञ्चान्त्यदले विलिख्य मतिमान् वृत्तेन संवेष्टयेत् ॥ ५३ ॥

अब सर्वप्रथम वियद् यन्त्र का विधान कहते हैं- गगन (ह) उसे बिन्दु से युक्त कर उसे शिव (एकार) से युक्त करे । इस प्रकार 'हैं' निष्पन्न होता है। पुनः ज्ञानी के आगे चतुर्थी विभक्ति लगावे । इस प्रकार 'ज्ञानिने' निष्पन्न हुआ। तदनन्तर नमः पद लगावे। इस प्रकार 'हैं ज्ञानिने नमः' यह मन्त्र मध्य (कर्णिका) में साध्य के नाम तथा उसके अभिलषित अक्षरों के साथ लिखे । जैसे देवदत्त नाम वाला साधक विषग्रस्त है तो उसका विष उतारने के लिये 'देवदत्तस्य विषं हर हें ज्ञानिने नमः' इतना मध्य में लिखे । पुनः पत्र पर इस पटल में कहे गये आकाश भूत के अक्षरों को हकार से संपुटित कर लिखे । अष्टम पत्र पर आकाश भूत के दो वर्णों को हकार से संपुटित कर लिखे । पुनः उसे गोला बना कर घेर देवे ।। ५३ ।।

विययन्त्रमिदं प्रोक्तं लाक्षाचन्दननिर्मितम् ।

रोहिण्यामुदये राहोर्विषघ्नं सर्वशान्तिदम् ॥ ५४ ॥

यह वियद् यन्त्र की विधि कही गई। इसे लाक्षाचन्दन मिलाकर रोहिणी मुहूर्त के उदय काल अथवा राहु के उदयकाल में लिखे तो विष नष्ट करता है । यह मन्त्र सभी प्रकार की शान्ति प्रदान करता है ।

विमर्श - दिन का नवाँ भाग तथा रात्रि का अष्टमभाग रोहिणी मुहूर्त कहा गया है, इसी प्रकार प्रत्येक राशि में पञ्चभूत तथा नवग्रह का उदय होता है। वर्तमान राशि का आदि काल वायव्य माना गया उसी के उदयकाल में राहु का उदय माना गया है ।। ५४ ॥

वायव्ययन्त्रम्

यौ द्वौ साक्ष्यधरेन्दुखण्ड शिरसौ स्यातां क्रमात् ङेयुतं

कोपेशं नमसाऽन्वितं विरचयेन्मध्ये दलेष्वष्टसु ।

वायव्यान्यपुटान् विलिख्य विधिना शिष्टार्णमन्त्ये दले

यन्त्रं वायुगृहेण वेष्टितमिदं स्यात्तालपत्रे स्थितम् ॥ ५५ ॥

अब वायव्य यन्त्र के निर्माण का प्रकार कहते हैं-दो यवर्णों को इन्दु खण्ड (अनुस्वार) युक्त अक्षि (इकार) तथा अधर (एकार) से युक्त करें, इससे 'यि' 'यें' कोपेशाय नमः' यह चतुरक्षर हुआ। पुनः नमः पद लगावे । इस प्रकार 'यिं यें कोपेशाय नमः' मन्त्र का उद्धार कहा गया। यह यन्त्र के मध्य में साध्य अक्षरों से युक्त कर लिखे । तदनन्तर अष्टदल पर '' से संपुटित वायव्य वर्णों को लिखे । केवल आठवें पत्र पर '' से संपुटित शेष वर्ण को लिखे । पुनः उसे ६ बिन्दु युक्त वृत्त से आवेष्टित करे, तो यह वायव्य यन्त्र हो जाता है, इसे ताडपत्र पर लिखना चाहिए।।५५।।

स्वात्यां मन्दोदये यन्त्रं वायव्ये निखनेद् रिपोः ।

द्वार्युच्चाटनकृत् तस्य मृतिर्वा भवति ध्रुवम् ॥ ५६ ॥

स्वाती नक्षत्र में जिस समय शनैश्चर ग्रह का एवं जलभूत का उदय हो उस समय लिखकर शत्रु के द्वार पर गाड़ दे तो निश्चय ही उसका उच्चाटन तथा मरण हो जाता है ।। ५६ ।

आग्नेययन्त्रम्

वहनेर्बीजयुगं क्रमाच्छ्रवणसद्यार्द्धेन्दुयुक् स्यात् स्वरौ

रीः फट्हन्मनुरेष मध्यविहितः पत्रेषु वहन्युद्भवान् ।

वर्णान् वहिननिरोधितान् प्रविलिखेत् साध्याक्षरैः पोषकै-

रन्त्यश्चाऽन्त्यदले कृशानुपुरगं भूजदरे कल्पितम् ॥ ५७ ॥

अब आग्नेय यन्त्र के निर्माण की विधि कहते हैं-

अग्नि के दो बीज (दो रेफ) उसे क्रमश: बिन्दुयुक्त उ और ओ से युक्त करे । इस प्रकार 'रुं रों' दो वर्ण का उद्धार कहा गया । पुनः 'ह्रीं फट् नमः' पद जोड़ देवे। इस प्रकार 'यं रों ह्रीं फट् नमः' इस पद को कर्णिका में लिखे । अष्टदलों पर वहिनभूत वर्ण '' से संपुटित कर साध्य के रक्षा के अक्षरों से युक्त कर लिखे ('रं देवदत्तं महाग्रहाद् रक्ष रं' यह साध्य अक्षर के रक्षा का स्वरूप हुआ) अन्त्य दल पर वहिन मन्त्र (रं) से संपुटित अग्निभूत का अन्तिम अक्षर लिखे ॥ ५७ ॥

शुभवारर्क्षसंयोगे लाक्षाकुङ्कुमनिर्मितम् ।

रक्षाकृत् सर्वभूतानां यन्त्रमाग्नेयमीरितम् ॥ ५८ ॥

घातकाक्षरमिश्रं तत् कृत्तिकायां कुजोदये ।

चिताङ्गारेण तद्वस्त्रे लिखितं नाशयेद् रिपुम् ॥ ५९ ॥

इस यन्त्र को भूर्जपत्र पर लाक्षा कुंकुम मिलाकर शुभ नक्षत्र से युक्त शुभ वार में लिखे तो यह आग्नेय मन्त्र सभी प्राणियों की रक्षा करता है। यदि कृत्तिका नक्षत्र में जब मङ्गल ग्रह का एवं अग्नि भूत का उदय हो तब शत्रु के नाम से मिश्रित इस मन्त्र को चिता के कोयले से उसके वस्त्र पर लिखे तो अवश्य ही शत्रु का विनाश करता है ।। ५८-५९ ।।

वारुणयन्त्रम्

नासार्द्धेन्दुमदम्बु तन्मनुयुतं सार्द्धेन्दुडेंन्तो विधु-

र्विध्वन्ते तु भुवे नमो निगदितो मध्ये मनुर्वारुणान् ।

वर्णान् पत्रपुटेषु वाक्षरपुटान् साध्यस्य बन्ध्वक्षरै-

रालिख्याप्यपुरेण वेष्टितमिदं यन्त्रं भवेद् वारुणम् ॥ ६० ॥

अब वरुण यन्त्र के निर्माण का विधान कहते हैं-नासा (ऋ) अर्द्धेन्दु (अनुस्वार) उन दोनों से युक्त अम्बु (वकार) इस प्रकार 'वृं' यह प्रथम अक्षर का उद्धार कहा गया । उसी वकार को चतुर्दश स्वर औंकार से युक्त करे । इस प्रकार 'वौं' यह दूसरे अक्षर का उद्धार कहा गया। डेंन्त विधु शब्द (विधवे), पुनः भुवे नमः इस प्रकार वरुण मन्त्र का उद्धार कहा गया। स्वरूप वृं वौं विधवे भुवे नमः'

इस वारुण मन्त्र को कर्णिका में साध्य के अक्षरों के सहित लिखे। पश्चात् पत्रों पर वं से संपुटित वारुण अक्षरों को लिखे । पुनः पार्श्वद्वय स्थित दो वरुण अक्षरों को दो वं से संपुटित कर लिखे ॥ ६० ॥

भूर्जपत्रे लिखेदेतत् रक्तचन्दनवारिणा ।

वरुणर्श्वोदये काव्ये यन्त्रं वश्यादिकृद्भवेत् ॥ ६१॥

इस यन्त्र को लालचन्दन युक्त पानी से भोजपत्र पर जब शतभिषा नक्षत्र हो और शुक्र ग्रह के उदय का काल हो तब लिखना चाहिए। इस प्रकार लिखा हुआ यह वशीकरण होता है ।। ६१ ।।

पार्थिवयन्त्रम्

गण्डो बिन्दुविभूषितो वसुमती स्यात्तादृशी गण्डयो-

मध्यस्थौ तु जगौ लुके नतिरिमं मन्त्रं लिखेन्मध्यतः ।

लान्तान् लार्णपुटीकृतान् वसुमतीवर्णान् दलेष्वालिखेत्

सेवावर्णयुतान् यथाविधि भुवो गेहेन संवेष्टयेत् ॥ ६२ ॥

अब पार्थिव यन्त्र के निर्माण का प्रकार कहते हैं- बिन्दुभूषित गण्ड (लृं) तादृशी वसुमती (लं) । पुनः गण्ड शब्द के मध्य में जगौ यह वर्ण इस प्रकार गजगण्ड' इतना मन्त्राक्षर हुआ। पुनः 'लुके' तदनन्तर नमः लिखे ।

मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार हुआ - ' लृं लं गजगण्डलुके नमः'

इस मन्त्र को कर्णिका में लिखे । पुनः '' अक्षर से संपुटित लकारान्त पृथ्वी के (लं) अक्षरों को साध्याक्षर से युक्त कर पत्रों पर लिखे । यतः पार्थिव वर्ण ७ हैं अतः आठवें पत्र पर केवल लं लं लं लिखे । पुनः उसके चारों ओर लं लं लिख कर घेर देवे ।। ६२ ।

ज्येष्ठायामुदिते सौम्ये मृदि गैरिकनिर्मितम् ।

पार्थिवयन्त्रमचिरात् सर्वत्र स्तम्भकृद्भवेत् ॥ ६३ ॥

ज्येष्ठा नक्षत्र के मुहूर्त में जब भूमितत्त्व (बुध) का उदय हो तब इस मन्त्र को गैरिक से मृत्तिकापात्र में लिखे तो यह यन्त्र वायु, अग्नि, जल, शुक्र, खड्गधारा तथा सेनादि का स्तम्भन कर देता है ।। ६३ ।।

गुह्याद् गुह्यतरां नित्यां श्रीभूतलिपिदेवताम् ।

यः सेवते शुभैः पुत्रैर्धनधान्यैश्च पूर्यते ॥ ६४ ॥

जो अत्यन्त गोपनीय श्री भूतलिपि देवता का इस प्रकार नित्य सेवन करता है वह कल्याणकारी पुत्र एवं धन धान्यादि से परिपूर्ण हो जाता है ।। ६४ ।।

वागीश्वरीमन्त्रः

अद्रिर्वरुणसंरुद्धो दवाग्वादिनि ठद्वयम् ।

वागीश्वर्या दशार्णोऽयं मन्त्रो वाग्विभवप्रदः ॥ ६५ ॥

अब वाग्बीज के उद्धार का प्रकार कहते हैंयहाँ तक मातृका मन्त्रों को कहा गया । अब उसके भेदभूत सरस्वती मन्त्रों को कहने की इच्छा से दशाक्षर वाले वाग्वादिनी मन्त्र का उद्धार बतलाते हैं-अद्रि (दकार) उसे वकार से संपुटित (वदव) कर पश्चात् 'दवाग्वादिनि' तदनन्तर दो ठ (स्वाहा) का उच्चारण करे। इस प्रकार 'वदवदवाग्वादिनि स्वाहा' यह मन्त्र का स्वरूप हुआ। यह वागीश्वरी का दशाक्षर मन्त्र वाणी का ऐश्वर्य प्रदान करता है। इनके ध्यान का प्रकार गुरु परम्परा से जानना चाहिए ।। ६५ ।।

ऋष्यादिकथनम्

ऋषिः कण्वो विराट् छन्दो देवता वाक् समीरिता ।

शिरः श्रवणदृङ्नासावदनान्धुगुदेष्विमान् ।

न्यस्याऽर्णान् प्राग्वदङ्गानि मातृकोक्तानि कल्पयेत् ॥ ६६ ॥

इस मन्त्र के ऋषि कण्व हैं विराट् छन्द है तथा वाणी इसकी देवता हैं । शिर दो कान, दो नेत्र, दो नासा, मुख लिङ्ग और गुदा इन दस स्थानों में ऊपर कहे गये दशाक्षर वाग्बीज से न्यास करे। पुनः प्राग्वत् मातृकावर्णों से न्यास करे । यथा- 'अं कं खं गं घं ङं, आं हृदयाय नमः' आदि ।। ६६ ।।

वाग्देवताध्यानम्

तरुणशकलमिन्दोर्बिभ्रती शुभ्रकान्तिः

कुचभरनमिताङ्गी सन्निषणा सिताब्जे ।

निजकरकमलोद्यल्लेखनीपुस्तकश्रीः

सकलविभवसिद्ध्यै पातु वाग्देवता नः ॥ ६७ ॥

अब वाग्देवता का ध्यान कहते हैंजो अपने मस्तक में बालचन्द्र को धारण किये हुये शुभ कान्ति वाली कुचभार से विनम्र, श्वेत कमल पर बैठी हुई हैं जिनके दाहिने हाथ में लेखनी तथा बायें हाथ में पुस्तक शोभित है वह वाग्देवता संपूर्ण ऐश्वर्य की सिद्धि के लिये हमारी रक्षा करें ।। ६७ ।।

पुरश्चरणादिकथनम्

दशलक्षं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्ततः ।

पुण्डरीकैः पयोभ्यक्तैस्तिलैर्वा मधुराप्लुतैः ॥ ६८ ॥

ऊपर कहे गये सरस्वती मन्त्र का दश लाख जप करे । पश्चात् दुग्धमिश्रित पुण्डरीक (श्वेत कमल) से अथवा त्रिमधुर (आज्य, मधु और दुग्ध) से आप्लुत तिल से होम करे ।। ६८ ।।

मातृकोदीरिते पीठे वागीशीमर्चयेत् सुधीः ।

वर्णाब्जेनासनं दद्यान्मूर्त्तिं मूलेन कल्पयेत् ॥ ६९ ॥

बुद्धिमान् अर्चक मातृकाओं की पीठ पर वागीश्वरी का इस प्रकार अर्चन करे । वर्णरूप कमलों का आसन देवे तथा मूल मन्त्र से मूर्ति की कल्पना करे । आसन देने के लिये 'हसौ वाग्वादिनीयोगपीठाय नमः' इस प्रकार के मन्त्र का प्रयोग करे ।। ६९ ।।

आवरणपूजाविधानम्

आदावङ्गानि सम्पूज्य पश्चाच्छक्तीरिमा यजेत् ।

योगा सत्या च विमला ज्ञाना बुद्धिः स्मृतिः पुनः ॥ ७० ॥

मेधा प्रज्ञा च पत्रेषु मुद्रापुस्तकधारिणीः ।

दलाग्रेषु समभ्यर्च्य ब्राह्मयाद्यास्ता यथाविधि ॥ ७१ ॥

आवरणपूजा विधान- प्रथमावरण में अङ्गों की पूजा करे, दूसरे आवरण में दो दो स्वरों के क्रम से दो अष्टक स्वरों की, तृतीयावरण में अष्टवर्गों की, पुनः चतुर्थ आवरण में योगादि शक्तियों की पूजा करे। इन योगादि शक्तियों के नाम इस प्रकार हैं- योगा, सत्या, विमला, ज्ञाना, बुद्धि, स्मृति, मेधा तथा प्रज्ञा की पत्रों पर पूजा करे । ये सभी शक्तियाँ वर मुद्रा तथा पुस्तक धारण की हुई हैं तदनन्तर ब्रह्मा आदि शक्तियों की (द्र. ६, १७, १८) पत्राग्र में यथाविधि पूजा करे ।। ७०-७१ ।।

लोकपाला बहिः पूज्यास्तेषामस्त्राणि तद्बहिः ।

एवं सम्पूजयेन्मन्त्री जपहोमादितत्परः ॥ ७२ ॥

लोकपालों की उसके बहिर्भाग में पूजा करे । तदनन्तर उसके भी बहिर्भाग में लोकपालों के अस्त्रों की पूजा करे। जपहोम में निष्ठा रखने वाला मन्त्रज्ञ साधक इस प्रकार से आवरणों की पूजा करे ।। ७२ ।।

ब्रह्मचर्यरतः शुद्धः शुद्धदन्तनखादिकः ।

संस्मरन् सर्ववनिताः सततं देवताधिया ॥ ७३ ॥

वागीश्वरी की पूजा करने वाला मन्त्रज्ञ साधक ब्रह्मचारी रहे । वाणी, मन तथा शरीर से शुद्ध रहें, दाँत तथा नखादिकों को मल युक्त न रखे । समस्त स्त्रियों में देवी की भावना करे ।। ७३ ।।

कवित्वं लभते धीमान् मासैर्द्वादशभिर्ध्रुवम् ।

पीत्वा तन्मन्त्रितं तोयं सहस्रं प्रत्यहं जपेत् ॥ ७४ ॥

महाकविर्भवेन्मन्त्री वत्सरेण न संशयः ।

उरोमात्रे जले स्थित्वा ध्यायन्मार्त्तण्डमण्डले ॥ ७५ ॥

स्थितां देवीं प्रतिदिनं त्रिसहस्त्रं जपेन्मनुम् ।

लभते मण्डलात् सिद्धिं वाचामप्रतिमां भुवि ॥ ७६ ॥

बुद्धिमान् मन्त्रवेत्ता वागीश्वरी मन्त्र से अभिमन्त्रित जल बारह मास तक निरन्तर पान करे तो वह निश्चित रूप से कवित्व प्राप्त करता है। (इसकी विधि इस प्रकार है- सात बार जल को हाथ से ढक कर अभिमन्त्रित करे। पुनः सात बार में उसे पीवे ।) प्रतिदिन इस मन्त्र का सहस्र संख्याक जप करने वाला मन्त्र वेत्ता एक संवत्सर में महाकवि हो जाता है इसमें संशय नहीं है। (जंघा) मात्र जल में स्थित होकर मार्त्तण्ड मण्डल में स्थित हुई देवी का ध्यान कर प्रतिदिन, तीन हजार मन्त्र का जप करे तो इस पृथ्वी पर वह मण्डल (४९ दिन) संख्याक दिन में वाणी की अभूतपूर्व सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।। ७४-७६ ।।

पलाशबिल्वकुसुमैर्जुहुयान्मधुरोक्षितैः ।

समिद्भिर्वा तदुत्याभिर्यशः प्राप्नोति वाक्पतेः ॥ ७७ ॥

पलाश अथवा बिल्व के पुष्पों को त्रिमधुर (दुग्ध, घृत तथा मधु) में डुबो कर हवन करने से अथवा उनकी समिधाओं से नित्य होम करे तो वह वाचस्पति के यश को प्राप्त कर लेता है ॥ ७७ ॥

होमोऽयं सर्वसौभाग्यलक्ष्मीवश्यप्रदो भवेत् ।

राजवृक्षसमुद्भूतैः प्रसूनैर्मधुराप्लुतैः ॥ ७८ ॥

तत्समिद्भिश्च जुहुयात् कवित्वमतुलं लभेत् ।

एवं दशाक्षरी प्रोक्ता सिद्धये वाचमिच्छताम् ॥ ७९ ॥

इस प्रकार से किया गया होम सर्वसौभाग्य तथा लक्ष्मी प्रदान करता है और सबको वश्य करने वाला है । राजवृक्ष के पुष्पों को त्रिमधुर में आप्लुत कर उससे होम करे अथवा उसकी समिधाओं से होम करे तो अतुलनीय कवित्व शक्ति प्राप्त करता है । वाणी की सिद्धि चाहने वालों के लिये हमने इस प्रकार दशाक्षरी मन्त्र का विधान कहा ।। ७८-७९ ।।

मन्त्रान्तरम्

हृदयान्ते भगवति वदशब्दयुगं ततः ।

वाग्देवि वहिनजायान्तं वाग्भवाद्यं समुद्धरेत् ॥ ८० ॥

अब वागीश्वरी का अन्य मन्त्र कहते हैं- हृदयान्त (नमः), तदनन्तर 'भगवति', तदनन्तर दो बार वद शब्द (वद वद), पुन: 'वाग्देवि', तदनन्तर वहिनजाया (स्वाहा ) इन सभी के पहले वाग्भव (ऐं) लगाने पर वागीश्वरी मन्त्र का उद्धार कहा जाता है। इसका स्वरूप इस प्रकार है- 'ऐं नमो भगवति वद वद वाग्देवि स्वाहा' ॥ ८० ॥

मनुं षोडशवर्णाढ्यं वागैश्वर्यफलप्रदम् ।

मनोः षड्भिः पदैः कुर्यात् षडङ्गानि सजातिभिः ॥ ८१ ॥

वागीश्वरी का ऊपर कहा गया १६ अक्षरों वाला महामन्त्र वाणी का ऐश्वर्य प्रदान करता है। इस मन्त्र को ६ भागों में (१. ऐं, २. नमो, ३. भगवति, ४. वद वद, ५. वाग्देवि, ६. स्वाहा) विभक्त कर सजातीय 'शिरः' आदि स्थानों में न्यास करना चाहिए ।। ८१ ।।

वागीश्वरीध्यानम् । पुरश्चरणादिविधानम्

शुभ्रां स्वच्छविलेपमाल्यवसनां शीतांशुखण्डोज्ज्वलां

व्याख्यामक्षगुणं सुधाढ्यकलशं विद्याञ्च हस्ताम्बुजैः ।

बिभ्राणां कमलासनां कुचनतां वाग्देवतां सुस्मितां

वन्दे वाग्विभवप्रदां त्रिनयनां सौभाग्यसम्पत्करीम् ॥ ८२ ॥

अब वागीश्वरी के दूसरे मन्त्र का ध्यान कहते हैं-

शुभ वर्ण वाली जो वागीश्वरी देवि स्वच्छ विलेपन, स्वच्छ माल्य तथा स्वच्छ वस्त्र धारण की हुई हैं, जो चन्द्रिका की आभा के समान उज्ज्वल हैं, जिन्होंने अपने हाथों में कमल के समान व्याख्या की मुद्रा, जपमाला, सुधापूर्ण कलश और विद्या (पुस्तक) धारण किया है, कुच के भार से विनम्र, कमलासन पर विराजमान, मन्द मन्द हास से युक्त, वाणी रूपी ऐश्वर्य को प्रदान करने वाली, ऐसी त्रिनेत्र सरस्वती की मैं वन्दना करता हूँ, जो सौभाग्य तथा संपत्ति प्रदान करने वाली है ॥ ८२ ॥

हविष्याशी जपेत् सम्यक् वसुलक्षमनन्यधीः ।

दशांशं जुहुयादन्ते तिलैराज्यपरिप्लुतैः ॥ ८३ ॥

मातृकोक्ते यजेत् पीठे देवीं प्रागीरितक्रमात् ।

पिबेत्तन्मन्त्रितं तोयं प्रातः काले दिने दिने ॥ ८४ ॥

विद्वान् वत्सरतो मन्त्री भवेन्नास्ति विचारणा ।

अभिषिञ्चेज्जलैर्जप्तैरात्मानं स्नानकर्मणि ॥ ८५ ॥

तर्पयेत्तां जलैः शुद्धैरतिमेधामवाप्नुयात् ।

वागीश्वरी का उपासक हविष्य, भोजन करते हुये एकचित्त से इस मन्त्र का आठ लाख जप करे और अन्त में घी मिश्रित तिलों से उसका दशांश होम करे । पहले दशाक्षरी मन्त्र में कहे गये मातृकापीठ पर प्रतिदिन क्रमानुसार उनका पूजन करे और प्रतिदिन प्रातः काल वागीश्वरी मन्त्र से सात बार अभिमन्त्रित जल को सात बार में पीवे तो वह एक संवत्सर में विद्वान् हो जाता है, इसमें विचार की आवश्यकता नहीं। जो स्नान काल में उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित जल से अपने को अभिषिक्त करता है और प्रतिदिन शुद्ध जल से वागीश्वरी का तर्पण करता है, वह विशुद्ध मेधा प्राप्त करता है।।८३-८६।।

पुष्पगन्धादिकं सर्वं तज्जप्तं धारयेत् सुधीः ।

सभायां पूज्यते सद्भिवदि च विजयी भवेत् ॥ ८६ ॥

जो बुद्धिमान् साधक सात बार वागीश्वरी मन्त्र से अभिमन्त्रित पुष्प एवं गन्धादि धारण करता है, उसकी पूजा सज्जन लोग सभा के बीच में सर्वप्रथम करते हैं और वह शास्त्रार्थ में विजयी होता है ।। ८६ ।।

हंसवागीश्वरीमन्त्रः

तारो मायाऽधरो बिन्दुः शक्तिस्तारं सरस्वती ।

ङेऽन्ता नत्यन्तिको मन्त्रः प्रोक्त एकादशाक्षरः ॥ ८७ ॥

अब हंस वागीश्वरी मन्त्र के उद्धार का प्रकार कहते हैं-तार (प्रणव) माया (ह्रीँ), सबिन्दुक अधर (ऐं), तदनन्तर शक्ति (ह्रीं), पुनः '', तदनन्तर चतुर्थ्यन्त सरस्वती शब्द (सरस्वत्यै), तदनन्तर नमः पद । इस प्रकार ११ अक्षरों का हंसवागीश्वरी मन्त्र का उद्धार कहा गया ।

विमर्श - इसका स्वरूप इस प्रकार है- 'ॐ ह्रीं ऐं क्लीं ॐ सरस्वत्यै नमः' (११) ॥ ८७ ॥

ब्रह्मरन्ध्रे भ्रुवोर्मध्ये नवरन्ध्रेषु च क्रमात् ।

मन्त्रवर्णान् न्यसेन्मन्त्री वाग्भवेनाऽङ्गकल्पना ॥ ८८ ॥

ब्रह्मरन्ध्र में, भ्रूमध्य में तथा दो कान, दो नासा, मुख, लिङ्ग एवं गुदा में इस प्रकार ११ स्थानों में इस मन्त्र के एक एक अक्षर का न्यास करे ।। ८८ ।।

हंसवागीश्वरीध्यानम्

वाणीं पूर्णनिशाकरोज्ज्वलमुखीं कर्पूरकुन्दप्रभां

चन्द्रार्द्धाङ्कितमस्तकां निजकरैः संबिभ्रतीमादरात् ।

वीणामक्षगुणं सुधाढ्यकलशं विद्याञ्च तुङ्गस्तनीं

दिव्यैराभरणैर्विभूषिततनुं हंसाधिरूढां भजे ॥ ८९ ॥

जिनका मुख चन्द्र पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान उज्ज्वल है और शरीर की कान्ति कर्पूर तथा कुन्द के समान है। जिनके मस्तक पर अर्धचन्द्र विराज रहा है और जो अपने हाथों में आदरपूर्वक वीणा, माला, सुधापूर्ण कलश तथा विद्या (पुस्तक) धारण की हैं। जिनका स्तन उत्तुङ्ग है, जिनका शरीर दिव्य आभरणों से सुशोभित है ऐसी हंसाधिरूढ़ा सरस्वती की मैं सेवा करता हूँ ॥ ८९ ॥

जपपुरश्चरणादि कथनम्

जपेद् द्वादशलक्षाणि तत्सहस्त्रं सिताम्बुजैः ।

नागचम्पकपुष्पैर्वा जुहुयात् साधकोत्तमः ॥ ९० ॥

मातृकोक्ते यजेत् पीठे वक्ष्यमाणक्रमेण ताम् ।

साधक उपर्युक्त मन्त्र का १२ लाख जप करे तथा १२ हजार मन्त्रों से श्वेत कमल, अथवा नागचम्पक के पुष्पों से होम करे तथा आगे कही गई विधि के अनुसार मातृका पीठ पर यजन करे ।। ९०-९१ ॥

वर्णाब्जेनासनं कुर्यान्मूर्त्तिं मूलेन कल्पयेत् ॥ ९१ ॥

देव्या दक्षिणतः पूज्या संस्कृता वाङ्मयी ततः ।

प्राकृता वामतः पूज्या वाङ्मयी सर्वसिद्धिदा ॥ ९२ ॥

अब देवी के यजन का प्रकार कहते हैं— 'हसौ हंसः वागीश्वरी योगपीठाय नम:' इस मन्त्र से आसन प्रदान करे। पुनः मूल मन्त्र पढ़ कर उस पर वागीश्वरी की मूर्ति का आवाहन करे । वागीश्वरी के दक्षिणभाग में संस्कृता वाङ्मयी का और बायें भाग में प्राकृता वाङ्मयी का पूजन करे। क्योंकि ये दोनों वाङ्मयी देवता सम्पूर्ण सिद्धियों को देने वाली हैं ।। ९१-९२ ॥

इष्ट्वा पूर्ववदङ्गानि प्रज्ञाद्याः पूजयेत्ततः ।

प्रज्ञा मेधा श्रुतिः शक्तिः स्मृतिर्वागीश्वरी मतिः ॥ ९३ ॥

स्वस्तिश्चेति समाख्याता ब्रह्मयाद्यास्तदनन्तरम् ।

लोकेशानर्चयेद् भूयस्तदस्त्राणि च तद्द्बहिः ॥ ९४ ॥

इस प्रकार पूजन कर अङ्गादि आवरणों की, तदनन्तर प्रज्ञादि शक्तियों का पूजन करे । १. प्रज्ञा, २. मेधा, ३. श्रुति, ४. शक्ति, ५. स्मृति, ६. वागीश्वरी, ७. मति और ८. स्वस्तिये आठ प्रज्ञादि शक्तियाँ कही गई है। इसके बाद ब्राह्मी आदि (द्र. ६. १७-१८) की, तदनन्तर लोकेश्वरों की, उसके पश्चात् उसके बाहर उनके अस्त्रों की पूजा करे ।। ९३-९४ ।।

इति सम्पूजयेद्देवीं साक्षाद्वाग्वल्लभो भवेत् ।

दशाक्षरीसमुक्तानि कर्माण्यत्रापि साधयेत् ।

पूजनं पूर्ववत् कुर्यादत्रापि साधकोत्तमः ॥ ९५ ॥

इस प्रकार देवी का जो पूजन करता है वह साक्षात् सरस्वती का कृपापात्र बन जाता है । उत्तम साधक दशाक्षरी मन्त्र में कहे समस्त कर्म इस मन्त्र की सिद्धि के लिये किये जाने वाले जप काल में भी करे ।। ९५ ।।

हंसवागीश्वरीमन्त्रान्तरकथनम्

वाचस्पतेऽमृते भूयः प्लुवः प्लुरिति कीर्त्तयेत् ।

वागाद्यो मुनिभिः प्रोक्तो रुद्रसंख्याक्षरो मनुः ॥ ९६ ॥

अब वागीश्वरी का अन्य मन्त्र कहते हैं-वाणी का आद्य मन्त्र 'ऐं', पश्चात् 'वाचस्पते', तदनन्तर 'अमृते', पुन: 'प्लुवः प्लुः' यह एकादश अक्षर का अन्य वागीश्वरी मन्त्र है ।। ९६ ॥

कुर्यादङ्गानि विधिवद्वागाद्यैः पञ्चभिः पदैः ।

मातृकां विन्यसेत् पूर्वं पूर्ववत्तां यथाविधि ॥ ९७ ॥

इसमें वागादि 'ऐं' पुनः 'वाचस्पते' पुनः 'अमृते' पुनः 'प्लुवः' पुनः 'प्लुः' मन्त्र के इन पाँच पदों द्वारा हृदयादि न्यास करे । तदनन्तर पूर्ववत् विधानानुसार मातृकाओं का न्यास करे ।। ९७ ।।

आसीना कमले करैर्जपवटीं पद्मद्वयं पुस्तकं

बिभ्राणा तरुणेन्दुबद्धमुकुटा मुक्तेन्दुकुन्दप्रभा ।

भालोन्मीलितलोचना कुचभराक्रान्ता भवद्भूतये

भूयाद् वागधिदेवता मुनिगणैरसेव्यमानाऽनिशम् ॥ ९८ ॥

तदनन्तर वागधिदेवता का ध्यान इस प्रकार करेजो कमलासन पर विराजमान हैं, अपने हाथों में जपमाला, दो पद्म तथा पुस्तक धारण की हैं । जिनके मस्तक में पूर्णचन्द्र का मुकुट शोभित हो रहा है। जिनके शरीर की कान्ति मोती, चन्द्रमा और कुन्द के समान है, जिनके भाल के तृतीय नेत्र खुले हुये हैं जो कुचभार से आक्रान्त हैं, ऐसी मुनिगणों से आसेव्यमान वागधिदेवता आपका कल्याण करें ।। ९८ ।।

रुद्रलक्षं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयाद् घृतैः ।

मातृकाकल्पिते पीठे पूजयेत्तां यथा पुरा ॥ ९९ ॥

उपर्युक्त मन्त्र का ११ लाख जप करे। दशांश से घृत द्वारा होम करे । पुनः एकादशाक्षरी में कही गई विधि के अनुसार मातृका कल्पित पीठ पर वागीश्वरी का पूजन करे ।। ९९ ।।

पलाशकुसुमैर्हुत्वा परां सिद्धिमवाप्नुयात् ।

कदम्बकुसुमैस्तद्वत् फलैः श्रीवृक्षसम्भवैः ॥ १०० ॥

अचिराच्छ्रियमाप्नोति वाचां कुन्दसमुद्भवैः ।

नन्द्यावर्त्तप्रसूनैर्वा हुत्वा वाग्वल्लभो भवेत् ॥ १०१ ॥

पलाश कुसुम द्वारा होम करने से सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है। इसी प्रकार कदम्ब के पुष्पों से अथवा श्री बिल्व वृक्ष के फलों से भी होम करने से शीघ्र ही वाणी का ऐश्वर्य प्राप्त होता है । कुन्द कसुमों के होम से अथवा नन्द्यावर्त्त (गन्धतगर) के फूलों से होम करने से साधक सरस्वती का प्रिय पात्र होता है ।। १००-१०१ ॥

ब्राह्मीघृतगुणकथनम्

ब्राह्मीरसे वचाकल्के कपिलाज्यं पचेज्जपन् ।

पिबेद्दिनादौ तन्नित्यं सर्वशास्त्रार्थविद्भवेत् ॥ १०२ ॥

बचा के चूर्ण और ब्राह्मीरस में कपिला गौ का घृत इस मन्त्र को जपते हुये पकावे । घृत का अष्टमांश कल्क, तथा घृत का चौगुना ब्राह्मी रस होना चाहिए । इस प्रकार इस महामन्त्र से जपे गये उक्त पाक को सात दिन पर्यन्त प्रातः काल पान करे तो वह संपूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता हो जाता है ।। १०२ ।।

अनया विद्यया जप्तं ब्राह्मीपत्रं प्रभक्षयेत् ।

न विस्मरति मेधावी श्रुतान् वेदागमान् पुनः ।

बहुना किमियं विद्या जपतां कामदो मणिः ॥ १०३ ॥

मेधावी साधक इस महामन्त्र को जपते हुये ब्राह्मीपत्र का भक्षण करे तो वह एक बार सुने हुये वेद एवं आगम शास्त्रों को कभी नहीं भूलता। इस विषय में बहुत अधिक क्या कहें यह मन्त्र जप करने वालों की कामनापूर्ण करने के लिये चिन्तामणि के समान हैं ।। १०३ ।।

वागीश्वरीमन्त्रान्तरकथनम्

तोयस्थं शयनं विष्णोः सकेवलचतुर्मुखः ।

बिन्द्वाशयुतो वनिर्बिन्दुसद्योऽम्बुमान् भृगुः ॥ १०४ ॥

विष्णु का शयन अनन्त (आकार), तोयस्थ (वकार) इस प्रकार 'वा' सकेवलश्चतुर्मुखः, चतुर्मुख (ककार) वह केवलमात्र (स्वर रहित) इससे वाक्मन्त्र का प्रथम अक्षर बिन्दु (अनुस्वार) अर्धीश (उ) उससे युक्त वह्नि (ॐ) तदनन्तर बिन्दु (अनुस्वार) सद्यो (ओङ्कार), उससे युक्त अम्बुमान् (वकार), पुनः भृगुः (सकार) यह एक अन्य प्रकार का सारस्वत मन्त्र है ।। १०४ ।

उक्तानि त्रीणि बीजानि सद्भिः सारस्वतार्थिनाम् ।

अङ्गानि कल्पयेद् बीजैर्द्विरुक्तैर्जातिसंयुतैः ॥ १०५ ॥

विद्वानों ने सरस्वती की प्राप्ति के लिये ऊपर तीनों बीज कहे हैं। इन तीनों बीजों को दो बार उच्चारण कर अङ्ग की कल्पना कर साधक को हृदयादि न्यास करना चाहिए ।। १०५ ।।

आयुधध्यानम्

मुक्ताहारावदातां शिरसि शशिकलालङ्कृतां बाहुभिः स्वै-

व्र्व्याख्यां वर्णाक्षमालां मणिमयकलशं पुस्तकञ्चोद्वहन्तीम् ।

आपीनोत्तुङ्गवक्षोरुह भरविनमन्मध्यदेशामधीशां

वाचामीडे चिराय त्रिभुवननमितां पुण्डरीके निषण्णाम् ॥ १०६ ॥

अब वागीशी एवं उनके आयुध का ध्यान कहते हैं- जो मुक्ताहार धारण करने से सर्वथा शुभ हैं, शिर पर शशिकला धारण की हैं और अपने बाहुओं में व्याख्या मुद्रा, 'वर्णमय' अक्षमाला, मणिमयकलश तथा पुस्तक धारण की हैं, अत्यन्त स्थूल और उत्तुङ्ग स्तनों के भार से जिनका मध्यदेश नीचे की ओर झुका हुआ है, ऐसी श्वेत कमल पर विराजमान, त्रिभुवन से प्रणम्य वाणी की अधीश्वरी को मैं बहुकालपर्यन्त स्तुति द्वारा प्रसन्न कर रहा हूँ ॥ १०६ ॥

पुरश्चरणादिकथनम्

त्रिलक्षं प्रजपेन्मन्त्रं जुहुयात्तद्दशांशतः।

पायसेनाज्यसिक्तेन संस्कृते हव्यवाहने ॥ १०७ ॥

ऊपर कहे गये मन्त्र का तीन लाख जप करे । उसके दशांश संख्या में घृतविमिश्रित खीर से सुसंस्कृत अग्नि में हवन करे ।। १०७ ॥

वागीशीं पूजयेत् पीठे विधिना मातृकोदिते ।

प्राक् प्रस्तुतेन मार्गेण प्रत्यहं साधकोत्तमः ॥ १०८ ॥

आगे वर्णित पुष्पगन्धादि द्रव्यों द्वारा एवं एकादशाक्षरी मन्त्र में कही गई विधि के अनुसार मातृकामय पीठ में वागीशी की प्रतिदिन पूजा करे ।। १०८ ।।

व्याघातकुसुमैर्हृत्वा वाक्सिद्धिमतुलां लभेत् ।

जातिपुष्पैः सिताम्भोजैः सिक्तैश्चन्दनवारिणा ॥ १०९ ॥

नन्द्यावर्तैः शुभैः कुन्दैर्हुत्वा वाक्सिद्धिमाप्नुयात् ।

जपन् बीजत्रयं मन्त्री सभायां जयमाप्नुयात् ॥ ११० ॥

सितां वचां वा ब्राह्मीं वा जप्तां खादेद्दिने दिने ।

मेधां काममवाप्नोति साधको नात्र संशयः ॥ १११ ॥

व्याघात (राजवृक्ष) के पुष्प से होम करने से अतुलनीय वाक्सिद्धि प्राप्त होती है । घिसे हुये चन्दन में डुबोये गये जाति पुष्प से अथवा श्वेत कमल से अथवा गन्धतगर अथवा सुगन्धित कुन्द पुष्पों से हवन करने वाला साधक वाक् सिद्धि प्राप्त करता है। ऊपर कहे गये तीन बीजाक्षरों वाले इस मन्त्र का जप करने वाला साधक सभा में विजयी होता है। प्रतिदिन जप की गई श्वेत वचा अथवा ब्राह्मी को खाए तो साधक अत्यन्त मेधा प्राप्त करता है, इसमें कदाचित् संशय नहीं है ।। १०९-१११ ॥

एवमुक्तेषु मन्त्रेषु दीक्षितो यतमानसः ।

एवं यो भजते भक्त्या स भवेद्भुक्तिमुक्तिभाक् ॥ ११२ ॥

इस प्रकार ऊपर कहे गये समस्त सारस्वत मन्त्रों में किसी एक मन्त्र की दीक्षा से दीक्षित साधक एकाग्रचित्त हो गुरु परम्परा से प्राप्त मन्त्र का भक्तिपूर्वक जप करे और आगे कहे जाने वाले नियमों का पालन करे तो वह भुक्ति एवं मुक्ति का भाजन हो जाता है ।। ११२ ।।

सारस्वतसमयानाह

सुसितैर्गन्धकुसुमैः पूजा सारस्वते विधौ ।

दूर्वा बीजाङ्कुरं पुष्पं राजवृक्षसमुद्भवम् ॥ ११३ ॥

उत्पलानि प्रशस्तानि सिन्धुवाराङ्कुराणि च ।

समस्त सारस्वत उपासना की विधि में श्वेत सुगन्ध युक्त पुष्प, दूर्वा, यवांकुर, राजवृक्ष का पुष्प, उत्पल (लालकमल) निर्गुण्डी का अंकुर प्रशस्त माना गया है ।। ११३- ११४ ।।

भजन् सरस्वतीं नित्यमेतानि परिवर्जयेत् ॥ ११४ ॥

आम्रातं गृञ्जनं बिल्वं करञ्जं लशुनन्तथा ।

तैलं पलाण्डु पिण्याकं शार्गाष्टमपि भोजने ॥ ११५ ॥

अब सारस्वत मन्त्र का उपासक जिन जिन वस्तुओं को प्रतिदिन वर्जन करे उसे कहता हूँ आम्रात, गाजर, विल्व, करञ्ज, लशुन, तैल, पियाज, पिण्याक, सिङ्घाडा भोजन में इन वस्तुओं का त्याग करे ।। ११४-११५ ।।

सर्वं पर्युषितं त्याज्यं सदा सारस्वतार्थिना ।

नाचरेन्निशि ताम्बूलं स्त्रियं गच्छेद्दिवा न च ॥ ११६ ॥

इसी प्रकार सरस्वती चाहने वाला साधक सभी प्रकार के पर्युषित (बासी) चाहे घृतपक्व भी हो तो भी ऐसे अन्न का भोजन त्याग देवे। रात को ताम्बूल न खावे तथा दिन में स्त्री के साथ सहवास न करे ॥ ११६ ॥

न सन्ध्ययोः स्वपेज्जातु नाशुचिः किञ्चिदुच्चरेत् ।

प्रदोषेषु भवेन्मौनी दिग्वस्त्रां न विलोकयेत् ॥ ११७ ॥

न पुष्पितां स्त्रियं गच्छेन्न निन्देद्वामलोचनाम् ।

न मृषा वचनं ब्रूयान्नाक्रामेत् पुस्तकं सुधीः ॥ ११८ ॥

भूलकर कभी भी दोनों संध्या में शयन न करे। अपवित्र होकर किसी शब्द का उच्चारण न करे । प्रदोष काल में मौन धारण करे और नङ्गी स्त्री की ओर दृष्टिपात न करे, चाहे अपनी भी स्त्री क्यों न हो। रजस्वला स्त्री के साथ सहवास न करे और न स्त्री जाति की निन्दा करे। कभी झूठ न बोले तथा पुस्तक को कभी न लाँघे ।।११७-११८।।

अक्षराढ्यानि पत्राणि नोपेक्षेत न लङ्घयेत् ।

चतुर्दश्यष्टमी पर्व प्रतिपदग्रहणेषु च ॥ ११९ ॥

संक्रमेषु च सर्वेषु विद्यां नैव पठेद् बुधः ।

व्याख्याने सन्त्यजेन्निद्रामालस्यं जृम्भनं पुनः ॥ १२० ॥

अक्षर युक्त पन्नों की उपेक्षा न करे और न तो उनका उल्लङ्घन करे । चतुर्दशी, अष्टमी पर्व तिथियों (अमावास्या, पूर्णिमा, अष्टमी) में, प्रतिपदा में, ग्रहण में सभी संक्रान्तियों में विद्याध्ययन न करे। ग्रन्थ के व्याख्या काल में (पढ़ाने अथवा लिखने की स्थिति में) साधक को निद्रा, आलस्य और जंभाई त्याग देना चाहिए ।। ११९-१२० ॥

क्रोधं निष्ठीवनं तद्वन्नीचाङ्गस्पर्शनन्तथा ।

मनुष्यसर्पमार्जारमण्डूकनकुलादयः ॥ १२१ ॥

अन्तरा यदि गच्छेयुस्तदा व्याख्यां परित्यजेत् ।

निशासु दीपभ्रंशे च सद्यः पाठं परित्यजेत् ॥ १२२ ॥

इसी प्रकार साधक को क्रोध, थूकना, अपनी नाभि से नीचे के शरीर का स्पर्श त्याग देना चाहिए । मनुष्य, सर्प, विडाल, मण्डूक (मेढक) और नकुल, बीच में आ जाँय तो अध्यापन बन्द देवे। रात्रि काल में जब दीया बुझ जावे तो पाठ बन्द कर देवे ।। १२१-१२२ ।।

ज्ञात्वा दोषानिमान् सम्यक् भक्त्या यो भारतीं भजेत् ।

वाचां सिद्धिमवाप्नोति वाचस्पतिरिवापरः ॥ १२३ ॥

इन दोषों को भलीभाँति जान कर जो साधक सरस्वती की उपासना करता है वह वाणी की सिद्धि प्राप्त कर साक्षाद् वाचस्पति हो जाता है ।। १२३ ।।

॥ श्रीं ह्रीं ॥

॥ इति श्रीराघव भट्टविरचित शारदातिलकटीकायां सत्सम्प्रदायकृतव्याख्यायां पदार्थादर्शाभिख्यायां सप्तमः पटलः ॥७॥

॥ इस प्रकार शारदातिलक के सातवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ७ ॥

आगे जारी........ शारदातिलक पटल 8

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