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योगिनीतन्त्र पटल १२

योगिनीतन्त्र पटल १२      

योगिनीतन्त्र पटल १२ में मन्त्रसिद्धिप्रतिबन्धक प्रश्न के उत्तर में नरकासुर की कथा, वसिष्ठजी और कामाख्या का आख्यान है।

योगिनीतन्त्र पटल १२

योगिनीतन्त्र पटल १२       

Yogini tantra patal 12

योगिनीतन्त्रम् द्वादशः पटलः

योगिनी तन्त्र द्वादश पटल

योगिनी तंत्र बारहवां पटल 

योगिनीतन्त्रम्

श्रीदेव्युवाच ।

भोः स्वामिन्परमानन्द योगिनामभयप्रद ।

कामाख्यायोनिमाहात्म्यं यदुक्तं मे त्वया शिव ॥१॥

श्रीदेवीजी ने कहा- भोः स्वामिन्! जो परमानन्दविग्रह ! योगीयों का अभयदेनेवाले शिव ! आपने जो कामाख्यादेवी की योनी का माहात्म्य वर्णन किया ॥ १ ॥

सत्यं सत्यं न सन्देहो ह्याश्वर्यं सर्वमेव हि ।

तत्वेन तन्मया ज्ञातं कलौ किं न सुसिद्धिदम् ॥२॥

वह सत्य और परमाश्वर्ययुक्त है, उसका तत्त्व वास्तव में मुझे अवगत हो गया । हे करुणामय ! कलियुग में किस कारण वह सिद्धि दायक नहीं होता ॥ २ ॥

न पश्याम शिवज्ञानं मन्त्रसिद्धिस्तथैव च ।

किमेतत्कारणं नाथ वद मे करुणामय ॥ ३ ॥

एक काल में शिव ज्ञान और मंत्रसिद्धि यह दोनों क्यों दिखाई नहीं दे सकते ? हे नाथ ! इसका कारण वर्णन करके मुझको कृतार्थ कीजिये ॥ ३ ॥

ईश्वर उवाच ।

नरकासुरनामा तु विष्णुवीर्यसमुद्भवः ।

पृथिवीगर्भसम्भूतो दानवानामधीश्वरः ॥ ४ ॥

तस्मै विष्णुदौ राज्यं कामरूपं महाफलम् ।

पृथिवीवचनात्सोऽपि दानवो युद्धदुर्द्धरः ॥ ५ ॥

ईश्वर ने कहा- हे देवि ! पृथ्वी के गर्भ से उत्पन्न विष्णुवीर्यप्रादुर्भूत नरकासुर नामक एक दानव था, विष्णु ने उसको महाफल युक्त कामरूप राज्य प्रदान किया । पृथ्वी के वचन से युद्धदुर्द्धर वह दानव ॥ ४-५ ॥

किरातैर्घटितं जित्वा रणे कामनृपोऽभवत् ।

पुनश्च भगवांस्तस्मै निवासाय ददौ मुदा ॥ ६॥

किरात के युद्ध में जय लाभ करके नृपतिश्रेष्ठ हुआ था, फिर भगवान् विष्णु ने प्रसन्न होकर उसको वास करने के निमित्त ॥ ६ ॥

प्राग्ज्योतिषपुरं ख्यातं कामाख्यायोनिमण्डलम् ।

राज्ञे प्राप्ताभिषेकाय विष्णुः शक्तिं ददावपि ॥ ७ ॥

प्रग्ज्योतिषपुर नामसे विख्यात कामाख्या योनिमण्डल प्रदान किया । उसमें अभिषिक्त हो जाने पर विष्णु ने उस राजा की शक्ति दी ॥ ७ ॥

ततस्तु दर्शयामास मनोभवगुहां हरिः ॥

सुनातं नरकं तद्वद्विधेयामास वै तदा ॥ ८ ॥

अनन्तर हरि ने उसको मनोभवगुहा दिखाई, नरकासुर उसमें स्नान करके पापरहित हुआ ॥ ८ ॥

कामाख्यायाश्च माहात्म्यं सर्ववेदार्थसम्मतम् ।

ब्रह्मत्वं ब्रह्मणा प्राप्तं विष्णुत्वं च मया पुनः ॥ ९ ॥

शिवत्वं च शिवेनैव कामाख्यायाः प्रसादतः ।

पूजनीया योनिरियं यत्नात्सर्वात्मभिस्त्वमुम् ॥ १०॥

विष्णु ने कहा- कामाख्या का माहात्म्य सर्ववेदार्थसम्मत है। कामाख्या के प्रसाद से ब्रह्मा ब्रह्मत्व विष्णु विष्णुत्व और शिव शिवत्व को प्राप्त हुए हैं, अतएव सार्वत्मा में सर्व प्रयत्न से योनिपूजा करनी चाहिये ॥९-१०॥

यदा ते सुमुखी माता तदा ते सर्वसम्पदः ।

यदा ते विमुखी माता तदा ते न शुभं ध्रुवम् ॥ ११ ॥

जब कामाख्या माता तुम्हारे प्रति प्रसन्न होकर सुमुखी हों, तब तुमको संपत्तिलाभ और जब वह विमुखी हों तब अपना अमंगल जानना इसमें सन्देह नहीं ॥ ११ ॥

तदैवाहं च त्यक्ष्यामि पुत्रत्वं वेद्रयहं पुनः ॥

इति ज्ञात्वा पूजयस्व विशेषेण वदामि किम् ॥ १२ ॥

तब मैं भी त्याग करूंगा, मैं समस्त ही पुत्रभाव को अवगत हूं, यह जानकर उनकी पूजा कर अधिक और क्या कहूं ॥१२॥

ईश्वर उवाच ।

इत्युक्त्वा स ययौ विष्णुर्वैकुण्ठं स्वं निकेतनम् ।

नरकः पालयामास विष्णूक्तं यद्यदेव हि ॥ १३ ॥

ईश्वर बोले- वह विष्णुदेव यह कहकर अपने स्थान वैकुण्ठपुर में चले गये विष्णु ने जिस प्रकार आज्ञा दी नरकासुर वह सब प्रतिपालन करने लगा ॥ १३ ॥

एतस्मिन्नन्तरे देवि वृत्तान्तं शृणु दारुणम् ॥ १४॥

हे देवि ! इसी समय में एक दारुण दुर्घटना उपस्थित हुई वह सुनो ॥१४॥

ब्रह्मणो मानसः पुत्रो वसिष्ठोऽतीव सद्यतिः ।

तारामाराधयामास तदा नीलाचले मुनिः ॥ १५ ॥

ब्रह्मा के मानसपुत्र वसिष्ठजी अतिशय यती हैं, वह मुनि उस नीलांचल के ऊपर तारा की आराधना करने के लिये आये ॥ १५ ॥

तत्रैवैकदिने देवि यजितुं स सुरेश्वरीम् ।

कामाख्यामण्डले तारां पुरद्वारे समागतः ।

तत्र तं वारयामास नरको ब्रह्मसम्भवम् ॥ १६ ॥

हे देवि ! एक दिन वही मुनि उस कामाख्या मण्डल में सुरेश्वरी तारा की पूजा करने के निमित्त पुरद्वार में उपस्थित हुए, वहां नरकासुर ने उन ब्रह्म- संभव मुनिवर को निवारण किया, अर्थात् रोका ॥ १६ ॥

नरक उवाच ।

इदानीं तिष्ठ विप्र त्वं नायाहि मण्डलान्तरे ।

एषा हि पूज्यते देवी पूजान्ते त्वं गमिष्यसि १७ ॥

नरक ने कहा- हे विप्र ! तुम इसी स्थान में ठहरो, मण्डल के भीतर मत आना, यह देखो हम देवी की पूजा करते हैं पूजा के पीछे तुम आना ॥ १७॥

इत्युदीरितमाकर्ण्य नरकस्य मुनीश्वरः ।

द्वादशादित्यसङ्काशो बभूव क्रोधमूर्च्छितः ।

उवाच नरकं विप्रो वसिष्ठस्ताम्रलोचनः ॥ १८ ॥

मुनीश्वर नर के इस प्रकार वचन सुनकर क्रोध से बारह सूर्य के समान जाज्वल्यमान हुए और लाल नेत्र करके नरकासुर से कहने लगे ॥ १८ ॥

वसिष्ठ उवाच ।

रे पापिष्ठ किमुक्तन्ते ह्ययोग्योऽहं सुदुर्मते ।

कामाख्यापूजने काले मालभम गृहान्तरे ॥ १९ ॥

वसिष्ठजी बोले- रे पापिष्ठ ! तैंने क्या कहा ? रे दुर्मते ! मैं अयोग्य हूं, कामाख्या के पूजन को मैं यथासमय गृहान्तर में नहीं जा सकता ॥ १९॥

गन्तुं योन्यन्तरे मूढ भूत्वापि ब्रह्मसम्भवः ।

इदानीं पश्य वी मे तव नाशकरं महत् ॥ २० ॥

इत्युक्त्वा च वसिष्ठोऽसौ जग्राह पाणिना जलम् ।

कमण्डलोर्महादेवीं शशाप दारुणं मुनिः ॥ २१ ॥

रे मूढ ! मैं ब्रह्मनन्दन ऋषि होकर अन्ययोनि में पूजा के लिये नहीं जा सकता । अब तू मेरा वीर्य देख । यह महत् वीर्य अवश्य ही तेरा विनाश साधन करेगा। यह कहकर महर्षि वसिष्ठजी ने कमण्डलु से कर द्वारा जल ग्रहण करके महादेवी को दारुण शाप दिया ॥ २०- २१ ॥

विसिष्ठ उवाज ।

अहञ्च ब्राह्मणो मातः कामाख्यो ब्रह्मसम्भवः ।

हित्वा त्वां हि व्रजाम्यद्यान्यथाचेत्क्रियते त्वया ।

ब्रह्मवधोद्भवं पापं सत्यं तेऽद्य भविष्यति ॥ २२ ॥

एवमत्र महापीठे जपनात्पूजनादपि ।

सिद्धिर्न जायते कर्हि काले मद्वचनात्पुनः ॥ २३ ॥

वसिष्ठ ने कहा- हे मतः कामाख्ये ! मैं ब्राह्मण और ब्रह्मा का पुत्र हूं, मैं तुमको त्याग कर जाता हूं, तुमने मेरी पूजा का अन्यथा ( परित्याग ) किया, अत एव अब तुमको ब्रह्मवध का पाप होगा और मेरे वचन से इस महापीठ में जप और पूजा करने पर किसी समय भी वह सिद्धि नहीं होगी ॥ २२-२३ ॥

ईश्वर उवाच ।

दत्त्वेमं दारुणं शापं त्यक्त्वा तज्जलमुत्तमम् ।

नीलाचलं परित्यज्य गतोऽसौ खाण्डवं गिरिम् ॥ २४॥

ईश्वर ने कहा- वह मुनि यह दारुण शाप दे, उस पुण्यजल को छोड खाण्डव गिरि में चले गये ॥ २४ ॥

ततः सा परमा विद्या कामाख्या विश्ववन्दिता ।

महाज्योतिर्मयी देवी सर्वप्रकाशरूपिणी ॥ २५ ॥

ताप्यत्यऽहर्निशं देवि सर्वे हि स्वाङ्गतेजसा ।

तत्क्षणात्परिसंदह्य गता कैलासमन्दिरम् ॥ २६ ॥

तदनन्तर वह विश्ववंदिता, महाज्योतिर्मयी, सर्वप्रकाशरूपिणी परमाबिद्या कामाख्या अपने अंग के तेज से निरन्तर प्रदीप्त हुई और तत्काल उस तेज से दग्ध होकर कैलास मंदिर में गई ॥ २५- २६ ॥

तदैव परमेशानि मनोभवगुहा पुनः ।

महान्धकारपटलेरावृता तद्वियोगतः ॥ २७ ॥

हे परमेशानि देवि ! उनके वियोग से वह मनोभवगुहा अन्धकार मण्डल से ढक गई ॥ २७ ॥

हाहाकारं सर्वलोके मूच्छितो दानवेश्वरः ॥

ततस्तां परमां मायां विषण्णवदनां पुनः ॥ २८ ॥

दृष्ट्वाहं परिपप्रच्छ कामाख्यां परिसादरम् ॥

कथं शिवे समायाता त्यक्त्वा तद्योनिमण्डलम् ॥२९॥

सर्वलोक हाहाकार करने लगे और वह दानवेश्वर मूर्छित हो गया । तदनन्तर मैंने उन परमा माया कामाख्या देवी को दुःखित मन देखकर आदरपूर्वक पूँछा - हे शिवे ! तुम वह योनिमण्डल त्यागकर क्यों आई हो ॥ २८-२९ ॥

विषण्णवदना भूत्वा कामाख्ये वद कारणम् ॥

त्वं देवि परमाराध्या स्थीयतां मे हृदि त्वयम् ॥

सर्व प्रतिकरोम्येव विषण्णवदने कथम् ॥ ३० ॥

हे कामाख्ये देवि! तुम्हारा मुख मण्डल दुःखित देखता हूँ, इसका कारण प्रकाश करो । हे देवि ! तुम परमाराध्या हो, तुम मेरे हृदय में अवस्थान करो, तुम दुःखित मन क्यों हुई हो, मैं सबका ही प्रतीकार करता हूँ ॥ ३० ॥

कामाख्योवाच ।

वसिष्ठो ब्राह्मणः पुत्रस्तारामाराधितुं मुनिः ।

मद्योनिमण्डले नाथ द्वारं मे समुपागतः ॥ ३१ ॥

कामाख्या ने कहा- हे नाथ ! ब्रह्मा के पुत्र वशिष्ठ तारा की आराधना के लिये मेरे योनिमण्डल में आये थे ॥ ३१ ॥

प्रातस्तस्मिन्ब्राह्मणो मां जयते मानवेश्वरः ।

द्वारपालोऽभवद्राजा यावन्मे पूजनं भवेत् ।

तावत्कोऽपि न क्षमो हि गन्तुं मद्योनिमण्डलम् ॥ ३२॥

एवं नित्यं नियमितं नरकेणासुरण च ।

ततस्तं वारयामास नरको ब्रह्मनन्दनम् ॥ ३३ ॥

प्रातःकाल में ब्राह्मण मेरी पूजा करने को आया, तब मेरे योनिमण्डल में कोई भी जाने को समर्थ नहीं होता, जबतक मेरी पूजा होती है, तबतक राजा नरकासुर द्वारपाल के रूप से स्थित रहता है। नरकासुर ने इस प्रकार नित्य नियम कर रक्खा है, नरकासुर ने उन आये हुए ब्रह्मनन्दन ऋषि को निवारण किय था ॥ ३२-३३ ॥

ततस्तेनैव मुनिना शापो दत्तः सुदारुणः ।

शापं शृणु महादेव कथने रोदनं मम ॥ ३४ ॥

इसी कारण उन मुनि ने दारुण शाप दिया है' हे महादेव ! कहते मुझको रोना आता है, तुम मेरा शाप सुनो ॥३४॥

ब्रह्मविष्णु सुरेशाद्यैः कांक्ष्यते यत्परं स्थलम् ।

तन्मया विहितं देव को वा पापोऽस्ति मे वद ॥३५॥

ब्रह्मा, विष्णु इन्द्रादि सभी जिस परम स्थल की आकांक्षा करते हैं, मैंने उस परमस्थल की कामना करके विहित कार्य ही किया है, इसमें मेरा क्या दोष हो सकता है? सो कहो ॥ ३५ ॥

त्वां परित्यज्य गच्छामि ह्यन्यथा क्रियते त्वया ।

ब्रह्मने यद्भवेत्पापं सत्यं तेऽद्य भविष्यति ॥ ३६ ॥

मैं यह स्थान छोड़कर जाता हूं, इस समय मेरी पूजा को अन्यथा किया, अतएव आज तुमको ब्राह्मण के वध करने का पाप लगेगा ॥ ३६ ॥

एवमत्र महापीठे जपनात्पूजनादपि ।

सिद्धिर्न जायते कर्हि काले मद्वचनात्पुनः ॥ ३७ ॥

और मेरे वचन से इस महापीठ में जप पूजा करने पर भी वह किसी काल में सिद्धि नहीं होगी ॥ ३७ ॥

एवमेव मुनेः शापादागताऽहं तवान्तिकम् ।

कमुपायं करिष्यामि वद मे करुणामय ॥ ३८ ॥

मुनि के इस प्रकार शाप देने पर मैं तुम्हारे पास आई हूं, हे करुणामय ! इसका क्या उपाय करेंगे, कहो ॥ ३८ ॥

ईश्वर उवाच ।

एवमुक्त्वा रुदन्तीं तामाश्वास्य च पुनः पुनः ।

आगत्याहं योनिपीठे जजाप कालिकामनुम् ॥ ३९ ॥

शापोद्धाराय देवेशि तस्माच्छापाद्विमोचिता ।

कामाख्यां स्थापयामास पूर्ववद्योनिमण्डले ॥ ४० ॥

ईश्वर बोले-वह यह सब बातें कहकर रोने लगी। मैं वारंवार उसको आश्वासन (तसल्ली) प्रदान करके योनिपीठ में आया और शापोद्धार के लिये कालिकामन्त्र जपने लगा हे देवेशि ! उसके द्वारा उस शाप से छुड़ाकर कामाख्या देवी को पहिले के समान उस योनिमण्डल में स्थापन किया ॥ ४० ॥

ततः सा परमा माया महाहर्षमुपागता ।

कलौ किन्तु महेशानि वर्षाणाञ्च शतत्रयम् ।

ब्रह्मशापो महेशानि फलिष्यति सुनिश्चितम् ॥ ४१ ॥

तब वह परमा माया महाहर्षयुक्त हुई किन्तु हे महेशानि ! कलियुग में तीन सौ वर्ष ब्रह्मशाप फलेगा, इसमें संदेह नहीं ॥ ४१ ॥

श्रीदेव्युवाच ।

वशिष्ठेन पुरा शप्ता कामाख्या कामवासिनी ।

नरकस्य प्रसङ्गेन तत्सर्वं कथितं त्वया ॥ ४२ ॥

इदानीं श्रोतुमिच्छामि शापोद्धारस्य ते कथा ।

कथं शापश्च ज्ञातव्यस्तस्यापि लक्षणं वद ।

यच्छ्रुत्वा साधवः सर्वे दयामेष्यन्ति सर्वदा ॥ ४३ ॥

देवी ने कहा- पूर्वकाल में वशिष्ठ ऋषि ने कामवासिनी कामाख्या देवी को शाप दिया था, वह तो आपने नरकासुर के प्रसंग में सब कहा। अब मैं तुम्हारे शापोद्धार की कथा सुनाना चाहती हूं, किस प्रकार शाप जाना जाता है, उसका लक्षण कहिये। साधुजन उसको सुनकर सदा दया युक्त हों ॥ ४२-४३ ॥

ईश्वर उवाच ।

कुमतेः पुरभूपस्य राज्यनाशो यदा भवेत् ।

तद्दिनात्परमेशानि ब्रह्मशापः प्रवर्तते ॥ ४४ ॥

ईश्वर ने कहा- जब दुर्मति पुरभूप का राज्य नाश होता है, उस दिन से ही ब्रह्म का शाप प्रवृत्त हुआ है ॥ ४४ ॥

ततोऽतीव दुराचारो कामरूपे भविष्यति ।

प्रजापीडा रोगकृत्या बहुदोषो भविष्यति ॥ ४५ ॥

इसी कारण कामरूप में अत्यन्त दुराचार संघटित होगा और प्रजा पीडा, रोग कृत्या इत्यादि अत्यन्त दोषपूर्ण व्यापार उपस्थित होगा ॥ ४५ ॥

सदा युद्धं महामाये यदा दुर्वृत्तमेव च ।

देवदानवगन्धर्वाः सदा पीडापरायणाः ॥ ४६ ॥

हे महामये ! निरन्तर युद्ध और दुर्वृत्तता प्रवर्तित होगी, देवता दानव और गन्धर्व सदा पीडा को प्राप्त होंगे ॥४६ ॥

कुपूर्वकुलचन्द्रेण मिते शाके दिवानिशम् ।

सौमारैश्च कुवाचैश्च यवनैर्युद्धमुल्बणम् ॥ ४७ ॥

भविष्यति कामपृष्ठे बहुसैन्यसमाकुलम् ।

ततो रणे च सौमारं जित्वा यवन ईप्सिनम् ॥ ४८ ॥

वर्षमेवाकरोद्राज्यं मकारादिर्म्महीपतिः ॥ ४९ ॥

कुपूर्व कुलचन्द्रमिते शके (अर्थात् २१२) कामरूप पृष्ठ में सौमारगणों के सहित कुवाच और यवनों का बहुसैन्यसंकुल घोरतर युद्ध होगा उस समर में मकारादि महीपति यवन सौमारगणों को पराजित करके एक वर्ष राज्य करेंगे॥४७-४९॥

तत्सहायं समासाद्य कुवाचः स्वीयराज्यभाक् ।

वर्षान्ते यवनं जित्वा सौमारो राज्यनायकः ॥ ५० ॥

कुवाच राज उसकी सहायता को प्राप्त होकर अपना राज्य भोगेंगे फिर एक वर्ष के पीछे सौमार गण यवनों को पराजयपूर्वक दूर भगाकर राज्यनायक होंगे ॥ ५० ॥

कुमारीचन्द्र कालेन्दौ गते शाके महेश्वरि ।

कामरूपे पुनर्युद्धसंयोगः सम्भविष्यति ॥ ५१ ॥

हे महेश्वरि ! कुमारी कालेन्दु शाके ( ९०१ ) बीतने पर कामरूप में फिर युद्ध संयोग संघटित होगा ॥ ५१ ॥

कामरूपे तथा राज्यं द्वादशाब्दं महेश्वरि ।

कुवाचसंगतो भूत्वा यवनश्च करिष्यति ॥ ५२ ॥

षष्ठवर्गपञ्चमादिस्ततः शरीरमिच्छति ।

शामितव्यं कामरूपं सौमारैश्च कुवाचकैः ॥ ५३ ॥

तदनन्तर कुवाच के सहित मिलित होकर यवनगण बारह वर्ष कामरूप में राज्य करेंगे। फिर कुछ काल पीछे सौमार और कुवाच गणों में संधि (मिलाप) संघटित होकर कामरूप में शांति स्थापन होगी ॥५२-५३॥

यवनश्च कुवाचश्च सौमारश्च तथा प्लवः ।

कामरूपाधिपो देवि शापमध्ये न चान्यकः ॥ ५४ ॥

शाप काल में यवन, कुवाच, सौमार और प्लव कामरूप के अधिपति होकर राज्य का अधिष्ठान करेंगे ॥ ५४ ॥

एवमेव बहुविधं वक्ष्ये लक्षणमीश्वरि ।

क्रियते सकलं स्पष्टं प्रत्येकं परमेश्वरि ॥ ५५ ॥

हे देवेशि ! इस प्रकार बहु प्रकार के लक्षण कहता हूं, सुनो। हे परमेश्वरि ! यह सभी विषय तुम्हें जानना चाहिये ॥ ५५ ॥

वशिष्ठस्य तपोदाववह्निः शाम्यति कामिनि ।

भविष्यन्ति च तरवः शालाख्यपर्वतोपरि ॥ ५६ ॥

तदनन्तर वशिष्ठ की तपोदाववह्नि ( तप के प्रताप से प्रादुर्भूत हुई अग्नि ) शान्त होगी । शालाख्य पर्वत के ऊपर तरुगणों की उत्पत्ति होगी ॥ ५६ ॥

स्वर्गद्वारे शिलापाते तत्र वै पुरसन्निधौ ।

कामाख्याकमठे भने उर्वश्या सदृशङ्गमः ॥ ५७ ॥

ब्रह्मपुत्रस्य देवेशि सूक्ष्मधारा तु तस्य च ।

षोडशाब्दे गते शाके भूमहीरिपुचुल्बके ।

विगतो भविता न्यूनं सौमारे कामपृष्ठयोः ॥ ५८ ॥

उस पुर के समीप स्वर्ग द्वार में शिलापात होकर कामाख्या का मठ टूटेगा । उर्वशी के सहित ब्रह्मपुत्र का संगम होकर उस नद की धारा सूक्ष्म होगी । षोडशाब्दशाक (सोलहवर्ष) बीतने पर राजागण सौमार और कामरूप पृष्ठ से भूमहीरिपुचुल्वक में जायंगे, इनमें सन्देह नहीं ॥५७-५८॥

षण्मासं तत्र संस्थाय उत्तराकालकोषयोः ।

गमिष्यन्ति च राजानः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ ५९ ॥

कुवाचैर्यवनैश्चान्द्रेर्बहुसैन्यसमाकुलैः ।

त्रिभिम्लेच्छैः समाकीर्ण महायुद्धं भविष्यति ॥ ६० ॥

वहां छः मास स्थित रहकर बहुसैन्यसमाकुल चान्द्र, यवन और कुवाच गणों के सहित युद्धविशारद राजा गण उत्तरकाल और कोष देश में जायंगे वहां तीन म्लेच्छों के सहित एक ( संघटित ) तुमुल युद्ध होगा ॥ ५९-६० ॥

अश्वमुण्डेर्नरमुण्डगेज मुण्डर्विशेषतः ।

लोहित्यो रक्तपूर्णश्च भविष्यति न संशयः ॥ ६१ ॥

उस युद्ध में अश्वमुण्ड नरमुण्ड और गजमुण्ड कर्तित होकर पृथ्वी लोहितशोणित से पूर्ण होगी इसमें संदेह नहीं ॥ ६१ ॥

तदैव परमा माया योगिनीगणवन्दिता ।

कामाख्या वर्णकश्यामा बलिहस्ता हसन्मुखी ॥ ६२ ॥

ललज्जिह्वा मुण्डमाला दिग्वस्त्रा परमास्थिता ।

पर्वतायं समाश्रित्य रक्तपानं करिष्यति ॥ ६३ ॥

तब योगिनी गणवन्दिता, श्यामवर्णा, दिग्वस्खा, लोलजिह्वा, बलिहस्ता और हसन्मुखी परमा माया कामाख्या पर्वताग्र का आश्रय करके रक्तपान करेंगीं ॥ ६२- ६३ ॥

ततः कुवाचो यवनं हित्वा सौम्यविनाशितः ।

करतोयानदी यावत्करिष्यति महद्रणम् ॥ ६४ ॥

फिर कुबाचगण सौम्यगण को नष्ट करके यवनगण को परित्याग पूर्वक कर तोयानदीपर्यन्त भूभाग में महा युद्ध करेंगे ॥६४॥

दशाहं तत्र संस्थाय यास्यन्ति पुनरालयम् ।

ततो विप्रो नृपो भूत्वा कामरूपनिवासिनः ॥

करिष्यति जनान्देवि जपपूजादितत्परान् ॥ ६५ ॥

वहां दश दिन वास करके फिर अपने घर जायेंगे तदनन्तर कामरूप निवासी विप्रगण राजा होकर जनों को जप पूजादि में तत्पर करेंगे ॥ ६५ ॥

एवं वर्षत्रयं राज्यं कृत्वा दण्डी द्विजो नृपः ।

भविष्यति महामाये योनिमण्डलसन्निधौ ॥ ६६ ॥

दण्डी विप्र राजा होकर इस प्रकार तीन वर्ष राज्य करके योनिमण्डल के समीप स्थित होंगे ॥ ६६ ॥

ततो द्वादशदले नाभिः कल्पते पूर्वभूमिपः ।

ऐशानीमागतः कामानेकच्छत्रं करिष्यति ।

तद्राज्यं सकलं देवि धर्मेण पालयिष्यति ॥ ६७ ॥

अनन्तर पूर्व भूमिपति ईशानदिशा से आनकर द्वादशदल में नाभिकल्पना और कामरूप को एक क्षत्र के अन्तर्गत करेंगे । हे देवि ! तब वह इस सब राज्य को धर्मानुसार पालन करेंगे ॥ ६७ ॥

तत्पत्नी श्यामवर्णा स्यात्सदाराधितपार्वती ।

विनीतं तनयं साध्वी राजानं राजपुत्रकम् ॥ ६८ ॥

उनकी पत्नी श्यामवर्णा साध्वी होकर सदा ही पार्वती की आराधना करेगी वह सती एक विनीति राजपुत्र उत्पन्न करेगी ॥ ६८ ॥

तज्जन्मदिवसादेवि यावत्स्याद्वादशं दिनम् ।

तावत्स्पशाचले स्पर्शमणिराविर्भविष्यति ॥ ६९ ॥

हे देवि ! उसके जन्मदिन से बारहवें दिन स्पर्शाचल में स्पर्शमणि का आविर्भाव होगा ॥ ६९ ॥

तनैव धनिनः सर्वे कामरूपनिवासिनः ।

भविष्यन्ति तदैव स्याद्वसिष्ठशापमोचनम् ॥ ७० ॥

हे देवि ! उसके द्वारा सब कामरूप निवासी धनवान् होंगे। तब वशिष्ठ का शापमोचन होगा ॥ ७० ॥

ततस्तेजांसि भूयांसि कामाख्यायोनिमण्डले ।

कामाख्या सन्निधाने च भविष्यति कलौ युगे ॥ ७१ ॥

मन्त्रसिद्धिश्च भविता तदैव योनिमण्डले ।

यथोक्तफलदा देवि कामाख्या हि मविष्यति ॥ ७२ ॥

जडीभूता ब्रह्मशापाद्वर्षाणांच शतत्रयम् ।

कामाख्या देववन्द्याङ्घ्रिकमला लज्जिता स्वयम् ।

पूर्ववत्सकलं देवि ततस्तु संभविष्यति ॥ ७३ ॥

तदनन्तर कामाख्या के योनिमण्डल में प्रभूततेज का आविर्भाव होगा कलियुग में तब कामाख्या के समीप योनिमण्डल में मन्त्रसिद्धि होगी और कामाख्या में यथोक्तफलदायक होगी । देवता जिसके चरणकमलों की वंदना करते हैं वह कामाख्या देवी ब्रह्मशाप से तीन सौ वर्ष जडीभूत (जिसमें देवशक्ति कुछ न हो ) रह कर आप ही लज्जित होंगी । अनन्तर हे देवि ! सभी पूर्ववत् फलसिद्धि के देनेवाले होंगे ॥ ७१-७३ ॥

एवं कामपरित्राणं संक्षेपात्कथितं मया ।

किं श्रोतव्यमितो देवि गिरिजे कथ्यतां त्वया ॥ ७४ ॥

हे गिरिजे देवि ! यह मैंने तुमसे कामरूप के परित्राण (रक्षा) की कथा संक्षेप से वर्णन करी अब यदि तुम कुछ और सुनना चाहती हो वह कहो ॥ ७४ ॥

इति श्री योगिनीतन्त्रे सर्वतन्त्रोत्तमोत्तमे देवीश्वरसम्बादे चतुर्विंशतिसाहस्त्रे भाषाटीकायां द्वादशः पटलः ॥ १२ ॥

आगे जारी........ योगिनीतन्त्र पटल 13

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