प्राणाग्निहोत्र उपनिषद
प्राणाग्निहोत्र एक अथर्ववेदिय
उपनिषद है, इसे प्राणाग्निहोत्रोपनिषद के
नाम से भी जाना जाता है। इसमें चार खण्ड अथवा भाग में २३ श्लोक है। जिसमें कहा गया
है कि मानव शरीर एक मंदिर है तथा सार्वभौमिक आत्मा ईश्वर रूप में स्वयं के भीतर विराजमान
है, सभी वैदिक देवता मानव शरीर में सन्निहित हैं जो एक को
विभिन्न क्षमताएं प्रदान करते हैं।
प्राणाग्निहोत्रोपनिषद्
प्राणाग्निहोत्र उपनिषद बाह्य यज्ञ
अग्निहोत्र को आंतरिक प्राण-अग्नि के साथ जोड़ता है। इसका मुख्य संदेश यह है कि
जीवन स्वयं एक यज्ञ है, जहाँ व्यक्ति
द्वारा ग्रहण किया गया भोजन जठराग्नि के लिए एक आहुति है। यह उपनिषद सिखाता है कि
ईश्वर भीतर ही विद्यमान है और व्यक्ति अपने शरीर के भीतर स्थित ईश्वर की पहचान
करके और अहिंसा, करुणा जैसे कर्तव्यों का पालन करके मोक्ष
प्राप्त कर सकता है।
प्राणाग्निहोत्र उपनिषद
प्राणाग्निहोत्र का शाब्दिक अर्थ है
"प्राण (सांस, जीवन शक्ति) की
अग्नि को अर्पित किया गया होत्र (बलिदान)"। यह उपनिषद सुझाव देता है कि भले
ही कोई बाहरी अग्निहोत्र यज्ञ न करे या सांख्य और योग जैसे शास्त्रों को न जाने,
फिर भी वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है, बशर्ते
वह ईश्वर को अपने भीतर महसूस करे।
आंतरिक यज्ञ: यह भोजन को जठराग्नि
में की गई आहुति के रूप में देखने की शिक्षा देता है और बताता है कि जीवन के सभी
कार्य ईश्वर की आराधना का एक रूप हैं।
इस उपनिषद के अनुसार,
दूसरों के प्रति अहिंसा, करुणा, धैर्य और स्मृति जैसे पुण्य कर्तव्य भी भीतर के ईश्वर की पूजा के कार्य
हैं।
यह पारंपरिक वैदिक यज्ञों को मानव
शरीर और जीवन के आंतरिक अनुभवों के साथ एकीकृत करने का एक प्रयास है।
प्राणाग्निहोत्रोपनिषत्
॥ शान्तिपाठ ॥
शरीरयज्ञसंशुद्धचित्तसंजातबोधतः ।
मुनयो यत्पदं यान्ति
तद्रामपदमाश्रये ॥
शरीर को यज्ञ की तरह पवित्र करके,
चित्त को शुद्ध करने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह 'राम-पद' ही आश्रय लेने
योग्य है, अर्थात् उस लक्ष्य को 'राम-पद'
कहते हैं। जिस परम पद या लक्ष्य को मुनिजन (ज्ञानी व्यक्ति) प्राप्त
करते हैं।
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह
वीर्यं
करवावहै ॥ तेजस्विनावधीतमस्तु मा
विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इसका भावार्थ कठोपनिषद् में देखें।
प्राणाग्निहोत्रोपनिषद्
prāṇāgnihotropaniṣad
हरिः ॐ अथातः सर्वोपनिषत्सारं
संसारज्ञानातीतमन्नसूक्तं शारीरयज्ञं व्याख्यास्यामः ।
यस्मिन्नेव पुरुषः शरीरे
विनाप्यग्निहोत्रेण विनापि सांख्ययोगेन संसारविमुक्तिर्भवति ॥१॥
अब समस्त उपनिषदों का सारभूत
सांसारिक ज्ञान से परे (प्राणाग्निहोत्रोपनिषद् के अन्तर्गत) अन्नसूक्त एवं शारीर
यज्ञ की व्याख्या प्रारम्भ की जाती है। जिस पुरुष-शरीर की जानकारी प्राप्त कर लेने
के पश्चात् अग्निहोत्र के बिना और सांख्य आदि दर्शनों के ज्ञान के बिना ही संसार
से निवृत्ति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ।
स्वेन विधिनान्नं भूमौ निक्षिप्य या
ओषधीः सोमराज्ञीरिति तिसृभिरत्नपत इति द्वाभ्यामनुमन्त्रयते ॥२॥
अपनी विधि के अनुसार पृथ्वी पर (निर्मित
की गई वेदिका पर) अन्न को रखकर तत्पश्चात् नीचे लिखे (या ओषधयः .........। या
फलिनीर्याः..........। जीवला नघारिषां ........ ।) इन तीन मंत्रों तथा (‘अन्नपतेऽन्नस्य ……….. । यदन्नमग्निर्बहुधा ………..।') इन दो ऋचाओं से अभिमंत्रित करना चाहिए ।
या ओषधयः सोमराज्ञीर्बह्वीः
शतविचक्षणाः। बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥३॥
जो ओषधियों के अधिष्ठाता देव सोम
हैं। वे प्रधान शतवीर्य, बहुशाखा वाले
सैकड़ों रोगों को विभिन्न तरह से विनष्ट करने में सक्षम हैं। ये विशिष्ट गुणों से
युक्त ओषधियाँ बृहस्पति (देवों के आचार्य) द्वारा तैयार (उत्पन्न) की गई हैं। ये
ओषधियाँ हमें पापों-रोगों से मुक्ति प्रदान करें ।
याः फलिनीय अफला अपुष्पा याश्च
पुष्पिणीः। बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥४॥
जो फलों से युक्त,
फलों से रहित, पुष्य युक्त एवं पुष्प रहित ऐसी
ये समस्त ओषधियाँ बृहस्पति-प्रसूत (विशेषज्ञ वैद्य द्वारा प्रादुर्भूत) हैं,
ये ओषधियाँ हमें रोग-पापों से मुक्ति प्रदान करें ।
जीवला नघारिषां मा ते
बध्नाम्योषधिम् । यातयायुरुपाहरादप रक्षांसि चातयात् ॥५॥
सतत हरी-भरी बनी रहने वाली ओषधि
मेरे द्वारा बाँधी जा रही है अर्थात् ग्रहण की जा रही है। आयु क्षीण करने वाले
तत्वों से वह हमें संरक्षण प्रदान करे ।
अन्नपतेऽन्नस्य नो धेह्यनमीवस्य
शुष्मिणः। प्रप्रदातारं तारिष ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे ॥६॥
हे अन्न के प्रति अग्निदेव ! आप हम
सभी के लिए आरोग्य-प्रद एवं पोषण युक्त अन्न की व्यवस्था करें। दानी मनुष्यों को
भली-भाँति पोषित करें। हमारे पुत्र-पौत्रादि एवं पशुओं के लिए भी अन्न प्रदान करें
।
यदन्नमग्निर्बहुधा विराद्धि रुद्वैः
प्रजग्धं यदि वा पिशाचैः।
सर्वं तदीशानो अभयं कृणोतु
शिवमीशानाय स्वाहा ॥७॥
जो अन्न अग्नि के द्वारा प्रजा के
निमित्त रुद्रों अथवा पिशाचों से प्रायः बचाकर रखा जाता है,
उस कल्याणकारी अन्न को ईशानदेव दोषमुक्त बनाएँ, उन ईशानदेव भगवान् शिव को यह आहुति समर्पित है।
अन्तश्चरसि भूतेषु गुहायां
विश्वतोमुखः ।
त्वं यज्ञस्त्वं ब्रह्मा त्वं
रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं वषट्कार आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः सुवरों नमः
॥८॥
प्राणियों के हृदय में सर्वत्र
व्याप्त होकर स्थित रहते हुए निरन्तर भ्रमण करने वाले तुम ही यज्ञ,
ब्रह्मा, विष्णु, वषट्कार,
आपः, ज्योति, रस,
अमृत, ब्रह्म, भूः,
भुवः एवं स्वः स्वरूप हो, तुम्हें नमन है।
आपः पुनन्तु पृथिवीं पृथिवी पूता
पुनातु माम्। पुनन्तु ब्रह्मणस्पतिर्ब्रह्मपूता पुनातु माम्। यदृच्छिष्टमभोज्यं
यद्वा दुश्चरितं मम।
सर्वं पुनन्तु मामापोऽसतां च
प्रतिग्रहं स्वाहा ॥९॥
हे आपः (जल) ! आप पृथ्वी को पवित्र
करें तथा शुद्ध हुई जो पृथ्वी है, वह मुझे
पवित्रता प्रदान करे। ब्रह्मपूत पृथ्वी मुझे पवित्रता प्रदान करे। जो उच्छिष्ट,
अभक्ष्य अथवा दुश्चरित्रता मेरे में सन्निहित हो, उन सबको हटाकर जल देवता हमें पवित्र बना दें, इस
निमित्त यह आहुति समर्पित है ।
अमृतमस्यमृतोपस्तरणमस्यमृतं प्राणे
जुहोम्यमाशिष्यान्तोऽसि ।
ॐ प्राणाय स्वाहा ।
ॐ अपानाय स्वाहा ।
ॐ व्यानाय स्वाहा ।
ॐ उदानाय स्वाहा ।
ॐ समानाय स्वाहा ।
ॐ ब्रहाणे स्वाहा।
ॐ ब्रह्मणि म आत्माऽमृतत्वायेति ॥१०॥
(इस प्रकार उपर्युक्त मन्त्रों से
प्रोक्षण करके दो बार जलाभिषेक करने के बाद बायें हाथ से वेदिका का स्पर्श करते
हुए दाहिने हाथ में ग्रहण कर) ‘अमृतमस्यमृतोपस्तरणमसि'(
हे जल! तुम अमृत स्वरूप हो,तुम अमृत स्वरूप
आच्छादन हो) यह कहते हुए उसे पीकर ‘अमृतं प्राणे
जुहोम्यमाशिष्यान्तोऽसि'( अमृतोपम होम करने के योग्य पदार्थ
का आस्वादन प्राप्त कर लिया गया है ।) यह कहकर अपनी आत्मा का अनुसंधान करते हुए
प्राण में आहुतियाँ समर्पित करे । प्राण के लिए आहुति समर्पित है। अपान,व्यान,उदान,समान के लिए आहुति
समर्पित है। ब्रह्मा के लिए आहुति समर्पित है। ब्रह्म में मेरी आत्मा अमृतत्व का
रसास्वादन प्राप्त करे ।
कनिष्ठिकाङ्गल्याङ्गष्ठेन च प्राणे
जुहोति अनामिकयापाने मध्यमया व्याने सर्वाभिरुदाने प्रदेशिन्या समाने ॥११॥
कनिष्ठिका अँगुली और अँगूठे के
द्वारा प्राण में, अनामिका से अपान
में, मध्यमा से व्यान में तथा सभी अँगुलियों के द्वारा समान
में आहुति डालनी चाहिए ।
तूष्णीमेकामेकऋचा जुहोति द्वे
आहवनीये एकां दक्षिणाग्नौ एकां गार्हपत्ये एकां सर्वप्रायश्चित्तीये ॥१२॥
मौन रहते हुए एक आहुति (प्राणाय
स्वाहा से) करे। (अपानाय स्वाहा से) दो आहुतियाँ आहवनीय में,एक (आहुति) दक्षिणाग्नि में, एक गार्हपत्य में एवं
एक सर्वप्रायश्चित्तीय अग्नि में समर्पित करे।
अथापिधानमस्यमृतत्वायोपस्पृश्य
पुनरादाय पुनरुपस्पृशेत् ॥१३॥
(इस प्रकार पाँच आहुतियाँ समर्पित
करके यथा-नियम ग्रहण कर अर्थात् अन्न सेवन कर ‘अथ पुरस्तात्
चोपरिशाच्च अद्भिः परिदधाति', इस श्रुति के अनुरोध से)
अपिधान (अनावृत) स्वरूप को अमृतत्व के लिए स्पर्श करके फिर ग्रहण कर पुनः स्पर्श
करे ।
सव्ये प्राणावाऽऽपो गृहीत्वा
हृदयमन्वालभ्य जपेत् । प्राणोऽग्निः परमात्मा पञ्चवायुभिरा-वृतः।
अभयं सर्वभूतेभ्यो न मे भीतिः कदाचन
॥१४॥
बायें हाथ में जल लेकर हृदयालम्भन
कर अर्थात् हृदय के समीप में हाथ रखकर जप करे। मुख्य प्राण पाँच प्रकार के वायु
(प्राण,
अपान, ध्यान, उदान और
समान) से घिरा हुआ परमात्मा स्वरूप है। वह मुझे समस्त प्राणियों से भय-रहित करे,
मैं उनसे कभी भयभीत न होऊँ ।
इति प्रथमः खण्डः ॥ १॥
प्राणाग्निहोत्र उपनिषद
विश्वोऽसि वैश्वानरो विश्वरूपं
त्वया धार्यते जायमानम् ।
विश्वं त्वाहुतयः सर्वा यत्र
ब्रह्माऽमृतोऽसि ॥१५॥
हे मुक्तप्राण! आप विश्वस्वरूप हैं।
आप ही विश्व में वैश्वानर रूप में विराट् होकर समस्त विश्व को अपने स्वरूप में
धारण करते हैं। वह वैश्वानर सम्पूर्ण भूत-प्राणियों की देह में स्थित है। आप
ब्रह्मामृत स्वरूप हैं, आपसे प्रादुर्भूत
होने वाला यह विश्व तुरीयाग्नि में सभी आहुतियों के रूप में विलीन हो जाता है ।
महानवोऽयं पुरुषो योऽङ्गुष्ठाग्ने
प्रतिष्ठितः । तमद्भिः परिषिञ्चामि सोऽस्यान्ते अमृताय च ॥१६॥
जो प्राणरूप से पैर के दोनों
अँगूठों के अग्रभाग में प्रतिष्ठित है, वहाँ
पर तुम प्रशिक्षण अभिनव पुरुष के रूप में स्थित रहते हो। इस भोजन के अन्त में
अमृतत्व की प्राप्ति हेतु तुम्हें सब ओर से सिंचित(तुष्ट)करता हूँ ।
अनावित्येष बाहात्मा
ध्यायेताग्निहोत्रं जुहोमीति । सर्वेषामेव सूनुर्भवति ।
अस्य यज्ञपरिवृता आहुतीर्होमयति ॥१७॥
वे (प्राणरूप पुरुष) विशिष्ट
चेष्टासम्पन्न हैं, अत: बाह्यात्मा
इनका चिन्तन करे। यह पुरुष (प्रत्येक दिन प्राण-रूपी) अग्निहोत्र करता है।
[क्योंकि तुम्हारा परमात्मा (अग्नि रूप का) पुत्रवत् पोषण करते हैं।] अतः तुम सभी
के पुत्र भी होते हो, इस यज्ञीय भाव से परिवृत होकर तुम
आहुतियों का होम करते हो ।
स्वशरीर यज्ञं परिवर्तयामीति ।
चत्वारोऽग्नयस्ते किं नारमर्धयाः
॥१८॥
अपने शरीर में यज्ञ को परिवर्तित
करता हूँ। इस शरीर में अग्नियों की संख्या चार मानी गई है,
जो अत्यन्त सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। ये सभी अर्धमात्रिक मात्र हैं ।
तत्र सूर्योऽग्निर्नाम
सूर्यमण्डलाकृतिः सहस्त्ररश्मिपरिवृत एकऋषिर्भूत्वा मूर्धनि तिष्ठति ।
चस्मादुत्त्को दर्शनाग्निर्नाम
चतुराकृतिराहवनीयो भूत्वा मुखे तिष्ठति ।
शारीरोऽग्निर्नाम जराप्रणुदा
हविरवस्कन्दति । अर्धचन्द्राकृतिर्दक्षिणाग्निर्भूत्वा हृदये तिष्ठति । तत्र
कोष्ठाग्निरिति-कोष्ठाग्निर्नामा-शितपीतलीढस्वादितं सम्यग् व्यष्टयं विषयित्वा
गार्हपत्यो भूत्वा नाभ्यां तिष्ठति ॥१९॥
इन चार अग्नियों में से ‘सूर्याग्नि' नामक अग्नि, सूर्य
मण्डलाकृति के अनुरूप है। यह अत्यधिक तेजोमयी सहस्त्र (असंख्य) रश्मियों से
सम्पन्न व्यापकरूप में होकर मूर्धा भाग में प्रतिष्ठित रहती है। (जैसा कि प्रसिद्ध
है-‘तुरीयं' मूर्ध्नि संस्थितम्)।
चूँकि यह जीवात्मा सर्वत्र ईश्वररूप में दृष्टिगोचर होता है, इसी कारण यह दर्शनाग्नि कहा गया है। यह विराड् आदि चार आकृतियों से युक्त
आहवनीय बनकर मुख में स्थित रहता है। स्थूल शरीर को जलाने वाली शारीर अग्नि
(हिरण्यगर्भ) स्थूल शरीर के आश्रित जरादि अवस्था के द्वारा कमजोर किया जाता है,
स्थूल प्रपंच रूप हवि को ग्रसित करता है, जो
कि अर्द्धचन्द्र के स्वरूप वाला दक्षिणाग्नि होकर समस्त भूतप्राणियों के हृदय में
विद्यमान रहता है। (चौथी) ‘कोष्ठाग्नि' नामक अग्नि है। जो खायी, पी-हुई, चाटी हुई एवं आस्वादित वस्तु को अच्छी तरह से पकाकर गार्हपत्याग्नि के रूप
में नाभिस्थल में प्रतिष्ठित रहती है ।
प्रायश्चित्तयस्त्वधस्तात्तिर्यक्
तिस्त्रो हिमांशुप्रभाभिः प्रजननकर्मा ॥ २०॥
इस प्रकार प्रायश्चित्त वृत्तियाँ
(चित्त की वृत्तियों) अधः (नीचे) प्रतिष्ठित हैं, तिर्यक् (वक्र वृत्तियाँ) तथा तीन (जाग्नत्, स्वप्न
एवं सुषुप्ति) अवस्थाओं के प्रकाशक हिमांशु (अर्थात् चिद्रूप चन्द्र) सभी तरह से
समर्थ प्रभु हैं। सभी कुछ प्रकाशमय कर देने वाले हैं ।
इति द्वितीयः खण्डः ॥ २॥
प्राणाग्निहोत्र उपनिषद
अस्य शारीरयज्ञस्य यूपरशनाशोभितस्य
को यजमानः का पत्नी के ऋत्विजः के सदस्याः
कानि यज्ञपात्राणि कानि हवींषि का
वेदिः काऽन्तर्वेदिः को द्रोणकलशः को रथः कः पशुः
कोऽध्वर्यु: को होता को
ब्राह्मणाच्छंसी कः प्रतिप्रस्थाता कः प्रस्तोता को मैत्रावरुणः क
उद्गाता का धारा कः पोता के दर्भाः
कः स्रुव: काज्यस्थाली कावाघारौ कावाज्यभागौ केऽत्र
याजा: के अनुयाजा: केड़ा कः
सूक्तवाकः कः शंयोर्वाकः काऽहिंसा के पत्नीसंयाजा: को यूपः का रशना का इष्टयः का
दक्षिणा किमवभृथमिति ॥२१॥
इस शारीर यज्ञ का,
जो कि यूप (खम्भे) एवं रसना (रस्सी) से अशोभित (यूप और रसना से
रहित) है, उसका यजमान कौन है ? पत्नी,
ऋत्विज् एवं सदस्य कौन हैं? यज्ञ-पात्र,
हवि, वेदि, अन्तर्वेदिका,
द्रोणकलश, रथ,पशु(बलिपशु),अध्वर्यु, होता, ब्राह्मणाच्छंसी,
प्रतिप्रस्थाता, प्रस्तोता, मैत्रावरुण, उद्गाता, धारा
(हवा करने वाला), पोता, दर्भ(कुश),
स्रुवा, आज्यस्थाली (घृतपात्र), आधार, आज्यभाग, याज, अनुयाण, इड़ा, सूक्तवाक्,
शंयोर्वाक, अहिंसा, पत्नी
संयाज, यूप (खम्भा), रशना, इष्ट, दक्षिणा एवं यज्ञ के समापन पर किया जाने वाला
अवभृथ (एक स्नान विशेष) कौन-कौन हैं? (अर्थात् जैसे यज्ञ में
उपर्युक्त सभी वस्तुएँ-पदार्थ अपेक्षित हैं, वैसे ही इस
शारीर यज्ञ के लिए भी ये सभी वस्तुएँ आवश्यक हैं, किन्तु ये
सब कहाँ और कौन हैं?) ।
इति तृतीयः खण्डः ॥ ३॥
प्राणाग्निहोत्र उपनिषद
अस्य शारीरयज्ञस्य यूपरशनाशोभितस्यात्मा
यजमानः बुद्धिः पत्नी वेदा महर्त्विजः
अहंकारोऽध्वर्युः चित्तं होता
प्राणो ब्राह्मणाच्छंसी अपानः प्रतिप्रस्थाता व्यानः प्रस्तोता उदान
उद्गाता समानो मैत्रावरुणः शरीरं
वेदिः नासिकाऽन्तर्वेदिः मूर्धा द्रोणकलशः पादो रथः
दक्षिणहस्तः स्रुवः सव्यहस्त
आज्यस्थाली श्रोत्रे आधारौ चक्षुषी आज्यभागौ ग्रीवा धारा पोता
तन्मात्राणि सदस्याः महाभूतानि
प्रयाजा: भूतानि गुणा अनुयाजा: जिह्वेडा दन्तोष्ठौ सूक्तवाकः
तालुः शंयोर्वाकः स्मृतिर्दया
क्षान्तिरहिंसा पत्नीसंयाजा: ओंकारो यूपः आशा रशना मनो रथः
कामः पशुः केशा दर्भाः
बुद्धीन्द्रियाणि यज्ञपात्राणि कर्मेन्द्रयाणि हवींषि अहिंसा इष्टयः त्यागो
दक्षिणा अवभृथं मरणात् सर्वा ह्यस्मिन्देवताः शरीरेऽधिसमाहिताः ॥२२॥
इस शारीर यज्ञ का जो कि यूप(
खम्भे)एवं रसना से अशोभित( रहित) है, इस
शारीर यज्ञ की आत्मा यजमान है, बुद्धि पत्नी है, वेद ही महा ऋत्विज् हैं, अहंकार ही अध्वर्यु है,
चित्त होता है, प्राण ब्राह्मणाच्छंसी है,
अपान प्रतिप्ररथाता है,व्यान प्रस्तोता है,उदान उद्गाता,समान मैत्रावरुण, शरीर वेदिका,नासिका अन्तःवेदि, मूर्धा (सिर) द्रोणकलश,पैर ही रथ है, दाहिना हाथ स्रुवा है, बायाँ हाथ घृतपात्र है,कान ही आधार हैं, नेत्र ही आज्य भाग हैं, ग्रीवा(गर्दन) ही धारा-पोता हैं, तन्मात्राएँ सदस्य
हैं, पञ्च महाभूत प्रयाज,अन्यभूत(
प्राणी)गुण और अनुयाज हैं,जिह्वा इड़ा है,दाँत-ओष्ठ सूक्तवाक् हैं, तालु शंयोर्वाक्, स्मृति, दया, शान्ति ही अहिंसा
और पत्नीसंयाज हैं, ॐ कार खम्भा है,आशा
रशना है,मन रथ है,काम ही पशु है,केश ही कुशाएँ हैं,ज्ञानेन्द्रियाँ यज्ञपात्र हैं,
कर्मेन्द्रियाँ हवि हैं,अहिंसा इष्टकायें,त्याग ही दक्षिणा है, मृत्यु हो अवभृथ स्न्नान है।
ऐसा समझकर जब यज्ञ किया जाता है, तभी यह यज्ञ पूर्ण फलदायक
होता है और तभी समस्त देवगण इस शरीर में समाहित होते हैं ।
वाराणस्यां मृतो वापि इदं वा
ब्राह्मणः पठेत् ।
एकेन जन्मना जन्तुर्मोक्षं च
प्राप्नुयादिति मोक्षं च प्राप्नुयादित्युपनिषत् ॥२३॥
यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु काशी
में हो अथवा फिर कोई ब्राह्मण इसे (उपनिषद् को) पढे, तो एक ही जन्म में चित्त शुद्धि करने वाला ज्ञान एवं मोक्ष को निश्चित रूप
से प्राप्त कर लेता है, यही उपनिषद् है ।
इति चतुर्थ: खण्डः ॥ ४॥
प्राणाग्निहोत्र उपनिषद
॥ शान्तिपाठ ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह
वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै
॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इसका भावार्थ कालाग्निरुद्र उपनिषद्
में पढ़े।
हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति प्राणाग्निहोत्रोपनिषत्समाप्ता ॥

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