योगिनीतन्त्र पटल १३
योगिनीतन्त्र पटल
१३ योगिनी स्त्री का वर्णन और ब्रह्मकर्मसाधन का वर्णन है।
योगिनीतन्त्र पटल १३
Yogini tantra patal 13
योगिनीतन्त्रम् त्रयोदशः पटलः
योगिनी तन्त्र त्रयोदश पटल
योगिनी तंत्र तेरहवाँ पटल
योगिनीतन्त्रम्
श्रीदेव्युवाच ।
देवेश परमेशान सर्वज्ञ सर्व्वपूजित
।
क्व गच्छसि मुहुर्नाथं कृपया वद
शंकर ॥ १ ॥
श्रीदेवी ने कहा- हे परमेशान
सर्वज्ञ सर्वपूजित शंकर ! तुम कहां कहां जाते हो ? कृपा करके यह मुझसे कहो ॥ १ ॥
ईश्वर उवाच ।
कोचाख्याने च देशे च
योनिगर्त्तसमीपतः ।
साध्वी सती ब्राह्मका हि रेवती
जलविस्मृता ॥ २ ॥
म्लेच्छोद्भवा या तु योगिनी सुन्दरी
मता ।
तत्कुचौ कठिनौ द्वन्द्वौ योनौ
तस्याश्च पीनता ॥ ३ ॥
भिक्षाचा प्रसंङ्गेन गच्छामि च
दिवानिशम् ।
तत्सन्निधौ महेशानि त्वया मे मरणं
महत् ॥ ४ ॥
ईश्वर बोले- योनिगर्त के समीप कोच
नामक देश,
वहां ब्राह्मि का साध्वी सती जलविस्मृता स्वेच्छ देहोद्भवा रेवती,
योगिनी नामक सुन्दरी स्त्री थी । उसके दोनों कुच कठिन एवं योनिमण्डल
पीन और मनोहर था मैं भिक्षा- चार प्रसंग में दिन रात उसके निकट जाता हूं। हे
महेशानि ! उसके समीप मेरा यह सब महत् मरण तुल्य बोध होता है ॥ २- ४ ॥
श्रीदेव्युवाच ।
कुत्रासीकि तपस्तप्तं कथं प्राप्तं
महीतलम् ।
त्वया सार्द्धं रतिर्यस्य नाल्पस्य
तपसः फलम् ॥ ५ ॥
तथापि च कृपा तस्यां लक्ष्यते महती
मया ।
इदानीं किमभूत्सा हि कृपया परया वद
॥ ६ ॥
श्रीदेवीजी ने कहा- वह स्त्री कहां
थी ?
उसने कैसी तपस्या की थी ? वह किस प्रकार महीतल
को प्राप्त हुई ? हे देव ! तुम्हारे संग जिसकी रतिक्रिया है
उसके तप का फल थोड़ा नहीं है उस पर आपकी महत् कृपा दिखाई देती है अब वह कैसी हुई
है ? हे नाथ ! कृपाप्रकाश पूर्वक यह मुझसे कहो ॥ ५- ६ ॥
ईश्वर उवाच ।
नगेन्द्रतनये वाले शृणु
मत्प्राणवल्लभे ।
तत्साध्वीचरितं किंचित्कथयामि
शुचिस्मिते ॥ ७ ॥
ईश्वर बोले- हे मेरी प्राणप्यारी !
हे बाले नगेन्द्रनंदिनि शुचिस्मिते ! उस साध्वी का चरित्र कुछेक कहता हूं सुनो ॥ ७
॥
रासक्रीडा कृता सार्द्धमेकाम्रकानने
मुदा ।
वेदाङ्गसम्भवा साध्वी योगिनी सासुरी
मता ॥ ८ ॥
उसने प्रसन्नचित्त से आम्रवन में
मेरे संग रासक्रीडा करी थी वह वेदाङ्गसम्भवा योगिनी देवी थी ॥ ८ ॥
नाभूत्तस्याः सुतृप्तिर्मे
मत्क्रियायां नगात्मजे ।
मामाप्तुमुत्कटं तप्तं त्वियं मे
क्षेत्रकामदा ॥ ९ ॥
हे नगनन्दिनी ! मेरे सहित रतिक्रिया
में उसकी तृप्ति नहीं हुई ! मेरे लिये उसने उत्कट तपस्या करी थी यह योगिनी मेरी
क्षेत्रकाम-दायिनी थी ॥ ९ ॥
एकाम्रगहने देवि पर्वते
तीर्थसङ्कुले ।
तत्रैको ब्राह्मणो यातो भिक्षार्थ
तामुवाच ह ॥ १० ॥
हे देवि ! एकाम्रवन के तीर्थसंकुल
पर्वत में वह तपोनिरत हैं इसी समय भिक्षा के निमित्त एक ब्राह्मण ने वहां आकर उससे
भिक्षा मांगी ॥ १० ॥
न दत्तमुत्तरं तस्मै भिक्षा तिष्ठतु
दूरतः ।
ततः शशाप विमस्तां म्लेच्छतां याहि
दुर्मदे ॥ ११ ॥
भिक्षा तो दूर रही,
उसने उसको उत्तर तक भी नहीं दिया । तब इस ब्राह्मण ने उसको शाप दिया,
रे दुर्मते ! तू म्लेच्छ हो ॥ ११ ॥
इत्युक्त्वा स ययौ विप्रो
म्लेच्छत्वं प्राप योगिनी ।
अतोऽर्थिनं समर्थश्वेद्याचितं न
ददाति चेत् ॥ १२ ॥
स दुर्गतिमवाप्नोति समर्थो विनयं
चरेत् ।
तस्यास्तु तपसा देवि क्रीतोऽहमभवं
सदा ॥ १३ ॥
ब्राह्मण यह वचन कहकर चला गया।
योगीनी म्लेच्छत्व को प्राप्त हुई, अतएव
हे देवि ! समर्थ व्यक्ति से याचना करने पर वह यदि याचक को यथाशक्ति नहीं देता तो
उसको अवश्य दुर्गति प्राप्त होती है । समर्थव्य याचक से विनीतभाव का आचरण करै,
हे देवि ! मैं उसकी तपस्या से सदा ही क्रीत (दास) रहता हूं ॥ १२-१३
॥
अतस्तया रतिर्याता मम कामिनि सर्वदा
।
तस्याः पुत्रो वेनुसिंहो मदरसा
समुद्भवः ॥ १४ ॥
इसी कारण उसके संग मेरा सदा रतिभाव
संबंध रहता है। उसके गर्भ और मेरे औरस से बेनुसिंह नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ १४
॥
एकेन जितवान्कामान्सौमारान्गौढपञ्चमान्
।
विनिर्जित्य नृपान् सर्वानेकः
श्रीमान्महामतिः ॥१५॥
वह महामति वेनुसिंह अकेले ही
सौमारगण और गौड पंचमगण तथा समस्त राजाओं को जीतकर एक प्रधान श्रीमान् राजा हुए थे
॥ १५ ॥
तस्यापि बहवः पुत्राः
पृथिवीपरिपालकाः ।
कुवाचा धार्मिकाः सर्वे राजानो
युद्धदुर्मदाः ॥ १६ ॥
उस वेनुसिंह के पृथ्वीपालक बहुत
पुत्र उत्पन्न हुए उनमें सब कुवाच गण ही धार्मिक राजा और युद्धदुर्मद हुए थे ॥ १६
॥
तेऽपि सर्वे वेनुसिंहे योगमाश्रित्य
बिह्वले ।
तिष्ठन्तो व्यक्तरूपेण
पदमाकल्पमम्बिके ॥ १७ ॥
वह वेनुसिंह विह्वलता से योग आश्रय
करके आकल्प पर्यन्त व्यक्त रूम में अवस्थान करते हैं ॥ १७ ॥
कालात्सा माधवी देवि मद्देहे लीनतां
गता ॥ १८ ॥
हे अम्बिके ! वह माधवी कालवशात्
मेरे देह में लीन हुई थीं ॥ १८ ॥
यथा जाया नन्दिमाता तथेयं योगिनी
मता ।
यथा पुत्र भृङ्गरीटस्तथा
वेनुर्ममात्मजः ॥ १९ ॥
जिस प्रकार नन्दिमाता मेरी जाया है
इस योगिनी को भी उसी प्रकार जानना चाहिये भृङ्गरीट जैसे मेरा पुत्र है इस वेनुसिंह
को भी उसी प्रकार जानो ॥ १९ ॥
वेनुसिंहोऽपि कल्पान्ते परां
सिद्धिमवाप्स्यति ॥ २० ॥
वेनुसिंह भी कल्पान्त काल में परमा
सिद्धि को प्राप्त होंगे ॥२०॥
तद्वंशजास्तु राजानः सर्वे
कैलासवासिनः ।
भविष्यति महात्मानो गणेशाः
सर्वशालिनः ॥२१॥
रूपयौवनसम्पन्नैर्देवकन्यागणैः सह ।
विहरन्ति सदा देवि क्रीडन्ते भैरवा
यथा ॥ २२ ॥
उसके वंशोत्पन्न सभी कैलासवासी
महात्मा राजा और सर्व समृद्धि- शाली गणेश्वर होंगे और वह रूपयौवनसम्पन्न
देवकन्याओं के सहित भैरवगणों के समान आनन्द से बिहार करेंगे ॥ २१- २२ ॥
यदा यदा ब्रह्मशापः कामाख्यायां
भवेत्पुनः ।
तदा तदावतीर्यासौ स्वस्य कामस्य
पालकः ।
तथा तद्वंशजाः सर्वे भवेयुः
कामपालकाः ॥ २३ ॥
जब जब कामाख्या में ब्रह्मशाप होगा,
तब तब ही इन ( वेनुसिंह ) का अवतार होकर अपने कामरूप पालन करेंगे
उसके वंशवाले सभी कामरूप के पालक होंगे ॥ २३ ॥
कल्पान्तमवं देवेशि यावच्छापो
विमुच्यते ।
तावदेव महामाये तद्वीय् क्रीडिता
ध्रुवम् ॥ २४ ॥
कल्पमेवं महेशानि कलौ वर्षशतत्रयम्
।
प्राणेश्वरि परेशानि भुङ्क्ते शापं
परात्मिका ॥ २५ ॥
कामाख्या हि महामाये तदन्ते सफलं
भवेत् ।
एवं ते कथितं देवि
ब्रह्मशापविमोचनम् ॥ २६ ॥
और कल्पान्त पर्यन्त जब तक
शापविमोचन नहीं होगा, तबतक हे महामाये !
तुम्हारे ही प्रभाव से वह क्रीडा करेंगे। हे महेशानि ! कलि में तीन सौ वर्ष में इस
प्रकार कल्प होता है। हे प्राणेश्वरि ! हे परमेश्वरि! महामाये शंकरि ! परमात्मिका
कामाख्या ब्रह्म शाप भोगती हैं, शाप के अन्त में उसका सभी
सफल होगा। हे देवि ! यह मैंने तुमसे कामाख्या का शापविमोचन का सब वृत्तान्त वर्णन
किया ॥ २४- २६ ॥
कामाख्या या महेशानि साकल्येन मया
ध्रुवम् ।
तावद्यस्य ब्रह्मशापो
निष्कृतिस्तस्य दूरतः ॥ २७ ॥
जो कामाख्या महामाया प्रतिपादन करी
गई है वह अत्यन्त महिमावान् है तथापि हे महेशानि ! जिसको ब्रह्मशाप हुआ है,
उसकी निष्कृति (मुक्ति) दूर स्थित रहती हैं ॥ २७ ॥
तक्षकेणापि दष्टस्य प्रतीकारो हि
तत्क्षणात् ।
ब्रह्मशापप्रसक्तस्य कल्पान्ते
स्यात्प्रतिक्रिया ॥ २८ ॥
तक्षक के काटने पर भी तत्काल उसका
प्रतीकार हो सकता है किन्तु ब्रह्म-शापग्रसित व्यक्ति का कल्पान्त होने पर
प्रतीकार नहीं होता ॥२८॥
नरकान्निष्कृतिर्नास्ति
तस्याभावान्न संशयः ।
एवं तंद्वशजाः सर्वे
पीडयन्तेऽहर्निशं प्रिये ॥ २९ ॥
नानाविधमहोत्पातैर्यावत्स्यात्साप्तपौरुषम्
।
तस्मातु ब्राह्मणं देवि नावमन्येत
कुत्रचित् ॥ ३० ॥
हे देवि ! प्रलय के बिना उसका
छुटकारा नहीं है। हे प्रिये ! ब्रह्मा शापग्रसित मनुष्य के वंशधर भी सातपुरुषा
(सातपीढी ) पर्यन्त अनेक उत्पातों से रात दिन पीडित होते हैं इसी कारण हे देवी!
कभी ब्राह्मण का अपमान न करै ॥ २९-३० ॥
सर्वदेवमयो विप्रो
ब्रह्मविष्णुशिवात्मकः ।
ब्रह्मतेजः समुद्भूतः सदा
प्राकृतिको द्विजः ॥ ३१ ॥
ब्राह्मण सर्वदेवमय और ब्रह्मा
विष्णु शिवस्वरूप है । द्विजगण यद्यपि प्राकृतिक अर्थात् पञ्चभूतमय हैं किन्तु तो
भी वह ब्रह्मतेज से उत्पन्न हुए हैं ॥ ३१ ॥
ब्राह्मणैर्भुज्यते यत्र तत्र
भुंक्ते हरिः स्वयम् ।
तत्र ब्रह्मा च रुद्रश्च खेचरा ऋषयो
मुनिः ॥ ३२ ॥
पितरो देवताः सर्वे भुञ्जन्ते नात्र
संशयः ।
सर्वदेवमयो विप्रस्तस्मात्तं
नावमानय ॥ ३३ ॥
ब्राह्मणञ्च कुमारीश्च शक्तिमग्निं
श्रुतिश्च गाम् ।
नित्यमिच्छन्ति ते देवा यजितुं
कर्मभूमिषु ॥३४ ॥
जहां ब्राह्मण गण भोजन करते हैं
वहां स्वयं हरि भोजन करते हैं । और वहीं ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, खेचर, ऋषि, मुनि, पितर और देवता सभी
भोजन करते हैं, इसमें सन्देह नहीं अतएव हे देवि ! ब्राह्मण
सर्व देवमय हैं इस कारण तुम कभी उनका अवमान न करना । हे देवि ! देवता गण सदा कामना
करते हैं कि, कर्मभूमी में ब्राह्मण, कुमारी
शक्ति, अग्नि, श्रुति ओर गौ इन सबकी
नित्य पूजा हो ॥ ३२-३४ ॥
पूजितेका कुमारी चेद्वितीयं पूजनं
भवेत् ।
कुमारीपूजनफल मया वक्तुं न शक्यते ॥
३५ ॥
कुमार्यः शक्तयश्चापि
सर्वमेतच्चराचरम् ।
एका चेावती देवि पूजिता
स्वात्मलोकिता ।
सर्वा एव परादेव्यः पूजिताः स्युर्न
संशयः ॥ ३६ ॥
यदि मनुष्य एक कुमारी की पूजा करे
तो उसको महत् फल होता है, हे देवि !
कुमारीपूजन के फल का में वर्णन नहीं कर सकता । हे अम्बिके ! कुमारी और शक्तिगण यह
अखिल चराचरस्वरूप हैं, हे देवि ! यदि एक युवती की पूजा करी
जाय, तो उसी के द्वारा सब देवी पूजित होती हैं, इसमें सन्देह नहीं ॥ ३५-३६ ॥
हुतमेकगुणं वह्नौ दत्तमेकगुणं
द्विजे ।
लभ्यते कोटिगुणितं विश्वासान्नात्र
संशयः ।
अविश्वासे शतगुणं फलमेव सुनिश्चितम्
॥ ३७ ॥
विश्वासपूर्वक अग्नि में एक गुण होम
और ब्राह्मण को एक गुण दान करने पर पर करोड गुण फल प्राप्त करता है,
इसमें सन्देह नहीं । अविश्वास से होम और दान करने पर केवल सौ गुणा
फल पाता है, यह निश्चित है ॥ ३७ ॥
गोग्रासं पावनं लोके
सर्वपापनिकृन्तनम् ।
कुमायें चैव यद्दत्तं तथा शक्त्यै
महेश्वरि ॥ ३८ ॥
हे महेश्वरि ! इस लोक में
गोप्रासदान परम पवित्र कर्म है, उसके द्वारा
सब पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ३८ ॥
न नश्यति कदापि तत्कल्पकोटिशतायुतैः
।
धर्मयोनिर्हिते देवा धर्मो
यज्ञादिको मतः ॥ ३९ ॥
परलोके महाबन्धुर्धमो ह्यत्र न
संशयः ।
कर्मण्येव कृते देवि वदिके
बहुजन्मनि ।
ततश्चागमिके धर्मे धर्मेणैव
प्रवर्त्तते ॥ ४० ॥
कुमारी और शक्ति को जो दिया जाता है,
कल्पकोटिशतायुत ( दस- सौ हजार करोड ) वर्ष में भी वह नष्ट नहीं होता
। देवता ही धर्म योनी, यज्ञादिक ही कर्म और परलोक में धर्म ही
महाबंध है, इसमें सन्देह नहीं । हे देवि ! बहुत जन्म वैदिक
कर्म करके फिर आगमधर्म में प्रवृत्त होगा ॥ ३९-४० ॥
तत्र सम्प्राप्यते मुक्तिः
कर्मबन्धविनाशिनी ।
ततस्तु बहुजन्मान्ते ज्ञानमासाद्य
मुच्यते ॥ ४१ ॥
उससे कर्मबन्धनविनाशिनी मुक्ति
प्राप्त होती है। आगम धर्म में प्रवृत्त रहकर बहुत जन्मों के पीछे मुक्ति मिलेगी ॥
४१ ॥
कर्मणा लभ्यते भक्तिभक्त्या
ज्ञानमुपालभेत् ।
ज्ञानान्मुक्तिर्महादेवि सत्यं
सत्यं मयोच्यते ॥ ४२ ॥
कर्म से भक्ति,
भक्ति से ज्ञान और ज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है। हे महादेवि !
यह मैंने तुमसे सत्य ही सत्य कहा है ॥ ४२ ॥
ज्ञानभावे समुत्पन्ने संप्राप्य
ज्ञानमुत्तमम् ।
तदा योगी विमुक्तः स्यादित्याह भगवाञ्छिवः
॥४३॥
भगवान् शिव ने कहा है,
जब ज्ञानभाव उत्पन्न होता है, तब योगीजन उत्तम
ज्ञान प्राप्त करके मुक्त होते हैं ॥४३॥
न कर्मणः समारम्भान्नष्फलं
पुरुषोऽश्नुते ।
तस्मात्कर्म महामाये सर्वदा
समुपाचरेत् ॥४४॥
कर्म करने पर पुरुष गण निष्फलता
प्राप्त नहीं करते, अवश्य उसका फल पाते
हैं इस कारण हे देवि ! सदा कर्म का आचरण करना चाहिये॥४४॥
वैदिकं तान्त्रिकं वापि यदि भाग्येन
लभ्यते ।
न वृथा गमयेत्कालं द्यूतक्रीडादिना
सुधीः ॥ ४५ ॥
यदि भाग्य से वैदिक वा तान्त्रिक
कर्म कर सके, तौ बुद्धिमान मनुष्य जुए
इत्यादि के द्वारा कालातिपात करके वृथा समय नष्ट न करें ॥ ४५ ॥
गमयेदेवता पूजाजपयज्ञस्तवादिना ।
द्विविधचैव तत्कर्म बाह्यान्तर
विभेदतः ॥ ४६॥
देवता पूजा,
जप, यज्ञ और स्तवादि द्वारा काल क्षय करें
कर्म दो प्रकार के हैं, बाह्य और आन्तरिक ॥ ४६ ॥
बाह्यश्वानियमाशक्तं मानसं न तथा
पुनः ।
अशुचिर्वा शुचिर्वापि यत्र कुत्र
स्थलेऽपि वा ॥ ४७ ॥
गच्छंस्तिष्ठ स्वपन्वापि यद्वा
यद्वा वरानने ।
कुर्याच्च मानसं धर्म न दोषो मानसे
क्वचित् ॥ ४८ ॥
वाह्य कर्म अनियम द्वारा नहीं किया
जा सकता,
किन्तु मानसिक वा "आन्तरिक कर्म में ऐसा नहीं है अपवित्र हो वा
पवित्र हो जिस किसी स्थल में स्थिति करते हो, चलते चलते हो,
अथवा जो कोई कार्य करते करते हो मानस धर्म का आचरण करे । क्योंकि,
मानस में कोई दोष नहीं है ॥ ४७-४८ ॥
सर्वेषां कर्मणां श्रेष्ठं जपज्ञानं
महेश्वरि ।
जपयज्ञो महेशानि मत्स्वरूपो न संशयः
॥ ४९ ॥
हे महेश्वरि । जप यज्ञ सभी कर्मों से
श्रेष्ठ है, जप यज्ञ मेरा स्वरूप है इसमें
सन्देह नहीं ॥ ४९ ॥
जपयज्ञे हि तिष्ठेद्यो बाह्ये वा
चान्तरोऽपि वा ।
सर्वदा परमेशानि जीवन्मुक्तो न
संशयः ॥ ५० ॥
बाह्य में हो वा अन्तर में हो,
जो मनुष्य जपयज्ञ में नियमासक्त होता है, उसको
निःसंदेह जीवन्मुक्त जानना चाहिये ॥ ५० ॥
वैदिकास्तान्त्रिका ये ये धर्म्माः
सन्ति महरेवारी ।
सर्वे ते जपयज्ञस्य कलां नार्हन्ति
षोडशीम् ॥ ५१ ॥
हे देवि ! वैदिक हों वा तान्त्रिक
हों,
जो जो धर्म जगत्में विद्यमान हैं, वह सब
जपयज्ञ के षोडशांश नहीं होंगे ॥ ५१ ॥
ग्रहभूतपिशाचाद्या यक्षरक्षोगणाश्च
ये ॥
व्याघ्राद्या जन्तवो देवि तथैव
कुपितान्तरः ॥ ५२ ॥
ग्रह, भूत, पिशाच, यक्ष और रक्षोगण
व्याघ्रादि कुपितान्तर हिंसक जन्तुगण ॥ ५२ ॥
डाकिन्यो गुह्यकश्चैव गन्धर्वाश्च
सरीसृपाः ।
दानवा भैरवा दुष्टा ये वै
श्मशानवासिनः ॥ ५३ ॥
डाकिनीगण,
गुह्यकगण, गंधर्वगण, सरीसृपगण,
दानवगण, भैरवगण और श्मशानवासी दुष्टगण ॥ ५३ ॥
केsपि नेच्छन्ति तं देवि जापिनं भयविह्वलाः ।
न स्पृशन्ति च पापानि कदापि साधकं
प्रिये ॥ ५४ ॥
सब ही भयविह्वल होकर जपकारी व्यक्ति
का दर्शन नहीं कर सकते है। प्रिये ! सब पाप साधक व्यक्ति को कभी स्पर्श नहीं कर
सकते ॥ ५४ ॥
फलमेतद्वाचिकस्य जपस्य
परिकीर्त्तितम् ।
तस्माच्छतगुणो पांशुः सहस्रो मानसो
मतः ॥५५॥
मैं तुमसे वाचिक जप का फल कहता हूं,
उपांशु जप से उसका शत गुण और मानसिक जप से उसका सहस्रगुण फल प्राप्त
होता है ॥ ५५ ॥
मन्त्रमुच्चारयेद्वाचा वाचिको जप
ईरितः ।
किञ्चित्सुश्रवणोपेत उपांशुः
परिकीर्त्तितः ॥ ५६ ॥
उच्च वाक्य द्वारा मन्त्र का
उच्चारण करने पर उसको वाचिक जप और किंचित् श्रवण योग्य जप ही उपांशु जप है ॥ ५६ ॥
निजकर्णगोचरो यो मानसः
परिकीर्त्तितः ।
वाचिकस्तु जपो बाह्यो
मानसोऽभ्यन्तरो मतः ॥ ५७॥
और जो अपने कर्णगोचर न हो,
वही मानसिक जप है, वाचिक जप ही बाह्य जप और
मानसिक जप को ही आभ्यन्तर जप कहते हैं ॥ ५७ ॥
उपांशुमिश्र एव स्यात्रिविधोऽयं जपः
स्मृतः ।
जपेन देवता नित्यं स्तूयमाना
प्रसीदति ॥ ५८ ॥
और उपांशु जप को मिश्र जप कहते हैं,
इस भांति जप तीन प्रकार का होता है । जप द्वारा स्तूयमान देवता
प्रसन्न होते हैं ॥ ५८ ॥
प्रसन्ना
विपुलान्कामान्दद्यान्मुक्तिश्च शाश्वतीम् ।
साधनञ्च जपश्चैव ध्यानं चैव वरानने
।
नाल्पेन तपसा देवि केनापि कुत्र
लभ्यते ॥ ५९ ॥
और प्रसन्न होकर विपुल काम्य विषय
और अन्त में शाश्वती मुक्ति प्रदान करते हैं। हे वरानने ! साधन,
जप और ध्यान अल्प तपस्या से कहीं भी प्राप्त नहीं होता ॥ ५९ ॥
यदि भाग्येन देवेशि बहुजन्मार्जितेन
च ।
प्राप्यते यत्र तच्चेत्तु जन्मनाप्येकमोक्षभाक्
॥ ६० ॥
हे देवेशि ! यदि जन्मार्जित पुण्य के
बल से वह सब प्राप्त हों तो एक जन्म में ही मोक्ष हो सकता है ॥ ६० ॥
ब्रह्मज्ञानञ्च यत्प्रोक्तं
समाधिस्तत्प्रकीर्त्यते ।
इत्येवं कथितं रम्यं समासेन
महेश्वरि ।
इतः परं महादेवि किं पुनः
श्रोतुमिच्छसि ॥ ६१ ॥
जो ब्रह्मज्ञान कहा है,
उसी को समाधि कहते हैं हे महादेवि ! यह मैंने तुम्हारे निकट संक्षेप
से मनोहर गुप्त विषय वर्णन किया, अब इसके पीछे तुम क्या
सुनने की इच्छा करती हो सो कहो ॥ ६१ ॥
इति श्रीयोगिनीतन्त्रे
सर्वतन्त्रोत्तमोत्तमे देवीश्वरसम्बादे चतुर्विंशति साहस्त्रे भाषाटीकायां त्रयोदशः
पटलः ॥१३॥
आगे जारी........ योगिनीतन्त्र पटल 14

Post a Comment