पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

युगल सहस्र नाम

युगल सहस्र नाम

भगवान् श्रीराधाकृष्णयुगलरूप का दिव्य सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ वृन्दावन के रस की प्राप्ति करानेवाला, बड़े-से- बड़े पापों को शान्त करानेवाला, अभिलषित भोगों को देनेवाला, राधा- माधव की भक्ति देनेवाला, मेधाशक्ति बढ़ानेवाला, भोग और मोक्ष देनेवाला है। साधक को चाहिये वह अपने को श्यामसुन्दर की सेवा के सर्वथा अनुरूप समझे और श्रीकृष्णसेवाजनित सुख एवं आनन्द से अपने को अत्यन्त संतुष्ट अनुभव करे। प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त से लेकर आधी राततक समयानुरूप सेवा के द्वारा दोनों प्रिया-प्रियतम की परिचर्या करे। प्रतिदिन एकाग्रचित्त होकर उन युगल सरकार के सहस्र नामों का पाठ करे।

श्रीराधाकृष्णयुगलसहस्रनामस्तोत्रम्

श्रीराधाकृष्णयुगलसहस्रनामस्तोत्रम्

Shri Radha Krishna yugal sahastranaam stotram

राधाकृष्ण युगल सहस्रनाम स्तोत्रं

नारदीयपुराण अध्याय ८२

राधाकृष्ण – सहस्रनाम स्तोत्र

युगलसहस्रनामस्तोत्रम्

॥ अथ युगल सहस्र नाम स्तोत्र ॥

सनत्कुमार उवाच -

किं त्वं नारद जानासि पूर्वजन्मनि यत्त्वया ।

प्राप्तं भगवतः साक्षाच्छूलिनो युगलात्मकम् ॥ १॥

कृष्णमन्त्ररहस्यं च स्मर विस्मृतिमागतम् ।

सनत्कुमार बोले-नारद ! क्या तुम जानते हो कि पूर्व जन्म में तुमने साक्षात् भगवान् शङ्कर से युगल नाम वाले कृष्णमन्त्र के रहस्य को प्राप्त किया था । यदि विस्मृत हो गया हो तो स्मरण करो ॥१/३॥

सूत उवाच -

इत्युक्तो नारदो विप्राः कुमारेण तु धीमता ॥ २॥

ध्याने विवेदाशु चिरं चरितं पूर्वजन्मनः ।

ततश्चिरं ध्यानपरो नारदो भगवत्प्रियः ॥ ३॥

ज्ञात्वा सर्वं सुवृत्तान्तं सुप्रसन्नाननोऽब्रवीत् ।

भगवन्सर्ववृत्तान्तः पूर्वकल्पसमुद्भवः ॥ ४॥

मम स्मृतिमनुप्राप्तो विना युगललम्भनम् ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य नारदस्य महात्मनः ॥ ५॥

सनत्कुमारो भगवान् व्याजहार यथातथम् ।

सूत बोले- विप्रवृन्द ! घीमान् सनत्कुमार के यह कहने पर नारद ने शीघ्र ही अपने पूर्वजन्म के चरित्र का ध्यान किया । चिरकाल तक ध्यानपरायण होने के उपरान्त भगवत्प्रिय नारद समस्त वृत्तान्त को जानकर सुप्रसन्न मुख से बोले 'भगवन् ! पूर्व कल्प का सारा वृत्तान्त तो मुझे मालूम हो गया, परन्तु युगल मन्त्र का स्मरण नहीं हो सका। महात्मा नारद को यह बात सुनकर भगवान् सनत्कुमार यथार्थतः सब बातें बताने लगे ॥२-५/३॥

सनत्कुमार उवाच -

शृणु विप्र प्रवक्ष्यामि यस्मिञ्जन्मनि शूलिनः ॥ ६॥

प्राप्तं कृष्णरहस्यं वै सावधानो भवाधुना ।

अस्मात्सारस्वतात्कल्पात्पूर्वस्मिन्पञ्चविंशके ॥ ७॥

कल्पे त्वं काश्यपो जातो नारदो नाम नामतः ।

तत्रैकदा त्वं कैलासं प्राप्तः कृष्णस्य योगिनः ॥ ८॥

सम्प्रष्टुं परमं तत्त्वं शिवं कैलासवासिनम् ।

त्वया पृष्टो महादेवो रहस्यं स्वप्रकाशितम् ॥ ९॥

कथया मास तत्त्वेन नित्यलीलानुगं हरेः ।

ततस्तदन्ते तु पुनस्त्वया विज्ञापितो हरः ॥ १०॥

नित्यां लीलां हरेर्द्रष्टुं ततः प्राह सदाशिवः ।

सनत्कुमार बोले- विप्र ! जिस जन्म में तुमने कृष्ण के रहस्य को प्राप्त किया था, वह अभी मैं बता देता है, तुम सावधान होकर सुनो। इस सारस्वत कल्प से पहिले पचास कल्प में तुम कश्यप के पुत्र हुए थे, तुम्हारा नाम नारद था। एक समय तुम कैलासवासी शिव से योगी कृष्ण के परम तत्व को पूछने के लिये कैलास पर्वत पर गये। तुम्हारे पूछने पर महादेव ने अपने आप प्रकाशित होने वाले हरि की नित्य लीला रूप रहस्य को तत्वतः समझा दिया। अन्त में पुनः तुमने हर से निवेदन किया कि मैं हरि की नित्य लीला को देखना चाहता है।

गोपीजनपदस्यान्ते वल्लभेति पदं ततः ॥ ११॥

चरणाच्छरणं पश्चात्प्रपद्ये इति वै मनुः ।

मन्त्रस्यास्य ऋषिः प्रोक्तो सुरभिश्छन्द एव च ॥ १२॥

गायत्री देवता चास्य बल्लवीवल्लभो विभुः ।

प्रपन्नोऽस्मीति तद्भक्तौ विनियोग उदाहृतः ॥ १३॥

तब सदाशिव ने कहा- 'गोपीजन' इस पद के अन्त में 'वल्लभ' इस पद को जोड दीजिए । तत्पश्चात् 'चरण' फिर 'शरण' और अन्त में 'प्रपद्ये' इतने को रख दीजिए। इस प्रकार मन्त्र बनेगा 'गोपीजन वल्लभचरणाञ्छरणं प्रपद्ये' इस मन्त्र के ऋषि सुरभि है, छन्द गायत्री है और देवता गोपिकावल्लभ हैं। कृष्ण भक्ति में 'मैं शरणागत हूँ' ऐसा विनियोग कहा गया है ।।६-१३।।

नास्य सिद्धादिकं विप्र शोधनं न्यासकल्पनम् ।

केवलं चिन्तनं सद्यो नित्यलीलाप्रकाशकम् ॥ १४॥

आभ्यन्तरस्य धर्मस्य साधनं वच्मि साम्प्रतम् ॥ १५॥

विप्र ! इस मन्त्र में न्यास, शुद्धि तथा सिद्ध आदि करने को आवश्यकता नहीं है। केवल चितन करने से सत्य नित्य लीला का प्रकाश दिखाई देता है। अब मैं आभ्यन्तर धर्म का साधन बताता है ।।१४-१५ ।।

सङ्गृह्य मन्त्रं गुरुभक्तियुक्तो

विचिन्त्य सर्वं मनसा तदीहितम् ।

कृपां तदीयां निजधर्मसंस्थो

विभावयन्नात्मनि तोषयेद्गुरुम् ॥ १६॥

सतां शिक्षेत वै धर्मान्प्रपन्नानां भयापहान् ।

ऐहिकामुष्मिकीचिन्ताविधुरान् सिद्धिदायकान् ॥ १७॥

स्वेष्टदेवधिया नित्यं तोषयेद्वैष्णवांस्तथा ।

भर्त्सनादिकमेतेषां न कदाचिद्विचिन्तयेत् ॥ १८॥

मन्त्र की दीक्षा लेकर गुरु की भक्ति करते हुए उनकी समस्त इच्छाओं का ध्यान रखे। अपने धर्म पर आरूढ़ होकर मन में गुरु कृपा की भावना को रखते हुए उनको संतुष्ट करे । शरण में आये सज्जनों की भय दूर करने वाले ऐहलौकिक एवम् पारलौकिक चिंता को मिटानेवाले तथा सिद्धि देने वाले धर्मो का उपदेश करे। अपना इष्ट देव समझकर नित्य वैष्णवों को संतुष्ट करे । उनकी निन्दा आदि कभी न करे ।। १६-१८।।

पूर्वकर्मवशाद्भव्यमैहिकं भोग्यमेव च ।

आयुष्यकं तथा कृष्णः स्वयमेव करिष्यति ॥ १९॥

श्रीकृष्णं नित्यलीलास्थं चिन्तयेत्स्वधियानिशम् ।

श्रीमदर्चावतारेण कृष्णं परिचरेत्सदा ॥ २०॥

अनन्यचिन्तनीयोऽसौ प्रपन्नैः शरणार्थिभिः ।

स्थेयं च देहगेहादावुदासीनतया बुधैः ॥ २१॥

गुरोरवज्ञां साधूनां निन्दां भेदं हरे हरौ ।

वेदनिन्दां हरेर्नामबलात्पापसमीहनम् ॥ २२॥

अर्थवादं हरेर्नाम्नि पाषण्डं नामसङ्ग्रहे ।

अलसे नास्तिके चैव हरिनामोपदेशनम् ॥ २३॥

नामविस्मरणं चापि नाम्न्यनादरमेव च ।

सन्त्यजेद् दूरतो वत्स दोषानेतान्सुदारुणान् ॥ २४॥

प्रपन्नोऽस्मीति सततं चिन्तयेद्धृद्गतं हरिम् ।

स एव पालनं नित्यं करिष्यति ममेति च ॥ २५॥

ऐसे व्यक्ति को पूर्वजन्मार्जित कर्म के तारतम्य से ऐहलौकिक भोग एवम् आयु का प्रदान स्वयं कृष्ण ही करते हैं। साधक नित्यलीला करते हुए कृष्ण का चिन्तन अहर्निश किया करे। सम्यक् प्रकार से हरि का पूजन करे। उनका शरणागत होकर केवल उन्हीं की चिन्तन करे, अन्य की नहीं। शरीर, गृह आदि में उदासीनता का भाव रखे। गुरु का तिरस्कार, साधुओं की निंदा, हरि और हर में भेद बुद्धि, वेदनिंदा, हरिनाम की निंदा, बलात् पापों की इच्छा, हरिनाम में अर्थवाद नामसंग्रह में पाखंड, आलसी और नास्तिक को हरिमान का उपदेश, नामों का विस्मरण और नामों का अनादर-- इन भयंकर दोषों का परित्याग करे। मैं शरणागत हूँ ऐसा कहकर हृदय स्थित हरि का सतत चिन्तन करे । 'वही नित्य मेरा पालन करेंगे ।।१९ - २५।।

तवास्मि राधिकानाथ कर्मणा मनसा गिरा ।

कृष्णकान्तेति चैवास्मि युवामेव गतिर्मम ॥ २६॥

दासाः सखायः पितरः प्रेयस्यश्च हरेरिह ।

सर्वे नित्या मुनिश्रेष्ठ चिन्तनीया महात्मभिः ॥ २७॥

गमनागमने नित्यं करोति वनगोष्ठयोः ।

गोचारणं वयस्यैश्च विनासुरविघातनम् ॥ २८॥

सखायो द्वादशाख्याता हरेः श्रीदामपूर्वकाः ।

राधिकायाः सुशीलाद्याः सख्यो द्वात्रिंशदीरिताः ॥ २९॥

आत्मानं चिन्तयेद्वत्स तासां मध्ये मनोरमाम् ।

रूपयौवनसम्पन्नां किशोरीं च स्वलङ्कृताम् ॥ ३०॥

नानाशिल्पकलाभिज्ञां कृष्णभोगानुरूपिणीम् ।

तत्सेवनसुखाह्लादभावेनातिसुनिर्वृताम् ॥ ३१॥

ब्राह्मं मुहूर्तमारभ्य यावदर्धनिशा भवेत् ।

तावत्परिचरेत्तौ तु यथाकालानुसेवया ॥ ३२॥

सहस्रं च तयोर्नाम्नां पठेन्नित्यं समाहितः ।

एतत्साधनमुद्दिष्टं प्रपन्नानां मुनीश्वर ॥ ३३॥

नाख्येयं कस्यचित्तुभ्यं मया तत्त्वं प्रकाशितम् ।

राधिकानाथ ! मैं मनसा, वाचा, कर्मणा आप ही का हूँ। मैं आपका प्रिय हूँ, आप दोनों (राधा और कृष्ण) ही मेरी  गति है । ऐसा कहा करे। मुनिश्रेष्ठ ! महात्माओं को चाहिये कि वे हरि के दास, सखा, पितर तथा प्रेयसी का सदा चिन्तन करे। कृष्ण नित्य वृन्दावन और व्रज में आते जाते हैं तथा बिना देवताओं को क्षति पहुँचाये सखाओं के साथ गो चराते हैं। ऐसी भावना करे। हरि के श्रीदामा आदि बारह सखा है और राधिका सुशीला आदि बत्तीस सखियां हैं। उन सखियों के बीच अपने को मनोरमा, रूपयौवनसंपन्ना किशोरी, सु-अलंकृता, अनेक शिल्पकलाओं को जानने वाली, कृष्ण के भोग के अनुरूप और उनके सेवन जन्य सुख से आनन्दविभोर होने वाली सखी समझे । ब्राह्ममुहुर्त से लेकर आधी रात तक समय के अनुसार उनकी परिचर्या करे । नित्य सावधान होकर राधा-कृष्ण के सहस्र नामों का पाठ करे। मुनीश्वर ! भक्तों के लिये यही साधन बतलाया गया है। यह तत्त्व किसी से प्रकाशित नहीं करना चाहिये। केवल तुमसे ही मैंने कहा है' ।। २६-३३/३॥

सनत्कुमार उवाच -

ततस्त्वं नारद पुनः पृष्टवान्वै सदाशिवम् ॥ ३४॥

नाम्नां सहस्रं तच्चापि प्रोक्तवांस्तच्छृणुष्व मे ।

ध्यात्वा वृन्दावने रम्ये यमुनातीरसङ्गतम् ॥ ३५॥

कल्पवृक्षं समाश्रित्य तिष्ठन्तं राधिकायुतम् ।

पठेन्नामसहस्रं तु युगलाख्यं महामुने ॥ ३६॥

सनत्कुमार बोले---नारद ! तदुपरान्त तुमने सदाशिव से पुनः प्रश्न किया। तब जो उन्होंने सहस्र नामों के विषय में बतलाया, वह मुझसे सुनो। महामुने! रमणीय वृन्दावन में यमुना के तट पर स्थित कल्पवृक्ष के समीप निवास करते हुए राधा-कृष्ण के युगल संज्ञक सहस्रनाम का पाठ करना चाहिये ।।३४-३६।। 

श्रीराधाकृष्णयुगलसहस्रनामस्तोत्रम्

ॐ देवकीनन्दनः शौरिर्वासुदेवो बलानुजः ।

गदाग्रजः कंसमोहः कंससेवकमोहनः ॥ ३७॥

भिन्नार्गलो भिन्नलोहः पितृबाह्याः पितृस्तुतः ।

मातृस्तुतः शिवध्येयो यमुनाजलभेदनः ॥ ३८॥

व्रजवासी व्रजानन्दी नन्दबालो दयानिधिः ।

लीलाबालः पद्मनेत्रो गोकुलोत्सव ईश्वरः ॥ ३९॥

गोपिकानन्दनः कृष्णो गोपानन्दः सतां गतिः ।

बकप्राणहरो विष्णुर्बकमुक्तिप्रदो हरिः ॥ ४०॥

१. देवकीनन्दनः = देवकीको आनन्दित करनेवाले, २. शौरिः- शूरसेनके वंशज, ३. वासुदेव:-वसुदेव- पुत्र अथवा सबके भीतर निवास करनेवाले देवता, ४. बलानुज:-बलरामजीके छोटे भाई, ५. गदाग्रजः = गदके बड़े भाई, ६. कंसमोहः = अपनी अलौकिक शौर्यपूर्ण लीलाओंसे कंसको मोहित करनेवाले, ७. कंससेवकमोहन :- कंसकी सेवामें तत्पर असुर वीरोंको मोहित करनेवाले ।

८. भिन्नार्गलः- जन्म लेनेके पश्चात् गोकुल- गमनकी इच्छासे कंसके कारागारमें लगे हुए किंवाड़ोंकी अर्गला (सिटकिनी) - का भेदन करनेवाले, ९. भिन्नलोहः = पिताके हाथों और पैरोंमें बँधी हुई लोहेकी हथकड़ी और बेड़ीको संकल्पमात्रसे तोड़ देनेवाले, १०. पितृवाह्यः - पिता वसुदेवके द्वारा सिरपर वहन करने योग्य शिशुरूप श्रीकृष्ण, १९. पितृस्तुतः - अवतारकालमें पिताके द्वारा जिनकी स्तुति की गयी, वे श्रीकृष्ण, १२. मातृस्तुतः = माता देवकी के द्वारा जिनकी स्तुति की गयी वे, १३. शिवध्येयः - भगवान् शङ्करके ध्यानके विषय, १४. यमुनाजलभेदन:- गोकुल जाते समय वसुदेवजीको मार्ग देनेके लिये यमुनाजीके जलका भेदन करनेवाले ।

१५. व्रजवासी - व्रजमें निवास करनेवाले, १६. व्रजानन्दी = अपने शुभागमनसे सम्पूर्ण व्रजका आनन्द बढ़ानेवाले, १७. नन्दबालः= नन्दजीके पुत्र, १८. दयानिधिः = दयाके समुद्र, १९. लीलाबालः - लीला के लिये बालरूपमें प्रकट, २०. पद्मनेत्रः=कमलसदृश नेत्रवाले, २१. गोकुलोत्सवः = गोकुलके लिये उत्सवरूप अथवा अपने जन्म से गोकुल में आनन्दोत्सव को बढ़ानेवाले, २२. ईश्वरः = सब प्रकार से समर्थ ।

२३. गोपिकानन्दनः- अपनी शैशवसुलभ चेष्टाओंसे यशोदा आदि गोपियोंको आनन्दित करनेवाले, २४. कृष्णः - सच्चिदानन्दस्वरूप अथवा सबको अपनी ओर खींचनेवाले, २५. गोपानन्दः = गोपोंके लिये मूर्तिमान् आनन्द, २६. सताङ्गतिः = साधु-महात्माओं तथा भक्तजनोंके आश्रय, २७. वकप्राणहरः=वकासुरके प्राण लेनेवाले, २८. विष्णुः = सर्वत्र व्यापक, २९. वकमुक्तिप्रदः= वकासुरको मोक्ष देनेवाले, ३०. हरिः =पाप, दुःख और अज्ञानको हर लेनेवाले ।

बलदोलाशयशयः श्यामलः सर्वसुन्दरः ।

पद्मनाभो हृषीकेशः क्रीडामनुजबालकः ॥ ४१॥

लीलाविध्वस्तशकटो वेदमन्त्राभिषेचितः ।

यशोदानन्दनः कान्तो मुनिकोटिनिषेवितः ॥ ४२॥

नित्यं मधुवनावासी वैकुण्ठः सम्भवः क्रतुः ।

रमापतिर्यदुपतिर्मुरारिर्मधुसूदनः ॥ ४३॥

माधवो मानहारी च श्रीपतिर्भूधरः प्रभुः ।

बृहद्वनमहालीलो नन्दसूनुर्महासनः ॥ ४४॥

तृणावर्तप्राणहारी यशोदाविस्मयप्रदः ।

त्रैलोक्यवक्त्रः पद्माक्षः पद्महस्तः प्रियङ्करः ॥ ४५॥

ब्रह्मण्यो धर्मगोप्ता च भूपतिः श्रीधरः स्वराट् ।

अजाध्यक्षः शिवाध्यक्षो धर्माध्यक्षो महेश्वरः ॥ ४६॥

३१. बलदोलाशयशयः - शेषस्वरूप बलरामरूपी हिंडोलेपर शयन करनेवाले, ३२. श्यामल:- श्यामवर्ण, ३३. सर्वसुन्दर:- पूर्ण सौन्दर्यके आश्रय, ३४. पद्मनाभः = जिनकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ वे भगवान् विष्णु, ३५. हृषीकेशः = इन्द्रियोंके नियन्ता और प्रेरक, ३६. क्रीडामनुजबालकः= लीलाके लिये मनुष्य-बालकका रूप धारण किये हुए।

३७. लीलाविध्वस्तशकट: = अनायास ही चरणों स्पर्शसे छकड़ेको उलटकर उसमें स्थित असुरका नाश करनेवाले, ३८. वेदमन्त्राभिषेचितः - यशोदा मैयाकी प्रेरणासे बालारिष्टनिवारणके लिये ब्राह्मणोंद्वारा वेद-मन्त्रसे अभिषिक्त, ३९. यशोदानन्दनः - यशोदा मैयाको आनन्द देनेवाले, ४०. कान्तः = कमनीय स्वरूप, ४१. मुनिकोटिनिषेवितः=करोड़ों मुनियोंद्वारा सेवित ।

४२. नित्यं मधुवनवासी- मधुवनमें नित्य निवास करनेवाले, ४३. वैकुण्ठः = वैकुण्ठधामके अधिपति विष्णु, ४४. सम्भवः = सबकी उत्पत्तिके स्थान, ४५. क्रतुः = यज्ञस्वरूप, ४६. रमापतिः = लक्ष्मीपति, ४७. यदुपतिः- यदुवंशियोंके स्वामी, ४८. मुरारिः= मुर दैत्यके नाशक, ४९. मधुसूदनः = मधु नामक दैत्यको मारनेवाले ।

५०. माधवः- यदुवंशान्तर्गत मधुकुलमें प्रकट, ५१. मानहारी - अभिमान और अहंकारका नाश करनेवाले, ५२. श्रीपतिः = लक्ष्मीके स्वामी, ५३. भूधरः = शेषनागरूपसे पृथ्वीको धारण करनेवाले, ५४. प्रभुः = सर्वसमर्थ, ५५. बृहद्वनमहालील:= महावनमें बड़ी-बड़ी लीलाएँ करनेवाले५६. नन्दसूनुः = नन्दजीके पुत्र, ५७. महासन:- अनन्त शेषरूपी महान् आसनपर विराजनेवाले ।

५८. तृणावर्तप्राणहारी = तृणावर्त नामक दैत्यको मारनेवाले, ५९. यशोदाविस्मयप्रदः - अपनी अद्भुत लीलाओंसे यशोदा मैयाको आश्चर्यमें डाल देनेवाले, ६०. त्रैलोक्यवक्त्रः - अपने मुखमें तीनों लोकोंको दिखानेवाले, ६१. पद्माक्ष:- विकसित कमलदलके समान विशाल नेत्रोंवाले, ६२. पद्महस्तः- हाथमें कमल धारण करनेवाले, ६३. प्रियङ्करः - सबका प्रिय कार्य करनेवाले ।

६४. ब्रह्मण्य:-ब्राह्मण-हितकारी, ६५. धर्मगोप्ता- धर्मकी रक्षा करनेवाले, ६६. भूपतिः – पृथ्वीके स्वामी, ६७. श्रीधरः- वक्षःस्थलमें लक्ष्मीको धारण करनेवाले, ६८. स्वराट् = स्वयंप्रकाश, ६९. अजाध्यक्षः - ब्रह्माजीके स्वामी, ७०. शिवाध्यक्ष:- भगवान् शिवके स्वामी, ७१. धर्माध्यक्षः = धर्मके अधिपति, ७२. महेश्वरः= परमेश्वर।

वेदान्तवेद्यो ब्रह्मस्थः प्रजापतिरमोघदृक् ।

गोपीकरावलम्बी च गोपबालकसुप्रियः ॥ ४७॥

बालानुयायी बलवान् श्रीदामप्रिय आत्मवान् ।

गोपीगृहाङ्गणरतिर्भद्रः सुश्लोकमङ्गलः ॥ ४८॥

नवनीतहरो बालो नवनीतप्रियाशनः ।

बालवृन्दी मर्कवृन्दी चकिताक्षः पलायितः ॥ ४९॥

यशोदातर्जितः कम्पी मायारुदितशोभनः ।

दामोदरोऽप्रमेयात्मा दयालुर्भक्तवत्सलः ॥ ५०॥

सुबद्धोलूखले नम्रशिरा गोपीकदर्थितः ।

वृक्षभङ्गी शोकभङ्गी धनदात्मजमोक्षणः ॥ ५१॥

देवर्षिवचनश्लाघी भक्तवात्सल्यसागरः ।

व्रजकोलाहलकरो व्रजानदविवर्द्धनः ॥ ५२॥

७३. वेदान्तवेद्यः - उपनिषदोंद्वारा जानने योग्य परमात्मा, ७४. ब्रह्मस्थ:- वेदमें स्थित, ७५. प्रजापतिः = सम्पूर्ण जीवोंके पालक, ७६. अमोघदृक्- जिनकी दृष्टि कभी चूकती नहीं ऐसे सर्वसाक्षी, ७७. गोपीकरावलम्बी-गोपियोंके हाथको पकड़कर नाचनेवाले, ७८. गोपबालकसुप्रियः = गोपबालकोंके अत्यन्त प्रियतम ।

७९. बलानुयायी-बलरामजीका अनुकरण करनेवाले, ८०. बलवान् -बली, ८१. श्रीदामप्रियः = श्रीदामा के प्रिय सखा, ८२. आत्मवान्- मनको वशमें करनेवाले, ८३. गोपीगृहाङ्गणरतिः = गोपियोंके घर और आँगनमें खेलनेवाले, ८४. भद्रः = कल्याणस्वरूप, ८५. सुश्लोकमङ्गलः-अपने लोकपावन सुयशसे सबका मङ्गल करनेवाले ।

८६. नवनीतहरः- माखनका हरण करनेवाले, ८७. बालः-बाल्यावस्थासे विभूषित, ८८. नवनीत- प्रियाशन:- मक्खन जिनका प्यारा भोजन है, ८९. बालवृन्दी-गोप-बालकोंके समुदायको साथ रखनेवाले, ९०. मर्कवृन्दी- वानरोंके झुंडके साथ खेलनेवाले, ९१. चकिताक्षः = आश्चर्ययुक्त चञ्चल नेत्रोंसे देखनेवाले, ९२. पलायितः = मैयाकी साँटीके भयसे भाग जानेवाले ।

९३. यशोदातर्जित: - यशोदा मैयाकी डाँट सहनेवाले, ९४. कम्पी- मैया मारेगी इस भयसे काँपनेवाले, ९५. मायारुदितशोभनः = लीलाकृत रुदनसे सुशोभित, ९६. दामोदरः = मैयाद्वारा रस्सीसे कमर में बाँधे जानेवाले, ९७. अप्रमेयात्मा - जिसकी कोई माप नहीं ऐसे स्वरूपसे युक्त, ९८. दयालुः= सबपर दया करनेवाले, ९९. भक्तवत्सलः-भक्तोंसे प्यार करनेवाले ।

१००. उलूखले सुबद्धः - ऊखलमें अच्छी तरह बँधे हुए, १०१. नम्रशिरा = झुके मस्तकवाले, १०२. गोपीकदर्थितः = गोपियोंद्वारा यशोदा मैयाके पास जिनके बालचापल्यकी शिकायत की गयी है वे, १०३. वृक्षभङ्गी - यमलार्जुन नामक वृक्षोंको भङ्ग करनेवाले, १०४. शोकभङ्गी- स्वयं सुरक्षित रहकर स्वजनोंका शोक भङ्ग करनेवाले, १०५. धनदात्मजमोक्षणः = कुबेरपुत्रोंका उद्धार करनेवाले ।

१०६. देवर्षिवचनश्लाघी - देवर्षि नारदके वचनका आदर करनेवाले, १०७. भक्तवात्सल्यसागरः= भक्तवत्सलताके समुद्र, १०८. व्रजकोलाहलकर:- अपनी बालोचित क्रीड़ाओंसे व्रजमें कोलाहल मचा देनेवाले, १०९. व्रजानन्दविवर्धनः = व्रजवासियोंके आनन्दकी वृद्धि करनेवाले ।

गोपात्मा प्रेरकः साक्षी वृन्दावननिवासकृत् ।

वत्सपालो वत्सपतिर्गोपदारकमण्डनः ॥ ५३॥

बालक्रीडो बालरतिर्बालकः कनकाङ्गदी ।

पीताम्बरो हेममाली मणिमुक्ताविभूषणः ॥ ५४॥

किङ्किणीकटकी सूत्री नूपुरी मुद्रिकान्वितः ।

वत्सासुरपतिध्वंसी बकासुरविनाशनः ॥ ५५॥

११०. गोपात्मा=गोपस्वरूप१११. प्रेरकः= इन्द्रियमनबुद्धि आदि को प्रेरणा देनेवाले, ११२. साक्षी = अनन्त विश्वके सम्पूर्ण पदार्थों और भावोंके द्रष्टा११३. वृन्दावननिवासकृत्-वृन्दावन में निवास करनेवाले११४. वत्सपालः = बछड़ोंको पालनेवाले११५. वत्सपतिः = बछड़ोंके स्वामी एवं रक्षक११६. गोपदारकमण्डनः-गोपबालकोंकी मण्डलीको सुशोभित करनेवाले ।

११७. बालक्रीड:- बालोचित खेल खेलने-वाले११८. बालरतिः = गोपबालकों से प्रेम करने वाले११९. बालकः-बालरूपधारी गोपाल१२०. कनकाङ्गदी-सोनेका बाजूबंद पहननेवाले१२१. पीताम्बरः = पीताम्बर  पहननेवाले१२२. हेममाली - सुवर्णमालाधारी१२३. मणिमुक्ताविभूषणः-मणियों और मोतियोंके आभूषण धारण करनेवाले ।

१२४. किङ्किणीकटकी - कटिमें क्षुद्र घण्टिका और हाथोंमें कड़े पहननेवाले१२५. सूत्री - बाल्यावस्था में सूतकी करधनी और बड़े होनेपर यज्ञोपवीत धारण करनेवाले१२६. नूपुरी = पैरोंमें नूपुर पहननेवाले१२७. मुद्रिकान्वितः = हाथकी अंगुलियोंमें अंगूठी धारण करनेवाले१२८. वत्सासुरप्रतिध्वंसी-वत्सासुरका विनाश करनेवाले१२९. वकासुरविनाशन:- वकासुरका विनाश करनेवाले ।

अघासुरविनाशी च विनिद्रीकृतबालकः ।

आद्य आत्मप्रदः सङ्गी यमुनातीरभोजनः ॥ ५६॥

गोपालमण्डलीमध्यः सर्वगोपालभूषणः ।

कृतहस्ततलग्रासो व्यञ्जनाश्रितशाखिकः ॥ ५७॥

कृतबाहुशृङ्गयष्टिर्गुञ्जालङ्कृतकण्ठकः ।

मयूरपिच्छमुकुटो वनमालाविभूषितः ॥ ५८॥

गैरिकाचित्रितवपुर्नवमेघवपुः स्मरः ।

कोटिकन्दर्पलावण्यो लसन्मकरकुण्डलः ॥ ५९॥

आजानुबाहुर्भगवान्निद्रारहितलोचनः ।

कोटिसागरगाम्भीर्यः कालकालः सदाशिवः ॥ ६०॥

१३०. अघासुरविनाशी:-  अघासुर नामक सर्परूपधारी दैत्यका विनाश करनेवाले, १३१. विनिद्रीकृतबालक :- सर्पके विषसे मूर्च्छित गोपबालकोंको अपनी अमृतमयी दृष्टिसे जीवित करके जगानेवाले, १३२. आद्यः = सबके आदिकारण; १३३. आत्मप्रदः- प्रेमी भक्तोंके लिये अपने आत्मा तक को दे डालनेवाले, १३४. सङ्गी-गोप- बालकोंके सङ्ग रहनेवाले, १३५. यमुनातीरभोजनः = यमुनाजी के तट पर ग्वालबालोंके साथ भोजन करनेवाले ।

१३६.गोपालमण्डलीमध्यः =ग्वालबालों की मण्डलीके बीचमें बैठनेवाले, १३७. सर्वगोपाल-भूषणः = सम्पूर्ण ग्वालबालोंको विभूषित करनेवाले, १३८. कृतहस्ततलग्रासः = हथेलीमें अन्नका ग्रास लेनेवाले, १३९. व्यञ्जनाश्रितशाखिकः = वृक्षोंपर भोजन-सामग्री एवं व्यञ्जन रखनेवाले ।

१४०. कृतबाहुशृङ्गयष्टिः- हाथोंमें सींग और छड़ी धारण करनेवाले, १४१. गुञ्जालंकृतकण्ठकः- गुञ्जा की मालासे अपने कण्ठको विभूषित करनेवाले, १४२. मयूरपिच्छमुकुटः - मोरपंखका मुकुट धारण करनेवाले, १४३. वनमालाविभूषितः=वनमालासे अलंकृत ।

१४४. गैरिकाचित्रितवपुः - गेरूसे अपने शरीरमें चित्रोंकी रचना करनेवाले, १४५. नवमेघवपुः = नवीन मेघ- घटा के समान श्याम शरीरवाले, १४६. स्मरः = कामदेवस्वरूप, १४७. कोटिकन्दर्पलावण्यः- करोड़ों कामदेवोंके समान सौन्दर्यशाली, १४८. लसन्मकरकुण्डलः- सुन्दर मकराकृति कुण्डल धारण करनेवाले ।

१४९. आजानुबाहुः-घुटनेतक लंबी भुजावाले, १५०. भगवान् = ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य - इन छहों ऐश्वयसे पूर्णतया युक्त, १५१. निद्रारहितलोचन: - निद्राशून्य नेत्रोंवाले, १५२. कोटिसागरगाम्भीर्यः-करोड़ों समुद्रोंके समान गम्भीर, १५३. कालकाल:- कालके भी महाकाल, १५४. सदाशिवः = नित्य कल्याणस्वरूप ।

विरञ्चिमोहनवपुर्गोपवत्सवपुर्द्धरः ।

ब्रह्माण्डकोटिजनको ब्रह्ममोहविनाशकः ॥ ६१॥

ब्रह्मा ब्रह्मेडितः स्वामी शक्रदर्पादिनाशनः ।

गिरिपूजोपदेष्टा च धृतगोवर्द्धनाचलः ॥ ६२॥

पुरन्दरेडितः पूज्यः कामधेनुप्रपूजितः ।

सर्वतीर्थाभिषिक्तश्च गोविन्दो गोपरक्षकः ॥ ६३॥

कालियार्तिकरः क्रूरो नागपत्नीडितो विराट् ।

धेनुकारिः प्रलम्बारिर्वृषासुरविमर्दनः ॥ ६४॥

मायासुरात्मजध्वंसी केशिकण्ठविदारकः ।

गोपगोप्ता धेनुगोप्ता दावाग्निपरिशोषकः ॥ ६५॥

१५५. विरञ्चिमोहनवपुः = अपने अद्भुतरूपसे ब्रह्माजीको भी मोहमें डालनेवाले, १५६. गोप-वत्सवपुर्धरः = ग्वालबालों और बछड़ोंका रूप धारण करनेवाले, १५७. ब्रह्माण्डकोटिजनकः = करोड़ों ब्रह्माण्डोंके उत्पादक, १५८. ब्रह्ममोहविनाशक:- ब्रह्माजीके मोहका नाश करनेवाले ।

१५९. ब्रह्मा = स्वयं ही ब्रह्माजीके रूपमें प्रकट, १६०. ब्रह्मेडितः = ब्रह्माजीके द्वारा स्तुत, १६१. स्वामी – सबके अधिपति, १६२. शक्रदर्पादिनाशन:- इन्द्रके घमंड आदिको नष्ट करनेवाले, १६३. गिरिपूजोपदेष्टा – गोवर्धन पर्वतकी पूजाका उपदेश देनेवाले, १६४. धृतगोवर्धनाचलः=गोवर्धन पर्वतको धारण करनेवाले ।

१६५. पुरन्दरेडितः = इन्द्रके द्वारा स्तुत, १६६. पूज्य:- सबके लिये पूजनीय, १६७. कामधेनुप्रपूजितः = कामधेनुद्वारा पूजित, १६८. सर्वतीर्थाभिषिक्तः- सुरभिद्वारा सम्पूर्ण तीर्थोंके जलसे इन्द्रपदपर अभिषिक्त, १६९. गोविन्दः = गौओंके इन्द्र होनेपर गोविन्द नामसे प्रसिद्ध, १७०. गोपरक्षकः = गोपोंकी रक्षा करनेवाले।

१७१. कालियार्तिकरः- कालिय नागका दमन करनेवाले, १७२. क्रूरः- दुष्टोंको दण्ड देनेके लिये कठोर, १७३. नागपत्नीरितः = नागपत्त्रियोंद्वारा स्तुत, १७४. विराट्-विराट् पुरुष, १७५. धेनुकारिः- धेनुकासुरके शत्रु, १७६. प्रलम्बारिः = बलभद्ररूपसे प्रलम्ब नामक असुरका नाश करनेवाले, १७७. वृषासुरविमर्दनः- वृषभरूपधारी अरिष्टासुरका मर्दन करनेवाले ।

१७८. मयासुरात्मजध्वंसी-मयासुरके पुत्र व्योमासुरका नाश करनेवाले, १७९. केशिकण्ठविदारकः- केशीका कण्ठ विदीर्ण करनेवाले, १८०, गोपगोता-ग्वालोंके रक्षक, १८१. दावाग्निपरिशोषकः- दावानलका शोषण करनेवाले ।

गोपकन्यावस्त्रहारी गोपकन्यावरप्रदः ।

यज्ञपत्न्यन्नभोजी च मुनिमानापहारकः ॥ ६६॥

जलेशमानमथनो नन्दगोपालजीवनः ।

गन्धर्वशापमोक्ता च शङ्खचूडशिरो हरः ॥ ६७॥

वंशी वटी वेणुवादी गोपीचिन्तापहारकः ।

सर्वगोप्ता समाह्वानः सर्वगोपीमनोरथः ॥ ६८॥

व्यङ्गधर्मप्रवक्ता च गोपीमण्डलमोहनः ।

रासक्रीडारसास्वादी रसिको राधिकाधवः ॥ ६९॥

किशोरीप्राणनाथश्च वृषभानसुताप्रियः ।

सर्वगोपीजनानन्दी गोपीजनविमोहनः ॥ ७०॥

१८२. गोपकन्यावस्त्रहारी- गोपकुमारियोंके चीर हरण करनेवाले, १८३. गोपकन्यावरप्रदः - गोपकन्याओंको वर देनेवाले, १८४. यज्ञपल्यन्नभोजी- यज्ञपनियोंके अन्न भोजन करनेवाले, १८५. मुनिमानापहारक:- अपनेको मुनि माननेवाले ब्राह्मणोंके अभिमानको दूर करनेवाले ।

१८६. जलेशमानमथन: - जलके स्वामी वरुणका मान मर्दन करनेवाले, १८७. नन्दगोपालजीवनः- अजगरसे छुड़ाकर नन्दगोपको जीवन देनेवाले, १८८. गन्धर्वशापमोक्ता - अजगररूपमें आये हुए गन्धर्व ( विद्याधर) को शापसे छुड़ानेवाले, १८९. शङ्खचूडशिरोहर: - शङ्खचूड नामक गुह्यकका मस्तक काट लेनेवाले।

१९०. वंशीवटी- वंशीवटके समीप लीला करनेवाले, १९९. वेणुवादी- वंशी बजानेवाले, १९२. गोपीचिन्तापहारकः - गोपियोंकी चिन्ताको दूर करनेवाले, १९३. सर्वगोप्ता = सबके रक्षक, १९४. समाह्वानः- सबके द्वारा पुकारे जानेवाले, १९५. सर्वगोपीमनोरथः- सम्पूर्ण गोपाङ्गनाओंके अभीष्ट ।

१९६. व्यङ्ग्यधर्मप्रवक्ता-व्यङ्ग्योक्तिद्वारा धर्मका उपदेश देनेवाले, १९७. गोपीमण्डलमोहन:- गोपसुन्दरियोंके समुदायको मोहित करनेवाले, १९८. रासक्रीडारसास्वादी- रासक्रीडाके रसका आस्वादन करनेवाले, १९९. रसिक:- रसका अनुभव करनेवाले, २००. राधिकाधव:- श्रीराधाके प्राणनाथ।

२०१. किशोरीप्राणनाथ:- श्रीकिशोरीजीके प्राणवल्लभ, २०२. वृषभानुसुताप्रियः- वृषभानु- नन्दिनीके प्यारे, २०३. सर्वगोपीजनानन्दी-सम्पूर्ण गोपीजनोंको आनन्द देनेवाले, २०४. गोपीजन- विमोहन: - गोपाङ्गनाओंके मनको मोह लेनेवाले।

गोपिकागीतचरितो गोपीनर्तनलालसः ।

गोपीस्कन्धाश्रितकरो गोपिकाचुम्बनप्रियः ॥ ७१॥

गोपिकामार्जितमुखो गोपीव्यजनवीजितः ।

गोपिकाकेशसंस्कारी गोपिकापुष्पसंस्तरः ॥ ७२॥

गोपिकाहृदयालम्बी गोपीवहनतत्परः ।

गोपिकामदहारी च गोपिकापरमार्जितः ॥ ७३॥

गोपिकाकृतसंनीलो गोपिकासंस्मृतप्रियः ।

गोपिकावन्दितपदो गोपिकावशवर्तनः ॥ ७४॥

राधापराजितः श्रीमान्निकुञ्जेसुविहारवान् ।

कुञ्जप्रियः कुञ्जवासी वृन्दावनविकासनः ॥ ७५॥

२०५. गोपिकागीतचरितः - गोपाङ्गनाओंद्वारा गाये हुए पावन चरित्रवाले, २०६. गोपीनर्तनलालसः - गोपियोंके रासनृत्यकी अभिलाषा रखनेवाले, २०७. गोपीस्कन्धाश्रितकरः - गोपीके कंधेपर हाथ रखकर चलनेवाले, २०८. गोपिकाचुम्बनप्रियः - यशोदा आदि मातृस्थानीया वात्सल्यवती गोपियोंके द्वारा किया जानेवाला मुखचुम्बन जिन्हें प्रिय है वे श्यामसुन्दर ।

२०९. गोपिकामार्जितमुख:- गोपाङ्गनाएँ अपने अञ्चलसे जिनका मुख पोंछती हैं वे, २१०. गोपीव्यजनवीजितः- गोपियाँ जिन्हें पंखा डुलाकर आराम पहुँचाती हैं वे, २११. गोपिकाकेशसंस्कारी- गोपिकाके केशोंको सँवारनेवाले, २१२. गोपिकापुष्पसंस्तरः- गोपिकाका फूलोंसे शृङ्गार करनेवाले।

२१३. गोपिकाहृदयालम्बी-गोपीके हृदयका आश्रय लेनेवाले, २१४. गोपीवहनतत्परः- गोपी (श्रीराधा) को कंधेपर बिठाकर ढोनेके लिये प्रस्तुत, २१५. गोपिकामदहारी = गोपाङ्गनाओंके अभिमानको चूर्ण करनेवाले, २१६. गोपिकापरमार्जितः - गोपाङ्गनाओंको परम फलके रूपमें प्राप्त ।

२१७. गोपिकाकृतसल्लीलः - रासलीला में अन्तर्धान हो जानेपर गोपिकाओंने जिनकी पवित्र लीलाओं का अनुकरण किया था वे श्रीकृष्ण, २१८. गोपिकासंस्मृतप्रियः -गोपिकाओं द्वारा निरन्तर चिन्तन किये जानेवाले प्रियतम, २१९. गोपिकावन्दितपदः = गोपाङ्गनाओंद्वारा वन्दित चरणोंवाले, २२०. गोपिकावशवर्तन:- गोपसुन्दरियोंके वशमें रहनेवाले ।

२२१. राधापराजितः- श्रीराधारानीसे हार मान लेनेवाले, २२२. श्रीमान्-शोभाशाली, २२३. निकुञ्जेसुविहारवान्- वृन्दावनके कुञ्जमें सुन्दर लीला करनेवाले, २२४. कुञ्जप्रियः- निकुञ्जके प्रेमी, २२५. कुञ्जवासी-कुञ्जमें निवास करनेवाले, २२६. वृन्दावनविकाशन:-वृन्दावनको प्रकाशित करनेवाले।

यमुनाजलसिक्ताङ्गो यमुनासौख्यदायकः ।

शशिसंस्तम्भनः शूरः कामी कामविजोहनः ॥ ७६॥

कामाद्याः कामनाथश्च काममानसभेदनः ।

कामदः कामरूपश्च कामिनी कामसञ्चयः ॥ ७७॥

नित्यक्रीडो महालीलः सर्वः सर्वगतस्तथा ।

परमात्मा पराधीशः सर्वकारणकारणः ॥ ७८॥

गृहीतनारदवचा ह्यक्रूरपरिचिन्तितः ।

अक्रूरवन्दितपदो गोपिकातोषकारकः ॥ ७९॥

अक्रूरवाक्यसङ्ग्राही मथुरावासकारणः ।

अक्रूरतापशमनो रजकायुःप्रणाशनः ॥ ८०॥

२२७. यमुनाजलसिक्ताङ्गः-यमुनाजीके जलसे अभिषिक्त अङ्गवाले, २२८. यमुनासौख्यदायकः- यमुनाजीको सुख देनेवाले, २२९. शशिसंस्तम्भनः- रासलीलाकी रात्रिमें चन्द्रमाकी गतिको रोक देनेवाले, २३०. शूरः- अखण्ड शौर्यसम्पन्न, २३१. कामी-प्रेमी भक्तोंसे मिलनेकी कामनावाले, २३२. कामविमोहनः- अपनी दिव्य लीलाओंसे कामदेवको विमोहित कर देनेवाले।

२३३. कामाद्यः- कामदेवके आदिकारण, २३४ कामनाथः- कामके स्वामी, २३५. काममानसभेदनः = कामदेवके भी हृदयका भेदन करनेवाले, २३६. कामदः - इच्छानुरूप भोग देनेवाले, २३७. कामरूपः - भक्तजनोंकी कामनाके अनुरूप रूप धारण करनेवाले, २३८. कामिनीकामसंचय:- गोपकामिनियोंके प्रेमका संग्रह करनेवाले।

२३९. नित्यक्रीड:- नित्य खेल करनेवाले, २४०. महालीलः- महती लीला करनेवाले, २४१. सर्वः- सर्वस्वरूप, २४२. सर्वगतः - सर्वत्र व्यापक, २४३. परमात्मा-परब्रह्मस्वरूप, २४४. पराधीशः - परमेश्वर, २४५. सर्वकारणकारण:- समस्त कारणोंके भी कारण ।

२४६. गृहीतनारदवच्चा:- नारदजीके वचन माननेवाले, २४७. अक्रूरपरिचिन्तितः-व्रजमें जाते हुए अक्रूरजीके द्वारा मार्गमें जिनका विशेषरूपसे चिन्तन किया गया, वे श्रीकृष्ण, २४८. अक्रूरवन्दितपदः - अक्रूरजीके द्वारा वन्दित चरणोंवाले, २४९. गोपिकातोषकारकः- भावी विरहसे व्याकुल हुई गोपाङ्गनाओंको सान्त्वना देनेवाले ।

२५०. अक्रूरवाक्यसंग्राही- अक्रूरजीके वचनोंको स्वीकार करनेवाले, २५१. मधुरावासकारणः - मथुरा में निवास करनेवाले, २५२. अक्रूरतापशमन:- अक्रूरजीका दुःख दूर करनेवाले, २५३. रजकायु:- प्रणाशनः कंसके धोबीकी आयुको नष्ट करनेवाले।

मथुरानन्ददायी च कंसवस्त्रविलुण्ठनः ।

कंसवस्त्रपरीधानो गोपवस्त्रप्रदायकः ॥ ८१॥

सुदामगृहगामी च सुदामपरिपूजितः ।

तन्तुवायकसम्प्रीतः कुब्जाचन्दनलेपनः ॥ ८२॥

कुब्जारूपप्रदो विज्ञो मुकुन्दो विष्टरश्रवाः ।

सर्वज्ञो मथुरालोकी सर्वलोकाभिनन्दनः ॥ ८३॥

कृपाकटाक्षदर्शी च दैत्यारिर्देवपालकः ।

सर्वदुःखप्रशमनो धनुर्भङ्गी महोत्सवः ॥ ८४॥

कुवलयापीडहन्ता दन्तस्कन्धबलाग्रणीः ।

कल्परूपधरो धीरो दिव्यवस्त्रानुलेपनः ॥ ८५॥

२५४. मथुरानन्ददायी - मथुरावासियोंको आनन्द देनेवाले, २५५. कंसवस्त्रविलुण्ठनः- कंसके कपड़ोंको लूट लेनेवाले, २५६. कंसवस्त्रपरीधानः- कंसके वस्त्र पहननेवाले, २५७. गोपवस्त्रप्रदायकः- ग्वालबालों को वस्त्र देनेवाले ।

२५८. सुदामगृहगामी- सुदामा मालीके घर जानेवाले, २५९. सुदामपरिपूजितः - सुदामा मालीके द्वारा पूजित, २६० तन्तुवायकसम्प्रीतः - दर्जीके ऊपर प्रसन्न, २६१. कुब्जा चन्दनलेपन:-कुब्जाके घिसे हुए चन्दनको अपने श्री अङ्गोंमें लगानेवाले ।

२६२. कुब्जारूपप्रदः- कुब्जाको सुन्दर रूप देनेवाले, २६३. विज्ञः - विशिष्ट ज्ञानवान्, २६४. मुकुन्दः- मोक्ष देनेवाले, २६५. विष्टरश्रवाः - विस्तृत सुयश एवं कानोंवाले, २६६. सर्वज्ञः - सब कुछ जाननेवाले, २६७. मथुरालोकी - मथुरानगरीका दर्शन करनेवाले, २६८. सर्वलोकाभिनन्दनः सब लोगोंसे अभिनन्दन (सम्मान) पानेवाले।

२६९. कृपाकटाक्षदर्शी- कृपापूर्ण कटाक्षसे सबकी ओर देखनेवाले, २७० दैत्यारिः - दैत्योंके शत्रु २७१. देवपालकः-देवताओंके रक्षक, २७२. सर्वदुः खप्रशमन:- सबके सम्पूर्ण दुःखोंका नाश करनेवाले, २७३. धनुर्भङ्गी- धनुष तोड़नेवाले, २७४, महोत्सव:- महान् उत्सवरूप ।

२७५. कुवलयापीडहन्ता- कुवलयापीड नामक हाथीका वध करनेवाले, २७६. दन्तस्कन्धः - हाथीके तोड़े हुए दाँतोंको कंधेपर धारण करनेवाले, २७७. बलाग्रणी-बलरामजीको आगे करके चलनेवाले, २७८. कल्परूपधर:- विभिन्न लोगों के लिये उनकी भावनाके अनुसार रूप धारण करनेवाले, २७९. धीर:- अविचल धैर्यसे सम्पन्न, २८०. दिव्यवस्त्रानुलेपनः- दिव्य वस्त्र तथा दिव्य अङ्गराग धारण करनेवाले।

मल्लरूपो महाकालः कामरूपी बलान्वितः ।

कंसत्रासकरो भीमो मुष्टिकान्तश्च कंसहा ॥ ८६॥

चाणूरघ्नो भयहरः शलारिस्तोशलान्तकः ।

वैकुण्ठवासी कंसारिः सर्वदुष्टनिषूदनः ॥ ८७॥

देवदुन्दुभिनिर्घोषी पितृशोकनिवारणः ।

यादवेन्द्रः सतांनाथो यादवारिप्रमर्द्दनः ॥ ८८॥

शौरिशोकविनाशी च देवकीतापनाशनः ।

उग्रसेनपरित्राता उग्रसेनाभिपूजितः ॥ ८९॥

उग्रसेनाभिषेकी च उग्रसेनदयापरः ।

सर्वसात्वतसाक्षी च यदूनामभिनन्दनः ॥ ९०॥

२८१. मल्लरूपः- कंसके अखाड़ेमें पहलवानके रूपमें उपस्थित, २८२. महाकालः =महान् कालरूप, २८३. कामरूपी इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले, २८४. बलान्वितः = अनन्त बलसम्पन्न, २८५. कंसन्त्रासकर:- कंसको भयभीत कर देनेवाले, २८६. भीमः- कंसके लिये भयंकर, २८७. मुष्टिकान्तः- बलभद्ररूपसे मुष्टिकके जीवनका अन्त कर देनेवाले, २८८. कंसहा- कंसका वध करनेवाले।

२८९. चाणूरघ्नः- चाणूरका नाश करनेवाले, २९०. भयहरः- भय हर लेनेवाले, २९९. शलारि:- शलके शत्रु २९२. तोशलान्तकः - तोशलका अन्त करनेवाले, २९३. वैकुण्ठवासी- विष्णुरूपसे वैकुण्ठधाममें निवास करनेवाले, २९४. कंसारिः = कंसके शत्रु २९५. सर्वदुष्टनिषूदनः- सब दुष्टोंका संहार करनेवाले।

२९६. देवदुन्दुभिनिर्घोषी - देव-दुन्दुभिघोषके कारण, २९७ पितृशोकनिवारणः-पिता-माता (वसुदेव-देवकी) का शोक दूर करनेवाले, २९८, यादवेन्द्रः - यदुकुलके स्वामी, २९९. सतां नाथ:-सत्पुरुषोंके रक्षक, ३००, यादवारिप्रमर्दनः = यादवोंके शत्रुओंका मर्दन करनेवाले ।

३०१. शौरिशोकविनाशी - वसुदेवजीके शोकका नाश करनेवाले, ३०२. देवकीतापनाशन:- देवकीका संताप नष्ट करनेवाले, ३०३. उग्रसेनपरित्राता-  उग्रसेनके रक्षक, ३०४. उग्रसेनाभिपूजितः- उग्रसेन द्वारा पूजित। ३०५. उग्रसेनाभिषेकी-उग्रसेनका राज्याभिषेक करनेवाले, ३०६. उग्रसेनदयापरः- उग्रसेनके प्रति दयाभाव बनाये रखनेवाले, ३०७. सर्वसात्वतसाक्षी- सम्पूर्ण यदुवंशियोंकी देख-भाल करनेवाले, ३०८. यदूनामभिनन्दन:- यदुवंशियोंको आनन्दित करनेवाले।

सर्वमाथुरसंसेव्यः करुणो भक्तबान्धवः ।

सर्वगोपालधनदो गोपीगोपाललालसः ॥ ९१॥

शौरिदत्तोपवीती च उग्रसेनदयाकरः ।

गुरुभक्तो ब्रह्मचारी निगमाध्ययने रतः ॥ ९२॥

सङ्कर्षणसहाध्यायी सुदामसुहृदेव च ।

विद्यानिधिः कलाकोशो मृतपुत्रप्रदस्तथा ॥ ९३॥

चक्री पाञ्चजनी चैव सर्वनारकिमोचनः ।

यमार्चितः परो देवो नामोच्चारवशोऽच्युतः ॥ ९४॥

कुब्जाविलासी सुभगो दीनबन्धुरनूपमः ।

अक्रूरगृहगोप्ता च प्रतिज्ञापालकः शुभः ॥ ९५॥

३०९. सर्वमाथुरसंसेव्यः- सम्पूर्ण मथुरावासियोंद्वारा सेवन करने योग्य, ३१०. करुणः- दयालु, ३११. भक्तबान्धवः = भक्तोंके भाई-बन्धु, ३१२. सर्वगोपालधनदः- सम्पूर्ण ग्वालोंको धन देनेवाले, ३१३. गोपीगोपाललालसः - गोपियों और ग्वालोंसे मिलनेके लिये उत्सुक रहनेवाले ।

३१४. शौरिदत्तोपवीती- वसुदेवजीके द्वारा उपनयन संस्कार में दिये हुए यज्ञोपवीतको धारण करनेवाले, ३१५. उग्रसेनदयाकरः- उग्रसेनपर दया करनेवाले, ३१६. गुरुभक्ताः - गुरु सान्दीपनिके प्रति भक्तिभावसे युक्त, ३१७. ब्रह्मचारी - गुरुकुलमें रहकर ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाले, ३१८. निगमाध्ययने रतः - वेदाध्ययनपरायण ।

३१९. संकर्षणसहाध्यायी - बलरामजीके सहपाठी, ३२०. सुदामसुहत्-सुदामा ब्राह्मणके सखा, ३२१. विद्यानिधिः- विद्याके भण्डार, ३२२. कलाकोषः- सम्पूर्ण कलाओंके कोषागार, ३२३. मृतपुत्रप्रदः- मरे हुए गुरुपुत्रोंको यमलोकसे जीवित लाकर गुरुकी सेवामें अर्पित करनेवाले।

३२४. चक्री- सुदर्शन चक्रधारी, ३२५. पाञ्चजनी- पाञ्चजन्य शङ्ख धारण करनेवाले, ३२६. सर्वनारकिमोचन: सम्पूर्ण नरकवासियोंका उद्धार करनेवाले, ३२७. यमार्चितः -यमराजद्वारा पूजित, ३२८. परः- सर्वोत्कृष्ट, ३२९. देवः- द्युतिमान् ३३०. नामोच्चारवश:- अपने नामके उच्चारणमात्रसे वशमें हो जानेवाले, ३३१. अच्युतः - अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले ।

३३२. कुब्जाविलासी - कुब्जाके कुबड़ेपनको मिटानेकी लीला करनेवाले, ३३३. सुभगः -पूर्ण सौभाग्यशाली, ३३४, दीनबन्धुः- दीन-दुखियों और असहायोंके बन्धु, ३३५. अनूपम:- जिनके समान दूसरा कोई नहीं, ३३६. अक्रूरगृहगोप्ता :- अक्रूरके गृहकी रक्षा करनेवाले, ३३७. प्रतिज्ञापालक :- प्रतिज्ञाका पालन करनेवाले, ३३८. शुभः- शुभस्वरूप ।

जरासन्धजयी विद्वान् यवनान्तो द्विजाश्रयः ।

मुचुकुन्दप्रियकरो जरासन्धपलायितः ॥ ९६॥

द्वारकाजनको गूढो ब्रह्मण्यः सत्यसङ्गरः ।

लीलाधरः प्रियकरो विश्वकर्मा यशःप्रदः ॥ ९७॥

रुक्मिणीप्रियसन्देशो रुक्मशोकविवर्द्धनः ।

चैद्यशोकालयः श्रेष्ठो दुष्टराजन्यनाशनः ॥ ९८॥

रुक्मिवैरूप्यकरणो रुक्मिणीवचने रतः ।

बलभद्रवचोग्राही मुक्तरुक्मी जनार्दनः ॥ ९९॥

रुक्मिणीप्राणनाथश्च सत्यभामापतिः स्वयम् ।

भक्तपक्षी भक्तिवश्यो ह्यक्रूरमणिदायकः ॥ १००॥

३३९. जरासन्धजयी - सत्रह बार जरासन्धको जीतनेवाले, ३४०. विद्वान्- सर्वज्ञ, ३४१. यवनान्तः- कालयवनका अन्त करनेवाले, ३४२. द्विजाश्रयः- द्विजोंके आश्रय, ३४३. मुचुकुन्दप्रियकर :- मुचुकुन्दका प्रिय करनेवाले, ३४४. जरासन्धपलायितः - अठारहवीं बारके युद्धमें जरासन्धके सामनेसे युद्ध छोड़कर भाग जानेवाले।

३४५. द्वारकाजनक:- द्वारकापुरीको प्रकट करनेवाले, ३४६. गूढः - मानवरूपमें छिपे हुए परमात्मा, ३४७. ब्रह्मण्यः ब्राह्मणभक्त, ३४८. सत्यसंगर:- सत्यप्रतिज्ञ, ३४९. लीलाधरः- लीलाधारी, ३५०. प्रियकरः- सबका प्रिय करनेवाले, ३५१. विश्वकर्मा बहुत प्रकारके कर्म करनेवाले, ३५२. यशप्रदः - दूसरोंको यश देनेवाले।

३५३. रुक्मिणीप्रियसंदेशः-रुक्मिणीको प्रिय संदेश देनेवाले, ३५४, रुक्मिशोकविवर्धनः- रुक्मीका शोक बढ़ानेवाले, ३५५. चैद्यशोकालय:- शिशुपालके लिये शोकके भण्डार ३५६. श्रेष्ठः उत्तम गुणसम्पन्न, ३५७. दुष्टराजन्यनाशन:- दुष्ट राजाओंका नाश करनेवाले।

३५८. रुक्मिवैरूप्यकरणः- रुक्मीके आधे बाल मुड़ाकर उसे कुरूप बना देनेवाले, ३५९. रुक्मिणीवचने रतः- रुक्मिणीके वचनका पालन करनेमें तत्पर, ३६०. बलभद्रवचोग्राही- बलभद्रजीकी आज्ञा माननेवाले, ३६१. मुक्तरुक्मी- रुक्मीको जीवित छोड़ देनेवाले, ३६२. जनार्दन:- भक्तोंद्वारा याचित।

३६३. रुक्मिणीप्राणनाथ:-रुक्मिणीके प्राणवल्लभ, ३६४. सत्यभामापतिः- सत्यभामाके स्वामी, ३६५. स्वयं भक्तपक्षी स्वयं ही भक्तोंका पक्ष लेनेवाले, ३६६. भक्तिवश्यः - भक्तिसे वशमें हो जानेवाले, ३६७. अक्रूरमणिदायक:- अक्रूरजीको स्यमन्तकमणि देनेवाले।

शतधन्वाप्राणहारी ऋक्षराजसुताप्रियः ।

सत्राजित्तनयाकान्तो मित्रविन्दापहारकः ॥ १०१।

सत्यापतिर्लक्ष्मणाजित्पूज्यो भद्राप्रियङ्करः ।

नरकासुरघाती च लीलाकन्याहरो जयी ॥ १०२॥

मुरारिर्मदनेशोऽपि धरित्रीदुःखनाशनः ।

वैनतेयी स्वर्गगामी अदित्य कुण्डलप्रदः ॥ १०३॥

इन्द्रार्चितो रमाकान्तो वज्रिभार्याप्रपूजितः ।

पारिजातापहारी च शक्रमानापहारकः ॥ १०४॥

प्रद्युम्नजनकः साम्बतातो बहुसुतो विधुः ।

गर्गाचार्यः सत्यगतिर्धर्माधारो धराधरः ॥ १०५॥

३६८. शतधन्वप्राणहारी- शतधन्वाके प्राण लेनेवाले, ३६९. ऋक्षराजसुताप्रियः- रीछोंके राजा जाम्बवान्की पुत्रीके प्रियतम पति, ३७०. सत्राजित्तनयाकान्तः- सत्राजित्की सुपुत्री सत्यभामाके प्राणवल्लभ, ३७१. मित्रविन्दापहारक:- मित्रविन्दाका अपहरण करनेवाले।

३७२. सत्यापतिः- नग्रजित्की पुत्री सत्याके स्वामी, ३७३. लक्ष्मणाजित्- स्वयंवरमें लक्ष्मणाको जीतनेवाले, ३७४. पूज्यः-पूजाके योग्य, ३७५. भद्राप्रियङ्करः- भद्राका प्रिय करनेवाले, ३७६. नरकासुरघाती- नरकासुरका वध करनेवाले, ३७७. लीलाकन्याहरः - लीलापूर्वक षोडश सहस्र कन्याओंको नरकासुरकी कैदसे छुड़ाकर अपने साथ ले जानेवाले, ३७८. जयी - विजयशील ।

३७९. मुरारि:-मुर दैत्यका नाश करनेवाले, ३८०. मदनेश:- कामदेवपर भी शासन करनेवाले, ३८१. धरित्रीदुःखनाशन:- धरतीका दुःख दूर करनेवाले, ३८२. वैनतेयी- गरुड़के स्वामी, ३८३. स्वर्गगामी-पारिजातके लिये स्वर्गलोककी यात्रा करनेवाले, ३८४. अदित्याः कुण्डलप्रदः - अदितिको कुण्डल देनेवाले।

३८५. इन्द्रार्चितः - इन्द्रके द्वारा पूजित, ३८६. रमाकान्तः- लक्ष्मीके प्रियतम, ३८७. वज्रिभार्याप्रपूजितः - इन्द्रपत्नी शचीके द्वारा पूजित, ३८८. पारिजातापहारी- पारिजात वृक्षका अपहरण करनेवाले, ३८९. शक्रमानापहारकः – इन्द्रका अभिमान चूर्ण करनेवाले।

३९०. प्रद्युम्रजनक: - प्रद्युम्नके पिता, ३९१. साम्बतात:-साम्बके पिता, ३९२. बहुसुतः- अधिक पुत्रोंवाले, ३९३. विधु: - विष्णुस्वरूप, ३९४. गर्गाचार्य: - गर्गमुनिको आचार्य बनानेवाले, ३९५. सत्यगतिः - सत्यसे ही प्राप्त होनेवाले, ३९६. धर्माधारः - धर्मके आश्रय, ३९७. धराधरः- पृथ्वीको धारण करनेवाले।

द्वारकामण्डनः श्लोक्यः सुश्लोको निगमालयः ।

पौण्ड्रकप्राणहारी च काशीराजशिरोहरः ॥ १०६॥

अवैष्णवविप्रदाही सुदक्षिणभयावहः ।

जरासन्धविदारी च धर्मनन्दनयज्ञकृत् ॥ १०७॥

शिशुपालशिरश्छेदी दन्तवक्त्रविनाशनः ।

विदूरथान्तकः श्रीशः श्रीदो द्विविदनाशनः ॥ १०८॥

रुक्मिणीमानहारी च रुक्मिणीमानवर्द्धनः ।

देवर्षिशापहर्ता च द्रौपदीवाक्यपालकः ॥ १०९॥

३९८. द्वारकामण्डनः - द्वारकाको सुशोभित करनेवाले, ३९९ श्लोक्य:- यशोगानके योग्य, ४००. सुश्लोकः- उत्तम यशवाले, ४०९. निगमालय:- वेदोंके आश्रय, ४०२. पौण्ड्रकप्राणहारी- मिथ्या वासुदेवनामधारी पौण्ड्रकके प्राण लेनेवाले, ४०३. काशिराजशिरोहर:- काशिराजका सिर काटनेवाले ४०४. अवैष्णवविप्रदाही- अवैष्णव ब्राह्मणोंको, जो यदुवंशियोंके प्रति मारणका प्रयोग कर रहे थे, दग्ध करनेवाले, ४०५. सुदक्षिणभयावहः- काशिराजके पुत्र सुदक्षिणको भय देनेवाले, ४०६. जरासन्धविदारी- भीमसेनके द्वारा जरासन्धको चीर डालनेवाले, ४०७. धर्मनन्दनयज्ञकृत्-धर्मपुत्र युधिष्ठिरका यज्ञ पूर्ण करनेवाले ।

४०८. शिशुपालशिरश्छेदी-शिशुपालका सिर काटनेवाले, ४०९. दन्तवक्त्रविनाशन:-दन्तवक्त्रका नाश करनेवाले, ४१०. विदूरथान्तकः – विदूरथके काल, ४११. श्रीशः – लक्ष्मीके स्वामी, ४१२. श्रीदः सम्पत्ति देनेवाले, ४१३. द्विविदनाशन:- बलभद्ररूपसे द्विविद वानरका नाश करनेवाले।

४१४. रूक्मिणीमानहारी- रुक्मिणीका अभिमान दूर करनेवाले, ४१५. रुक्मिणीमानवर्धनः- रुक्मिणीका सम्मान बढ़ानेवाले, ४१६. देवर्षिशापहर्ता= देवर्षि नारदका शाप दूर करनेवाले, ४१७. द्रौपदीवाक्यपालकः - द्रौपदीके वचनोंका पालन करनेवाले।

दुर्वासोभयहारी च पाञ्चालीस्मरणागतः ।

पार्थदूतः पार्थमन्त्री पार्थदुःखौघनाशनः ॥ ११०॥

पार्थमानापहारी च पार्थजीवनदायकः ।

पाञ्चालीवस्त्रदाता च विश्वपालकपालकः ॥ १११॥

श्वेताश्वसारथिः सत्यः सत्यसाध्यो भयापहः ।

सत्यसन्धः सत्यरतिः सत्यप्रिय उदारधीः ॥ ११२॥

महासेनजयी चैव शिवसैन्यविनाशनः ।

बाणासुरभुजच्छेत्ता बाणबाहुवरप्रदः ॥ ११३॥

तार्क्ष्यमानापहारी च तार्क्ष्यतेजोविवर्द्धनः ।

रामस्वरूपधारी च सत्यभामामुदावहः ॥ ११४॥

रत्नाकरजलक्रीडो व्रजलीलाप्रदर्शकः ।

स्वप्रतिज्ञापरिध्वंसी भीष्माज्ञापरिपालकः ॥ ११५॥

४१८. दुर्वासोभयहारी- दुर्वासाका भय दूर करनेवाले, ४१९. पाञ्चालीस्मरणागतः- द्रौपदीके स्मरण करते ही आ पहुँचनेवाले, ४२०. पार्थदूत:- कुन्तीपुत्रोंके दूत, ४२१. पार्थमन्त्री:- कुन्तीपुत्रोंके मन्त्री (सलाहकार), ४२२. पार्थदुःखौघनाशन:- कुन्तीपुत्रोंके दुःखसमुदायका नाश करनेवाले।

४२३. पार्थमानापहारी- कुन्तीपुत्रोंका अभिमान दूर करनेवाले, ४२४. पार्थजीवनदायकः- कुन्तीपुत्रोंको जीवन देनेवाले, ४२५. पाञ्चालीवस्त्रदाता:-कौरवोंकी सभामें द्रौपदीको वस्त्रराशि अर्पण करनेवाले, ४२६. विश्वपालकपालकः- विश्वकी रक्षा करनेवाले देवताओंके भी रक्षक ।

४२७. श्वेताश्वसारथिः -श्वेत घोड़ोंवाले अर्जुनके सारथि ४२८. सत्यः- सत्यस्वरूप, ४२९. सत्यसाध्यः= सत्यसे ही प्राप्त होने योग्य, ४३०. भयापहः-भक्तोंके भयका नाश करनेवाले, ४३१. सत्यसन्धः -सत्यप्रतिज्ञ, ४३२. सत्यरतिः = सत्यमें रत, ४३३. सत्यप्रियः- सत्य जिनको प्यारा है, ४३४. उदारधीः-उदार बुद्धिवाले।

४३५. महासेनजयी - शोणितपुरमें बाणासुरके पक्षमें युद्धके लिये आये हुए स्वामिकार्तिकेयको भी परास्त करनेवाले, ४३६. शिवसैन्यविनाशन:- भगवान् शिवकी सेनाको मार भगानेवाले, ४३७. बाणासुरभुजच्छेत्ता- बाणासुरकी भुजाओंको काटनेवाले, ४३८. बाणबाहुवरप्रदः – बाणासुरको चार भुजाओंसे युक्त रहनेका वर देनेवाले।

४३९. तार्क्ष्यमानापहारी- गरुड़का अभिमान चूर्ण करनेवाले, ४४०. तार्क्ष्यतेजोविवर्धन: - गरुड़के तेजको बढ़ानेवाले, ४४१. रामस्वरूपधारी = श्रीरामका स्वरूप धारण करनेवाले, ४४२. सत्यभामामुदावहः-सत्यभामाको आनन्द देनेवाले ।

४४३. रत्नाकरजलक्रीडः- समुद्रके जलमें क्रीडा करनेवाले, ४४४. व्रजलीलाप्रदर्शक:- अधिकारी भक्तोंको व्रजलीलाका दर्शन करानेवाले, ४४५. स्वप्रतिज्ञापरिध्वंसी- भीष्मजीकी प्रतिज्ञा रखनेके लिये अपनी प्रतिज्ञा तोड़ देनेवाले, ४४६. भीष्माज्ञापरिपालक :- भीष्मकी आज्ञाका पालन करनेवाले ।

वीरायुधहरः कालः कालिकेशो महाबलः ।

वर्वरीषशिरोहारी वर्वरीषशिरःप्रदः ॥ ११६॥

धर्मपुत्रजयी शूरदुर्योधनमदान्तकः ।

गोपिकाप्रीतिनिर्बन्धनित्यक्रीडो व्रजेश्वरः ॥ ११७॥

राधाकुण्डरतिर्धन्यः सदान्दोलसमाश्रितः ।

सदामधुवनानन्दी सदावृन्दावनप्रियः ॥ ११८॥

अशोकवनसन्नद्धः सदातिलकसङ्गतः ।

सदागोवर्द्धनरतिः सदा गोकुलवल्लभः ॥ ११९॥

भाण्डीरवटसंवासी नित्यं वंशीवटस्थितः ।

नन्दग्रामकृतावासो वृषभानुग्रहप्रियः ॥ १२०॥

४४७. वीरायुधहर:- वीरोंके अस्त्र-शस्त्र हर लेनेवाले, ४४८. कालः- कालस्वरूप, ४४९. कालि-केश:- कालिकाके स्वामी, ४५०. महावल:- महाशक्तिसम्पन्न ४५१. बर्बरीकशिरोहारी = बर्बरीकका सिर काटनेवाले.. ४५२. बर्बरीकशिरप्रदः- बर्बरीकका सिर देनेवाले।

४५३. धर्मपुत्रजयी - धर्मपुत्र युधिष्ठिरको जय दिलानेवाले ४५४.शूरदुर्योधनमदान्तकः= शूरवीर दुर्योधनके मदका नाश करनेवाले, ४५५.गोपिकाप्रीतिनिर्बन्धनित्यक्रीडः – गोपाङ्गनाओंके प्रेमपूर्ण आग्रहसे वृन्दावनमें नित्य लीला करनेवाले, ४५६. व्रजेश्वरः- व्रजके स्वामी ।

४५७. राधाकुण्डरतिः = राधाकुण्डमें खेल करनेवाले, ४५८. धन्यः- धन्यवादके योग्य, ४५९. सदान्दोलसमाश्रितः- सदा झूलेपर झूलनेवाले, ४६०. सदामधुवनानन्दी- सदा मधुवनमें आनन्द लेनेवाले, ४६१. सदावृन्दावनप्रियः- वृन्दावनके शाश्वत प्रेमी।

४६२. अशोकवनसन्नद्धः - अशोकवनमें लीलाके लिये सदा प्रस्तुत, ४६३. सदातिलकसङ्गतः - सदैव तिलक लगानेवाले, ४६४. सदागोवर्धनरतिः = गिरिराज गोवर्धनपर सदा क्रीडा करनेवाले, ४६५. सदागोकुलवल्लभः -सदैव गोकुल ग्राम एवं गो समुदायके प्रिय ।

४६६. भाण्डीरवटसंवासी- भाण्डीर वटके नीचे निवास करनेवाले, ४६७. नित्यं वंशीवटस्थितः = वंशीवटपर सदा स्थित रहनेवाले, ४६८. नन्दग्रामकृतावासः - नन्दगाँवमें निवास करनेवाले, ४६९. वृषभानुगृहप्रियः – वृषभानुजीके गृहको प्रिय माननेवाले।

गृहीतकामिनीरूपो नित्यं रासविलासकृत् ।

वल्लवीजनसङ्गोप्ता वल्लवीजनवल्लभः ॥ १२१॥

देवशर्मकृपाकर्ता कल्पपादपसंस्थितः ।

शिलानुगन्धनिलयः पादचारी घनच्छविः ॥ १२२॥

अतसीकुसुमप्रख्यः सदा लक्ष्मीकृपाकरः ।

त्रिपुरारिप्रियकरो ह्युग्रधन्वापराजितः ॥ १२३॥

षड्धुरध्वंसकर्ता च निकुम्भप्राणहारकः ।

वज्रनाभपुरध्वंसी पौण्ड्रकप्राणहारकः ॥ १२४॥

बहुलाश्वप्रीतिकर्ता द्विजवर्यप्रियङ्करः ।

शिवसङ्कटहारी च वृकासुरविनाशनः ॥ १२५॥

भृगुसत्कारकारी च शिवसात्त्विकताप्रदः ।

गोकर्णपूजकः साम्बकुष्ठविध्वंसकारणः ॥ १२६॥

वेदस्तुतो वेदवेत्ता यदुवंशविवर्द्धनः ।

यदुवंशविनाशी च उद्धवोद्धारकारकः ॥ १२७॥

४७०. गृहीतकामिनीरूपः- मोहिनीका रूप धारण करनेवाले, ४७१. नित्यं रासविलासकृत्- नित्य रासलीला करनेवाले, ४७२. वल्लवीजनसंगोप्ता- गोपाङ्गनाओंके रक्षक, ४७३. वल्लवीजनवल्लभः- गोपीजनोंके प्रियतम ।

४७४. देवशर्मकृपाकर्ता- देवशर्मापर कृपा करनेवाले, ४७५. कल्पपादपसंस्थितः -कल्पवृक्षके नीचे रहनेवाले, ४७६. शिलानुगन्धनिलयः - शिलामय सुगन्धित भवनमें निवास करनेवाले, ४७७. पादचारी- पैदल चलनेवाले, ४७८. घनच्छविः- मेघके समान श्यामकान्तिवाले।

४७९. अतसीकुसुमप्रख्यः- तीसीके फूलके- से वर्णवाले, ४८० सदा लक्ष्मीकृपाकर:- लक्ष्मीजीपर सदा कृपा करनेवाले, ४८१. त्रिपुरारिप्रियकर :- महादेवजीका प्रिय करनेवाले, ४८२. उग्रधन्वा- भयङ्कर धनुषवाले, ४८३. अपराजितः - किसीसे भी परास्त न होनेवाले ।

४८४. षड्धुरध्वंसकर्ता- षड्धुरका नाश करनेवाले, ४८५. निकुम्भप्राणहारक:- निकुम्भके प्राणोंको हरनेवाले, ४८६. वज्रनाभपुरध्वंसी- वज्रनाभपुरका ध्वंस करनेवाले, ४८७. पौण्ड्रकप्राणहारक:- पौण्ड्रकके प्राणोंका अन्त करनेवाले।

४८८. बहुलाश्वप्रीतिकर्ता:- मिथिलाके राजा बहुलाश्वपर प्रेम करनेवाले, ४८९. द्विजवर्यप्रियङ्करः- श्रेष्ठ ब्राह्मण भक्तशिरोमणि श्रुतदेवका प्रिय करनेवाले, ४९०. शिवसंकटहारी- भगवान् शिवका संकट टालनेवाले, ४९१. वृकासुरविनाशन:- वृकासुरका नाश करनेवाले।

४९२. भृगुसत्कारकारी- भृगुजीका सत्कार करनेवाले, ४९३. शिवसात्त्विकताप्रदः - भगवान् शिवको सात्त्विकता देनेवाले, ४९४. गोकर्णपूजकः- गोकर्णकी पूजा करनेवाले, ४९५. साम्बकुष्ठविध्वंस- कारण:- साम्बकी कोढ़का नाश करनेवाले।

४९६. वेदस्तुतः - वेदोंके द्वारा स्तुत, ४९७. वेदवेत्ता:- वेदज्ञ, ४९८. यदुवंशाववर्धन:- यदुकुलको बढ़ानेवाले, ४९९. यदुवंशविनाशी- यदुकुलका संहार करनेवाले, ५००. उद्धवोद्धारकारकः- उद्धवका उद्धार करनेवाले।

(इति कृष्णनामावलिः-५००)

(यहां से राधा का नाम कहते हैं)

(अथ राधानामावलिः-५००)

श्रीराधाकृष्णयुगलसहस्रनामस्तोत्रम्

राधा च राधिका चैव आनन्दा वृषभानुजा ।

वृन्दावनेश्वरी पुण्या कृष्णमानसहारिणी ॥ १२८॥

प्रगल्भा चतुरा कामा कामिनी हरिमोहिनी ।

ललिता मधुरा माध्वी किशोरी कनकप्रभा ॥ १२९॥

जितचन्द्रा जितमृगा जितसिंहा जितद्विपा ।

जितरम्भा जितपिका गोविन्दहृदयोद्भवा ॥ १३०॥

जितबिम्बा जितशुका जितपद्मा कुमारिका ।

श्रीकृष्णाकर्षणा देवी नित्यं युग्मस्वरूपिणी ॥ १३१॥

५०१. राधा- श्रीकृष्णकी आराध्या देवीउन्हींकी आह्लादिनी शक्ति५०२. राधिका- श्रीकृष्णकी आराधना करनेवाली वृषभानुपुत्री५०३. आनन्दा- आनन्दस्वरूपा५०४. वृषभानुजा- वृषभानुगोपकी कन्या५०५. वृन्दावनेश्वरी- वृन्दावनकी स्वामिनी५०६. पुण्या- पुण्यमयी५०७. कृष्णमानसहारिणी- श्रीकृष्णका चित्त चुरानेवाली।

५०८. प्रगल्भा- प्रतिभासाहसनिर्भयता और उदार बुद्धिसे सम्पन्न५०९. चतुरा- चतुराईसे युक्त५१०. कामा- प्रेमस्वरूपा५११. कामिनी- एकमात्र श्रीकृष्णको चाहनेवाली५१२. हरिमोहिनी - श्रीकृष्णको मोहित करनेवाली५१३. ललिता-मनोहर सौन्दर्य से सुशोभित५१४. मधुरा - माधुर्यभावसे युक्त५१५. माध्वी-मधुमयी५१६. किशोरी- नित्यकिशोरावस्थासे युक्त५१७. कनकप्रभा:- सुवर्णके समान कान्तिवाली।

५१८. जितचन्द्रा-मुखके सौन्दर्यसे चन्द्रमाको भी परास्त करनेवाली५१९. जितमृगा:- चञ्चल चकित नेत्रोंकी शोभासे मृगको भी मात करनेवाली५२०. जितसिंहा:- सूक्ष्म कटि-भागकी कमनीयता से मृगराज सिंहके भी मदको चूर्ण करनेवाली५२१. जितद्विपा:- मन्द मन्द गतिसे गजेन्द्रका भी गर्व खर्व करनेवाली५२२. जितरम्भा:- ऊरुओंकी स्निग्धतासे कदलीको भी तिरस्कृत करनेवाली५२३. जितपिका:- अपने मधुर कण्ठस्वरसे कोयलको भी तिरस्कृत करनेवाली५२४. गोविन्दहृदयोद्भवा - श्रीकृष्णके हृदयसे प्रकट हुई।

५२५. जितविम्बा:- अपने अधरकी अरुणिमासे विम्बफलको भी तिरस्कृत करनेवाली५२६. जितशुका- नुकीली नासिकाकी शोभासे तोतेको भी लजा देनेवाली५२७. जितपद्मा:- अपने अनिर्वचनीय रूप लावण्यसे लक्ष्मीको भी लज्जितकरनेवाली५२८. कुमारिका:- नित्य कुमारी५२९. श्रीकृष्णाकर्षणा- श्रीकृष्णको अपनी ओर खींचनेवाली५३०. देवी:- दिव्यस्वरूपा५३१. नित्ययुग्मस्वरूपिणी - नित्य युगलरूपा ।

नित्यं विहारिणी कान्ता रसिका कृष्णवल्लभा ।

आमोदिनी मोदवती नन्दनन्दनभूषिता ॥ १३२॥

दिव्याम्बरा दिव्यहारा मुक्तामणिविभूषिता ।

कुञ्जप्रिया कुञ्जवासा कुञ्जनायकनायिका ॥ १३३॥

चारुरूपा चारुवक्त्रा चारुहेमाङ्गदा शुभा ।

श्रीकृष्णवेणुसङ्गीता मुरलीहारिणी शिवा ॥ १३४॥

भद्रा भगवती शान्ता कुमुदा सुन्दरी प्रिया ।

कृष्णक्रीडा कृष्णरतिः श्रीकृष्णसहचारिणी ॥ १३५॥

वंशीवटप्रियस्थाना युग्मायुग्मस्वरूपिणी ।

भाण्डीरवासिनी शुभ्रा गोपीनाथप्रिया सखी ॥ १३६॥

५३२. नित्यं विहारिणी:- श्यामसुन्दरके साथ नित्य लीला करनेवाली, ५३३. कान्ता- नन्दनन्दनकी प्रियतमा, ५३४. रसिका:- प्रेमरसका आस्वादन करनेवाली, ५३५. कृष्णवल्लभा:- श्रीकृष्णप्रिया ५३६. आमोदिनी- श्रीकृष्णको आमोद प्रदान करनेवाली, ५३७. मोदवती:- मोदमयी, ५३८. नन्दनन्दनभूषिता - नन्दनन्दन श्रीकृष्णके द्वारा जिनका शृङ्गार किया गया है।

५३९. दिव्याम्बरा-दिव्य वस्त्र धारण करनेवाली, ५४०. दिव्यहारा-दिव्य हार धारण करनेवाली, ५४१. मुक्तामणिविभूषिता- दिव्य मुक्तामणियोंसे विभूषित, ५४२. कुञ्जप्रिया= वृन्दावनके कुज्जोंसे प्यार करनेवाली, ५४३. कुञ्जवासा-कुञ्जमें निवास करनेवाली, ५४४. कुञ्जनायकनायिका- कुञ्जनायक श्रीकृष्णकी नायिका ।

५४५. चारुरूपा:- मनोहर रूपवाली, ५४६. चारुवक्त्रा:- परम सुन्दर मुखवाली, ५४७. चारुहेमाङ्गदा- सुन्दर सुवर्णके भुजबंद धारण करनेवाली, ५४८. शुभा:- शुभस्वरूपा, ५४९. श्रीकृष्णवेणुसङ्गीता - श्रीकृष्णद्वारा मुरलीमें जिनके नाम और यशका गान किया जाता है, ५५०. मुरलीहारिणी:- विनोदके लिये श्रीकृष्णकी मुरलीका हरण करनेवाली, ५५१. शिवा- कल्याणस्वरूप ।

५५२. भद्रा:- मङ्गलमयी, ५५३. भगवती- षड्विध ऐश्वर्यसे सम्पन्न, ५५४. शान्ता - शान्तिमयी, ५५५. कुमुदा-पृथ्वीपर आनन्दोल्लास वितीर्ण करनेवाली, ५५६. सुन्दरी-अनन्त सौन्दर्यकी निधि, ५५७. प्रिया:- सखियों तथा श्यामसुन्दरको अत्यन्त प्रिय, ५५८. कृष्णक्रीडा - श्रीकृष्णके साथ लीला करनेवाली, ५५९. कृष्णरतिः- श्रीकृष्णके प्रति प्रगाढ़ प्रेमवाली, ५६०. श्रीकृष्णसहचारिणी- वृन्दावनमें श्रीकृष्णके साथ विचरनेवाली ।

५६१. वंशीवटप्रियस्थाना - वंशीवट जिनका प्रिय स्थान है, ५६२. युग्मायुग्मस्वरूपिणी- युगलरूपा और एक रूपा, ५६३. भाण्डीरवासिनी- भाण्डीर वनमें निवास करनेवाली, ५६४. शुभ्रा गौरवर्णा, ५६५. गोपीनाथप्रिया- गोपीवल्लभ श्रीकृष्णकी प्रियतमा, ५६६. सखी- श्रीकृष्णकी सखी।

श्रुतिनिःश्वसिता दिव्या गोविन्दरसदायिनी ।

श्रीकृष्णप्रार्थनीशाना महानन्दप्रदायिनी ॥ १३७॥

वैकुण्ठजनसंसेव्या कोटिलक्ष्मीसुखावहा ।

कोटिकन्दर्पलावण्या रतिकोटिरतिप्रदा ॥ १३८॥

भक्तिग्राह्या भक्तिरूपा लावण्यसरसी उमा ।

ब्रह्मरुद्रादिसंराध्या नित्यं कौतूहलान्विता ॥ १३९॥

नित्यलीला नित्यकामा नित्यशृङ्गारभूषिता ।

नित्यवृन्दावनरसा नन्दनन्दनसंयुता ॥ १४०॥

गोपिकामण्डलीयुक्ता नित्यं गोपालसङ्गता ।

गोरसक्षेपणी शूरा सानन्दानन्ददायिनी ॥ १४१॥

५६७. श्रुतिनिःश्वसितः- श्रुतियाँ जिनके निःश्वाससे प्रकट होती हैं, ५६८. दिव्या - दिव्यस्वरूपा, ५६९. गोविन्द रसदायिनी - गोविन्दको माधुर्यरस प्रदान करनेवाली, ५७०. श्रीकृष्णप्रार्थिनी= केवल श्रीकृष्णको चाहनेवाली, ५७१. ईशाना-ईश्वरी, ५७२. महानन्दप्रदायिनी - परमानन्द प्रदान करनेवाली।

५७३. वैकुण्ठजनसंसेव्या- वैकुण्ठवासियोंद्वारा सेवन करने योग्य, ५७४. कोटिलक्ष्मी सुखावहा- कोटि-कोटि लक्ष्मीसे भी अधिक सुख देनेवाली, ५७५. कोटिकन्दर्पलावण्या- करोड़ों कामदेवोंसे अधिक रूपलावण्यसे सम्पन्न, ५७६. रतिकोटिरतिप्रदा- करोड़ों रतियोंसे भी अधिक प्रगाढ़ प्रीतिरस प्रदान करनेवाली ।

५७७. भक्तिग्राह्या- भक्तिसे प्राप्त होने योग्य, ५७८. भक्तिरूपा- भक्तिस्वरूपा, ५७९. लावण्यसरसी- सौन्दर्यकी पुष्करिणी, ५८०. उमा- योगमाया एवं ब्रह्मविद्यास्वरूपा, ५८१. ब्रह्मरुद्रादिसंराध्या- ब्रह्मा तथा रुद्रादिके द्वारा आराधना करने योग्य, ५८२. नित्यं कौतूहलान्विता- नित्य कौतुकयुक्त ।

५८३. नित्यलीला- नित्य लीलापरायणा, ५८४. नित्यकामा- नित्य श्रीकृष्ण-मिलनको चाहनेवाली, ५८५. नित्यशृङ्गारभूषिता- नित्य नूतन शृङ्गारसे विभूषित, ५८६. नित्यवृन्दावनरसा= वृन्दावनके माधुर्यरसका सदा आस्वादन करनेवाली, ५८७. नन्दनन्दनसंयुतानन्दनन्दन- श्रीकृष्णके साथ रहनेवाली ।

५८८. गोपिकामण्डलीयुक्ता-गोपियोंकी मण्डलीसे घिरी हुई, ५८९. नित्यं गोपालसङ्गता- सदा गोपाल श्रीकृष्णसे मिलनेवाली, ५९०. गोरसक्षेपिणी-गोरस फेंकने या लुटानेवाली, ५९१. शूरा- शौर्यसम्पन्न, ५९२. सानन्दा- आनन्दयुक्त, ५९३. आनन्ददायिनी- आनन्द देनेवाली ।

महालीला प्रकृष्टा च नागरी नगचारिणी ।

नित्यमाघूर्णिता पूर्णा कस्तूरीतिलकान्विता ॥ १४२॥

पद्मा श्यामा मृगाक्षी च सिद्धिरूपा रसावहा ।

कोटिचन्द्रानना गौरी कोटिकोकिलसुस्वरा ॥ १४३॥

शीलसौन्दर्यनिलया नन्दनन्दनलालिता ।

अशोकवनसंवासा भाण्डीरवनसङ्गता ॥ १४४॥

कल्पद्रुमतलाविष्टा कृष्णा विश्वा हरिप्रिया ।

अजागम्या भवागम्या गोवर्द्धनकृतालया ॥ १४५॥

यमुनातीरनिलया शश्वद्गोविन्दजल्पिनी ।

शश्वन्मानवती स्निग्धा श्रीकृष्णपरिवन्दिता ॥ १४६॥

५९४. महालीलाप्रकृष्टा - श्रीकृष्णकी महालीलाकी सर्वश्रेष्ठ पात्र, ५९५. नागरी- परम चतुरा, ५९६. नगचारिणी-गिरिराज गोवर्धनपर विचरनेवाली, ५९७. नित्यमाघूर्णिता- श्रीकृष्णकी खोजमें नित्य घूमनेवाली, ५९८. पूर्णा- समस्त सद्गुणोंसे परिपूर्ण, ५९९. कस्तूरीतिलकान्विता- कस्तूरीको बेंदीसे सुशोभित ।

६००. पद्मा- लक्ष्मीस्वरूपा, ६०१. श्यामा- सौन्दर्यसे सम्पन्न, ६०२. मृगाक्षी- मृगके समान विशाल एवं चञ्चल नेत्रोंवाली, ६०३. सिद्धिरूपा- सिद्धिस्वरूपा, ६०४. रसावहा- श्रीकृष्णको माधुर्यरसका आस्वादन करानेवाली, ६०५. कोटिचन्द्रानना- करोड़ों चन्द्रमाओंके समान सुन्दर मुखवाली, ६०६. गौरी-गौरवर्णा, ६०७. कोटिकोकिलसुस्वरा-करोड़ों कोकिलोंके समान मधुर स्वरवाली।

६०८. शीलसौन्दर्यनिलया- उत्तम शील तथा अनन्त सौन्दर्यकी आधारभूता, ६०९. नन्दनन्दन- लालिता- नन्दनन्दन श्रीकृष्णसे दुलार पानेवाली, ६१०. अशोकवनसंवासा- अशोकवनमें निवास करनेवाली, ६११. भाण्डीरवनसङ्गता - भाण्डीरवनमें मिलनेवाली।

६१२. कल्पद्रुमतलाविष्टा- कल्पवृक्षके नीचे बैठी हुई, ६१३. कृष्णा-कृष्णस्वरूपा, ६१४. विश्वा विश्वस्वरूपा, ६१५. हरिप्रिया- श्रीकृष्णकी प्रेयसी, ६१६. अजागम्या-ब्रह्माजीके लिये अगम्य, ६१७. भवागम्या- महादेवजीके लिये अगम्य, ६१८. गोवर्धनकृतालया- गोवर्धन पर्वतपर निवास करनेवाली ।

६१९. यमुनातीरनिलया-यमुनातटपर रहनेवाली, ६२०. शश्वद्गोविन्दजल्पिनी- सदा श्रीकृष्ण गोविन्दकी रट लगानेवाली, ६२१. शश्वन्मानवती- नित्य मानिनी, ६२२. स्निग्धा - स्नेहमयी, ६२३. श्रीकृष्णपरिवन्दिता- श्रीकृष्णके द्वारा नित्य वन्दित ।

कृष्णस्तुता कृष्णवृता श्रीकृष्णहृदयालया ।

देवद्रुमफला सेव्या वृन्दावनरसालया ॥ १४७॥

कोटितीर्थमयी सत्या कोटितीर्थफलप्रदा ।

कोटियोगसुदुष्प्राप्या कोटियज्ञदुराश्रया ॥ १४८॥

मनसा शशिलेखा च श्रीकोटिसुभगाऽनघा ।

कोटिमुक्तसुखा सौम्या लक्ष्मीकोटिविलासिनी ॥ १४९॥

तिलोत्तमा त्रिकालस्था त्रिकालज्ञाप्यधीश्वरी ।

त्रिवेदज्ञा त्रिलोकज्ञा तुरीयान्तनिवासिनी ॥ १५०॥

६२४. कृष्णस्तुता - श्रीकृष्णके द्वारा जिनका गुणगान किया गया है, ६२५. कृष्णव्रता- श्रीकृष्णपरायणा, ६२६. श्रीकृष्णहृदयालया- श्रीकृष्णके हृदयमें निवास करनेवाली, ६२७. देवद्रुमफला= कल्पवृक्षके समान मनोवाञ्छित फल देनेवाली, ६२८. सेव्या- सेवन करने योग्य, ६२९. वृन्दावनरसालया-वृन्दावनके रसमें निमग्र रहनेवाली ।

६३०. कोटितीर्थमयी- कोटितीर्थस्वरूपा, ६३१. सत्या- सत्यस्वरूपा, ६३२. कोटितीर्थफलप्रदा- करोड़ों तीर्थोंका फल देनेवाली, ६३३. कोटियोग- सुदुष्प्राप्या करोड़ों योगसाधनोंसे भी दुर्लभ, ६३४. कोटियज्ञदुराश्रया-कोटि यज्ञोंसे भी जिनकी शरणागति प्राप्त होनी कठिन है।

६३५. मनसा-मनसा नामसे प्रसिद्ध, ६३६. शशिलेखा - श्रीकृष्णरूपी चन्द्रमाकी कला, ६३७. श्रीकोटिसुभगा-कोटि लक्ष्मीके समान सौभाग्यवती, ६३८. अनघा - पापशून्य, ६३९. कोटिमुक्तसुखा- करोड़ों मुक्तात्माओंके समान सुखी, ६४०. सौम्या- सौम्यस्वरूपा, ६४१. लक्ष्मीकोटिविलासिनी-करोड़ों लक्ष्मियोंके समान विलासवती।

६४२. तिलोत्तमा- ठोढ़ीमें तिलके आकारकी बेंदी या चिह्न होनेके कारण अतिशय उत्तम सौन्दर्ययुक्त, ६४३. त्रिकालस्था-भूत, भविष्य, वर्तमान- तीनों कालोंमें विद्यमान, ६४४. त्रिकालज्ञा- तीनों कालोंकी घटनाओंको जाननेवाली, ६४५. अधीश्वरी- स्वामिनी, ६४६. त्रिवेदज्ञा-तीनों वेदोंको जाननेवाली, ६४७. त्रिलोकज्ञा- तीनों लोकोंको जाननेवाली, ६४८. तुरीयान्तनिवासिनी- जाग्रत्से लेकर तुरीयापर्यन्त सब अवस्थाओंमें निवास करनेवाली।

दुर्गाराध्या रमाराध्या विश्वाराध्या चिदात्मिका ।

देवाराध्या पराराध्या ब्रह्माराध्या परात्मिका ॥ १५१॥

शिवाराध्या प्रेमसाध्या भक्ताराध्या रसात्मिका ।

कृष्णप्राणार्पिणी भामा शुद्धप्रेमविलासिनी ॥ १५२॥

कृष्णाराध्या भक्तिसाध्या भक्तवृन्दनिषेविता ।

विश्वाधारा कृपाधारा जीवधारातिनायिका ॥ १५३॥

शुद्धप्रेममयी लज्जा नित्यसिद्धा शिरोमणिः ।

दिव्यरूपा दिव्यभोगा दिव्यवेषा मुदान्विता ॥ १५४॥

दिव्याङ्गनावृन्दसारा नित्यनूतनयौवना ।

परब्रह्मावृता ध्येया महारूपा महोज्ज्वला ॥ १५५॥

६४९. दुर्गाराध्या - उमाके द्वारा आराध्य, ६५०. रमाराध्या- लक्ष्मीकी आराध्य देवी ६५१. विश्वाराध्या-सम्पूर्ण जगत्के लिये आराधनीया, ६५२. चिदात्मिका- चेतनस्वरूपा, ६५३. देवाराध्या- देवताओंकी आराध्य देवी, ६५४. पराराध्या- परम आराध्य देवी, ६५५. ब्रह्माराध्या- ब्रह्माजीके द्वारा उपास्य, ६५६. परात्मिका- परमात्मस्वरूपा ।

६५७. शिवाराध्या- भगवान् शिवके लिये आराध्य, ६५८. प्रेमसाध्या- प्रेमसे प्राप्त होने योग्य, ६५९. भक्ताराध्या- भक्तोंकी उपास्य देवी, ६६०. रसात्मिका- रसस्वरूपा, ६६१. कृष्णप्राणार्पिणी- श्रीकृष्णको जीवन देनेवाली, ६६२. भामा-मानिनी, ६६३. शुद्धप्रेमविलासिनी-विशुद्ध प्रेमसे सुशोभित होनेवाली।

६६४. कृष्णाराध्या - श्रीकृष्णकी आराध्य देवी, ६६५. भक्तिसाध्या- अनन्य भक्तिसे प्राप्त होनेवाली, ६६६. भक्तवृन्दनिषेविता-भक्त-समुदायसे सेविता, ६६७. विश्वाधारा सम्पूर्ण जगत्को आश्रय देनेवाली, ६६८. कृपाधारा- कृपाकी आधारभूमि, ६६९. जीवाधारा- सम्पूर्ण जीवोंको आश्रय देनेवाली, ६७०. अतिनायिका- सम्पूर्ण नायिकाओंसे उत्कृष्ट ।

६७१. शुद्धप्रेममयी- विशुद्ध अनुरागस्वरूपा, ६७२. लज्जा = मूर्तिमती लज्जा, ६७३. नित्यसिद्धा- सदा, बिना किसी साधनके, स्वतः सिद्ध, ६७४. शिरोमणिः- गोपाङ्गनाओंकी शिरोमणि, ६७५. दिव्यरूपा- दिव्य रूपवाली, ६७६. दिव्यभोगा- दिव्यभोगों से सम्पन्न, ६७७. दिव्यवेषा- अलौकिक वेशभूषाओंसे सुशोभित, ६७८. मुदान्विता- सदा आनन्दमन रहनेवाली ।

६७९. दिव्याङ्गनावृन्दसारा-दिव्य युवतियोंके समुदायकी सार-सर्वस्वरूपा, ६८०. नित्यनूतनयौवना- नित्य नवीन यौवनसे युक्त, ६८१. परब्रह्मावृता- परब्रह्म परमात्मासे आवृत, ६८२. ध्येया- ध्यान करने योग्य, ६८३. महारूपा- परम सुन्दर रूपवाली, ६८४. महोज्वला- परमोज्ज्वल प्रकाशमयी।

कोटिसूर्यप्रभा कोटिचन्द्रबिम्बाधिकच्छविः ।

कोमलामृतवागाद्या वेदाद्या वेददुर्लभा ॥ १५६॥

कृष्णासक्ता कृष्णभक्ता चन्द्रावलिनिषेविता ।

कलाषोडशसम्पूर्णा कृष्णदेहार्द्धधारिणी ॥ १५७॥

कृष्णबुद्धिः कृष्णसारा कृष्णरूपविहारिणी ।

कृष्णकान्ता कृष्णधना कृष्णमोहनकारिणी ॥ १५८॥

कृष्णदृष्टिः कृष्णगोत्री कृष्णदेवी कुलोद्वहा ।

सर्वभूतस्थितावात्मा सर्वलोकनमस्कृता ॥ १५९॥

कृष्णदात्री प्रेमधात्री स्वर्णगात्री मनोरमा ।

नगधात्री यशोदात्री महादेवी शुभङ्करी ॥ १६०॥

६८५. कोटिसूर्यप्रभा-करोड़ों सूर्योकी प्रभासे उद्भासित, ६८६. कोटिचन्द्रविम्बाधिकच्छविः - कोटि चन्द्रमण्डलसे अधिक छविवाली, ६८७. कोमलामृतवाक्-कोमल एवं अमृतके समान मधुर वचनवाली, ६८८. आद्या- आदिदेवी, ६८९. वेदाद्या= वेदोंकी आदिकारणस्वरूपा, ६९०. वेददुर्लभा- वेदोंकी भी पहुँचसे परे ।

६९१. कृष्णासक्ता- श्रीकृष्णमें अनुरक्त, ६९२. कृष्णभक्ता- श्रीकृष्णके प्रति भक्तिभावसे परिपूर्ण, ६९३. चन्द्रावलिनिषेविता-चन्द्रावली नामकी सखीसे सेवित, ६९४. कलाषोडशसम्पूर्णा- सोलह कलाओंसे पूर्ण, ६९५. कृष्णदेहार्धधारिणी- अपने आधे शरीरमें श्रीकृष्णके स्वरूपको धारण करनेवाली।

६९६. कृष्णबुद्धिः- श्रीकृष्णमें बुद्धिको अर्पित कर देनेवाली, ६९७. कृष्णसारा- श्रीकृष्णको ही जीवनका सारसर्वस्व माननेवाली, ६९८. कृष्ण- रूपविहारिणी- श्रीकृष्णरूपसेविचरनेवाली, ६९९. कृष्णकान्ता- श्रीकृष्णप्रिया, ७००. कृष्णधना- श्रीकृष्णको ही अपना परम धन माननेवाली, ७०१. कृष्णमोहनकारिणी-अपने अनुपम प्रेमसे श्रीकृष्णको मोहित करनेवाली।

७०२. कृष्णदृष्टिः- एकमात्र श्रीकृष्णपर ही दृष्टि रखनेवाली, ७०३. कृष्णगोत्रा = श्रीकृष्णके गोत्रवाली, ७०४. कृष्णदेवी- श्रीकृष्णकी आराध्यदेवी, ७०५. कुलोद्वहा- कुलमें सर्वश्रेष्ठ ७०६. सर्वभूत- स्थितात्मा सम्पूर्ण भूतोंमें विद्यमान आत्मस्वरूपा, ७०७. सर्वलोकनमस्कृता-सम्पूर्ण लोकोंद्वारा अभिवन्दित ।

७०८. कृष्णदात्री - उपासकोंको श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाली, ७०९. प्रेमधात्री- भावुकोंके हृदयमें श्रीकृष्णप्रेमको प्रकट करनेवाली, ७१०. स्वर्णगात्री- सुवर्णके समान गौर शरीरवाली, ७११. मनोरमा-श्रीकृष्णके मनको रमानेवाली, ७१२. नगधात्री- पर्वतोंके अधिष्ठातृ देवताको उत्पन्न करनेवाली, ७१३. यशोदात्री - यश देनेवाली, ७१४. महादेवी- सर्वश्रेष्ठ देवी, ७१५. शुभङ्करी- कल्याण करनेवाली ।

श्रीशेषदेवजननी अवतारगणप्रसूः ।

उत्पलाङ्कारविन्दाङ्का प्रसादाङ्का द्वितीयका ॥ १६१॥

रथाङ्का कुञ्जराङ्का च कुण्डलाङ्कपदस्थिता ।

छत्राङ्का विद्युदङ्का च पुष्पमालाङ्कितापि च ॥ १६२॥

दण्डाङ्का मुकुटाङ्का च पूर्णचन्द्रा शुकाङ्किता ।

कृष्णान्नाहारपाका च वृन्दाकुञ्जविहारिणी ॥ १६३॥

कृष्णप्रबोधनकरी कृष्णशेषान्नभोजिनी ।

पद्मकेसरमध्यस्था सङ्गीतागमवेदिनी ॥ १६४॥

कोटिकल्पान्तभ्रूभङ्गा अप्राप्तप्रलयाच्युता ।

सर्वसत्त्वनिधिः पद्मशङ्खादिनिधिसेविता ॥ १६५॥

७१६. श्रीशेषदेवजननी- लक्ष्मीजी, शेषजी और देवताओंको उत्पन्न करनेवाली, ७१७. अवतारगणप्रसूः - अवतारगणोंको उत्पन्न करनेवाली, ७१८. उत्पलाङ्का-हाथ-पैरोंमें नील कमलके चिह्न धारण करनेवाली, ७१९. अरविन्दाङ्का-कमलके चिह्नसे युक्त, ७२०. प्रासादाङ्का- मन्दिरके चिह्नसे युक्त, ७२१. अद्वितीयका- जिसके समान दूसरी कोई नहीं है ऐसी।

७२२. रथाङ्का रथके चिह्नसे युक्त, ७२३. कुञ्जराङ्का-हाथीके चिह्नसे युक्त, ७२४. कुण्डलाङ्कपदस्थिता - चरणोंमें कुण्डल चिह्नसे युक्त, ७२५. छत्राङ्गा-छत्रके चिह्नसे युक्त, ७२६. विद्युदङ्गा- वज्रके चिह्नसे युक्त, ७२७. पुष्पमालाङ्किता- पुष्पमालाके चिह्नसे युक्त ।

७२८. दण्डाङ्गा-दण्डके चिह्नसे युक्त, ७२९. मुकुटाङ्का-मुकुटके चिह्नसे युक्त, ७३०. पूर्णचन्द्रा- पूर्णचन्द्रके सदृश शोभासम्पन्न, ७३१. शुकाङ्किता-शुकके चिह्नसे युक्त, ७३२. कृष्णान्नाहारपाका- श्रीकृष्णको भोजन करानेके लिये भाँति-भाँतिकी रसोई तैयार करनेवाली, ७३३. वृन्दाकुञ्जविहारिणी-वृन्दावनके कुञ्जमें विचरनेवाली।

७३४.कृष्णप्रबोधनकरी-कृष्णको शयनसे जगानेवाली, ७३५. कृष्णशेषान्नभोजिनी - श्रीकृष्णके आरोगनेसे बचे हुए प्रसादरूप अन्नको ग्रहण करनेवाली, ७३६. पद्मकेसरमध्यस्था- कमलकेसरोंके मध्यमें विराजमान, ७३७. सङ्गीतागमवेदिनी = सङ्गीतशास्त्रको जाननेवाली ।

७३८. कोटिकल्पान्तभ्रूभङ्गा-अपने भ्रूभङ्गमात्रसे करोड़ों कल्पोंका अन्त करनेवाली, ७३९. अप्राप्तप्रलया-कभी प्रलयको प्राप्त न होनेवाली, ७४०. अच्युता- अपनी महिमासे कभी विचलित न होनेवाली, ७४१. सर्वसत्त्वनिधिः- पूर्ण सत्त्वगुणकी निधि, ७४२. पद्मशङ्खादिनिधिसेविता-पद्म-शङ्ख आदि निधियोंसे सेवित ।

अणिमादिगुणैश्वर्या देववृन्दविमोहिनी ।

सर्वानन्दप्रदा सर्वा सुवर्णलतिकाकृतिः ॥ १६६॥

कृष्णाभिसारसङ्केता मालिनी नृत्यपण्डिता ।

गोपीसिन्धुसकाशाह्वा गोपमण्डपशोभिनी ॥ १६७॥

श्रीकृष्णप्रीतिदा भीता प्रत्यङ्गपुलकाञ्चिता ।

श्रीकृष्णालिङ्गनरता गोविन्दविरहाक्षमा ॥ १६८॥

अनन्तगुणसम्पन्ना कृष्णकीर्तनलालसा ।

बीजत्रयमयी मूर्तिः कृष्णानुग्रहवाञ्छिता ॥ १६९॥

विमलादिनिषेव्या च ललिताद्यर्चिता सती ।

पद्मवृन्दस्थिता हृष्टा त्रिपुरापरिसेविता ॥ १७०॥

७४३. अणिमादिगुणैश्वर्या- अणिमा आदि अष्टविध गुणोंके ऐश्वर्योंसे युक्त, ७४४. देववृन्दविमोहिनी- देवसमुदायको मोहित करनेवाली, ७४५. सर्वानन्दप्रदा सबको आनन्द देनेवाली, ७४६. सर्वां सर्वस्वरूपा, ७४७. सुवर्णलतिकाकृतिः- स्वर्णमयी लताके समान आकृतिवाली।

७४८. कृष्णाभिसारसंकेता श्रीकृष्णसे मिलनेके लिये संकेतस्थानमें स्थित ७४९. मालिनी-मालासे अलंकृत, ७५० नृत्यपण्डिता नृत्यकलाकी विदुषी, ७५१. गोपीसिन्धुसकाशाप्या- गोपीसमुदायरूपी सिन्धुर्मे प्राप्त होनेवाली, ७५२. गोपमण्डपशोभिनी- वृषभानुगोपके मण्डपमें शोभा पानेवाली।

७५३. श्रीकृष्णप्रीतिदा- श्रीकृष्णके प्रेमको प्रदान करनेवाली, ७५४. भीता-श्रीकृष्णके वियोगके भयसे भीत, ७५५. प्रत्यङ्गपुलकाश्चिता- प्रत्येक अङ्गमें श्रीकृष्ण प्रेमजनित रोमाञ्चसे युक्त, ७५६. श्रीकृष्णालिङ्गनरता - श्रीकृष्णका स्पर्श करने में तत्पर, ७५७. गोविन्दविरहाक्षमा-श्रीकृष्णका वियोग सहन करनेमें असमर्थ ।

७५८. अनन्तगुणसम्पन्ना- अनन्त गुणोंसे युक्त,७५९. कृष्णकीर्तनलालसा - श्रीकृष्णके नाम और गुणोंके कीर्तन करनेकी रुचिवाली, ७६०. बीजत्रयमयीमूर्तिः- श्रीं ह्रीं क्लीं- इन तीन बीजोंसे संयुक्तरूपवाली, ७६१. कृष्णानुग्रहवाच्छिनी- श्रीकृष्णके अनुग्रहको चाहनेवाली ।

७६२. विमलादिनिषेव्या-विमला, उत्कर्षिणी आदि सखियोंद्वारा सेव्य, ७६३. ललिताद्यर्चिता- ललिता आदि सखियोंसे पूजित, ७६४. सती- उत्तम शील और सदाचारसे सम्पन्न, ७६५. पद्मवृन्दस्थिता – कमलवनमें निवास करनेवाली, ७६६. हृष्टा- हर्षसे युक्त, ७६७. त्रिपुरापरिसेविता- त्रिपुरसुन्दरीके द्वारा सेवित ।

वृन्तावत्यर्चिता श्रद्धा दुर्ज्ञेया भक्तवल्लभा ।

दुर्लभा सान्द्रसौख्यात्मा श्रेयोहेतुः सुभोगदा ॥ १७१॥

सारङ्गा शारदा बोधा सद्वृन्दावनचारिणी ।

ब्रह्मानन्दा चिदानन्दा ध्यानानन्दार्द्धमात्रिका ॥ १७२॥

गन्धर्वा सुरतज्ञा च गोविन्दप्राणसङ्गमा ।

कृष्णाङ्गभूषणा रत्नभूषणा स्वर्णभूषिता ॥ १७३॥

श्रीकृष्णहृदयावासमुक्ताकनकनालिका ।

सद्रत्नकङ्कणयुता श्रीमन्नीलगिरिस्थिता ॥ १७४॥

स्वर्णनूपुरसम्पन्ना स्वर्णकिङ्किणिमण्डिता ।

अशोषरासकुतुका रम्भोरूस्तनुमध्यमा ॥ १७५॥

७६८. वृन्दावत्यर्चिता-वृन्दावती देवीके द्वारा पूजित, ७६९. श्रद्धा- श्रद्धास्वरूपा, ७७०. दुर्ज्ञेया= बुद्धिकी पहुँचसे परे, ७७१. भक्तवल्लभा- भक्तप्रिया, ७७२. दुर्लभा दुष्प्राप्य, ७७३. सान्द्रसौख्यात्मा- घनीभूत सुखस्वरूपा, ७७४. श्रेयोहेतु:-कल्याणकी प्राप्तिमें हेतु, ७७५. सुभोगदा- मुक्तिप्रद भोग देनेवाली ।

७७६. सारङ्गा-श्रीकृष्ण प्रेमकी प्यासी चातकी, ७७७. शारदा-सरस्वतीस्वरूपा, ७७८. बोधा= ज्ञानमयी, ७७९. सद्वृन्दावनचारिणी - सुन्दर वृन्दावनमें विचरनेवाली, ७८०. ब्रह्मानन्दा- ब्रह्मानन्दस्वरूपा, ७८१. चिदानन्दा- चिदानन्दमयी, ७८२. ध्यानानन्दा- श्रीकृष्ण-ध्यानजनित आनन्दमें मग्र, ७८३. अर्धमात्रिका- अर्धमात्रास्वरूपा।

७८४. गन्धर्वा- गानविद्यामें प्रवीण, ७८५. सुरतज्ञा- सुरतकलाको जाननेवाली, ७८६. गोविन्दप्राणसङ्गमा- गोविन्दके साथ एक प्राण होकर रहनेवाली, ७८७. कृष्णाङ्गभूषणा- श्रीकृष्णके अङ्गोंको विभूषित करनेवाली, ७८८. रत्नभूषणा- रत्नमय आभूषण धारण करनेवाली, ७८९. स्वर्णभूषिता- सोनेके आभूषणोंसे विभूषित।

७९०. श्रीकृष्णहृदयावासा - श्रीकृष्णके हृदय- मन्दिरमें निवास करनेवाली, ७९१. मुक्ताकनकनासिका- नासिकामें मुक्तायुक्त सुवर्णके आभूषण धारण करनेवाली, ७९२. सनकङ्कणयुता- हाथोंमें सुन्दर रत्नजटित कंगन पहननेवाली, ७९३. श्रीमन्नीलगिरिस्थिता- शोभाशाली नीलाचलपर विराजमान ।

७९४. स्वर्णनूपुरसम्यन्ना सोनेके नूपुरोंसे सुशोभित, ७९५. स्वर्णकिङ्किणिमण्डिता- सुवर्णकी किङ्किणी (करधनी) - से अलंकृत, ७९६. अशेषरासकुका- महाराजके लिये उत्कण्ठित रहनेवाली, ७९७. रम्भोरु:- केलेके समान जंघावाली, ७९८. तनुमध्यमा- क्षीण कटिवाली।

पराकृतिः परानन्दा परस्वर्गविहारिणी ।

प्रसूनकबरी चित्रा महासिन्दूरसुन्दरी ॥ १७६॥

कैशोरवयसा बाला प्रमदाकुलशेखरा ।

कृष्णाधरसुधास्वादा श्यामप्रेमविनोदिनी ॥ १७७॥

शिखिपिच्छलसच्चूडा स्वर्णचम्पकभूषिता ।

कुङ्कुमालक्तकस्तूरीमण्डिता चापराजिता ॥ १७८॥

७९९. पराकृतिः=सर्वोत्कृष्ट आकृतिवाली८००. परानन्दा- परमानन्दस्वरूपा८०१. परस्वर्ग- विहारिणी स्वर्गसे भी परे गोलोक धाममें विहार करनेवाली८०२. प्रसूनकबरी-वेणीमें फूलोंके हार गूंथनेवाली८०३. चित्रा-विचित्र शोभामयी, ८०४. महासिन्दूरसुन्दरी- उत्तम सिन्दूरसे अति सुन्दर प्रतीत होनेवाली।

८०५. कैशोरवयसा- किशोरावस्थासे युक्त८०६. बाला-मुग्धा८०७. प्रमदाकुलशेखरा- रमणीकुलशिरोमणि८०८. कृष्णधरासुधास्वादा- श्रीकृष्णनामरूपी सुधाका अधरोंके द्वारा नित्य आस्वादन करनेवाली८०९. श्यामप्रेमविनोदिनी- श्रीकृष्णप्रेमसे ही मनोरञ्जन करनेवाली।

८१०. शिखिपिच्छलसच्चूडा- मयूर पंखसे सुशोभित केशोंवाली८११. स्वर्णचम्पकभूषिता- स्वर्णचम्पाके आभूषणोंसे विभूषित८१२. कुङ्कुमालक्तकस्तूरीमण्डिता-रोलीमहावर और कस्तुरीके शृङ्गारसे सुशोभित८१३. अपराजिता- कभी परास्त न होनेवाली।

हेमहारान्विता पुष्पाहाराढ्या रसवत्यपि ।

माधुर्य्यमधुरा पद्मा पद्महस्ता सुविश्रुता ॥ १७९॥

भ्रूभङ्गाभङ्गकोदण्डकटाक्षशरसन्धिनी ।

शेषदेवा शिरस्था च नित्यस्थलविहारिणी ॥ १८०॥

कारुण्यजलमध्यस्था नित्यमत्ताधिरोहिणी ।

अष्टभाषवती चाष्टनायिका लक्षणान्विता ॥ १८१॥

८१४. हेमहारान्विता - सुवर्णके हारसे अलंकृत, ८१५. पुष्पहाराढ्या- पुष्पमालासे मण्डित, ८१६. रसवती- प्रेमरसमयी, ८१७. माधुर्यमथुरा- माधुर्य भावके कारण मधुर, ८१८. पद्मा- पद्मानामसे प्रसिद्ध, ८१९. पद्महस्ता - हाथमें कमल धारण करनेवाली, ८२०. सुविश्रुता- अति विख्यात ।

८२१. भ्रूभङ्गाभङ्गकोदण्डकटाक्षसरसन्धिनी- श्रीकृष्णके प्रति तिरछी भौंहरूपी सुदृढ़ धनुषपर कटाक्षरूपी बाणोंका संधान करनेवाली, ८२२. शेषदेवशिरः स्था-शेषजीके मस्तकपर पृथ्वीके रूपमें स्थित, ८२३. नित्यस्थलविहारिणी- नित्य लीला स्थलियों में विचरनेवाली ।

८२४. कारुण्यजलमध्यस्था- करुणारूपी जलराशिके मध्य विराजमान, ८२५. नित्यमत्ता-सदा प्रेममें मतवाली, ८२६. अधिरोहिणी-उन्नतिकी साधनरूपा, ८२७. अष्टभाषावती - आठ भाषाओंको जाननेवाली, ८२८. अष्टनायिका- ललिता आदि आठ सखियोंकी स्वामिनी, ८२९. लक्षणान्विता- उत्तम लक्षणोंसे युक्त ।

सुनीतिज्ञा श्रुतिज्ञा च सर्वज्ञा दुःखहारिणी ।

रजोगुणेश्वरी चैव शरच्चन्द्रनिभानना ॥ १८२॥

केतकीकुसुमाभासा सदा सिन्धुवनस्थिता ।

हेमपुष्पाधिककरा पञ्चशक्तिमयी हिता ॥ १८३॥

स्तनकुम्भी नराढ्या च क्षीणापुण्या यशस्विनी ।

वैराजसूयजननी श्रीशा भुवनमोहिनी ॥ १८४॥

महाशोभा महामाया महाकान्तिर्महास्मृतिः ।

महामोहा महाविद्या महाकीर्तिर्महारतिः ॥ १८५॥

८३०. सुनीतिज्ञा-अच्छी नीतिको जाननेवाली, ८३१. श्रुतिज्ञा- श्रुतिको जाननेवाली८३२. सर्वज्ञा- सब कुछ जाननेवाली८३३. दुःखहारिणी- दुःखोंको हरण करनेवाली८३४. रजोगुणेश्वरी- रजोगुणकी स्वामिनी८३५. शरच्चन्द्रनिभानना- शरदऋतुके चन्द्रमाकी भाँति मनोहर मुखवाली।

८३६. केतकीकुसुमाभासा- केतकीके पुष्पकी- सी आभावाली८३७. सदासिन्धुवनस्थिता - सदा सिन्धु-वनमें रहनेवाली८३८. हेमपुष्पाधिककरा- सुवर्ण-पुष्पसे अधिक कमनीय हाथवाली८३९. पञ्चशक्तिमयी- पञ्चविधशक्तिसे सम्पन्न, ८४०. हिता-हितकारिणी ।

८४१. स्तनकुम्भी- कुम्भके समान स्तनवाली, ८४२. नराख्या-पुरुषोत्तम श्रीकृष्णसे संयुक्त, ८४३. क्षीणापुण्या-पापरहित८४४. यशस्विनी- कीर्तिमती८४५. वैराजसूर्यजननी-विराट् ब्रह्माण्डके प्रकाशक सूर्यको देनेवाली, ८४६. श्रीशा-लक्ष्मीकी भी स्वामिनी८४७. भुवनमोहिनी-सम्पूर्ण भुवनोंको मोहित करनेवाली।

८४८. महाशोभा- परम शोभाशालिनी, ८४९. महामाया- महामायास्वरूपा८५०. महाकान्तिः = अनन्त कान्तिसे सुशोभित८५१. महास्मृतिः - महती स्मरणशक्तिस्वरूपा८५२. महामोहा- महामोहमयी८५३. महाविद्या- भगवत्प्राप्ति करानेवाली श्रेष्ठ विद्या८५४. महाकीर्तिः - विशाल कीर्तिवाली, ८५५. महारतिः - अत्यन्तानुरागस्वरूपा ।

महाधैर्या महावीर्या महाशक्तिर्महाद्युतिः ।

महागौरी महासम्पन्महाभोगविलासिनी ॥ १८६॥

समया भक्तिदाशोका वात्सल्यरसदायिनी ।

सुहृद्भक्तिप्रदा स्वच्छा माधुर्यरसवर्षिणी ॥ १८७॥

भावभक्तिप्रदा शुद्धप्रेमभक्तिविधायिनी ।

गोपरामाभिरामा च क्रीडारामा परेश्वरी ॥ १८८॥

नित्यरामा चात्मरामा कृष्णरामा रमेश्वरी ।

एकानेकजगद्व्याप्ता विश्वलीलाप्रकाशिनी ॥ १८९॥

सरस्वतीशा दुर्गेशा जगदीशा जगद्विधिः ।

विष्णुवंशनिवासा च विष्णुवंशसमुद्भवा ॥ १९०॥

८५६. महाधैर्या- अत्यन्त धीर स्वभाववाली, ८५७. महावीर्या- महान् पराक्रमसे सम्पन्न, ८५८. महाशक्ति:- महाशक्ति, ८५९. महाद्युतिः- परम प्रकाशवती, ८६०. महागौरी- अत्यन्त गौर वर्णवाली, ८६१. महासम्पत्-परम सम्पत्तिरूपा, ८६२. महाभोगविलासिनी- महान् भोग-विलाससे युक्त ।

८६३. समया- अत्यन्त निकटवर्तिनी, ८६४. भक्तिदा-भक्ति देनेवाली, ८६५. अशोका- शोकरहित, ८६६. वात्सल्यरसदायिनी- वात्सल्यरस देनेवाली, ८६७. सुहृद्भक्तिप्रदा-सुहृद् जनोंको भक्ति देनेवाली, ८६८. स्वच्छा-निर्मल, ८६९. माधुर्यरसवर्षिणी- माधुर्यरसकी वर्षा करनेवाली ।

८७० भावभक्तिप्रदा-भावभक्ति प्रदान करनेवाली, ८७१. शुद्धप्रेमभक्तिविधायिनी - शुद्ध प्रेमलक्षणा भक्तिका विधान करनेवाली, ८७२. गोपरामा- गोपकुलकी रमणी, ८७३. अभिरामा- सर्व-सुन्दरी, ८७४. क्रीडारामा- श्यामसुन्दरके साथ लीलामें रत रहनेवाली, ८७५. परेश्वरी- परमेश्वरी ।

८७६. नित्यरामा- नित्य वस्तुमें रमण करनेवाली, ८७७. आत्मरामा- आत्मामें रमण करनेवाली, ८७८. कृष्णरामा- श्रीकृष्णके चिन्तनमें रमण करनेवाली, ८७९. रमेश्वरी- लक्ष्मीकी अधीश्वरी, ८८०. एकानेकजगद्वयामा- एक होकर भी अनेक रूपसे जगतमें व्याप्त, ८८१. विश्वलीलाप्रकाशिनी-सम्पूर्ण विश्वके रूपमें बाह्यलीलाको प्रकाशित करनेवाली ।

८८२. सरस्वतीशा- सरस्वतीकी स्वामिनी, ८८३. दुर्गेशा- दुर्गाकी स्वामिनी, ८८४. जगदीशा- जगत्की स्वामिनी, ८८५. जगद्विधिः- संसारको रचनेवाली, ८८६. विष्णुवंशनिवासा-वैष्णववंशमें निवास करनेवाली, ८८७. विष्णुवंशसमुद्भवा- वैष्णववंशमें प्रकट हुई।

विष्णुवंशस्तुता कर्त्री विष्णुवंशावनी सदा ।

आरामस्था वनस्था च सूर्य्यपुत्र्यवगाहिनी ॥ १९१॥

प्रीतिस्था नित्ययन्त्रस्था गोलोकस्था विभूतिदा ।

स्वानुभूतिस्थिता व्यक्ता सर्वलोकनिवासिनी ॥ १९२॥

अमृता ह्यद्भुता श्रीमन्नारायणसमीडिता ।

अक्षरापि च कूटस्था महापुरुषसम्भवा ॥ १९३॥

औदार्यभावसाध्या च स्थूलसूक्ष्मातिरूपिणी ।

शिरीषपुष्पमृदुला गाङ्गेयमुकुरप्रभा ॥ १९४॥

नीलोत्पलजिताक्षी च सद्रत्नकवरान्विता ।

प्रेमपर्यङ्कनिलया तेजोमण्डलमध्यगा ॥ १९५॥

८८८. विष्णुवंशस्तुता=वैष्णवकुलके द्वारा स्तुत, ८८९. कर्त्री- स्वतन्त्र कर्तृत्वशक्तिसे सम्पन्न, ८९०. सदाविष्णुवंशावनी- सदा वैष्णवकुलको रक्षा करनेवाली, ८९१. आरामस्था- उपवनमें रहनेवाली, ८९२. वनस्था - वृन्दावनमें निवास करनेवाली, ८९३. सूर्यपुत्र्यवगाहिनी- यमुनामें स्नान करनेवाली।

८९४. प्रीतिस्था- प्रेममें निवास करनेवाली, ८९५. नित्ययन्त्रस्था- नित्य यन्त्रमें स्थित रहनेवाली, ८९६. गोलोकस्था- गोलोकधाममें स्थित, ८९७. विभूतिदा-ऐश्वर्य देनेवाली, ८९८. स्वानुभूतिस्थिता- केवल अपनी अनुभूतिमें प्रकट होनेवाली, ८९९. अव्यक्ता - अव्यक्तस्वरूपा, ९००. सर्वलोकनिवासिनी- सम्पूर्ण लोकोंमें निवास करनेवाली ।

९०१. अमृता- अमृतस्वरूपा, ९०२. अद्भुता = अद्भुतरूप और भावसे सम्पन्न, १०३. श्रीमन्नारायणसमीरिता-लक्ष्मीसहित भगवान् नारायणके द्वारा स्तुत, ९०४. अक्षरा= अक्षरस्वरूपा, ९०५. कूटस्था- एकरस परमात्मस्वरूपा, ९०६. महापुरुषसम्भवा- महापुरुषोंको प्रकट करनेवाली।

९०७. औदार्यभावसाध्या- औदार्यपूर्ण भक्तिभावसे प्राप्त होनेवाली, ९०८. स्थूलसूक्ष्मातिरूपिणी- स्थूल- सूक्ष्मसे विलक्षण चिदानन्दमय स्वरूपवाली, ९०९. शिरीषपुष्पमृदुला - सिरसके फूलोंसे भी अधिक कोमल, ९१०. गाङ्गेयमुकुरप्रभा- गङ्गाजल एवं दर्पणके समान निर्मल कान्तिवाली।

९११. नीलोत्पलजिताक्षी-कजरारे नेत्रोंकी शोभासे नीलकमलको परास्त करनेवाली, ९१२. सद्रत्नकबरान्विता- सुन्दर रत्नोंसे अलंकृत चोटीवाली, ९१३. प्रेमपर्यङ्कनिलया-प्रेमरूपी पर्यङ्कपर शयन करनेवाली, ९१४. तेजोमण्डलमध्यगा- तेजपुञ्जके भीतर विराजमान।

कृष्णाङ्गगोपनाऽभेदा लीलावरणनायिका ।

सुधासिन्धुसमुल्लासामृतास्यन्दविधायिनी ॥ १९६॥

कृष्णचित्ता रासचित्ता प्रेमचित्ता हरिप्रिया ।

अचिन्तनगुणग्रामा कृष्णलीला मलापहा ॥ १९७॥

राससिन्धुशशाङ्का च रासमण्डलमण्डिनी ।

नतव्रता सिंहरीच्छा सुमूर्तिः सुरवन्दिता ॥ १९८॥

गोपीचूडामणिर्गोपी गणेड्या विरजाधिका ।

गोपप्रेष्ठा गोपकन्या गोपनारी सुगोपिका ॥ १९९॥

गोपधामा सुदामाम्बा गोपाली गोपमोहिनी ।

गोपभूषा कृष्णभूषा श्रीवृन्दावनचन्द्रिका ॥ २००॥

९१५. कृष्णाङ्गगोपनाभेदा- श्रीकृष्णके अङ्गोंको छिपानेके लिये उनसे अभिन्नरूपमें स्थित, ९१६. लीलावरणनायिका- विभिन्न लीलाओंको स्वीकार करनेवाली प्रधान नायिका, ९१७. सुधासिन्धुसमुल्लासा-प्रेमसुधाके समुद्रको समुल्लसित करनेवाली, ९१८. अमृतस्यन्दविधायिनी- अमृतरसका स्रोत बहानेवाली।

९१९. कृष्णचित्ता= अपना चित्त श्रीकृष्णको समर्पित कर देनेवाली, ९२०. रासचित्ता - श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके लिये रासमें मन लगानेवाली, ९२१. प्रेमचित्ता- श्रीकृष्णप्रेममें मनको निमग्न रखनेवाली, ९२२. हरिप्रिया- श्रीकृष्णकी प्रेयसी, ९२३. अचिन्तनगुणग्रामा-अचिन्त्य गुण-समुदायवाली, ९२४. कृष्णलीला-श्रीकृष्णलीलास्वरूपा, ९२५. मलापहा-मनकी मलिनता एवं पाप-तापको धो बहानेवाली।

९२६. राससिन्धुशशाङ्का -रासरूपी समुद्रको उल्लसित करनेके लिये पूर्ण चन्द्रमाकी भाँति प्रकाशित, ९२७. रासमण्डलमण्डिनी-अपनी उपस्थितिसे रासमण्डलकी अत्यन्त शोभा बढ़ानेवाली, ९२८. नतव्रता-विनम्रस्वभाववाली, ९२९, श्रीहरीच्छासुमूर्तिः- श्रीकृष्णइच्छाकी सुन्दरमूर्ति ९३०. सुरवन्दिता- देवताओंद्वारा वन्दित ।

९३१. गोपीचूडामणिः - गोपाङ्गनाशिरोमणि, ९३२. गोपीगणेड्या-गोपियोंके समुदायद्वारा स्तुत, ९३३. विरजाधिका - गोलोकमें विरजासे अधिक सम्मानित पदपर स्थित, १३४. गोपप्रेष्ठा - गोपाल श्यामसुन्दरकी प्रियतमा, ९३५. गोपकन्या= वृषभानुगोपकी पुत्री, ९३६. गोपनारी- गोपकी वधू, ९३७. सुगोपिका- श्रेष्ठ गोपी।

९३८. गोपधामा- गोलोक धाममें विराजमान, ९३९. सुदामाम्बा-सुदामागोपके प्रति मातृ-स्नेह रखनेवाली, ९४०. गोपाली- गोपी, ९४१. गोपमोहिनी = गोपाल श्रीकृष्णको मोहनेवाली, ९४२. गोपभूषा- गोपाल श्यामसुन्दर ही जिनके आभूषण हैं, ९४३. कृष्णभूषा- श्रीकृष्णको विभूषित करनेवाली, ९४४. श्रीवृन्दावनचन्द्रिका- श्रीवृन्दावनकी चाँदनी ।

वीणादिघोषनिरता रासोत्सवविकासिनी ।

कृष्णचेष्टा परिज्ञाता कोटिकन्दर्पमोहिनी ॥ २०१॥

श्रीकृष्णगुणनागाढ्या देवसुन्दरिमोहिनी ।

कृष्णचन्द्रमनोज्ञा च कृष्णदेवसहोदरी ॥ २०२॥

कृष्णाभिलाषिणी कृष्णप्रेमानुग्रहवाञ्छिता ।

क्षेमा च मधुरालापा भ्रुवोमाया सुभद्रिका ॥ २०३॥

प्रकृतिः परमानन्दा नीपद्रुमतलस्थिता ।

कृपाकटाक्षा बिम्बोष्ठी रम्भा चारुनितम्बिनी ॥ २०४॥

स्मरकेलिनिधाना च गण्डताटङ्कमण्डिता ।

हेमाद्रिकान्तिरुचिरा प्रेमाद्या मदमन्थरा ॥ २०५॥

९४५. वीणादिषोषनिरता- वीणा आदिको बजाने में संलग्न, ९४६. रासोत्सवविकासिनी- रासोत्सवका विकास करनेवाली, ९४७. कृष्णचेष्टा- श्रीकृष्णके अनुरूप चेष्टा करनेवाली, ९४८. अपरिज्ञाता= पहचानमें न आनेवाली, ९४९. कोटिकन्दर्पमोहिनी- करोड़ों कामदेवोंको मोहित करनेवाली ।

९५०. श्रीकृष्णगुणगानाख्या= श्रीकृष्णके गुणोंका गान करनेमें तत्पर, ९५१. देवसुन्दरिमोहिनी- देवसुन्दरियोंको मोहनेवाली, ९५२. कृष्णचन्द्रमनोज्ञा- श्रीकृष्णचन्द्रके मनोभावको जाननेवाली, ९५३. कृष्णदेवसहोदरी- योगमाया रूपसे श्रीयशोदाके गर्भसे उत्पन्न होनेवाली।

९५४. कृष्णाभिलाषिणी- श्रीकृष्ण-मिलनकी इच्छा रखनेवाली, ९५५. कृष्णप्रेमानुग्रहवाञ्छिनी- श्रीकृष्णके प्रेम और अनुग्रहको चाहनेवाली, ९५६. क्षेमा- क्षेमस्वरूपा, ९५७. मधुरालापा-मीठे वचन बोलनेवाली, ९५८. ध्रुवोमाया-भौहोंसे मायाको प्रकट करनेवाली, ९५९. सुभद्रिका- परम कल्याणमयी।

९६०. प्रकृतिः = श्रीकृष्णकी स्वरूपभूता ह्रादिनी शक्ति, ९६१. परमानन्दा- परमानन्दस्वरूपा, ९६२. नीपमतलस्थिता-कदम्बवृक्षके नीचे खड़ी होनेवाली, ९६३. कृपाकटाक्षा-कृपापूर्ण कटाक्षवाली, ९६४. विम्बोष्ठी- विम्बफलके समान लाल ओठवाली, ९६५. रम्भा=सर्वाधिक सुन्दरी होनेके कारण रम्भा नामसे प्रसिद्ध, ९६६. चारुनितम्बिनी-मनोहर नितम्बवाली ।

९६७. स्मरकेलिनिधाना-प्रेमलीलाकी निधि, ९६८. गण्डताटङ्कमण्डिता-कपोलों पर कर्णभूषणोंसे अलंकृत, ९६९. हेमाद्रिकान्तिरुचिरा- सुवर्णगिरि मेरुकी कान्तिके समान सुनहरी कान्तिसे सुशोभित परम सुन्दरी, ९७०.प्रेमाढ्या- प्रेमसे परिपूर्ण, ९७९. मदमन्थरा-प्रेममदसे मन्द गतिवाली।

कृष्णचिन्ता प्रेमचिन्ता रतिचिन्ता च कृष्णदा ।

रासचिन्ता भावचिन्ता शुद्धचिन्ता महारसा ॥ २०६॥

कृष्णादृष्टित्रुटियुगा दृष्टिपक्ष्मिविनिन्दिनी ।

कन्दर्पजननी मुख्या वैकुण्ठगतिदायिनी ॥ २०७॥

रासभावा प्रियाश्लिष्टा प्रेष्ठा प्रथमनायिका ।

शुद्धा सुधादेहिनी च श्रीरामा रसमञ्जरी ॥ २०८॥

सुप्रभावा शुभाचारा स्वर्णदी नर्मदाम्बिका ।

गोमती चन्द्रभागेड्या सरयूस्ताम्रपर्णिसूः ॥ २०९॥

निष्कलङ्कचरित्रा च निर्गुणा च निरञ्जना ।

९७२. कृष्णचिन्ता- श्रीकृष्णका चिन्तन करनेवाली, ९७३. प्रेमचिन्ता-- श्रीकृष्ण प्रेमका चिन्तन करनेवाली, ९७४ रतिचिन्ता - श्रीकृष्णरतिका चिन्तन करनेवाली, ९७५. कृष्णदा- श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाली, ९७६. रासचिन्ता- श्रीकृष्णके साथ रासका चिन्तन करनेवाली, ९७७. भावचिन्ता- प्रेम-भावका चिन्तन करनेवाली, ९७८. शुद्धचिन्ता- विशुद्ध चिन्तनवाली, ९७९. महारसा- अतिशय प्रेमस्वरूपा ।

९८०. कृष्णादृष्टित्रुटियुगा-श्रीकृष्णको देखे बिना क्षणभरके विलम्बको भी एक युगके समान माननेवाली, ९८१. दृष्टिपक्ष्मविनिन्दिनी= श्रीकृष्णका दर्शन करते समय बाधा देनेवाली आँख की पलकोंकी निन्दा करनेवाली, ९८२. कन्दर्पजननी- कामदेवको जन्म देनेवाली, ९८३. मुख्या- सर्वप्रधाना, १८४. वैकुण्ठगतिदायिनी - वैकुण्ठ धामकी प्राप्ति करानेवाली।

९८५. रासभावा- रासमण्डलमें आविर्भूत होनेवाली, ९८६. प्रियाश्लिष्टा- प्रियतम श्यामसुन्दरके द्वारा आश्लिष्ट, ९८७ प्रेष्ठा - श्रीकृष्णकी प्रेयसी, ९८८. प्रथमनायिका- श्रीकृष्णकी प्रधान नायिका, ९८९. शुद्धा- शुद्धस्वरूपा, ९९०. सुधादेहिनी- प्रेमामृतमय शरीरवाली, ९९१. श्रीरामा-लक्ष्मीके समान सुन्दर ९९२. रसमञ्जरी - श्रीकृष्णप्रेम रसको प्रकट करनेके लिये मञ्जरी के समान ।

९९३ . सुप्रभावा- उत्तम प्रभावसे युक्त, ९९४. शुभाचारा - शुभ आचरणवाली, ९९५. स्वर्नदीनर्मदाम्बिका- गङ्गा तथा नर्मदाकी जननी, ९९६. गोमतीचन्द्रभागेड्या = गोमती और चन्द्रभागाके द्वारा स्तवनीय, ९९७. सरयूताम्रपर्णिसू:- सरयू तथा ताम्रपर्णी नदीको प्रकट करनेवाली ।

९९८. निष्कलङ्करित्रा- कलङ्कशून्य चरित्रवाली, ९९. निर्गुणा-गुणातीत १०००. निरञ्जना- निर्मलस्वरूपा।

श्रीराधाकृष्ण युगलसहस्रनाम महात्म्यम्

एतन्नामसहस्रं तु युग्मरूपस्य नारद ॥ २१०॥

पठनीयं प्रयत्नेन वृन्दावनरसावहे ।

महापापप्रशमनं वन्ध्यात्वविनिवर्तकम् ॥ २११॥

दारिद्र्यशमनं रोगनाशनं कामदं महत् ।

पापापहं वैरिहरं राधामाधवभक्तिदम् ॥ २१२॥

नारद! युगलरूप (राधा-कृष्ण के) ये सहस्र नाम हैं। वृन्दावन में यत्नपूर्वक इन नामों का पाठ करना चाहिये। ये सहस्र नाम महापापनाशन, वंध्यात्वमोचन, दारिद्रयभंजक, रोगनाशक, कामदायक, पापहारी, शत्रुध्वंसक और राधा-कृष्ण की भक्ति देने वाले हैं।

नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।

राधासङ्गसुधासिन्धौ नमो नित्यविहारिणे ॥ २१३॥

अकुंठित मेधा वाले भगवान् कृष्ण को नमस्कार है। राधा- संग रूपी सुधासिंधु में नित्य विहार करने वाले माधव को नमस्कार है ।

राधादेवी जगत्कर्त्री जगत्पालनतत्परा ।

जगल्लयविधात्री च सर्वेशी सर्वसूतिका ॥ २१४॥

तस्या नामसहस्रं वै मया प्रोक्तं मुनीश्वर ।

भुक्तिमुक्तिप्रदं दिव्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ २१५॥

मुनीश्वर ! राधादेवी जगत्कर्त्री, विश्व के पालन में निरत रहने वाली, संसार का ध्वंस करने वाली, सब की ईश्वरी और सब की माता हैं । उनके सहस्र नामों को मैंने बता दिया, जो दिव्य एवम् भुक्तिमुक्तिदायक हैं। इसके बाद क्या सुनना चाहते हो ? २१०-२१५।।

॥ इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे राधाकृष्णयुगलसहस्रनामकथनं नाम द्व्यशीतितमोऽध्यायः ॥८२॥

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