मातृका स्तोत्र
श्रीबृहन्नारदीयपुराण पूर्वभाग तृतीयपाद
के अध्याय ८९ श्लोक १०-२२ में वर्णित श्रीत्रिपुरसुन्दरी के इस द्वादशश्लोकी स्तुति
जिसे नित्या अथवा ललिता अथवा मातृका स्तोत्र भी कहा जाता है,इसके पाठ करने
से सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती है।
मातृका स्तोत्रम्
Matrika stotram
नित्या अथवा ललिता अथवा मातृका स्तोत्रम्
नित्या स्तोत्रम्
ललिता स्तोत्रम्
मातृका स्तोत्रं
श्रीत्रिपुरसुन्दर्याद्वादशश्लोकीस्तुतिः
गणेशग्रहनक्षत्रयोगिनीराशिरूपिणीम्
।
देवीं मन्त्रमयीं नौमि
मातृकापीठरूपिणीम् ॥ १॥
गणेश, ग्रह, नक्षत्र, योगिनी,
राशि तथा मातृका पीठ रूपिणी एवम् मंत्रमयी देवी को नमस्कार करता हूँ
।
प्रणमामि महादेवीं मातृकां
परमेश्वरीम् ।
कालहृल्लोहलोल्लोहकलानाशनकारिणीम् ॥
२॥
परमेश्वरी,
मातृका तथा समयापहारी लोह-कला का नाश न करने वाली महादेवी को
नमस्कार करता हूँ ।
यदक्षरैकमात्रेऽपि संसिद्धे
स्पर्द्धते नरः ।
रविताक्ष्येन्दुकन्दर्पैः
शङ्करानलविष्णुभिः ॥ ३॥
यदक्षरशशिज्योत्स्नामण्डितं
भुवनत्रयम् ।
वन्दे सर्वेश्वरीं देवीं
महाश्रीसिद्धमातृकाम् ॥ ४॥
जिन देवी के मंत्र के एक अक्षर भी
सिद्ध हो जाने पर मनुष्य सूर्य, चन्द्रमा, कन्दर्प,
शंकर, अग्नि तथा विष्णु से प्रतिस्पर्धा करता है तथा जिनके अक्षर से तीनों लोक
व्याप्त हैं उन महाश्री, सिद्धि तथा मातृका रूप सर्वेश्वरी
देवी की वंदना करता हूँ ।
यदक्षरमहासूत्रप्रोतमेतज्जगत्त्रयम्
।
ब्रह्माण्डादिकटाहान्तं तां वन्दे
सिद्धमातृकाम् ॥ ५॥
जिनके अक्षर रूप महासूत्र में
ब्रह्माण्ड से लेकर कटाह पर्यन्त तीनों जगत् ओत-प्रोत हैं,
उन सिद्धमातृका को प्रणाम करता हूँ ।
यदेकादशमाधारं बीजं कोणत्रयोद्भवम्
।
ब्रह्माण्डादिकटाहान्तं जगदद्यापि
दृश्यते ॥ ६॥
ब्रह्माण्डादि कटाह पर्यन्त जगत्
जिनके त्रिकोणोत्पन्न एकादश आधार बीज में समाविष्ट होते हुए आज भी दीखता है,
उन देवी की मैं वंदना करता हूँ ।
अकचादिटतोन्नद्धपयशाक्षरवर्गिणीम् ।
ज्येष्ठाङ्गबाहुहृत्कण्ठकटिपादनिवासिनीम्
॥ ७॥
अ, क, च, ट, प, य तथा श अक्षरों में और शिर, बाहु, हृदय, कंठ तथा चरणों मैं
निवास करनेवाली देवी को मैं नमस्कार करता हूँ ।
नौमीकाराक्षरोद्धारां सारात्सारां
परात्पराम् ।
प्रणमामि महादेवीं परमानन्दरूपिणीम्
॥ ८॥
इकार अक्षर का उद्धार करनेवाली,
सार से भी सार श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ, परमानन्द
रूपिणी महादेवी को प्रणाम करता हूँ ।
अथापि यस्या जानन्ति न मनागपि
देवताः ।
केयं कस्मात्क्व केनेति
सरूपारूपभावनाम् ॥ ९॥
वन्दे तामहमक्षय्यां
क्षकाराक्षररूपिणीम् ।
देवीं कुलकलोल्लोलप्रोल्लसन्तीं
शिवां पराम् ॥ १०॥
देवगण जिनके विषय में कुछ भी नहीं जानते
हैं अर्थात् वे कौन हैं ? किससे हुई ?
कहाँ हुई ? क्यों हुई ? इस
मूर्तीमूर्त भावना को बिलकुल नहीं जानते उन क्षकाराक्षर रूप वाली, कभी नष्ट न होने वाली, वाम मार्ग के नाद से चंचल तथा
शोभित होने वाली श्रेष्ठ शिवा देवी को प्रणाम करता हूँ ।
वर्गानुक्रमयोगेन यस्याख्योमाष्टकं
स्थितम् ।
वन्दे
तामष्टवर्गोत्थमहासिद्ध्यादिकेश्वरीम् ॥ ११॥
वर्गों के अनुक्रम योग से जिनके नाम
पर उमाष्टक बना है, उन अष्ट वर्ग से
उद्भूत महासिद्धि आदि की स्वामिनी की मैं वन्दना करता हूँ।
कामपूर्णजकाराख्यसुपीठान्तर्न्निवासिनीम्
।
चतुराज्ञाकोशभूतां नौमि
श्रीत्रिपुरामहम् ॥ १२॥
कामपूर्ण जकार संज्ञक सुन्दर पीठ के
भीतर निवास करने वाली और चार आज्ञाकोशों से युक्त श्री त्रिपुरा को नमस्कार करता हूँ
।
श्रीत्रिपुरसुन्दर्या द्वादशश्लोकी स्तुतिः
महात्म्य
इति द्वादशभी श्लोकैः स्तवनं सर्वसिद्धिकृत् ।
देव्यास्त्वखण्डरूपायाः स्तवनं तव
तद्यतः ॥ १३॥
देवी की स्तुति की यह द्वादश
श्लोकि देवी के अखंड और सर्वव्यापी स्वरूप का स्तुति-गान सभी प्रकार की सिद्धियाँ
प्रदान करता है।
एतत्स्तोत्रं तु नित्यानां यः
पठेत्सुसमाहितः ।
पूजादौ तस्य सर्वाता वरदाः स्युर्न
संशयः ।। १४ ।।
पूजा के आरम्भ में जो व्यक्ति
अत्यन्त सावधानी से नित्याओं के इस स्तोत्र का पाठ करेगा, उसे सकल देवियों का
वरदान मिलेगा, इसमें संशय नहीं ।
इति त्रिपुरसुन्दर्याद्वादशश्लोकीस्तुतिः समाप्ता ।

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