नारायण उपनिषद्
पंच अथर्वशीर्ष में गणेश, शिव, शक्ति, विष्णु और सूर्य के क्रमानुसार पाँच अथर्वशीर्ष है। अथर्वशीर्ष की परंपरा में नारायणथर्वशीर्ष विशेष है; क्योंकि जहां इसकी गणना कृष्णयजुर्वेदिक परंपरा के उपनिषदों में की गई है, वहीं इसमें चारों वेदों ऋक्, यजुः, साम और अथर्ववेद की शिक्षाओं का सार ‘शिर’ (शीर्ष) के रूप में वर्णित है। इसमें भगवान नारायण से ही सभी वस्तुओं की उत्पत्ति और उनके सभी रूपों में प्रकट होने का वर्णन किया गया है। इस लघु अथर्वशीर्ष में भगवान नारायण के अष्टाक्षर मन्त्र ‘ॐ नमो नारायणाय’ का उपदेश भी बताया गया है। इस अथर्वशीर्ष का पाठ करने से चारों वेदों के पाठ का फल प्राप्त होता है। इसे नारायण उपनिषद्, नारायणोपनिषद, नारायणोपनिषत् अथवा नारायण अथर्वशीर्ष भी कहा जाता है।
नारायणोपनिषद
Narayan Upanishad
नारायणोपनिषत् अथवा नारायण अथर्वशीर्ष
शान्ति पाठ
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु । सह
वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु । मा
विद्विषावहै ॥
परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का
साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें।
हमारा अध्यान किया हआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें।
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हमारे,
अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों
(दुखों) की शांति हो।
नारायण उपनिषद्
(नारायणाथर्वशीर्षम्
प्रथमः खण्डःनारायणात् सर्वचेतनाचेतनजन्म)
ॐ अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत
प्रजाः सृजेयेति ।
नारायणात्प्राणो जायते । मनः
सर्वेन्द्रियाणि च ।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी
विश्वस्य धारिणी ।
नारायणाद् ब्रह्मा जायते ।
नारायणाद् रुद्रो जायते ।
नारायणादिन्द्रो जायते ।
नारायणात्प्रजापतयः प्रजायन्ते ।
नारायणाद्द्वादशादित्या रुद्रा वसवः
सर्वाणि च छन्दा৶सि
।
नारायणादेव समुत्पद्यन्ते । नारायणे
प्रवर्तन्ते । नारायणे प्रलीयन्ते ॥
(एतदृग्वेदशिरोऽधीते
।)
ॐइस परमात्मा के नाम का स्मरण करके
नारायण उपनिषद आरम्भ किया जाता है।
निश्चय ही भगवान नारायण सबके शरीरों
में शयन करने वाले अंतर्यामी आत्मा है। उन्होंने संकल्प किया-मैं जीवों की सृष्टि
करुँ। अतः उन्ही से सबकी उत्पत्ति हुई। नारायण से ही समष्टिगत प्राण उत्पन्न होता
है, उन्ही से सम्पूर्ण इंद्रियां और
मन उत्पन्न होता है। आकाश, वायु, तेज,
जल और पृथ्वी इन सबकी उत्पत्ति भगवान नारायण से ही होती है। नारायण
से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं, नारायण से शिवजी प्रकट होते
हैं, नारायण से ही इंद्र तथा प्रजापति उत्पन्न होते हैं।
नारायण से वारह आदित्य प्रकट होते हैं। ग्यारह रुद्र, आठ वसु
और सम्पूर्ण वेद भगवान नारायण से ही प्रकट हुऐ हैं। नारायण से ही प्रेरित होकर
अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं और नारायण में ही लीन हो जाते हैं। यह
ऋग्वेदीय उपनिषद का कथन है।॥१॥
(नारायणाथर्वशीर्षम्
द्वितीयः खण्डः नारायणस्य सर्वात्मत्वम्)
ॐ । अथ नित्यो नारायणः । ब्रह्मा
नारायणः । शिवश्च नारायणः ।
शक्रश्च नारायणः । द्यावापृथिव्यौ च
नारायणः ।
कालश्च नारायणः । दिशश्च नारायणः ।
ऊर्ध्वंश्च नारायणः ।
अधश्च नारायणः । अन्तर्बहिश्च
नारायणः । नारायण एवेद৶ सर्वम् ।
यद्भूतं यच्च भव्यम् । निष्कलो
निरञ्जनो निर्विकल्पो निराख्यातः
शुद्धो देव एको नारायणः । न
द्वितीयोऽस्ति कश्चित् । य एवं वेद ।
स विष्णुरेव भवति स विष्णुरेव भवति
॥
(एतद्यजुर्वेदशिरोऽधीते
।)
भगवान नारायण नित्य हैं। ब्रह्माजी नारायण हैं,शिव भी नारायण हैं,इंद्र भी नारायण हैं ,काल नारायण हैं, दिशाऐं भी नारायण हैं। विदिशाऐं भी
नारायण हैं। ऊपर भी नारायण हैं, नीचे भी नारायण हैं। भीतर और
बाहर भी नारायण हैं। जो कुछ हो चुका है तथा जो कुछ हो रहा है और जो कुछ होने वाला
है, सबकुछ भगवान नारायण ही हैं। एकमात्र नारायण ही निष्कलंक,
निरज्जन, निर्विकल्प, अनिर्वचनीय
एवं विशुद्ध देव हैं। उनके सिवा दूसरा कोई नहीं है। जो इस प्रकार जानता है,
वह विष्णु हो जाता है, वह विष्णु ही हो जाता
है। यह यजुर्वेदीय उपनिषद का कथन है।॥२॥
(नारायणाथर्वशीर्षम्
तृतीयः खण्डः नारायणाष्टाक्षरमन्त्रः)
ओमित्यग्रे व्याहरेत् । नम इति
पश्चात् । नारायणायेत्युपरिष्टात् ।
ओमित्येकाक्षरम् । नम इति द्वे
अक्षरे । नारायणायेति पञ्चाक्षराणि ।
एतद्वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदम् ।
यो ह वै नारायणस्याष्टाक्षरं
पदमध्येति । अनपब्रुवस्सर्वमायुरेति ।
विन्दते प्राजापत्य৶ रायस्पोषं
गौपत्यम् ।
ततोऽमृतत्वमश्नुते ततोऽमृतत्वमश्नुत
इति । य एवं वेद ॥
(एतत्सामवेदशिरोऽधीते
। ओं नमो नारायणाय)
सबसे पहले ॐ इस अक्षर का उच्चारण
करे, इसके बाद 'नम' पद का, फिर अंत में 'नारायणाय' इस पद का उच्चारण करे। यह ॐ नमो नारायणाय
भगवान नारायण का अष्टादशाक्षर मंत्र है। निश्चित ही जो इस मंत्र का जाप करता है,
वह उत्तम कीर्ति से युक्त हो पूरा जीवन जीता है जीवों का आधिपत्य,
धन की वृद्धि गो आदि पशुओं का स्वामित्व- ये सब उसे प्राप्त होते
हैं। तदंतर वह अमृतत्व को पाता है़ अर्थात श्रीभगवान के अमृतमय परमधाम को जाकर दिव्य आनन्द पाता है। यह सामवेदीय उपनिषद
का कथन है।॥३॥
(नारायणाथर्वशीर्षम्
चतुर्थः खण्डःनारायणप्रणवः)
प्रत्यगानन्दं ब्रह्मपुरुषं
प्रणवस्वरूपम् । अकार उकार मकार इति ।
तानेकधा समभरत्तदेतदोमिति ।
यमुक्त्वा मुच्यते योगी
जन्मसंसारबन्धनात् ।
ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रोपासकः ।
वैकुण्ठभुवनलोकं गमिष्यति ।
तदिदं परं पुण्डरीकं विज्ञानघनम् ।
तस्मात्तटिदाभमात्रम् ( अथवा-
तस्मात् तटिदिव प्रकाशमात्रम्) ।
ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रो ब्रह्मण्यो
मधुसूदनोम् (अथवा- ब्रह्मण्यो
मधुसूदनयोम्) ।
सर्वभूतस्थमेकं नारायणम् ।
कारणरूपमकार परं ब्रह्मोम् ।
एतदथर्वशिरोयोधीते ॥
आंतरिक आनन्दमय ब्रह्मपुरुष
प्रणवस्वरुप है; अ, उ, म - ये उसकी मात्राऐं हैं। ये अनेक हैं, इनका ही सम्मिलित रुप ॐ है। इसका जप करके योगी जन्म मृत्यु रुप संसार सागर
से पार हो जाता है। ॐ नमो नारायणाय इस
मंत्र का जप से साधक श्रीहरि के परमधाम को जाता है। यह वैकुण्ठ धाम विज्ञानघन कमल
या पुण्डरीक है। अतः इसका स्वरुप परम प्रकाशमय है। देवकीनंदन श्रीकृष्ण ब्राह्मणप्रिय
हैं। संपूर्ण भूतों में एक ही विष्णुदेव विराजमान हैं। श्रीविष्णुदेव कारणरहित
परब्रह्म हैं। ॐ यह अथर्वेदीय उपनिषद का कथन है।॥४॥
(नारायणाथर्वशीर्षम्
विद्याऽध्ययनफलम् ।)
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं
नाशयति ।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।
माध्यन्दिनमादित्याभिमुखोऽधीयानः
पञ्चमहापातकोपपातकात् प्रमुच्यते ।
सर्व वेद पारायण पुण्यं लभते ।
नारायणसायुज्यमवाप्नोति नारायण
सायुज्यमवाप्नोति ।
य एवं वेद । इत्युपनिषत् ॥
प्रातःकाल इस उपनिषद का पाठ करने
वाला पुरुष रात्रि में किऐ पाप का नाश कर डालता है और शाम के समय पाठ करने वाले पुरुष दिन में किऐ
पाप का नाश कर डालता है। शाम और सुबह पाठ करने वाला निष्पाप हो जाता है। अंत में
भगवान के श्रीधाम को प्राप्त हो जाता
है।॥५॥
नारायण उपनिषद्
शान्ति पाठ
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु । सह
वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु । मा
विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं
सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं
शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं
योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं
सर्वलोकैकनाथम् ॥
जिनकी आकृति अतिशय शांत है,
जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी
नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर और सम्पूर्ण जगत के
आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं,नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुन्दर जिनके
सम्पूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए
जाते हैं, जो सम्पूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे
लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता
हूँ।
नारायण उपनिषद् समाप्त।

Very nice and knowledgeable presentation.Iam a regular reader of this but it is not expandable so it is not easily readable as I am 65+. Please make it easily readable. Thanks in advance.
ReplyDelete🙏🙏🙏 🕉️ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🙏🙏
ReplyDeleteThis is the third time when I remind you about font size but no action have been taken. This is called "buzz in arrogance".
I don't care/ I am ok you are not/भैंस के आगे बीन बाजे भैंस बैठ पगुराय । I don't understand that how much time it will take to do so ? Hardly five minutes. If you don't want to take any action then what is the necessity of comment box.
Post a Comment