पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

आत्मार्पण स्तुति

आत्मार्पण स्तुति

आत्मार्पण स्तुति प्रसिद्ध विद्वान कवि श्री अप्पय्या दीक्षित द्वारा भगवान शिव पर मदमस्त अवस्था में रची गई एक लोकप्रिय स्तोत्र है, इसमें पचास (50) श्लोक हैं जिनमें भावों की उदामता और समर्पण की सहजता चरमसीमा पर हैं। यह शिव की स्तुति का एक विशेष प्रकार है, जिसमें भक्त अपनी चेतना को पूरी तरह से भगवान पर न्योछावर कर देता है।

आत्मार्पण स्तुति

आत्मार्पणस्तुतिः

जनश्रुति के अनुसार एक बार आचार्य दीक्षित ने आत्मपरीक्षण के लिये कि अवचेतन मानस में भी भगवान् शिव की स्मृति रहती है अथवा नहीं, अपने शिष्यों को सावधान करके धत्तूर का भक्षण कर लिया। उन्माद की दशा में उनके मुख से भगवान् शिव की स्तुति ही निकलती रही जिसको उनके अन्तेवासियों ने लिख डाला। वही स्तुति आज 'आत्मार्पण- स्तुति' के नाम से प्राप्त होती है । उन्मत्तावस्था में लिखित होने के कारण इसका अपर पर्याय 'उन्मत्तपञ्चाशत्' अथवा उन्मत्तपञ्चाशिका भी है। आफ्रेक्ट तथा अन्य ग्रन्थसूचीकारों ने इसका एक नाम 'शिवपञ्चाशिका' भी बतलाया है।

आत्मार्पण स्तुतिः

Aatmarpan stuti

आत्मार्पणस्तुतिः

श्रीमदप्पय्य दीक्षित विरचिता

श्रीशङ्करनारायणकृतभावलेशप्रकाश टीका सहित

आत्मार्पणस्तोत्र

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

कस्ते बोद्धुं प्रभवति परं देवदेव प्रभावं

यस्मादित्थं विविधरचना सृष्टिरेषा बभूव ।

भक्तिग्राह्यस्त्वमिह तदपि त्वामहं भक्तिमात्रात्

स्तोतुं वाञ्छाम्यतिमहदिदं साहसं मे सहस्व ॥ १॥

हे देवाधिदेव ! तुम्हारे उत्कृष्ट सामर्थ्य को जानने में कौन समर्थ है, जिस ( तुम ) से इस प्रकार की अनेक रूपों वाली यह सृष्टि उत्पन्न हुई । 'तुम भक्ति से प्राप्य हो' यह ( समझकर ) हे भगवन्! मैं स्वल्प ही भक्ति से तुम्हारी स्तुति करना चाहता हूँ । तुम मेरे इस दुष्प्रयास को क्षमा करो ॥ १ ॥

क्षित्यादिनामवयववतां निश्चितं जन्म तावत्

तन्नास्त्येव क्वचन कल्पितं कर्त्रधिष्ठानहीनम् ।

नाधिष्ठातुं प्रभवति जडो नाप्यनीशश्च भावम्

तस्मादाद्यस्त्वमसि जगतां नाथ जाने विधाता ॥ २॥

पृथ्वी आदि अवयवियों की उत्पत्ति निश्चित ही हैं, किन्तु कर्त्ता एवं आश्रय के अभाव में उसकी कहीं कल्पना तक नहीं हो सकती । ( उस जगत् के ) नियन्त्रण में न तो ( कोई ) जड पदार्थ समर्थ है और न ( कोई ) पराधीन ही । अतः हे स्वामिन्! मैं समझता हूँ कि संसार के आद्यस्रष्टा तुम्हीं हो ॥ २ ॥

इन्द्रं मित्रं वरुणमनिलं पुनरजं विष्णुमीशं 

प्राहुस्ते ते परमशिव ते मायया मोहितास्त्वाम् ।

एतैः साकं सकलमपि यच्छक्तिलेशे समाप्तं  

स त्वं देवः श्रुतिषु विदितः शम्भुरित्यादिदेवः ॥ ३॥

तुम्हारी माया से मोहित भिन्न भिन्न लोगो ने हे परमशिव ! तुमको इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, ब्रह्मा, विष्णु और ईश्वर कहा है । इनके सहित ( शेष ) सब कुछ भी जिसकी शक्ति के कण मात्र में समाहित है, वह देव तुम्हीं हो, श्रुतियों में 'शम्भु' इस नाम से विख्यात हो और सभी देवताओं में प्रथम हो ॥ ३ ॥

आनन्दाद्यः कमपि च घनीभावमास्थायरूपं 

शक्त्या सार्द्धं परममुमया शाश्वतं भोगमृच्छन् ।

अध्वातीते शशिदिवसकृतोः कोटिदीप्ते कपर्दिन् 

आद्ये स्थाने विहरसि सदा सेव्यमानो गणेशैः ॥ ४॥

हे शिव ! (तुम वह हो ) जो आनन्द से घनीभूत किसी अनिर्वचनीय रूप को धारण कर, शक्तिभूता उमा देवी के साथ सर्वोत्कृष्ट एवं सार्वकालिक भोग को प्राप्त करते हुये, षडध्वों से परे, करोड़ों चन्द्र और सूर्य की दीप्ति से प्रकाशित - परम पद में गणाधिपों से सेवित होते हुये सदा विलास करते हो ॥ ४ ॥

त्वं वेदान्तैः प्रथितमहिमा गीयसे विश्वनेतः

त्वं विप्राद्यैर्वरद निखिलैरिज्यसे कर्मभिः स्वैः ।

त्वं दृष्टानुश्रविकविषयानन्दमात्रावितृष्णै-

रन्तर्ग्रन्थिप्रविलयकृते चिन्त्यसे योगिवृन्दैः ॥ ५॥

विख्यात प्रभाव वाले हे जगत् के नायक ! तुम उपनिषदों द्वारा स्तुत होते हो । हे वरदायक ! ( कर्मकाण्डी ) ब्राह्मण आदि ( अथवा ब्राह्मण श्रेष्ठों ) से अपने सम्पूर्ण कर्म कलापों द्वारा पूजे जाते हो । लौकिक एवं वैदिक अनुष्ठानो से प्राप्य विषयों के आनन्द की स्वल्पता के कारण उनसे विरक्त योगियों के समूह द्वारा हृदय-ग्रन्थि के विमोचन के लिये तुम्हारा ही चिन्तन किया जाता है ॥ ५ ॥

ध्यायन्तस्त्वां कतिचन भवं दुस्तरं निस्तरन्ति

त्वत्पादाब्जं विधिवदितरे नित्यमाराधयन्तः ।

अन्ये वर्णाश्रमविधिरताः पालयन्तस्त्वदाज्ञां

सर्वं हित्वा भवजलनिधौ देव मज्जामि घोरे ॥ ६॥

कितने ही तुम्हारा ध्यान करते हुये इस दुस्तरभव से पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं, और दूसरे लोग प्रतिदिन नियमानुसार तुम्हारे चरणकमल की अर्चना करते हुये तथा इनसे अतिरिक्त वर्णाश्रमविधि मे अनुरक्त जन तुम्हारी आशाओं का पालन करते हुये । किन्तु उस सब को छोड़ यह मैं हे देव! इस विषम संसार - सिन्धु में डूब रहा हूँ ॥ ६ ॥

उत्पद्यापि स्मरहर महत्युत्तमानां कुलेऽस्मिन्

आस्वाद्य त्वन्महिमजलधेरप्यहं शीकराणून् ।

त्वत्पादार्चाविमुखहृदयश्चापलादिन्द्रियाणां

व्यग्रस्तुच्छेष्वहह जननं व्यर्थयाम्येष पापः ॥ ७॥

हे कामदमन ! श्रेष्ठ पुरुषों के इस उच्च कुल में उत्पन्न होकर भी, तुम्हारे प्रताप सिन्धु के विन्दु-कणों का आस्वादन करके भी, इन्द्रियों की चञ्चलता के कारण तुम्हारे चरणों की पूजा से पराङ्मुख मन होकर हाय ! यह मैं भ्रान्त- चित्त पापी तुच्छों के बीच अपने जीवन को व्यर्थ कर रहा हूँ ।। ७ ।।

अर्कद्रोणप्रभृतिकुसुमैरर्चनं ते विधेयं

प्राप्यं तेन स्मरहर फलं मोक्षसाम्राज्यलक्ष्मीः ।

एतज्जानन्नपि शिव शिव व्यर्थयन्कालमात्मन्

आत्मद्रोही करणविवशो भूयसाऽधः पतामि ॥ ८॥

आक, द्रोण सदृश पुष्पों से ( भी ) तुम्हारी अर्चना की जा सकती है। हे कामसुदन ! उसके फल के रूप में मुक्तिरूपी साम्राज्य का वैभव ( अथवा मोक्ष, राज्य और वैभव ) प्राप्त हो सकता है। हे आत्मस्वरूप ! दुःख है कि यह जानते हुये भी अपने समय को नष्ट कर रहा, अपना अहित करने वाला, इन्द्रियों के अधीन, मैं पुनः बहुत नीचे गिर रहा हूँ ॥ ८ ॥

किं वा कुर्वे विषमविषयस्वैरिणा वैरिणाऽहं

बद्धः स्वामिन् वपुषि हृदयग्रन्थिना साद्धर्मस्मिन् ।

उक्ष्णा दर्पज्वरभरजुषा साकमेकत्र बद्धः

श्राम्यन्वत्सः स्मरहर युगे धावता किं करोतु ॥ ९॥

घोर विषयों में स्वच्छन्द विचरण करने वाले शत्रु ( मन ) के द्वारा इस शरीर में रहस्यमयी ग्रन्थि से - हे स्वामिन्! बँधा मैं क्या करूँ ? हे कामहर ! घमण्ड की ज्वाला से परिपूर्ण, दौड़ रहे बैल के साथ एक ही जुये में जोत दिया गया, थक रहा बछड़ा क्या करे ? ॥ ९ ॥

नाहं रोद्धुं करणनिचयं दुर्नयं पारयामि

स्मारं स्मारं जनिपथरुजं नाथ सीदामि भीत्या ।

किं वा कुर्वे किमुचितमिह क्वाद्य गच्छामि हन्त

त्वत्पादाब्जप्रपतनमृते नैव पश्याम्युपायम् ॥ १०॥

दुर्नीति वाले इन्द्रिय-समूह को रोकने में मैं समर्थ नहीं हो पा रहा हूँ । हे स्वामिन्! जन्ममार्ग की पीड़ा की याद कर करके डर से मैं दुःखी हो रहा हूँ । भला मैं क्या करूँ ? यहाँ क्या करना उचित है ? आज कहाँ जाऊँ ? हाय ! तुम्हारे चरणकमलों की प्राप्ति के अतिरिक्त मुझे कोई उपाय नहीं दीखता ।। १० ।।

उल्लङ्घ्याज्ञामुडुपतिकलाचूड ते विश्ववन्द्यां

त्यक्ताचारः पशुवदधुना मुक्तलज्जश्चरामि ।

एवं नानाविधभवततिप्राप्तदीर्घापराधः

क्लेशाम्भोधिं कथमहमृते त्वत्प्रसदात्तरेयम् ॥ ११॥

हे चन्द्रकलाशेखर ! तुम्हारी संसार-पूज्य आज्ञा का उल्लङ्घन करके, सदाचार छोड़, लज्जाविहीन मैं इस समय पशु की भांति भटक रहा हूँ । इस तरह अनेक प्रकार के जन्म-समूहों में अर्जित घोर अपराधों वाला मैं आपकी कृपा के बिना कष्टसिन्धु को कैसे तर सकता हूँ ? ॥। ११ ॥

क्षाम्यस्येव त्वमिह करुणासागरः कृत्स्नमागः

संसारोत्थं गिरिश सभयप्रार्थनादैन्यमात्रात् ।

अद्याप्येवं प्रतिकलमहं व्यक्तमागःसहस्रं

कुर्वन् मूर्खः कथमिव तथा निस्त्रपः प्रार्थयेयम् ॥ १२॥

हे करुणासिन्धु शिव! तुम इस संसार में उत्पन्न सभी अपराधों को भयपूर्ण प्रार्थना एवं विनयमात्र से क्षमा कर ही दोगे। इस समय भी प्रतिक्षण स्पष्ट रूप से हजारों पाप करता हुआ मूर्ख और निर्लज्ज मैं कैसे उस प्रकार की प्रार्थना कर सकूंगा ।। १२ ।।

सर्वं तर्त्तुं प्रभवति जनः संसृतिप्राप्तमागः

चेतः श्वासप्रशमसमये त्वत्पादाब्जे निधाय ।

तस्मिन्काले यदि मम मनो नाथ दोषत्रयार्त्त्

प्रज्ञाहीनं पुरहर भवेत् तत्कथं मे घटेत ॥ १३॥

प्राण शान्त होते समय तुम्हारे चरणकमल में मन लगाकर लोग संसार में अर्जित समस्त पापों को तर जाने में समर्थ हो सकते हैं । हे स्वामिन् ! यदि उस समय मेरा मन (कफ, वात और पित्त ) तीनो दोषों से पीडित होकर विवेकहीन हो जाये, तो हे शिव ! मेरा ( संसारतरण ) कैसे संभव होगा ? ।। १३ ।।

प्राणोत्क्रान्तिव्यतिकरदलत्सन्धिबन्धे शरीरे

प्रेमावेशप्रसरदमितक्रन्दिते बन्धुवर्गे ।

अन्तः प्रज्ञामपि शिव भजन्नन्तरायैरनन्तै-

राविद्धोऽहं त्वयि कथमिमामर्पयिष्यामि बुद्धिम् ॥ १४॥

प्राण निकलने के दुःख से जब शरीर के जोड़-जोड़ टूट रहे होंगे और प्रेमावेश के फैलने से सम्बन्धियों का अपार क्रन्दन हो रहा होगा तब भीतर-भीतर ज्ञान रहने पर भी (अथवा मन ही मन में स्मरण करते हुये भी) हे शिव ! अगणित बाधाओं से बद्ध मैं तुम को अपना यह मन कैसे समर्पित कर सकूँगा ।। १४ ।।

अद्यैव त्वत्पदनलिनयोरर्पयाम्यन्तरात्मन्

आत्मानं मे सह परिकरैरद्रिकन्यासनाथ ।

नाहं बोद्धुं शिव तव पदं न क्रिया योगचर्याः

कर्त्तुं शक्नोम्यनितरगतिः केवलं त्वां प्रपद्ये ॥ १५॥

हे अन्तरात्मन् ! हे पार्वतीपति ! आज ही मैं अपने सहायकों के साथ को तुम्हारे दोनों चरण-कमलों में समर्पित करता हूँ । हे शिव ! न तो मैं तुम्हारे पद को समझने में समर्थ हूँ और न ( तुमसे सम्बद्ध ) क्रिया, योग और चर्या ही करने में समर्थ हूँ । अतः दूसरा आश्रय न होने से केवल तुम्हारी ही शरण प्राप्त करता हूँ ।। १५ ।।

यः स्रष्टारं निखिलजगतां निर्ममे पूर्वमीशः

तस्मै वेदान् वदति सकलान् यश्च साकं पुराणैः ।

तं त्वामाद्यं गुरुमहमसावात्मबुद्धिप्रकाशं

संसारार्तः शरणमधुना पार्वतीशं प्रपद्ये ॥ १६॥

जिस ईश्वर ने पहले सम्पूर्ण संसार के विधाता (ब्रह्मा) को बनाया और जिसने उनको पुराण-सहित समस्त वेदों को भी पढ़ाया, उसी आत्मज्ञान के प्रकाशक, प्रथम- गुरु तुम पार्वतीपति को ही शरण को संसार से पीडित यह मैं प्राप्त करता हूँ ॥ १६ ॥

ब्रह्मादीन् यः स्मरहर पशून्मोहपाशेन बद्ध्वा

सर्वानेकश्चिदचिदधिकः कारयत्याऽऽत्मकृत्यम् ।

यश्चैतेषु स्वपदशरणान्विद्यया मोचयित्वा

सान्द्रानन्दं गमयति परं धाम तं त्वां प्रपद्ये ॥ १७॥

हे शिव, ब्रह्मा आदि पशुओं को मोह के पाश में बाँधकर जड़ और चेतन से परे जो अकेला ही सबसे अपना काम करा लेता है, और जो इन (बद्ध पशुओं) में से अपने चरण की शरण में आये लोगों को विद्या से मुक्त कराकर सघन आनन्दमय परम धाम को पहुंचा देता है उसी तुम्हारी शरण में जाता हूँ ।। १७ ।।

ध्यातो यत्नाद्विजितकरणैर्योगिभिर्यो विमुक्त्यै

तेभ्यः प्राणोत्क्रमणसमये संनिधायात्मनैव ।

तद्व्याचष्टे भवभयहरं तारकं ब्रह्म देवः

तं सेवेऽहं गिरिश सततं ब्रह्मविद्यागुरुं त्वाम् ॥ १८॥

जो जितेन्द्रिय योगियों के द्वारा प्रयत्नपूर्वक भ्रूमध्य ( अथवा काशी क्षेत्र ) में ध्यान किये जाने पर प्राण निकलते समय स्वयं ही उनको अपने पास करके उनके संसार भय का अपहरण करने वाले 'तारक मन्त्र' का उपदेश देता है, हे शिव! मैं उसी ब्रह्मविद्या के प्रदाता तुम्हारी निरन्तर भक्ति करता हूँ ।। १८ ।।

भक्ताग्र्याणां कथमपि परैर्योऽचिकित्स्याममर्त्यैः

संसाराख्यां शमयति रुजं स्वात्मबोधौषधेन ।

तं सर्वाधीश्वर भवमहादीर्घतीव्रामयेन

क्लिष्टोऽहं त्वां वरद शरणं यामि संसारवैद्यम् ॥ १९ ॥

दूसरे बड़े देवताओं के द्वारा किसी भी प्रकार ठीक न किये जा सकने वाले अपने श्रेष्ठ भक्तों के संसार नामक रोग को जो अपने आत्म-ज्ञान की दवा से शान्त कर देता है, हे सर्वस्वामिन्, भव, वरद ! अत्यन्त विषम रोग से पीडित मैं उसी विश्व-वैद्य तुम्हारी शरण में जाता हूँ ।। १९ ।।

दासोऽस्मीति त्वयि शिव मया नित्यसिद्धं निवेद्यं

जानास्येतत् त्वमपि यदहं निर्गतिः संभ्रमामि ।

नास्त्येवान्यन्मम किमपि ते नाथ विज्ञापनीयं

कारुण्यान्मे शरणवरणं दीनवृत्तेर्गृहाण ॥ २०॥

हे शिव ! ''मैं तुम्हारा दास हूँ" यह सदा-सिद्ध निवेदन के योग्य तथ्य हैं । तुम भी जानते ही हो कि मैं निराश्रित ही इधर-उधर भटक रहा हूँ । हे नाथ ! मुझे तुमसे कुछ भी और कहना नहीं हैं। दया करके मुझ दैन्यग्रस्त का शरण में जाना स्वीकार कीजिये ॥ २० ॥

ब्रह्मोपेन्द्रप्रभृतिभिरपि स्वेप्सितप्रार्थनाय

स्वामिन्नग्रे चिरमवसरस्तोषयद्भिः प्रतीक्ष्यः ।

द्रागेव त्वां यदिह शरणं प्रार्थये कीटकल्पः

तद्विश्वाधीश्वर तव कृपामेव विश्वस्य दीने ॥ २१॥

हे नाथ! आपको प्रसन्न कर रहे, ब्रह्मा, विष्णु सदृशों को भी अभीष्ट लाभ की याचना के लिये आगे आकर दीर्घकाल तक अवसर की प्रतीक्षा करनी पड़ती है । ( उनकी तुलना में) कीड़े के सदृश मैं जो शीघ्र ही यहां तुम्हारी शरण की याचना कर रहा हूँ, हे विश्वाधीश्वर ! वह दोनों के प्रति तुम्हारी कृपा पर विश्वास के कारण ही है ।। २१ ॥

कर्मज्ञानप्रचयमखिलं दुष्करं नाथ पश्यन्

पापासक्तं हृदयमपि चापारयन्सन्निरोद्धुम् ।

संसाराख्ये पुरहर महत्यन्धकूपे विषीदन्

हस्तालम्बप्रपतनमिदं प्राप्य ते निर्भयोऽस्मि ॥ २२॥

हे नाथ ! कर्म और ज्ञान सबको अतीय कठिन समझता हुआ, और पाप में रत हृदय को रोकने में असमर्थ हो रहा, हे त्रिपुरान्तक ! संसार नामक घोर अन्धकूप में दुःख पा रहा, मैं आपके हाथ का यह सहारा पाकर भयरहित हो गया हूँ ।। २२ ।।

त्वामेवैकं हतजनिपथे पान्थमस्मिन्प्रपञ्चे

मत्वा जन्मप्रचयजलधेः बिभ्यतः पारशून्यात् ।

यत्ते धन्याः सुरवर मुखं दक्षिणं संश्रयन्ति

क्लिष्टं घोरे चिरमिह भवे तेन मां पाहि नित्यम् ॥ २३॥

जन्मादिमार्ग इस विश्व में एकमात्र तुमको ही मुये वाले यात्री समझ कर अपार जन्मसमूह के सिन्धु से डर रहे सौभाग्यशाली जन तुम्हारे जिस दक्षिणमुख का, हे सुरश्रेष्ठ! आश्रय लेते हैं, उसी मुख से इस दुःखमय संसार में क्लेश पा रहे मेरी सदा रक्षा करो। २३ ।।

एकोऽसि त्वं शिव जनिमतामीश्वरो बन्धमुक्त्योः

क्लेशाङ्गारावलिषु लुठतः का गतिस्त्वां विना मे ।

तस्मादस्मिन्निह पशुपते घोरजन्मप्रवाहे

खिन्नं दैन्याकरमतिभयं मां भजस्व प्रपन्नम् ॥ २४॥

जन्मप्राप्त प्राणियों के बन्धन एवं मोक्ष में हे शिव! तुम्ही समर्थं हो। तुम्हारे बिना दुःख रूपी अग्निराशि में लुढ़क रहे मेरा क्या सहारा है ? इसलिये हे पशुपति ! यहाँ इस दुःखद जन्मप्रवाह वाले संसार में भीग रहे दीनता की राशि, शरणागत मुझको स्वीकार करो ।। २४ ।।

यो देवानां प्रथममशुभद्रावको भक्तिभाजां

पूर्वं विश्वाधिक शतधृतिं जायमानं महर्षिः ।

दृष्ट्यापश्यत्सकलजगतीसृष्टिसामर्थ्यदात्र्या

स त्वं ग्रन्थिप्रविलयकृते विद्यया योजयास्मान् ॥ २५॥

भक्तों के अमङ्गल के नाशक जिस क्रान्तदर्शी महात्मा ने पहले उत्पन्न हो रहे, देवताओं में आदिभूत ( हिरण्यगर्भ आदि तथा ) विश्वोत्तीर्णं ( सदाशिव आदि) को सम्पूर्ण संसार की रचना ( आदि ) की शक्ति देने वाली दृष्टि से देखा वही तुम ( अज्ञान की ) ग्रन्थि का विनाश करने के लिए हमें विद्या से युक्त करो ।। २५ ।।

यद्याकाशं शुभद मनुजाश्चर्मवद्वेष्टयेयुः

दुःखस्यान्तं तदपि पुरुषस्त्वामविज्ञाय नैति ।

विज्ञानं च त्वयि शिव ऋते त्वत्प्रसादान्न लभ्यं

तद्दुःखार्तः कमिह शरणं यामि देवं त्वदन्यम् ॥ २६॥

हे शुभप्रदाता, यदि मनुष्य आकाश को चमड़े की भाँति वेष्टित कर लें, और कुछ शत्रुत्व के रोष वाले तुम को विना जाने भी दुःख का अन्त स्वीकार करलें, किन्तु हे शिव ! तुम्हारी कृपा के अतिरिक्त तुम्हारे विषय में ज्ञान नहीं प्राप्त किया जा सकता। फिर क्लेश में पड़ा मैं तुम से भिन्न किस देवता की शरण में जाऊं ? ।। २६ ॥

किं गूढार्थैरकृतकवचोगुम्फनैः किं पुराणैः

तन्त्राद्यैर्वा पुरुषमतिभिर्दुर्निरूप्यैकमत्यैः ।

किं वा शास्त्रैरफलकलहोल्लासमात्रप्रधानैः

विद्या विद्येश्वर कृतधियां केवलं त्वत्प्रसादात् ॥ २७॥

गम्भीर अर्थ वाली अपौरुषेय वाणी ( उपनिषद् आदि ) की योजना से क्या लाभ ? पुराणो से क्या और पुरुष की बुद्धि से कठिनाई से निरूपणीय विषय वाले तन्त्र आदि ग्रन्थों से क्या लाभ? निष्फल वाद-विवाद को ही मुख्य- रूप से उकसाने वाले शास्त्रों से भी क्या प्रयोजन ? ( अर्थात् इनसे ज्ञान नहीं प्राप्त किया जा सकता। ) हे विद्या के स्वामी, परिष्कृत बुद्धि वाले लोगों को विद्या तो केवल तुम्हारी कृपा से ही प्राप्य है ।। २७ ।।

पापिष्टोऽहं विषयचपलः सन्ततद्रोहशाली

कार्पण्यैकस्थिरनिवसतिः पुण्यगन्धानभिज्ञः ।

यद्यप्येवं तदपि शरणं त्वत्पदाब्जं प्रपन्नं

नैनं दीनं स्मरहर तवोपेक्षितुं नाथ युक्तम् ॥ २८॥

मैं महापापी हूँ, विषयों के प्रति चन्चल हूँ, निरन्तर द्रोह मेरा स्वभाव है, कृपणता में ही मेरा स्थायी आवास है, और पवित्रता की गन्ध से भी अपरिचित हूँ । यद्यपि मैं ऐसा हूँ तथापि तुम्हारे चरणकमल की शरण में पहुंचे इस दीन की उपेक्षा करना, हे स्वामिन्, कामदमन ! तुमको उचित नहीं है । २८ ॥

आलोच्यैवं यदि मयि भवान् नाथ दोषाननन्तान्

अस्मत्पादाश्रयणपदवीं नार्हतीति क्षिपेन्माम् ।

अद्यैवेमं शरणविरहाद्विद्धि भीत्यैव नष्टं

ग्रामो गृह्णात्यहिततनयं किं नु मात्रा निरस्तम् ॥ २९॥

हे स्वामिन् ! यदि इस प्रकार से आपने मेरे अगणित दोषों की आलोचना करके मेरे विषय में यह निर्णय लिया कि "तुम मेरे चरणों के अवलम्ब के मार्ग के योग्य नहीं हो" तो शरण के अभाव में इसे आज ही डर कर विनष्ट हुआ समझिये। क्या माता के द्वारा त्यागे गये दुष्ट पुत्र को ग्राम के लोग स्वीकार करेंगे? ।।२९ ।।

क्षन्तव्यं वा निखिलमपि मे भूतभावि व्यलीकं

दुर्व्यापारप्रवणमथवा शिक्षणीयं मनो मे ।

न त्वेवार्त्त्या निरतिशयया त्वत्पदाब्जं प्रपन्नं

त्वद्विन्यस्ताखिलभरममुं युक्तमीश प्रहातुम् ॥ ३०॥

अतः या तो भूत एवं भविष्य के मेरे समस्त दोषों को क्षमा कर दो या दुष्ट कर्मों में निपुण मेरे मन को सुशिक्षित कर दो। अतीव आर्तभाव से तुम्हारे चरण कमलों की शरण में आये और तुम पर ही अपना सारा भार डाल देने वाले इस व्यक्ति को छोड़ देना हे नाथ! उचित नहीं ॥ ३० ॥

सर्वज्ञस्त्वं निरवधिकृपासागरः पूर्णशक्तिः

कस्मादेनं न गणयसि मामापदब्धौ निमग्नम् ।

एकं पापात्मकमपि  रुजा सर्वतोऽत्यन्तदीनं

जन्तुं यद्युद्धरसि शिव कस्तावतातिप्रसङ्गः ॥ ३१॥

तुम सब कुछ जानते हो, अपार कृपा के सिन्धु हो, शक्ति सम्पन्न हो, फिर विपत्ति - सिन्धु में डूबे इस मुझ पर ध्यान क्यों नहीं देते? पापी होने पर भी रोग से सर्वतः पीडित और असहाय एक जीव का यदि उद्धार कर देते हो तो हे शिव ! तुम्हारे लिये अनुचित क्या होगा ? ।। ३१ ॥

अत्यन्तार्तिव्यथितमगतिं देव मामुद्धरेति

क्षुण्णो मार्गस्तव शिव पुरा केन वाऽनाथनाथ ।

कामालम्बे बत तदधिकां प्रार्थनारीतिमन्यां

त्रायस्वैनं सपदि कृपया वस्तुतत्त्वं विचिन्त्य ॥ ३२॥

मुझ घोर दुःख से पीडित, असहाय का, हे स्वामिन्! उद्धार करो। हे नाथ! हे शिव ! ( मैं नहीं जानता ) कि किसी ने तुम्हारे इस मार्ग का अनुसरण पहले किया है अथवा नहीं। अब मैं उससे बढ़कर किस दूसरी प्रार्थना की पद्धति को अपनाऊँ ? तुम शीघ्र ही वास्तविकता का विचार करके कृपया इसकी रक्षा करो ।। ३२ ।।

एतावन्तं भ्रमणनिचयं प्रापितोऽयं वराकः

श्रान्तः स्वामिन्नगतिरधुना मोचनीयस्त्वयाहम् ।

कृत्याकृत्यव्यपगतमतिर्दीनशाखामृगोऽयं

संताड्यैनं दशनविवृतिं पश्यतस्ते फलं किम् ॥ ३३॥

यह बेचारा ( मैं ) इतने अधिक ( जन्म-मरण के ) चक्रसमूहो को प्राप्त कराया गया हूँ, बहुत थक गया हूँ, चल नहीं सकता ( अथवा कोई दूसरा अवलम्ब नहीं है ।) अतः हे स्वामिन् ! अब तुम्हे मुझको मुक्त कर देना चाहिये । यह ( मैं ) कर्त्तव्या कर्त्तव्य को न जानने वाला दीन वानर हूँ, इसकी पिटायी करके उसके फैले हुये दाँतो को देखने से तुमको क्या लाभ होगा ।।३३।।

माता तातः सुत इति समाबध्य मां मोहपाशै-

रापात्यैवं भवजलनिधौ हा किमीश त्वयाऽऽप्तम् ।

एतावन्तं समयमियतीमार्तिमापादितेऽस्मिन्

कल्याणी ते किमिति न कृपा कापि मे भाग्यरेखा ॥ ३४॥

माता, पिता, पुत्र इन मोह पाशों से मुझे बांधकर और इस प्रकार से संसारसिन्धु में गिरा कर हाय नाथ ! तुम्हें क्या मिल गया ? इस व्यक्ति पर इतने समय तक इतना दुःख देने के बाद भी इस पर तुम्हारी कल्याण करने वाली कृपा क्यों न हुई, क्या मेरा कल्याण करने वाली कोई भाग्य रेखा नहीं ॥ ३४ ॥

भुङ्क्षे गुप्तं बत सुखनिधिं तात साधारणं त्वं

भिक्षावृत्तिं परमभिनयन्मायया मां विभज्य ।

मर्यादायाः सकलजगतां नायकः स्थापकस्त्वं

युक्तं किं तद्वद विभजनं योजयस्वात्मना माम् ॥ ३५॥

हे पिता ! अपनी माया से मुझे अलग करके, भिक्षाटन का घोर अभिनय करते हुये तुम सर्वजन भोग्य आनन्द राशि का अकेले ही चुपके-चुपके भोग करते हो। तुम तो सम्पूर्ण विश्व की मर्यादा के उन्नायक तथा प्रवर्तक हो, बतलाओ, क्या हमें अलग करना तुम्हारे लिये उचित है ? मुझे शीघ्र ही अपने साथ मिलाओ ।। ३५ ।।

न त्वा जन्मप्रलयजलधेरुद्धरामीति चेद्धीः

आस्तां तन्मे भवतु च जनिर्यत्र कुत्रापि जातौ ।

त्वद्भक्तानामनितरसुखैः पादधूलीकिशोरैः

आरब्धं मे भवतु भगवन् भावि सर्वं शरीरम् ॥ ३६॥

यदि तुम्हारा विचार है कि 'जन्मों के चञ्चल सिन्धु से तुम्हारा उद्धार नहीं करूंगा, तो वैसा ही हो, और मेरा जन्म भी चाहे जहाँ जिस किसी भी योनि में हो । हे भगवन् ( केवल इतना चाहता हूँ कि ) अन्यों से सुख न चाहने वाले तुम्हारे भक्तों के चरण के धूलिकणों से ही मेरे भावी सभी शरीरों का निर्माण हो ।। ३६ ।।

कीटा नागास्तरव इति वा किं न सन्ति स्थलेषु

त्वत्पादाम्भोरुहपरिमलोद्वाहिमन्दानिलेषु ।

तेष्वेकं वा सृज पुनरिमं नाथ दीनार्त्तिहारिन्

आतोषान्मां मृड भवमहाङ्गारनद्यां लुठन्तम् ॥ ३७॥

तुम्हारे चरणकमल की गन्ध धारण कर शनैः शनैः प्रवाहित वायु से युक्त स्थान पर क्या कीड़े, सर्प या हाथी, वृक्ष आदि क्या नहीं होते हैं ? हे नाथ, हे दीनों के दुःख को दूर करने वाले, हे शिव, संसार की घोर अग्नि नदी में लुढ़क रहे मुझको तुम उन्हीं में से कोई एक बना कर तब तक रहने दो जब तक तुमको पूरा सन्तोष न हो जाये ।। ३७ ।।

काले कण्ठस्फुरदसुकलालेशसत्तावलोक-

व्याग्रोदग्रव्यसनिसकलस्निग्घरुद्धोपकण्ठे ।

अन्तस्तोदैरवधिरहितामार्तिमापद्यमानो-

ऽप्यङिघ्रद्वन्द्वे तव निविशतामन्तरात्मन् ममात्मा ॥ ३८॥

हे अन्तरात्मन् ! उस समय जब कि गले से निकल रहे स्वल्प शेष प्राण वायु को देखकर कातर एवं अत्यधिक विलाप कर रहे प्रियजन पास में उपस्थित हो उस समय अपार आन्तरिक पीडाओं से दुःखी किये जाने पर भी मेरा मन तुम्हारे चरणयुगलों में प्रविष्ट हो ।। ३८ ।।

अन्तर्बाष्पाकुलितनयनानन्तरङ्गानपश्यन्

अग्रे घोषं रुदितबहुलं कातराणामश्रुण्वन् ।

अत्युत्क्रान्तिश्रममगणयन् अन्तकाले कपर्दिन्

अङ्घ्रिद्वन्द्वे तव निविशतामन्तरात्मन् ममात्मा ॥ ३९॥

भीतर आंसुओं से भरे हुये कातर नेत्र वाले अपने घनिष्ट लोगों को न देखते हुये व्यग्र लोगों के रोदन से परिपूर्ण सामने की ध्वनियों को न सुनते हुये, और प्राण निकलते समय की पीड़ाओं पर भी ध्यान न देते हुये हे कपर्दिन् ! हे अन्तरात्मन् ! अन्तसमय मेरा मन तुम्हारे चरण-युगल में ही विलीन हो ।।३९।।

चारुस्मेराननसरसिजं चन्द्ररेखावतंसं

फुल्लन्मल्लीकुसुमकलिकादामसौभाग्यचोरम् ।

अन्तःपश्याम्यचलसुतया रत्नपीठे निषण्णं

लोकातीतं सततशिवदं रूपमप्राकृतं ते ॥ ४०॥

मनोहर मुस्कान से युक्त मुख कमल वाले, चन्द्रमा की कला से विभूषित, खिल रही मालती के पुष्पों की कलिका-राशि की छटा को तिरस्कृत करने वाले, पार्वती के साथ रत्न वेदिका पर आसीन, तुम्हारे लोकोत्तर दिव्य स्वरूप को हे कल्याणप्रद ! मैं सर्वदा अपने हृदय में देखता रहूँ ॥ ४० ॥

स्वप्ने वापि स्वरसविकसद्दिव्यपङ्केरुहाभं

पश्येयं किं तव पशुपते पादयुग्मं कदाचित् ।

क्वाहं पापः क्व तव चरणालोकभाग्यं तथापि

प्रत्याशां मे घटयति पुनर्विश्रुता तेऽनुकम्पा ॥ ४१॥

हे शिव ! क्या मैं स्वप्न में भी कभी तुम्हारे स्निग्ध खिल रहे अलौकिक कमल की भांति कान्ति वाले चरण युगल का दर्शन कर सकूँगा । कहाँ मैं पापी और कहाँ तुम्हारे चरण-दर्शन का सौभाग्य ? किन्तु तुम्हारी विख्यात कृपा ही मुझ में एक आशा उत्पन्न कर रही है ।। ४१ ।।

भिक्षावृत्तिं चर पितृवने भूतसङ्घैर्भ्रमेदं

विज्ञातं ते चरितमखिलं विप्रलिप्सोः कपालिन् ।

आवैकुण्ठद्रुहिणमखिलप्राणिनामीश्वरस्त्वं

नाथ स्वप्नेऽप्यहमिह न ते पादपद्मं त्यजामि ॥ ४२॥

तुम चाहे भिक्षा माँगने के लिये विचरण करो, चाहे प्रेत-समूहों के साथ श्मशान में घूमो, हे कपर्दिन ! मैं भ्रम में डालने वाले तुम्हारे इस चरित्र को जान गया हूँ । विष्णु और ब्रह्मा तक समस्त प्राणियों के तुम स्वामी हो, अत: हे नाथ! मैं यहाँ स्वप्न में भी तुम्हारे चरण-युगल का परित्याग नहीं करूँगा ।। ४२ ॥

आलेपनं भसितमावसथः श्मशानं

अस्थीनि ते सततमाभरणानि सन्तु ।

निह्नोतुमीश सकलश्रुतिपारसिद्धं

ऐश्वर्यमम्बुजभवोऽपि च न क्षमस्ते ॥ ४३॥

चाहे भस्म का लेपन हो, चाहे श्मशान का निवास और चाहे हड्डियां ही निरन्तर तुम्हारे आभूषण हों, किन्तु हे शिव ! समस्त उत्कृष्ट श्रुतियों में अथवा वेदों में साररूप से सिद्ध तुम्हारे वैभव को ब्रह्मा भी छिपाने में समर्थ नहीं ॥४३॥

विविधमपि गुणौघं वेदयन्त्यर्थवादाः

परिमितविभवानां पामराणां सुराणाम् ।

तनुहिमकरमौले तावता त्वत्परत्वे

कति कति जगदीशाः कल्पिता नो भवेयुः ॥ ४४॥

वेदों के प्रशंसापरक वाक्य अर्थवाद-सीमित वैभव वाले उद्धत देवताओं के अनेक प्रकार के गुणसमूहों का ज्ञापन भले ही करें किन्तु हे चन्द्रकलाधर ! यदि उतने वैभव को उनके पास मान लिया जाये तो कितने ही जगदीश्वर हमें मानने पड़ेंगे ।। ४४ ।

विहर पितृवने वा विश्वपारे पुरे वा

रजतगिरितटे वा रत्नसानुस्थले वा ।

दिश भवदुपकण्ठं देहि मे भृत्यभावं

परमशिव तव श्रीपादुकावाहकानाम् ॥ ४५॥

हे शिव ! इन असार वाक्यों का बलावल विचार करके किसी प्रकार निष्कर्ष निकला कि इनसे मुख्यतः समय-यापन में ही सहायता मिलती है । हे नाथ ! ब्रह्मा आदि प्रधान देवों के द्वारा समस्त रहस्यों का निचोड़ निकाल कर हमारे ही प्रमाण को सिद्ध किया जाता है ।। ४५ ।।

बलमबलममीषां बल्बजानां विचिन्त्यं

कथमपि शिव कालक्षेपमात्रप्रधानैः ।

निखिलमपि रहस्यं नाथ निष्कृष्य साक्षात्

सरसिजभवमुख्यैः साधितं नः प्रमाणम् ॥ ४६॥

हे परमशिव ! तुम चाहे श्मशान में विचरण करो, चाहे लोकातीत सोमलोक में, चाहे रजतपर्वत के तट पर और चाहे रत्नपर्वत की भूमि पर । हे देव! तुम मुझे अपने निकट अपनी चरण पादुका के वाहकों का सेवक भाव प्रदान करो ॥ ४६ ॥

न किंचिन्मेनेऽतः समभिलषणीयं त्रिभुवने

सुखं वा दुःखं वा मम भवतु यद्भावि भगवन् ।

समुन्मीलत्पाथोरुहकुहरसौभाग्यमुषिते

पदद्वन्द्वे चेतः परिचयमुपेयान्मम सदा ॥ ४७॥

हे प्रभो ! तीनो लोकों में मेरे मन को कुछ भी अभीष्ट नहीं है। यहां सुख या दुःख तो हो ही रहे हैं, हो चुके हैं और होंगे भी। विकसित हो रहे कमल - कोष की छटा वाले तुम्हारे चरण-युगल में मेरा मन सदा परिचय प्राप्त करता रहे ।। ४७ ।।

उदरभरणमात्रं साध्यमुद्दिश्य नीचे-

ष्वसकृदुपनिबद्धामाहितोच्छिष्टभावाम् ।

अहमिह नुतिभङ्गीमर्पयित्वोपहारं

तव चरणसरोजे तात जातोऽपराधी ॥ ४८॥

निम्न कोटि के मनुष्यों से बारम्बार सम्पर्क के कारण केवल पेट भरने को लक्ष्य निश्चित करके यहाँ मैं तुम्हारे चरण कमलों में इस जूठे भावों वाली प्रगतिपूर्ण रचना की भेंट चढ़ा कर अपराधी हो गया हूँ ।। ४८ ।।

सर्वं सदाशिव सहस्व ममापराधं

मग्नं समुद्धर महत्यमुमापदब्धौ ।

सर्वात्मना तव पदाम्बुजमेव दीनः

स्वामिन्ननन्यशरणः शरणं प्रपद्ये ॥ ४९॥

हे शिव ! तुम सदा मेरे सभी अपराधों को क्षमा करो। इस घोर विपत्ति- समुद्र में डूबे हुये मेरा उद्धार करो। हे नाथ ! यह बेचारा दूसरे को शरण न लेकर पूर्णतः तुम्हारे ही चरण-कमल का आश्रय वरण करता है ।। ४९ ॥

आत्मार्पणस्तुतिरियं भगवन्निबद्धा

यद्यप्यनन्यमनसा न मया तथाऽपि ।

वाचाऽपि केवलमयं शरणं वृणीते

दीनो वराक इति रक्ष कृपानिधे माम् ॥ ५०॥

हे भगवन् ! यद्यपि मैंने अनन्य मन से ही इस 'आत्मार्पणस्तुति' की रचना नहीं की है, तथापि केवल वाणी से ही यह मैं शरण का वरण करता हूँ, ( अतः यह ) दरिद्र है, बेचारा है ऐसा समझ कर हे कृपासिन्धु ! मेरी रक्षा करो ॥ ५० ॥

इति श्रीमदप्पय्यदीक्षितेन्द्राणां कृतिष्वन्यतमा च श्रीशैवशङ्कर नारायणभट्टकृत आत्मार्पणस्तुतिः भावलेशप्रकाशः सम्पूर्णः ॥

॥ शिवमस्तु सर्वदा सर्वेषाम् ॥

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