पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

माहेश्वरतन्त्र पटल ३१

माहेश्वरतन्त्र पटल ३१               

माहेश्वरतन्त्र के पटल ३१ में भगवद् परिचर्या विधि विवेचन का वर्णन है। 

माहेश्वरतन्त्र पटल ३१

माहेश्वरतन्त्र पटल ३१                  

Maheshvar tantra Patal 31

माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ३१                   

नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्

माहेश्वरतन्त्र इकतीसवाँ पटल  

माहेश्वरतन्त्र एकत्रिंश पटल

अथ एकत्रिंशं पटलम

पार्वत्युवाच -

ब्रूहि सेवाप्रकारं मे येन तुष्येत् स्वयं प्रभुः ।

कथं पूजा प्रकर्त्तव्या व्यवहारश्च कीदशः ॥ १॥

भगवती पार्वती ने कहा- हे भगवन् ! आप मुझे सेवा का प्रकार बतायें, जिससे प्रभु स्वयमेव सन्तुष्ट हो जावें । हमें कैसे पूजा करनी चाहिए ? और किस प्रकार का व्यवहार (आचरण) करना चाहिए ॥ १ ॥

शिव उवाच-

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि व्यवहारार्चनादिकम् ।

तुर्ये यामे समुत्थाय शय्यायामेव सुव्रते ॥ २ ॥

ब्रह्मरन्ध्रे गुरु ध्यायेत् कर्पूरधवलप्रभम् ।

द्विनेत्रं द्विभुजं चैव श्वेतवस्त्रानुलेपनम् ॥ ३ ॥

भगवान् शङ्कर ने कहा- हे देवि ! सुनों, मैं अब व्यवहार और भगवान् की अर्चना आदि को कहूँगा । हे सुव्रते ! चौथे प्रहर में शय्या से उठकर ही ब्रह्मरन्ध्र ( शिर में शिखा के पास ) में गुरु का ध्यान करना चाहिए। उनका स्वरूप कपूर की प्रभा के समान धवल वर्ण का दो नेत्र, दो भुजा, श्वेत वस्त्र एवं श्वेत अनुलेप से युक्त है ।। २-३ ॥

पञ्चभूतात्मकैरेव पञ्चभिरुपचारकः ।

पूजयेद् देव देवेशि आत्मानं तद्गतं स्मरेत् ॥ ४ ॥

पञ्चभूतात्मकों से ही और पाँच प्रकार (धूपदीप नैवेद्य) के उपचारों से पूजन करे । हे देवों के देव, हे ईशानि । आत्मा में ही तद्गत रूप से उन गुरु का स्मरण करना चाहिए ॥ ४ ॥

तच्चरणोदकधारानिपतितं स्वमूर्द्धनि ।

क्षालितं निर्मलं शुद्धमात्मानं परिचिन्तयेत् ।। ५ ।।

उनके चरणोदक की धारा को अपने शिर में गिरते हुए अपने मूर्द्धा में धुले हुए, निर्मल और शुद्ध आत्मा का चिन्तन करना चाहिए ॥ ५ ॥

नमोऽस्तु गुरवे तस्मै इष्टदेवस्वरूपिणे ।

यस्य वागमृतं हन्ति विषं संसारसज्ञकम् ॥ ६ ॥

उन इष्टदेवस्वरूप गुरु के लिए नमस्कार होवे जिनके अमृतरूपी वाक् संसार नामक विष का नाश करते हैं ।। ६ ।।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देव: सदाशिव: ।

गुरुरेव परं तत्त्वं तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ७ ॥

गुरु ही ब्रह्मा हैं। गुरु ही विष्णु हैं और गुरु ही भगवान् सदाशिव स्वरूप है,अन्ततः गुरु ही श्रेष्ठ 'तत्त्व' हैं । अतः उन गुरु के लिए नमस्कार होवे ॥ ७ ॥

प्रणम्य मन्त्रयुग्मेन हृदि लीनं विभावयेत् ।

ततो लीलाविहारस्य ध्यायेत्कृष्णं हृदाम्बुजे ॥ ८ ॥

मन्त्र युग्म से हृदय में लीन उन्हें प्रणाम करके उनकी विशेष रूप से भावना करे । इसके बाद लीला करते हुए हृदय रूपी कमल में विहार करने वाले श्रीकृष्ण का ध्यान करे ॥ ८ ॥

पूजयेत्पूर्ववदेवि ह्युपचारैश्च पञ्चभिः ।

ततस्तं प्रार्थयेदीशं बद्धहस्ता प्रियंवदे ।। ९ ।।

हे देवि ! पहले ही की तरह पांच प्रकार के उपचारों से उनका पूजन करे । इसके बाद, हे प्रिय बोलने वाली ! उन ईश्वर से हाथ जोड़कर प्रार्थना करे ।। ९ ।।

अहं नाथ त्वदीयास्मि पतिस्त्वं मेऽसि भो प्रभो ।

भ्रामितास्मि त्वया नाथ मायागहनवत्र्त्मनि ।। १० ।।

हे नाथ, मैं आपका हूँ और हे प्रभु! आप ही मेरे पति [=पालक] हैं। आपकी गहन माया से भ्रमित मार्ग में मैं भ्रमित हुआ हूँ ॥ १० ॥

त्वत्पाद नय मां नाथ विरहो मां प्रबाधते ।

अनन्यगतिका चाहं तस्मात्कुरु यथोचितम् ।। ११ ।।

हे नाथ, आप मुझे अपने पास ले लें, मुझे आपका विरह अत्यन्त कष्ट दे रहा है। आपको छोड़कर हमारी कोई दूसरी गति नहीं है ! इसलिए जो उचित हो वह कीजिए ॥। ११ ॥

एवं सम्प्रार्थ्य भर्त्तारं तरप्रभापटलाषणम् ।

स्वदेहं भावयेददेवि नमस्कुर्यात्ततः प्रिये ।

ततो भूमि च सम्प्रार्थ्यं दक्षपादं निधापयेत् ।। १२ ।

इस प्रकार से पालन करने वाले उन प्रभु से सम्यक् रूप से प्रार्थना करके उनकी प्रभा की किरण से लाल वर्ण के हुए अपने देह को साधक मन में सोंचे । (तब) हे देवि, हे प्रिय ! उनको नमस्कार करे । इसके बाद भूमि को निम्न मन्त्र से प्रणाम करके दाहिने पैर का स्थापन करे । ॥ १२ ॥

समुद्रमेखले देवि पर्वतस्तन मण्डले ।

विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ।। १३ ।।

ततो ग्रामाद् बहिर्गच्छेन्मलोत्सर्गाय सुन्दरि ॥ १४ ॥

अतिक्रम्य शरक्षपमात्रा भुवमतन्द्रितः ।

आच्छाद्य च तृणभूमि शिरः प्रावृत्य वाससा ।। १५ ।।

मृत्तिकां जलपात्रं च हस्तमात्रे नियोजयेत् ।

सूर्यं चैव दिशः प्रान्तान् गावं नैवावलोकयेत् ॥ १६ ॥

समुद्ररूप करधनी से परिवेष्टित और पर्वत रूप स्तनों के मण्डल वाली हे पृथ्वी देवी, हे विष्णु की पत्नी, [वराह अवतार के समय उद्धार की गई पृथ्वी उनकी पत्नी हैं ] आपको नमस्कार है । मैं आपके ऊपर जो चल फिर रहा हूँ उस पैर के स्पर्श को क्षमा करें। इसके बाद ग्राम से बाहर मल आदि के उत्सर्ग के लिए हे सुन्दरि ! उसे जाना चाहिए। शरक्षेपमात्र भूमि का अतन्द्रित होकर अतिक्रमण करके तृण से भूमि को ढककर और ऊपर शिर को कपड़े से ढककर मिट्टी और जल को हाथ में लेकर मल साफ करे। सूर्य का और दिशाओं के प्रान्तभाग का एवं गाय का अवलोकन इस समय न करें ।। १३-१६ ।।

लिङ्गशोच च तिसृभिः मृत्तिकाभिः समाचरेत् ।

पञ्चापाने प्रदेयाश्च मृत्तिकाः सुरसुन्दरि ।। १७ ।।

तीन बार मिट्टी लगाकर लिङ्ग को धोना चाहिए और हे सुरसुन्दरि, गुदा को पांच बार मिट्टी लगाकर धोना चाहिए ॥ १७ ॥

गन्धले पक्षयकरमेवं शौचं समाचरेत् ।

तत्रैव वामहस्ते तु प्रदेया सप्त मृत्तिका ।। १८ ।।

इस प्रकार शौच (शुद्धि) करना चाहिए क्योंकि गन्धादिक (सावन) का लेप करना क्षयकारी ही होता है । सात बार बाएं हाथ को मिट्टी लगाकर धोना चाहिए ।। १८ ।।

मौनी स्वगृहमागत्य हस्तपादादि शोधयेत् ।

वामहस्ते मृदः सप्त प्रदेयाः सुरवन्दिते ॥। १९ ।

फिर मौन होकर अपने गृह में आकर हाथ-पैर आदि धोना चाहिए । हे देवताओं से बन्दनीय देवीं, बाएं हाथ को पुन: सात बार मृतिका से धोना चाहिए ।। १९ ।।

उभयो तथा सप्त हस्तशौचमिदं स्मृतम् ।

पच पञ्च तथा पादे प्रदेया मृत्तिकाः शुभाः ॥ २० ॥

फिर दोनों हाथों को मिलाकर सात बार पुनः धोना चाहिए । पाँच-पाँच बार दोनों पैर में मिट्टी लगाकर पैर भी धोना चाहिए ।। २० ।।

ततो द्वादशगण्डूषैर्मुख प्रक्षालयेत्प्रिये ।

तत आचमनं कृत्वा दन्तकाष्ठ समाचरेत् ॥ २१ ॥

उसके बाद प्रिये, वारह बार कुल्ला करके मुख का प्रक्षालन करना चाहिए। इसके बाद आचमन करके दतुअन करना चाहिए ।। २१ ।।

जम्बूदुम्बरजं काष्ठं तथा च बदरीभवम् ।

अपामार्गोद्भवं वापि दन्तांस्तेन विशोधयेत् ।। २२ ।।

दतुअन जामुन, गूलर या बैर की होना चाहिए। अपामार्ग (लहचिचड़ा) की भी दतुअन होती है। अतः उससे दातों को साफ करना चाहिए ॥ २२ ॥

अज्ञातेः कीटविद्वैश्व वनेषु दाहितेरपि ।

निषिद्धेश्च तथा काष्ठदन्तान्नेव स्पृशेत्प्रिये ॥ २३ ॥

हे प्रिये, अनजाने वृक्ष की अथवा कीटों से आविद्ध वृक्ष की या वन में जले हुए वृक्ष की दतुअन से कभी भी दातों को साफ नहीं करना चाहिए ।। २३ ।।

आयुदेहि प्रजां देहि धनं विद्यां सुखानि च ।

वासिद्धि देहि मे नित्यं प्रार्थितोऽसि वनस्पतं ॥ २४ ॥

हे वनस्पते ! आयु दो, सन्तान दो, धन एवं विद्या और सुख प्रदान करो, मुझे नित्य वाक्सिद्धि प्रदान करो इस प्रकार प्रार्थना करते हुए दतुअन तोड़ना चाहिए ।। २४ ।।

द्वादशावृत्तिसञ्जप्तं मूलमन्त्रेण मन्त्रवित् ।

प्रक्षाल्य भक्षयेत्काष्ठं यावन्नो सूर्यदर्शनम् ।। २५ ।।

जबतक सूर्य का दर्शन न हो अर्थात् सूर्योदय के पहले हो बारह अंगुल की दतुअन मन्त्र जानने वाले को चाहिए कि मूल मन्त्र को पढ़कर ही ताड़े और उसे धोकर ही दतुअन करे ।। २५ ।।

दन्तानां शोधनं कुर्यादुदीचीं दिशमाश्रितः ।

न सूर्याभिमुखीभूय निष्ठीवादि क्षिपेत्प्रिये ।। २६ ।।

उत्तर दिशा की ओर ही मुंह करके वक्त धावन करे हे प्रिये ! सूर्य के अभिमुख होकर कभी न थूके ॥ २६ ॥

जिह्वाममपाकृत्य काष्ठं प्रक्षाल्य मन्त्रवित् ।

एकान्ते शुचिदेशे तु क्षिपेत्काष्ठं ततः प्रिये ॥ २७ ॥

मन्त्र के उस जानकार को चाहिए कि जिह्वा के मूल को काठ की उस दतुअन की जिम्भी से जिम्भी करने के बाद उसे धोए । फिर काष्ठ किसी एकान्त एवं शुद्ध स्थल पर ही फेंके ॥ २७ ॥

मन्त्रजन्यजलैर्देवि मुखं प्रक्षालयेत्ततः ।

त्यजेद् द्वादशगण्डूषान् मूलमन्त्रमविस्मरन् ॥ २८ ॥

मन्त्र से अभिमन्त्रित जल से हे देवि ! फिर मुख का प्रक्षालन करे । उसे चाहिए "कि मूल मन्त्र का विस्मरण न करते हुए बारह बार कुल्ला करे ।। २८ ॥

तत आचमनं कृत्वा 'नमस्कृत्य रविं प्रिये ।

ध्यायन् गच्छेत्ततस्तीर्थमसक्तस्तु गृहे चरेत् ॥ २९ ॥

इसके बाद आचमन करके हे प्रिये, भगवान् भास्कर को प्रणाम करके तीर्थ स्थान में उन्हीं सूर्य भगवान् का ध्यान करते हुए (कि जैसा तेज आप में है वैसा ही मुझमें हो) जाए। फिर घर में आकर बिना आसक्ति के कर्म करे।।२९।।

गालितं शोधितं तोयं शचिपात्रगतं च यत् ।

सूर्यमण्डलतस्तस्मिन तीर्थान्यावाह्य भक्तितः ॥ ३० ॥

जो शुद्ध पात्र में रक्खा हुआ जल है उसमें भक्तिपूर्वक तीर्थों के जल का आवाहन करे और यह सोंचे कि यह जल सूर्यमंडल से (वर्षा के माध्यम से) शुद्ध जल गिरा है ॥ ३० ॥

तस्मिन्नष्टदले ध्यात्वा कर्णिकायां सुरेश्वरि ।

प्रियायथागतं कृष्णमावाह्य दृढमानसः ।। ३१ ।।

उपचारैर्जलमयैमनिसर्वापि पूजयेत् ।

तदीयचरणद्वन्द्वगलत्पीयषमिश्रितम् ॥ ३२ ॥

ज्ञात्वा तत्तु जलं देवि साक्षाच्चतन्यरूपकम् ।

ज्ञानानन्दस्वरूपं तत् त्रिधा मूनि क्षिपेत्ततः ॥ ३३ ॥

उसमें हे सुरेश्वरि ! आठदल कर्णिका में प्रियाओं के समूह में भगवान् कृष्ण का दृढ मन से आवाहन करके मन से ही उन आवाहित प्रियायूथगत कृष्ण का जल आदि से षोडशोपचार पूजन करे और उन्हीं के चरण-कमलों से गिरे हुए अमृत मिश्रित जल को जानकर उस जल को हे देवि ! साक्षात् रूप से चैतन्य, रूप और ज्ञान सम्पन्न आनन्द का स्वरूप मानकर अपने ऊपर ( शिर पर ) तीन बार छिड़के ।। ३१-३३ ।

अन्येनैवाम्भसा कुर्यान्मौशलं स्नानमूर्द्धनि ।

ततः स्नायाद्वरारोहे पूर्व संस्कृतवारिणा ॥ ३४ ॥

फिर दूसरे जल से सिर से मौशल (घार रूप से) स्नान करे। हे वरारोहे, उसके बाद पूर्व संस्कृत जल से स्नान करे ।। ३४ ।।

श्रीकृष्ण हृदये लीनमिति ध्यात्वाचमेत्ततः ।

गात्रं सम्माज्यं देवेशि मन्त्रवारिविशोधिते ।। ३५ ।।

उसके बाद 'भगवान् श्रीकृष्ण हृदय में लीन हो गये है' - ऐसा ध्यान करते हुए आचमन करे । हे देवेशि, अपने शरीर का उस मन्त्र से विशेष रूप से शुद्ध किए गए जल से मार्जन करे ।। ३५ ।।

वासांसि परिधायैव ततो मन्दिरमाविशेत् ।

पूजागृहे बहिः स्थित्वा तिलकं गोपिकामृदा ॥ ३६ ॥

उसके बाद वस्त्र आदि पहन कर तब मन्दिर में प्रवेश करे । पूजागृह से बाहर ही रह कर गोपी चन्दन ( वृन्दावन की मिट्टी) से तिलक करे ।। ३६ ।।

चक्रादिधारणं कुर्यात् बिभृयात्तुलसीसृजम् ।

दिना च तुलसीमालां विना चक्रादिधारणम् ।। ३७ ।।

न जपध्यानपूजासु योग्यो भवति कर्हिचित् ।

देवान् पितृ श्च सन्तर्प्य दिक्पालान् प्रणमेत्ततः ।। ३८ ।।

फिर चक्र आदि धारण करे और फिर तुलसी की माला पहने । वस्तुतः बिना तुलसी की माला धारण किए और बिना चक्रादि धारण के वह जप, ध्यान अथवा भगवान् के पूजा के योग्य नहीं ही होता है। देवों और पितरों का सम्यक् रूप से तर्पण करके तब दिक्पालों को प्रणाम करे ।। ३७-३८ ।।

सर्व कृष्णमयं ध्यायेद्भेदभावं विवर्जयेत् ।

भेदभावात्मको देवि संसारः कथितो यतः ।। ३९ ॥

भेदभाव को छोड़कर सभी चराचर जगत् को कृष्णमय सा समझकर ध्यान करे, क्योंकि हे देवि ! यह संसार भेदभावात्मक ही कहा गया है ॥ ३९ ॥

देहलीं च नमस्कृत्य दक्षपादपुरःसरम् ।

प्रविशेत्पूजनागारं निर्माल्याद्यपसारयेत् ॥ ४० ॥

दक्षिणपाद के पहले और फिर देहली (डयोढ़ी) को नमस्कार करके पूजा गृह में प्रवेश करे। निर्माल्य ( पहले दिन का सूखा हुआ माला फूल) आदि उठाए ॥ ४० ॥

प्रोत्थापयेत् प्रभु सुप्तं सुगीतमंङ्गलस्वनेः ।

श्रेष्ठा मनोमयीमूर्ति रथाश्मा गण्डकीभवः ।। ४१ ।।

सोवर्णी राजतीं शैलीं काष्ठीं वा मृण्मयीमपि ।

चंत्रीं वा पूजयेन्मूत्तिमुपचारः शुभः प्रिये ॥ ४२ ॥

फिर सोते हुए प्रभु को सुन्दर गीतों एवं मङ्गल ध्वनियों आदि से उठाए। मनौ मयी ( मन में ध्यान में लाइ गई) मूर्ति श्रेष्ठ है। मूर्ति पत्थर अर्थात् गण्डकी में प्राप्त शालिग्राम की सुवर्ण से बनी, चाँदी से बनी अथवा शैल या काठ से बनी होनी चाहिए। मिट्टी की ही मूर्ति हो अथवा चित्रात्मक मूर्ति ही क्यों न हो, हे प्रिये, शुभ उपचारों द्वारा पूजन करना चाहिए ।। ४१-४२ ।।

अर्घं च पाद्याचमने मधुपर्क मपः स्पृशः ।

स्नानं वस्त्रमथा प्रोद्य 'वासांस्याभरणानि च ॥ ४३ ॥

अर्ध पाद्य एवं आचमन, मधुपर्क, जल स्पर्श, स्नान, वस्त्र आदि उपचारों द्वारा वस्त्रों एवं आभूषणों से सजाकर ।। ४३ ।।

दर्पणालोकनं चैव गन्धपुष्पे ततः परम् ।

धूपगरुसमुद्भूतो दीपो नैवेद्यमेव च ।। ४४ ।।

पानीयं तोयमाचामं हस्तवासस्ततः परम् ।

ताम्बूलमनुलेप च ततो नीराजनादिकम् ॥ ४५ ॥

दर्पण दिखाकर, गन्ध एवं पुष्पों को माला आदि से सजाकर, धूप एवं अगर से समुद्भूत दीप एवं नैवेद्य और शुद्ध जल से आचमन कराके फिर हाथ घुलाकर, पान, और गन्ध एवं नीराजन [आरती] आदि करना चाहिए ।। ४४-४५ ।।

गीतं वाद्य तथा नृत्यं स्तुतिः चैव प्रदक्षिणम् ।

पुष्पाञ्जलिर्नमस्कारः साष्टाङ्गण तिस्तथा ॥ ४६ ॥

इत्येतैरुपचारैश्च पूजयेत्प्राणवल्लभम् ।

अनिर्माल्यं सनिर्माल्यं पूजनं द्विविधं मतम् ॥ ४७ ॥

गाना बजाना एवं नृत्य करना चाहिए तथा स्तुति और प्रदक्षिणा करके पुष्पाञ्जलि लेकर नमस्कार करे । फिर साष्टाङ्ग प्रणाम करना चाहिए। इस प्रकार के उपचारों से प्राणवल्लभा की पूजा करे। पूजा दो प्रकार की होती है- (१) विना निर्माल्य के पूजन और (२) निर्माल्य के सहित पूजन ॥। ४६-४७ ।।

दिव्यैर्मनोभवै: पुष्पैर्गन्धद्रव्यैमनोहरेः ।

भक्तयत्क्रियते सम्यगनिर्मा तदचनम् ।। ४८ ।।

निर्माल्य सहित पूजन वह होता है जिसमें दिव्य [ = स्वर्गीय] मन के भावों से, पुष्पों से, मन का हरण करने वाले गन्ध-द्रव्यों से भक्तिपूर्वक अर्चन किया जाता है वह सम्यक निर्माल्य है ।। ४८ ।।

जातमात्राणि पुष्पाणि घातान्येव निसर्गतः ।

पञ्चभिश्च महाभूतैर्भानुना शशिनापि च ।। ४९ ।।

प्राणिभिश्च द्विरेफाद्यैः पौष्पेरेव न संशयः ।

यदचनं सनिर्माल्यं दिव्यभोगापवगंदम् ॥ ५० ॥

नवीन खिले हुए प्राकृतिक रूप से जो सुगन्धित हों, पंचमहाभूतों से, सूर्य और चन्द्रमा से भी प्राणियों और भौरों से तथा निःसन्देह रूप से पुष्पित फूलों से अर्चन पूजन होता है, वह दिव्य भोगापवर्ग का देने वाला सनिर्माल्य पूजन है ॥ ५० ॥

ग्रामारण्यादिसंभूतै: पूजाद्रव्यैर्मनोहरैः ।

घातपुष्पात्फलं सिध्येदत्वं नो मानसात्तथा ।। ५१ ।।

तस्मादपरिहार्यत्वादन्यथा चाप्युपायतः ।

बुद्धिशुध्ये ततो देवि बाह्यद्रव्यैः प्रपूजयेत् ।। ५२ ।।

गाँव और अरण्य आदि में उत्पन्न मनोहर पूजाद्रव्यों द्वारा सुगन्धित पुष्प के थोड़े से भी फल को मन से सिद्ध करे। फिर उस अपरिहार्य और अन्य उपाय से, शुद्ध बुद्धि से तब, हे देवि । बाह्य द्रव्यों से प्रकृष्ट रूप से पूजन करे ।। ५१-५२ ।।

पुनस्त्रेधा कृष्णपजा चोत्तमाधममध्यमा ।

यथोपकरणै: कृत्स्नैः क्रियमाणोत्तमोत्तमा ।। ५३ ।।

पुन: उत्तम रूप से तीन प्रकार की कृष्ण पूजा कही गई है। जैसा कहा गया है वैसा ही सभी उपकरणों को जुटाकर की गई पूजा उत्तम से उत्तम पूजा कही गई है ।। ५३ ।।

यथालब्धैर्विनिष्पाद्या द्रव्यैः पूजा तु मध्यमा ।

पत्रपुष्पाम्ब निष्पाद्या पूजा चाधमसज्ञिका ।। ५४ ।।

जो प्राप्त हो जाय उन द्रव्यों से संपादित की गई पूजा दूसरी 'मध्यम' पूजा है। पत्र, पुष्प और जल से की गई पूजा 'अघम' संज्ञक तीसरी पूजा है ॥ ५४ ॥

आदौ तु मानसीं कृत्वा ततो बाह्यां प्रवर्तयेत् ।

नीराजनान्तमासाद्य जपं कुर्याज्जितेन्द्रियः ।। ५५ ।।

पहले मानस पूजा करके फिर बाह्य उपकरणों से पूजा करे। फिर नीराजन [आरती] तक आकर जितेन्द्रिय व्यक्ति को चाहिए कि वह जप करे ।। ५५ ।।

तुलसीकाष्ठसम्भूतैर्मणिभिः कृतमालया ।

जपेच्छतं सहस्रं वा त्रिसन्ध्यास्वपि तं जपेत् ।। ५६ ।।

तुलसी की लकड़ी से बनाई गई मणियों की माला बनाकर शत जप करे, अथवा

हजार जप करे । उसे चाहिये कि तीनों सन्ध्या समय वह उसको जपे ।। ५६ ।।

जपपूजासन कुर्याच्चित्रकम्बलनिर्मितम् ।

 कौशेय वाथ चलं वा चर्म तुलमथापि वा ॥ ५७ ॥

जप और पूजा का आसन उसे रंगीन चित्रित कम्बल से बना प्रयोग में लाना चाहिए। कौशेय आसन हो अथवा वस्त्र [ मृग] चर्म या रुई का आसन भी प्रयोग किया जा सकता है ॥ ५७ ॥

वेत्रजं तालपत्रं वा दार्भमासनमेव च ।

वंशाश्मदारुधरणीतृणपल्लवनिर्मितम् ॥ ५८ ॥

वर्जयेदासनं मन्त्री दारिद्रयव्याधिदुःखदम् ।

एवं सम्पूजयेत् कृष्णं प्रत्यह परमेश्वरि ।। ५९ ।

बाँस की बनी चटाई आदि का आसन, ताड़ के पेड़ के पत्ते का या कुशासन का प्रयोग करना चाहिए। बाँस से निर्मित, पत्थर या लकड़ी का पीढ़ा पृथ्वी पर या तृण से निर्मित आसन का प्रयोग मन्त्र जाप करने वाले को नहीं करना चाहिए। वस्तुत: ये आसन दारिद्रय, व्याधि और नाना प्रकार के दुःखों को देने वाले होते हैं । इस प्रकार, हे परमेश्वरि ! कृष्ण का पूजन-अर्चन नित्य प्रति करे ॥ ५९ ॥

न गृही ज्ञानमात्रेण परत्रेह च मङ्गलम् ।

प्राप्नोति चन्द्रवदने जपपूजादिभिर्विना ॥ ६० ॥

हे चन्द्रमुखी ! जप-पूजा आदि के विना गृहस्थ इस लोक और परलोक दोनों में मात्र ज्ञान ही प्राप्त कर लेने से मङ्गल नहीं प्राप्त करता ॥ ६० ॥

अहिंसा सत्यमस्त्येयं ब्रह्मचर्यजपार्जवम् ।

क्षमा धयं मिताहारं आस्तिक्यं दानमेव च ॥ ६१ ॥

उसे अपने जीवन में १. अहिंसा, २. सत्य, ३. अस्तेय, ४. ब्रह्मचर्य, ५. दया- जप, ६. आर्जव [ सरलता], ७. क्षमा, ८. धैर्यं ९. मित आहार, १०. अस्तिकता और ११. दान ॥ ६१ ॥

वैराग्यं च विवेकश्च शमः श्रद्धा दमस्तथा ।

मुमुक्षुता विवेकश्च समाधानं तथात्मनः ।। ६२ ॥

१२. वैराग्य, १३. विवेक, १४. शम, १५. श्रद्धा तथा १६. दम - इस प्रकार मुमुक्षुता और विवेक से आत्मा का शोधन करना चाहिए ।। ६२ ॥

एतत्साधनसम्पत्ति कुर्वतां परमेश्वरि ।

ज्ञानं दारिद्रयशमनं भविष्यति न संशयः ॥ ६३ ॥

हे परमेश्वरि ! इस प्रकार के साधनरूप सम्पत्ति को करने से निःसन्देह रूप से उसे ज्ञान प्राप्त होगा और उसके दारिद्र्य का शमन होगा । ६३ ॥

सर्वेषामेव जन्तूनामक्लेशजननं प्रिये।

वाङ्मनः कर्मभिन्नमहिसेत्यभिधीयते ॥ ६४ ॥

१. हे प्रिये ! सभी प्राणियों का विना क्लेश के जनन [उत्पन्न होना] है । निश्चय मनसा, वाचा तथा कर्मणा लोगों के द्वारा अहिंसा कही गई है ।। ६४ ॥

यथादृष्टश्रुतार्थानां स्वरूपकथनं पुनः ।

सत्यमित्युच्यते सद्भिस्तद्ब्रह्म प्राप्तिसाधनम् ।। ६५ ।।

२. सत्य जैसा देखा है अथवा जैसा सुना है । पुनः वैसा ही स्वरूप का कथन करना सज्जनों द्वारा 'सत्य' कहा जाता है जो कि ब्रह्मप्राप्ति का साधन है ॥ ६५ ॥

तृणादेरप्यनादानं परस्य च प्रियंवदे ।

अस्तेयमेतदप्यंङ्ग ब्रह्मप्राप्तेः सनातनम् ॥ ६६ ॥

३. अस्तेय- हे प्रियंवदे दूसरे का तृण भी न लेना 'अस्तेय' है । यह भी ब्रह्म-प्राप्ति का एक सनातन अङ्ग है।।६६॥

एकपल

अवस्थास्वपि सर्वासु कर्मणा मनसा गिरा ।

स्त्रीसङ्गतिपरित्यागो ब्रह्मचर्यं प्रचक्षते ॥ ६७ ॥

४. ब्रह्मचर्यं - (जीवन की यौवन, प्रौढ़ और बुढ़ापा आदि) सभी अवस्थाओं में कर्म से, मन से और वाणी से भी स्त्री की संगति का परित्याग 'ब्रह्मचर्यं' कहा गया है ।। ६७ ।।

परेषां दुःखमालोक्य स्वस्येवालोच्य तस्य तु ।

उत्सादनानुसन्धानं दयेति प्रोच्यते शिवे ।। ६८ ।।

५. दया - हे कल्याणि ! दूसरे का दुःख देखकर उसके दुःख को अपना ही दुःख समझना और उससे छुटकारा प्राप्ति के उपाय का अनुसन्धान करना 'दया' कहा गया है ॥ ६८ ॥

व्यवहारेषु सर्वेषु मनोवाक्कायकर्मभिः ।

सर्वेषामपि कौटिल्यराहित्यं चार्जवं स्मृतम् ॥ ६९ ॥

६. आर्जव - मन, वाणी, शरीर और कर्मों के द्वारा सभी प्रकार के व्यवहारों में कुटिलता के राहित्य को स्मृतिकारों ने बार्जव [सरलता ] कहा है ।। ६९ ।।

सर्वात्मना सर्वदापि सर्वषामुपकारिता ।

बन्धुष्विव समाचार: क्षमा स्यात्परमेश्वरि ।। ७० ।।

७. क्षमा-सदैव सभी का सर्वात्मना उपकार करना और बन्धुओं के समान अच्छे आचार व्यवहार को, हे परमेश्वरि! 'क्षमा' कहा गया है ॥ ७० ॥

इच्छाप्रलापराहित्यं जातेषु विषयेषु च ।

दुःखेषु च धृतिधैर्यं प्रवदन्ति वराङ्गने ।। ७१ ।।

८. धैर्य - हे वराङ्गने ! उत्पन्न विषयों में इच्छा और प्रलाप का राहित्य और इसी प्रकार प्रकट हुए दुःखों में भी रोना चिल्लाना आदि प्रलाप के न होने को विद्वान् लोग 'धर्म' कहा करते हैं ॥ ७१ ॥

भोज्यस्यैव चतुर्थांशो भोजनं स्वस्थचेतसः ।

अत्युग्रकटुतिक्ताम्ललवणादिविवर्जितम् ॥ ७२ ॥

हितं मेध्यं सुखं चेति मिताहारः स उच्यते ।

९. मिताहार - भोजन के चतुर्थांश का भोजन करना व्यक्ति को स्वस्थचित्त बनाता है । अत्यन्त तीक्ष्ण, अत्यन्त कडुआ, अतिरिक्त, अत्यन्त खट्टा और अत्यन्त नमकीन पदार्थ को न खाना स्वास्थ्य के लिए हितकारी, मेध्य [सुपाच्य] और सुख को उत्पन्न करने वाला आहार ही 'मिताहार' कहा गया है ।। ७२-७३ ।।

श्रुत्याद्यतेषु विश्वास आस्तिक्यं सम्प्रचक्षते ॥ ७३ ॥

१०. आस्तिकता - श्रुति आदि की उक्तियों में विश्वास करना 'आस्तिकता' कही जाती है ॥ ७३ ॥

ध्यात्वान्तर्यामिनं चित्ते तदर्पणधियाऽन्वहम् ।

सत्पात्रे दीयते दानं तद्दानमभिधीयते ।। ७४ ।।

११. दान- अन्तर्यामि प्रभु का चित्त में ध्यान करके उन्हीं को सदैव अर्पण करने की बुद्धि से सत्पात्र में दिए गए दान को ही उचित 'दान' कहा गया है ।। ७४ ।।

ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु विषयेषु बहुष्वपि ।

वान्ताशन जुगुप्सा च वैराग्यं प्राप्तिसाधनम् ।। ७५ ।।

१२. वैराग्य १३. (विवेक) ब्रह्मा आदि देवों से लेकर स्थावर पर्यंन्त सृष्टि के सभी विषयों में और बहुतों में भी उल्टी करके पुनः खाने के समान जुगुप्सा रखना 'वैराग्य' है जो वस्तुत: 'ब्रह्म' की प्राप्ति का साधन है ॥ ७५ ॥

नित्यं वै वासनात्यागः परदारगृहादिषु ।

परानन्दपरा भक्ति: 'शम इत्युच्यते हि सः ॥ ७६ ॥

१४. परायी स्त्री और पराए गृहादिक धन को इच्छा का नित्य प्रति त्याग करके श्रेष्ठ 'भक्ति' ही 'शम' नाम से कही गई है ॥ ७६ ॥

निगमागमवाक्येषु भक्तिः श्रद्धेति कीर्त्तिता ।

विषयानन्दचरतामिन्द्रियाणां विनिग्रहः ॥ ७७ ॥

दम इच्युते देवि ब्रह्मप्राप्तेर्हि कारणम् ।

ससारं भयदं मत्वा विरहः स्यादशेषकः ॥ ७८ ॥

मुक्तिकामस्य देवेशि कथिता सा मुमुक्षुता ।

कोsहं कथमिदं जातं को वै कर्त्तास्य विद्यते ।

उपादानं किमस्तीह विचार। सोऽयमीदृशः ।। ७९ ।।

उपादानं प्रपञ्चस्य ब्रह्मणोऽन्यन्न किञ्चन ।

तस्मात्सर्वं प्रपञ्चोऽयं ब्रह्मवाविद्यया ततम् ॥ ८० ॥

१४. निगम (वेद) आगम (पुराण) आदि के वाक्यों में भक्ति करना ही 'श्रद्धा' नाम से प्रसिद्ध है । विषयों के आनन्द में रत इन्द्रियों के विशेष प्रकार से निग्रह [ रोकने] को हे देवि ! 'दम' कहते हैं ।

१५. [ विषयानन्द में लिप्त होने से इन्द्रियों को इसलिए रोकना चाहिए ] क्योंकि यह ब्रह्म प्राप्ति का कारण है । [ मृत्यु के कारण] 'यह संसार भय को ही देने वाला है' - ऐसा मानकर और अन्ततः इससे विरह ही प्राप्त होगा यह सोंचते हुए इस विरह रूप दुःख से मुक्ति [ छुटकारा ] पाने की कामना ही हे देवेशि ! 'मुमुक्षता' कही गई है। 'हम कौन हैं ? यह कैसे उत्पन्न हुआ ? इसका कर्त्ता कौन है ? इसका उपादान कारण क्या है ? इस प्रकार के विचार का उत्पन्न होना और इस [ चराचर जगत् रूप ] सर्व प्रपञ्च का उपादान कारण ब्रह्म को छोड़कर और कोई अन्य नहीं है और इस लिए यह ब्रह्म ही सभी प्रपश्च है जिसका विस्तार अविद्या के कारण ही है ।। ७७-८० ।।

ब्रह्म व सर्वनामानि रूपाणि विविधानि च ।

कर्माण्यपि समग्राणि विभर्तीति श्रुतिजंगों ॥ ८१ ॥

'सभी नामों को और विविध प्रकार के रूपों को तथा समग्र कर्मों को भी ब्रह्मा ही धारण करते हैं - इस प्रकार श्रुति कहती है ॥ ८१ ॥

यथैव व्योम्नि नीलं च यथा नीरं मरुस्थले ।

पुरुषत्वं यथा स्थाणी तद्वद्विश्वं चिदात्मनि ॥ ८२ ॥

जैसे आकाश में नीलिमा है और जैसे मरुस्थल में जल है तथा स्थाणु [ ठूठे वृक्ष] में जैसे पुरुषत्व है वैसे ही चिदात्मा में विश्व की स्थिति है ॥ ८२ ॥

यथा तरङ्गकल्लोलैर्जलमेव स्फुरत्यलम् ।

पात्ररूपेण वे ताम्रं ब्रह्माण्डो व तथाक्षरः ॥ ८३ ॥

जिस प्रकार तरङ्ग और कलोल जल में ही उठती हैं और उसी में विलीन हो जाती हैं । उसी प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक ताम्बे के पात्र रूप में स्थित है तथा अक्षर उसमें व्याप्त है ।। ८३ ।।

तस्मात्प्रपञ्च विभ्रान्तां नियम्य मतिमात्मनि ।

उक्त साधन सम्पन्नः सखीभावं निजं गतः ॥ ८४ ॥

इसलिए प्रपञ्च में विविध प्रकार से भ्रमित होने वाली अपनी बुद्धि को नियमित करके ऊपर कहे हुए साधन से सम्पन्न होकर अपने को सखीभाव को प्राप्त करना चाहिए ॥ ८४ ॥

नित्यं लीलारसानन्दं स्वपति पुरुषोत्तमम् ।

भजत्यनन्यया बुध्या पुनः संयोग मान्नुयात् ।। ८५ ।।

नित्य ही लीला रूप-रस से आनन्दित करने वाले अपने पति [ पालक] पुरुषोत्तम को जो अनन्य बुद्धि से भजता है वह पुनः संयोग को प्राप्त करता है ॥ ८५ ॥

इति ते कथितं देवि तदाराधनलक्षणम् ।

समासेन महेशानि कि भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ८६ ॥

इस प्रकार हे देवि ! उन प्रभु की आराधन का लक्षण क्रम हमने तुमसे संक्षिप्त रूप में कहा है। अब तुम पुनः और क्या सुनना चाहती हो ॥ ८६ ॥

॥ इति श्रीनारदपञ्चरात्र श्रीमाहेश्वरतन्त्र शिवपार्वती संवादे एकत्रिंशपटलम् ।। ३१ ।।

।। इस प्रकार श्री नारदपञ्चरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञानखण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के एकतीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ।। ३१ ।।

आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 32

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