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ज्वरनिवारण कवच

ज्वरनिवारण कवच

इस अति दिव्य अमोघ ज्वरनिवारण कवच का पाठ करने से युद्ध अथवा ग्रहज्वरादि रोगनिवृत्ति होता है इसे मारण कवच भी कहते हैं ।

ज्वरनिवारण कवच

ज्वरनिवारण कवच

Jvar nivaran kavach

ग्रहज्वरादि निवारण कवच

मारण कवच

युद्ध ग्रहज्वरादि निवारण कवच

श्रीदेव्युवाच ।

भगवन्प्रमथाधीश देवदेव जगद्गुरो ।

युद्धस्य वारणं देव ज्वर देवरणं तथा ॥ १ ॥

श्रीदेवीजी ने कहा- हे भगवन् ! हे प्रमथाधीश देवदेव जगद्गुरो शंकर ! युद्ध और ज्वरादि का निवारण ॥ १ ॥

क्षिप्रं भवेत्कथं नाथ कृपया परया वद ।

नाशुत्राता च जगतां त्वां विना परमेश्वर ॥ २ ॥

किस प्रकार शीघ्र संपादित होता है, यह मुझसे कृपापूर्वक वर्णन कीजिये। हे नाथ! हे देव ! हे परमेश्वर ! आपके अतिरिक्त जगत्का शीघ्र रक्षा करनेवाला कोई नहीं है ॥ २ ॥

ईश्वर उवाच ।

कथयामि तव स्नेहात्कवचं वारणं महत् ।

युद्धस्य च ज्वरादेश्व क्षिप्रं हि नगनन्दिनि ।

प्राकृतेनैव वाक्येन कथयामि शृणुष्व तत् ॥३॥

ईश्वर बोले- हे पर्वतनन्दिनी ! मैं तुम्हारे स्नेह से वशीभूत होकर युद्ध और ज्वरादि का शीघ्र निवारण करनेवाला महत्कवच प्राकृत वचनों में कहता हूं, सो सुनो ॥ ३ ॥

मारण कवच

ॐ नमो भगवति वज्रशृंखले हन्तु भक्षतु खादतु अहो रक्तं पिब कपालेन रक्ताक्षि रक्तपटे भस्माक्षि भस्मलिप्तशरीरे वज्रायुधप्रकरनिचिते पूर्वान्दिशं बध्नातु दक्षिणान्दिशम्बधातु पश्चिमान्दिशम्बध्नातु नागार्थं धनाय ग्रहपतीन् बध्नातु नागपटीं बनातु यक्षराक्षसपिशाचान् बध्नातु प्रेतभूतगन्धर्वादयो ये ये केचित् पुत्रिकास्तेभ्यो रक्षतु ऊर्ध्वं रक्षतु अधो रक्षतु स्वनिकोवनातु जलमहाबले एह्येहि तु लोटि- लोष्टि शतावलि वज्रानिवज्रप्रकरे हुँ फट् ह्रीं ह्रीं श्रींफट् ह्रू ह्रू क्रू फं फं सर्वग्रहेभ्यः सर्वदुष्टोपद्रवेभ्यो ह्रीं शेषेभ्यो मां रक्षतु ॥ ४॥

युद्ध ग्रहज्वरादि निवारण कवच महात्म्य

इतीदं कवचं देवि सुरासुर- सुदुर्लभम् ।

ग्रहज्वरादिभूतेषु सर्वकर्मसु योजयेत् ॥५॥

हे देवि ! इस सुरासुरदुर्लभ कवच को ग्रहज्वरादि में एवं भूतगणों में और सब कार्यों में ही संयोजित करे॥ ५॥

न देयं यत्र कुत्रापि कवचं मन्मुखाच्च्युतम् ।

दत्ते च सिद्धिहानिः स्याद्योगिनीनां भवेत्पशुः ॥६॥

हे शिवे ! मेरे मुख से निकला हुआ यह कवच जहां तहां नहीं देना चाहिये, देने से सिद्धि की हानि होती हैं और वह योगिनीगणों का पशु होता है ॥ ६ ॥

दद्याच्छान्ताय वीराय सत्कुलीनाय योगिने ।

सदाचाररतायैव निर्जिताशेषशत्रवे ॥ ७ ॥

शान्त, वीर, श्रेष्ठवंशोत्पन्न योगी सदाचारनिरत, निर्जितशत्रु अर्थात् जिसने शत्रुओं को जीत लिया है, ऐसे मनुष्य को यह देना चाहिये ॥ ७ ॥

श्रीयोगिनीतन्त्रे युद्ध-ग्रहज्वरादिनिवारण मारण कवचम्  तृतीयः पटलः ॥

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