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अगस्त्य संहिता अध्याय ८

अगस्त्य संहिता अध्याय ८        

अगस्त्य संहिता के इस अध्याय ८ में सुतीक्ष्ण ने पूछा कि इस मन्त्रराज का सर्वप्रथम उपदेश किसने किया तथा कैसे यह पृथ्वी पर प्रतिष्ठित हुआ । अगस्त्य ने कहा कि ब्रह्मा ने सर्वप्रथम अपने पुत्र वसिष्ठ को यह मन्त्र दिया। वसिष्ठ ने वेदव्यास को तथा वेदव्यास ने अपने शिष्य शौनक को सबसे पहले देकर अन्य शिष्यों को भी दिया। उस शौनक से मैंने (अगस्त्य ने) यह मन्त्र लिया और मैं इसे सांगोपांग आपको सुना रहा हूँ। इसी अध्याय में गुरु का लक्षण बतलाते हुए कहा गया है कि देवों के उपासक, शान्त चित्तवाले, सांसारिक विषयों से विरक्त, अध्यात्म को जाननेवाले, ब्रह्मचर्य व्रत पालन करनेवाले, वेद, शास्त्र आदि के ज्ञानी, उद्धार और संहार दोनों करने में समर्थ, ब्राह्मणश्रेष्ठ तन्त्रज्ञ, यन्त्र एवं मन्त्र के ज्ञाता, धर्म और रहस्य के ज्ञाता, पुरश्चरण करनेवाले. सिद्धपुरुष, जिन्हें मन्त्र सिद्ध हों तथा जो प्रयोगों का ज्ञान रखते हों, तपस्वी और सत्यवादी गृहस्थ गुरु कहलाते हैं। शिष्य का भी लक्षण विस्तार में यहाँ वर्णित है कि चाण्डाल पर्यन्त सभी व्यक्ति यहाँ अधिकारी हैं। धर्म में आस्था रखनेवाले, गुरु के भक्त, श्रद्धा के साथ सीखने की इच्छा रखनेवाले, स्त्रियों के प्रति काम, क्रोध आदि से उत्पन्न दुःखों को देखते हुए वैराग्य रखनेवाले, सभी प्रकार से संसार को पार करने की इच्छा रखनेवाले, ब्राह्मण, धर्म और मोक्ष की इच्छा रखनेवाले, निष्काम शिष्य होते हैं । अथवा मन, वचन, कर्म, एवं धर्म से गुरु की नित्य सेवा करने वाले, क्षत्रिय, एवं वैश्य शिष्य होते हैं। अपने वर्ण और आश्रम के लिए कथित धर्म के अनुसार कर्म करनेवाले, सदा पवित्र रहनेवाले, पवित्र नियमों का पालन करनेवाले द्विजों की सेवा करनेवाले, धार्मिक, शूद्र शिष्य होते हैं । पतिव्रता स्त्रियाँ चाहे वे प्रतिलोम विवाह से या अनुलोम विवाह से उत्पन्न हो, वे भी शिष्या हो सकतीं हैं। अन्त में इस षडक्षर में ॐ श्रीं ऐं क्लीं आदि अन्य बीज लगाकर विभिन्न प्रकार के सकाम प्रयोगों का विवेचन किया गया है । मन्त्र के प्रकार तथा कलशस्थापन-पूर्वक दीक्षा की विधि का संक्षिप्त संकेत है।

अगस्त्य संहिता अध्याय ८

अगस्त्यसंहिता अध्याय ८        

Agastya samhita chapter 8

अगस्त्य संहिता अष्टम अध्याय

अगस्त्य संहिता

अगस्त्यसंहिता आठवाँ अध्याय

अथ अष्टमोऽध्यायः

कथं मन्त्रवरं चादौ केन भूमौ प्रतिष्ठितम् ।

उपादिदेश कः कस्मै तन्मे ब्रूहि तपोधन ।।१।।

सुतीक्ष्ण ने पूछा- हे तपोधन अगस्त्य मुनि! किसने सबसे पहले इस पृथ्वी पर इस मन्त्रराज को प्रतिष्ठित किया। किसने किसे उपदेश किया, यह बतलाइए ।

अगस्तिरुवाच

ब्रह्मा ददौ वसिष्ठाय स्वसुताय मनुं ततः ।

स वेदव्यासमुनये ददावित्थं गुरुक्रमात् ।। २ ।।

ब्रह्मा ने अपने पुत्र वसिष्ठ को यह मन्त्र दिया। इसके बाद गुरु परम्परा से वसिष्ठ ने वेदव्यास मुनि को दिया ।

वेदव्यासमुखेनात्र मन्त्रो भूमौ प्रकाशितः ।

वेदव्यासो महातेजाः शिष्येभ्यः समुपादिशत् ।।३।।

वेदव्यास के मुख से यह मन्त्र पृथ्वी पर फैला। महान् तेजस्वी वेदव्यास ने अपने शिष्यों को इसका उपदेश किया था ।

गुरुः शिष्यगुणानादौ का शौनकायाब्रवीन्मुनिः ।

स शौनकेन पृष्टः सन्नाह मन्त्रान्तराणि च ।।४।।

गुरु मुनि वेदव्यास ने पहले शिष्य के गुणों का उपदेश देकर शौनक को इसका उपदेश किया। शौनक ने जब वेदव्यास से पूछा तब उन्होंने दूसरे मन्त्रों का भी उपदेश करते हुए कहा-

यन्त्रपूजाविधिमपि होमं तर्पणलक्षणम् ।

पुरश्चरणसंख्यां च होमद्रव्यान्तराणि च ।।५।।

जपस्थानानि सिद्धिं च यदुक्तं ब्रह्मणा पुरा ।

तदुक्तं सम्प्रयच्छामि यदि श्रोतुमिहेच्छसि ।।६।।

"हे शौनक ! यदि सुनना चाहो तो प्राचीन काल में ब्रह्मा ने जिस प्रकार बतलाया था उसी प्रकार यन्त्र - पूजा की विधि, होम, तर्पण, पुरश्चरण की संख्या, हवन सामग्री, जप-स्थान और सिद्धि के विषय में मैं उपदेश करता हूँ।"

सुतीक्ष्ण उवाच

सतां सन्दर्शनं लोके तर्पयत्येव मङ्गलम् ।

मन्दभाग्योऽप्यहं कस्मात् श्रोता कल्प्ये त्वयाधुना ।।७।।

मुनिवर्याधुनैव त्वं यदुक्तं तत् प्रबोध मे ।

सुतीक्ष्ण ने कहा- साधुओं का मंगलमय दर्शन ही तृप्ति प्रदान करता है। तब जब आप जैसे वक्ता इस समय हैं, तो मैं श्रोता होकर कैसे मन्दभाग्य रहूँ? मैं भी आपसे सुनकर श्रोता बनना चाहता हूँ। हे मुनिश्रेष्ठ! ब्रह्माजी ने जो कुछ कहा, वह मुझे अभी सुनाइए ।

अगस्तिरुवाच

देवतोपासकः शान्तो विषयेष्वपि निःस्पृहः ।

अध्यात्मविद् ब्रह्मवादी वेदशास्त्रार्थकोविदः ।।८।।

उद्धर्तुञ्चैव संहर्त्तुं समर्थो ब्राह्मणोत्तमः ।

तन्त्रज्ञो यन्त्रमन्त्राणां धर्मवेत्ता रहस्यवित् ।।९।।

पुरश्चरणकृत् सिद्धो मन्त्रसिद्धः प्रयोगवित् ।

तपस्वी सत्यवादी च गृहस्थो गुरुरुच्यते ।।१०।।

अगस्त्य बोले- देवों के उपासक, शान्त चित्तवाले, सांसारिक विषयों से विरक्त, अध्यात्म को जाननेवाले, ब्रह्मचर्य व्रत पालन करनेवाले, वेद, शास्त्र आदि के ज्ञानी, उद्धार और संहार दोनों करने में समर्थ, ब्राह्मणश्रेष्ठ, तन्त्रज्ञ, यन्त्र एवं मन्त्र के ज्ञाता, धर्म और रहस्य के ज्ञाता, पुरश्चरण करनेवाले, सिद्धपुरुष, जिन्हें मन्त्र सिद्ध हों तथा जो प्रयोगों का ज्ञान रखते हों, तपस्वी और सत्यवादी. गृहस्थ गुरु कहलाते हैं ।

आस्तिको गुरुभक्तश्च जिज्ञासुः श्रद्धया सह ।

कामक्रोधादिदुःखोत्थं वैराग्यं वनितादिषु ।।११।।

सर्वात्मना तितीर्षुश्च भवाब्धेर्भवदुःखितः ।

ब्राह्मणो धर्ममोक्षार्थी कामार्थं विगतस्पृहः ।।१२।।

किं वा धर्मार्थमोक्षार्थी निष्कामश्चाथवा द्विजः ।

मनोवाक्कायधर्मैस्तु नित्यं शुश्रूषको गुरोः ।।१३।।

धर्म में आस्था रखनेवाले, गुरु के भक्त, श्रद्धा के साथ सीखने की इच्छा रखनेवाले, काम, क्रोध आदि से उत्पन्न दुःखों को देखते हुए स्त्रियों के प्रति वैराग्य रखनेवाले, सभी प्रकार से संसार को पार करने की इच्छा रखनेवाले, संसार के दुःखों से दुःखी, ब्राह्मण, धर्म और मोक्ष की इच्छा रखनेवाले, निष्काम शिष्य होते हैं। अथवा मन, वचन, कर्म, एवं धर्म से गुरु की नित्य सेवा करनेवाले, क्षत्रिय, एवं वैश्य शिष्य होते हैं।

स्ववर्णाश्रमधर्मोक्तकर्मनिष्ठः सदाशुचिः ।

शुचिव्रततमाः शूद्राः धार्मिका: द्विजसेवका: ।।१४।।

अपने वर्ण और आश्रम के लिए कथित धर्म के अनुसार कर्म करनेवाले, सदा पवित्र रहनेवाले, पवित्र नियमों का पालन करनेवाले द्विजों की सेवा करनेवाले, धार्मिक शूद्र शिष्य होते हैं ।

स्त्रियः पतिव्रताश्चान्ये प्रतिलोमानुलोमजाः ।

लोकाश्चाण्डालपर्यन्तं सर्व्वेऽप्यत्राधिकारिणः ।।१५।।

पतिव्रता स्त्रियाँ, चाहे वे प्रतिलोम विवाह से या अनुलोम विवाह से उत्पन्न हो, वे भी शिष्या हो सकतीं हैं। चाण्डाल पर्यन्त सभी व्यक्ति यहाँ अधिकारी हैं।

स्वजातिकर्मनिरता: भक्त्या सर्वेश्वरस्य ये ।

उपदेशक्रमस्तेषां तत्तज्जात्यनुसारतः ।।१६।।

अपनी जाति के कर्म में लगे हुए भक्तिपूर्वक जो सर्वेश्वर की आराधना करते हैं, उनके लिए उनकी जाति के अनुसार दीक्षा का क्रम निर्धारित है।

अलसाभिमानिनः क्लिष्टा दाम्भिकाः कृपणास्तथा ।

दरिद्राः रोगिणो दुष्टा' रागिणो भोगलालसाः ।।१७।।

असूयामत्सरग्रस्ताः शठाः परुषवादिनः ।

अन्योपायार्जितधनाः परदाररताश्च ये ।।१८।।

विदुषां वैरिणश्चैव ह्यज्ञाः पण्डितमानिनः ।

भ्रष्टव्रताश्च ये कष्टवृत्तयः पिशुनाः जनाः ।।१९।।

बद्धाशिन: क्रूरचेष्टा दुरात्मानश्च निन्दकाः ।

एवमेवादयोऽप्यन्ये पापिष्ठाः पुरुषाधमाः ।।२०।।

अकृत्येभ्योऽनिवार्याश्च गुरुशिष्यासहिष्णवः ।

एवंभूताः परित्याज्याः शिष्यत्वेनोपकल्पिताः ।।२१।।

आलसी, अभिमानी, कठोर हृदय वाले, घमण्डी, कृपण, दरिद्र, रोगी, दुष्ट विषयों में आसक्त तथा भोग करने की लालसा रखनेवाले, सन्देह और ईर्ष्या करनेवाले, धूर्त, कठोर वाणी बोलनेवाले, दूसरे तरीके से धन अर्जित करनेवाले, दूसरे की पत्नी में आसक्त, विद्वानों से शत्रुता रखनेवाले, मूर्ख, स्वयं को पण्डित माननेवाले, नियम से च्युत, कठोर कार्य करनेवाले, चुगली करने वाले, शरीर को बाँधकर अर्थात् सिला हुआ वस्त्र पहनकर खानेवाले, क्रूर व्यवहार करनेवाले, दुष्ट, दूसरे की निन्दा करनेवाले ये सब और अन्य प्रकार के भी पापाचरण करनेवाले नीच पुरुष हैं। बुरे कार्य करने से मना करने पर भी नहीं रुकनेवाले और गुरु एवं उनके शिष्यों के प्रति असहिष्णु व्यक्ति जो शिष्य बनने के लिए परीक्ष्य हों, उनका परित्याग करना चाहिए।

यदि तेऽभ्युपकल्पेरन् देवताक्रोधसभाजनाः ।

भवन्ति हि दरिद्रास्ते पुत्रदारविवर्जिताः ।

नरकाश्चैव देहान्ते तिर्यक्षु भवन्ति ते ।।२२।।

यदि ऐसे व्यक्ति शिष्य बनते हैं तो वे शिष्य देवता के कोप के भागी, दरिद्र, सन्ततिविहीन होते हैं; मरणोपरान्त उन्हें नरक मिलता है तथा पुनर्जन्म लेकर पशु-पक्षी आदि तिर्यक् योनि में उत्पन्न होते हैं ।

ये गुर्वाज्ञां न कुर्वन्ति पापिष्ठाः पुरुषाधमाः ।

न तेषां नरकक्लेशनिस्तारो मुनिसत्तम ।।२३।।

मुनिश्रेष्ठ सुतीक्ष्ण! जो गुरु की आज्ञा नहीं मानते वे पापी पुरुषों में नीच हैं। उन्हें नरक के क्लेश से छुटकारा नहीं मिलता है।

क्षुद्रा: प्रलोभितास्तैस्तैर्निन्दितेभ्यो दिशन्ति ये ।

विनश्यत्येव तत्सर्वं सैकते शालिबीजवत् ।।२४।।

क्षुद्र बुद्धि वाले, प्रलोभन के फेर में पड़कर जो जो निन्दित कार्य के लिए किसी को उकसाते हैं, उस गुरु का भी सब कुछ बालू की ढेर पर पड़े धान के बीज के समान नष्ट हो जाता है।

यैः शिष्यैः शश्वदाराध्याः गुरवो ह्यवमानिताः ।

पुत्रमित्रकलत्रादिसंपद्भ्यः प्रच्युता हि ते ।।२५।।

जो शिष्य बार बार अपने आराध्य गुरुओं का अपमान करते हैं, वे पुत्र, मित्र, पत्नी और धन सम्पत्ति से विहीन हो जाते हैं।

अधिक्षिप्य गुरून् मोहात् परुषं प्रवदन्ति ये ।

शूकरत्वं भवत्येव तेषां जन्मशतेष्वपि ।।२६।।

गुरुओं पर आक्षेप लगाकर मूर्खतावश जो गुरु के प्रति कठोर वचन कहते हैं, वे सौ जन्मों तक सूअर होते हैं।

ये गुरुद्रोहिणो मूढाः सततं पापकारिणः ।

तेषां च यावत्सुकृतं दुः कृतं स्यान्न संशयः ।।२७।।

जो मूर्ख गुरु से द्रोह करते हुए हमेशा पापाचरण करते हैं उनके द्वारा किये गये अच्छे कार्य भी बुरे फल देते हैं ।

तारादिर्मुक्तये लक्ष्मीबीजादिर्भुक्तये तथा ।

वासिद्धये च वाग्वीजं प्रणवान्ते विनिक्षिपेत् ।।२८।।

मोक्ष के लिए पंचाक्षर मन्त्र (रामाय नमः) में तार (ॐकार) लगाकर, सुख-सम्पत्ति के लिए लक्ष्मींबीज (श्री) लगाकर तथा वाणी की सिद्धि के लिए वाग्बीज (ऐ) लगाकर प्रणव ॐकार अन्त में जोड़कर जपना चाहिए।

मान्मथं सर्ववश्याय पदं तत् त्रितयं पुनः ।

तारान्ते चैव रामादौ सर्वार्थं विनियोजयेत् ।।२९।।

सर्ववशीकरण के लिए कामबीज (क्लीं) लगाकर तथा सर्वकामना सिद्धि के लिए तीनों पदों ह्रीं श्रीं ऐं के बाद तार (ॐकार) लगाकर रामादि का जप करें।

रामाय नम इत्येव मन्त्रः पञ्चाक्षरो मनुः ।

रामित्येकाक्षरो मन्त्रो राम इत्यपरो मनुः ।।३०।।

'रामाय नमः' यह एक मन्त्र पाँच अक्षरों का है, 'रां' यह एकाक्षर मन्त्र है तथा 'राम' यह एक अन्य मन्त्र है ।

चन्द्रान्तश्चैव भद्रान्तः पुनर्द्वधा विभज्यते ।

स्वकामशक्तिवाग्लक्ष्मीताराद्यः पञ्चवर्णकः ।।३१।।

षडक्षर: षड्विधः स्याच्चतुर्वर्गफलप्रदः ।

पंचाशन्मातृकामन्त्रवर्णप्रत्येकपूर्वकः ।।३२।।

'रामचन्द्राय नमः' और 'रामभद्राय नमः ' इस प्रकार दो मन्त्र हो जाते हैं। स्वबीज (रां), कामबीज (क्लीं), शक्ति (ह्रीं), वाक् (ऐं), लक्ष्मी (श्रीं) तथा तार (ॐ) इन छह बीजों का आदि में प्रयोग करने से पंचाक्षर मन्त्र छह प्रकार के षडक्षर मन्त्र हो जाते हैं। जिनमें पचास मातृकावर्णों के बीजरूप प्रत्येक के आदि में जोड़कर जप किया जाता है।

लक्ष्मीवाङ्गन्मथादिश्च सर्वत्र प्रणवादिकः ।

रामश्च चन्द्रभद्रान्तश्चतुर्थ्यन्तो हृदा सह ।।३३।।

बहुधा विद्यते तारसहितोऽयं षडक्षरः ।

लक्ष्मीबीज, वाक्बीज, कामबीज प्रारम्भ में लगाकर तथा प्रत्येक मन्त्र में तार जोड़कर 'राम' शब्द 'चन्द्र' और 'भद्र' जोड़कर चतुर्थी विभक्ति में 'नमः' के साथ तथा तारक बीज ॐकार के साथ अनेक प्रकार के यह षडक्षर मन्त्र होते हैं ।

एकधा च द्विधा त्रेधा चतुर्धा पंचधा तथा ।।३४।।

षट्सप्तधाष्टधा चैव बहुधायं व्यवस्थितः ।

एकाक्षर, द्वयक्षर, त्र्यक्षर, चतुरक्षर, पंचाक्षर, षडक्षर, सप्ताक्षर, अष्टाक्षर एवं अनेकाक्षर, इन अनेक प्रकार के मन्त्रों का निरूपण किया गया है।

मन्त्रोऽयमुपदेष्टव्यो ब्राह्मणाद्यनुरूपतः ।।३५।।

संपूज्य विधिवत् तत्र संस्थाप्य कलशं नवम् ।

तत्सामर्थ्यानुरूपेण मृत्सुवर्णमयं तथा ।

दात्रा प्रदीयते यद्वन्मन्त्रो देयस्तथा मुने ।।३६।।

मुनि सुतीक्ष्ण! ब्राह्मण आदि जाति के शिष्यों को उनके अनुरूप विधानपूर्वक पूजा कर सामर्थ्य के अनुसार सोने का या मिट्टी के नवीन कलश की स्थापना कर यह मन्त्र उसी प्रकार शिष्य को दें जैसे कोई दाता किसी को धन देता है।

इत्यगस्त्यसंहितायां परमरहस्ये गुरुशिष्यलक्षणं नामाष्टमोऽध्यायः ।।8।।

आगे जारी- अगस्त्य संहिता अध्याय 9

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