भक्तामर स्तोत्र

भक्तामर स्तोत्र

भक्तामर स्तोत्र के रचयिता आचार्य श्री मानतुंग स्वामी जी हैं। आचार्य श्री द्वारा इस स्तोत्र की रचना नकारात्मक परिस्थितियों में की गई। आचार्य श्रीमानतुंग सूरि जी का जन्म वाराणसी में श्री 'धनदेव' श्रेष्ठि जी के परिवार में हुआ था। इनका बचपन का नाम 'दिवाकर' था।

भक्तामर स्तोत्र

भक्तामर स्तोत्र

इस आदिनाथ-स्तोत्र का नाम भक्तामर स्तोत्र पड़ा, जो सारे जैन समाज में बहुत प्रभावशाली माना जाता है तथा अत्यंत श्रद्धायुक्त पढ़ा जाता है। मंत्र शक्ति में आस्था रखने वालो के लिए यह एक दिव्य स्तोत्र है। इसका नियमित पाठ करने से मन में शांति का अनुभव होता है व सुख समृद्धि व वैभव की प्राप्ति होती है। यह माना जाता है कि इस स्तोत्र में भक्ति भाव की इतनी सर्वोच्चता है कि यदि आपने सच्चे मन से इसका पाठ किया तो आपको साक्षात ईश्वर की अनुभति होती है।

भक्तामर स्तोत्र पढ़ने का सूर्योदय का समय सबसे उत्तम है। वर्षभर निरंतर पढ़ना शुरू करना हो तो श्रावण, भादवा, कार्तिक, पौष, अगहन या माघ में करें। उत्तर पूर्व दिशा की ओर मुख करके २७ बार श्लोक, १०८ बार रिद्धि, १०८ बार मंत्र का जाप करें। भक्तामर ताम्र यंत्र अपने सामने रखें और उसका अभिषेक करें। बाद में पानी पी लें अन्यथा शरीर के प्रभावित हिस्सों से लेकर पेट तक पर २१ दिनों तक पानी लगाएं।

भक्तामर स्तोत्र अर्थ सहित

भक्तामर प्रणत मौलिमणि प्रभाणा।

मुद्योतकं दलित पाप तमोवितानम् ॥

सम्यक् प्रणम्य जिन पादयुगं युगादा।

वालंबनं भवजले पततां जनानाम् ॥१॥

झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा) ।

यः संस्तुतः सकल वाङ्मय तत्वबोधा ।

द् उद्भूत बुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः ॥

स्तोत्रैर्जगत्त्रितय चित्त हरैरुदरैः।

स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥

सम्पूर्णश्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि की कुशलता से इन्द्रों के द्वारा तीन लोक के मन को हरने वाले, गंभीर स्तोत्रों के द्वारा जिनकी स्तुति की गई है उन आदिनाथ जिनेन्द्र की निश्चय ही मैं (मानतुंग) भी स्तुति करुँगा।

बुद्ध्या विनाऽपि विबुधार्चित पादपीठ।

स्तोतुं समुद्यत मतिर्विगतत्रपोऽहम् ॥

बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दु बिम्ब।

मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥३॥

देवों के द्वारा पूजित हैं सिंहासन जिनका, ऐसे हे जिनेन्द्र मैं बुद्धि रहित होते हुए भी निर्लज्ज होकर स्तुति करने के लिये तत्पर हुआ हूँ क्योंकि जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक को छोड़कर दूसरा कौन मनुष्य सहसा पकड़ने की इच्छा करेगा? अर्थात् कोई नहीं।

वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र शशाङ्क्कान्तान्।

कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या ॥

कल्पान्त काल् पवनोद्धत नक्रचक्रं।

को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥४॥

हे गुणों के भंडार! आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर गुणों को कहने लिये ब्रहस्पति के सद्रश भी कौन पुरुष समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं। अथवा प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह जिसमें ऐसे समुद्र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं।

सोऽहं तथापि तव भक्ति वशान्मुनीश।

कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः ॥

प्रीत्यऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं।

नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥

हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ,भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ। हरिणि, अपनी शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं।

अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम्।

त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् ॥

यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति।

तच्चारुचूत कलिकानिकरैकहेतु ॥६॥

विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझ अल्पज्ञानी को आपकी भक्ति ही बोलने को विवश करती हैं| बसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द करती है उसमें निश्चय से आम्र कलिका ही एक मात्र कारण हैं।

त्वत्संस्तवेन भवसंतति सन्निबद्धं।

पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीर भाजाम् ॥

आक्रान्त लोकमलिनीलमशेषमाशु।

सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥७॥

आपकी स्तुति से, प्राणियों के, अनेक जन्मों में बाँधे गये पाप कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं जैसे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त रात्री का अंधकार सूर्य की किरणों से क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाता है।

मत्वेति नाथ्! तव् संस्तवनं मयेद।

मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् ॥

चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु।

मुक्ताफल द्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ॥८॥

हे स्वामिन्! ऐसा मानकर मुझ मन्दबुद्धि के द्वारा भी आपका यह स्तवन प्रारम्भ किया जाता है, जो आपके प्रभाव से सज्जनों के चित्त को हरेगा । निश्चय से पानी की बूँद कमलिनी के पत्तों पर मोती के समान शोभा को प्राप्त करती हैं।

आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्त दोषं।

त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ॥

दूरे सहस्त्रकिरणः कुरुते प्रभैव।

पद्माकरेषु जलजानि विकाशभांजि ॥९॥

सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका स्तवन तो दूर, आपकी पवित्र कथा भी प्राणियों के पापों का नाश कर देती है। जैसे, सूर्य तो दूर, उसकी प्रभा ही सरोवर में कमलों को विकसित कर देती है।

नात्यद् भूतं भुवन भुषण भूतनाथ।

भूतैर् गुणैर् भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः ॥

तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा।

भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥

हे जगत् के भूषण! हे प्राणियों के नाथ! सत्यगुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले पुरुष पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है। क्योंकि उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो इस लोक में अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता ।

दृष्टवा भवन्तमनिमेष विलोकनीयं।

नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः ॥

पीत्वा पयः शशिकरद्युति दुग्ध सिन्धोः।

क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥११॥

हे अभिमेष दर्शनीय प्रभो! आपके दर्शन के पश्चात् मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते। चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीरसमुद्र के जल को पीकर कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा? अर्थात् कोई नहीं ।

यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्तवं।

निर्मापितस्त्रिभुवनैक ललाम भूत ॥

तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां।

यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥१२॥

हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण जिनेन्द्रदेव! जिन रागरहित सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई वे परमाणु पृथ्वी पर निश्चय से उतने ही थे क्योंकि आपके समान दूसरा रूप नहीं है।

वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि।

निःशेष निर्जित जगत् त्रितयोपमानम् ॥

बिम्बं कलङ्क मलिनं क्व निशाकरस्य।

यद्वासरे भवति पांडुपलाशकल्पम् ॥१३॥

हे प्रभो! सम्पूर्ण रुप से तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता, देव मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका मुख? और कलंक से मलिन, चन्द्रमा का वह मण्डल कहां? जो दिन में पलाश (ढाक) के पत्ते के समान फीका पड़ जाता।

सम्पूर्णमण्ङल शशाङ्ककलाकलाप्।

शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति ॥

ये संश्रितास् त्रिजगदीश्वर नाथमेकं।

कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥

पूर्ण चन्द्र की कलाओं के समान उज्ज्वल आपके गुण, तीनों लोको में व्याप्त हैं क्योंकि जो अद्वितीय त्रिजगत् के भी नाथ के आश्रित हैं उन्हें इच्छानुसार घुमते हुए कौन रोक सकता हैं? कोई नहीं।

चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिर्।

नीतं मनागपि मनो न विकार मार्गम् ॥

कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन।

किं मन्दराद्रिशिखिरं चलितं कदाचित् ॥१५॥

यदि आपका मन देवागंनाओं के द्वारा किंचित् भी विक्रति को प्राप्त नहीं कराया जा सका, तो इस विषय में आश्चर्य ही क्या है? पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल की पवन के द्वारा क्या कभी मेरु का शिखर हिल सका है? नहीं ।

निर्धूमवर्तिपवर्जित तैलपूरः।

कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी करोषि ॥

गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां।

दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ् जगत्प्रकाशः ॥१६॥

हे स्वामिन्! आप धूम तथा बाती से रहित, तेल के प्रवाह के बिना भी इस सम्पूर्ण लोक को प्रकट करने वाले अपूर्व जगत् प्रकाशक दीपक हैं जिसे पर्वतों को हिला देने वाली वायु भी कभी बुझा नहीं सकती।

नास्तं कादाचिदुपयासि न राहुगम्यः।

स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति ॥

नाम्भोधरोदर निरुद्धमहाप्रभावः।

सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र! लोके ॥१७॥

हे मुनीन्द्र! आप न तो कभी अस्त होते हैं न ही राहु के द्वारा ग्रसे जाते हैं और न आपका महान तेज मेघ से तिरोहित होता है आप एक साथ तीनों लोकों को शीघ्र ही प्रकाशित कर देते हैं अतः आप सूर्य से भी अधिक महिमावन्त हैं।

नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं।

गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् ॥

विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्प कान्ति।

विद्योतयज्जगदपूर्व शशाङ्कबिम्बम् ॥१८॥

हमेशा उदित रहने वाला, मोहरुपी अंधकार को नष्ट करने वाला जिसे न तो राहु ग्रस सकता है, न ही मेघ आच्छादित कर सकते हैं, अत्यधिक कान्तिमान, जगत को प्रकाशित करने वाला आपका मुखकमल रुप अपूर्व चन्द्रमण्डल शोभित होता है।

किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा।

युष्मन्मुखेन्दु दलितेषु तमस्सु नाथ ॥

निष्मन्न शालिवनशालिनि जीव लोके।

कार्यं कियज्जलधरैर् जलभार नम्रैः ॥१९॥

हे स्वामिन्! जब अंधकार आपके मुख रुपी चन्द्रमा के द्वारा नष्ट हो जाता है तो रात्रि में चन्द्रमा से एवं दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन? पके हुए धान्य के खेतों से शोभायमान धरती तल पर पानी के भार से झुके हुए मेघों से फिर क्या प्रयोजन।

ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं।

नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु ॥

तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं।

नैवं तु काच शकले किरणाकुलेऽपि ॥२०॥

अवकाश को प्राप्त ज्ञान जिस प्रकार आप में शोभित होता है वैसा विष्णु महेश आदि देवों में नहीं। कान्तिमान मणियों में, तेज जैसे महत्व को प्राप्त होता है वैसे किरणों से व्याप्त भी काँच के टुकड़े में नहीं होता।

मन्ये वरं हरि हरादय एव दृष्टा।

दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ॥

किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः।

कश्चिन्मनो हरति नाथ! भवान्तरेऽपि ॥२१॥

हे स्वामिन्! देखे गये विष्णु महादेव ही मैं उत्तम मानता हूँ, जिन्हें देख लेने पर मन आपमें सन्तोष को प्राप्त करता है। किन्तु आपको देखने से क्या लाभ? जिससे कि प्रथ्वी पर कोई दूसरा देव जन्मान्तर में भी चित्त को नहीं हर पाता।

स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्।

नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ॥

सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्ररश्मिं।

प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालं ॥२२॥

सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु आप जैसे पुत्र को दूसरी माँ उत्पन्न नहीं कर सकी। नक्षत्रों को सभी दिशायें धारण करती हैं परन्तु कान्तिमान् किरण समूह से युक्त सूर्य को पूर्व दिशा ही जन्म देती हैं।

त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस।

मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात् ॥

त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयंति मृत्युं।

नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः॥२३॥

हे मुनीन्द्र! तपस्वीजन आपको सूर्य की तरह तेजस्वी निर्मल और मोहान्धकार से परे रहने वाले परम पुरुष मानते हैं। वे आपको ही अच्छी तरह से प्राप्त कर म्रत्यु को जीतते हैं। इसके सिवाय मोक्षपद का दूसरा अच्छा रास्ता नहीं है।

त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यं।

ब्रह्माणमीश्वरम् अनंतमनंगकेतुम् ॥

योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं।

ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥२४॥

सज्जन पुरुष आपको शाश्वत, विभु, अचिन्त्य, असंख्य, आद्य, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, योगीश्वर, विदितयोग, अनेक, एक ज्ञानस्वरुप और अमल कहते हैं।

बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित बुद्धि बोधात्।

त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय शंकरत्वात् ॥

धाताऽसि धीर! शिवमार्ग विधेर्विधानात्।

व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥

देव अथवा विद्वानों के द्वारा पूजित ज्ञान वाले होने से आप ही बुद्ध हैं। तीनों लोकों में शान्ति करने के कारण आप ही शंकर हैं। हे धीर! मोक्षमार्ग की विधि के करने वाले होने से आप ही ब्रह्मा हैं और हे स्वामिन्! आप ही स्पष्ट रुप से मनुष्यों में उत्तम अथवा नारायण हैं।

तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ।

तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय ॥

तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय।

तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि शोषणाय ॥२६॥

हे स्वामिन्! तीनों लोकों के दुःख को हरने वाले आपको नमस्कार हो, प्रथ्वीतल के निर्मल आभुषण स्वरुप आपको नमस्कार हो, तीनों जगत् के परमेश्वर आपको नमस्कार हो और संसार समुन्द्र को सुखा देने वाले आपको नमस्कार हो।

को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैस्।

त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश! ॥

दोषैरूपात्त विविधाश्रय जातगर्वैः।

स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥२७॥

हे मुनीश! अन्यत्र स्थान न मिलने के कारण समस्त गुणों ने यदि आपका आश्रय लिया हो तो तथा अन्यत्र अनेक आधारों को प्राप्त होने से अहंकार को प्राप्त दोषों ने कभी स्वप्न में भी आपको न देखा हो तो इसमें क्या आश्चर्य?

उच्चैरशोक तरुसंश्रितमुन्मयूख।

माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् ॥

स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त तमोवितानं।

बिम्बं रवेरिव पयोधर पार्श्ववर्ति ॥२८॥

ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित, उन्नत किरणों वाला, आपका उज्ज्वल रुप जो स्पष्ट रुप से शोभायमान किरणों से युक्त है, अंधकार समूह के नाशक, मेघों के निकट स्थित सूर्य बिम्ब की तरह अत्यन्त शोभित होता है।

सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे।

विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् ॥

बिम्बं वियद्विलसदंशुलता वितानं।

तुंगोदयाद्रि शिरसीव सहस्त्ररश्मेः ॥२९॥

मणियों की किरण-ज्योति से सुशोभित सिंहासन पर, आपका सुवर्ण कि तरह उज्ज्वल शरीर, उदयाचल के उच्च शिखर पर आकाश में शोभित, किरण रुप लताओं के समूह वाले सूर्य मण्डल की तरह शोभायमान हो रहा है।

कुन्दावदात चलचामर चारुशोभं।

विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् ॥

उद्यच्छशांक शुचिनिर्झर वारिधार।

मुच्चैस्तटं सुर गिरेरिव शातकौम्भम् ॥३०॥

कुन्द के पुष्प के समान धवल चँवरों के द्वारा सुन्दर है शोभा जिसकी, ऐसा आपका स्वर्ण के समान सुन्दर शरीर, सुमेरुपर्वत, जिस पर चन्द्रमा के समान उज्ज्वल झरने के जल की धारा बह रही है, के स्वर्ण निर्मित ऊँचे तट की तरह शोभायमान हो रहा है।

छत्रत्रयं तव विभाति शशांककान्त।

मुच्चैः स्थितं स्थगित भानुकर प्रतापम् ॥

मुक्ताफल प्रकरजाल विवृद्धशोभं ।

प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥

चन्द्रमा के समान सुन्दर, सूर्य की किरणों के सन्ताप को रोकने वाले, तथा मोतियों के समूहों से बढ़ती हुई शोभा को धारण करने वाले, आपके ऊपर स्थित तीन छत्र, मानो आपके तीन लोक के स्वामित्व को प्रकट करते हुए शोभित हो रहे हैं।

गम्भीरतारवपूरित दिग्विभागस्।

त्रैलोक्यलोक शुभसंगम भूतिदक्षः ॥

सद्धर्मराजजयघोषण घोषकः सन्।

खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी ॥३२॥

गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं को गुञ्जायमान करने वाला, तीन लोक के जीवों को शुभ विभूति प्राप्त कराने में समर्थ और समीचीन जैन धर्म के स्वामी की जय घोषणा करने वाला दुन्दुभि वाद्य आपके यश का गान करता हुआ आकाश में शब्द करता है।

मन्दार सुन्दरनमेरू सुपारिजात।

सन्तानकादिकुसुमोत्कर- वृष्टिरुद्धा ॥

गन्धोदबिन्दु शुभमन्द मरुत्प्रपाता।

दिव्या दिवः पतित ते वचसां ततिर्वा ॥३३॥

सुगंधित जल बिन्दुओं और मन्द सुगन्धित वायु के साथ गिरने वाले श्रेष्ठ मनोहर मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात, सन्तानक आदि कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा आपके वचनों की पंक्तियों की तरह आकाश से होती है।

शुम्भत्प्रभावलय भूरिविभा विभोस्ते।

लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती ॥

प्रोद्यद् दिवाकर निरन्तर भूरिसंख्या।

दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम सौम्याम् ॥३४॥

हे प्रभो! तीनों लोकों के कान्तिमान पदार्थों की प्रभा को तिरस्कृत करती हुई आपके मनोहर भामण्डल की विशाल कान्ति एक साथ उगते हुए अनेक सूर्यों की कान्ति से युक्त होकर भी चन्द्रमा से शोभित रात्रि को भी जीत रही है।

स्वर्गापवर्गगममार्ग विमार्गणेष्टः।

सद्धर्मतत्वकथनैक पटुस्त्रिलोक्याः ॥

दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसत्व।

भाषास्वभाव परिणामगुणैः प्रयोज्यः ॥३५॥

आपकी दिव्यध्वनि स्वर्ग और मोक्षमार्ग की खोज में साधक, तीन लोक के जीवों को समीचीन धर्म का कथन करने में समर्थ, स्पष्ट अर्थ वाली, समस्त भाषाओं में परिवर्तित करने वाले स्वाभाविक गुण से सहित होती है।

उन्निद्रहेम नवपंकज पुंजकान्ती।

पर्युल्लसन्नखमयूख शिखाभिरामौ ॥

पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्तः।

पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३६॥

पुष्पित नव स्वर्ण कमलों के समान शोभायमान नखों की किरण प्रभा से सुन्दर आपके चरण जहाँ पड़ते हैं वहाँ देव गण स्वर्ण कमल रच देते हैं।

इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र।

धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य ॥

यादृक् प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा।

तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ॥३७॥

हे जिनेन्द्र! इस प्रकार धर्मोपदेश के कार्य में जैसा आपका ऐश्वर्य था वैसा अन्य किसी का नही हुआ। अंधकार को नष्ट करने वाली जैसी प्रभा सूर्य की होती है वैसी अन्य प्रकाशमान भी ग्रहों की कैसे हो सकती है?

श्च्योतन्मदाविलविलोल कपोलमूल।

मत्तभ्रमद् भ्रमरनाद विवृद्धकोपम् ॥

ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं।

दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३८॥

आपके आश्रित मनुष्यों को, झरते हुए मद जल से जिसके गण्डस्थल मलीन, कलुषित तथा चंचल हो रहे है और उन पर उन्मत्त होकर मंडराते हुए काले रंग के भौरे अपने गुजंन से क्रोध बढा़ रहे हों ऐसे ऐरावत की तरह उद्दण्ड, सामने आते हुए हाथी को देखकर भी भय नहीं होता।

भिन्नेभ कुम्भ गलदुज्जवल शोणिताक्त।

मुक्ताफल प्रकर भूषित भुमिभागः ॥

बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि।

नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३९॥

सिंह, जिसने हाथी का गण्डस्थल विदीर्ण कर, गिरते हुए उज्ज्वल तथा रक्तमिश्रित गजमुक्ताओं से पृथ्वी तल को विभूषित कर दिया है तथा जो छलांग मारने के लिये तैयार है वह भी अपने पैरों के पास आये हुए ऐसे पुरुष पर आक्रमण नहीं करता जिसने आपके चरण युगल रुप पर्वत का आश्रय ले रखा है।

कल्पांतकाल पवनोद्धत वह्निकल्पं।

दावानलं ज्वलितमुज्जवलमुत्स्फुलिंगम् ॥

विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं।

त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥४०॥

आपके नाम यशोगानरुपी जल, प्रलयकाल की वायु से उद्धत, प्रचण्ड अग्नि के समान प्रज्वलित, उज्ज्वल चिनगारियों से युक्त, संसार को भक्षण करने की इच्छा रखने वाले की तरह सामने आती हुई। वन की अग्नि को पूर्ण रुप से बुझा देता है।

रक्तेक्षणं समदकोकिल कण्ठनीलं।

क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम् ॥

आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशंकस्।

त्वन्नाम नागदमनी हृदि यस्य पुंसः ॥४१॥

जिस पुरुष के ह्रदय में नामरुपी-नागदौन नामक औषध मौजूद है, वह पुरुष लाल लाल आँखो वाले, मदयुक्त कोयल के कण्ठ की तरह काले, क्रोध से उद्धत और ऊपर को फण उठाये हुए, सामने आते हुए सर्प को निश्शंक होकर दोनों पैरो से लाँघ जाता है।

वल्गत्तुरंग गजगर्जित भीमनाद।

माजौ बलं बलवतामपि भूपतिनाम्! ॥

उद्यद्दिवाकर मयूख शिखापविद्धं।

त्वत्- कीर्तनात् तम इवाशु भिदामुपैति ॥४२॥

आपके यशोगान से युद्धक्षेत्र में उछलते हुए घोडे़ और हाथियों की गर्जना से उत्पन भयंकर कोलाहल से युक्त पराक्रमी राजाओं की भी सेना, उगते हुए सूर्य किरणों की शिखा से वेधे गये। अंधकार की तरह शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाती है।

कुन्ताग्रभिन्नगज शोणितवारिवाह।

वेगावतार तरणातुरयोध भीमे ॥

युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षास्।

त्वत्पाद पंकजवनाश्रयिणो लभन्ते ॥४३॥

हे भगवन् आपके चरण कमलरुप वन का सहारा लेने वाले पुरुष, भालों की नोकों से छेद गये हाथियों के रक्त रुप जल प्रवाह में पडे़ हुए, तथा उसे तैरने के लिये आतुर हुए योद्धाओं से भयानक युद्ध में, दुर्जय शत्रु पक्ष को भी जीत लेते हैं।

अम्भौनिधौ क्षुभितभीषणनक्रचक्र।

पाठीन पीठभयदोल्बणवाडवाग्नौ ॥

रंगत्तरंग शिखरस्थित यानपात्रास्।

त्रासं विहाय भवतःस्मरणाद् व्रजन्ति ॥४४॥

क्षोभ को प्राप्त भयंकर मगरमच्छों के समूह और मछलियों के द्वारा भयभीत करने वाले दावानल से युक्त समुद्र में विकराल लहरों के शिखर पर स्थित है जहाज जिनका, ऐसे मनुष्य, आपके स्मरण मात्र से भय छोड़कर पार हो जाते हैं।

उद्भूतभीषणजलोदर भारभुग्नाः।

शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः ॥

त्वत्पादपंकज रजोऽमृतदिग्धदेहा।

मर्त्या भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥४५॥

उत्पन्न हुए भीषण जलोदर रोग के भार से झुके हुए, शोभनीय अवस्था को प्राप्त और नहीं रही है जीवन की आशा जिनके, ऐसे मनुष्य आपके चरण कमलों की रज रुप अम्रत से लिप्त शरीर होते हुए कामदेव के समान रुप वाले हो जाते हैं।

आपाद कण्ठमुरूश्रृंखल वेष्टितांगा।

गाढं बृहन्निगडकोटिनिघृष्टजंघाः ॥

त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः।

सद्यः स्वयं विगत बन्धभया भवन्ति ॥४६॥

जिनका शरीर पैर से लेकर कण्ठ पर्यन्त बडी़-बडी़ सांकलों से जकडा़ हुआ है और विकट सघन बेड़ियों से जिनकी जंघायें अत्यन्त छिल गईं हैं। ऐसे मनुष्य निरन्तर आपके नाममंत्र को स्मरण करते हुए शीघ्र ही बन्धन मुक्त हो जाते है।

मत्तद्विपेन्द्र मृगराज दवानलाहि।

संग्राम वारिधि महोदर बन्धनोत्थम् ॥

तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव।

यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४७॥

जो बुद्धिमान मनुष्य आपके इस स्तवन को पढ़ता है उसका मत्त हाथी, सिंह, दवानल, युद्ध, समुद्र जलोदर रोग और बन्धन आदि से उत्पन्न भय मानो डरकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है।

स्तोत्रस्त्रजं तव जिनेन्द्र! गुणैर्निबद्धां।

भक्त्या मया विविधवर्णविचित्रपुष्पाम् ॥

धत्ते जनो य इह कंठगतामजस्रं।

तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥

हे जिनेन्द्र देव! इस जगत् में जो लोग मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक (ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि) गुणों से रची गई नाना अक्षर रुप, रंग बिरंगे फूलों से युक्त आपकी स्तुति रुप माला को कंठाग्र करता है उस उन्नत सम्मान वाले पुरुष को अथवा आचार्य मानतुंग को स्वर्ग मोक्षादि की विभूति अवश्य प्राप्त होती है।

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी)

॥भक्तामर-स्तोत्र॥

भक्त अमर नत मुकुट सु-मणियों, की सु-प्रभा का जो भासक।

पाप रूप अति सघन तिमिर का, ज्ञान-दिवाकर-सा नाशक॥

भव-जल पतित जनों को जिसने, दिया आदि में अवलंबन।

उनके चरण-कमल को करते, सम्यक बारम्बार नमन ॥१॥

सकल वाङ्मय तत्वबोध से, उद्भव पटुतर धी-धारी।

उसी इंद्र की स्तुति से है, वंदित जग-जन मन-हारी॥

अति आश्चर्य की स्तुति करता, उसी प्रथम जिनस्वामी की।

जगनामी सुखधामी तद्भव, शिवगामी अभिरामी की ॥२॥

स्तुति को तैयार हुआ हूँ, मैं निर्बुद्धि छोड़ि के लाज।

विज्ञजनों से अर्चित है प्रभु! मंदबुद्धि की रखना लाज॥

जल में पड़े चंद्र मंडल को, बालक बिना कौन मतिमान।

सहसा उसे पकड़ने वाली, प्रबलेच्छा करता गतिमान ॥३॥

हे जिन! चंद्रकांत से बढ़कर, तव गुण विपुल अमल अति श्वेत।

कह न सके नर हे गुण के सागर! सुरगुरु के सम बुद्धि समेत॥

मक्र,नक्र चक्रादि जंतु युत, प्रलय पवन से बढ़ा अपार।

कौन भुजाओं से समुद्र के, हो सकता है परले पार ॥४॥

वह मैं हूँ कुछ शक्ति न रखकर, भक्ति प्रेरणा से लाचार।

करता हूँ स्तुति प्रभु तेरी, जिसे न पौर्वापर्य विचार॥

निज शिशु की रक्षार्थ आत्मबल बिना विचारे क्या न मृगी?

जाती है मृगपति के आगे, प्रेम-रंग में हुई रंगी ॥५॥

अल्पश्रुत हूँ श्रृतवानों से, हास्य कराने का ही धाम।

करती है वाचाल मुझे प्रभु, भक्ति आपकी आठों याम॥

करती मधुर गान पिक मधु में, जग जन मन हर अति अभिराम।

उसमें हेतु सरस फल फूलों के, युत हरे-भरे तरु-आम ॥६॥

जिनवर की स्तुति करने से, चिर संचित भविजनो के पाप।

पलभर में भग जाते निश्चित, इधर-उधर अपने ही आप॥

सकल लोक में व्याप्त रात्रि का, भ्रमर सरीखा काला ध्वान्त।

प्रातः रवि की उग्र-किरण लख, हो जाता क्षण में प्राणांत ॥७॥

मैं मति-हीन-दीन प्रभु तेरी, शुरू करूँ स्तुति अघ-हान।

प्रभु-प्रभाव ही चित्त हरेगा, संतों का निश्चय से मान॥

जैसे कमल-पत्र पर जल कण, मोती कैसे आभावान।

दिखते हैं फिर छिपते हैं, असली मोती में हैं भगवान ॥८॥

दूर रहे स्रोत आपका, जो कि सर्वथा है निर्दोष।

पुण्य कथा ही किंतु आपकी, हर लेती है कल्मष-कोष॥

प्रभा प्रफुल्लित करती रहती, सर के कमलों को भरपूर।

फेंका करता सूर्य किरण को, आप रहा करता है दूर ॥९॥

त्रिभुवन तिंलक जगपति हे प्रभु ! सद्गुरुओं के हें गुरवर्य्य ।

सद्भक्तों को निजसम करते, इसमें नहीं अधिक आश्चर्य ॥

स्वाश्रित जन को निजसम करते, धनी लोग धन करनी से ।

नहीं करें तो उन्हें लाभ क्या? उन धनिकों की करनी से ॥१०॥

हे अनिमेष विलोकनीय प्रभु, तुम्हें देखकर परम पवित्र।

तौषित होते कभी नहीं हैं, नयन मानवों के अन्यत्र॥

चंद्र-किरण सम उज्ज्वल निर्मल, क्षीरोदधि का कर जलपान।

कालोदधि का खारा पानी, पीना चाहे कौन पुमान ॥११॥

जिन जितने जैसे अणुओं से, निर्मापित प्रभु तेरी देह।

थे उतने वैसे अणु जग में, शांत-रागमय निःसंदेह॥

हे त्रिभुवन के शिरोभाग के, अद्वितीय आभूषण रूप।

इसीलिए तो आप सरीखा, नहीं दूसरों का है रूप ॥१२॥

कहाँ आपका मुख अतिसुंदर, सुर-नर उरग नेत्र-हारी।

जिसने जीत लिए सब-जग के, जितने थे उपमाधारी॥

कहाँ कलंकी बंक चंद्रमा, रंक समान कीट-सा दीन।

जो पलाशसा फीका पड़ता, दिन में हो करके छवि-छीन ॥१३॥

तब गुण पूर्ण-शशांक का कांतिमय, कला-कलापों से बढ़ के।

तीन लोक में व्याप रहे हैं जो कि स्वच्छता में चढ़ के॥

विचरें चाहें जहाँ कि जिनको, जगन्नाथ का एकाधार।

कौन माई का जाया रखता, उन्हें रोकने का अधिकार ॥१४॥

मद की छकी अमर ललनाएँ, प्रभु के मन में तनिक विकार।

कर न सकीं आश्चर्य कौनसा, रह जाती है मन को मार॥

गिरि गिर जाते प्रलय पवन से तो फिर क्या वह मेरु शिखर।

हिल सकता है रंचमात्र भी, पाकर झंझावत प्रखर ॥१५॥

धूप न बत्ती तैल बिना ही, प्रकट दिखाते तीनों लोक।

गिरि के शिखर उड़ाने वाली, बुझा न सकती मारुत झोक॥

तिस पर सदा प्रकाशित रहते, गिनते नहीं कभी दिन-रात।

ऐसे अनुपम आप दीप हैं, स्वपर-प्रकाशक जग-विख्यात ॥१६॥

अस्त न होता कभी न जिसको, ग्रस पाता है राहु प्रबल।

एक साथ बतलाने वाला, तीन लोक का ज्ञान विमल॥

रुकता कभी न प्रभाव जिसका, बादल की आ करके ओट।

ऐसी गौरव-गरिमा वाले, आप अपूर्व दिवाकर कोट ॥१७॥

मोह महातम दलने वाला, सदा उदित रहने वाला।

राहु न बादल से दबता, पर सदा स्वच्छ रहने वाला॥

विश्व-प्रकाशक मुखसरोज तव, अधिक कांतिमय शांतिस्वरूप।

है अपूर्व जग का शशिमंडल, जगत शिरोमणि शिव का भूप ॥१८॥

नाथ आपका मुख जब करता, अंधकार का सत्यानाश।

तब दिन में रवि और रात्रि में, चंद्र बिंब का विफल प्रयास॥

धान्य-खेत जब धरती तल के, पके हुए हों अति अभिराम।

शोर मचाते जल को लादे, हुए घनों से तब क्या काम? ॥१९॥

जैसा शोभित होता प्रभु का, स्वपर-प्रकाशक उत्तम ज्ञान।

हरिहरादि देवों में वैसा, कभी नहीं हो सकता भान॥

अति ज्योतिर्मय महारतन का, जो महत्व देखा जाता।

क्या वह किरणाकुलित काँच में, अरे कभी लेखा जाता? ॥२०॥

हरिहरादि देवों का ही मैं, मानूँ उत्तम अवलोकन।

क्योंकि उन्हें देखने भर से, तुझसे तोषित होता मन॥

है परंतु क्या तुम्हें देखने से, हे स्वामिन मुझको लाभ।

जन्म-जन्म में भी न लुभा पाते, कोई यह मम मेरा अमिताभ ॥२१॥

सौ-सौ नारी सौ-सौ सुत को, जनती रहतीं सौ-सौ ठौर।

तुमसे सुत को जनने वाली, जननी महती क्या है और?

तारागण को सर्व दिशाएँ, धरें नहीं कोई खाली।

पूर्व दिशा ही पूर्ण प्रतापी, दिनपति को जनने वाली ॥२२॥

तुम को परम पुरुष मुनि मानें, विमल वर्ण रवि तमहारी।

तुम्हें प्राप्त कर मृत्युंजय के, बन जाते जन अधिकारी॥

तुम्हें छोड़कर अन्य न कोई, शिवपुर पथ बतलाता है।

किंतु विपर्यय मार्ग बताकर, भव-भव में भटकाता है ॥२३॥

तुम्हें आद्य अक्षय अनंत प्रभु, एकानेक तथा योगीश।

ब्रह्मा, ईश्वर या जगदीश्वर, विदित योग मुनिनाथ मुनीश॥

विमल ज्ञानमय या मकरध्वज, जगन्नाथ जगपति जगदीश।

इत्यादिक नामों कर मानें, संत निरंतर विभो निधीश ॥२४॥

ज्ञान पूज्य है, अमर आपका, इसीलिए कहलाते बुद्ध।

भुवनत्रय के सुख संवर्द्धक, अतः तुम्हीं शंकर हो शुद्ध॥

मोक्ष-मार्ग के आद्य प्रवर्तक, अतः विधाता कहें गणेश।

तुम सब अवनी पर पुरुषोत्तम, और कौन होगा अखिलेश ॥२५॥

तीन लोक के दुःख हरण, करने वाले है तुम्हें नमन।

भूमंडल के निर्मल-भूषण, आदि जिनेश्वर तुम्हें नमन॥

हे त्रिभुवन के अखिलेश्वर, हो तुमको बारम्बार नमन।

भव-सागर के शोषक-पोषक, भव्य जनों के तुम्हें नमन ॥२६॥

गुणसमूह एकत्रित होकर, तुझमें यदि पा चुके प्रवेश।

क्या आश्चर्य न मिल पाएँ हों, अन्य आश्रय उन्हें जिनेश॥

देव कहे जाने वालों से, आश्रित होकर गर्वित दोष।

तेरी ओर न झाँक सके वे, स्वप्नमात्र में हे गुण-दोष ॥२७॥

उन्नत तरु अशोक के आश्रित, निर्मल किरणोन्नत वाला।

रूप आपका दिखता सुंदर, तमहर मनहर छवि वाला॥

वितरण किरण निकर तमहारक, दिनकर धन के अधिक समीप।

नीलाचल पर्वत पर होकर, निरांजन करता ले दीप ॥२८॥

मणि-मुक्ता किरणों से चित्रित, अद्भुत शोभित सिंहासन।

कांतिमान्‌ कंचन-सा दिखता, जिस पर तब कमनीय वदन॥

उदयाचल के तुंग शिखर से, मानो सहस्त्र रश्मि वाला।

किरण-जाल फैलाकर निकला, हो करने को उजियाला ॥२९॥

ढुरते सुंदर चँवर विमल अति, नवल कुंद के पुष्प समान।

शोभा पाती देह आपकी, रौप्य धवल-सी आभावान॥

कनकाचल के तुंगक्षृंग से, झर-झर झरता है निर्झर।

चंद्र-प्रभा सम उछल रही हो, मानो उसके ही तट पर ॥३०॥

चंद्र-प्रभा सम झल्लरियों से, मणि-मुक्तामय अति कमनीय।

दीप्तिमान्‌ शोभित होते हैं, सिर पर छत्रत्रय भवदीय॥

ऊपर रहकर सूर्य-रश्मि का, रोक रहे हैं प्रखर प्रताप।

मानो वे अघोषित करते हैं, त्रिभुवन के परमेश्वर आप ॥३१॥

ऊँचे स्वर से करने वाली, सर्वदिशाओं में गुंजन।

करने वाली तीन लोक के, जन-जन का शुभ-सम्मेलन॥

पीट रही है डंका-हो सत्‌ धर्म-राज की हो जय-जय।

इस प्रकार बज रही गगन में, मेरी तव यश की अक्षय ॥३२॥

कल्पवृक्ष के कुसुम मनोहर, पारिजात एवं मंदार।

गंधोदक की मंद वृष्टि, करते हैं प्रभुदित देव उदार॥

तथा साथ ही नभ से बहती, धीमी-धीमी मंद पवन।

पंक्ति बाँध कर बिखर रहे हों, मानो तेरे दिव्य-वचन ॥३३॥

तीन लोक की सुंदरता यदि, मूर्तिमान बनकर आवे।

तन-भामंडल की छवि लखकर, तब सन्मुख शरमा जावे॥

कोटिसूर्य के प्रताप सम, किंतु नहीं कुछ भी आताप।

जिसके द्वारा चंद्र सुशीतल, होता निष्प्रभ अपने आप ॥३४॥

मोक्ष-स्वर्ग के मार्ग प्रदर्शक, प्रभुवर तेरे दिव्य-वचन।

करा रहे हैं, ‘सत्यधर्मके अमर-तत्व का दिग्दर्शन॥

सुनकर जग के जीव वस्तुतः कर लेते अपना उद्धार।

इस प्रकार में परिवर्तित होते, निज-निज भाषा के अनुसार ॥३५॥

जगमगात नख जिसमें शोभें, जैसे नभ में चंद्रकिरण।

विकसित नूतन सरसीरूह सम, है प्रभु! तेरे विमल चरण॥

रखते जहाँ वहीं रचते हैं, स्वर्ण-कमल सुरदिव्य ललाम।

अभिनंदन के योग्य चरण तव, भक्ति रहे उनमें अभिराम ॥३६॥

धर्म-देशना के विधान में, था जिनवर का जो ऐश्वर्य।

वैसा क्या कुछ अन्य कु देवों, में भी दिखता है सौंदर्य॥

जो छवि घोर-तिमिर के नाशक, रवि में है देखी जाती।

वैसी ही क्या अतुल कांति, नक्षत्रों में लेखी जाती ॥३७॥

लोल कपोलों से झरती है, जहाँ निरंतर मद की धार।

होकर अति मदमत्त कि जिस पर, करते हैं भौंरे गुंजार॥

क्रोधासक्त हुआ यों हाथी, उद्धत ऐरावत सा काल।

देख भक्त छुटकारा पाते, पाकर तव आश्रय तत्काल ॥३८॥

क्षत-विक्षत कर दिए गजों के, जिसने उन्नत गंडस्थल।

कांतिमान्‌ गज-मुक्ताओं से, पाट दिया हो अवनीतल॥

जिन भक्तों को तेरे चरणों, के गिरि की हो उन्नत ओट।

ऐसा सिंह छलाँगे भर कर, क्या उस पर कर सकता चोट ॥३९॥

प्रलय काल की पवन उठाकर, जिसे बढ़ा देती सब ओर।

फिंके फुलिंगे ऊपर तिरछे, अंगारों का भी होवे जोर॥

भुवनत्रय को निगला चाहे, आती हुई अग्नि भभकार।

प्रभु के नाम-मंत्र जल से वह, बुझ जाती है उस ही बार ॥४०॥

कंठ कोकिला सा अति काला, क्रोधित हो फण किया विशाल।

लाल-लाल लोचन करके यदि, झपटें नाग महा विकराल॥

नाम रूप तव अहि- दमनी का, लिया जिन्होंने हो आश्रय।

पग रखकर निःशंक नाग पर, गमन करें वे नर निर्भय ॥४१॥

जहाँ अश्व की और गजों की, चीत्कार सुन पड़ती घोर।

शूरवीर नृप की सेनाएँ, रव करती हों चारों ओर।

वहाँ अकेला शक्तिहीन नर, जप कर सुंदर तेरा नाम।

सूर्य-तिमिर सम शूर-सैन्य का, कर देता है काम-तमाम ॥४२॥

रण में भालों से वेधित गज, तन से बहता रक्त अपार।

वीर लड़ाकू जहाँ आतुर हैं, रुधिर-नदी करने को पार॥

भक्त तुम्हारा हो निराश तहँ, लख अरिसेना दुर्जयरूप।

तव पादारविंद पा आश्रय, जय पाता उपहार-स्वरूप ॥४३॥

वह समुद्र कि जिसमें होवें, मच्छमगर एवं घड़ियाल।

तूफाँ लेकर उठती होवें, भयकारी लहरें उत्ताल॥

भँवर-चक्र में फँसी हुई हो, बीचों बीच अगर जलयान।

छुटकारा पा जाते दुःख से, करने वाले तेरा ध्यान ॥४४॥

असहनीय उत्पन्न हुआ हो, विकट जलोदर पीड़ा भार।

जीने की आशा छोड़ी हो, देख दशा दयनीय अपार॥

ऐसे व्याकुल मानव पाकर, तेरी पद-रज संजीवन।

स्वास्थ्य-लाभ कर बनता उसका, कामदेव सा सुंदर तन ॥४५॥

लोह-श्रंखला से जकड़ी है, नख से शिख तक देह समस्त।

घुटने-जंघे छिले बेड़ियों से, अधीर जो हैं अतित्रस्त॥

भगवन ऐसे बंदीजन भी, तेरे नाम-मंत्र की जाप॥

जप कर गत-बंधन हो जाते, क्षण भर में अपने ही आप ॥४६॥

वृषभेश्वर के गुण के स्तवन का, करते निश-दिन जो चिंतन।

भय भी भयाकुलित हो उनसे, भग जाता है हे स्वामिन॥

कुंजर-समर सिंह-शोक-रुज, अहि दावानल कारागर।

इनके अतिभीषण दुःखों का, हो जाता क्षण में संहार ॥४७॥

हे प्रभु! तेरे गुणोद्यान की, क्यारी से चुन दिव्य-ललाम।

गूँथी विविध वर्ण सुमनों की, गुण-माला सुंदर अभिराम॥

श्रद्धा सहित भविकजन जो भी कंठाभरण बनाते हैं।

मानतुंग-सम निश्चित सुंदर, मोक्ष-लक्ष्मी पाते हैं ॥४८॥

महामंत्र- ॐ ह्रीं क्लीं अर्हं वृषभनाथ तीर्थंकराय्‌ नमः॥ 

भक्तामर स्तोत्र महिमा

श्री भक्तामर का पाठ, करो नित प्रात,

भक्ति मन लाई। सब संकट जाएं नशाई॥

जो ज्ञान-मान-मतवारे थे, मुनि मानतुंग से हारे थे।

उन चतुराई से नृपति लिया बहकाई॥ सब संकट...॥१॥

मुनिजी को नृपति बुलाया था, सैनिक जा हुक्म सुनाया था।

मुनि वीतराग को आज्ञा नहीं सुहाई॥ सब संकट...॥२॥

उपसर्ग घोर तब आया था, बलपूर्वक पकड़ मँगाया था।

हथकड़ी बेड़ियों से तन दिया बंधाई॥ सब संकट...॥३॥

 मुनि काराग्रह भिजवाए थे, अड़तालिस ताले लगाए थे।

क्रोधित नृप बाहर पहरा दिया बिठाई॥ सब संकट...॥४॥

 मुनि शांतभाव अपनाया था, श्री आदिनाथ को ध्याया था।

हो ध्यान-मग्न भक्तामर दिया बनाई॥ सब संकट...॥५॥

सब बंधन टूट गए मुनि के, ताले सब स्वयं खुले उनके।

काराग्रह से आ बाहर दिए दिखाई॥ सब संकट...॥६॥

राजा नत होकर आया था, अपराध क्षमा करवाया था ।

मुनि के चरणों में अनुपम भक्ति दिखाई॥ सब संकट...॥७॥

 जो पाठ भक्ति से करता है, नित ऋषभ-चरण चित धरता है।

जो ऋद्धि-मंत्र का विधिवत जाप कराई॥ सब संकट...॥८॥

 भय विघ्न उपद्रव टलते हैं विपदा के दिवस बदलते हैं।

सब मन वांछित हों पूर्ण, शांति छा जाई॥ सब संकट...॥९॥

जो वीतराग आराधन है, आतम उन्नति का साधन है।

उससे प्राणी का भव बंधन कट जाईं॥ सब संकट...॥१०॥

'कौशल' सुभक्ति को पहिचानो, संसार-दृष्टि बंधन जानो।

लो भक्तामर से आत्म-ज्योति प्रकटाई॥ सब संकट... ॥११॥

इतिश्री: भक्तामर-स्तोत्र: ॥

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