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कर्मकाण्ड

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अग्निपुराण अध्याय ११७

अग्निपुराण अध्याय ११७     

अग्निपुराण अध्याय ११७ में श्राद्ध-कल्प में पार्वण श्राद्ध विधि का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ११७

अग्निपुराणम् सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 117     

अग्निपुराण एक सौ सत्रहवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ११७                    

अग्निपुराणम् अध्यायः ११७ – पार्वणश्राद्ध श्राद्धकल्पः

अथ सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः

अग्निरुवाच

कात्यायनो मुनीनाह यथा श्राद्धं तथा वदे ।

गयादौ श्राद्धं कुर्वीत सङ्क्रान्त्यादौ विशेषतः ॥१॥

काले वापरपक्षे च चतुर्थ्या ऊर्ध्वमेव व ।

सम्याद्य च पदर्क्षे च पूर्वेद्युश्च निमन्त्रयेत् ॥२॥

यतीन् गृहस्थसाधून् वा स्नातकाञ्छ्रोत्रियान् द्विजान् ।

अनवद्यान् कर्मनिष्ठान् शिष्टानाचारसंयुतान् ॥३॥

वर्जयेच्छित्रिकुष्ठ्यादीन्न गृह्णीयान्निमन्त्रितान् ।

स्नाताञ्छुचींस्तथा दान्तान् प्राङ्मुखान् देवकर्मणि ॥४॥

उपवेशयेत्त्रीन् पित्र्यादीनेकैकमुभयत्र वा ।

एवं मातामहादेश्च शाकैरपि च कारयेत् ॥५॥

अग्निदेव कहते हैंमहर्षि कात्यायन ने मुनियों से जिस प्रकार श्राद्ध का वर्णन किया था, उसे बतलाता हूँ। गया आदि तीर्थों में, विशेषतः संक्रान्ति आदि के अवसर पर श्राद्ध करना चाहिये। अपराह्नकाल में, अपरपक्ष (कृष्णपक्ष) में, चतुर्थी तिथि को अथवा उसके बाद की तिथियों में श्राद्धोपयोगी सामग्री एकत्रित कर उत्तम नक्षत्र में श्राद्ध करे। श्राद्ध के एक दिन पहले ही ब्राह्मणों को निमन्त्रित करे। संन्यासी, गृहस्थ, साधु अथवा स्नातक तथा श्रोत्रिय ब्राह्मणों को, जो निन्दा के पात्र न हों, अपने कर्मों में लगे रहते हों और शिष्ट एवं सदाचारी हों-निमन्त्रित करना चाहिये । जिनके शरीर में सफेद दाग हों, जो कोढ़ आदि के रोगों से ग्रस्त हों, ऐसे ब्राह्मणों को छोड़ दे; उन्हें श्राद्ध में सम्मिलित न करे। निमन्त्रित ब्राह्मण जब स्नान और आचमन करके पवित्र हो जायँ तो उन्हें देवकर्म में पूर्वाभिमुख बिठावे देव- श्राद्ध, पितृ श्राद्ध में तीन-तीन ब्राह्मण रहें अथवा दोनों में एक-एक ही ब्राह्मण हों। इस प्रकार मातामह आदि के श्राद्ध में भी समझना चाहिये। शाक आदि से भी श्राद्ध कर्म करावे ॥ १-५ ॥

तदह्नि ब्रह्मचारी स्यादकोपोऽत्वरितो मृदुः ।

सत्योऽप्रमत्तोऽनध्वन्यो अस्वाध्यायश्च वाग्यतः ॥६॥

सर्वांश्च पङ्क्तिमूर्धन्यान् पृच्छेत्प्रश्ने तथासने ।

दर्भानास्तीर्य द्विगुणान् पित्रे देवादिकञ्चरेत् ॥७॥

विश्वान्देवानावाहयिष्ये पृच्छेदावाहयेति च ।

विश्वेदेवास आवाह्य विकीर्याथ यवान् जपेत् ॥८॥

विश्वे देवाः शृणुतेमं पितॄनावाहयिष्ये च ।

पृच्छेदावाहयेत्युक्ते उशन्तस्त्वा समाह्वयेत् ॥९॥

तिलान् विकीर्याथ जपेदायान्त्वित्यादि पित्रके ।

सपित्रित्रे निषिञ्चेद्वा शन्नो देवीरभि तृचा ॥१०॥

श्राद्ध के दिन ब्रह्मचारी रहे, क्रोध और उतावली न करे। नम्र, सत्यवादी और सावधान रहे। उस दिन अधिक मार्ग न चले, स्वाध्याय भी न करे, मौन रहे। सम्पूर्ण पंक्तिमूर्धन्य (पंक्ति में सर्वश्रेष्ठ अथवा पंक्तिपावन) ब्राह्मणों से प्रत्येक कर्म के विषय में पूछे। आसन पर कुश बिछावे । पितृकर्म में कुशों को दुहरा मोड़ देना चाहिये। पहले देव- कर्म, फिर पितृ-कर्म करे।* देव-धर्म में स्थित ब्राह्मणों से पूछे - 'मैं विश्वेदेवों का आवाहन करूँगा।' ब्राह्मण आज्ञा दें- आवाहन करो', तब 'विश्वेदेवास आगत शृणुताम इमः हवम्, एदं बर्हिर्निषीदत' ( यजु० ७।३४ ) इस मन्त्र के द्वारा विश्वेदेवों का आवाहन करके आसन पर जौ छोड़े तथा 'विश्वेदेवाः शृणुतेम हवं मे ये अन्तरिक्षे य उपद्यविष्ठ। ये अग्निजिह्वा उत वा यजत्रा आसद्यास्मिन् बर्हिषि मादयध्वम् ॥' (यजु० ३३।५३ ) - इस मन्त्र का जप करे। तत्पश्चात् पितृकर्म में नियुक्त ब्राह्मणों से पूछे –'मैं पितरों का आवाहन करूँगा।' ब्राह्मण कहें- 'आवाहन करो।' तब 'उशन्तस्त्वा०'*  इस मन्त्र का पाठ करते हुए आवाहन करे। फिर 'अपहता असुरा रक्षासि वेदिषदः ॥' (यजु० २ । २९ ) - इस मन्त्र से तिल बिखेरकर 'आयन्तु नः ०' * इत्यादि मन्त्र का जप करे। इसके बाद पवित्रक सहित अर्घ्यपात्र में शं नो देवी०' *  इस मन्त्र से जल डाले ॥ ६-१० ॥

*१. श्राद्ध आरम्भ करने से पूर्व रक्षा-दीप जला लेना चाहिये।

*२. ॐ उशन्तस्त्वा निधीमह्युशन्तः समिधीमहि उशत्रुरात आवह पितॄन हविषे अतवे (यजु० १९ । ७०)

*३. ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः । अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधिब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्यान् ॥ (यजु० १९।५८)

*४. ॐ शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शैय्योरभिवन्तु नः ॥ (अथर्व० १।६।१)

यवोऽसीति यवान् दत्वा पित्रे सर्वत्र वै तिलान् ।

तिलोऽसि सोमदेवत्यो गोसवो देवनिर्मितः ।

प्रत्नमद्भिः पृक्तः स्वधया पितॄन् लोकान् प्रीणाहि नः स्वधा । इति

श्रीश्च तेति ददेत्पुष्पं पात्रे हैमेऽथ राजते ॥११॥

औदुम्वरे वा खड्गे वा पर्णपात्रे प्रदक्षिणम् ।

देवानामपसव्यं तु पितॄणां सव्यमाचरेत् ॥१२॥

एकैकस्य एकैकेन सपवित्रकरेषु च ।

तदनन्तर 'यवोऽसि' * इस मन्त्र से जौ देकर पितरों के निमित्त सर्वत्र तिल का उपयोग करे । (पितरों के अर्घ्यपात्र में भी 'शं नो देवी०' इस मन्त्र से जल डालकर) 'तिलोऽसि सोमदेवत्यो गोसवे देवनिर्मितः । प्रलवद्भिः प्रत्तः स्वधया पितृल्लोकान् पृणीहि नः स्वधा ।' यह मन्त्र पढ़कर तिल डाले। फिर श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पल्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्तम्। इष्णनिषाणामुं म इषाण सर्वलोकं म इषाण ॥' (यजु० ३१ । २२ ) इस मन्त्र से अर्घ्यपात्र में फूल छोड़े। अर्घ्यपात्र सोना, चाँदी, गूलर अथवा पत्ते का होना चाहिये। उसी में देवताओं के लिये सव्यभाव से और पितरों के लिये अपसव्यभाव से उक्त वस्तुएँ रखनी चाहिये। एक एक को एक-एक अर्घ्यपात्र पृथक् पृथक् देना उचित है। पितरों के हाथों में पहले पवित्री रखकर ही उन्हें अर्घ्य देना चाहिये ॥ ११ – १२अ ॥

*  ॐ यवोऽसि यवयास्मद्वेषो यवयाराती (यजु० ५।२६)

या दिव्या आपः पयसा सम्बभूवुर्या अन्तरिक्षा उतपार्थिवीर्याः।

हिरण्यवर्णा यज्ञियास्ता न आपः शिवाः संश्योनाः सुहवा भवन्तु ॥

विश्वे देवा एष वोऽर्घः स्वाहा च पितरेष ते ॥१३॥

अवधैवं पितामहदेः संस्रवात्प्रथमे चरेत् ।

पितृभ्यः स्थानमसीति न्युब्जं पात्रं करोत्यधः ॥१४॥

अत्र गन्धपुष्पधूपदीपाच्छादनदानकं ।

तत्पश्चात् (देवताओं के अर्घ्यपात्र को बायें हाथ में लेकर उसमें रखी हुई पवित्री को दाहिने हाथ से निकालकर देव भोजन-पात्र पर पूर्वाग्र करके रख दे। उसके ऊपर दूसरा जल देकर अर्घ्यपात्र को ढककर) निम्नाङ्कित मन्त्र पढ़े- 'ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूवुर्या अन्तरिक्षा उत पार्थिवीर्याः । हिरण्यवर्णा यज्ञियास्ता न आपः शिवाः श स्योनाः सुहवा भवन्तु ॥' फिर (जौ, कुश और जल हाथ में लेकर संकल्प अमुकामुकशर्मणाम् पढ़े- ) ॐ अद्यामुकगोत्राणां पितृपितामह- प्रपितामहानाम् अमुक श्राद्धसम्बन्धिनो विश्वेदेवाः एष वो हस्तार्घ्यः स्वाहा।'- यों कहकर देवताओं को अर्घ्य देकर पात्र को दक्षिण भाग में सीधे रख दे। इसी प्रकार पिता आदि के लिये भी अर्घ्य दे उसका संकल्प इस प्रकार है- 'ओमद्य अमुकगोत्र पितः अमुकशर्मन् अमुक श्राद्धे एष हस्तार्घ्यः ते स्वधा ।' इसी तरह पितामह आदि को भी दे। फिर सब अर्घ्य का अवशेष पहले पात्र में डाल दे अर्थात् प्रपितामह के अर्घ्य में जो जल आदि हो, उसे पितामह के पात्र में डाल दे। इसके बाद वह सब पिता के अर्घ्यपात्र में रख दे। पिता के अर्घ्यपात्र को पितामह के अर्घ्यपात्र के ऊपर रखे। फिर उन दोनों को प्रपितामह के अर्घ्यपात्र के ऊपर रख दे। तत्पश्चात् तीनों को पिता के आसन के वामभाग में 'पितृभ्यः स्थानमसि ।' ऐसा कहकर उलट दे । तदनन्तर वहाँ देवताओं और पितरों के लिये गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा वस्त्र आदि का दान किया जाता है । १३ – १४अ ॥

घृताक्तमन्नमुद्धृत्य पृच्छत्यग्नौ करिष्ये च ॥१५॥

कुरुष्वेत्यभ्यनुज्ञातो जुहुयात्साग्निकोऽनले ।

अनग्निकः पितृहस्ते सपवित्रे तु मन्त्रतः ॥१६॥

अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहेति प्रथमाहुतिः ।

सोमाय पितृमतेऽथ यमायाङ्गिरसे परे ॥१७॥

हुतशेषं चान्नपात्रे दत्वा पात्रं समालभेत् ।

पृथिवी ते पात्रन्द्यौः पिधानं ब्राह्मणस्य मुखे अमृते अमृतं जुहोमि स्वाहेति ।

जप्त्वेदं विष्णुरित्यन्ने द्विजाङ्गुष्ठन्निवेशयेत् ॥१८॥

अपहतेति च तिलान् विकीर्यान्नं प्रदाययेत् ।

जुषध्वमिति चोक्त्वाथ गायत्र्यादि ततो जपेत् ॥१९॥

उसके बाद श्राद्धकर्ता पुरुष पात्र में से घृतयुक्त अन्न निकालकर ब्राह्मणों से पूछे -'मैं अग्नि में इस अन्न का हवन करूँगा।' ब्राह्मण आज्ञा दें- 'करो'। तब साग्निक पुरुष तो अग्नि में हवन करे और निरग्निक पुरुष पवित्रीयुक्त पितर के हाथ (अथवा जल) - में मन्त्र से आहुति दे। पहली आहुति 'अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा।' (यजु० २।२९) कहकर दे। दूसरी आहुति 'सोमाय पितृमते स्वाहा।' (यजु० २।२९) इस मन्त्र से दे। दूसरे विद्वानों का मत है कि 'यम' एवं 'अङ्गिरा' के उद्देश्य से आहुति दें* हवन से शेष बचे हुए अन्न से क्रमशः देवताओं और पितरों के पात्रों में परोसे और पात्र को हाथ से ढक दे। उस समय निम्नाङ्कित मन्त्र का जप करे ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखेऽमृतेऽमृतं जुहोमि स्वाहा। इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् समूढमस्य पासुरे स्वाहा ॥ कृष्ण हव्यमिदं रक्ष मदीयम्।' (यजु० ५।१५) ऐसा पढ़कर अन्त में ब्राह्मण के अँगूठे का स्पर्श करावे। (देवपात्रों पर 'यवोऽसि यवयास्मद्- द्वेषो यवयारातीः।' इस मन्त्र से जौ छींटे) और पितरों के पात्रों पर अपहता असुरा रक्षासि वेदिषदः।' इस मन्त्र से तिल छींटकर संकल्पपूर्वक अन्न अर्पण करे। तदनन्तर 'जुषध्वम्।' (आपलोग अन्न ग्रहण करें) ऐसा कहकर गायत्री मन्त्र आदि का जप करे ॥ १५ - १९ ॥

*यदि दूसरे की भूमि में श्राद्ध करते हों तो थोड़ा अन्न और जल कुशा पर अपसव्यभाव से रखकर कहें- इदमन्त्रमेतद्भूस्वामिपितृभ्यो नमः ।

देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च ।

नमः स्वधायै स्वाहयै नित्यमेव नमो नमः ॥२०॥

तृप्तान् ज्ञात्वान्नं विकिरेदपो दद्यात्सकृत्सकृत् ।

गायत्रीं पूर्ववज्जप्त्वा मधु मध्विति वै जपेत् ॥२१॥

तृप्ताः स्थ इति सम्पृच्छेत्तृप्ताः स्म इति वै वदेत् ।

शेषमन्नमनुज्ञाप्य सर्वमन्नमथैकतः ॥२२॥

उद्धृत्योच्छिष्टपार्श्वे तु कृत्वा चैवावनेजनं ।

दद्यात्कुशेषु त्रीन् पिण्डानाचान्तेषु परे जगुः ॥२३॥

आचान्तेषूदकं पुष्पाण्यक्षतानि प्रदापयेत् ।

देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः ॥* इस मन्त्र का भी जप करे। पितरों को तृप्त जानकर पात्र में अन्न बिखेरे। फिर एक-एक बार सबको जल दे। पूर्ववत् सव्यभाव से गायत्री जप करके 'मधु वाता"* इस ऋचा का जप करे।* इसके बाद ब्राह्मणों से पूछे - आपलोग तृप्त हो गये ?' ब्राह्मण कहें - 'हाँ, हम तृप्त हो गये।' तदनन्तर शेष अन्न को ब्राह्मणों की आज्ञा लेकर एक में मिला दे और पिण्ड बनाने के लिये पात्र से बाहर निकाले और पितरों के उच्छिष्ट अन्न के पास ही अवनेजन करके कुशों पर संकल्पपूर्वक तीन पिण्डदान करे।* दूसरों का मत है कि ब्राह्मण जब भोजन के पश्चात् हाथ-मुँह धोकर आचमन कर लें, तब पिण्डदान देना चाहिये। आचमन के पश्चात् जल, फूल और अक्षत दे ॥ २० – २३अ ॥

* १. देवताओं, पितरों, महायोगियों, स्वधा और स्वाहा को मेरा सर्वदा नमस्कार है, नमस्कार है।

* २. यह मन्त्र तीन ऋचाओं में है। पूरा मन्त्र इस प्रकार है-ॐ मधु वाता स्वायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीर्गः सन्त्वोषधीः ॥ १ ॥ ॐ मधु नक्तमुतोवसो मधुमत् पार्थिवः रजः । मधु द्यौरस्तु नः पिता ॥ २ ॥ ॐ मधुमानो वनस्पतिर्मधुमऽस्तु सूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तु [नः ॥ ३ ॥ यजु० १३ । २७ २९) ॐ मधु मधु मधु ॥

* ३. उक्त ऋचा के अतिरिक्त भी 'उदीरतामवर' (यजु० १९४९) इत्यादि पितृमन्त्रों का ॐ कृणुष्व पाजः० (यजु० १३ । ९) इत्यादि रक्षोघ्न-मन्त्रों का, 'सहस्रशीर्षा : ०' (यजु० ३१) इत्यादि पुरुषसूक्त का तथा 'ॐ आशुः शिशानः०' (यजु० १७।३३ ) इत्यादि मन्त्रों का एवं शतरुद्रिय का पाठ भी किया जाता है।

'नमस्तुभ्यं विरूपाक्ष नमस्तेऽनेकचक्षुषे नमः पिनाकहस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः ॥' इस श्लोक को भी पढ़ना चाहिये।

* ४. इसके पहले कुछ दूर पर दक्षिणाग्र कुश बिछाकर भूमि को सींच दे और तिल घृतसहित अन्न एवं जल लेकर- ॐ अग्निदग्धाश्च ये जीवा येऽप्यदग्धाः कुले मम । भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु तृप्ता यान्तु परां गतिम्॥"

यह पढ़कर पूर्वोक्त कुशों पर वह अन्न जल बिखेर दे। तदनन्तर आचमन करके भगवान्‌ का स्मरण कर तीन बार गायत्री मन्त्र का जप करे। इसके बाद अपसव्यभाव से बालू की चौकोर वेदी बनाकर उसके ऊपर कुश के मूल से प्रादेशमात्र तीन रेखा खींचे उस समय 'ॐ अपहता' इत्यादि मन्त्र पढ़े फिर रेखा के चारों ओर उल्मुक से अङ्गार-भ्रमण करावे। इसका मन्त्र इस प्रकार है - ॐ ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति परापुरो निपुरो ये भरन्त्यग्निष्टाँलोकात्प्रणुदात्यस्मात् ॥' (यजु० २। ३०) तत्पश्चात् रेखा पर तीन कुश बिछाकर सव्यभाव से गायत्री जप करके फिर अपसव्यभाव से दोने में जल, तिल, गन्ध-पुष्प लेकर ॐ अद्यामुकगोत्र पितः अमुकशर्मन् अमुक श्राद्धे पिण्डस्थानेऽप्रावनिश्व ते स्वधा' ऐसा कहकर कुश पर जल गिरावे। यह 'अवनेजन' है। पिण्ड देने के बाद पिण्ड के ऊपर । पात्र से जल गिराकर उसी प्रकार संकल्प पढ़कर प्रत्यवनेजन किया जाता है। उसमें 'प्रत्यवनेनिक्ष्य' कहना चाहिये। पिण्डदान का संकल्प इस प्रकार है-ओमधामुकगोत्र पितः अमुकशर्मन् अमुकश्राद्धे एप पिण्डस्ते स्वधा।' इसी प्रकार पितामह आदि को भी देना चाहिये। पिण्डदान के अनन्तर पिण्ड के आधारभूत कुशों में अपने हाथ पोंछकर कहे ॐ लेपभागभुजः पितरस्तृप्यन्तु ।' फिर सव्यभाव से तीन बार आचमन करके श्रीहरि का स्मरण करे। तदनन्तर अपसव्यभाव से दक्षिण की ओर मुँह करके कहे अत्र पितरो मादयध्वं यथाभागमा वृषायध्वम्।' (यजु० २।३१) फिर वामावर्त से उत्तर की ओर मुँहकर श्वास रोककर प्रसन्नचित्त हो प्रकाशमान मूर्तिवाले पितरों का ध्यान करते हुए फिर उसी मार्ग से लौटकर दक्षिणाभिमुख हो जाय और कहे अमीमदन्त पितरो यथाभागमावृषायिषत' (यजु० २।३१) इसके बाद पहले के अवनेजनपात्र में जो शेष जल हो, उसे पिण्ड पर गिराकर प्रत्यवनेजन दें। उसका संकल्प अवनेजन की ही भाँति है। 'अवनेनिक्ष्य'को 'प्रत्यवनेनिक्ष्य' कहना चाहिये। बहुवचन में 'प्रत्यवनेनिग्ध्यम्' का उच्चारण करना उचित है।

अक्षय्योदकमेवाथ आशिषः प्रार्थयेन्नरः ॥२४॥

अघोराः पितरः सन्तु गोत्रन्नो वर्धतां सदा ।

दातारो नोऽभिवर्धन्तां वेदाः सन्ततिरेव च ॥२५॥

श्रद्धा च नो माव्यगमद्बहुदेयं च नोऽस्त्विति ।

अन्नञ्च नो बहु भवेदतिथींश्च लभेमहि ॥२६॥

याचितारश्च नः सन्तु मा च याचिस्म कञ्चन ।

स्वधावाचनीयान् कुशानास्तीर्य सपवित्रकान् ॥२७॥

स्वधां वाचयिष्ये पृच्छेदनुज्ञातश्च वाच्यतां ।

पितृभ्यः पितामहेभ्यः प्रपितामहमुख्यके ॥२८॥

स्वधोच्यतामस्तु स्वधा उच्यमानस्तथैव च ।

अपो निषिञ्चेदुत्तानं पात्रं कृत्वाथ दक्षिणां ॥२९॥

यथाशक्ति प्रदद्याच्च दैवे पैत्रेऽथ वाचयेत् ।

विश्वे देवाः प्रीयन्ताञ्च वाजे विसर्जयेत् ॥३०॥

फिर अक्षय्योदक देकर मनुष्य आशीर्वाद की प्रार्थना करे*'ॐ अघोराः पितरः सन्तु ।' (मेरे पितर सौम्य हों।) ऐसा कहकर जल गिरावे, फिर प्रार्थना करे 'हमारा गोत्र सदा ही बढ़ता रहे, हमारे दाता भी निरन्तर अभ्युदयशील हों, वेदों की पठन-पाठन प्रणाली बढ़े। संतानों की भी वृद्धि हो। हमारी श्रद्धा में कमी न आवे हमारे पास देने योग्य बहुत सामान संचित रहे; हमारे यहाँ अन्न भी अधिक हो। हम अतिथियों को प्राप्त करते रहें अर्थात् हमारे घर पर अतिथियों का शुभागमन होता रहे। हमारे पास माँगनेवाले आवें, किंतु हम किसी से न माँगें।' फिर स्वधा- वाचन के लिये पिण्डों पर पवित्रक सहित कुश बिछावे और ब्राह्मणों से पूछे–'मैं स्वधा वाचन कराऊँगा।' ब्राह्मण आज्ञा दें- 'स्वधा वाचन कराओ। तब श्राद्धकर्ता पुरुष इस प्रकार कहे-

'ब्राह्मणो! आप लोग मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह के लिये स्वधा वाचन करें।' ब्राह्मण कहें- 'अस्तु स्वधा ।' तदनन्तर 'ऊर्ज वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिस्त्रुतम् स्वधा स्थ तर्पयत मे पितॄन्' (यजु० २ । ३४ ) - इस मन्त्र से कुशों पर दुग्ध-मिश्रित जल की दक्षिणाग्रधारा* गिरावे, फिर (सव्य होकर देवार्घ्यपात्र को हिला दे और पितरों के) अर्घ्यपात्र को उत्तान करके देवश्राद्ध तथा पितृश्राद्ध की प्रतिष्ठा के लिये यथाशक्ति क्रमशः सुवर्ण और रजत की दक्षिणा दे।* इसके बाद 'विश्वेदेवाः प्रीयन्ताम् ।' ऐसा कहकर देवताओं का विसर्जन करे और 'वाजेवाजेऽबत वाजिनो नो धनेषु विप्रा अमृता ऋतज्ञाः। अस्य मध्वः पिवत मादयध्वं तृप्ता यात पथिभिर्देवयानैः ॥' (यजु० २१ । ११ ) - इस मन्त्र से पिता आदि का विसर्जन करे ॥ २४-३० ॥

* १. प्रत्यवनेजन के बाद नीवी-विशंसन करके सव्यभाव से आचमन करे। फिर अपसव्य हो बायें हाथ से दाहिने हाथ में सूत्र लेकर 'ॐ नमो वः पितरो रसाय नमो वः पितरः शोषाय नमो वः पितरो जीवाय नमो वः पितरः स्वधायै नमो वः पितरो घोराय नमो वः पितरो मन्यवे नमो वः पितरः पितरो नमो वो गृहात्रः पितरो दत्तसतो वः पितरो देष्म' (यजु० २।३२) - इस मन्त्र का पाठ करके 'एतद् वः पितरो वास:" (यजु० २।३२) - ऐसा कहते हुए छहों पिण्डों पर सूत्र रखकर संकल्प करे- 'अद्यामुकगोत्र पितः (पितामह प्रपितामह आदि) अमुकशर्मन् अमुक श्राद्धे पिण्डे एतत्ते वासः स्वधा' तत्पश्चात् 'ॐ शिवा आपः सन्तु ।' कहकर जल, ॐ सौमनस्यम् अस्तु ।' इस वाक्य का उच्चारण करके फूल, ॐ अक्षतं चारिष्टमस्तु।' कहकर अक्षत अपात्रों पर डाले फिर मोटक, तिल और जल लेकर ॐ अद्यामुकगोत्रस्य पितुः अमुकशर्मणः अमुक श्राद्धे दत्तान्येतान्यन्नपानादिकानि अक्षय्याणि सन्तु।' इस प्रकार संकल्प पढ़कर छोड़ दे। तत्पश्चात् सव्य हो दक्षिण दिशा की ओर देखते हुए पिण्डों के ऊपर पूर्वाग्र जलधारा गिराये और पढ़े- ॐ अघोराः पितरः सन्तु ।' इसके हाथ जोड़ पूर्वाभिमुख हो मूल में कहे अनुसार आशी:- प्रार्थना करे।

* २. इसके बाद स्वयं झुककर सब पिण्डों को नाक से सूंघ ले और उठा दे। पिण्डों के आधारभूत कुशों को तथा उल्मुक (जिससे अङ्गार-भ्रमण कराया गया था) को अग्नि में डाल दे।

*३. दक्षिणा का संकल्प इस प्रकार है- त्रिकुशा, जौ और जल हाथ में लेकर ॐ अद्यामुकगोत्राणां पितृपितामहप्रपितामहानाम् (मातामहप्रमातामहवृद्धप्रमातामहानां च ) अमुकामुकशर्मणाम् अमुक श्राद्धसम्बन्धिनां विश्वेषां देवानां कृतैतदमुकश्राद्धप्रतिष्ठार्थं हिरण्यमग्निदैवत्यं तन्मूल्योपकल्पितं द्रव्यं वा यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणात्वेन दातुमहमुत्सृजे' तुरंत दिया जाता हो तो 'सम्प्रददे' कहना चाहिये । मोटक, तिल, जल लेकर 'ओमद्यामुकगोत्रस्य पितुः अमुकशर्मणः कृतैतच्छ्राद्धप्रतिष्ठायं रजतं चन्द्रदैवत्यं तन्मूल्योपकल्पितं द्रव्यं यथानाम' इत्यादि कहकर पिता आदि के लिये दक्षिणा दें।

आमावाजस्येत्यनुव्रज्य कृत्वा विप्रान् प्रदक्षिणं ।

गृहे विशेदमावास्यां मासि मासि चरेत्तथा ॥३१॥

(तत्पश्चात् सव्यभाव से 'देवताभ्यश्च०' इत्यादि पढ़कर भगवान्‌ का स्मरण करे। फिर अपसव्यभाव से रक्षादीप को बुझा दे। उसके बाद सव्यभाव से भगवान् से प्रार्थना करे- ' प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत् । स्मरणादेव तद् विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः ॥ यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु । न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम् ॥' इत्यादि) तदनन्तर 'आ मा वाजस्य०' (यजु० ९ । १९) इत्यादि मन्त्र पढ़कर ब्राह्मण के पीछे-पीछे जाय और ब्राह्मण की परिक्रमा करके अपने घर में जाय । प्रत्येक मास की अमावस्या को इसी प्रकार पार्वण श्राद्ध करना चाहिये ॥ ३१ ॥

एकोद्दिष्टं प्रवक्ष्यामि श्राद्धं पूर्ववदाचरेत् ।

एकं पवित्रमेकार्धं एकं पिण्डम्प्रदापयेत् ॥३२॥

नावाहनाग्नौकरणं विश्वे देवा न चात्र हि ।

तृप्तिप्रश्ने स्वदितमिति वदेत्सुखदितं द्विजः ॥३३॥

उपतिष्ठतामित्यक्षय्ये विसर्गे चाभिरम्यतां ।

अभिरताः स्म इत्यपरे शेषं पूर्ववदाचरेत् ॥३४॥

अब मैं एकोद्दिष्ट श्राद्ध का वर्णन करूंगा। यह श्राद्ध पूर्ववत् ही करे। इसमें इतनी ही विशेषता है कि एक ही पवित्रक, एक ही अर्घ्य और एक ही पिण्ड देना चाहिये। इसमें आवाहन, अग्निकरण और विश्वेदेव पूजन नहीं होता। जहाँ तृप्ति पूछनी हो, वहाँ 'स्वदितम् ?' ऐसा प्रश्न करे। ब्राह्मण उत्तर दे - 'सुस्वदितम्।','उपतिष्ठताम्'कहकर अर्पण करे। अक्षय्योदक भी दे। विसर्जन के समय 'अभिरम्यताम्' का उच्चारण करे। ब्राह्मण कहें 'अभिरताः स्मः ।' शेष सभी बातें पूर्ववत् करनी चाहिये ॥ ३२-३४ ॥

सपिण्डीकरणं वक्ष्ये अब्दान्ते मध्यतोऽपि वा ।

पितॄणां त्रीणि पात्राणि एकम्प्रेतस्य पात्रकं ॥३५॥

सपवित्राणि चत्वारि तिलपुष्पयुतानि च ।

गन्धोदकेन युक्तानि पूरयित्वाभिषिञ्चति ॥३६॥

प्रेतपात्रं पितृपात्रे ये समना इति द्वयात् ।

पूर्ववत्पिण्डदानादि प्रेतानां पितृता भवेत् ॥३७॥

अब सपिण्डीकरण का वर्णन करूँगा। यह वर्ष के अन्त में और मध्य में भी होता है। इसमें पितरों के लिये तीन पात्र होते हैं और प्रेत के लिये एक पात्र अलग होता है। चारों अर्घ्यपात्रों में पवित्री. तिल, फूल, चन्दन और जल डालकर भर दिया जाता है। फिर उन्हीं से श्राद्धकर्ता पुरुष अर्घ्य देता है। 'ये समानाः ०' (यजु० १९ । ४५-४६ ) इत्यादि दो मन्त्रों से प्रेत के अर्घ्यपात्र को क्रमशः तीनों पितरों के अर्घ्यपात्र में मिलाया जाता है। इसी प्रकार पिण्डदान, दान आदि पूर्ववत् करके प्रेत के पिण्ड को पितरों के पिण्ड में मिलाया जाता है। इससे प्रेत को 'पितृ' पदवी प्राप्त होती है ॥ ३५ - ३७ ॥

अथाभ्युदयिकं श्राद्धं वक्ष्ये सर्वं तु पूर्ववत् ।

जपेत्पितृमन्त्रवर्जं पूर्वाह्णे तत्प्रदक्षिणं ॥३८॥

उपचारा ऋजुकुशास्तिलार्थैश्च यवैरिह ।

तृप्तिप्रश्नस्तु सम्पन्नं सुसम्पन्नं वदेद्द्विजः ॥३९॥

दध्यक्षतवदराद्याः पिण्डा नान्दीमुखान् पितॄन् ।

आवाहयिष्ये पृच्छेच्च प्रीयन्तामिति चाक्षये ॥४०॥

नान्दीमुखाश्च पितरो वाचयिष्येऽथ पृच्छति ।

नान्दीमुखान् पितृगणान् प्रीयन्तामित्यथो वदेत् ॥४१॥

नान्दीमुखाश्च पितरस्तत्पिता प्रपितामहः ।

मातामहः प्रमातामहो वृद्धप्रमातृकामहः ॥४२॥

अब 'आभ्युदयिक' श्राद्ध बतलाता हूँ। इसकी सब विधि पूर्ववत् है। इसमें पितृसम्बन्धी मन्त्र के अतिरिक्त अन्य मन्त्रों का जप करना चाहिये। पूर्वाह्नकाल में आभ्युदयिक श्राद्ध और उसकी प्रदक्षिणा करनी चाहिये। इसमें कोमल कुश ही उपचार है। यहाँ तिल के स्थान पर जौ का ही उपयोग होता है। ब्राह्मणों से पितरों की तृप्ति के लिये प्रश्न करते समय 'सम्पन्नम् ?' का प्रयोग करना चाहिये। ब्राह्मण उत्तर दे 'सुसम्पन्नम् ' इसमें दही, अक्षत और बेर आदि के ही पिण्ड होते हैं। आवाहन के समय पूछे –'मैं 'नान्दीमुख' नामवाले पितरों का आवाहन करूँगा।' इसी प्रकार अक्षय्य-तृप्ति के लिये 'प्रीयताम्' ऐसा कहे। फिर पूछे 'मैं नान्दीमुख पितरों का तृप्ति वाचन कराऊँगा।' ब्राह्मणों की आज्ञा लेकर कहे- 'नान्दीमुखाः पितरः प्रीयन्ताम् ।' (नान्दीमुख पितर तृप्त एवं प्रसन्न हों।) (माता, पितामही, प्रपितामही) पिता, पितामह प्रपितामह और (सपत्नीक) मातामह, प्रमातामह तथा वृद्धप्रमातामह ये नान्दीमुख पितर हैं ॥ ३८-४२ ॥

स्वधाकारन्न युञ्जीत युग्मान् विप्रांश्च भोजयेत् ।

तृप्तिं वक्ष्ये पितॄणां च ग्राम्यैरोषधिभिस्तथा ॥४३॥

मासन्तृप्तिस्तथारण्यैः कन्दमूलफलादिभिः ।

मत्स्यैर्मासद्वयं मार्गैस्त्रयं वै शाकुनेन च ॥४४॥

चतुरो रौरवेणाथ पञ्च षट्छागलेन तु ।

कूर्मेण सप्त चाष्टौ च वाराहेण नवैव तु ॥४५॥

मेषमांसेन दश च माहिषैः पार्षतैः शिवैः ।

संवत्सरन्तु गव्येन पयसा पायसेन वा ॥४६॥

वार्धीनसस्य मांसेन तृप्तिर्द्वादशवार्षिकी ।

खड्गमांसं कालशाकं लोहितच्छागलो मधु ॥४७॥

महाशल्काश्च वर्षासु मघाश्राद्धमथाक्षयं ।

मन्त्राध्याय्यग्निहोत्री च शाखाध्यायी षडङ्गवित् ॥४८॥

तृणाचिकेतः त्रिमधुर्धर्मद्रोणस्य पाठकः ।

त्रिषुपर्णज्येष्ठसामज्ञानी स्युः पङ्क्तिपावनाः ॥४९॥

आभ्युदयिक श्राद्ध में 'स्वधा' का प्रयोग न करे और युग्म ब्राह्मणों को भोजन करावे। अब मैं पितरों की तृप्ति बतलाता हूँ। ग्राम्य अन्न से तथा जंगली कन्द, मूल, फल आदि से एक मास तक पितरों की तृप्ति बनी रहती है और गाय के दूध एवं खीर से एक वर्ष तक पितरों की तृप्ति रहती है तथा वर्षा ऋतु में त्रयोदशी को विशेषतः मघा नक्षत्र में किया हुआ श्राद्ध अक्षय होता है।* मन्त्र का पाठ करनेवाला, अग्निहोत्री, शाखा का अध्ययन करने- वाला, छहों अङ्ग का विद्वान्, त्रिणाचिकेत*, त्रिमधु*, धर्मद्रोण* का पाठ करनेवाला, त्रिसुपर्ण* तथा बृहत् साम का ज्ञाता ये ब्राह्मण पंक्तिपावन (पंक्ति को पवित्र करनेवाले) माने गये हैं ।॥ ४३-४९ ॥

*१. कुछ लोग श्राद्ध में मांस का भी विधान मानते हैं, परंतु श्राद्धकर्म में मांस कितना निन्दनीय है, यह श्रीमद्भागवत, सक्षम स्कन्ध, अध्याय १५ के इन श्लोकों से स्पष्ट हो जाता है-

न दद्यादामिषं श्राद्धेन चाद्याद्धर्मतत्त्ववित् । मुन्यन्नैः स्यात्परा प्रीतिर्यथा न पशुहिंसया ॥ नैतादृशः परो धर्मों नृणां सद्धर्ममिच्छताम् । न्यासो दण्डस्य भूतेषु मनोवाक्कायजस्य यः ॥ द्रव्ययज्ञैर्यक्ष्यमाणं दृष्ट्वा भूतानि विध्यति । एष माकरुणी हन्यादती सुध्रुवम् ॥(७-८, १०)

" धर्म के मर्म को समझनेवाला पुरुष श्राद्ध में (खाने के लिये) मांस न दे और न स्वयं ही खाय; क्योंकि पितृगण की तृप्ति जैसी मुनिजनोचित आहार से होती है, वैसी पशुहिंसा से नहीं होती। सद्धर्म की इच्छावाले पुरुषो के लिये 'सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति मन, वाणी और शरीर से दण्ड का त्याग कर देना' – इसके समान और कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है। पुरुष को द्रव्ययज्ञ से यजन करते देखकर जीव डरते हैं कि 'यह अपने ही प्राणों का पोषण करनेवाला निर्दय अज्ञानी मुझे अवश्य मार डालेगा।" अतएव श्राद्धकर्म में मांस का उपयोग कभी नहीं करना चाहिये।

*२. द्वितीय कठ के अन्तर्गत 'अयं वाव यः पवते' इत्यादि 'त्रिणाचिकेत' नामक तीन अनुवाकाँ को पढ़ने या उसका अनुष्ठान करनेवाला ।

*३. मधुवाता०' इत्यादि तीन ऋचाओं का अध्ययन और मधुव्रत का आचरण करनेवाला।

*४. धर्मव्याधा दशार्णेषु' इत्यादि प्रसंग का नाम यहाँ धर्मद्रोण' कहा गया है।

*५. 'ब्रह्म मेतु माम्' इत्यादि तीन अनुवाकों का अध्ययन और तत्सम्बन्धी व्रत करनेवाला।

कम्यानां कल्पमाख्यास्ये प्रतिपत्सु धनं बहु ।

स्त्रियः परा द्वितीयायाञ्चतुर्थ्यां धर्मकामदः ॥५०॥

पञ्चम्यां पुत्रकामस्तु षष्ठ्याञ्च श्रैष्ठ्यभागपि ।

कृषिभागी च सप्तम्यामष्टम्यामर्थलाभकः ॥५१॥

नवम्याञ्च एकशफा दशम्याङ्गोगणो भवेत् ।

एकदश्यां परीवारो द्वादश्यान्धनधान्यकं ॥५२॥

ज्ञातिश्रेष्ठ्यं त्रयोदश्यां चतुर्दश्याञ्च शस्त्रतः ।

मृतानां श्राद्धं सर्वाप्तममावास्यां समीरितं ॥५३॥

अब काम्य श्राद्धकल्प का वर्णन करूँगा। प्रतिपदा को श्राद्ध करने से बहुत धन प्राप्त होता है। द्वितीया को श्राद्ध करने से श्रेष्ठ स्त्री मिलती है। चतुर्थी को किया हुआ श्राद्ध धर्म और काम को देनेवाला है। पुत्र की इच्छावाला पुरुष पञ्चमी को श्राद्ध करे। षष्ठी के श्राद्ध से मनुष्य श्रेष्ठ होता है। सप्तमी के श्राद्ध से खेती में लाभ होता और अष्टमी के श्राद्ध से अर्थ की प्राप्ति होती है। नवमी को श्राद्ध का अनुष्ठान करने से एक खुरवाले घोड़े आदि पशु प्राप्त होते हैं। दशमी के श्राद्ध से गो समुदाय की उपलब्धि होती है। एकादशी के श्राद्ध से परिवार और द्वादशी के श्राद्ध से धन-धान्य बढ़ता है। त्रयोदशी को श्राद्ध करने से अपनी जाति में श्रेष्ठता प्राप्त होती है। चतुर्दशी को उसी का श्राद्ध किया जाता है, जिसका शस्त्र द्वारा वध हुआ है। अमावास्या को सम्पूर्ण मृत व्यक्तियों के लिये श्राद्ध करने का विधान है ॥ ५०-५३ ॥

सप्त व्याधा दशारण्ये मृगाः कालञ्जरे गिरौ ।

चक्रवाकाः शरद्वीपे हंसाः सरसि मान्से ॥५४॥

तेऽपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः ।

प्रस्थिता दूरमध्वानं यूयन्तेभ्योऽवसीदत ॥५५॥

श्राद्धादौ पठिते श्राद्धं पूर्णं स्याद्ब्रह्मलोकदं ।

श्राद्धं कुर्याच्च पुत्रादिः पितुर्जीवति तत्पितुः ॥५६॥

तत्पितुस्तत्पितुः कुर्याज्जीवति प्रपितामहे ।

पितुः पितामस्हस्याथ परस्य प्रपितामात् ॥५७॥

एवं मात्रादिकस्यापि तथा मातामहादिके ।

श्राद्धकल्पं पठेद्यस्तु स लभेत्श्राद्धकृत्फलं ॥५८॥

'जो दशार्णदेश के वन में सात व्याध थे, वे कालंजर गिरि पर मृग हुए, शरद्वीप में चक्रवाक हुए तथा मानस सरोवर में हंस हुए। वे ही अब कुरुक्षेत्र में वेदों के पारंगत विद्वान् ब्राह्मण हुए हैं। अब उन्होंने दूरतक का मार्ग तय कर लिया है; तुम लोग उनसे बहुत पीछे रहकर कष्ट पा रहे हो। श्राद्ध आदि के अवसर पर इसका पाठ करने से श्राद्ध पूर्ण एवं ब्रह्मलोक देनेवाला होता है। यदि पितामह जीवित हो तो पुत्र आदि अपने पिता का तथा पितामह के पिता और उनके भी पिता का श्राद्ध करे। यदि प्रपितामह जीवित हो तो पिता, पितामह एवं वृद्धप्रपितामह का श्राद्ध करे। इसी प्रकार माता आदि तथा मातामह आदि के श्राद्ध में भी करना चाहिये। जो इस श्राद्धकल्प का पाठ करता है, उसे श्राद्ध करने का फल मिलता है ॥ ५४-५८ ॥

तीर्थे युगादौ मन्वादौ श्राद्धं दत्तमथाक्षयं ।

अश्वयुच्छुक्लनवमी द्वादशी कर्तिके तथा ॥५९॥

तृतीया चैव माघस्य तथा भाद्रपदस्य च ।

फाल्गुनस्याप्यमावास्या पौषयैकादशी तथा ॥६०॥

आषाढस्यापि दशमी माघमासस्य सप्तमी ।

श्रावणे चाष्टमी कृष्णा तथाषाढे च पूर्णिमा ॥६१॥

कर्तिकी फाल्गुनी तद्वज्ज्यैष्ठे पञ्चदशी सिता ।

स्वायम्भुवाद्या मनवस्तेषामाद्याः किलाक्षयाः ॥६२॥

गया प्रयागो गङ्गा च कुरुक्षेत्रं च नर्मदा ।

श्रीपर्वतः प्रभासश्च शालग्रामो वराणसी ॥६३॥

गोदावरी तेषु श्राद्धं स्त्रीपुरुषोत्तमादिषु ॥६४॥

उत्तम तीर्थ में, युगादि और मन्वादि तिथि में किया हुआ श्राद्ध अक्षय होता है। आश्विन शुक्ला नवमी, कार्तिक की द्वादशी, माघ तथा भाद्रपद की तृतीया, फाल्गुन की अमावास्या, पौष शुक्ला एकादशी, आषाढ़ की दशमी, माघमास की सप्तमी, श्रावण कृष्णपक्ष को अष्टमी, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन तथा ज्येष्ठ की पूर्णिमा ये तिथियाँ स्वायम्भुव आदि मनु से सम्बन्ध रखनेवाली हैं। इनके आदिभाग में किया हुआ श्राद्ध अक्षय होता है। गया, प्रयाग, गङ्गा, कुरुक्षेत्र, नर्मदा, श्रीपर्वत, प्रभास, शालग्रामतीर्थ (गण्ड की), काशी, गोदावरी तथा श्रीपुरुषोत्तमक्षेत्र आदि तीर्थों में श्राद्ध उत्तम होता है ॥ ५९-६४ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे श्राद्धकल्पो नाम सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'श्राद्ध-कल्प का वर्णन' नामक एक सौ सत्रहवां अध्याय पूरा हुआ ॥ ११७ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 118

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