recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

अग्निपुराण अध्याय ११६

अग्निपुराण अध्याय ११६     

अग्निपुराण अध्याय ११६ में गया में श्राद्ध की विधि का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ११६

अग्निपुराणम् षोडशाधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 116     

अग्निपुराण एक सौ सोलहवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ११६                   

अग्निपुराणम् अध्यायः ११६ – गयाश्राद्धविधिः

अथ षोडशाधिकशततमोऽध्यायः

अग्निरुवाच

गायत्र्यैव महानद्यां स्नातः सन्ध्यां समाचरेत् ।

गायत्र्या अग्रतः प्रातः श्राद्धं पिण्डमथाक्षयं ॥१॥

मध्याह्ने चोद्यति स्नात्वा गीतवाद्यैर्ह्युपास्य च ।

सावित्रीपुरतः सन्ध्यां पिण्डदानञ्च तत्पदे ॥२॥

अगस्त्यस्य पदे कुर्याद्योनिद्वारं प्रविश्य च ।

निर्गतो न पुनर्योनिं प्रविशेन्मुच्यते भवात् ॥३॥

बलिं काकशिलायाञ्च कुमारञ्च नमेत्ततः ।

स्वर्गद्वार्यां सोमकुण्डे वायुतीर्थेऽथ पिण्डदः ॥४॥

भवेदाकशगङ्गायां कपिलायाञ्च पिण्डदः ।

कपिलेशं शिवं नत्वा रुक्मिकुण्डे च पिण्डदः ॥५॥

अग्निदेव कहते हैं- गायत्री मन्त्र से ही महानदी में स्नान करके संध्योपासना करे। प्रातःकाल गायत्री के सम्मुख किया हुआ श्राद्ध और पिण्डदान अक्षय होता है। सूर्योदय के समय तथा मध्याह्नकाल में स्नान करके गीत और वाद्य के द्वारा सावित्री देवी की उपासना करे। फिर उन्हीं के सम्मुख संध्या करके नदी के तट पर पिण्डदान करे। तदनन्तर अगस्त्यपद में पिण्डदान करे। फिर 'योनिद्वार' (ब्रह्मयोनि) में प्रवेश करके निकले। इससे वह फिर माता की योनि में नहीं प्रवेश करता, पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है। तत्पश्चात् काकशिला पर बलि देकर कुमार कार्तिकेय को प्रणाम करे। इसके बाद स्वर्गद्वार, सोमकुण्ड और वायु-तीर्थ में पिण्डदान करे। फिर आकाशगङ्गा और कपिला के तट पर पिण्ड दे। वहाँ कपिलेश्वर शिव को प्रणाम करके रुक्मिणीकुण्ड पर पिण्डदान करे ॥१-५॥

कोटीतीर्थे च कोटीशं नत्वामोघपदे नरः ।

गदालोले वानरके गोप्रचारे च पिण्डदः ॥६॥

नत्वा गावं वैतरण्यामेकविंशकुलोद्धृतिः ।

श्राद्धपिण्डप्रदाता स्यात्क्रौञ्चपदे च पिण्डदः ॥७॥

तृतीयायां विशालायां निश्चिरायाञ्च पिण्डदः ।

ऋणमोक्षे पापमोक्षे भस्मकुण्डेऽथ भस्मना ॥८॥

स्नानकृन्मुच्यते पापान्नमेद्देवं जनार्दनम् ।

एष पिण्डो मया दत्तस्तव हस्ते जनार्दन ॥९॥

परलोकगते मह्यमक्ष्यय्यमुपतिष्ठतां ।

गयायां पितृरूपेण स्वयमेव जनार्दनः ॥१०॥

कोटि तीर्थ में भगवान् कोटीश्वर को नमस्कार करके मनुष्य अमोघपद, गदालोल, वानरक एवं गोप्रचार तीर्थ में पिण्डदान दे। वैतरणी में गौ को नमस्कार एवं दान करके मनुष्य अपनी इक्कीस पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। वैतरणी के तट पर श्राद्ध एवं पिण्डदान करे। उसके बाद क्रौञ्चपाद में पिण्ड दे। तृतीया तिथि को विशाला, निश्चिरा, ऋणमोक्ष तथा पापमोक्ष तीर्थ में भी पिण्डदान करे। भस्मकुण्ड में भस्म से स्नान करनेवाला पुरुष पाप से मुक्त हो जाता है। वहाँ भगवान् जनार्दन को प्रणाम करे और इस प्रकार प्रार्थना करे- 'जनार्दन ! यह पिण्ड मैंने आपके हाथ में समर्पित किया है। परलोक में जाने पर यह मुझे अक्षयरूप में प्राप्त हो।' गया में साक्षात् भगवान् विष्णु ही पितृदेव के रूप में विराजमान हैं॥६-१०॥

तं दृष्ट्वा पुण्डरीकाक्षं मुच्यते वै ऋणत्रयात् ।

मार्कण्डेयेश्वरं नत्वा नमेद्गृध्रेश्वरं नरः ॥११॥

मूलक्षेत्रे महेशस्य धारायां पिण्डदो भवेत् ।

गृध्रकूटे गृध्रवटे धौतपादे च पिण्डदः ॥१२॥

पुष्करिण्यां कर्दमाले रामतीर्थे च पिण्डदः ।

प्रभासेशन्नमेत्प्रेतशिलायां पिण्डदो भवेत् ॥१३॥

दिव्यान्तरीक्षभूमिष्ठाः पितरो बान्धवादयः ।

प्रेतादिरूपा मुक्ताः स्युः पिण्डैर्दत्तैर्मयाखिलाः ॥१४॥

स्थानत्रये प्रेतशिला गयाशिरसि पावनी ।

प्रभासे प्रेतकुण्डे च पिण्डदस्तारयेत्कुलम् ॥१५॥

उन भगवान् कमलनयन का दर्शन करके मानव तीनों ऋणों से मुक्त हो जाता है। तदनन्तर मार्कण्डेयेश्वर को प्रणाम करके मनुष्य गृध्रेश्वर को नमस्कार करे। महादेवजी के मूलक्षेत्र धारा में पिण्डदान करना चाहिये। इसी प्रकार गृध्रकूट, गृध्रवट और धौतपाद में भी पिण्डदान करना उचित है। पुष्करिणी, कर्दमाल और रामतीर्थ में पिण्ड दे। फिर प्रभासेश्वर को नमस्कार करके प्रेतशिला पर पिण्डदान दे। उस समय इस प्रकार कहे- 'दिव्यलोक, अन्तरिक्षलोक तथा भूमिलोक में जो मेरे पितर और बान्धव आदि सम्बन्धी प्रेत आदि के रूप में रहते हों, वे सब लोग इन मेरे दिये हुए पिण्डों के प्रभाव से मुक्ति-लाभ करें।' प्रेतशिला तीन स्थानों में अत्यन्त पावन मानी गयी हैगयाशीर्ष, प्रभासतीर्थ और प्रेतकुण्ड । इनमें पिण्डदान करनेवाला पुरुष अपने कुल का उद्धार कर देता है ॥ ११-१५ ॥

वसिष्ठेशन्नमस्कृत्य तदग्रे पिण्डदो भवेत् ।

गयानाभौ सुषुम्णायां महाकोष्ट्याञ्च पिण्डदः ॥१६॥

गदाधराग्रतो मुण्डपृष्ठे देव्याश्च सन्निधौ ।

मुण्दपृष्ठं नमेदादौ क्षेत्रपालादिसंयुतम् ॥१७॥

पूजयित्वा भयं न स्याद्विषरोगादिनाशनम् ।

ब्रह्माणञ्च नमस्कृत्य ब्रह्मलोकं नयेत्कुलम् ॥१८॥

सुभद्रां बलभद्रञ्च प्रपूज्य पुरुषोत्तमम् ।

सर्वकामसमायुक्तः कुलमुद्धृत्य नाकभाक् ॥१९॥

हृषीकेशं नमस्कृत्य तदग्रे पिण्डदो भवेत् ।

माधवं पूजयित्वा च देवो वैमानिको भवेत् ॥२०॥

वसिष्ठेश्वर को नमस्कार करके उनके आगे पिण्डदान दे। गयानाभि, सुषुम्ना तथा महाकोष्ठी में भी पिण्डदान करे। भगवान् गदाधर के सामने मुण्डपृष्ठ पर देवी के समीप पिण्डदान करे। पहले क्षेत्रपाल आदि सहित मुण्डपृष्ठ को नमस्कार कर लेना चाहिये। उनका पूजन करने से भय का नाश होता है, विष और रोग आदि का कुप्रभाव भी दूर हो जाता है। ब्रह्माजी को प्रणाम करने से मनुष्य अपने कुल को ब्रह्मलोक में पहुँचा देता है। सुभद्रा, बलभद्र तथा भगवान् पुरुषोत्तम का पूजन करने से मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त करके अपने कुल का उद्धार कर देता और अन्त में स्वर्गलोक का भागी होता है। भगवान् हृषीकेश को नमस्कार करके उनके आगे पिण्डदान देना चाहिये । श्रीमाधव का पूजन करके मनुष्य विमानचारी देवता होता है ॥ १६- २० ॥

महालक्ष्मीं प्रार्च्य गौरीं मङ्गलाञ्च सरस्वतीम् ।

पितॄनुद्धृत्य स्वर्गस्थो भुक्तभोगोऽत्र शास्त्रधीः ॥२१॥

द्वादशादित्यमभ्यर्य वह्निं रेवन्तमिन्द्रकम् ।

रोगादिमुक्तः स्वर्गी स्याच्छ्रीकपर्दिविनायकम् ॥२२॥

प्रपूज्य कार्त्तिकेयञ्च निर्विघ्नः सिद्धिमाप्नुयात् ।

सोमनाथञ्च कालेशङ्केदारं प्रपितामहम् ॥२३॥

सिद्धेश्वरञ्च रुद्रेशं रामेशं ब्रह्मकेश्वरम् ।

अष्टलिङ्गानि गुह्यानि पूजयित्वा तु सर्वभाक् ॥२४॥

नारायणं वराहञ्च नारसिंहं नमेच्छ्रिये ।

ब्रह्मविष्णुमहेशाख्यं त्रिपुरघ्नमशेषदम् ॥२५॥

भगवती महालक्ष्मी, गौरी तथा मङ्गलमयी सरस्वती की पूजा करके मनुष्य अपने पितरों का उद्धार करता, स्वयं भी स्वर्गलोक में जाता और वहाँ भोग भोगने के पश्चात् इस लोक में आकर शास्त्रों का विचार करनेवाला पण्डित होता है। फिर बारह आदित्यों का, अग्नि का, रेवन्त का और इन्द्र का पूजन करके मनुष्य रोग आदि से छुटकारा पा जाता है और अन्त में स्वर्गलोक का निवासी होता है। 'श्रीकपर्दि विनायक' तथा कार्तिकेय का पूजन करने से मनुष्य को निर्विघ्नतापूर्वक सिद्धि प्राप्त होती है। सोमनाथ, कालेश्वर, केदार, प्रपितामह, सिद्धेश्वर, रुद्रेश्वर, रामेश्वर तथा ब्रह्मकेश्वर - इन आठ गुप्त लिङ्गों का पूजन करने से मनुष्य सब कुछ पा लेता है। यदि लक्ष्मीप्राप्ति की कामना हो तो भगवान् नारायण, वाराह, नरसिंह को नमस्कार करे। ब्रह्मा, विष्णु तथा त्रिपुरनाशक महेश्वर को भी प्रणाम करे। वे सब कामनाओं को देनेवाले हैं ॥ २१ - २५ ॥

सीतां रामञ्च गरुडं वामनं सम्प्रपूज्य च ।

सर्वकामानवाप्नोति ब्रह्मलोकं नयेत्पितॄन् ॥२६॥

देवैः सार्धं सम्प्रपूज्य देवमादिगदाधरम् ।

ऋणत्रयविनिर्मुक्तस्तारयेत्सकलं कुलम् ॥२७॥

देवरूपा शिला पुण्या तस्माद्देवमयी शिला ।

गयायां नहि तत्स्थानं यत्र तीर्थं न विद्यते ॥२८॥

यन्नाम्ना पातयेत्पिण्डं तन्नयेद्ब्रह्म शाश्वतम् ।

फल्ग्वीशं फल्गुचण्डीं च प्रणम्याङ्गारकेश्वरम् ॥२९॥

मतङ्गस्य पदे श्राद्धी भरताश्रमके भवेत् ।

हंसतीर्थे कोटितीर्थे यत्र पाण्डुशिलान्नदः ॥३०॥

तत्र स्यादग्निधारायां मधुस्रवसि पिण्डदः ।

रुद्रेशं किलिकिलेशं नमेद्वृद्धिविनायकम् ॥३१॥

पिण्डदो धेनुकारण्ये पदे धेनोर्नमेच्च गाम् ।

सर्वान् पितॄंस्तारयेच्च सरस्वत्याञ्च पिण्डदः ॥३२॥

सन्ध्यामुपास्य सायाह्ने नमेद्देवीं सरस्वतीम् ।

त्रिसन्ध्याकृद्भवेद्विप्रो वेदवेदाङ्गपारगः ॥३३॥

सीता, राम, गरुड़ तथा वामन का पूजन करने से मानव अपनी सम्पूर्ण कामनाएँ प्राप्त कर लेता है और पितरों को ब्रह्मलोक की प्राप्ति करा देता है। देवताओं सहित भगवान् श्रीआदि गदाधर का पूजन करने से मनुष्य तीनों ऋणों से मुक्त होकर अपने सम्पूर्ण कुल को तार देता है। प्रेतशिला देवरूपा होने से परम पवित्र है। गया में वह शिला देवमयी ही है। गया में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ तीर्थ न हो। गया में जिसके नाम से भी पिण्ड दिया जाता है, उसे वह सनातन ब्रह्म में प्रतिष्ठित कर देता है। फल्ग्वीश्वर, फल्गुचण्डी तथा अङ्गारकेश्वर को प्रणाम करके श्राद्धकर्ता पुरुष मतङ्गमुनि के स्थान में पिण्डदान दे। फिर भरत के आश्रम पर भी पिण्ड दे। इसी प्रकार हंस तीर्थ और कोटि तीर्थ में भी करना चाहिये। जहाँ पाण्डुशिला नद है, वहाँ अग्निधारा तथा मधुस्रवा तीर्थ में पिण्डदान करे। तत्पश्चात् इन्द्रेश्वर किलकिलेश्वर तथा वृद्धि विनायक को प्रणाम करे; तदनन्तर धेनुकारण्य में पिण्डदान करे, धेनुपद में गौ को नमस्कार करे। इससे वह अपने सम्पूर्ण पितरों का उद्धार कर देता है। फिर सरस्वती तीर्थ में जाकर पिण्ड दे। सायंकाल संध्योपासना करके सरस्वती देवी को प्रणाम करे। ऐसा करनेवाला पुरुष तीनों काल की संध्योपासना में तत्पर वेद-वेदाङ्गों का पारंगत विद्वान् ब्राह्मण होता है ॥ २६-३३ ॥

गयां प्रदक्षिणीकृत्य गयाविप्रान् प्रपूज्य च ।

अन्नदानादिकं सर्वं कृतन्तत्राक्षयं भवेत् ॥३४॥

स्तुत्वा सम्प्रार्थयेदेवमादिदेवं गदाधरम् ।

गदाधरं गयावासं पित्रादीनां गतिप्रदम् ॥३५॥

धर्मार्थकाममोक्षार्थं योगदं प्रणमाम्यहम् ।

देहेन्द्रियमनोबुद्धिप्राणाहङ्कारवर्जितम् ॥३६॥

नित्यशुद्धं बुद्धियुक्तं सत्यं ब्रह्म नमाम्यहम् ।

आनन्दमद्वयं देवं देवदानववन्दितम् ॥३७॥

देवदेवीवृन्दयुक्तं सर्वदा प्रणमाम्यहम् ।

कलिकल्मषकालार्तिदमनं वनमालिनम् ॥३८॥

पालिताखिललोकेशं कुलोद्धरणमानसम् ।

व्यक्ताव्यक्तविभक्तात्माविभक्तात्मानमात्मनि ॥३९॥

स्थितं स्थिरतरं सारं वन्दे घोराघमर्दनम् ।

आगतोऽस्मि गयां देव पितृकार्ये गदाधरः ॥४०॥

त्वं मे साक्षी भवाद्येह अनृणोऽहमृणत्रयात् ।

साक्षिणः सन्तु मे देवा ब्रह्मेशानादयस्तथा ॥४१॥

मया गयां समासाद्य पितॄणां निष्कृतिः कृता ।

गयामाहात्म्यपठनाच्छ्राद्धादौ ब्रह्मलोकभाक् ॥४२॥

पितॄणामक्षयं श्राद्धमक्षयं ब्रह्मलोकदम् ॥४३॥

गया की परिक्रमा करके वहाँ के ब्राह्मणों का पूजन करने से गया तीर्थ में किया हुआ अन्नदान आदि सम्पूर्ण पुण्य अक्षय होता है। भगवान् गदाधर की स्तुति करके इस प्रकार प्रार्थना करे- 'जो आदिदेवता, गदा धारण करनेवाले, गया के निवासी तथा पितर आदि को सद्गति देनेवाले हैं, उन योगदाता भगवान् गदाधर को मैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिये प्रणाम करता हूँ। वे देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि प्राण और अहंकार से शून्य हैं। नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, द्वैतशून्य तथा देवता और दानवों से वन्दित हैं। देवताओं और देवियों के समुदाय सदा उनकी सेवा में उपस्थित रहते हैं; मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ। वे कलि के कल्मष (पाप) और काल की पीड़ा का नाश करनेवाले हैं। उनके कण्ठ में वनमाला सुशोभित होती है। सम्पूर्ण लोकपालों का भी उन्हीं के द्वारा पालन होता है। वे सबके कुलों का उद्धार करने में मन लगाते हैं। व्यक्त और अव्यक्त - सबमें अपने स्वरूप को विभक्त करके स्थित होते हुए भी वे वास्तव में अविभक्तात्मा ही हैं। अपने स्वरूप में ही उनकी स्थिति है। वे अत्यन्त स्थिर और सारभूत हैं तथा भयंकर पापों का भी मर्दन करनेवाले हैं। मैं उनके चरणों में मस्तक झुकाता हूँ। देव! भगवान् गदाधर! मैं पितरों का श्राद्ध करने के निमित्त गया में आया हूँ। आप यहाँ मेरे साक्षी होइये। आज मैं तीनों ऋणों से मुक्त हो गया। ब्रह्मा और शंकर आदि देवता मेरे लिये साक्षी बनें। मैंने गया में आकर अपने पितरों का उद्धार कर दिया। श्राद्ध आदि में गया के इस माहात्म्य का पाठ करने से मनुष्य ब्रह्मलोक का भागी होता है। गया में पितरों का श्राद्ध अक्षय होता है। वह अक्षय ब्रह्मलोक देनेवाला है ।। ३४-४३ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे गयामाहात्म्ये गयायात्रा नाम षोडशाधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'गया में श्राद्ध की विधि' विषयक एक सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११६ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 117

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]