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अग्निपुराणम् अध्यायः ११५ – गयायात्राविधिः
अथ पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः
अग्निरुवाच
उद्यतश्चेद्गयां
यातुं श्राद्धं कृत्वा विधानतः ।
विधाय
कार्पटीवेशं ग्रामस्यापि प्रदक्षिणं ॥१॥
कृत्वा
प्रतिदिनङ्गच्छेत्संयतश्चाप्रतिग्रही ।
गृहाच्चलितमात्रस्य
गयया गमनं प्रति ॥२॥
स्वर्गारोहणसोपानं
पितॄणान्तु पदे पदे ।
ब्रह्मज्ञानेन
किं कार्यं गोगृहे मरणेन किं ॥३॥
किं
कुरुक्षेत्रवासेन यदा पुत्रो गयां व्रजेत् ।
गयाप्राप्तं
सुतं दृष्ट्वा पितॄणामुत्सवो भवेत् ॥४॥
पद्भ्यामपि
जलं स्पृष्ट्वा अस्मभ्यं किन्न दास्यति ।
ब्रह्मज्ञानं
गयाश्राद्धं गोगृहे मरणं तथा ॥५॥
वासः पुंसां
कुरुक्षेत्रे मुक्तिरेषा चतुर्विधा ।
काङ्क्षन्ति
पितरः पुत्रं नरकाद्भयभीरवः ॥६॥
गयां यास्यति
यः पुत्रः स नस्त्राता भविष्यति ।
अग्निदेव कहते
हैं- यदि मनुष्य गया जाने को उद्यत हो तो विधिपूर्वक श्राद्ध करके तीर्थयात्री का
वेष धारणकर अपने गाँव की परिक्रमा कर ले: फिर प्रतिदिन पैदल यात्रा करता रहे। मन
और इन्द्रियों को वश में रखे। किसी से कुछ दान न ले । गया जाने के लिये घर से चलते
ही पग-पग पर पितरों के लिये स्वर्ग में जाने की सीढ़ी बनने लगती है। यदि पुत्र
(पितरों का श्राद्ध करने के लिये) गया चला जाय तो उससे होनेवाले पुण्य के सामने
ब्रह्मज्ञान की क्या कीमत है? गौओं को संकट से छुड़ाने के लिये प्राण देने पर भी क्या उतना पुण्य होना
सम्भव है? फिर तो कुरुक्षेत्र में निवास करने की भी क्या
आवश्यकता है? पुत्र को गया में पहुँचा हुआ देखकर पितरों के
यहाँ उत्सव होने लगता है। वे कहते हैं-'क्या यह पैरों से भी
जल का स्पर्श करके हमारे तर्पण के लिये नहीं देगा?' ब्रह्मज्ञान,
गया में किया हुआ श्राद्ध, गोशाला में मरण और
कुरुक्षेत्र में निवास – ये मनुष्यों की मुक्ति के चार साधन
हैं। नरक के भय से डरे हुए पितर पुत्र की
अभिलाषा रखते हैं। वे सोचते हैं, जो पुत्र गया में जायगा,
वह हमारा उद्धार कर देगा ॥ १-६अ ॥
मुण्डनञ्चोपवासश्च
सर्वतीर्थेष्वयं विधिः ॥७॥
न
कालादिर्गयातीर्थे दद्यात्पिण्डांश्च नित्यशः ।
पक्षत्रयनिवासी
च पुनात्यासप्ततमं कुलं ॥८॥
अष्टकासु च
वृद्धौ च गयायां मृतवासरे ।
अत्र मातुः
पृथक्श्राद्धमन्यत्र पतिना सह ॥९॥
पित्रादिनवदैवत्यं
तथा द्वादशदैवतं ।
मुण्डन और
उपवास - यह सब
तीर्थों के लिये साधारण विधि है। गयातीर्थ में काल आदि का कोई नियम नहीं है। वहाँ
प्रतिदिन पिण्डदान देना चाहिये। जो वहाँ तीन पक्ष (डेढ़ मास) निवास करता है, वह सात पीढ़ीतक के पितरों को पवित्र कर
देता है। अष्टका* तिथियों में, आभ्युदयिक कार्यों में तथा पिता आदि की क्षयाह तिथि को भी यहाँ गया में
माता के लिये पृथक् श्राद्ध करने का विधान है। अन्य तीर्थों में स्त्री का श्राद्ध
उसके पति के साथ ही होता है। गया में पिता आदि के क्रम से 'नव
देवताक' अथवा 'द्वादशदेवताक'* श्राद्ध करना आवश्यक है'
॥ ७ – ९अ ॥
* १.मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा के
बाद जो चार कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथियाঁ आती हैं, उन्हें 'अष्टका' कहते
हैं। उनके चार पृथक्-पृथक् नाम हैं पौष कृष्ण अष्टमी को 'ऐन्द्री',
माघ कृष्ण अष्टमी को 'वैश्वोदेवी', फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को 'प्राजापत्या' और चैत्र कृष्ण अष्टमी को 'पित्र्या' कहते हैं।
उक्त
चार अष्टकाओं का क्रमशः इन्द्र, विश्वेदेव, प्रजापति तथा पितृ देवता से
सम्बन्ध है। अष्टका के दूसरे दिन जो नवमी आती है, उसे 'अन्वष्टका' कहते हैं। 'अष्टका
संस्कार' कर्म है अतः एक ही बार किया जाता है, प्रतिवर्ष नहीं उस दिन मातृपूजा और आभ्युदयिक श्राद्ध के पक्षात्
गृह्याग्नि में होम किया जाता है।
*२. पिता पितामह प्रपितामह, माता, पितामही,
प्रपितामही, मातामह, प्रमातामह
तथा वृद्ध प्रमातामह ये नौ देवता हैं। इनके लिये किया जानेवाला श्राद्ध 'नवदेवताक' या 'नवदैवत्य'
कहलाता है। इसमें मातामही आदि का भाग मातामह आदि के साथ ही सम्मिलित
रहता है। जहाँ मातामही, प्रमातामही और वृद्ध प्रमातामही को
भी पृथक् पिण्ड दिया जाय, वहाँ बारह देवता होने से वह 'द्वादशदेवताक' श्राद्ध है।
प्रथमे दिवसे
स्नायात्तीर्थे ह्युत्तरमानसे ॥१०॥
उत्तरे मानसे
पुण्ये आयुरारोग्यवृद्धये ।
सर्वाघौघविघाताय
स्नानं कुर्याद्विमुक्तये ॥११॥
सन्तर्प्य
देवपित्रादीन् श्राद्धकृत्पिण्डदो भवेत् ।
दिव्यान्तरिक्षभौमस्थान्
देवान् सन्तर्पयाम्यहं ॥१२॥
दिव्यान्तरिक्षभौमादि
पितृमात्रादि तर्पयेत् ।
पिता
पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः ॥१३॥
माता पितामही
चैव तथैव प्रपितामही ।
मातामहः
प्रमातामहो वृद्धप्रमातामहः ॥१४॥
तेभ्योऽन्येभ्य
इमान् पिण्डानुद्धाराय ददाम्यहं ।
ओं नमः
सूर्यदेवाय सोमभौमज्ञरूपिणे ॥१५॥
जीवशुक्रशनैश्चारिराहुकेतुस्वरूपिणे
।
उत्तरे मानसे
स्नाता उद्धरेत्सकलं कुलं ॥१६॥
पहले दिन
उत्तर- मानस तीर्थ में स्नान करे। परम पवित्र उत्तर- मानस तीर्थ में किया हुआ
स्नान आयु और आरोग्य की वृद्धि, सम्पूर्ण पाप राशियों का विनाश तथा मोक्ष की सिद्धि करनेवाला है; अतः वहाँ अवश्य स्नान करे। स्नान के बाद पहले देवता और पितर आदि का तर्पण
करके श्राद्धकर्ता पुरुष पितरों को पिण्डदान दे। तर्पण के समय यह भावना करे कि 'मैं स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा भूमि पर रहनेवाले
सम्पूर्ण देवताओं को तृप्त करता हूँ।' स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा भूमि के देवता आदि एवं पिता-माता आदि का तर्पण करे। फिर इस
प्रकार कहे- 'पिता, पितामह और
प्रपितामह; माता, पितामही और
प्रपितामही तथा मातामह, प्रमातामह और वृद्ध प्रमातामह - इन
सबको तथा अन्य पितरों को भी उनके उद्धार के लिये मैं पिण्ड देता हूँ। सोम, मङ्गल और बुधस्वरूप तथा बृहस्पति, शुक्र, शनैश्वर, राहु और केतुरूप भगवान् सूर्य को प्रणाम
है।' उत्तर - मानस - तीर्थ में स्नान करनेवाला पुरुष अपने
समस्त कुल का उद्धार कर देता है ॥ १०- १६ ॥
सूर्यं नत्वा
व्रजेन्मौनी नरो दक्षिणमानसं ।
दक्षिणे मानसे
स्नानं करोमि पितृतृप्तये ॥१७॥
गयायामागतः
स्वर्गं यान्तु मे पितरोऽखिलाः ।
श्राद्धं
पिण्डन्ततः कृत्वा सूर्यं नत्वा वदेदिदं ॥१८॥
ओं नमो भानवे
भर्त्रे भवाय भव मे विभो ।
भुक्तिमुक्तिप्रदः
सर्वपितॄणां भवभावितः ॥१९॥
कव्यवाहोऽनलः
सोमो यमश्चैवार्यमा तथा ।
अग्निष्वात्ता
वर्हिषद आज्यपाः पितृदेवताः ॥२०॥
आगच्छन्तु
महाभागा युष्माभी रक्षितास्त्विह ।
मदीयाः पितरो
ये च मातृमातामहादयः ॥२१॥
तेषां
पिण्डप्रदाताहमागतोऽस्मि गयामिमां ।
उदीच्यां
मुण्डपृष्ठस्य देवर्षिगणपूजितं ॥२२॥
नाम्ना कनखलं
तीर्थं त्रिषु लोकेषु विश्रुतं ।
सिद्धानां प्रीतिजननैः
पापानाञ्च भयङ्करैः ॥२३॥
लेलिहानैर्महानागै
रक्ष्यते चैव नित्यशः ।
तत्र स्नात्वा
दिवं यान्ति क्रीडन्ते भुवि मानवाः ॥२४॥
सूर्यदेव को
नमस्कार करके मनुष्य मौन- भाव से दक्षिण-मानस तीर्थ को जाय और यह भावना करे –'मैं पितरों की तृप्ति के लिये दक्षिण-मानस –
तीर्थ में स्नान करता हूँ। मैं गया में इसी उद्देश्य से आया हूँ कि मेरे सम्पूर्ण
पितर स्वर्गलोक को चले जायें।' तदनन्तर श्राद्ध और पिण्डदान
करके भगवान् सूर्य को प्रणाम करते हुए इस प्रकार कहे - 'सबका
भरण-पोषण करनेवाले भगवान् भानु को नमस्कार है। प्रभो! आप मेरे अभ्युदय के साधक
हों। मैं आपका ध्यान करता हूँ। आप मेरे सम्पूर्ण पितरों को भोग और मोक्ष देनेवाले
हों। कव्यवाट्, अनल, सोम, यम, अर्यमा, अग्निष्वात्त, बर्हिषद तथा आज्यप नामवाले महाभाग पितृ- देवता यहाँ पदार्पण करें।
आपलोगों के द्वारा सुरक्षित जो मेरे पिता-माता, मातामह आदि
पितर हैं, उनको पिण्डदान करने के उद्देश्य से मैं इस
गयातीर्थ में आया हूँ।' मुण्डपृष्ठ के उत्तर भाग में देवताओं
और ऋषियों से पूजित जो 'कनखल' नामक
तीर्थ है, वह तीनों लोकों में विख्यात है। सिद्ध पुरुषों के
लिये आनन्ददायक और पापियों के लिये भयंकर बड़े-बड़े नाग, जिनकी
जीभ लपलपाती रहती है, उस तीर्थ की प्रतिदिन रक्षा करते हैं।
वहाँ स्नान करके मनुष्य इस भूतल पर सुखपूर्वक क्रीडा करते और अन्त में स्वर्गलोक को
जाते हैं ॥ १७ - २४ ॥
फल्गुतीर्थं
ततो गच्छेन्महानद्यां स्थितं परं ।
नागाज्जनार्दनात्कूपाद्वटाच्चोत्तरमानसात्
॥२५॥
एतद्गयाशिरः
प्रोक्तं फल्गुतीर्थं तदुच्यते ।
मुण्डपृष्ठनगाद्याश्च
सारात्सारमथान्तरं ॥२६॥
यस्मिन् फलति
श्रीर्गौर्वा कामधेनुर्जलं मही ।
दृष्टिरम्यादिकं
यस्मात्फल्गुतीर्थं न फल्गुवत् ॥२७॥
फल्गुतीर्थे
नरः स्नात्वा दृष्ट्वा देवं गदाधरं ।
एतेन किं न
पर्याप्तं नृणां सुकृतकारिणां ॥२८॥
पृथिव्यां
यानि तीर्थानि आसमुद्रात्सरांसि च ।
फल्गुतीर्थं
गमिष्यन्ति वारमेकं दिने दिने ॥२९॥
फल्गुतीर्थे
तीर्थराजे करोति स्नानमादृतः ।
पितॄणां
ब्रह्मलोकाप्त्यै आत्मनो भुक्तिमुक्तये ॥३०॥
तत्पश्चात्
महानदी में स्थित परम उत्तम फल्गु- तीर्थ पर जाय। यह नाग, जनार्दन, कूप,
वट और उत्तर- मानस से भी उत्कृष्ट है। इसे 'गया
का शिरोभाग' कहा गया है। गयाशिर को ही 'फल्गु तीर्थ' कहते हैं। यह मुण्डपृष्ठ और नग आदि
तीर्थ की अपेक्षा सार से भी सार वस्तु है। इसे 'आभ्यन्तर
तीर्थ' कहा गया है। जिसमें लक्ष्मी, कामधेनु
गौ, जल और पृथ्वी सभी फलदायक होते हैं तथा जिससे दृष्टि
रमणीय, मनोहर वस्तुएँ फलित होती हैं, वह
'फल्गु तीर्थ' है। फल्गु तीर्थ किसी
हलके- फुलके तीर्थ के समान नहीं है। फल्गु तीर्थ में स्नान करके मनुष्य भगवान् गदाधर
का दर्शन करे तो इससे पुण्यात्मा पुरुषों को क्या नहीं प्राप्त होता? भूतल पर समुद्र पर्यन्त जितने भी तीर्थ और सरोवर हैं, वे सब प्रतिदिन एक बार फल्गु- तीर्थ में जाया करते हैं। जो तीर्थराज फल्गु
तीर्थ में श्रद्धा के साथ स्नान करता है, उसका वह स्नान पितरों
को ब्रह्मलोक की प्राप्ति करानेवाला तथा अपने लिये भोग और मोक्ष की सिद्धि
करनेवाला होता है ।। २५-३० ॥
स्नात्वा
श्राद्धी पिण्डदोऽथ नमेद्देवं पितामहं ।
कलौ माहेश्वरा
लोका अत्र देवो गदाधरः ॥३१॥
पितामहो
लिङ्गरूपी तन्नमामि महेश्वरं ।
गदाधरं बलं
काममनिरुद्धं नरायणं ॥३२॥
ब्रह्मविष्णुनृसिंहाख्यं
वराहादिं नमाम्यहं ।
ततो गदाधरं
दृष्ट्वा कुलानां शतमुद्धरेत् ॥३३॥
धर्मारण्यं
द्वितीयेऽह्नि मतङ्गस्याश्रमे वरे ।
मतङ्गवाप्यां
संस्नाय श्राद्धकृत्पिण्डदो भवेत् ॥३४॥
मतङ्गेशं
सुसिद्धेशं नत्वा चेदमुदीरयेत् ।
प्रमाणं
देवताः सन्तु लोकपालाश्च साक्षिणः ॥३५॥
मयागत्य
मतङ्गेऽस्मिन् पितॄणां निष्कृतिः कृता ।
स्नानतर्पणश्राद्धादिर्ब्रह्मतीर्थेऽथ
कूपके ॥३६॥
तत्कूपयूपयोर्मध्ये
श्राद्धं कुलशतोद्धृतौ ।
महाबोधतरुं
नत्वा धर्मवान् स्वर्गलोकभाक् ॥३७॥
तृतीये
ब्रह्मसरसि स्नानं कुर्याद्यतव्रतः ।
स्नानं
ब्रह्मसरस्तीर्थे करोमि ब्रह्मभूतये ॥३८॥
पितॄणां
ब्रह्मलोकाय ब्रह्मर्षिगणसेविते ।
तर्पणं
श्राद्धकृत्पिण्डं प्रदद्यात्तु प्रसेचनं ।
कुर्याच्च
वाजपेयार्थी ब्रह्मयूपप्रदक्षिणं ॥३९॥
श्राद्धकर्ता
पुरुष स्नान के पश्चात् भगवान् ब्रह्माजी को प्रणाम करे। (उस समय इस प्रकार कहे -
) 'कलियुग में सब लोग महेश्वर के उपासक हैं;
किंतु इस गया तीर्थ में भगवान् गदाधर उपास्यदेव हैं। यहाँ
लिङ्गस्वरूप ब्रह्माजी का निवास है, उन्हीं महेश्वर को मैं
नमस्कार करता हूँ। भगवान् गदाधर (वासुदेव), बलराम (संकर्षण),
प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, नारायण,
ब्रह्मा, विष्णु, नृसिंह
तथा वराह आदि को मैं प्रणाम करता हूँ।' तदनन्तर श्रीगदाधर का
दर्शन करके मनुष्य अपनी सौ पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। दूसरे दिन धर्मारण्य
तीर्थ का दर्शन करे। वहाँ मतङ्ग मुनि के श्रेष्ठ आश्रम में मतङ्ग वापी के जल में
स्नान करके श्राद्धकर्ता पुरुष पिण्डदान करे। वहाँ मतङ्गेश्वर एवं सुसिद्धेश्वर को
मस्तक झुकाकर इस प्रकार कहे – सम्पूर्ण देवता प्रमाणभूत होकर
रहें, समस्त लोकपाल साक्षी हों, मैंने
इस मतङ्ग-तीर्थ में आकर पितरों का उद्धार कर दिया।' तत्पश्चात्
ब्राह्म-तीर्थ नामक कूप में स्नान, तर्पण और श्राद्ध आदि
करे। उस कूप और यूप के मध्यभाग में किया हुआ श्राद्ध सौ पीढ़ियों का उद्धार
करनेवाला है। वहाँ धर्मात्मा पुरुष महाबोधि- वृक्ष को नमस्कार करके स्वर्गलोक का
भागी होता है। तीसरे दिन नियम एवं व्रत का पालन करनेवाला पुरुष 'ब्रह्म-सरोवर' नामक तीर्थ में स्नान करे। उस समय इस
प्रकार प्रार्थना करे - 'मैं ब्रह्मर्षियों द्वारा सेवित
ब्रह्म सरोवर तीर्थ में पितरों को ब्रह्मलोक की प्राप्ति कराने के लिये स्नान करता
हूँ।' श्राद्धकर्ता पुरुष तर्पण करके पिण्डदान दे। फिर वृक्ष
को सींचे। जो वाजपेय यज्ञ का फल पाना चाहता हो, वह ब्रह्माजी
द्वारा स्थापित यूप की प्रदक्षिणा करे ॥ ३१-३९ ॥
एको मुनिः
कुम्भकुशाग्रहस्त आम्रस्य मूले सलिलं ददाति ।
आम्राश्च
सिक्ताः पितरश्च तृप्ता एका क्रिया द्व्यर्थकरी प्रसिद्धा ॥४०॥
ब्रह्माणञ्च
नमस्कृत्य कुलानां शतमुद्धरेत् ।
फल्गुतीर्थे
चतुर्थेऽह्नि स्नात्वा देवादितर्पणं ॥४१॥
कृत्वा
श्राद्धं सपिण्डञ्च गयाशिरसि कारयेत् ।
पञ्चक्रोशं
गयाक्षेत्रं क्रोशमेकं गयाशिरः ॥४२॥
तत्र
पिण्डप्रदानेन कुलानां शतमुद्धरेत् ।
मुण्डपृष्ठे
पदं न्यस्तं महादेवेन धीमता ॥४३॥
मुण्डपृष्ठे
शिरः साक्षाद्गयाशिर उदाहृतं ।
साक्षाद्गयाशिरस्तत्र
फल्गुतीर्थाश्रमं कृतं ॥४४॥
अमृतं तत्र
वहति पितॄणां दत्तमक्षयं ।
स्नात्वा
दशाश्वमेधे तु दृष्ट्वा देवं पितामहं ॥४५॥
रुद्रपादं नरः
स्पृष्ट्वा नेह भूयोऽभिजायते ।
शमीपत्रप्रमाणेन
पिण्डं दत्वा गयाशिरे ॥४६॥
नरकस्था दिवं
यान्ति स्वर्गस्था मोक्षमाप्नुयुः ।
पायसेनाथ
पिष्टेन सक्तुना चरुणा तथा ॥४७॥
पिण्डदानं
तण्डुलैश्च गोधूमैस्तिलमिश्रितैः ।
पिण्डं दत्वा
रुद्रपदे कुलानां शतमुद्धरेत् ॥४८॥
उस तीर्थ में
एक मुनि रहते थे, वे जल का घड़ा और कुश का अग्रभाग हाथ में लिये आम के पेड़ की जड़ में पानी
देते थे। इससे आम भी सींचे गये और पितरों की भी तृप्ति हुई। इस प्रकार एक ही
क्रिया दो प्रयोजन सिद्ध करनेवाली हो गयी। ब्रह्माजी को नमस्कार करके मनुष्य अपनी
सौ पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। चौथे दिन फल्गु-तीर्थ में स्नान करके देवता आदि
का तर्पण करे। फिर गयाशीर्ष में श्राद्ध और पिण्डदान करे । गया का क्षेत्र पाँच
कोस का है। उसमें एक कोस केवल 'गयाशीर्ष' है। उसमें पिण्डदान करके मनुष्य अपनी सौ पीढ़ियों का उद्धार कर सकता है।
परम बुद्धिमान् महादेवजी ने मुण्डपृष्ठ में अपना पैर रखा है। मुण्डपृष्ठ में ही
गयासुर का साक्षात् सिर है, अतएव उसे 'गया-शिर'
कहते हैं। जहाँ साक्षात् गयाशीर्ष हैं, वहीं
फल्गु तीर्थ का आश्रय है। फल्गु अमृत की धारा बहाती है। वहाँ पितरों के उद्देश्य से
किया हुआ दान अक्षय होता है। दशाश्वमेध तीर्थ में स्नान तथा ब्रह्माजी का दर्शन
करके महादेवजी के चरण (रुद्रपाद) - का स्पर्श करने पर मनुष्य पुन: इस लोक में जन्म
नहीं लेता। गयाशीर्ष में शमी के पत्ते बराबर पिण्ड देने से भी नरकों में पड़े हुए
पितर स्वर्ग को चले जाते हैं और स्वर्गवासी पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
वहाँ खीर, आटा, सत्तू, चरु और चावल से पिण्डदान करे। तिलमिश्रित गेहूँ से भी रुद्रपाद में
पिण्डदान करके मनुष्य अपनी सौ पीढ़ियों का उद्धार कर सकता है ॥४०-४८॥
तथा विष्णुपदे
श्राद्धपिण्डदो ह्यृणमुक्तिकृत् ।
पित्रादीनां
शतकुलं स्वात्मानं तारयेन्नरः ॥४९॥
तथा ब्रह्मपदे
श्राद्धी ब्रह्मलोकं नयेत्पितॄन् ।
दक्षिणाग्निपदे
तद्वद्गार्हपत्यपदे तथा ॥५०॥
पदे
वाहवनीयस्य श्राद्धी यज्ञफलं लभेत् ।
आवसथ्यस्य
चन्द्रस्य सूर्यस्य च गणस्य च ॥५१॥
अगस्त्यकार्त्तिकेयस्य
श्राद्धी तारयते कुलं ।
आदित्यस्य रथं
नत्वा कर्णादित्यं नमेन्नरः ॥५२॥
कनकेशपदं
नत्वा गयाकेदारकं नमेत् ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः
पितॄन् ब्रह्मपुरं नयेत् ॥५३॥
विशालोऽपि
गयाशीर्षे पिण्डदोऽभूच्च पुत्रवान् ।
विशालायां
विशालोऽभूद्राजपुत्रोऽब्रवीद्द्विजान् ॥५४॥
कथं पुत्रादयः
स्युर्मे द्विजा ऊचुर्विशालकं ।
गयायां
पिण्डदानेन तव सर्वं भविष्यति ॥५५॥
विशालोऽपि
गयाशीर्षे पितृपिण्डान्ददौ ततः ।
दृष्ट्वाकाशे
सितं रक्तं पुरुषांस्तांश्च पृष्टवान् ॥५६॥
के यूयं तेषु
चैवैकः सितः प्रोचे विशालकं ।
अहं सितस्ते
जनक इन्द्रलोकं गतः शुभान् ॥५७॥
मम रक्तः पिता
पुत्र कृष्णश्चैव पितामहः ।
अब्रवीन्नरकं
प्राप्ता त्वया मुक्तीकृता वयं ॥५८॥
पिण्डदानाद्ब्रह्मलोकं
व्रजाम इति ते गताः ।
विशालः
प्राप्तपुत्रादिः राज्यं कृत्वा हरिं ययौ ॥५९॥
इसी प्रकार 'विष्णुपदी में भी श्राद्ध और पिण्डदान
करनेवाला पुरुष पितृ ऋण से छुटकारा पाता है और पिता आदि ऊपर की सौ पीढ़ियों तथा
अपने को भी तार देता है 'ब्रह्मपद में श्राद्ध करनेवाला मानव
अपने पितरों को ब्रह्मलोक में पहुँचाता है। दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य
अग्नि तथा आहवनीय अग्नि के स्थान में श्राद्ध करनेवाला पुरुष यज्ञफल का भागी होता
है। आवसथ्याग्नि, चन्द्रमा, सूर्य,
गणेश, अगस्त्य और कार्तिकेय के स्थान में
श्राद्ध करनेवाला मनुष्य अपने कुल का उद्धार कर देता है। मनुष्य सूर्य के रथ को
नमस्कार करके कर्णादित्य को मस्तक झुकावे। कनकेश्वर के पद को प्रणाम करके
गया-केदार तीर्थ को नमस्कार करे। इससे मनुष्य सब पापों से छुटकारा पाकर अपने
पितरों को ब्रह्मलोक में पहुँचा देता है। विशाल भी गयाशीर्ष में पिण्डदान करने से
पुत्रवान् हुए। कहते हैं, विशाला नगरी में एक 'विशाल' नाम से प्रसिद्ध राजपुत्र थे। उन्होंने
ब्राह्मणों से पूछा- मुझे पुत्र आदि की उत्पत्ति किस प्रकार होगी ?' यह सुनकर ब्राह्मणों ने विशाल से कहा- 'गया में
पिण्डदान करने से तुम्हें सब कुछ प्राप्त होगा।' तब विशाल ने
भी गयाशीर्ष में पितरों को पिण्डदान किया। उस समय आकाश में उन्हें तीन पुरुष
दिखायी दिये, जो क्रमशः श्वेत, लाल और काले
थे। विशाल ने उनसे पूछा- आप लोग कौन हैं ?' उनमें से एक
श्वेतवर्णवाले पुरुष ने विशाल से कहा- 'मैं तुम्हारा पिता
हूँ; मेरा वर्ण श्वेत है मैं अपने शुभकर्म से इन्द्रलोक में
गया था । बेटा! ये लाल रंगवाले मेरे पिता और काले रंगवाले मेरे पितामह थे। ये नरक में
पड़े थे; तुमने हम सबको मुक्त कर दिया। तुम्हारे पिण्डदान से
हमलोग ब्रह्मलोक में जा रहे हैं।' यों कहकर वे तीनों चले
गये। विशाल को पुत्र-पौत्र आदि की प्राप्ति हुई। उन्होंने राज्य भोगकर मृत्यु के
पश्चात् भगवान् श्रीहरि को प्राप्त कर लिया ।। ४९-५९ ॥
प्रेतराजः
स्वमुक्त्यै च वणिजञ्चेदमब्रवीत् ।
प्रेतैः
सर्वैः सहार्तः सन् सुकृतं भुज्यते फलं ॥६०॥
श्रवणद्वादशीयोगे
कुम्भः सान्नश्च सोदकः ।
दत्तः पुरा स
मध्याह्ने जीवनायोपतिष्ठते ॥६१॥
धनं गृहीत्वा
मे गच्छ गयायां पिण्डदो भव ।
वणिग्धनं
गृहीत्वा तु गयायां पिण्डदोऽभवत् ॥६२॥
प्रेतराजः सह
प्रेतैर्मुक्तो नीतो हरेः पुरं ।
गयाशीर्षे
पिण्डदानादात्मानं स्वपितॄंस्तथा ॥६३॥
एक प्रेतों का
राजा था, जो अन्य प्रेतों के साथ बहुत पीड़ित रहता
था। उसने एक दिन एक वणिक् से अपनी मुक्ति के लिये इस प्रकार कहा- 'भाई! हमारे द्वारा एक ही पुण्य हुआ था, जिसका फल
यहाँ भोगते हैं। पूर्वकाल में एक बार श्रवण- नक्षत्र और द्वादशी तिथि का योग आने पर
हमने अन्न और जलसहित कुम्भदान किया था; वही प्रतिदिन
मध्याह्न के समय हमारी जीवन रक्षा के लिये उपस्थित होता है। तुम हमसे धन लेकर गया
जाओ और हमारे लिये पिण्डदान करो।' वणिक् ने उससे धन लिया और
गया में उसके निमित्त पिण्डदान किया। उसका फल यह हुआ कि वह प्रेतराज अन्य सब
प्रेतों के साथ मुक्त होकर श्रीहरि के धाम में जा पहुँचा। गयाशीर्ष में पिण्डदान
करने से मनुष्य अपने पितरों का तथा अपना भी उद्धार कर देता है ।। ६०-६३॥
पितृवंशे सुता
ये च मातृवंशे तथैव च ।
गुरुश्वशुरबन्धूनां
ये चान्ये बान्धवा मृताः ॥६४॥
ये मे कुले
लुप्तपिण्डाः पुत्रदारविवर्जिताः ।
क्रियालोपगता
ये च जात्यन्धाः पुङ्गवस्तथा ॥६५॥
विरूपा
आमगर्भा ये ज्ञाताज्ञाताः कुले मम ।
तेषां पिण्डो
मया दत्तो ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतां ॥६६॥
ये
केचित्प्रेतरूपेण तिष्ठन्ति पितरो मम ।
ते सर्वे
तृप्तिमायान्तु पिण्डदानेन सर्वदा ॥६७॥
पिण्डो
देयस्तु सर्वेभ्यः सर्वैर्वै कुलतारकैः ।
आत्मनस्तु तथा
देयो ह्यक्षयं लोकमिच्छता ॥६८॥
वहाँ पिण्डदान
करते समय इस प्रकार कहना चाहिये – 'मेरे पिता के कुल में तथा माता के वंश में और गुरु, श्वशुर
एवं बन्धुजनों के वंश में जो मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, इनके
अतिरिक्त भी जो बन्धु बान्धव मरे हैं, मेरे कुल में जिनका
श्राद्ध- कर्म - पिण्डदान आदि लुप्त हो गया है, जिनके कोई
स्त्री पुत्र नहीं रहा है, जिनके श्राद्ध कर्म नहीं होने
पाये हैं, जो जन्म के अंधे, लँगड़े और
विकृत रूपवाले रहे हैं, जिनका अपक्क गर्भ के रूप में निधन
हुआ है, इस प्रकार जो मेरे कुल के ज्ञात एवं अज्ञात पितर हों,
वे सब मेरे दिये हुए इस पिण्डदान से सदा के लिये तृप्त हो जायें। जो
कोई मेरे पितर प्रेतरूप से स्थित हों, वे सब यहाँ पिण्ड देने
से सदा के लिये तृप्ति को प्राप्त हों।' अपने कुल को
तारनेवाली सभी संतानों का कर्तव्य है कि वे अपने सम्पूर्ण पितरों के उद्देश्य से
वहाँ पिण्ड दें तथा अक्षय लोक की इच्छा रखनेवाले पुरुष को अपने लिये भी पिण्ड
अवश्य देना चाहिये ॥ ६४ - ६८ ॥
पञ्चमेऽह्नि
गदालोले स्नायान्मन्त्रेण बुद्धिमान् ।
गदाप्रक्षालने
तीर्थे गदालोलेऽतिपावने ॥६९॥
स्नानं करोमि संसारगदशान्त्यै
जनार्दन ।
बुद्धिमान्
पुरुष पाँचवें दिन 'गदालोल' नामक तीर्थ में स्नान करे। उस समय इस मन्त्र
का पाठ करे- 'भगवान् जनार्दन ! जिसमें आप की गदा का
प्रक्षालन हुआ था, उस अत्यन्त पावन 'गदालोल'
नामक तीर्थ में मैं संसाररूपी रोग की शान्ति के लिये स्नान करता हूँ'
॥ ६९अ ॥
नमोऽक्षयवटायैव
अक्षयस्वर्गदायिने ॥७०॥
पित्रादीनामक्षयाय
सर्वपापक्षयाय च ।
श्राद्धं
वटतले कुर्याद्ब्राह्मणानाञ्च भोजनं ॥७१॥
'अक्षय
स्वर्ग प्रदान करनेवाले अक्षयवट को नमस्कार है। जो पिता पितामह आदि के लिये अक्षय
आश्रय है तथा सब पापों का क्षय करनेवाला है, उस अक्षय वट को
नमस्कार है।'-यों प्रार्थना कर वट के नीचे श्राद्ध करके
ब्राह्मण भोजन करावे ॥ ७०-७१ ॥
एकस्मिन्
भोजिते विप्रे कोटिर्भवति भोजिता ।
किम्पुनर्बहुभिर्भुक्तैः
पितॄणां दत्तमक्षयं ॥७२॥
गयायामन्नदाता
यः पितरस्तेन पुत्रिणः ।
वटं वटेश्वरं
नत्वा पूजयेत्प्रपितामहं ॥७३॥
अक्षयांल्लभते
लोकान् कुलानां शतमुद्धरेत् ।
क्रमतोऽक्रमतो
वापि गयायात्रा महाफला ॥७४॥
वहाँ एक
ब्राह्मण को भोजन कराने से कोटि ब्राह्मणों को भोजन कराने का पुण्य होता है। फिर
यदि बहुत से ब्राह्मणों को भोजन कराया जाय, तब तो उसके पुण्य का क्या कहना है? वहाँ
पितरों के उद्देश्य से जो कुछ दिया जाता है, वह अक्षय होता
है पितर उसी पुत्र से अपने को पुत्रवान् मानते हैं, जो गया में
जाकर उनके लिये अन्नदान करता है। वट तथा वटेश्वर को नमस्कार करके अपने प्रपितामह का
पूजन करे। ऐसा करनेवाला पुरुष अक्षय लोक में जाता है और अपनी सौ पीढ़ियों का
उद्धार कर देता है। क्रम से हो या बिना क्रम से, गया की
यात्रा महान् फल देनेवाली होती है ॥ ७२–७४ ॥
इत्याग्नेये
महापुराणे गयामाहात्म्ये गयायात्रा नाम पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'गया- यात्रा की विधि का वर्णन' नामक एक सौ पंद्रहवाँ
अध्याय पूरा हुआ॥११५॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 116
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